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Friday, September 5, 2025

शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
       यह माना जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञता होता है ईश्वर ही नियंता होता है और ईश्वर ही ज्ञान की संरचना करता है किंतु वही ईश्वर जब मनुष्य के रूप में अवतार लेता है तो उसे भी शिक्षक अर्थात गुरु की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए तथा कर्तव्यों को भली भांति संपादित करने के लिए जी शिक्षा की आवश्यकता होती है वह एक गुरु ही दे सकता है इसीलिए जब भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में अवतार लिया तो उन्हें भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ी उनके प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ।

      कौन थे ऋषि वशिष्ठ जो रामलाल के प्रथम शिक्षक बने ? ऋषि वशिष्ठ वैदिक काल के सबसे प्रसिद्ध राजगुरु थे, भगवान राम के गुरु बने, और योग-वशिष्ठ नामक ग्रंथ में उनके विचारों का संकलन है। उनकी पत्नी अरुंधति थीं और उन्हें आकाश के सप्तर्षि तारामंडल में एक स्थान पर माना जाता है। ऋषि वशिष्ठ महान सप्तऋषियों में से एक हैं। महर्षि वशिष्ठ सातवें और अंतिम ऋषि थे। वे श्री राम के गुरु भी थे और सूर्यवंश के राजपुरोहित भी थे। उन्हें ब्रह्माजी का मानस पुत्र भी कहा जाता है। उनके पास कामधेनु गाय और नंदिनी नाम की बेटी थी। ये दोनों ही मायावी थी। कामधेनु और नंदिनी उन्हें सब कुछ दे सकती थी। महर्षि वशिष्ठ की पत्नी का नाम अरुंधती था।
       ऋषि वशिष्ठ शांति प्रिय, महान और परमज्ञानी थे। ऋषि वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुल की स्थापना की थी. गुरुकुल में हजारों राजकुमार और अन्य सामान्य छात्र गुरु वशिष्ठ से शिक्षा लेते थे। यहाँ पर महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। विद्यार्थी गुरुकुल में ही रहते थे। ऋषि वशिष्ठ गुरुकुल के प्रधानाचार्य थे। गुरुकुल में वे शिष्यों को 20 से अधिक कलाओं का ज्ञान देते थे। ऋषि वशिष्ठ के पास पूरे ब्रह्माण्ड और भगवानों से जुड़ा सारा ज्ञान था। वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र थे । वे त्रिकालदर्शी ऋषि और परम ज्ञानी थे। विश्वामित्र ने उनके 100 पुत्रों का वध कर दिया था, फिर भी उन्होंने विश्वामित्र को क्षमा कर दिया। सूर्यवंशी राजा उनकी अनुमति के बिना कोई भी धार्मिक कार्य नहीं करते थे। त्रेता के अंत में वे ब्रह्मलोक चले गए थे। माना जाता है कि वशिष्ठ आकाश में चमकते सात तारों के समूह में एक पंक्ति में एक स्थान पर स्थित हैं।
महाऋषि वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों की विभिन्न कथाओं में अनेक रूपों में मिलता है। कहीं उन्हें ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, कहीं अग्रीय पुत्र, तो कहीं मित्रावरुण का पुत्र कहा गया है। एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि वशिष्ठ के दीर्घकालीन अस्तित्व के संदर्भ में पौराणिक साहित्य के विद्वानों का एक मत यह भी है कि ब्रह्मा के पुत्र ऋषि वशिष्ठ के नाम पर उनके वंशजों को भी "वशिष्ठ" कहा जाना चाहिए। इस प्रकार 'वशिष्ठ' केवल एक व्यक्ति न होकर एक पद बन गए और विभिन्न युगों में अनेक प्रसिद्ध वशिष्ठ हुए। वशिष्ठ की दो पत्नियाँ थीं। एक ऋषि कर्दम की पुत्री "अरुंधति" और दूसरी प्रजापति दक्ष की पुत्री "ऊर्जा"।
     आदि वशिष्ठ भगवान शिव के साढू थे, जिन्होंने दक्ष की एक अन्य पुत्री, देवी सती से विवाह किया था। इस आद्य वशिष्ठ के बाद, दूसरे इक्ष्वाकुचंशी राजा त्रिशंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहा गया। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहा गया। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा गया। सौदास या सुदास (कल्मषपाद) के काल में एक पाँचवें राजा हुए, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभज था।
       छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें वशिष्ठ भगवान राम के काल में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहा जाता था, और आठवें वशिष्ठ महाभारत काल में हुए, जिनके पुत्र का नाम "शक्ति" था। इनके अलावा, वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति और वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। वशिष्ठ के बारे में संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड और लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ वंश के ऋषियों और गोत्रकारों के नाम मत्स्य पुराण में दर्ज हैं।
      पौराणिक संदर्भों के अनुसार, ब्रह्मा के आदेश पर ऋषि वशिष्ठ ने सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहिताई स्वीकार किया था । वे पहले इससे सहमत नहीं थे और राजाओं के पुरोहिताई को तपस्या के अतिरिक्त एक निन्दनीय कार्य मानते थे। परन्तु ब्रह्मा द्वारा यह बताए जाने पर कि इसी वंश में आगे चलकर श्रीराम अवतार लेंगे, ऋषि वशिष्ठ ने पुरोहिताई स्वीकार कर ली।
     आदि वशिष्ठ भगवान शिव के साढू थे, जिन्होंने दक्ष की एक अन्य पुत्री, देवी सती से विवाह किया था। इस आद्य वशिष्ठ के बाद, दूसरे इक्ष्वाकुचंशी राजा त्रिशंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहा गया। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहा गया। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा गया। सौदास या सुदास (कल्मषपाद) के काल में एक पाँचवें राजा हुए, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभज था।
       छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें वशिष्ठ भगवान राम के काल में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहा जाता था, और आठवें वशिष्ठ महाभारत काल में हुए, जिनके पुत्र का नाम "शक्ति" था। इनके अलावा, वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति और वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। वशिष्ठ के बारे में संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड और लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ वंश के ऋषियों और गोत्रकारों के नाम मत्स्य पुराण में दर्ज हैं।
         वशिष्ठ से किसी निश्चित व्यक्ति को समझना संभव नहीं है, लेकिन एक ऐतिहासिक वशिष्ठ अवश्य थे, जिनका स्पष्ट बोध ऋग्वेद के सातवें मंडल के सूक्त से होता है, जिसमें उन्होंने दस राजाओं के विरुद्ध सुदास की सहायता की थी। इन विलक्षण वशिष्ठ के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक महर्षि विश्वामित्र के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता है। ऋग्वेद में इन दोनों ऋषियों के बीच संघर्ष का विवरण नहीं मिलता, लेकिन वशिष्ठ के पुत्र "शक्ति" और विश्वामित्र के बीच शत्रुता के प्रमाण यहाँ मिलते हैं।
विश्वामित्र ने वाणी में विशेष निपुणता प्राप्त कर सुदास के सेवकों द्वारा "शक्ति" का वध करवाया। इस घटना का संक्षिप्त उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। पमविषा ब्राह्मण में वशिष्ठ के पुत्र की मृत्यु और सौदास पर विश्वामित्र की विजय का भी उल्लेख है। वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वशिष्ठ के अनेक उद्धरण सूत्र, रामायण और महाभारत में मिलते हैं, जिनमें ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष का वर्णन है।
