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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, December 4, 2025

बतकाव बिन्ना की | अब तो शहर सोई छूटत जा रए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | अब तो शहर सोई छूटत जा रए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
बतकाव बिन्ना की   
         
अब तो शहर सोई छूटत जा रए                             
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘कां हो आईं बिन्ना?’’ भैयाजी ने मोसे पूंछी।
‘छतरपुर गई रई। आपके लाने बताओ तो रओ के जाने है।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘अरे हऔ, तुमने बताई तो रई। उते कछू सेमिनार-वेमिनार हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, उते राष्ट्रीय सेमिनार रओ। बड़ो अच्छो टापिक रखो गओ रओ।’’ मैंने बताई।
‘‘का टापिक हतो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बुंदेली कविताओं में पर्यावरण को टापिक रओ।’’ मैंने बताई।
‘‘भौतई अच्छो! ई टाईप के टापिकन पे बतकाव होने बी चाइए। तुमने उते का करो?’’ भैयाजी ने पूछी। 
‘‘मैंने उते ‘बुंदेली कविताओं में जल और नदियां’ वारे सत्र की अध्यक्षता करी। सो शोध करबे वारन को शोधपत्र बी सुनबे खों मिलो। अच्छो रओ सब कछू। ऊंसई जां भैया बहादुर सिंह परमार जू को इंतजाम होए, उते सब अच्छोई रैत आए। बे सबको बरोबरी से खयाल रखत आएं। बाकी उनको जी अच्छो नईं रओ फेर भी उन्ने अपनी पीरा की कोनऊं खों भनक नई लगने दई औ सब काम करत रए।’’ मैंने बताई।
‘‘काए का हो गओ रओ उनको?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘उनको ऊ टेम तक पता पर चुकी रई के उनकी माताराम के बचबे की कोनऊं उमींद नइयां। बे अपने जी दाबे फेर भी सब काम करत रए। औ उधनई रात की दस बजे माताराम शांत हो गईं। तनक सोचो आप के उनपे का गुजरी हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, राम-राम! जेई तो एक बात आए जी पे कोनऊं को बस नईं चलत। बाकी सई में बड़ी हिम्मत दिखाई उन्ने। बे नाटक वारे का कैत आएं के ‘शो मस्ट गो आॅन’ मने चाए कछू हो जाए मंच पे सब कछू चलत रैन चाइए। जिम्मेवारी इंसान को सब कछू सहना सिखा देत आए। बाकी, बड़ो दुख भओ जा खबर जान के। जो उनसे बात होए तो हमाई तरफी से बी उने ढाढस बंधाइयो। ने तो हमें नंबर दइयो, हम खुदई बात कर लेबी।’’ भैयाजी दुखी होत भए बोले। 
‘‘हऔ, अभई व्हाट्सएप्प कर देबी। बात कर लइयो।’’ मैंने कई।
मताई-बाप चाए कित्ते बी उम्मर के हो जाएं, चाए कित्ते बी बुढ़ा जाएं मनो उनको साया सिर पे बनो रए सो अपनो बालपन बचो रैत आए। फेर मताई सो मताई होत आए। 
‘‘औ, छतरपुर को रस्ता कैसो आए? रोडे बन गईं उते की?’’ भैयाजी ने पूछी। काए से के बे समझ गए के मोए अपनी मताई की याद आन लगी हुइए औ अभईं मोरो जी फटन लगहे। सो उन्ने बात पलटी।
‘‘सागर से छतरपुर की रोडें? सई बताएं तो आधी फर्राटा आएं औ आधी घर्राटा आएं।’’ मैंने कई।
‘‘का मतलब? फर्राटा सो समझ में आई, बाकी घर्राटा समझ में नई आई।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब जे के जां तक रोड बन गई है, उते तक तो गाड़ी फर्राटा सी भग रई हती। फेर जां-जां अबे बी काम चल रओ आए उते सम्हर-सम्हर के चलबे की रई। औ ऊपे उते काम करबे वारे डम्पर अंधरन घांई दौड़ रए हते। उनसे सोई बच-बुचा के चलने हतो। बाकी जे आए के जित्ती रोड बन गई, उत्ती तो चकाचक आए। मनो मक्खन घांई।’’ मैंने बताई।
‘‘खैर बाकी बी बनई जैहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, काम तो मनो बड़ो आए पर उते रात औ दिन काम हो रओ सो सालों ने लगहें।’’ मैंने कई।
