चर्चा प्लस
क्यों आ रहे हैं तेंदुए विश्वविद्यालय परिसर में ?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
लगभग प्रति वर्ष सागर, म.प्र. के डाॅ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय परिसर में तेंदुआ आदि वन्य पशुओं के दिखने की घटनाएं होती रहती हैं। तेंदुए क्यों आ रहे हैं विश्वविद्यालय परिसर में? कम से कम पढ़ने तो नहीं। खैर, यह हंसी-मज़ाक का विषय नहीं, एक गंभीरता से विचारणीय विषय है। हाल ही में अलग-अलग समय में एक से अधिक तेंदुए विश्वविद्यालय परिसर में देखे गए। तेंदुआ एक वन्य प्राणी है। वन में रहना ही उसे पसंद है। वह कोलाहल भरे शहरी क्षेत्र मे आना पसंद नहीं करता हैं। फिर भी उसका इस तरह शहरी क्षेत्र की ओर रुख करना विचारणीय है। उन कारणों को टटोलना जरूरी है जो इन वन्य प्राणियों को जंगल से बाहर कदम रखने को विवश कर रहे हैं। कहीं हम मनुष्य स्वयं तो नहीं है इसके जिम्मेदार?
मैं पाठकों को याद दिलाना चाहूंगी कि 18.09.2019 को दैनिक ‘सागर दिनकर’ के मेरे इसी चर्चा प्लस काॅलम में मैंने लिखा था ‘‘इंसानी आबादी में क्यों प्रवेश कर रहे हैं वन्यपशु?’’। मुझे लगता है कि सागर के विश्वविद्यालय परिसर में बार-बार तेदुओं को देखे जाने के संदर्भ में एक बार फिर उस लेख पर दृष्टिपात करना जरूरी है क्योंकि उससे सभी जान सकेंगे कि वन्य पशु शहरी क्षेत्रों में बार-बार क्यों प्रवेश करते हैं? तो चलिए देखते हैं मेरे उस लेख में दिए कारणो को।
इंसानी बस्तियों में शेर, तेंदुआ, हाथी या लकड़बग्घे के प्रवेश करने की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह मनुष्य और वन्यपशुओं के बीच का अघोषित संघर्ष है। जिसमें दुर्भाग्यवश सबसे अधिक नुकसान झेल रहे है वह पक्ष जो मांसाहारी और हिंसक कहलाता है। मनुष्यों की भीड़ वन्यपशुओं पर भारी पड़ रही है। यदि वन्यपशु बस्तियों की ओर कदम बढ़ा रहे हैं तो इसका अर्थ है कि उनसे उनका आवास, भोजन, पानी छीना जा रहा है और भूख-प्यास से लाचार हो कर वे मानव-आबादी वाली बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं, जहां मनुष्य आत्मरक्षा के लिए उन्हें मौत के घाट उतरने को तत्पर रहता है। यह संघर्ष रुकना जरूरी है, बिना किसी नुकसान के।
मुंबई की नगरीय आबादी में शेर या तेंदुए के प्रवेश करने के बारे में कल्पना करना भी कठिन है लेकिन नेशनल जियोग्राफी चैनल ने एक वीडियो शूट किया जिसमें शेर को पुल पार कर नगरीय बस्ती में घूमते दिखा था। यह सौ प्रतिशत सच्चा किन्तु चैंका देने वाला वीडियो था। आज छोटे-बड़े शहरों में जिस तरह गाड़ियों के हॉर्न, लाउडस्पीकरों का शोर-शराबा रहता है, वैसे माहौल में शांति पसंद वन्यपशु क्यों आना पसंद करेंगे? लेकिन उनका आना लगातार बढ़ रहा है। 09 सितम्बर 2019 को दमोह शहर के मुख्य बाजार क्षेत्र घंटाघर के समीप नगर पालिका टाउन हॉल परिसर में एक तेंदुआ के घुसे होने की जानकारी के बाद हड़कंप मच गया। जिसे पुलिस की डायल हंड्रेड टीम के सदस्य द्वारा रात में करीब 1ः30 बजे नगर पालिका टाउनहॉल में तेंदुआ को देखा था और उसका एक वीडियो भी बनाया था, जिसमें किसी जानवर की पूंछ दिखाई दी। रात करीब 1ः30 बजे आई तेंदुआ होने की खबर के बाद पुलिस और वन विभाग की टीम मौके पर अलर्ट हो गई थी।
