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My Editorials - Dr Sharad Singh
Tuesday, April 29, 2025
पुस्तक समीक्षा | प्रेम की अनुपम छांदासिक अभिव्यक्ति है - “प्रेमग्रंथ की तुम चौपाई” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
Saturday, April 26, 2025
टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | अब उनके दिन पूरे भए कहाने | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Thursday, April 24, 2025
शून्यकाल | ऐसे ही कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है पाकिस्तान के विरुद्ध | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
बतकाव बिन्ना की | इते खों बोलो औ उते खों गओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
Wednesday, April 23, 2025
चर्चा प्लस | पृथ्वी को हमने चढ़ा रखा है अपने कर्मों के जलते चूल्हे पर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, April 22, 2025
पुस्तक समीक्षा | प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी ग़ज़लों का पठनीय संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
Saturday, April 19, 2025
टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | आम को पना पियो औ टैक्स भरो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Friday, April 18, 2025
नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Thursday, April 17, 2025
बतकाव बिन्ना की | पड़ा ने मारी पूंछ, नपवा डारी मूंछ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
Wednesday, April 16, 2025
डॉ सुश्री शरद सिंह के साहित्यिक अवदान पर श्यामलम की आठवीं साहित्य परिक्रमा में चर्चा
चर्चा प्लस | प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, April 15, 2025
पुस्तक समीक्षा | मानवीय संबंधों के बूझे-अबूझेपन रेखांकित करती कहानियां | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
आज 15.04.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
मानवीय संबंधों के बूझे-अबूझेपन रेखांकित करती कहानियां
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - मैं उन्हें नहीं जानती
लेखिका - उर्मिला शिरीष
प्रकाशक -शिवना प्रकाशन, पी.सी.लैब सम्राट काॅप्लेक्स बेसमेंट, बसस्टेंड, सिहोर,म.प्र-466001
मूल्य - 275/-
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हिन्दी कथा साहित्य जगत में उर्मिला शिरीष एक स्थापित नाम है। अब तक उनके दो दर्जन से अधिक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कहानियां मन को उद्वेलित करने में सक्षम होती हैं। उनकी कहानियों का धरातल सामाजिक होते हुए भी मनोवैज्ञानिक होता है। वे हर कारण की तह तक उतरती हैं और फिर उसे अपनी कहानी का विषयवस्तु बनाती हैं, यही खूबी है उनके कथा लेखन की। उनकी भाषा और शिल्प की चर्चा बाद में। पहले बात समीक्ष्य कहानी संग्रह ‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’। शिवना प्रकाशन, सिहोर से प्रकाशित इस संग्रह में उनकी चौदह कहानियां हैं।