‘‘फेर, ई दफे फेर बंडा रुकी रईं? बे शायर साब से मिलबे के लाने?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मायूस सागरी जू से? नईं ई दफे तो बंडा ई नई मिलो तो बे कां से मिलते?’’ मैंने कई।
‘‘बंडा नईं मिलो? का मतलब? जे आज तुम कोन टाईप से गोलमोल बोल रईं?’’ भैयाजी झुंझलात भए बोले।
‘‘मैं कछू गोलमाल नई बोल रई। सूदी बात आए के ई बेर बंडा नईं मिलो। मोरे संगे जो भैयाजू गए रए उनसे मैंने कई के कर्रापुर के बाद बंडा परहे। मनो काए खों? कर्रापुर से चलत-चलत शाहगढ़ आ गओ मनो बंडा ने मिलो।’’ मैंने बताई।
‘‘ऐं? ऐसो कैसे हो सकत आए?’’ भैयाजी खों भारी अचरज भओ।
‘‘बो का आए के अब जे जो रोडें बन रईं बे फोर लेन, सिक्स लेन वारी बन रईं, सो बे शहर से बायरे बाईपास से कढ़ जात आएं। जेई में शहर छूटत जा रए। ई दफा बंडा छूटो, अगली बेरा जाबे में कओ शाहगढ़ ने मिले। बा रोड सोई बायरे से कढ़ रई।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘सो जे बात आए। सई कई तुमने। देखो पैले अपने ओरे लखनऊ जात्ते तो रस्ते में कानपुर के भीतरे से जाने परत्तो। भौतई तो जाम लगत्तो औ परदूषन से जी मचलान लगत्तो। बाकी उते शहर औ चैराए की गदर देख के मजो बी आउत्तो। पर अब बायरे-बायरे से कढ़ जाओ, सो पतई नईं परत के कबे कानपुर कढ़ गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो ईसे टेम सोई बचत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ टेम सो बचत आए, मनो असल शहर छूटत जा रए। काए से के फोर लेन होए चाए सिक्स लेन होए, उनके लिंगे सगरे खेत मिटा के नई बस्तियां बसन लगीं। धंदा-रुजगार सो चलत रोड पे ई चलहे। मनो जे नईं बस्तियां बजार वारी ठैरीं। चमक-दमक वारीं। जे अपनी सी कोन लगत आएं।’’ भैयाजी बोले। बात उन्ने पते की कई।
‘‘हऔ भैयाजी! बात सो आप सई कै रए मनो जां बिकास हुइए उते कछू खोने बी परहे। जे तो हमेसई से चलत आ रओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘खोने तो परत आए मनो अब कछू ज्यादई तेजी से अपन खोत जा रए। चैड़ी रोडन के लाने खेत बिकत आएं, जंगल कटत आएं औ पहाड़ मिटत आएं। ई सब को कित्तो हर्जा होत आए। तनक सोचो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जा तो सई कै रए आप। मैंने सोई उते रोड के कनारे-कनारे बूढ़े पुराने पेड़न के कटे ठूंठ डरे देखे। उने देख के लग रओ तो के उते कोनऊं कत्लेआम भओ रओ होए। बे पेड़ सौ-दो सौ साल पुराने रए हुइएं। औ बदले में नए पेड़ बी नई लगाए जा रए। बाकी होटलें औ सरकारी आउटलेट मुतकींे खुल गईं। बाकी इन ओरन को दिल्ली की दसा से कछू सबक लेओ चाइए। जेई-जेई में सो दिल्ली नरक बनी जा रई। औ जेई ढंग को बिकास होत रओ तो इते बी हवा साफ करबे वारी मशीन ले के रैने परहे।’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो बाजार को फंडा आए बिन्ना! पैले पब्लिक वारो पानी सुकाओ औ फेर बोतलन में भर-भर के पानी बेचों। ऐसई हवा खों बिषैली बनाओ और फेर ऊको साफ करबे वारी मशीन बेचों। जैसे गंदे पानी को साफ करबे वारी मशीने बिकत आएं। पैले तो ऊंसई पियत्ते, ने तो कपड़ा से छान लेओ तो काम चल जात्तो अब तो आरो पे बी बीमार परत रैत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, काए से के डाक्दरन और दवा वारों को बी तो खयाल राखने।’’ मैंने हंस के कई।   
‘‘चलो तुम ओरें कां की ले के बैठे! इते आओ इते गुरसी तप गई। चलो तापो तुम ओरें।’’ भौजी हम ओरन के लिंगे गुरसी धरत भईं बोलीं। 
रामधई! जड़कारे में गुरसी से साजो कछू नईं।    
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जो मेन रोडन से शहर कटत जा रए उनपे का असर हुइए?
