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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, October 28, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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बुन्देली ग़ज़ल संग्रह  - रिपट परे की हर गंगा है 
कवि     - डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक -. जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य    - 300/-
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हिंदी साहित्य की काव्यात्मक सेवा करने वाले तथा ‘‘गीतऋषि’’ की उपाधि से सुशोभित डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया यूं तो मूलतः हिंदी में गीत, गजल, दोहे आदि लिखते हैं किंतु बुंदेलखंड की माटी में जन्मे होने के कारण अपनी माटी और बोली से लगाव भी स्वाभाविक है। डॉ सीरोठिया का बचपन गांव में व्यतीत हुआ तथा चिकित्सक बनने के उपरांत भी अधिकांश समय ग्रामीण अंचल में चिकित्सा कार्य करते हुए बिताया। अतः ग्रामीण अंचल का बदलता गया परिवेश उनकी दृष्टि से छिपा नहीं है। जहां हल चलाते थे वहां अब ट्रैक्टर चलाते हैं। जहां देसी व्यंजन खाए जाते थे वहां अब विदेशी व्यंजन मुख्य भोजन में दिखने हैं। पहनाव-पोशाक, खानपान, रहन-सहन आदि में आता जा रहा अंतर आधुनिकता की अंधी दौड़ में ग्रामीण अंचलों के शामिल हो जाने की ललक को दर्शाता है। ऐसे बदलते परिदृश्य में जब कोई व्यक्ति अतीत का स्मरण करता है तो वर्तमान उसे अतीत से बहुत भिन्न प्रतीत होता है। बहुत-सी चीज पीछे छूट चुकी होती हैं जिससे मन को पीड़ा होती है किंतु फिर लगता है कि परिवर्तन जीवन की नियति है और स्वाभाविकता भी। इस संदर्भ में डॉ सीरोठिया ने गहरी संवेदनशीलता से अपनी लेखनी चलाई है। इस संग्रह में सम्मिलित उनकी गजलों में वे गजलें भी हैं जो इस परिवर्तन को चिन्हित करती हैं।परिवर्तन हर ओर दिखाई देता है सिर्फ जीवनचर्या ही नहीं, अपितु राजनीतिक विचारों में, सामाजिक चलन में, पारस्परिक संबंधों में, पारिवारिक बुनावट में, आजीविका के संसार में तथा इस पूरे पर्यावरण में। इन परिवर्तनों ने बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ नया भी दिया है। जो सकारात्मक है वह उत्तम है किंतु जो नकारात्मक है वह चिंतनीय है और मन को सालने वाला है। डॉ  सीरोठिया की बुंदेली गजलें समग्रता के साथ इन बिंदुओं पर चर्चा करती हैं। 
वर्तमान में बुंदेली में गद्य और पद्य दोनों तरह के साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहे हैं। जहां तक काव्य का प्रश्न है तो बुंदेली में भी काव्य की लगभग वे सारी विधाएं शामिल कर ली गई हैं जो हिंदी काव्य धारा में स्वीकार की गई हैं। जैसे बुंदेली में छंदबद्ध रचनाओं के अतिरिक्त छंद मुक्त रचनाएं तथा गजलें भी लिखी जा रही हैं। इनमें कवि महेश कटारे का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। डॉ बहादुर सिंह परमार बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के उत्थान के लिए अनेक वर्ष से निरंतर अपना योगदान दे रहे हैं। विगत वर्ष (2024) मेरा भी बुंदेली गजल संग्रह ‘‘सांची कै रए सुनो, रामधई’’ प्रकाशित हुआ था। वस्तुतः बुंदेली एक इतनी मीठी बोली है कि इसकी मिठास रचनाकार को स्वयं प्रेरित करती है कि बुंदेली में रचना कर्म किया जाए। कहा भी जाता है कि जब लोक की बातें लोक की भाषा में की जाए तो वह हृदय के अत्यंत समीप प्रतीत होती है। लोक भाषा के अपनत्व का सबसे सटीक उदाहरण है तुलसीदास कृत ‘‘रामचरितमानस’’ है जिसने श्रीरामकथा को जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया। किंतु लोक भाषा में सृजन की अपनी चुनौतियां भी हैं। इसकी सबसे बड़ी और पहली चुनौती है कि सृजनकर्ता को लोक और लोक भाषा का पर्याप्त ज्ञान हो। वातानुकूलित कक्षों में बैठे हुए सृजन करता लोक पर बहस तो कर सकते हैं किंतु यथार्थवादी सृजन कभी नहीं कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि सृजनकर्ता को लोक के व्यवहार, प्रकृति और परंपराएं आदि का समुचित ज्ञान हो। डॉ. सीरोठिया लोक जीवन से भली-भांति परिचित हैं या यूं कहना चाहिए कि लोक जीवन उनके सृजन-संस्कार से जुड़ा हुआ है। उनकी हिंदी रचनाओं में भी लोक जीवन के दर्शन हो जाते हैं। अतः जब उन्होंने लोकभाषा बुंदेली में गजलें लिखीं तो उसमें लोक के तमाम तत्व स्वतः समाहित होते चले गए।     
