आज 02.07.2025 को 'आचरण' में पुस्तक समीक्षा
समीक्षा
सामाजिक परिवेश की पड़ताल करती रोचक कहानियां
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - अभीष्ट
लेखिका - आभा श्रीवास्तव
प्रकाशक - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य - 350/-
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बुंदेलखंड के रचनाकारों में आभा श्रीवास्तव तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही हैं। नाटक, कविताएं और कहानियां तीनों पर समान रूप से वे अपनी कलम चला रही हैं। ‘‘अभीष्ट’’ उनका नवीनतम कहानी संग्रह है। इस संग्रह में कुल सोलह कहानियां हैं। ये सभी कहानियां पाठक के अंतर्मन से सीधा संवाद करती हैं। दरअसल, आभा श्रीवास्तव के पास समाज और सामाजिक संबंधों को देखने, परखने और उनकी मीमांसा करने की एक बारीक दृष्टि है। वे एक ओर स्वस्थ परंपराओं की बात करती हैं तो दूसरी ओर कथित आधुनिक मूल्यों का आकलन करती हैं। एक बेहतरीन संतुलन है उनके वैचारिक आग्रह में। मैं पहले भी आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां पढ़ चुकी हूं और उनके लेखन ने मेरे मन को छुआ भी है। क्योंकि वे स्त्री मन और जीवन की उन पर्तों को भी खंगालती हैं जहां प्रथम दृष्टि में दिखने वाला सामान्य, बहुत असमान्य बरामद होता है। इस समाज में एक स्त्री को अपने एक जीवन में विविध रूपों को जीना पड़ता है जो कि आसान नहीं है, फिर भी वह जीती है। स्त्रियों की यही खूबी परिस्थितिजन्य विडंबनाओं के साथ इस संग्रह की कहानियों में मौजूद है।
कहानी को कला माना जाता है और इसीलिए विद्वानों के अनुसार कहानी कहना और सुनना मनुष्य की आदिम वृत्ति है। यह कहा जा सकता है कि ‘‘कथा-जगत मनुष्य का रचा हुआ जगत है। एक ऐसा जगत, जिसमें सुख-दुःख, हास-परिहास, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय के निदर्शन के साथ मनुष्यों द्वारा अपने ‘समाजों’ का शिक्षण और मनोरंजन किया जाता रहा है। इस मनोरंजन और शिक्षण की प्रक्रिया में ही वह ‘आलोच्य’ भाव-बोध भी अन्तर्निहित है, जिसे प्रत्येक समाज ने अपने प्रगति और विकास के लिए आवश्यक विचार की तरह आगे बढ़ाया है। इसलिए, इस रचनात्मक शिक्षण और मनोरंजन के अन्तर्गत ही वह न्याय-बुद्धि भी है, जो सजग ढंग से साहित्य को, संस्कृति को, कलाओं को देखती- परखती है। इस देखने-परखने में ही जो दृष्टिकोण विकसित होते हैं, वे समीक्षा, आलोचना और मूल्यांकन के आधार-तर्क बनते हैं।‘‘
वरिष्ठ कथाकार एवं उपन्यासकार शिवपूजन सहाय कहानी की कलात्मकता उसके लालित्य में अनुभव करते हुए कहते हैं कि “साहित्य का एक प्रमुख और ललित अंग है कहानी। देश के कहानीकारों का वृहत्तर भाग इसी अंग की परिपुष्टि में लगा रहता है। संसार की सभी समृद्ध भाषाओं के साहित्य में कहानी की भरमार है। यद्यपि कहानी-कला कोई सरल कला नहीं, तथापि साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर बलबूते की आजमाइश करते हैं, पीछे अभिलषित क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। साहित्य के ऐसे महत्वपूर्ण अंग को अपनी परिभाषाओं की कमी नहीं है, किन्तु परिभाषाओं के सम्बन्ध में आलोचकों में मतभेद है। एक अंग्रेज विद्वान् का मत है कि श्कहानी परम्परा-संबद्ध महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रम है जो किसी परिणाम पर पहुंचता है।”