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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Wednesday, December 3, 2025

चर्चा प्लस | कहीं सचमुच SIR ‘सिरदर्द’ तो नहीं बन रहा है? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | कहीं सचमुच SIR ‘सिरदर्द’ तो नहीं बन रहा है? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
कहीं सचमुच SIR ‘सिरदर्द’ तो नहीं बन रहा है? 
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                
  SIR यानी स्पेशल इंसेंटिव रिवीजन अर्थात विशेष गहन पुनरीक्षण। अगर  आम भाषा में बोला जाए तो मतदाताओं की शुद्धता की जांच। निःसंदेह यह जरूरी है क्योंकि नागरिकता संबंधी धोखाधड़ी या घुसपैठियों की पहचान इससे आसानी से हो सकती है किन्तु व्यावहारिक स्तर पर इसकी कठिनाइयां सामने आती जा रही हैं। यह उन क्षेत्रों के लिए तो जरूरी है जहां रोहिंग्या जैसे घुसपैठियों की संभावना अधिक है लेकिन जहां के नागरिक जन्म से उसी राज्य में हैं उन्हें भी अपने पुराने कागजात खंगालने पड़ रहे हैं। इस कार्य में लगीं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एक-एक घर के दरवाजे बार-बार चक्कर लगाने को मजबूर हैं। कुलमिला कर मजाक में लोग कहने लगे हैं ‘‘एसआईआर माने सिरदर्द’’।      

     मैं अपने स्वयं के अनुभव से चर्चा की शुरुआत करूंगी। एक दिन दो आंगनबाड़ी कार्याकर्ता महिलाएं मेरे दरवाजे पर आईं। उन्होंने अपने आने का उद्देश्य बताया। फिर एक फार्म दे गईं कि ‘‘इसे भर कर रखिएगा। कल आकर हम ले जाएंगी।’’ मैंने देखा फार्म पर मेरी तस्वीर थी और मेरा नाम भी। स्पष्ट था कि मैं वोटर लिस्ट में मौजूद हूं। यूं भी बालिग होने के बाद से अब तक बड़े-छोटे यानी संसदीय चुनावों से नगरीय निकाय के चुनावों तक वोट डाल चुकी हूं। मध्यप्रदेश की ही पैदाइश हूं और सौभाग्य से आज तक इसी राज्य में रह रही हूं। खैर, मैंने फार्म ध्यान ये पढ़ा। कुछ समझ में आया, कुछ नहीं। जितना समझ में आया उतना मैंने भर दिया। सोचा कि बाकी पूछ कर भर दूंगी। किन्तु दूसरे दिन वे लोग नहीं आईं। शायद उनके आधीन बड़ा क्षेत्र होगा इसलिए वे किसी दूसरी काॅलोनी में चली गई होंगी। दो दिन बाद एक अन्य महिला आई। उसके साथ पुरुष कर्मचारी भी था। वह भी मेरी फोटो वाला फार्म लिए हुए थी। मैंने उसे बताया कि यह फार्म मुझे आपकी फलां साथी दे गई है और मैंने उसे भर लिया है। कृपया उसे चैक कर  लीजिए और जमा कर लीजिए। इस पर उसने कहा कि नहीं मैं इस फार्म पर आपसे जानकरी ले कर अभी भर लेती हूं। कृपया अपना आधार नंबर, वेटर आईडी आदि बता दीजिए। मैंने उस दूसरे फार्म में अपना आधार नंबर भरा। उसे वोटर आईडी दिखाया। तो उसका कहना था कि ‘‘यह तो सन 2010 का है, मुझे सन 2003 की चाहिए।’’ मैंने कहा कि वह तो ढूंढनी पड़ेगी। फिर मैंने उससे पूछा कि यदि सन 2003 का वोटर आईडी नहीं मिली तो क्या होगा? इस पर उसने कहा कि वह जरूरी है। वह नहीं मिली तो मुश्किल होगी। यह सुन कर मेरा सिर चकरा गया। मैंने उससे पूछा कि यदि 2003 का वोटर आईडी नहीं मिली तो क्या मैं यहां की नागरिक नहीं मानी जाऊंगी? उसने कहा कि पता नहीं?
