Wednesday, October 15, 2025

चर्चा प्लस | असंवेदनशील सियासत की बिसात पर खड़ी स्त्री-अस्मिता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

दैनिक, सागर दिनकर में 15.10.2025 को प्रकाशित  
------------------------
चर्चा प्लस 
असंवेदनशील सियासत की बिसात पर खड़ी स्त्री-अस्मिता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

      मेडिकल की एक छात्रा के साथ गैंग रेप का अपराध अत्यंत दुखद, अत्यंत घृणित। कानून और समाज के मुंह पर किसी जोरदार तमाचे से काम नहीं यह कांड। किंतु इससे भी अधिक शर्मनाक है ऐसी घटना पर राजनीतिक विवाद। अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए घटिया बयानबाजी वह भी एक महिला नेता के द्वारा। जरूरी क्या है कुर्सी या स्त्री की अस्मिता? पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर रेप कांड पर हो रही बयान बाजी ने भारतीय राजनीति के खोखलेपन को भी उजागर कर दिया है। दरअसल, जो राजनीति जनता के पक्ष में होनी चाहिए वह जनता के कमजोर कंधों पर सवार होकर जनता के विरुद्ध ही की जा रही है।

पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में एक मेडिकल छात्रा के साथ दुष्कर्म के मामले पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बयान ने विवाद खड़ा कर दिया। ममता बनर्जी ने सवाल उठाया कि छात्रा आधी रात को हॉस्टल से बाहर क्यों थी? साथ ही नसीहत दे डाली कि  छात्राओं को देर रात बाहर नहीं निकलना चाहिए। उनकी इस बात की बीजेपी ने कड़ी आलोचना की और इस्तीफे की मांग की। पश्चिम बंगाल गैंगरेप पर बयान देते हुए ममता बनर्जी ने सवाल पूछा था कि आधी रात छात्रा हॉस्टल से बाहर कैसे गई? उनके इस सवाल पर सियासी घमासान शुरू हो गया। बीजेपी ने उन्हें श्नारीत्व के नाम पर कलंकश् बताया। यह बयान है भी शर्मनाक। अपने राज्य में स्त्रियों की सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए स्त्रियों को ही घर में कैद रहने की सलाह दिया जाना और वह भी एक स्त्री के द्वारा, इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है।

पश्चिम बंगाल में ही अस्पताल में कार्यरत महिला डॉक्टर के साथ हुए गैंग रेप को अभी लोग भूले नहीं हैं, उस पर ऐसी घटना की पुनरावृत्ति राज्य की कमजोर सुरक्षा व्यवस्था को रेखांकित करती है। ममता बनर्जी ने छात्राओं से देर रात बाहर न निकलने की अपील की है। विशेषरूप से जो छात्राएं दूसरे राज्य से पश्चिम बंगाल में आईं हैं, उन्हें हॉस्टल के नियमों का पालन करने के लिए कहा गया है। सीएम ममता बनर्जी का यह बयान दुर्गापुर रेप कांड के बाद सामने आया।
ओडिशा से दुर्गापुर के एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ने आई एमबीबीएस की छात्रा खाना खाने के लिए अपने दोस्त के साथ बाहर निकली थी, तभी 3 लोगों ने उसका अपहरण कर लिया और जंगल में ले जाकर दुष्कर्म की घटना को अंजाम दिया। अब तक इस मामले में पांचों आरोपी पकड़े जा चुके हैं। प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सख्त कार्रवाई का भरोसा दिलाया है, लेकिन उनके बयान पर विपक्ष और महिला संगठनों ने नाराजगी जताई है।

ओडिशा के बालासोर जिले के जलेश्वर की रहने वाली 23 वर्षीय युवती के साथ शुक्रवार रात उस समय सामूहिक बलात्कार किया गया, जब वह अपनी एक दोस्त के साथ निजी मेडिकल कॉलेज के बाहर खाना खाने गई थी। ममता बनर्जी ने जब यह बयान दिया तब यह कहा गया था कि छात्रा अपनी एक सहेली के साथ रात के खाने के लिए बाहर गई थी। ममता बनर्जी ने रविवार को राज्य के निजी कॉलेजों से कहा कि वे महिलाओं को देर रात बाहर न निकलने दें। उन्होंने पूछा कि कथित दुर्गापुर मेडिकल कॉलेज सामूहिक बलात्कार मामले की पीड़िता रात 12:30 बजे परिसर के बाहर कैसे थी। ममता बनर्जी के शब्दों में ‘‘वह एक निजी मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही थी। सभी निजी मेडिकल कॉलेज किसकी जिम्मेदारी हैं? वे रात 12:30 बजे कैसे बाहर आ गए? जहां तक मुझे पता है, यह घटना जंगल वाले इलाके में हुई। जांच जारी है।’’

 राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने मेडिकल कॉलेज प्रशासन से इस घटना रिपोर्ट मांगी है, लेकिन इस सब से इतर गैंगरेप कब हुआ इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है? क्योंकि राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि रात में लड़कियों को बाहर नहीं जाने देना चाहिए था। ममता बनर्जी ने कहा था कि रात 12:30 बजे बाहर कैसे थी? तो वहीं दूसरी तरफ यह दावा किया जा रहा है कि घटना आधी रात से काफी पहले हुए थी। इस मुद्दे पर बीजेपी भी टीएमसी सरकार को घेर रही है। राज्य के प्रधान सचिव नारायण स्वरूप निगम ने कहा कि मेडिकल कॉलेज प्रशासन से रिपोर्ट की मांग की है। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट के आधार पर आगे की कार्रवाई की जाएगी। घटना के बाद छात्राओं ने कॉलेज परिसर में विरोध प्रदर्शन किया और अधिकारियों पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया।
राष्ट्रवाद, बौद्धिकवाद, स्त्रीविमर्श जैसे बड़े-बड़े भारी-भरकम से लगने वाले शब्द कभी-कभी बहुत छोटे और हल्के लगने लगते हैं। जब एक युवती सामूहिक दुष्कर्म किया जाता है और उसका वास्ता देकर सभी लड़कियों से रात को बाहर न निकलने की सलाह दी जाती है। क्या देश की कानून व्यवस्था इतनी लाचार हो गई है की लड़कियां रात को घर से बाहर नहीं निकल सकतीं? क्या रात को घर से बाहर निकलने पर उन्हें गैंगरेप जैसे अपराध का सामना करना पड़ेगा? यदि यह दोनों ही परिस्थितियों मौजूद है तो फिर कानून व्यवस्था कहां है और क्या कर रही है?  स्त्री अधिकारों के समर्थक कथित बुद्धिजीवी इस विषय पर लगभग खामोश है। क्या बौद्धिक सरोकार भोथरे हो चले हैं या सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गए है? जब बुद्धिजीवी तय न कर पा रहे हों कि ऐसी अमानवीय घटनाओं पर उन्हें क्या कदम उठाने चाहिए तो यह परिदृश्य अनेक सवाल खड़े करता है।

आज भारतीय समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें इतिहास और संस्कृति ही नहीं बल्कि वर्तमान से भी उसका रिश्ता अरूप होता चला जा रहा है। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि इतिहास, विचार और साहित्य से लेकर मूल्यों तक की घोषणाएं की जा रही हैं और हम उन घोषणाओं की वास्तविकता को परखने के बदले उनकी व्याख्या और बहस के लम्बे-चैड़े आयोजन करने में लगे हुए हैं। इस दौर में स्त्री, दलित और जनजातीय समाज लगातार बहस होती है लेकिन परिणाम उस गति से सामने नहीं आते हैं जिसक गति से आने चाहिए। यहां भी बौद्धिकवर्ग दो फड़ में बंटा नजर आता है। समाज के भौतिक सरोकारों से जीवन में मूल्य और आदर्श संकटग्रस्त हो गये हैं। ऐसे दौर में साहित्यिक और सांस्कृतिक उपक्रम समाज को जोड़ने का काम करते हैं। साहित्य और संस्कृति का सीधा सरोकार मूल्य और जीवन की उच्चताओं से होता है। इसीलिए बौद्धिकता के जरिए संस्कृति से जुड़ा जा सकता है और आगामी पीढ़ी को आसन्न संकट से बचाया जा सकता है। लेकिन आज साहित्य जगत में साहित्य की स्थापना नहीं, वरन् व्यक्ति की स्थापना पर ध्यान अधिक रहता है। जहां व्यक्तिवाद होगा वहां समाज सरोकारित साहित्य पर बाजार का साहित्य हावी हो जाएगा। दुर्भाग्य से यही हो रहा है। जबकि मनुष्य मूलतः अनुभव से सीखता है और साहित्य में जीवन के अनुभव का निचोड़ होता है। उदाहरण के लिए यदि प्रेमचंद की कहानियों को लें तो प्रेमचंद की कहानियां सामाजिक बोध कराने के साथ ही अंतरचेतना को जगाती हैं। लेकिन आज के दौर को देख कर लगता है कि यदि आज प्रेमचंद होते तो शायद उन्हें भी व्यक्ति-स्थापना की पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ता। कहने का आशय यह है कि जब बुद्धिजीवी आत्मकेन्द्रित हो जाएगा (भले ही जगत्उद्धार या सरोकार का थोथा दावा करता रहे) तो समाज के सरोकारों को कैसे साध पाएगा?