उर्मिला शिरीष के जीवनानुभव की सीमा वृहद है जोकि उनकी कहानियों से गुज़रने के बाद दावे से कहा जा सकता है। वे मानवीय संबंधों की बारीकियों को बड़ी कोमलता से उठाती हैं और पूरे विश्वास के साथ उन्हें विस्तार देती हुईं उस क्लाईमेक्स की ओर ले जाती हैं जहां पहुंच कर पढ़ने वाले को यही लगता है कि इस कहानी का अंत इससे इतर और कुछ हो ही नहीं सकता था। ‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’ की कहानियों में विषय की विविधता है जिनमें विदेशी भूमि पर उपजी परिस्थियों की एक मार्मिक कहानी भी है जिसका नाम है ‘‘स्पेस’’। यह संग्रह की पहली कहानी नहीं है फिर भी मैं इसी कहानी से समीक्षा की शुरूआत करना चाहूंगी। बहुत पहले भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका झुम्पा लहरी का कहानी संग्रह ‘‘अनकस्टम्ड अर्थ’’ पढ़ा था। झुम्पा लहरी ने अमेरिका में बसे भारतीय परिवारों विशेष रूप से बंगाली परिवार के बारे में कहानियां लिखी थीं। अरसे बाद उर्मिला शिरीष की कहानी ‘‘स्पेस’’ पढ़ कर लगा कि जो पक्ष झुम्पा लहरी से छूट गया था, उसे उर्मिला जी ने बड़ी गहनता एवं मार्मिकता से सामने रखा। अमेरिका में बसे बेटे बहू की घोर उपेक्षित एवं प्रताड़ित मां की करुणामय कथा। जिस बेटे को अमेरिका में सेटल होने के लिए मां ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया, वही बेटा मां को अपनी पत्नी के अत्याचारों से नहीं बचा पा रहा था। साथ ही वह स्वयं भी मात्र इसलिए अपनी पत्नी के अमानवीय व्यवहार को सहन कर रहा था कि बेसहारा मां को वह अपने से अलग नहीं कर पा रहा था। अमेरिका पारिवारिक संबंधों को ले कर कठोर है। एक फोनकाॅल पर पुलिस तुरंत हाज़िर हो कर दोषी को पकड़ कर जेल में डाल देती है, भारी जुर्माना करती है। एक बच्चा भी अपने माता-पिता की मार के विरुद्ध पुलिस बुला सकता है। एक भारतीय मां अपनी बहू के विरुद्ध किसी से शिकायत करने का साहस भी नहीं जुटा पाती है। कारण कि माता-पुत्र अपनी बहू की भांति निर्लज्ज नहीं थे। वे खामोशी से सब कुछ सह रहे थे। वह तो उनकी एक पड़ोसन से यह सब सहन नहीं हुआ। जबकि पड़ोसन की तो बहू भी विदेशी थी किन्तु भारतीय परम्पराओं एवं संस्कारों का आदर करने वाली। अतः पड़ोसन और उसकी बहू उस मां को उसकी बहू के अत्याचार से बचाने का बीड़ा उठाती हैं। जिस विस्तार से प्रताड़ना के विविध रूपों का वर्णन है उसे पढ़ कर कोई भी यही चाहेगा कि उस निरीह महिला की मदद की जानी चाहिए। इस कथानक के मूल में एक बहुत बड़ी पीड़ा इस बात की भी छिपी है कि बच्चों को विदेश भेजने और वहां उनके बसने पर खुश होने वाले माता-पिता अपने-आप में कितने अकेले पड़ जाते हैं। फिर चाहे वे भारत में रहें या बच्चों के साथ विदेश में। बेशक सब के साथ यह नहीं होता है किन्तु ऐसा भी होता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
संग्रह में एक बहुत चुलबुली कहानी है ‘‘दुपट्टा’’। यह कहानी शुरू होती है एक नाॅटी किस्म की घटना से और समाप्त होती है गहरे विमर्श पर। माॅर्निंग वाॅक पर जाने वाले एक दंपति का किस्सा है। पति एक पराई स्त्री को यह देख कर प्रभावित होता है कि वह चाहे भारतीय परिधान पहने या पाश्चात्य, पर एक दुपट्टा अवश्य ओढ़ती है। उसे देख कर वह अपनी पत्नी से भी दुपट्टा ओढ़े जाने की अपेक्षा करता है। बात बहस तक भी जा पहुंचती है। पत्नी सोचती है कि क्या दुपट्टा ओढ़ना या न ओढ़ना ही सब कुछ है? स्त्री की अपनी इच्छा कोई मायने नहीं रखती? एक वैचारिक द्वंद्व के बाद कहानी दिलचस्प मोड़ पर समाप्त होती है।
