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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, October 25, 2024

शून्यकाल | चित्रकार सैयद हैदर रज़ा: मध्यप्रदेश से विश्वपटल तक वाया कैनवास | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम शून्यकाल -                                                                            चित्रकार सैयद हैदर रज़ा : मध्यप्रदेश से विश्वपटल तक वाया कैनवास        
       - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
    नए विचार इंसान को एक अलग ऊंचे धरातल पर ले जाते हैं इसका एक सटीक उदाहरण हैं चित्रकार सैयद हैदर रज़ा। मध्यप्रदेश से फ्रांस तक का उनका सफर प्रगतिशील विचारों के रास्ते से ही गुज़रा। उनके जीवन को जानना हर उस इंसान के लिए रोचक होगा जो अपने जीवन में कुछ महत्वपूर्ण करना चाहता है।
‘‘मैं फ्रांस इसलिए गया क्योंकि इस देश ने मुझे चित्रकला की तकनीक तथा विज्ञान की शिक्षा दी। फ्रांस के सिजेन जैसे अमर कलाकार एक चित्र के निर्माण का रहस्य जानते थे, लेकिन मेरे फ्रांसीसी अनुभव के बावजूद, मेरे चित्रों का भाव सीधे भारत से आता है।’’ अपने एक साक्षात्कार में यह कहा था चित्रकार सैयद हैदर रज़ा ने। उनका यह कथन इस बात का भी द्योतक है कि इंसान दुनिया में कहीं भी चला जाए लेकिन अपनी जड़ों को कभी भुला नहीं सकता है।   

सैयद हैदर रज़ा प्रगतिशील कलाकार ग्रुप के एक महत्वपूर्ण सदस्य रहे। सन 1947 में बंबई (मुंबई) में गठित कलाकारों के समूह ने पारंपरिक कला बिम्बों के समकक्ष आधुनिक विचारों का समावेश करने का निश्चय किया और इसी उद्देश्य से समूह का गठन किया। इस ग्रुप के संस्थापक चित्रकार थे-  एस.एच. रज़ा, एफ.एन. सूजा, एम. एफ. हुसैन, के. एच. आरा, एच. ए. गाडे और एस.के. बाकरे। यदि देखा जाए तो इस ग्रुप का परिवेश ही वह बिन्दु था जहां से रज़ा वैश्विक धरातल की ओर बढ़ते चले गए।

सैयद हैदर रज़ा उर्फ एस.एच. रज़ा का जन्म 22 फरवरी 1922 को मध्य प्रदेश के मंडला जिले में हुआ  जहां उनके पिता उप वन अधिकारी थे। पिता सैयद मोहम्मद रज़ा और मां ताहिरा बेगम की छत्रछाया में रजा को 12 वर्ष की आयु में ही चित्रकला से लगाव हो गया। तेरहवें वर्ष में वे मध्यप्रदेश के ही दमोह जिले में चले गए जहां उन्होनें राजकीय उच्च विद्यालय, दमोह से अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की। हाई स्कूल के बाद, उन्होंने नागपुर में नागपुर कला विद्यालय (1939-43) में शिक्षा ग्रहण की। इस बीच चित्रकला से उनका प्रेम परवान चढ़ता गया और उन्होंने सर जे.जे. कला विद्यालय, मुम्बई (1943-47) में चित्रकला की गहराइयों को जाना।
पहली एकल प्रदर्शनी 1946 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी सैलून में प्रदर्शित हुई थी और उन्हें सोसाइटी के रजत पदक से सम्मानित किया गया था। उनके चित्र इलेस्टशन ऑफ एक्सप्रेशन्स (अभिव्यक्ति के चित्रण) से लेकर लैण्डस्केप (परिदृश्य) चित्रकला तक विकसित हुए। 1940 के शुरुआती दशक में अपने परिदृश्यों तथा शहर के चित्रणों में उन्होंने उन्मुक्त भाव से जलरंगों का प्रयोग किया।