सोशल मीडिया पर स्वस्थ समाज का ज्ञान बांटने वाले बुद्धिजीवी ट्रूडो और कैटी पेरी के अंतरंग दृश्य को तो धूमधाम से शेयर करके “शर्म-शर्म” की दुहाई देते हैं जबकि उसे संस्कृति या उसे समाज से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि पहले अपने समाज की स्थिति पर ध्यान देना जरूरी है जहां लड़कियां, स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं।
 खतरे सिर्फ रात के अंधेरे के नहीं है दिनदहाड़े के खतरे भी मौजूद हैं। तो क्या लड़कियां दिन में भी ना निकलें? कपड़ों की दुकान से कपड़े ना खरीदें, उनका ट्रायल रूम इस्तेमाल न करें? वर्तमान इलेक्ट्राॅनिक प्रगति ने जहां स्त्रियों को अनेक सहूलियतें दी हैं वहीं उनकी अस्मिता के लिए नए तरह के संकट बढ़ा दिए हैं। उन्हें सबसे अधिक भय कैमरे का रहता है। वह कैमरा कोई भी हो सकता है। चेंजिंग रूम में चुपके से लगाया गया हिडेन कैमरा या फिर मोबाईल फोन का चलता-फिरता कैमरा। लगभग हर माह एक न एक घटना समाचार के रूप में पढ़ने-सुनने को मिल जाती है। मोबाईल फोन के कैमरे ने स्त्री अस्मिता पर हमलावरों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि कर दी है। प्रेमालाप के नाम पर नवयुवक अपनी साथी युवतियों के एम.एम.एस. बना लेते हैं और उसे इन्टरनेट पर सार्वजनिक करने की धमकी दे कर उन्हें ब्लैकमेल करने लगते हैं। गर्ल्स हाॅस्टल के बाथरूम, सार्वजनिक आउटलेट, होटल के कमरे आदि में छिपे कैमरे कई बार पकड़े जा चुके हैं। यह सब इसलिए कि ऐसी अश्लील फिल्में इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं और उकसाती हैं अधकचरे मस्तिष्क को।
उंगलियों पर गिने जा सकते हैं वे बौद्धिक लोग जिन्होंने स्त्रीजाति के सम्मान और सुरक्षा के प्रश्न पर अपने सम्मान लौटाए या धरना प्रदर्शन किया। बेशक उनमें भी कई राजनीति प्रेरित थे किन्तु सोशल मीडिया से बाहर निकल कर आवाज उठाना और प्रत्यक्ष, खुली प्रतिक्रिया देना भी बौद्धिक स्तर पर प्रतिवाद का ही एक तरीका है। क्या बौद्धिकवर्ग को इस बात पर एकजुट हो कर अपनी सच्ची बौद्धिकता का परिचय नहीं देना चाहिए कि भारतीय क्षेत्र में इंटरनेट पर पोर्न साईट्स बैन कर दी जाएं, महिलाओं-बच्चों के प्रति जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों को फास्ट-ट्रैक कोर्ट में जल्दी से जल्दी सजा सुनाई जा कर सजा दे भी दी जानी चाहिए। क्योंकि सजा सुनाए जाने और सजा देने में वर्षों का फासला कानून व्यवस्था से भरोसा उठाने लगता है और तब एन्काउंटर को समर्थन मिलना स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है। 

आज जब आपराधिक असंवेदनशीलता अपने चरम पर जा पहुची है तब ऐसे कठोर समय में बौद्धिक सरोकार का तटस्थ रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। समाज में स्त्रियों को एक सुरक्षित निडर वातावरण देने की बजाय उन्हें डर कर रहने और दुबक कर बैठने की सलाह दी जाए तो यह 21वीं सदी का माहौल तो नहीं कहा जा सकता है। बेहतर है की राजनीति की बरसात पर स्त्रियों की अस्मिता को दांव पर लगाने की बजाय एक स्वस्थ और निडर माहौल बनाने के लिए सभी एकजुट हों।  
  ---------------------------
#DrMissSharadSingh  #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह #पश्चिमबंगाल #ममताबनर्जी #विवाद

Tuesday, October 14, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ”
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
(बुन्देली काव्य संग्रह)  - ई कुदाऊँ हेरौ
कवयित्री   - डॉ. प्रेमलता नीलम
प्रकाशक  - भव्या पब्लिकेशन
एल. जी. 42, लोअर ग्राउण्ड, करतार आर्केड, रायसेन रोड भोपाल, मध्यप्रदेश- 462023
मूल्य    - 300/-
---------------------

खंचत हारी, घुँघटा खेंचत नयना
जे दोऊ हैं अनारी
इन नयनों से बचकें रइयो,
रामधई देखत चढ़त तिजारी ।
भाल पै बिंदिया चम-चमके कानन करनफूल दम-दमके,
ठुसी, तिदानें, हमेल लटकें
करधनी पैरें, झूलन झूलाबारी।
  “ई कुदाउँ हेरौ” बुंदेली कविता की यह पंक्तियां बुंदेलखंड की रससिक्कतता की परिचायक हैं।  “ई कुदाउँ हेरौ” का अर्थ है इस तरफ देखो। एक स्त्री जब पूरा साज श्रृंगार कर लेती है तो उसके बाद वह चाहती है कि उसका प्रिय उसे जी भर कर देखें, उसके सौंदर्य की, उसके साज- सज्जा की प्रशंसा करें । यही भाव इस कविता में है जिसकी कवयित्री हैं डॉ. प्रेमलता नीलम। बुंदेलखंड में बुंदेली में लिखने वालों में एक चिरपरिचित नाम है डॉ प्रेमलता नीलम का। उनका नाम मंचों पर सम्मान सहित जाना जाता है। बुंदेली भूमि में जन्मी डॉ नीलम बुंदेली संस्कृति में रची बसी हैं। उन्होंने बुंदेली संस्कृति पर काफी सृजन किया है। उनकी यह कृति “ई कुदाउँ हेरौ” तेरहवीं कृति है।
        “ई कुदाउँ हेरौ” में संग्रहीत सभी काव्य रचनाओं को उनकी भाव भूमि के अनुसार चार खंड में विभक्त किया गया है। प्रथम खण्ड है देववंदना। इसमें सभी देव वंदनाएं रखी गई हैं। जैसे- गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, मझ्या दुरगा वन्दना, शिव आराधना, दूल्हा देव हरदौल तथा मातु पारवती अराधना (तीजा)।
             दूसरे खण्ड में “हमाऔ बुन्देलखण्ड” शीर्षक से जो रचनाएं संग्रहीत हैं उनमें बुंदेलखंड की विशेषताएं सहेजी गई है जैसे बुंदेलखंड के वीर नर- नारी तथा ग्रामीण अंचल की विशेषताएं आदि। इस खंड की कविताओं के शीर्षक देखिए जिनसे इसका कलेवर स्पष्ट हो जाएगा- मोरौ प्यारौ बुन्देलखण्ड,
रानी दुर्गावती, देवी दुर्गा अवतार, सुभद्रा कुमारी चौहान, बुन्देलखण्ड की वीरांगना, लक्ष्मी बाई, राजा वीर छत्रसाल, आल्हा ऊदल, हमाओ पियारो, हमाये गाँव,, भारत-माता, तिरंगी चुनरिया, हिलमिल रइयो, गाँव की सुद आऊत तथा रसवंती बोली बुन्देली।
        सुभद्रा कुमारी चौहान का स्मरण करते हुए, उन्हें अपना अपनत्व पूर्ण जिज्जी का संबोधन देते हुए डॉ नीलम ने ये पंक्तियां लिखी हैं-
जिज्जी बुंदेलखंड की भौतऊ नौनी शान, कवयित्री सुभद्रा कुमारी जूं चौहान
बुंदेलखंड के भइया बिन्नू हरों कौ,
भौतऊ नौनौ बढ़ाऔ है उनने मान,
जिज्जी जूं खौं बारम्बार प्रनाम ।