‘‘ये क्या मजाक है?’’ मेरे मुंह से निकला। मैंने उससे कहा कि ‘‘मैं जन्म से यहां की नागरिक हूं। मेरा आधारकार्ड, ड्राईविंग लाईसेंस यहीं का है, फिर मैं 2010 का वोटर आईडी भी दे रही हूं। कोई मुझे कैसे रोक सकता है वोट देने के अधिकार से?’’
‘‘मैडम, हमें तो जो आदेश मिला है, हम तो उसी के अनुसार काम कर रहे हैं।’’ वह महिला सहमती हुई बोली। उसकी बात सुन कर मुझे भी अपने गुस्से पर शर्मिन्दगी हुई कि मैं उस पर क्यों बिगड़ रही हूं? इसमें उसका क्या दोष? वह तो आदेश का पालन कर रही है।
फिर उसने अपनी समस्याएं गिनाईं कि कई घरों में लोग दरवाज़ा नहीं खोलते हैं, बात नहीं करते हैं। बात कर लें तो आधारकार्ड दिखाने से मना कर देते हैं क्यों कि आधार नंबर को ले कर बहुत धोखे होते रहते हैं। इन सबके कारण उन्हें बार-बार उन्हीं घरों में चक्कर लगाने पड़ते हैं। बहरहाल, मैंने उसकी उपस्थिति में ही अपनी पुरानी वोटर आईडी की ढूंढ-खोज की। दुर्भाग्य से मुझे 2003 की अपनी वोटर आईडी नहीं मिली लेकिन 1995 की अवश्य मिल गई। यानी सन 2003 से भी पहले की। मैंने उसकी प्रति उसे दे दी। जो उसने स्वीकार कर ली। अब परिणाम क्या होगा यह तो लिस्ट जारी होने पर पता चलेगा।
विचारणीय है कि जब फार्म में छपी फोटो और जानकारी से वोटर का मिलान हो रहा है, वह आधारकार्ड भी प्रस्तुत कर रहा है तो 2003 के वोटर आईडी का होना ही क्यों जरूरी है? फिर नौकरीपेशा घरों में लोग घर पर कम ही मिल पाते हैं। कुछ लोग छुट्टी के दिन अपने पैतृक घर अथवा आउटिंग में निकल पड़ते हैं। ऐसे लोगों का लिस्ट चैक करने वालों से संपर्क ही नहीं हो पाता है। कई लोगों को तो यह भी जानकारी नहीं रहती है कि ऐसा कुछ हो भी रहा है। 
मैंने एक घर की कामवाली बाई से पूछा तो उसने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहा कि न तो उसे इस बारे में पता है और न उसे यह पता है कि उसके पुराने कागज कहां रखे हैं। उसने बताया कि उसके पति सारे कागज अपने पास सम्हाल कर रखते थे मगर कोरोना में उनकी मृत्यु हो गई। अब उसे पता नहीं है और न याद है कि वे पुराने कागज कहां है। हां, आधारकार्ड, आयुष्मान कार्ड और लाड़ली लक्ष्मी के कागज उसने सम्हाल कर रखे हैं। सोचिए कि क्या ये पर्याप्त नहीं हैं वोटर लिस्ट में बने रहने के लिए?