15 सितम्बर 2019 को सागर जिले की रहली तहसील के धार्मिक महत्व के क्षेत्र टिकीटोरिया से लगे हुए जंगल में ग्रामीणों ने तेंदुआ देखा। उन्होंने इसकी सूचना सुबह वन विभाग को दी। वन आरक्षक ने मौके पर जाकर वन्य प्राणी के पद चिन्ह लिए हैं। इस संबंध में रेंजर का कथन था कि यह पुष्टी के साथ नहीं कहा जा सकता कि पग चिन्ह तेंदुए के ही हैं, यह पग चिन्ह लकड़बग्घा के भी हो सकते हैं। जबकि चश्मदीद व्यक्ति ने दावा किया कि वह तेंदुआ ही था। रात 11 बजे के करीब तीखी गांव के संजय पटेल अपने गांव जा रहे थे। तभी उन्होंने तेंदुए को देखा। संजय पटेल का कहना है कि चांदनी रात होने की वजह से उन्हें तेंदुआ स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। टिकीटोरिया के पास तेंदुए ने उनका रास्ता काटा। वह बड़े आराम से जा रहा था। दौड़ नहीं रहा था। अपने इतने करीब तेंदुए को देख कर संजय पटेल को पसीना आ गया। वे घबराए हुए अपने घर पहुंचे और सुबह वन विभाग को इसकी सूचना दी। रहली में पदस्थ वनरक्षक सुबह संजय पटेल को लेकर टिकीटोरिया के उस स्थान पर गए जहां संजय पटेल ने तेंदुए को देखा था। उन्होंने उस वन्यपशु के पग चिन्ह और वीडियोग्राफी भी कराई गई। इसकी जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को दी। गांववालों का कहना था कि यह तेंदुआ के ही पग चिन्ह हैं। वन विभाग ने आसपास के लोगों को सावधान रहने की चेतावनी दी तथा खेतों में रहने वालों को रात में रोशनी किए रहने की सलाह दी।
अभी तक यही सुनने में आता था कि अभ्यारण्य अथवा राष्ट्रीय पार्क की सीमा से सटे हुए गांवों में यदाकदा शेर, तेंदुआ आदि प्रवेश कर जाते हैं किन्तु शहरी आबादी में ख़तरनाक वन्यपशुओं के प्रवेश करने का कोई को विशेष कारण होगा। वन्यपशुओं के लिए यह विख्यात है कि वे अकारण किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। यहां तक कि यदि शेर का पेट भरा हुआ हो तो, वह भी शिकार नहीं करता है। जंगलों के शांत वातावरण में रहने वाले वन्यपशु शोर और प्रदूषण से भरी बस्तियों की ओर क्यों रुख करेंगे? अप्रैल 2014 में एक तेंदुआ भटककर लखनऊ की आबादी में घुस आया था। तेंदुए की आमद से क्षेत्र में दहशत फैल गई थी। वन विभाग की टीम तेंदुए को पकडने की तैयारी ही कर रही थी कि इस बीच रेस्क्यू आपरेशन में पुलिस की गोली से तेंदुए की मौत हो गई। इस घटना से ऐसा प्रतीत हुआ मानो अपने निवास क्षेत्र को ले कर मनुष्यों और वन्यपशुओं के बीच कोई युद्ध छिड़ा हुआ हो।
आखिरकर जंगली जानवर मानव बस्तियों का रूख क्यों कर रहे हैं। क्यों मनुष्य और जंगली जीवों में संघर्ष बढ़ रहा है? इसका सबसे बड़ा और प्रमुख कारण है बस्तियों का फैलना और जंगलों का सिकुड़ते जाना। असंतुलित एवं अनियंत्रित विकास से जंगल नष्ट हो रहे हैं। जिससे जंगलों में रहने वाले वन्यपशुओं के लिए उनका रिहाइशी क्षेत्र छोटा पड़ने लगा है। दूसरा सबसे बड़ा कारण है पानी का अनियंत्रित और असंतुलित दोहन। नदियों के किनारे के खेतों के लिए अवैध तरीके से असीमित मात्रा में बिजली की मोटरों से पानी खींच लिया जाता है। कहीं-कहीं तो नदी के बहाव में अवैध बांध बना कर नदी के पानी का असंतुलित बंटवारा कर दिया जाता है। इन सबके बीच इस बात का कोई ध्यान नहीं रखता है कि वन क्षेत्र में आवश्यक जल-आपूर्ति हो पा रही है या नहीं। पानी की कमी में घास के मैदान घटने लगते हैं जिससे पेट भरने के