        तीसरे खण्ड में ऋतु संबंधी कविताएं हैं। जैसे- मन-बसंत, दुपरिया, सदसौ, उरेती की बूँदन, रिमझिम फुहार, वन - बसंत, बासंती - बयार, होरी के रंग, बीत हैं फिर दिन तपन के, स्यामा सांवरे घन साँवरे, घामौ, बैरन बदरिया, मनमीत, होरी के ढंग, परि पात, नजरिया, बाबरे, बदरा, मौसम आओ, आसा, फिर आई , होरी, सरद-रात, शीत लहर, कछु पतों नई, श्याम रंग, ठिठोली, कलुआ, गाँव में उमरिया, बदरिया - थम जा घनश्याम।
      तपते हुए जेठ मास की स्थिति का वर्णन करते हुए कवयित्री ने लिखा है- कछु पतों नई
कबे निकरो जेठ मास,
कबे आओ अषाढ़ मास
कछु पतौ नई चलौ ।
पहार सो दिन कड़ गओ,
कबे ऊं सूरज डूब गओ 
गइयन की ने डारी घांस
कछु पतौ नई चलौ ।
         चतुर्थ खण्ड में प्रेमानुरागी कविताएं हैं जैसे-  हिरदय बसिया, ई कुदाउँ हेरौ, खुनखुना, हँसन तुमाई, बिरथा उछाह, दुलार, जगो भोर भई, गुगुदी सी, गुइंयाँ, मनुआँ, सखी री, वीरन वेगिं अइयो, बैठ सकूटर पै, गुइयाँ पढ़बे चलो,-सुधियाँ, छिया-छियौऊअल, पिया अंगना, जीवन को उजियारो, मामुलिया, प्रेम, चलती बिरियाँ, पीरा, लोरी, उठो धना, भरत नैन मतारी, लौ लइयों, प्रीत अपुन की,  हिय के जियरा, सुद्ध बैहर, हरे मोरे राम जू, पुरखों की बगिया, कुंजन वन सी, नोने बुन्देली व्यंजन,  जीवन नइया, मन के तार, सुद्ध पानूँ,  नइयाँ पिया घरै, आऊँने पर है, कोयलिया कारी, बातन को धांसू तथा मन की पीर।
     इस खंड में एक बहुत छोटी सी किंतु बहुत महत्वपूर्ण रचना है “बैठ सकूटर पै” जिसमें दिखावा पसंद युवा पीढ़ी पर कटाक्ष किया गया है-
इन लरकन ने सबरी पूँजी
फैसन में गवांई
कै सुनो मोरे भाई..........
जुल्फे पारें छल्लादार कुरती ओछी चुन्नटदार समझ नै आवें नर कै नार
रंगी भौहें, मूंछो की कर दई सफाई..

डॉ प्रेमलता नीलम की रचनात्मकता के संबंध में भूमिका लिखते हुए डॉ श्यामसुंदर दुबे जी ने उचित लिखा है कि “बुन्देली की परंपरागत लोक कविता और आधुनिक कवियों द्वारा रचित कविताओं में वह राग-विराग-निष्ठा विधमान है। 'ई कुदाउँ हेरौ' बुंदेली काव्य रचनाओं का संकलन है। यह सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. प्रेमलता नीलम द्वारा रचित है। बुन्देली भावों का इंद्रधनुषी उजास इस संकलन को मनोरम्य बनाती है।”
       इसी प्रकार संग्रह की रचनाओं के प्रति अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए महेश सक्सेना ने लिखा है- "ई कुदाउँ हेरौ- बुन्देली काव्य संग्रह में गीत प्रस्तुत है जिनमें रागात्मकता और लालित्य है। गीतों की सरंचना में लोकजीवन बिम्व और प्रतीकों का चयन किया गया है। डॉ. नीलम के बुन्देली गीतों में गेय तत्व की प्रधानता है। बुन्देलखण्ड की अनोखी छटा इस पुस्तक में समाहित है। यह रचनायें लोक जीवन में प्रचलित धुनों पर गायकों द्वारा गायी जाएंगीं। "ई कुदाउँ हेरौ" पुस्तक में वीर पुरुष छत्रसाल, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, आल्हा ऊदल, लोक देवता हरदौल तथा प्रकृति से जुड़े मौसमी भावविचार श्रृंगार की छटा दृष्टिगोचर होती है। इन रचनाओं में पाठकों के मन में हर्षोल्लास जागृत होता है।”
     किसी भी बोली का विकास एवं संरक्षण तभी संभव है जब उस बोली में अधिक से अधिक साहित्य सृजन किया जाए ताकि वह बोली कविता, कहानी, कहावतों आदि के रूप में जन-जन तक पहुंचे। “ई कुदाउँ हेरौ” डॉ प्रेमलता नीलम की एक ऐसी काव्य कृति है जो बुंदेली काव्यात्मकता से तो जोड़ती ही है साथ ही बुंदेली संस्कृति एवं जीवन से भी जोड़ने का कार्य करती है। इस संग्रह की कविताएं बुंदेली जीवन से भली-भांति परिचित कराने में सक्षम है तथा इनका माधुर्य लोक जीवन को हृदय में सहज ही उतार देता है। चूंकि डॉ प्रेमलता नीलम बुंदेलखंड के दमोह शहर की निवासी हैं उनकी बुंदेली में दमोह अंचल की छाप है। हर बोली कि यह विशेषता होती है कि वह हर 100 कोस में कुछ न कुछ भाषाई परिवर्तन सहेज लेती है, देखा जाए तो यही बोली का लालित्य होता है। डॉ नीलम की लालित्यपूर्ण काव्य रचनाओं का यह बुंदेली काव्य संग्रह पठनीय एवं रोचक है। दरअसल, बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” अर्थात जरा बुंदेली संस्कृति की ओर देखो।
---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer
#पुस्तकसमीक्षक #पुस्तक #आचरण #DrMissSharadSingh

Friday, October 10, 2025

शून्यकाल | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
 ----------------------------
 ----------------------------
शून्यकाल
बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
         जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक है। परिवर्तन गतिशीलता का द्योतक होता है लेकिन स्वस्थ परंपराओं में परिवर्तन क्षेत्र की जातीय पहचान को संकट में डाल देता है। युवा पीढ़ी ऐसे कई पारंपरिक त्योहारों से दूर होती जा रही है जिनका जीवन, पर्यावरण और संस्कारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज मोबाइल संस्कृत में त्यौहार की परंपराओं पर बाजार का प्रभाव गहरा दिया है। जिससे त्यौहार की मौलिकता खत्म होती जा रही है, बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है।