वैसे निर्वाचन आयोग के अनुसार 4 नवम्बर से शुरू मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण- एसआईआर अभियान के दूसरे चरण में अब तक 46 करोड़ से अधिक गणना फॉर्म वितरित किए जा चुके हैं। निर्वाचन आयोग ने दूसरे चरण में नौ राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में यह अभियान शुरू किया है जो 4 दिसम्बर तक जारी रहेगी।
निर्वाचन आयोग के अनुसार एसआईआर फॉर्म स्टेटस चेक करना उन सभी लोगों के लिए जरूरी है जिन्होंने अपना फार्म जमा किया है। अगर आप चाहते हैं कि आपका नाम वोटर लिस्ट में जुड़ा रहे तो ऐसी स्थिति में आपको एसआईआर फॉर्म भरना जरूरी होता है। एसआईआर की जब प्रक्रिया पूरी हो जाएगी तो फिर अंतिम मतदाता सूची को 7 फरवरी 2026 वाले दिन जारी किया जाएगा। अगर आप एसआईआर फॉर्म को भरकर जमा नहीं करेंगे तो ऐसी स्थिति में आपका नाम मतदाता लिस्ट से बिल्कुल काट दिया जाएगा।
फार्म भरने का विकल्प भी दिया गया है। वोटर अपने घर से ही अपने आवेदन की स्थिति को चेक कर सकते हैं और अगर कोई गलती है तो आप ऑनलाइन इसे ठीक भी कर सकते हैं। निर्वाचन आयोग के अनुसार मात्र कुछ ही मिनट के अंदर अपने फार्म की स्थिति को आसानी के साथ चेक किया जा सकता है। 1. इसके लिए फार्म के स्टेटस को चेक करने के लिए आपको मतदाता सेवा पोर्टल की वेबसाइट पर जाना होगा। 
2. फिर आगे आपको मुख्य पृष्ठ पर स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन एसआईआर 2026 के विकल्प पर जाना है। 
3. अब आपको फिल एन्यूमरेशन फार्म का विकल्प दबाना है। 
4. इस तरह से आगे आपको अपना मोबाइल नंबर अथवा एपिक नंबर एवं कैप्चा कोड लिखकर ओटीपी वाले बटन को क्लिक करना है। 5. इस तरह से आपके मोबाइल पर आपको जो ओटीपी मिलेगा इसे दर्ज करके आपको सत्यापन करना है। 
6. सत्यापन के पश्चात आप वेबसाइट पर लॉगिन हो जाएंगे और अब आपको अपना राज्य का चयन करना है।
7. इस प्रकार से आपको एपिक नंबर दर्ज करके सर्च वाला बटन क्लिक करना होगा।
8. यहां पर अब आपके सामने आपके फॉर्म का स्टेटस खुल कर आएगा।
9. आपको यहां यह लिखा हुआ दिखाई देगा कि आपका फॉर्म ऑलरेडी दिए गए मोबाइल नंबर के साथ में जमा कर दिया गया है।
10. यदि आपका फॉर्म जमा नहीं होगा तो फिर आपको मतदाता लिस्ट का विवरण दिखाई देगा और आपको आखिरी तारीख से पहले बीएलओ के मोबाइल नंबर पर संपर्क करना होगा।  
प्रश्न यह है कि यह सरल प्रक्रिया क्या उनके लिए सरल है जिन्हें मोबाईल एवं कम्प्यूटर का पर्याप्त ज्ञान नहीं है? क्या उन्हें इस जानकारी के लिए अथवा इस प्रक्रिया से जुड़ने के लिए निजी केन्द्रों में पैसे खर्च करने होंगे? इस स्थिति में वोटर की जानकारी की सुरक्षा की क्या गारंटी रह जाएगी?