जब हम सोचते हैं कि हम अपने परिजन, परिचित, मित्र या संबंधी को पूरी तरह से जानते हैं, तभी कुछ ऐसा घटित होता है कि लगता है कि हम तो वस्तुतः उन्हें जानते ही नहीं थे। इसी धरातल की दो कहानियां हैं संग्रह में। रोचक बात ये है कि इसमें एक कहानी संग्रह की प्रथम कहानी है और दूसरी संग्रह की अंतिम कहानी। अंतिम कहानी की चर्चा पहले करना समीचीन होगा क्योंकि इसी कहानी के शीर्षक पर संग्रह का नाम है ‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’। परिवार में प्रायः सबसे बड़ी बहन पर अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने का दायित्व होता है। भाई-बहनों को सम्हालते-सम्हालते वह कब अपनी मां में ढल जाती हैं, उसे स्वयं पता नहीं चलता। इसके विपरीत उसके भाई-बहन उसके बारे में कितना जानते हैं अथवा उसके दुख-सुख की कितनी परवाह करते हैं, यह दावे से नहीं कहा जा सकता है। सच तो ये है कि पूरा परिवार उससे अपनी समस्याएं कहता-सुनता है किन्तु उसकी समस्याएं उससे कभी पूछता नहीं है। सभी यही मान कर चलते हैं कि वह तो बड़ी है, उसका घर पहले बस गया है, वह पूरी तरह सुखी है। ठीक यही स्थिति है इस कहानी की प्रमुख पात्र जिया की। जिस बहन को जिया ने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, उसे भी वर्षों बाद इस बात का अहसास होता है कि वह जिया को बिलकुल नहीं जानती है।
इसी अजानेपन की दूसरी और संग्रह की पहली कहानी है ‘‘देखेगा सारा गांव बंधु’’। एक बेटी अपनी मां को कितना जानती है? या एक बेटा अपने पिता को कितना जानता है? यह एक जटिल प्रश्न है। क्योंकि संतान अपने माता-पिता को उसके एक पक्षीय रूप में अर्थात् माता-पिता के रूप में ही जानते हैं। वे यह कभी समझ नहीं पाते हैं कि एक व्यक्ति के रूप में माता और पिता का भी अपना एक निजी संसार होता है, निजी अनुभव होते हैं या यूं कहा जाए कि उनका अपना एक गोपन संसार होता है। एक पुत्र अपने पिता के बारे में बहुत कुछ जानते हुए भी, मानो कुछ भी नहीं जान पाता है। चारित्रिक विशेषताओं एवं विभिन्न मनोदशाओं की गलियों को पार करती यह कहानी एक नास्टैल्जिक दुनिया में पहुचा देती है। संग्रह की बेहतरीन कहानी है यह।
कहानी ‘‘चल खुसरो घर आपने’’ को भी इसी क्रम में रखा जा सकता है। एक मां, एक बेटी दोनों ही भरे पूरे परिवार के होते हुए भी अपने-अपने मोर्चे पर अकेलेपन से जूझने को विवश हैं। आयु के उस पड़ाव में जब सबसे अधिक सहारे की जरूरत होती है, उनकी आंतरिक पीड़ा समझने वाला कोई नहीं है। उस अवस्था में क्या मोक्ष का द्वार हीे उनके अपने घर का द्वार है, जहां लौट कर उन्हें सुकून मिल सकता है? कहानी का मर्म विचिलित करता है।
‘‘कहा-अनकहा’’ कहानी परिस्थितियों, अंतद्र्वंद्व एवं एक अदद सहारे की दबी हुई ललक के ताने-बाने से बुनी हुई है। एक अकेली महिला जिसकी बेटी-दामाद दूसरे शहर में हैं एक ऐसे व्यक्ति से अनायास टकराती है जो उसका मददगार बन कर सामने आता है। लेकिन आज कर समय आंख मूंद कर विश्वास कर लेने का भी समय नहीं है। वह महिला अस्पताल जाती है। कष्ट में है। अस्पताल में भीड़ है। परेशानियां हैं। तभी एक व्यक्ति उसकी मदद को तत्पर हो उठता है, निःस्वार्थ। अस्पताल में एक अनजान व्यक्ति मदद करे और वह भी निःस्वार्थ तो शंका जागना स्वाभाविक है। हर कदम पर मदद को बढ़ा हुआ हाथ और उस हाथ को थामते हुए भारी उधेड़बुन। यह संबंध किस मोड़ तक जा सकेगा यह उस महिला के निर्णय पर निर्भर है। घटनाक्रम की स्वाभाविकता ऐसी है गोया सब कुछ अपनी आंखों के सामने घटित हो रहा हो। सभी चरित्रों को उनकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत करना उर्मिला शिरीष की लेखकीय विशिष्टता है जो कथानक को जीवंत बना देती है।
