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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, July 15, 2025

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की गहराई से उलीची गईं कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज'आचरण' में पुस्तक समीक्षा
भावनाओं की गहराई से उलीची गईं कविताएं
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - बंजारा मन पथरीली आंखें
कवयित्री     - श्रीमती विमल बुन्देला
प्रकाशक     - जे.टी.एस. प्रकाशन, वी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य        - 500/-
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कविताएं भावनाओं के प्रस्तुतिकरण का सबसे कोमल एवं सटीक माध्यम होती हैं। जयशंकर प्रसाद ने काव्य को ‘‘आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति’’ कहा है। वहीं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘‘कविता क्या है?’’ इस विषय पर पूरा एक विस्तृत निबंध लिखा है, जिसमें वे लिखते हैं कि-‘‘कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है। हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है।’’
कवयित्री विमल बुन्देला की कविताओं से गुज़रते हुए जयशंकर प्रसाद एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल दोनों के विचार प्रतिध्वनित होते सुनाई पड़ते हैं। विमल बुन्देला ठहराव की कवयित्री हैं, उनकी कविताओं में उद्विग्नता का भाव तीव्र आवेग के साथ नहीं वरन शनैः-शनैः उभरता है। वे अपने भावों को व्यक्त करने में कोई शीघ्रता नहीं बरतती हैं अपितु अपने भीतर उनका मंथन करती हैं फिर उन्हें कविता के रूप में उद्घाटित कर देती हैं। विमल बुन्देला के काव्य की ये विशेषताएं उनके नवीनतम काव्य संग्रह ‘‘बंजारा मन पथरीली आंखें’’ में अनुभव की जा सकती हैं। वरिष्ठ कवि सुरेंद्र शर्मा ‘‘शिरीष’’ ने सटीक टिप्पणी की है कि ‘‘उनका (विमल बुन्देला का) भाव-संसार एवं शिल्प परम्परा सम्मत एवं नवीनता के प्रति सम्मोहित है। उनकी रचनायें परम्परा व आधुनिकता के मध्य सेतु समान है। उनका रचना संसार पर्याप्त विस्तार लिए हुए हैं। उनकी अभिव्यक्ति का फलक विस्तृत है।’’
विमल बुन्देला की कविताओं में नारी जीवन के विविध आयाम अपनी सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत हुए हैं। वे अपने अनुभवों को जग के अनुभवों में ढाल कर व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती हैं। इसीलिए संग्रह की कविताओं पर ‘‘एक दृष्टि’’ शीर्षक से लिखते हुए संस्कृतिविद साहित्यकार डाॅ. बहादुर सिंह परमार ने लिखा है कि ‘‘नारी जीवन की पीड़ा, विवशता और संघर्ष की गाथा तो प्रत्येक रचना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से झांकती मिल जाएगी। इनकी रचनाएं नारी मन को कोमल सूक्ष्म भावनाओं के साथ संवेदना से सराबोर है। प्रेम के विविध रूपों के साथ पिता के प्रति भावनात्मक जुड़ाव इनकी कविताओं में है, जो विमल जी की कविताओं में मिलता है। उनके पात्र निराश नहीं बल्कि संघर्ष में संपृक्त आशा से भरे हैं।’’
वहीं कथाकार आभा श्रीवास्तव ने विमल बुन्देला की कविताओं के विविध पक्षों पर दृष्टिपात करते हुए लिखा है कि कवयित्री की ‘‘प्रत्येक रचना विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करती हुयी मानवीय धरातल को अभिव्यक्त करती है। सरल शब्दों में धरा प्रवाहित है। भाषा परिष्कृत है। कहीं-कहीं नये उपमान के माध्यम से भी अपनी बात कुशलता से कहीं है। अपने काव्य ग्रन्थ को अनमोल बनाया है। कवितायें नीतिगत तथ्यों को इंगित करती हैं। साथ ही अन्याय के प्रति भी स्वर मुखरित हुआ है। जीवन को काव्य में व्यापक रूप में प्रस्तुत किया गया है। सामाजिक जीवन की विषमतायें नूतन सौंदर्य बोध के साथ आयी हैं। सरल सरल व स्वाभाविक प्रस्तुति काव्य संग्रह की विशेषता है। प्रतीक और बिम्ब लोक-जीवन से ही लिये गये हैं।’’
वरिष्ठ कवयित्री मालती श्रीवास्तव ने विमल बुन्देला के काव्य में सामाजिक चेतना के साथ आध्यात्मिक अनुभूतियों को भी महसूस किया है। वे लिखती हैं कि ‘‘जीवन चेतना सामाजिक चिन्तन, आध्यात्मिक अनुभूतियां मूल प्रवृत्तियां, उनकी रचनाओं में सहजता, सरलता, भव्यता से परिलक्षित होती है। संसार और जीवन के सत्य की अनन्यता की झांकी सौंदर्य में लपेट कर उनका प्रस्तुतिकरण आनंद से ओतप्रोत होता है।’’
संग्रह में विविध भाव धरातल की 82 कविताएं हैं जिनमें अंतिम रचना में कई मुक्तक समाहित हैं। संग्रह को आद्योपांत पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि कवयित्री विमल बुन्देला अपने पिता के अधिक करीब थीं। उन्होंने अपना यह संग्रह अपने पिताश्री को समर्पित किया है तथा संग्रह में पिता पर एक कविता भी है-‘‘पिता के लिए’’। इस कविता की कुछ पंक्तियों देखिए-
आज हाथ जो कँपकँपा रहे हैं, 
इन्हीं को थामे कभी चली थी मैं, 
इन्ही उँगलियों को थामे, 
जीवन संघर्ष में बढ़ी थी मैं, 
वो बुलन्द आवाज, वो निर्भीक आँखें,
वो दृढ़ चेहरा, वो सदी हुई साँसें, 
वो उठे हुए कदम, जो मंजिल तक पहुँचे, 
आज बुढापे ने छीन ली,
उनके नीचे की जमीन और ऊपर की छत, 
ऊपर वाले, क्या यही है तुम्हारा न्याय ?