फिर इस काम की समय संक्षिप्तता के दबाव को बीएलओ झेल नहीं पा रहे हैं। विगत दिनों कुछ अप्रिय घटनाएं भी घटित हुईं। संभवतः इसीलिए एसआईआर को ‘‘सिरदर्द’’ कहा जा रहा है, वोटर्स के लिए भी और कर्मचारियों के लिए भी। अतः राष्ट्रीय महत्व के ऐसे कार्यों के लिए जमीनी कठिनाइयों  से जुड़ कर क्रियान्वयन संरचना जरूरी हो जाती है। बहरहाल, असली परिणाम आगामी वोटरलिस्ट में सामने आएगा।  
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(दैनिक, सागर दिनकर में 03.12.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, December 2, 2025

पुस्तक समीक्षा | अनुभवों के गलियारे से गुजर कर निकली ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | अनुभवों के गलियारे से गुजर कर निकली ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
अनुभवों के गलियारे से गुजर कर निकली ग़ज़लें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - सिसकती यादें
कवि        - रंजीत सिंह लोधी ‘संदेश’
प्रकाशक     - उत्कर्ष प्रकाशन, 142, शाक्यपुरी, कंकरखेड़ा, मेरठ कैण्ट, उ.प्र.- 250001
मूल्य       - 200/-
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ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसने हिंदी में प्रवेश पाने के बाद ही अपनी सत्ता स्थापित कर ली। यह विधा रचनाकारों को अपने भाव प्रकट करने के लिए एक सशक्त माध्यम के रूप में लुभाती है। दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को नवीन सरोकारों के साथ स्थापना दी। नए प्रयोग, नए बिम्ब, नए संदर्भ ने हिंदी ग़ज़ल में अभिव्यक्ति को अनंत विस्तार दिया। अब तो हिंदी ग़ज़ल अपने आप में एक साहित्यिक संस्कार का रूप ले चुकी है। इस संस्कार के प्रकाश में रणजीत सिंह लोधी “संदेश” का प्रथम ग़ज़ल संग्रह  “सिसकती यादें” पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है।
रंजीत सिंह की ग़ज़लों पर चर्चा करने से पूर्व एक बात पर ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं जो उन्होंने अपने आत्मकथन में लिखी है कि “मुझे दिव्यांग होते हुए भी आगे बढ़ाने एवं मंच देने में मेरे सभी कुटुंब जनों का भरपूर सहयोग व असीम स्नेह प्राप्त हुआ।” तो इस संदर्भ में मैं यही कहूंगी कि शारीरिक दिव्यांगता किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में या जीवन में सफलताएं प्राप्त करने में कभी रुकावट नहीं बन सकती है, रुकावट बनती है तो व्यक्ति की मानसिक दिव्यांगता। ग्राम सेसई साजी, तहसील बंडा जिला सागर में 15 सितम्बर 1981 को जन्मे रंजीत सिंह लोधी में भरपूर संवेदनशीलता है और जो व्यक्ति दूसरों के दुखों को महसूस कर सकता है और अपने दुख की भांति उसे आत्मसात करके व्यक्त कर सकता है वह जीवन में किसी भी मोर्चे पर कभी हार नहीं मान सकता, जोकि उनकी ग़ज़लों से भी प्रकट होता है। उनकी जीवटता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि वे दिव्यांग होने के बावजूद यमुनौत्री, केदारनाथ तथा चंदनबाडी से केदारनाथ की साहसिक पैदल यात्रा कर चुके हैं, जैसा कि उनके परिचय में लिखा है। वर्तमान में ग्राम्य अंचल पथरिया गौड़ के शासकीय हाई स्कूल में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। हिंदी साहित्य में स्नातक रंजीत सिंह लोधी जीवन में आदर्श एवं नैतिक मूल्यों को महत्व देते हैं। इसीलिए अन्याय, असंतुलन आदि देख कर उन्हें पीड़ा होती है।
अब बात संग्रह की ग़ज़लों की तो रंजीत सिंह लोधी ‘संदेश’ की ग़ज़लों में नवीन प्रयोग हैं जो सहसा ध्यान आकर्षित करते हैं तथा विषय की परिपक्वता को रेखांकित करते हैं। जैसे संग्रह की प्रथम ग़ज़ल के ये तीन शेर देखिए जिसमें ‘ग्रेट निकोबार’, “आशिकी” में होने वाले ‘संहार’ जैसे बिम्ब और संदर्भ रखे गए हैं-
