दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- शून्यकाल
पवित्र आदिग्रन्थ ‘‘गुरुग्रन्थ साहिब’’ में है संत रविदास की वाणी
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
संत रविदास उन महान संतों में एक थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहो ने भारतीय समाज मे समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। रविदास की वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गए। रविदास के पदों को सिखों के पवित्र आदिग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में संकलित किया गया है। गुरुग्रंथ साहब में संकलित पदों में रविदास ने ईश्वर को सबसे बड़ा सहायक और तारनहार कहा है तथा वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है।
भारत की मध्ययुगीन संत परंपरा में रविदास का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। संत कवि रविदास का जन्म वाराणसी के पास एक गांव में सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। रविदास को रामानन्द का शिष्य माना जाता है। कुछ विद्वान रविदास का समय 1482-1527 ई. के बीच मानते हैं तो कुछ के अनुसार रविदास का जन्म काशी में 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ माना जाता है। वे मीरा और कबीर के समकालीन थे।
गुरुग्रंथ साहब में जिन 15 संतों की वाणी संग्रहीत की गई हे उनमें सिख गुरुओ के अतिरिक्त संत रविदास, शेख फरीद, सेन, जयदेव, नामदेव, वेणी, रामानन्द, कबीर, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंत सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति. और भाषा के बदले मानवतावादी दृष्टिकोण था। उन्होंने मानव के सकल उद्धार को ध्यान में रखकर यह कार्य किया। गुरु अर्जुन देव भली-भांति जानते थे कि इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पांच गुरुओं की वाणियां थीं। आगे चल कर गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। इस प्रकार आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के है। अन्य संतों के एक से चार पदों को आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरव का विषय है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएं गत 400 वर्षों से भी अधिक समय से बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं तथा गुरुओं की वाणी के साथ ही ग्रहण की जाती रही है। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने जीवनकाल में ही देहधारी गुरु परम्परा समाप्त कर दी थी और सभी सिखों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए गुरु ग्रन्थ साहिब और उनके सांसारिक दिशा-निर्देशन के लिए समूचे खालसा पंथ को गुरु पद पर आसीन कर दिया था। उसी समय से आदिग्रन्थ को गुरु साहब के रूप में स्वीकार किया गया। इस प्रकार संत रविदास की वाणी भी गुरुवाणी के रूप में न केवल संग्रहीत है वरन् विश्व में व्याप्त है।
संत रविदास के पदों में ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना पूर्ण समग्रता लिए हुए है। वे ईश्वर के बिना स्वयं के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य का अस्तित्व ईश्वर के अस्तित्व से ही निर्धारित होता है। यदि ईश्वर चंदन है तो मनुष्य पानी है, यदि ईश्वर दीपक है तो मनुष्य बाती है, यदि ईश्वर मोती है तो मनुष्य धागा है अर्थात् ईश्वर का स्थान स्वामी का है और मनुष्य का स्थान उसके दास का है-
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग वास समानी।।
प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सुहागा।।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रविदासा।।
संत रविदास ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त की है। सहज-सरल भाषा में कहे गये इन उच्च भावों को समझाना कठिन नहीं है, इसी लिए संत रविदास के पद जन-जन में लोकप्रिय हुए। संत रविदास उन महान संतों में एक थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहो ने भारतीय समाज मे समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। रविदास की वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गए। हिन्दू और मुस्लिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु रविदास जी ने अथक प्रयास किए थे और इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि तीर्थ यात्राएं न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में पा सकते हो -
का मथुरा द्वारिका का काशी हरिद्वार।
रविदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।
संत रविदास ने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। यदि मनुष्य आत्ममुग्धता में डूबा रहे, अहंकार को गले से लगाए रहे तो उसे ईश्वर भी दिखाई नहीं देता है, वह हर पल स्वयं को ही देखता रहता है। यह भी सांसारिक मोह का बंधन है। इस बंधन से किसी भी तरह से मुक्त हो कर ही ईश्वर की आराधना की जा सकती है-
जब हम होते तब तू नाही, अब तू ही मैं नाहि।
अनल अगम जैसे लहरि मई ओदधि जल केवल जल माहि।।
माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा। जैसा मानीऐ होइ न तैसा।।
नरपति एक सिंघासनि सोइआ सुपने भइया भिखारी।
अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी।।
संत रविदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वेद, पुराण, कुरान आदि धार्मिक ग्रंथों वह शक्ति नहीं है जो ईश्वर के नाम में है। ईश्वर का नाम ले कर ही जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है-
नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही।
बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही।।
सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी।
कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी।।
ईश्वर की महिमा का वर्णन करते हुए रविदास ने सहज भाव से ईश्वर और मनुष्य को परस्पर एक दूसरे का पूरक कहा है। वे स्वयं को ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यदि ईश्वर गिरिवर है तो वे मोर हैं, यदि ईश्वर चन्द्रमा है तो वे चकोर हैं। इसी प्रकार ईश्वर को दीपक और स्वयं को दीपक की बाती निरूपित करते हैं। वे ईश्वर को स्मरण भी कराते हैं कि यदि ईश्वर चाहे तो उन्हें विस्मृत कर सकता है किन्तु वे ईश्वर को कभी विस्मृत नहीं करेंगे, क्यों कि उन्होंने जो नाता ईश्वर से जोड़ा है, वह नाता और किसी से जोड़ा नहीं जा सकता है-
जउ तुम दीवार तउ हम बाती।
जउ तुम तीरथ तउ हम जाती।
साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी।
तुम संग जोरी अवर संगि तोरी।
जह जह जाउ तहा तेरी सेवा।
तुम सो ठाकुर अउरू न देवा।
तुमरे भजन कटहि जब फांसा।
भगति हेत गावै रविदासा।।
रविदास ने ऊंच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे लोगों को समझाते थे कि वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है। रविदास की वाणी भक्ति की उत्कृष्ट भावना, समाज के व्यापक हित की सोच और उद्गार में सत्यता पूर्ण है जिसे आत्मसात कर के समाज में समरसता एवं आपसी प्रेम स्थापित रखा जा सकता है।
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