‘‘अभीष्ट’’ कहानी स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता को परिभाषित करती है। अभीष्ट का अर्थ होता है अभिलाषा की गई वस्तु अथवा मनोरथ। स्त्री और पुरुष परस्पर एक-दूसरे से क्या चाहते हैं? मात्र शारीरिक सुख अथवा इससे आगे एक स्वस्थ मानवीय मित्रता? क्या स्त्री-पुरुष की मित्रता के बीच दैहिक अनिवार्यता ही अंतिम सत्य है? या फिर विश्वास पर आधारित स्वस्थ मित्रता के धरातल पर स्त्री-पुरुष परस्पर निकट सहयोगी हो सकते हैं? दोनों ही जटिल प्रश्न हैं। संकीर्ण विचार यही कहेंगे कि स्त्री और पुरुष में विदेह मित्रता भला कहां संभव है? किंतु इस कहानी को पढ़ने के बाद संभावनाओं द्वार स्वतः खुलते चले जाएंगे। कहानी में आया यह वैचारिक द्वंद्व देखिए -”उस दिन ग्रुप में भी आये दिन घटित घटनाओं को लेकर बहुतायत में पुरुषों पर चर्चा हुई। स्त्री पुरुष की मित्रता असंभव है। वह केवल यौनाकर्षण पर टिका है। पुरुष पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यद्यपि वह भी इन कथ्यो की समर्थक है। किंतु यह भी मानना होगा कि सभी एक से नहीं होते। हां, आँख बंद कर विश्वास नहीं किया जा सकता। मर्यादायें, सकारात्मकता, रचनात्मकता का बोध आचार विचार का हिस्सा होना अनिवार्य है।”
“अभीष्ट” यदि किसी रिश्ते को संयम से जिया जाए तो उसमें देह आड़े नहीं आती है। स्त्री विमर्श रचती एक सुंदर कहानी है यह, जो सुधि और अमर के पारस्परिक मित्रता के हर कोण टटोलती हुई आगे बढ़ती है। अकेली स्त्री से पुरुषों की अपेक्षाएं, पुरुषों की पत्नियों का भय और मानसिक संघर्ष की अनवरत स्थितियां- इन सभी बिन्दुओं को ले कर चलती है यह कहानी।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘शुद्विपात्र’’ संबंधों की विचित्रताओं की कहानी है। एक स्त्री का प्रेमी जो किसी और का पति बन चुका है, उस स्त्री से जन्मे अपने पुत्र पर प्रेम उंडेलते हुए उसे अपना कहना चाहता है। यह देख कर उस स्त्री के मन पर क्या बीतेगी, इसकी परवाह नहीं है उसे। अतः एक बार फिर निर्णय उस स्त्री को ही लेना पड़ता है कि पिता-पुत्र के उस बेनाम रिश्ते को स्वीकृति दे अथवा न दे। यह एक विकट मनोउद्वेलन की कहानी है। कहानी में एक प्रवाह है जो संवादों के रूप में पाठक को बंाधे रखेगा।
‘‘उस दिन’’ कहानी बालिका शिक्षा की अनिवार्यता को सामने रखती है। इस कहानी में उन प्रश्नों और परिस्थितियों को स्वाभाविक रूप से सामने रखा गया है जिनके चलते बालिका शिक्षा पिछड़ती गई है। एक पिता अथवा अभिभावक इस बात को ले कर सशंकित रहता है कि जिस स्कूल में वह अपनी बेटी का दाखिला कराने जा रहा है, वह उसकी बेटी के लिए सुरक्षित एवं सुविधाजनक है कि नहीं। ‘‘झूठ की दीवार’’ कहानी कच्ची आयु के रूमानियत भरे सपनों के सच को बयान करती है। युवा होती लड़की के सपनों में राजकुमार का प्रवेश एक बायोलाजिकल और केमिकल प्रक्रिया है। किन्तु राजकुमार जब सपनों से निकल कर लड़की के जीवन में प्रवेश करता है तो यह समझना कठिन हो जाता है कि वह राजकुमार से दानव अथवा छलिया में कब परिवर्तित हो गया। जब तक राजकुमार का असली चेहरा सामने आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
‘‘मोबाईल का मेला’’ एक छोटी मगर बेहद सार्थक कहानी है। यह समय इलेक्ट््रानिक्स का है। इंटरनेट और मोबाईल का मकड़जाल कब हर पल को ‘हैक’ कर लेता है, यह मोबाईल धारक समझ ही नहीं पाता है। मोबाईल का मेला अपनी चकाचैंध से व्यक्ति के मानस को अपना गुलाम बना लेता है। क्या इस मेले के मोह से बाहर निकला जा सकता है? यही प्रश्न उठाते हुए, उसका हल सुझाती है यह कहानी। यह एक समयामयिक समस्या की कहानी है।