1947 उनके लिए एक बहुत महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ, क्योंकि पहले उनकी मां की मृत्यु हो गई और यही वो वर्ष था जब उन्होनें के.एच. आरा तथा एफ.एन. सूजा (फ्रांसिस न्यूटन सूजा, के साथ क्रांतिकारी बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की सहस्थापना की। जिसने भारतीय कला को यूरोपीय यथार्थवाद के प्रभावों से मुक्ति दी तथा कला में भारतीय अंतःदृष्टि का समावेश किया। समूह की पहली प्रदर्शनी 1948 में आयोजित हुई थी। 
इसी दौरान उनके व्यक्तिगत जीवन में बड़ा उतार-चढ़ाव आया। जुलाई 1947 में मां का मुंबई में अपने घर में निधन हो गया। सन 1948 में साल के शुरू में पिता का मंडला में निधन हो गया। देश के विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। उस समय उनके परिवार में उनके चार भाई तथा एक बहन थी।
रज़ा तथा अन्य प्रगतिशील कलाकारों द्वारा गठित आर्ट ग्रुप भारत में चले आ रहे कला के मानकों को विस्तार देना चाहता था तथा उसमें नवीन मानकों को जोड़ने के लिए लालायित था। इस ग्रुप में रह कर रज़ा की चित्रकला में और अधिक निखार आया। इसका सुपरिणाम हुआ कि 1950 में फ्रांस सरकार से उन्हें छात्रवृत्ति पर फ्रांस जाने का अवसर मिला। फ्रांस में पेरिस के इकोल नेशनल सुपेरियर डे ब्यू आर्ट्स से चित्रकला की शिक्षा ग्रहण के बाद उन्होंने यूरोप के विभिन्न देशों की यात्रा की। वे योरोप में प्रचलित कला के विविध रूपों को करीब से देखना और समझना चाहते थे। इस दौरान पेरिस उनके कार्य के मुख्यालय के रूप में रहा। सन 1956 को उन्हें पेरिस में ‘‘प्रिक्स डे ला क्रिटिक पुरस्कार’’ से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वे पहले गैर-फ्रांसिसी कलाकार बने। फ्रांस में अभिव्यक्ति के चित्रण से निकल कर लैण्डस्कैपिंग की। 

1959 में उन्होंने फ्रांसिसी कलाकार जेनाइन मोंगिल्लेट से विवाह कर लिया। सन 1962 में वे बर्कले, अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के अंशकालिक व्याख्याता नियुक्त हुए। 

कहावत है कि यदि कलाकार अपने काम से संतुष्ट हो जाए तो वह नया नहीं कर पाता है। रजा जैसे-जैसे उच्चता के शिखर की ओर बढ़ते जा रहे थे, वैसे-वैसे उनमें बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। फ्रांस से उन्होंने एक्सप्रेशन आर्ट से निकल कर लैण्डस्कैपिंग को अपनाया किन्तु उनका ठहराव यहीं नहीं था। उनकी बेचैनी उन्हें दर्शन और आध्यात्म की ओर ले जा रही थी। सन 1970 के दशक तक रज़ा अपने ही काम से इतने अप्रसन्न और व्याकुल हो गए कि वे नई दिशा खोजने लगे। वे उस चीज से दूर होना चाहते थे जिसे वे ‘‘प्लास्टिक कला’’ कहते थे। इस बीच उन्हें दो बार भारत की कला यात्रा करने का अवसर मिला। उन्होंने अजंता व एलोरा की गुफाचित्रों को देखा। फिर बनारस, गुजरात तथा राजस्थान की यात्राएं कीं। इन सभी यात्राओं ने उन्हें वह कड़ी पकड़ा दी जिसे थाम कर वे आगे बढ़ सकते थे। सन 1980 में उनकी चित्रकला में ‘‘डाॅट’’ यानी बिन्दु कला को अपने आर्ट में स्थान दिया। यह बिन्दु वस्तुतः ध्यान, आध्यात्म तथा ऊर्जा का स्रोत था। बिन्दु श्रृखंला के उनके चित्रों ने उन्हें कालजयी बना दिया। इन चित्रों में भारतीय ज्ञान और वैश्विक कला शैली का अद्भुत मेल था। अपनी विषयगत कृति में नए आयाम जोड़े जिनमें त्रिभुज के इर्द गिर्द केन्द्रित विषय थे, जो अंतरिक्ष तथा समय को भारतीय अवधारणाओं के साथ-साथ प्रकृति-पुरुष की ऊर्जा से जोड़ते थे। 