    बुंदेलखंड में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हें बड़े-बूढ़े, औरत, बच्चे सभी मिलकर मनाते हैं। लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ बेटियां ही मनाती हैं, विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं। ऐसा ही एक त्यौहार है मामुलिया। बड़ा ही रोचक, बड़ा ही लुभावना है यह त्यौहार। यह जहां एक और बुंदेली संस्कृति को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर भोली भाली कन्याओं के मन के उत्साह को प्रकट करता है। दरअसल मामुलिया बुंदेली संस्कृति का एक उत्सवी-प्रतीक है। आज के दौड़-धूप के जीवन में जब बेटियां पढ़ाई और अपने भविष्य को संवारने के प्रति पूर्ण रूप से जुटी रहती है उनसे कहीं सांस्कृतिक लोक परंपराएं छूटती जा रही है मामुलिया का भी चलन घटना स्वाभाविक है। आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया। यूं तो मामुलिया मुख्य रूप से क्वांर मास में मनाया जाता है। इस त्यौहार में अलग-अलग दिन किसी एक के घर मामुलिया सजाई जाती है। जिसके घर मामुलिया सजाई जाने होती है, वह बालिका अन्य बालिकाओं को अपने घर निमंत्रण देती है। सभी बालिकाओं के इकट्ठे हो जाने के बाद वे बबूल या बेर के कांटों में रंग-बिरंगे फूल लगा कर उसे सजातीं हैं। यही सजी हुई शाख मामुलिया कहलाती है। मामुलिया को सजाने के बाद भुने चने, ज्वार की लाई, केला, खीरा आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके बाद बालिकाएं हाथों में हाथ डालकर मामुलिया के चारों ओर घूमती हुई गाती है-‘‘झमक चली मोरी मामुलिया....’’। इस प्रकार गांव भर में घूमती हुई बालिकाएं नदी अथवा तालाब के किनारे पहुंचती हैं। वे मामुलिया को नदी या तालाब में सिरा देती हैं। मामुलिया सिरा कर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखने से भूत लग जाता है। घर लौटने पर वह बालिका जिसके घर मामुलिया सजाई गई थी, शेष बालिकाओं को भीगे चने का न्योता देती है। मामुलिया बेटियों के पारस्परिक बहनापे का भी त्यौहार है। इस त्यौहार में बड़ों का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है अतः इससे बेटियों में सब कुछ खुद करने का आत्मविश्वास और कौशल बढ़ता है। इस प्रकार के त्यौहारों को उत्सवी आयोजन के रूप में मनाते हुए बचाया जा सकता है। जैसे दिसम्बर 2012 में झांसी महोत्सव में भी मामुलिया सजाने की प्रतियोगिता करा कर बेटियों को मामुलिया के बारे में जानकारी दी गई थी। इसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को हमीरपुर आदिवासी डेरा में ‘बेटी क्लब’ द्वारा लोक परंपरा का खेल मामुलिया और सुअटा खेला गया।  इसका संरक्षण आवश्यक है। क्योंकि यह परंपरा बेटियों के सम्मान के लिए बनाई गई है। ग्राम बसारी, हटा आदि लोकोसत्वों में भी मामुलिया जैसी परम्पराओं पर ध्यान दिया जाता है किन्तु जरूरी है शहरी जीवन को इन रोचक परम्पराओं से जोड़ना।

दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चौक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया।  बाद में भी वे दीपावली पर पूछा करती थीं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।

दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के  चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।
----------------------------
#DrMissSharadSingh #columnist #डॉसुश्रीशरदसिंह  #स्तम्भकार #शून्यकाल #कॉलम #shoonyakaal #column  #नयादौर

Thursday, October 9, 2025

चर्चा प्लस | क्या उनकी आत्मा उन्हें कभी धिक्कारती नहीं? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 08.10.2025 को प्रकाशित)  
------------------------
चर्चा प्लस               
क्या उनकी आत्मा उन्हें कभी धिक्कारती नहीं?   
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
     उन बच्चों को खांसी आ रही थी। मां-बाप ने दवा समझ कर जो कफ सिरप उन्हें पिलाया वह ज़हर निकला। खांसते, तड़पते बच्चे मौत की नींद सो गए। बच्चों की खांसी खतम नहीं हुई बल्कि उनकी किडनी गलने लगी। बाज़ार जागता रहा। नफ़े की दरिया बहती रही। मां-बाप के सपने उसमें डूबते रहे। यदि बात मीडिया तक नहीं पहुंची होती तो मौत का बाज़ार यूं ही गर्म रहता। सिरप लिखने वाले डाक्टर पकड़े गए। सिरप बेचने वाले दूकानदार पकड़े गए। मगर उनका क्या जिन्होंने ऐसे सिरप बनाए और उनका क्या जिन्होंने क्वालिटी टेस्ट में बेझिझक ‘‘ओके’’ सर्टीफिकेट दे दिया। वे ड्रग इंस्पेक्टर, ड्रग अधिकारी और उनको बचाने वाले उनके आका, उन सबको चैन की नींद कैसे आती होगी? क्या उनकी आत्मा उन्हें कभी धिक्कारती नहीं?  