अपनी संगत को सुधारो, बढ़ोगे तब आगे
तला  के  टापू  कभी  ग्रेट निकोबार  हुए।
आशिकी चीज है महंगी कठिन खर्चीली
कई  परवान  चढ़े  और कई संहार हुए।
हमें तो ठीक से आता नहीं पहाड़ तक
गए उसूल अब तो, तीन व दो-चार हुए।
जब बात प्रेम की हो तो संयोग एवं वियोग दोनों स्थितियां सामने आती हैं। स्वाभाविक है कि संयोग सुखद लगता है और वियोग कष्टप्रद। उस पर, यदि इस बात का अंदाजा हो कि कहीं कोई छल कपट किया गया है तो स्थिति और अधिक पीड़ादायी हो जाती है। इस बात को रंजीत सिंह ने अपनी ग़ज़ल में बड़ी साफ बयानी से कहा है, जिसमें उलाहना भी है, प्रेम की गरिमा भी है और पीड़ा भी। शेर देखिए-
तेरी गुस्ताखियों का भी तुझे सिला देंगे
वफा के आंसुओं से, घर तेरा हिला देंगे
तूने छुप-छुप के उसे प्यार किया था लेकिन
हमें ऐतराज क्या, हम खुद तुझे मिला देंगे ।
रंजीत सिंह लोधी ‘संदेश’ ने अपनी रचना धर्मिता के विकास के बारे में अपने आत्मकथन में लिखा है कि - ‘‘बंदी, अभिनंदन पत्र, विदाई पत्र, आदि से प्रारंभ हुई काव्ययात्रा काफी उतार-चढ़ाव के बाद आज गजल विधा को प्रतिष्ठित हो रही है। प्रारंभिक लेखन में देशभक्ति गीत, धार्मिक प्रसंगों पर गीत, कव्वाली, भजन कीर्तन, लेख आदि पर ध्यान केंद्रित रहा। शैक्षिक जीवन की अतिव्यस्ता के बीच कुछ मनोभावों को अंदर तक झकझोर देने वाली स्थितियों का सामना किया, किरदार बदले, लेकिन बर्ताव वही चिरपरिचित, स्वार्थ, धोखा, दिखावा, लालच से मन कई बार टूटा, मनोदशा को स्थिर करने और अपने आप को पुनः जीवन के विविध रंगों की ओर ले जाने के उद्देश्य से पश्चाताप, ग्लानि, उदासी को गजल के रूप में उकेरने का प्रयास किया, शैक्षिक मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन वाणी, मेरा प्रिय विषय रहा है, इन्हीं सब बिंदुओं को समावेश करते हुए... सजल नयनों से ओतप्रोत ए प्रथम गजल संग्रह ‘सिसकती यादें’ आपके सम्मुख प्रस्तुत है।’’
रंजीत सिंह लोधी की ग़ज़लों को पढ़कर कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं होगा कि यह एक नवोदित ग़ज़लकार का पहला संग्रह है। एक ही ग़ज़ल में भावनाओं के कई शेड्स मिलते हैं। एक ही ग़ज़ल के इन शेरों को पढ़कर स्वतः विश्वास हो जाएगा -
कहां नाम   रखने  के  मतलब  मिले हैं।
हिफाजत की कांटों ने, तब गुल खिले हैं।
जहां सत्य, विश्वास  आशा  की  चाहत
वहां  सिर्फ    बदले  में   धोखे मिले हैं।
मिटा  दो  ये  दूरी, मेरे  पास आओ
निकालो दिलों में, जो शिकवे गिले हैं।
हमें इल्म था होंगे लम्बे या छोटे
मगर नाप के उसने कपड़े सिले हैं।
हमें नाज है अपने माता-पिता पर
नियम -  कायदों में हमेशा चले हैं।
इस संग्रह की हर ग़ज़ल अनुभवों की रोशनी से नहाई हुई है, इसलिए हर पाठक को ये अपनी आप बीती-सी लगेंगी। कोई भी व्यक्ति आज ऐसा नहीं है जिसे खुरदुरे अनुभवों से कभी दो-चार होना न पड़ा हो। कभी रोजगार को लेकर, तो कभी व्यापार को लेकर और कभी संबंधों के सरोकार को लेकर अनुभवों के दंश मन-मस्तिष्क को लहू लुहान करते ही रहते हैं। इसी संदर्भ में मध्यम बहर की एक ग़ज़ल का मुखड़ा और एक शेर देखिए-
सपने भी बेरंग दिखाए आँखों ने।
उम्मीदों को पंख लगाए आँखों ने।
अंदाजा था बेगुनाह साबित होंगे
सारे छुपे सबूत दिखाए आँखों ने।
80 ग़ज़लों के इस संग्रह में कवि रंजीत सिंह ने “स्व” और “पर” के बीच की महीन रेखा को मिटाते हुए जिस समग्रता से भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है वह प्रशंसनीय है। अकबर इलाहाबादी ने लिखा था कि -
खींचो न  कमानों  को,  न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो
भले ही अकबर इलाहाबादी के इस शेर का संदर्भ अलग है किंतु कुछ इसी तरह के भाव रंजीत सिंह की ग़ज़ल में भी आए हैं जिनमें वे जीवन के विभिन्न संदर्भ में कलम को चुनने का आह्वान करते हैं-
करना है कुछ अलग शोध तो कलम चुनो।
लेना  चाहो,  प्रतिशोध  तो   कलम चुनो।
तलवारों  से  रक्त  बहा   इंसानों   का
मिट जाएं सब गतिरोध तो कलम चुनो।
सभ्यताओं की सृजनशीलता कौन लिखे
गर चाहो इतिहास बोध तो कलम चुनो।
इस संग्रह की ग़ज़लें इस बात का सबूत हैं कि कभी नहीं पीड़ा को हथियार बनाने और जिंदगी को जीने का आह्वान किया है। कटु अनुभवों की  सिसकती यादों को हृदय में दबा कर आगे बढ़ने की चाह घोर निराशा में भी आशा का संचार करने की शक्ति रखती है। कवि  रंजीत सिंह की भाषाई पकड़ अच्छी है। उनमें अभिव्यक्ति की बेहतरीन क्षमता है जिसकी झलक उनके इस प्रथम संग्रह में देखी जा सकती है। इस संग्रह की ग़ज़लों को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। मौलिक बिम्ब विधान उनकी ग़ज़लों को विशेष बनाता है।
संग्रह में डाॅ (सुश्री) शरद सिंह, अशोक मिजाज़ ‘बद्र’ एवं ईश्वर दयाल गोस्वामी के भूमिकात्मक विचार हैं तथा सहावेन्द्र्र प्रताप सिंह ‘शशि’ का शुभकामना संदेश है। ‘‘सिसकती यादें’’ ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ कर विश्वास हो जाता है कि रंजीत सिंह लोधी “संदेश” की रचना धर्मिता में असीम संभावनाएं हैं। मुझे विश्वास है कि उनका यह प्रथम ग़ज़ल संग्रह पाठकों को पसंद आएगा।      
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Monday, December 1, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | जो नओ बढ़ाहो सो पुरानो को का हुइए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | जो नओ बढ़ाहो सो पुरानो को का हुइए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट | जो नओ बढ़ाहो सो पुरानो को का हुइए?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
     का भओ के अबे परों हम एक पैचान वारे के इते मिलबे खों गए रए। उनके इते उनको ढाई-तीन साल को पोता कापी में डिराइंग बना रओ तो। ऊके दद्दा जू ने ऊकी डिराईंग देखी तो बे ऊको डांटन लगे के जो का बना दओ? का कऊं रोडें ऐसी होत आएं? जो का पहड़ियां, पहड़ियां सो बना दओ? हमने सोई ऊकी डिराइंग देखी सो हमें कै आओ के जा ईने गलत नईं बनाओ। अपनी मकरोनिया की रोडें फ्यूचर में ऐसईं दिखाहें। मोड़ा के दद्दा ने पूछी के “का मतलब?” सो हमें उने मतलब समझाने परी।
      हमने सुनी हती के मकरोनिया के टिरेफिक की पिराबलम हल करबे खों फ्लाईओवर बनाओ जैहे। ऊके बाद अब सुनो आए के बा फ्लाईओवरन की लंबाई बढ़ाबे की बात करी गई आए। सो जा सोचियो तनक के मनों जां पे अबई चालू भाई नईं आरओबी खतम हुइए उते से कछू दूरी से फ्लाईओवर सुरू हो जैहे। फेर जां नओ बनबे वारो फ्लाईओवर खतम हुइए वां से कछू दूरी से पुरानो फ्लाईओवर सुरू हो जाहे। तीन कूबड़ वारे ऊंट घांईं। सो, अब बताओ के मोड़ा ने का गलत बनाओ? जा तो भई रेलवेस्टेशन से बहेरिया तिगड्डा वारी रोड की दसा। बाकी की आप खुदई सोंस लेओ। जा सुYन के मोड़ा के दद्दा को मों खुलो के खुलो रओ गओ। हमने उनसे कई के इत्ते ने चकरयाओ! खुदई सोचो के जो नओ बनहे, तो पुरानो को का हुएई? बे बी ऐसे पुराने नइयां। एक चारेक साल पुरानो आए सो दूसरे खों अबे चार मईना नईं भए। सो, आबे वारे समै में कोनऊं खों ऊंट देखबे के लाने राजस्थान ने जाने परहे, इतई तीन कूबड़ वारी रोड देख के ऊंट देखे से ज्यादा मजो आ जैहे। कओ, गिनीज बुक में मकरोनिया को नांव लिखा जाए। रामधई !
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