 इस संग्रह का नाम ‘‘रिपट परे की हर गंगा है’’ ही अपने आप में एक कहावत के माध्यम से सब कुछ कहा जाता है। वास्तविकता को छुपाने की प्रवृत्ति जो वर्तमान में दिनों दिन बढ़ती जा रही है उस पर कटाक्ष करता यह नाम एक साथ कई विसंगतियों को ललकारता है। वे परिवर्तन जिनमें गांव की मौलिकता खत्म हो गई है,उन्हें देखकर कवि का उद्विग्न हो उठाना स्वाभाविक है। डॉ. सीरोठिया ने संग्रह की पहली गजल में ही अतीत से जुड़ी स्मृतियों को जगाते हुए बहुत सी छोटी-छोटी बातों का स्मरण किया है जो जीवन का अभिन्न अंग हुआ करती थीं, किंतु अब मानो कहीं खो गई हैं-
चपिया- जाँते सिल-लोढ़ा के,
देखत-देखत समय निकर गय।
डुबरी- भूँजा मठा-महेरी 
भूक हमाई दूनी कर गय
ठाट- बड़ेरी- मलगा बारे 
कौन देश खों अब जे घर गय 
श्याममनोहर गाँव देख कें
भीतर- भीतर असुंआ ढर गय
सच भी है कि मिक्सी और ग्राइंडर के जमाने में सिल-लोढ़ा को भला कौन पूछ रहा है? ‘‘चपिया- जाँते’’, ‘‘डुबरी- भूँजा’’ भी अतीत के पन्नों में दर्ज होकर रह गए हैं। शहरों में पली-बढ़ नई पीढ़ी उनके नामों से भी परिचित नहीं है। मंच हो या राजनीति हो, समाज हो या साहित्य हो सभी के स्तर में गिरावट आई है। मंचों पर ज्ञानहीन लोगों का दबदबा जिस तरह से बढ़ता जा रहा है उस पर भी कवि ने करारा कटाक्ष किया है। डॉ. सीरोठिया कहते हैं-
ज्ञानी कम आ रय मंचों पे 
ज्यादा मिलें खखलबे वारे 
कबउँ जुगत सें पटक देत हैं
संगसात में चलबे वारे 
जब व्यवस्थाएं बिगड़ती है तो इसका सीधा असर आमजन पर पड़ता है। जैसे शासकीय कार्यालय में फाइलों के देर में दबी अर्जी आम इंसान को कार्यालय के चक्कर लगवाती रहती है। तमाम हताशा और निराशा की बावजूद आम इंसान के पास और कोई विकल्प भी नहीं रहता -
जनता मारी- मारी फिर रइ
संगसात  लाचारी फिर रइ 
ये आफिस सें ओ आफिस लौ 
फाइल  जा सरकारी फिर रइ
इस गजल का मक़्ता वर्तमान सामाजिक परिवेश को आईना दिखाने वाला तथा आत्मा को झकझोरने वाला है। जो माता-पिता अपना पूरा जीवन, अपना सर्वस्व संतान का जीवन संवारने में लगा देते हैं, उनकी संतान सक्षम होने पर अपने उन्हीं माता-पिता को ठुकरा देती है। इस स्थिति को डॉ. सीरोठिया ने अपनी गजल के मक़ते में कुछ इस तरह व्यक्त किया है -
‘‘श्याममनोहर’’ मोंड़ा साहब 
माँगत खात मतारी फिर रइ
यह सामाजिक विडंबना नहीं तो और क्या है? रक्त संबंधों में आती जा रही विद्रूपता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए अत्यंत पीड़ादायक है। इसका कारण कवि की दृष्टि में अंधी आधुनिकता का दौर है जिसमें स्वार्थपरता अधिक है तथा मानवता कम होती जा रही है। इसका असर गांवों पर भी पड़ा है- 
परे शहर के पाँव कका जू 
बिगर गओ है गाँव कका जू 
भँड़यों ने सब पेड़ काट लय 
नईं दिखाबे छाँव कका जू     
कुछ गजलों में बड़े रोचक एवं चुटीले बिम्ब उठाए गए हैं। जैसे एक गजल है ‘‘भोग लगा ले दार बनी है’’, इसमें ‘‘दार बनी है’’ को काफिए के रूप में बड़ी खूबसूरती से प्रयोग में लाया गया है। गजल के कुछ शेर देखिए-
भात बना ले दार बनी है 
छौंक लगा ले दार बनी है 
मोटी हतपउ रोटी पैले
तवा चढ़ा ले दार बनी है       
सिकीं कचरियाँ और बिजौरे
लाला खा ले दार बनी है   
डॉ. सीरोठिया ने  अपनी कई गजलों में बुंदेली कहनातों अर्थात कहावत का सुंदर प्रयोग किया है। जिससे कहन की अर्थवत्ता बढ़ गई है। कवि की बुंदेली पर अच्छी पकड़ है। उनके पास प्रचुर शब्द भंडार है तथा गजल विधा में बुंदेली शब्दों को ढालने की कला भी है। संग्रह की भूमिका अवचार्य भगवत दुबे, डाॅ. गायत्री वाजपेयी, डाॅ (सुश्री) शरद सिंह तथा गुप्तेश्वर द्वारिका गुप्त ने लिखी है। संग्रह की सभी गजलें रोचक हैं एवं समसामयिक संवाद करने में सक्षम हैं। मुझे विश्वास है कि 80 ग़ज़लों का यह बुंदेली गजल संग्रह ‘‘रिपट परे की हर गंगा है’’ बुंदेली साहित्य को समृद्ध करेगा तथा पाठकों को रुचिकर लगेगा।
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