लिए हिरण, चिंकारा, नीलगाय आदि को गांवों अथवा बस्तियों का रुख करना पड़ता है। इन पशुओं को खा कर अपना पेट भरने वाले मांसाहारी पशु इनके पीछे-पीछे बस्तियों की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं। एक बार बस्तियों में पहुंचने के बाद पालतू पशु के रूप में आसान शिकार भी उन्हें बार-बार घुसपैंठ करने का लालच देते हैं। ऐसे में इंसान और जगली जानवरों के बीच मुडभेड़ की घटनाएं होना स्वाभाविक है। किन्तु जब मुडभेड़ की संख्या चिंताजनक स्थिति में पहुंच जाए तो इस पर विचार करना जरूरी है।
दरअसल हम इस सच्चाई को अनदेखा कर रहे हैं कि एक बाघ को जंगल में कम से कम 70 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र रहने के लिए चाहिए। जिसमें वो विचरण कर सके। लेकिन जंगलों की तरफ बढ़ती इंसानी आबादी का दबाव इतना ज्यादा हो गया है कि अब बाघों सहित वन्य पशुओं का क्षेत्र सिमट रहा है। ऐसे में उन्हें शिकार नहीं मिलता। पीने के लिए पानी नहीं मिलता। ऐसे में वो भटकता हुआ शहरों की तरफ आ सकता है। दूसरी ओर संरक्षण के कारण वन्य जीवों की जनसंख्या में भी वृद्धि हुई है। लेकिन वहीं उनका रिहाइशी क्षेत्र सिकुड़ रहा है। वन्य पशुओं के रहवास क्षेत्र में मनुष्यों के रहवास वाली कॉलोनियां बसती जा रही हैं। दुधवा और पीलीभीत का उदाहरण लीजिए, यहां कभी तराई क्षेत्र होता था, जंगल होते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं हैं। इसी तरह सागर विश्वविद्यालय के आसपास जो वनक्षेत्र था तथा कृषि क्षेत्र था वह बस्तियों में बदल गया है। थोड़ा-सा क्षेत्र बचा है वन के रूप में जिसमें जब-तब जंगल-कटवों की घुसपैंठ होती रहती है। पीले जंगल काटकर खेत बना दिए गए हैं। और अब खेत काॅलोनियों में बदल गए हैं। अब अन्य वन्य जीव आखिर कहां जाएंगे?
देव कुमार वासुदेवन, सेक्रेटरी, द नेचर वॉलिंटियर्स, महू ने अपनी एक चर्चा में बहुत मुद्दे की बात कही थी कि ‘‘यह दुखद है कि हमारे सिस्टम में वाइल्ड लाइफ कोई मुद्दा नहीं है।’’ निःसंदेह, एक पर्यटन के रूप में वाइल्ड लाईफ को महत्व दिया जाता है किन्तु उस वन्य जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को अनदेखा कर दिया जाता है जिसका परिणाम शहरी क्षेत्रों में वन्य पशुओं की घुसपैंठ के रूप में हमारे सामने आता है।
देश भर में जंगली जानवरों के हमलों में हर साल सैंकड़ों लोग अपनी प्राणों से हाथ धोते हैं। अनेक लोग गंभीर रूप से घायल भी होते हैं। इंसान और वन्यपशुओं के बीच इस संघर्ष में दोनों पक्ष मारे जा रहे हैं। भारत में हाथी और बाघ जैसे जानवर औसतन प्रतिदिन एक व्यक्ति को मार रहे हैं जबकि इंसान भी लगभग प्रतिदिन औसतन एक वन्यपशु को मार रहा है। आहारचक्र में असंतुलन पैदा होने का यह एक घातक परिणाम है। घास प्रबन्ध अर्थात शाकाहारी जानवरों के लिए भोजन प्रबन्ध बिगड़ गया है। जब इनका भोजन अर्थात चारा जंगलों में नहीं होगा तो ये शहर-गांवों की तरफ आएंगे ही बाघ, तेंदुआ आदि जंगल छोड़कर आबादी की तरफ आने लगें तो इसे उनके संघर्ष की गंभीरता को स्वीकार कर ही लेना चाहिए और समय रहते आवश्यक कदम उठाने चाहिए। वनपरिक्षेत्र और वन्यपशुओं के धनी बुंदेलखंड में समय रहते इस प्रकार की घटनाओं को रोकने का गंभीरता से प्रयास करना होगा।
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