‘‘नियति’’ एक नाटकीय घटनाक्रम के साथ क्लाईमेक्स पर पहुंचने वाली कहानी है जो कुछ पाठकों को असंभावित लग सकती है किन्तु जीवन विविधताओं से भरा हुआ है। यहां कुछ भी असंभव नहीं है। यह कहानी एक ऐसा हल भी देती है जिससे किसी स्त्री का जीवन संवर सकता है। एक विधवा स्त्री जिसकी युवा होती बेटी है। उस बेटी की पढ़ाई-लिखाई, लालन-पालन, सुरक्षा आदि की जिम्मेदारी उठाना असान नहीं है, वह भी अपनी सास एवं ससुरालियों के ताने एवं प्रताड़ना सहते हुए। उस पर अनुबंध का समय समाप्त होने पर उसकी नौकरी भी चली जाती है। तब उसकी एक मैडम उसका साथ देती है। उसके लिए एक विधुर भी तलाशती है। तब प्रश्न आता है बेटी का। इस प्रश्न का समाधान अस्वाभाविक लग सकता है किन्तु असंभव नहीं। आखिर कहानी का नाम भी ‘‘नियति’’ है और नियति में कुछ भी असंभव नहीं होता।
‘‘सप्तधारा’’ कहानी में जिस मुद्दे को उठाया गया है वह लगभग हर दूसरे घर का मुद्दा है। बेटियां तो पराई होती हैं का पुरातन फार्मूला, विवाह के बाद बेटियों के उन अधिकारों को भी छीन लेता है जो उन्हें मानवता के नाते मिलना चाहिए। मान लीजिए कि वृद्वावस्था में बाल-बच्चे दुत्कार दें तो एक अकेली वृद्वा कहां अपना सिर छुपाएगी? कहां शरण पाएगी? क्या वृद्वाश्रम में? एक छोटी-सी मानवीय सोच और पहल वृद्वाश्रम के सरवाजे बंद कर के स्वामित्व और गरिमा भरे जीवन के दरवाजे खोल सकती हैं बशर्ते बचपन से राखी बंधवा कर बहन की ताज़िन्दगी रक्षा करने का वचन देने वाला भाई रास्ता ढूंढ निकाले। यह एक सार्थक कहानी है जो एक सार्थक सोच को प्रस्तावित करती है।
‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’ कहानी संग्रह उर्मिला शिरीष के चिरपरिचित अंदाज़ की कहानियां जिनमें वे संवेदनाओं किसी तार-वाद्य के तार की भांति झंकृत करती हैं और फिर उसकी अनुगूंज में शेष कथा कह जाती हैं। यह अनुगूंज पाठक के मन-मस्तिष्क में भी देर तक गुंजायमान रहती है। चाहे परिवार हो या समाज हो, वे हर स्तर पर मानवता को स्थापित करना चाहती हैं। वे सकारात्मकता पर विश्वास करती हैं और इसीलिए उनकी कहानियां भी एक सकारात्मक संभावना के साथ अपनी पूर्णता को प्राप्त करती हैं। यूं भी उर्मिला शिरीष की कहानियां मनोवैज्ञानिक खिड़कियां खोलती हैंैं। उनकी कहानियों में वर्णित संबंधों में स्वार्थपरता, एकाकीपन, अंतर्विरोध, सामाजिक एवं पारिवारिक द्वंद्व, मानो मौन यथार्थ को शब्द देते हैं। वे स्त्री स्वतंत्रता, स्त्रीशक्ति एवं स्त्री स्वाभिमान को अपनी कहानियों में रखती हैं किन्तु किसी स्त्रीवादी नारे की भांति नहीं अपितु मानवतावादी दृष्टिकोण से, सहज रूप में। उर्मिला जी का शिल्प और भाषाई कौशल उन्हें अन्य समकालीन कथा लेखिकाओं से अलग ठहराता है। उर्मिला शिरीष का यह कहानी संग्रह इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें मात्र समस्याएं और प्रश्न नहीं उठाए गए हैं वरन उनके हल भी सुझाए गए हैं। यह पूरा संग्रह सामाजिक विमर्श का है।
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