इसी संग्रह में एक कहानी है ‘‘झटका भूकंप सा’’। इसमें गहरा परिवार विमर्श है। कहा गया है कि पति और पत्नी परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। अब अगर दोनों में से एक पहिया बेमेल निकले तो परिवार की गाड़ी झटके खाने लगती है और कभी-कभी उन झटकों की तीव्रता भूकंप के झटकों के समान होती है। यदि पति क्रूर हो सकता है तो पत्नी भी स्वार्थी हो सकती है। ऐसी दशा में अकारण प्रताड़ित होते हैं परिवार के अन्य सदस्य।
‘‘जर, जोरू, जमीन’’ कहानी में उन स्त्रियों पर कटाक्ष किया गया है जो पारिवारिक कलह एवं बंटवारे का कारण बनती हैं। एक सीधे-साधे परिवार में तू-तड़ाक वाली लालची बहू के आते ही परिवार की शांति एवं सौहाद्र्य भंग हो जाता है। सारी संपत्ति पर अधिकार पाने की लालसा में यदि बहू अभद्रता पर उतर आए तो परिवार का विखंडन सुनिश्चित होता है। यह कहानी उस समस्या की ओर संकेत करती है, जो आज किसी न किसी रूप में हर दूसरे या तीसरे घर कर मसला बनती जा रही है। एकल परिवार के चलन और दिखावे की प्रवृति ने कई स्त्रियों को भी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के बजाए पैसे के प्रति समर्पिता बना दिया है। यह कहानी भी एक विशेष परिवार विमर्श खड़ा करती है।
लेखिका आभा श्रीवास्तव की भाषा और शिल्प सादगी पूर्ण है उनमें कहीं भी अलंकारिकता का आडंबर नहीं है वे अपनी बात सीधे-सीधे लिखते हैं। जैसे उनकी कहानी “झूठ की दीवार” का यह अंश देखिए -
“उम्र कोई अधिक नहीं, षोडसी भी नही। पन्द्रह वर्ष कुछ माह। पांचवी पास, पुस्तक पढ लेती थी, होशियार थी। लेकिन पिता ने पढ़ाई छुड़वा दी।
‘‘जा! माँ के साथ तू भी घर-घर काम कर। अपने घर की दाल रोटी चलेगी।’’
माँ को भी उसकी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। घर का छप्पर ठीक करती हुई बोली
‘‘हम लोग ऐसे ही पैदा होते हैं, ऐसे ही जी लेते हैं।’’
वह भी मान गई। माँ के साथ चली जाती। सुंदर सलोना राजकुमार दिख गया। सूरत से सुगढ़ सलोना था। तो अनपढ़ पर अपने लिये थोड़ा बहुत कमा लेता था। बस पड गई प्यार में। और घर में सबकी रजामंदी से ब्याह भी हो गया, तीन वर्ष भर में। ऐसी कोई अड़चन भी नही आई।’’
समीक्षा में ही सभी कहानियों पर पृथक-पृथक चर्चा संग्रह की कहानियों के प्रति सस्पेंस को चोट पहुंचा सकती है। अतः सभी कहानियों को पाठकों द्वारा आद्योपांत पढ़ा जाना चाहिए। उपरोक्त कुछ बानगी मात्र इसलिए कि कहानियों के तेवर और स्वभाव की झलक देखी जा सके। आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां विचारों को आंदोलित करती हैं, सोचने को विवश करती हैं और सामाजिक आत्मावलोकन का भी आग्रह करती हैं। इन कहानियों में स्त्री जीवन के साथ किशोर मन की उलझनों को भी रखा गया है। सबसे विशेष बात यह है कि लेखिका ने किसी भी कहानी में अपने निर्णय नहीं सुनाए हैं। उन्होंने पात्रों और उनकी परिस्थितियों का वर्णन करते हुए उन निर्णयों को घोषित किया है जो स्वाभाविक हैं, उचित हैं और स्वतः उभर कर सामने आते हैं। इसीलिए इन कहानियों में बनावटीपन नहीं है। इनका मौलिक स्वर स्वतः मुखर है। इन कहानियों में मनोभावों एवं सरोकारों का इन्द्रधनुषी रंग है। राग, विराग, कटाक्ष, प्रहसन, दायित्वबोध आदि सभी कुछ बड़े ही सहज रूप से शब्दों में समाया हुआ है। शब्द और शैली भी ऐसी कि मानो कोई अपनी स्मृतियों बातचीत में साझा कर रहा हो।
आभा श्रीवास्तव जी की भाषाई पकड़ अच्छी है। उन्होंने सरल, आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है। पात्रानुसार भाषा कहानी को जीवंत बनाती है। यह कहानी संग्रह उस परिवेश से परिचित कराता है जिसमें हर व्यक्ति रहता है। मुझे विश्वास है कि संग्रह की सभी कहानियां पाठकों को पसंद आएंगी।
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