राजस्थान और मध्य प्रदेश में कफ सिरप पीने से कई बच्चों की मौत हो गई और कई बच्चे गंभीर रूप से बीमार हैं। इसके बावजूद, राजस्थान की सरकार मानने को ही तैयार हुई कि बच्चों की मौत कफ सिरप पीने से हुई है। कफ सिरप में गड़बड़ी के चलते 2019 में जम्मू-कश्मीर में 19 बच्चों की मौत हो गई थी। साथ ही, गांबिया और उज्बेकिस्तान में भी कई बच्चों की मौत हुई थी। तब भी जांच में गड़बड़ी पाई गई थी, लेकिन प्रदेशिक सरकारें इन मौतों पर पर्दा डालने का पूरा प्रयास करती रही, जब तक कि मीडिया सजग नहीं हो गया। 
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में कफ सिरप पीने से 11 बच्चों की मौत के बाद राज्य सरकार ने सख्त कदम उठाए। सिरप का सुझाव देने वाले डॉक्टर और सिरप निर्माता कंपनी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। डॉ. प्रवीण सोनी को गिरफ्तार कर लिया गया। तमिलनाडु की दवा निर्माता कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के खिलाफ मामला दर्ज होने के बाद, विशेष जांच दल-एसआईटी तमिलनाडु में मामले की जांच करेगा। इस बीच, जारी एक रिपोर्ट में कोल्ड्रिफ सिरप में हानिकारक डायएथिलीन ग्लाइकॉल की मात्रा 48 दशमलव 6 प्रतिशत पाई गई है। बीते एक महीने में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में 11 और राजस्थान में तीन बच्चों की मौत के बाद दोनों राज्यों में बाल स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं। इन बच्चों के परिवार का कहना है कि कफ सिरप पीने के बाद बच्चों का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ा और उन्हें बचाया नहीं जा सका। मध्य प्रदेश ड्रग कंट्रोल विभाग ने शनिवार सुबह तमिलनाडु में बनने वाली कोल्ड्रिफ कफ सिरप पर प्रतिबंध लगा दिया था। वहीं पुलिस ने सरकारी डॉक्टर प्रवीण सोनी, कफ सिरप बनाने वाली कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के संचालकों और अन्य लोगों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की गई। यह कार्रवाई 5 अक्तूबर को परासिया ब्लॉक के चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर अंकित सहलाम की शिकायत पर हुई।
कोल्ड्रिफ कफ सिरप पीने से शिशुओं और बच्चों की मौत का मामला बढ़ता ही गया। मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस सिरप को पीने से कई बच्चों ने अपनी जान गंवा दीं। मासूमों के माता-पिता गहरे सदमें में हैं। उनके लिए यह विश्वास करना कठिन है कि जिसे वे अमृत समझ कर अपने बच्चों को पिला रहे थे, वह घोर हलाहल विष था। इस सिलसिले में बैतूल के कलमेश्वरा गांव के कैलाश यादव के बच्चे की मौत भी 8 सितम्बर को हुई थी। कैलाश अपने 3 साल 11 माह के बेटे कबीर की सर्दी खांसी होने पर छिंदवाड़ा के परासिया के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ प्रवीण सोनी के पास 24 अगस्त को इलाज के लिए ले गए थे। डाक्टर ने उसे सर्दी खांसी के कोल्ड्रिफ सिरप सहित अन्य दवाएं लिखी थी। इन दवाइयों के उपयोग के बाद बच्चे की तबीयत और बिगड़ गई। इसके बाद उसका तीन अस्पतालों में इलाज कराया गया लेकिन 8 सितम्बर को मौत हो गई। कैलाश यादव ने हर संभव प्रयास किया कि उसका बेटा बच जाए। डॉ प्रवीण सोनी के द्वारा कोल्ड्रिफ सिरप लिखे और पिलाए जाने के बाद बच्चे की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। तब उसे दूसरे क्लिनिक में भेजा गया। दूसरे क्लिनिक वाले ने बताया कि बच्चे की किडनी धीरे-धीरे खराब हो रही है। इसके बाद उसका इलाज चार अस्पतालों में कराया लेकिन कैलाश अपने बेटे को बचा नहीं सके। उन्हें बेटे के इलाज के लिए अपनी जमीन भी गिरवी रखनी पड़ी। उनके हजारों रुपए खर्च हो गए। कैलाश यादव के अनुसार कुल मिलकर साढ़े चार लाख का खर्च आया, फिर भी बेटा बच नहीं सका। वह उनका अकेला बेटा था। एक बाप के लिए इससे बढ़कर कष्टप्रद और क्या हो सकता है कि उसे अपने बेटे को तिल-तिल कर के मरते हुए देखना पड़े। कैलाश यादव ने जांच टीम को कोल्ड्रिफ सीरप की शीशी सौंपी जिसमे थोड़ी सी दवाई बची थी। इसके अलावा दो अन्य दवाओं की शीशी भी उन्होंने दी जिसको लैब भेजा गया है। यह एक बाप की व्यथा-कथा है जबकि सिरप के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या डेढ़ दर्जन से अधिक है।  
अमानवीयता की हद ये कि मध्यप्रदेश में 16 बच्चों की जान लेने वाला कोल्ड्रिफ सिरप किसी दवा फैक्ट्री में नहीं, बल्कि एक जहरघर में बना था जहां घरेलू गैस चूल्हों पर केमिकल उबाले जा रहे थे। प्लास्टिक पाइपों से जहरीला तरल टपक रहा था और बिना दस्ताने, बिना मास्क के मजदूर मौत का सिरप घोल रहे थे। जंग लगे उपकरण, गंदगी, खुली नालियां, दीवारों पर फफूंदी, कोई एयर फिल्टर नहीं, कोई लैब नहीं, कोई सुरक्षा सिस्टम नहीं। जांचकर्ताओं ने 39 गंभीर और 325 बड़ी खामियां दर्ज कीं। जांच में खुलासा हुआ कि कांचीपुरम की श्रीसन फार्मास्यूटिकल्स ने इस सिरप को बनाने के लिए इंडस्ट्रियल ग्रेड केमिकल चेन्नई के स्थानीय डीलरों से नकद और जीपे से खरीदे, वो भी बिना किसी जांच या अनुमति के। यानि सिरप में इस्तेमाल होने वाले अहम रासायनिक तत्व प्रोपाइलीन ग्लाइकॉल को किसी प्रमाणित दवा सप्लायर से नहीं बल्कि पेंट और केमिकल व्यापारियों से लिया था, वो भी बिना किसी परीक्षण के। यह कैसे संभव हो पाया? उस समय वे सारे जांचकर्ता कहां थे जिनकी जिम्मेदारी किसी भी दवा के निर्माण प्रक्रिया पर ध्यान रखने की है? दरअसल लाइसेंसधारी दवा निर्माता इंडस्ट्रियल केमिकल से बच्चों की दवा बना रहे थे और देश का नियामक तंत्र बस तमाशा देख रहा था। जांच विशेषज्ञों के अनुसार इस सिरप में पाया गया 48.6 प्रतिशत डाइएथिलीन ग्लाइकॉल वही रासायनिक जहर है जो पेंट और एंटीफ्रीज में इस्तेमाल होता है। यही जहर बच्चों की दवा बनकर उनके गले से नीचे उतरा और सीधे किडनी फेल कर गया। इलाज के नाम पर दी गई इस दवा ने 16 मासूमों की सांसें छीन लीं। तमिलनाडु ड्रग्स कंट्रोल डायरेक्टरेट की 3 अक्टूबर 2025 की जांच रिपोर्ट में बताया गया कि कोल्ड्रिफ सिरप में 48.6 फीसदी डाइएथिलीन ग्लाइकॉल मिला था वही इंडस्ट्रियल सॉल्वेंट जो पेंट और एंटीफ्रीज में इस्तेमाल होता है। यही जहरीला सिरप छिंदवाड़ा में बुखार और खांसी से पीड़ित बच्चों को दिया गया, जो इलाज नहीं बल्कि मौत का फरमान साबित हुआ।
1 और 2 अक्टूबर को जब देश में नवमीं और दशहरा मनाया जा रहा था तब फैक्ट््री पर छापा मार का भयावह सच का सामना किया जा रहा था। क्या इसके लिए सिर्फ दवा कंपनी जिम्मेदार है? क्या सिर्फ डाक्टर जिम्मेदार हैं? या वह पूरा तंत्र जिम्मेदार है जो ऐसे घातक निर्माण के प्रति आंखे मूंदे बैठा रहता है। सारा मामला प्रकाश में आने के बाद जितना शोर मीडिया ने मचाया और अदालत ने संज्ञान में लिया उतना न तो आम जनता ने इसे गंभीरता से लिया और न राजनीतिज्ञों ने। त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में कहीं कोई कैंडल मार्च नहीं हुआ और ना ही आमजन की ओर से बड़ी प्रतिक्रिया सामने आई। अभी भी न जाने कितने मानक नियमों का उल्लंघन करते हुए जीवन से खिलवाड़ कर रहे होंगे किन्तु स्वार्थ एवं चेतनाहीनता की पराकाष्ठा ने आंखों पर पर्दा डाल रखा है।
हाल ही में शरद पूर्णिमा के अवसर पर मिठाइयों में काम आने वाला मावा कई स्थानों पर बिकता हुआ अमानक स्तर का ही नहीं वरन जहरीले स्तर का पाया गया। जहर के सौदागरों का ऐसा साहस कैसे हो जाता है? स्पष्ट है कि लम्बी कानून प्रक्रिया और अपने आकाओं का भरोसा उन्हें दुस्साहसी बनाए रखता है और वे दूसरों के स्वास्थ्य एवं जान से खिलवाड़ करते रहते हैं।
निठारी कांड को हो सकता है कि कई लोगों ने भुला दिया हो किन्तु जिन लोगों ने नहींे भुलाया आज भी उन्हें उन मासूम बच्चों की सिसकियां परेशान करती होंगी। लेकिन शायद बच्चों के जीवन से खेलने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे शायद चैन की कहरी नींद सोते होंगे। वरना ऐसा जघन्य अपराध करने से पहले वे सौ बार सोचते। उस प्रशासन तंत्र को भी सोचना चाहिए कि मासूम बच्चों की मौत पर खड़े किए गए भविष्य के महल कभी टिक नहींे पाते हैं, वे एक दिन भरभरा कर ढह जाते हैं। अफसोस कि इससे पहले वे दर्जनों मासूमों से उनके जीवन का अधिकार छीन चुके होते हैं। मासूम बच्चों के माता-पिता के सुनहरे सपनों को रौंद चुके होते हैं। क्या ऐसे लोगों को जो मासूम बच्चों की मौत के जिम्मेदार हैं उन्हें फांसी नहीं तो कम से कम आजन्म कारावास जैसा कठोर दण्ड तो मिलना ही चाहिए। दण्ड की एक मिसाल जरूरी है इस तरह के बाकी अपराधियों को सबक सिखाने के लिए। वरना ऐसे अपराधी अपराध कर के भी चैन की नींद सोते रहेंगे और अभागे मां-बाप अपनी संतानों को असमय खो कर पीड़ा के साथ जीवन भर जागते रहेंगे। आमजन और प्रशासन दोनों को अपनी सजगता का परिचय देने की जरूरत है यदि वे अपनी भावी पीढ़ी को सुरक्षित देखना चाहते हैं तो। 
  ---------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

Tuesday, October 7, 2025

पुस्तक समीक्षा | पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा  
पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
काव्य संग्रह  - दोहा मंजूषा
कवयित्री     - पुष्पा चिले
प्रकाशक -. जवाहर पुस्तकालय, हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक,मथुरा, उ.प्र.
मूल्य      - 200/-
---------------------
  हिन्दी काव्य में दोहा सबसे अधिक प्रचलित विधा रही है। दो पंक्तियों में सब कुछ कह देने की कला, छांदासिकता एवं स्मरणीय रहने की क्षमता ने सृजनकर्ताओं को सदैव इस विधा की ओर आकर्षित किया है। दोहे गागार में सागर भरने की कला रखते हैं। दोहों के संबंध में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखत में छोटे लगें,  घाव करें गंभीर।।