जब ऐसा लगने लगा कि बिन्दु शैली चित्रकार रजा की पर्याय बन गई है तभी उन्होंने इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया कि कलाकार की कला ठहराव पसंद नहीं करती है। सन 2000 में उन्होंने भारतीय अध्यात्म पर अपनी बढ़ती अंतर्दृष्टि और विचारों को अपने चित्रों का मुख्य विषय बनाया और कुंडलिनी, नाग और महाभारत के विषयों पर आधारित चित्र बनाए।

यदि रज़ा की कलायात्रा के विषयों की चर्चा की जााए तो उनके ‘‘सिटीस्केप’’ (1946) और ‘‘बारामुला इन रुइन्स’’ (1948) चित्र हिंदुस्तान के विभाजन तथा मुंबई के दंगों में हूए उत्पीड़न की पीड़ा को दर्शाते हैं। रज़ा ने अपने चित्रों में निर्जन शहरों, सूनी इमारतों को दर्शाया। गोया विभाजन की पीड़ा को महसूस करते हुए पूछ रहे हों कि- ‘‘अब मुझे बताओ, क्या तुम अभी भी एक मुसलमान हो? क्या तुम अभी भी एक हिंदू हो?’’

उनके द्वारा बनाए गए पेरिस के ‘‘ब्लैक सन’’ (1953), ‘‘हॉट डे केन्स’’(1951) नामक चित्रों में घरों और कार्यस्थलों के बंद समूह दर्शाए गए हैं जो गर्म, असुविधाजनक और निर्जन हैं। इसके बाद आध्यात्म और भारतीय संस्कृति को अपने चित्रों में समेटना रज़ा के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटने जैसा था। उन्होंने कहा था कि ‘‘तत्व की खोज ने मुझे दीवाना कर दिया। भारतीय अवधारणाओं, प्रतिमा विज्ञान, संकेतों और प्रतीकों ने इस खोज को मजबूत किया। कुदरत के रूप में प्रकृति, जो सर्वोच्च सृजन शक्ति है, बीज में निहित भ्रूण शक्ति, नर-मादा आधार, प्रकृति में सदैव मौजूद रहने वाली अंकुरण, गर्भावस्था तथा जन्म जैसी घटनाओं ने मेरी अवधारणा को ‘‘देखी गयी प्रकृति’’ से ‘‘प्रकृति-कल्पना’’ में बदल दिया।’’
23 जुलाई, 2016 को दिल्ली में लंबी बीमारी के बाद चित्रकार रज़ा का निधन हो गया। उस समय वे 94 वर्ष के थे। इस तरह रज़ा ने मात्र 40 रुपये की पेंटिंग से अपनी कला यात्रा शुरू करके करोड़ों रुपयों तक पहुंचाई। रजा द्वारा बनाई गई ‘‘गेस्टेशन’’ शीर्षक की पेंटिंग की नीमाली 51.75 करोड़ रुपये में हुई थी। वैसे कला अनमोल होती है और जो कलाकार कला में रच-बस जाता है मानवीय भावना की उच्चता के शिखर तक जा पहुंचता है। चित्रकार सैयद हैदर रजा इसके सटीक उदाहरण हैं। 
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