           किंवदंतियों के अनुसार, जब विश्वामित्र राजा थे, एक बार वे वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और कामधेनु गाय पाकर प्रसन्न हुए। इसी गाय के लोभ में उनका वशिष्ठ ऋषि से युद्ध हुआ और विश्वामित्र ब्रह्मबल को बाहुबल से अधिक सामर्थ्यवान मानकर तपस्वी बन गए। वैदिक काल का यह संघर्ष रामायण काल ​​में मित्रता में बदल गया। रामकथा में, जब विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण को मांगने दशरथ के पास आए, तो वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने पुत्रों को उनके साथ भेज दिया।
 "योग वशिष्ठ" में श्रीराम और ऋषि वशिष्ठ के बीच वह संवाद मिलता है। जिसमें कुछ अनमोल शिक्षाएं हैं। संक्षेप में वे शिक्षाएं इस प्रकार हैं कि जब अहंकार नहीं होता, तो दुःख नहीं होता। इन्द्रियों के धोखे के बारे में पूरी तरह से जानते हुए भी, उनके अनुचर बने रहना मूर्खता है।  जिस प्रकार आंखें होते हुए भी अंधेरे में अपने चरण देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। उसी तरह, अगर आपके पास पर्याप्त ज्ञान भी है, तो भी आपको सही रास्ता देखने के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण की आवश्यकता होती है। केवल अज्ञानी ही सोचते हैं कि वे अलग हैं। अभिमान, अहंकार, दुष्टता और कुटिलता का त्याग करना चाहिए। आत्मज्ञान ही वह अग्नि है जो कामना रूपी सूखी घास को जला देती है। इसे ही समाधि कहते हैं, न कि केवल वाणी का त्याग।
       श्री राम और गुरु वशिष्ठ का संवाद यह बताता है कि जीवन को किस तरह से जीना चाहिए। जीवन की आरंभिक अवस्था में श्री राम गुरु वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त करके अपने पूर्ण जीवन को सही दिशा में निर्धारित कर सके। श्री राम ने 12 वर्ष की उम्र तक गुरु वशिष्ट से शिक्षा प्राप्त की थी जिसमें वैदिक शास्त्रों और दर्शन का अध्ययन शामिल था। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि गुरुकुल प्रणाली आज की शिक्षा प्रणाली से एकदम भिन्न थी। प्राचीन भारतीय गुरुकुल प्रणाली सिर्फ़ अकादमिक शिक्षा के लिए जगह से कहीं ज़्यादा थी - यह जीवन शिक्षा की एक पवित्र, गहन यात्रा थी। सादगी और प्रकृति में निहित, युवा छात्र या शिष्य वे अपने गुरु के साथ, अक्सर शांत वन आश्रमों में, सांसारिक विकर्षणों से दूर रहते थे। शिक्षा की इस अनूठी पद्धति ने गुरु और शिष्य के बीच एक व्यक्तिगत बंधन को बढ़ावा दिया, जहाँ अनुशासित जीवन, अवलोकन और मार्गदर्शन के माध्यम से ज्ञान का संचार किया जाता था।
        वर्तमान स्कूली शिक्षा के विपरीत, गुरुकुल में बौद्धिक विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण, विनम्रता और आध्यात्मिक आधार पर भी जोर दिया जाता था। ब्रह्मचारी, शास्त्रों, दर्शन, मार्शल आर्ट, गणित, संगीत और नैतिकता का अध्ययन किया, साथ ही संयम, सहानुभूति और शक्ति जैसे मूल्यों को अपनाया। यह केवल आजीविका कमाने के बारे में नहीं था - यह एक धार्मिक और संतुलित जीवन जीने के बारे में था। वस्तुतः यह माना जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञता होता है ईश्वर ही नियंता होता है और ईश्वर ही ज्ञान की संरचना करता है किंतु वही ईश्वर जब मनुष्य के रूप में अवतार लेता है तो उसे भी शिक्षक अर्थात गुरु की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए तथा कर्तव्यों को भली भांति संपादित करने के लिए जी शिक्षा की आवश्यकता होती है वह एक गुरु ही दे सकता है इसीलिए जब भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में अवतार लिया तो उन्हें भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ी उनके प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ।    
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