मध्यप्रदेश के दमोह शहर की प्रतिष्ठित रचनाकार पुष्पा चिले के उपन्यास, कहानियां, कविता संग्रह आदि प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु इस बार उनका दोहा संग्रह प्रकाशित हो कर पाठकों के समक्ष आया है। दोहा संग्रह का नाम है-‘‘दोहा मंजूषा’’। संग्रह की भूमिका डॉ. एस. पी. पचौरी सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड वि. वि. छतरपुर म. प्र. ने लिखी है। उन्होंने पुष्पा चिले के दोहों पर प्रकाश डालते हुए लिखा हैं कि ‘‘इनके द्वारा सृजित 1021 दोहों वाली इस कृति में प्रायः सभी पहलुओं यथा-सामाजिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, राष्ट्रीय तथा लौकिक जीवन के मर्मस्पर्शी उद्धरण एवं संवाद समायोजित हैं। पुराणों से लेकर आत्मज्ञान की बातें जो बुजुर्गों द्वारा कही, सुनाई जाती हैं, इनके दोहों की बुनियादें हैं। इनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि श्रीमती चिले को समाज की तथा उसमें रहने वाली पीढ़ी-दर-पीढ़ी की विशेष चिंता है। इसीके वशीभूत वह अपने दोहों के मार्फत लोगों को न केवल दिशा निर्देश देती प्रतीत हैं, बल्कि उन्हें समाज और जीवन के प्रायोगिक धरातल पर खरा उतरने के प्रति सचेत करती हुई ऐसे-ऐसे नुक्खे प्रदान करती दृष्टिगोचर होतीं हैं, जिससे वह जीवन में न केवल सफलता के सोपान अर्जित करें, बल्कि मानवतावादी सांचे में ढलकर ऐसा जीवन व्यतीत करे, जिससे समाज भी आलोकित हो सके। प्रकारांतर से रचना का यही उद्देश्य प्रतीत होता है। इसी क्रम में राधाकृष्ण, गोपियों के संवाद, देशप्रेम की भावना, स्वर्णिम भारत भूमि, महाराणा प्रताप, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महारानी पद्मावती का शौर्य पराक्रम, उनका बलिदान आदि की अमर मार्मिक गाथाओं को दोहावली में संजोया गया है। भारत की समृद्ध परम्परायें, वासंती हवायें, पवित्र पावन गंगा, मातृभाषा हिंदी, गौरवशाली भारत का संविधान, भारतीय सेना के रणबांकुरे, पराक्रमी जवानों आदि सभी का आदर सम्मान करते हुए कवयित्री ने अपनी सृजन यात्रा में प्रेरणास्पद अंशों को समाहित करते हुए रचना को जीवंत बनाने का हर संभव प्रयास किया है।’’

पुप्पा चिले ने अपने दोहों में वर्तमान जीवनमूल्यों पर गहन दृष्टि डाली है। वे जीवन के हर पक्ष का आकलन करती हैं। यूं भी धर्म, चिन्तन एवं दर्शन का भारतीय मानस में बहुत अधिक महत्व है। स्वयं को नास्तिक कहने वाला व्यक्ति भी कभी न कभी ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास करने लगता है अथवा निरुत्तर रह जाता है। अतः ईश्वरीय सत्ता के मानवीय रूप से दोहा संग्रह का आरम्भ कवयित्री ने किया है जिसमें उन्होंने श्रीराम के श्रीसीता से प्रथम भेंट के प्रसंग को चुना है-
पुष्प वाटिका में हुआ, प्रथम सिया का दर्ष। 
हृदय भरा रघुनाथ के, अनिवर्चनीय हर्ष ।।
अमर हो गयी वाटिका, जहाँ रहीं जगदम्ब । 
दुखी हो रही जानकी, प्रभु आओ अवलम्ब ।।

जीवन में सब कुछ सुखद रहे, यह संभव नहीं है। जैसे दिन के बाद रात आती है, प्रकाश के साथ अंधकार का अस्तित्व बनता चलता है उसी प्रकार सुख के साथ दुख की घड़ियां भी नेपथ्य में आकार लेने लगती हैं तथा समय आने पर वे प्रकट हो जाती हैं। यही हुआ श्रीराम एवं श्रीसीता के जीवन में भी। एक वाटिका में दोनों ने परस्पर प्रथम दरस पाए थे और कुछ अंतराल बाद जब शोकचक्र चला तो दूसरी वाटिका में सीता को राम के स्मरण में अश्रु बहाते हुए दिन व्यतीत करने पड़े। इस प्रसंग को कवयित्री ने कुछ इस प्रकार लिखा है-
शोक वाटिका में सिया, हर पल जपतीं राम । 
शोक संतप्त अशोक भी, जपता प्रभु का नाम ।।

कवयित्री पुप्पा चिले भारतीय दर्शन के उस पक्ष को भी साथ ले कर चली हैं जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया है तथा अहंकार मुक्त जीवन जीने का मार्ग सुझाया है- 
गीता में श्रीकृष्ण ने, दिया वास्तविक ज्ञान। 
प्रभु से सुनकर पार्थ को, हुआ सत्य का भान।।
रथ के पहिये को उठा, किया कृष्ण ने वार। 
विजय सत्य की हो गयी, अंहकार गया हार।।
जीवन रथ को ले चलो, अब तो प्रभु के धाम। 
संघर्षों ने  थका दिया,  वहीं मिले आराम।।
सप्त रश्मियों से सजे, रथ में नित आदित्य । 
धरा प्रकाशित कर रहे, तिमिर हटायें नित्य ।।

कवयित्री जीवन इमें आने वाले उतार- चढ़ाव से न घबराने का भी आह्वान करती हैं। परिस्थितियां चाहे कितनी भी विपरीत क्यों न हों, व्यक्ति यदि आत्मविश्वास बनाए रखे तो वह कीचड़ में कमल के समान खिल कर अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। दोहा देखिए-
कीचड़ में खिलकर हमें,पंकज देता ज्ञान । 
जग में रहकर भी रहें, हम भी कमल समान।।
यदि शुचिता उर में बसे, सदा रहें हरी संग। 
सारा जग सुन्दर लगे, झरती रहे उमंग।।
प्रगति के सोपानों पर, बाधा के प्रतिकूल। 
बिना रुके बढते रहें, मिले शिखर अनुकूल ।।
जीवन पथ में तितिक्षा, आती है बहु काम। 
यही जीत का रास्ता, मंजिल का पैगाम ।।

ऐसा नहीं है कि कवयित्री पुष्पा चिले दर्शन पर ही ध्यान दे रही हों, उनका ध्यान उस ओर भी है जहां भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वे राजनीति में आती जा रही निर्लज्जता से क्षुब्ध हैं। नेताओं एवं अधिकारियों की मिलीभगत भी उनकी दृष्टि से छिपी नहीं हैं। जिन लोगों को जनता के हित पर ध्यान देना चाहिए, वे ही जनता को लूट रहे हैं, कवयित्री ने इस दशा पर तीखा कटाक्ष किया है-
नेता हैं निर्लज्ज वे, वादे करें अनेक। 
जेबें अपनी भर रहे, झूठी बातें फेंक ।।
भ्रष्टाचार को देखके, क्षुब्ध हो रहे लोग। 
नेता, अधिकारी सबै, भाये वैभव रोग ।।
नेताओं को सुध नहीं, जनता है बेहाल। 
जनता को ही लूटके, हो गय मालामाल।।

इसी के साथ वे नेताओं से अपेक्षा करती हैं कि उन्हें अपने कर्तव्यों को याद रखना चाहिए तथा भ्रष्टाचार में लिप्त न होते हुए जनहित में काम करना चाहिए-
नेताओं से अपेक्षा, करें सुनीति विचार। 
जनहित के कल्याण का, रहे प्रथम आधार।।

कवयित्री ने वर्तमान समाज में आती जा रही असंवेदनशीलता को भी रेखांकित किया है। एक समय था जब श्रवण कुमार जैसे पंत्र ने अपने माता-पिता को अपने कंधे पर रखे कांवर में बिठा कर तीर्थयात्रा कराई थी किन्तु आज के पुत्र अपने माता-पिता की अवहेलना के प्रतिदिन नए उदाहरण प्रस्तुत करते रहते हैं। स्थिति अब यहां तक आ गई है कि वे अपने असहाय माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम तलाशने लगते हैं- 
वृद्ध अवस्था में हुये, मात-पिता असहाय । 
पुत्रवधु अब दे रही, चुप रहने की राय ।।
जीवित हैं बस नाम को, रिश्तों के संबंध। 
अब तो केवल स्वार्थ से, ही बनते अनुबंध ।।
अपने वृद्धजन की अवहेलना करने वाले लोग जब उनकी मृत्यु पर दिखावे का आडंबर रचते हैं तो वह बड़ा विद्रूप लगता है। इस दशा पर कटाक्ष करते हुए पुष्पा चिले ने लिखा है-
जीते पानी ना दिया, मरे खिलायें खीर। 
फिर भी अशीष दे रहे, पितर बहाकर नीर।।

पुष्पा जी उन लोगों को नराधम कहती हैं जो आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। मानव हो कर मानव के विरुद्ध विध्वंस नराधमता का ही तो उदाहरण है-
आतंकी मानव नहीं, राक्षस से भी नीच। 
विध्वंशी वृत्ती इनकी, विष हैं मानव बीच।।