क्या यही हैं, बचपन और यौवन की अंतिम परिणति ? 
क्या यही हैं जीवन की नियति ?
- यह कविता पिता के प्रति पुत्री की संवेदनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से मुखर करती है। किन्तु मीराबाई का स्मरण करते ही कवयित्री अकुलाकर पुरुष समाज की उस दूषित मानसिकता को रेखांकित करती है जहां स्त्री को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। वे राणा से प्रश्न करती हैं अपनी कविता के रूप में-‘‘राणाजी तेरा क्या बिगाड़ गई मीरा?’’ वे लिखती हैं-
राणाजी तेरा क्या बिगाड़ गई मीरा?
हर पल श्यामल मूरत देखी, 
जीवन उन पर वारा, मन दर्पण में मनमोहन को, 
धारण किया निहारा, जब भी व्याकुल हुई 
दुखों से तारणहार पुकारा। 
राणाजी तेरा क्या.....
किन्तु कवयित्री जानती है कि दुनिया में सब एक समान नहीं हैं। कोई अच्छा है तो कोई बुरा है। सत और असत दोनों इसी संसार के दो पहलू हैं। इसीलिए वे आग्रह करती हैं कि असत से घबराने की आवश्यकता नहीं है, बस, सतर्कता जरूरी है। अपनी कविता ‘‘दुनिया का खेल’’ में वे लिखती हैं-
एक टीम और एक हाथ में, कभी बाल न रह पाती, 
चूक ना हो जाए गफलत में, गोल सम्भलकर करना रे।
गलत बात और गलत साथ से, समझौता क्या करना रे, 
जाना तो सबको है एक दिन, डर डर क्या रहना रे।
दृढ़ संकल्पों के बल पर ही, जीवन खेल निकलना रे, 
फिसलन-फिसलन सभी जगह है, गिरना नहीं सम्भलना रे।
जीवन के उतार-चढ़ाव की बारीकियों को समझने की सीख देने के साथ ही विमल बुन्देला ने ‘‘बीज का विश्वास’’ कविता में आशावादिता का प्रबलता से पक्ष लिया है। यदि व्यक्ति में आत्मविश्वास हो तो जीवन का कोई भी झंझावात उसे डिगा नहीं सकता है अपितु वह स्वयं दूसरे के लिए उदाहरण बन सकता है। यही तथ्य सामने रखा है इस कविता में- 
और एक दिन अमावस के एक प्रहर ने, 
सूरज से कहा, कहाँ है तुम्हारी किरणें,
और कहाँ है तुम्हारा आकार, 
कौन कहता है कि तुम सृष्टि के नायक हो, 
मेरा अन्धकार जब आता है, पूरे जड़ चेतन पर छा जाता है।
तब एक दिन एक नन्हें से बीज ने, सर उठाकर कहा, 
सूरज के प्रकाश व उष्णता का, अर्थ मैं बताता हूँ, 
जब मैं धरती का सीना चीर कर, लहलहाता हूँ 
तब सूरज क्या है, उसका अर्थ बताता हूँ।
मध्यप्रदेश के छतरपुर की निवासी विमल बुन्देला की अब तक कुल तीन कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। वे भीड़ की कविता नहीं, वरन एकान्त की कविता लिखती हैं एवं सतत सृजनशील हैं। उनका यह संग्रह ‘‘‘‘बंजारा मन पथरीली आंखें’’ भले ही हौले से दस्तक देता लगे किन्तु इसकी थाप की अनुगूंज देर तक मन-मस्तिष्क पर प्रभावी रहती है। इनमें अलंकारिकता की गहरी छाप भले ही न हो किन्तु रस है, प्रवाह है और लयात्मक शब्द विन्यास है। यह विश्वास किया जा सकता है कि भावनाओं की गहराई से उलीची गई इस संग्रह की कविताएं पाठकों को पसंद आएंगी।   
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(15.07.2025)
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