कवयित्री पुष्पा चिले ने जहां अपने दोहे में उत्तराखंड के जोशीमठ का उल्लेख करते हुए पर्यावरण के प्रति सचेत किया है, वहीं उन्होंने कोरोना महामारी की आपदा पर भी कलम चलाई है। देखा जाए तो पुष्पा चिले के दोहों में जीवन की समग्रता मिलती है। पुस्तक की साज-सज्जा तथा मुखपृष्ठ आकर्षक है। बस, टंकण की त्रुटियां खटकती हैं, विशेषरूप से मुखपृष्ठ पर ही मंजूषा शब्द का त्रुटिपूर्ण मुद्रण अखरता है। किन्तु पुष्पा चिले के इस संग्रह के सभी दोहे उम्दा हैं। पढ़े जाने येाग्य हैं तथा ये चिन्तन-मनन का आह्वान करते है।    
---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview  #bookreviewer 
#पुस्तकसमीक्षक #पुस्तक  #आचरण #DrMissSharadSingh

Saturday, October 4, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | दस मूंड़ को रावन बार दओ, अब बुराई सोई बार देओ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | दस मूंड़ को रावन बार दओ, अब बुराई सोई बार देओ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट | दस मूंड़ को रावन बार दओ, अब बुराई सोई बार देओ
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
      दसेरा कढ़ गओ। सहर में मनो मुतकी जांगा रावन जलाओ गओ, मगर दो जांगा पे खीब बतकाव चली। एक तो पीटीसी ग्राउंड वारी जांगा जहां सहर की महपौर ने पौंचीं, काय से के निगम के आयुक्त जू ने उनको अपमान करो है, ऐसो उनको कैबो आए। बाकी त्योहार म्योहार के समै ऐसो करो नईं चाइए। अखीर बे सहर की महापौर ठैरीं, उनको सम्मान राखो चाइए। जेई से तो कछू सयाने कै रए हते के रावन की नाभी में दो दार तीर घालो गओ फेर बी बा न मरो।  बा तो ऊके पैरन में लुघरिया छुबाई गई, तब कऊं बा जरो। अब ई बात खों को कां से जोर के देख रओ, जे तो बेई जानें। बाकी मकरोनिया पे बजरिया वारे रावन सोई अड़ी दिखा गओ। जबके उते विधायक रए, सांसद रईं, नगरपालिका के अध्यक्ष रए औ भारी भीर रई। उते कोनऊं मनमुटाव नईं रओ। मनो रावन जबे जलाओ जा रओ तो ऊकी मुंडी से तनक सी आगी निकरी औ फुस्स हो गई। फेर ऊपे पेट्रोल डार के ऊको जलाओ गओ। रावन बी सोचत हुइए के जे हम कां फंस गए। ऐसी गत तो रामजी के जमाने में ने भई। मनो कभऊं-कभऊं ऐसो हो जात आए, कछु नईं।
         बस जेई आए के जैसे दस मूंड़ को रावन जलाओ गओ ऊंसई सबरे आपसी बुराई बार देवें। काए से आपस में लड़े से अपनोई नुकसान होत आए। औ ऊंसईं सहर में फैली सबरी बुराई सोई बार देओ, जीसें अपन ओरें शान से मूंड़ उठा के कएं के अपनो सागर, नोनो सागर!
  —----------------
Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
#टॉपिकएक्सपर्ट #डॉसुश्रीशरदसिंह  #DrMissSharadSingh  #पत्रिका  #patrika #rajsthanpatrika  #topicexpert #बुंदेली  #बुंदेलीकॉलम

शून्यकाल | फिल्मी दुनिया में बुंदेलखंड की उपस्थिति को प्रतीक्षा है एक बॉक्स ऑफिस की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | फिल्मी दुनिया में बुंदेलखंड की उपस्थिति को प्रतीक्षा है एक बॉक्स ऑफिस की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
 –-------   
शून्यकाल
फिल्मी दुनिया में बुंदेलखंड की उपस्थिति को प्रतीक्षा है एक बॉक्स ऑफिस की
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता- निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। फिर भी बुंदेली फिल्मों का निर्माण उस तरह से नहीं हुआ जैसे भोजपुरी फिल्मों का होता है। क्षेत्रीयता के हिसाब से भोजपुरी फिल्मों में जिस तरह से अपनी धाक जमाई उसे देख कर लगता है कि उस तक पहुंचाने के लिए बुंदेली को अभी लंबी यात्रा करनी पड़ेगी।

कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’      
          मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता-निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’ 
      बेशक हप्पू सिंह का पात्र बुंदेली और बुंदेलखंड के परिप्रेक्ष्य में एक मील का पत्थर है जहां से मनोरंजन जगत में बुंदेली के लिए अनेक रास्ते खुलने लगे हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 20 जिलों में बुंदेली भाषा बोली और सुनी जाती है। बुंदेली संस्कृति के विद्वान स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्ता ने अपनी किताब बुंदेली संस्कृति और साहित्य में लिखा है कि ‘‘मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा और निमाड़ा, चार जिलों में बुंदेली का प्रवाह ज्यादा है। भारतीय लोक परंपरा के विकास में बुंदेली का अहम योगदान है।’’ अब बुंदेली का प्रभाव टीवी चैनल्स पर छाता जा रहा है। इससे पहले मंचों और सीडी के माध्यम से बुंदेली लोकगीतों एवं नाटकों का बोलबाला रहा किन्तु अपसंस्कृति की छाया ने इसमें फूहड़पन घोल दिया। जिससे बुंदेली एक बार फिर तिरस्कार की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन टीवी चैनल्स ने बुंदेली के प्रसार में एक नई जान फूंक दी। चूंकि टीवी चैनल्स परिवार के साथ देखे जा सकने वाले कार्यक्रम दिखाने के अधिकारी होते हैं अतः इनमें बुंदेली के स्तर को चोट पहुंचने की संभावना नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि हप्पू सिंह के किरदार के रूप में बुंदेली को हास्य की भाषा के रूप में प्रोजेक्ट करने से नुकसान हो सकता है किन्तु वस्तुतः यह भय निरापद है। हास्य-व्यंग्य के संवाद किसी भी व्यक्ति के दिल को गुदगुदाते हैं और उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इससे संबंधित भाषा को भी निकअता पाने का अवसर मिलता है। लोग आज बुंदेली के संवादों को बहुत पसंद करने लगे हैं। हप्पू सिंह के किरदार में कलाकार योगेश त्रिपाठी जब किसी भी मंच से अपने सीरियल के डाॅयलाॅग ‘‘काए कां गए थे’’ या ‘‘काय का हो रओ’’ बोलते हैं तो बुंदेलीखंड से बाहर के श्रोता ओर दर्शक भी न केवल तालियां बजाते हैं बल्कि उनके डाॅयलाॅग दोहराने लगते हैं। बुंदेली संवादों ने टीवी चैनल्स की टीआरपी पर भी अपनी धाक जमा ली है। एक और टीवी सीरियल ‘‘गुडिया हमारी सब वे भारी’’ में बुंदेली संवाद और बुन्देली पारिवारिक चुहलबाजी को बड़े खूबसूरत ढंग से प्रसतुत किया गया है। इसे भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों भरपूर लोकप्रियता मिल रही है। इसमें चुलबुली गुडिया का किरदार सारिका बहरोलिया अपने बुन्देली के शब्दों से खूब वाहवाही पा रही हैं।
सन् 1992 में आए प्रसिद्ध टीवी धरावाहिक ‘‘परिवर्तन’’ से अपनी पहचान बनाने वाले गोविंद नामदेव आज एक लोकप्रिय अभिनेता हैं। उनके अभिनय की विविधता दर्शकों को हमेशा प्रभावित करती है। सन् 1995 में महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सीरियल ‘‘स्वाभिमान’’ में आशुतोष राणा एक सादगी भरे ऐसे ग्रामीण युवा जो शहर के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ है, के रोल में छोटे पर्दे पर आए तो दर्शकों के दिलों पर ‘‘त्यागी’’ के रूप में अपनी छाप छोड़ गए। महेश भट्ट ने उनकी प्रतिभा को आगे बढ़ाया और आशुतोष राणा को अपनी फिल्म ‘‘दुश्मन’’ में सायको किलर ‘‘गोकुल पंडित’’ के रोल के लिए चुना। सन् 1098 में फिल्म ‘‘चाईना गेट’’ में सागर में जन्में और सागर में ही पले-बढ़े मुकेश तिवारी को ‘‘जगीरा’’ का रोल मिला तो उनका बोला यह संवाद बच्चे-बच्चे की जुबान पर छा गया था-‘‘मेरे मन को भाया, मैं कुत्ता काट के खाया।’’
         अकसर यह हंसी मज़ाक में कहा जाता है कि बुंदेलखंड के अभिनेताओं को हीरो के बदले विलेन का ही रोल मिलता है। जब यही प्रश्न गोविंद नामदेव से पूछा गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में उत्तर दिया कि ‘‘बुंदेलखंड के पानी में ठसक है, इसलिए यहां के विलेन सबसे ज्यादा सामने आ रहे हैं और कोई बड़ा हीरो अभी तक नहीं आया।’’ यह बहुत हद तक सच है कि बुंदेलखंड के किसी भी अभिनेता को हीरो का रोल नहीं मिल पाया है लेकिन यह भी सच है कि ललितपुर में जन्में अभिनेता राजा बुंदेला ने ‘‘विजेता’’ और ‘‘अर्जुन’’ जैसी फिल्मों में सकारात्मक रोल किए। स्वयं गोविंद नामदेव ने अनेक सकारात्मक रोल किए हैं। बेशक़ यह कमी जरूर रही है कि बुंदेलखंड से किसी अभिनेत्री ने अपनी जोरदार उपस्थिति बाॅलीवुड में अभी तक दर्ज़ नहीं कराई है। लेकिन संभावनाएं विपुल हैं। पिछले कुछ वर्षों से बुंदेलखंड में फिल्म फेस्टिवल्स के छोटे-बड़े कई आयोजन हो चुके हैं। खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में देशी विदेशी फिल्मों के साथ बुंदेलखंड के कलाकारों द्वारा बनाई गई टेली और शार्ट फिल्मों तथा वृत्त चित्रों का भी प्रदर्शन किया जाने लगा है। इससे मंनोरंजन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं में उत्साह बढ़ा है। खजुराहो, झांसी और ओरछा में भी फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं। अभिनेता गोविंद नामदेव सागर, दमोह आदि शहरों में अभिनय प्रशिक्षण शिविर लगा कर प्रशिक्षण देते रहते हैं जिससे बुंदेली कलाकारों को अपनी अभिनय क्षमता को निखारने का अवसर मिलता है तथा वे आत्मविश्वास के साथ फिल्म और टेलीविजन की ओर बढ़ने लगे हैं।
खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में कई बुंदेली शार्ट्स फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इनमें कुछ फिल्में वाकई गंभीर विषयों पर थीं ओर उन्हें पूरी गंभीरता से बनाया गया था। बुंदेलखंड के युवा फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखना होगा कि वे ‘‘टिकटाॅक’’ की ज़मीन से ऊपर उठ कर फिल्म बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। माना कि बुंदेलखंड में आर्थिक साधनों की कमी है लेकिन यह बात याद रखने की है कि ‘चक्र’, ‘पार’, ‘दामुल’, ‘अंकुर’ जैसी कालजयी फिल्में सीमित साधनों में बनाई गई थीं। यदि अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि वरिष्ठ अभिनेताओं, निर्देशकों एवं निर्माताओं से सीखते हुए बुंदेलखंड के युवा मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड का नाम रोशन करेंगे।
------------------------------
#DrMissSharadSingh #columnist #डॉसुश्रीशरदसिंह  #स्तम्भकार #शून्यकाल #कॉलम #shoonyakaal #column  #नयादौर 

Friday, October 3, 2025

बतकाव बिन्ना की | कई होती तो घरे बनवा देते आपके लाने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम


बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
---------------------------
बतकाव  बिन्ना की
कई होती तो घरे बनवा देते आपके लाने                               
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

         ‘‘काए बिन्ना कां हो आईं?’’ फुआ ने पूछी। भैयाजी की फुआ मनो मोरी फुआ। हप्ता-खांड से बे इतई ठैरीं, भैयाजी के यां। रोजई से उनसे मिलनो होत रैत आए, सो जो एक दिनां मैं उनके लिंगे ने पौंची तो बे पूछन लगीं।
‘‘दमोए गई रई।’’ मैंने फुआ को बताओ।
‘‘काए के लाने?’’ फुआ ने पूछी।
‘‘उते मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी को एक कार्यक्रम रओ, बुंदेली पे।’’ मैंने उने बताओ।
‘‘बुंदेली पे?’’ उने सुन के तनक अचरज भओ।
‘‘हऔ! का आए के आजकाल बुंदेली बोलबो कम भओ जा रओ, सो जेई के लाने बतकाव रई के का करो जाए जीसें बुंदेली बोलबे को चलन बनो रए।’’ मैंने फुआ को बताओ।
‘‘हऔ, जा बात तो ठीक आए। काए से हम ओरे तो बुंदेली बोलत आएं, मनो आजकाल के लड़का बच्चा बुंदेली का सई से हिन्दी नईं बोल पात आएं।’’ फुआ बोलीं। बाकी उन्ने बात पते की कई।
‘‘आजकाल बुंदेली की रीलें औ नाच-गाने सोई चलत आएं सोसल मिडिया पे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, ईपे सोई उते बतकाव भई। काए से के रीलन में और नाच-गाने में फुहड़याई सोई चलन लगी आए।’’ मैंने कई।
‘‘फेर का सोचो गओ उते?’’ फुआ ने पूछी।
‘‘सोचबे को का रओ उते? एक दार सोचबे में कोनऊं हल थोड़े निकरहे। ईके लाने सबई जनों खों कछू ने कछू काम करने परहे।’’ मैंने कई।
‘‘जा तो सई आए। मनो औ का भओ उते?’’ फुआ ने पूछी।
‘‘औ ुदपाी को भोजन उतई पे रओ सो, सबने ने मिल के जीमों। अच्छो सो लगो। काय से के ऐसो मिलबे को मौको कभऊं-कभऊं आऊत आए। बाकी एक मजे की बात भई।’’ मैंने कई।
‘‘का भई? तनम हमें सोई बताओ।’’ फुआ ने पूछी।
‘‘हऔ, हम सोई तनक सुन लेवें!’’ भौजी सोई बोली।
‘‘का भओ के दमोए में मोरे एक चिन्हारी वारे रैत आएं। उनसे भेंट भई तो बे बड़े अच्छे से मिले। फेर दुपारी में भोजन को टेम भओ तो भोजन के लाने सबईखों लेन में लगने परो। काए से के बुफे को सिस्टम रओ। ई टाईप से लेन में लगबे को सोई अपनो मजो रैत आए। सो, मैं सोई लेन में ठाड़ी हो गई। मैं औ मोरी संगवारी बैन हरें जो कऊं भोपाल से आई रईं, तो कोनऊं टीकमगढ़ से। सो, हम आरें लेन में ठाड़ी रईं। इत्ते में उते से हमाए बेई चिन्हारी वारे भैया निकरे। उन्ने बताई के बे जा रए, काए से के उने कोनंऊं की गमी में जाने हतो। मैंने कई के आपखों जरूर जाओ चाइए। जेई सब बतकाव कर के बे उते से कढ़ लिए। मैं लेन में लगी रई औ जब नंबर आओ तो अपनी प्लेट में खाबे को आइटम रख लओ। मनो आइटम अच्छे रए। सन्नाटा सो मोए सबसे ज्यादा पोसाओ। हम ओरन ने सबने हंसी-ठठ्ठा कर भए अच्छे से जीमों औ फेर बैठ के बतकाव करन लगे। कछू देर में मोरे उनईं चिन्हारी वारों को फोन आओ सो बे पूछन लगे के आपकेा खाना भओ के नईं? मैंने कई हो गओ। सो बे कैन लगे के उते से निकरत समै हमसे जा गलती हो गई के हमने आप से जा ने पूछी के आपके लाने का घरे खाना बनवा दें? मैंने उनसे कई के भैया, बा की कोनऊं जरूरत ने हती, काए से के इते इत्तो अच्छो भोजन को इंतजाम रओ। औ ऊपे सबके संगे खाबे को मजोई दूसरो रैत आए। सो उन्ने कई के फेर बी हमें पूछो चाइए तो जो खाबे की आपने कई होती तो घरे बनवा देते आपके लाने। मैंने उनसे कई के जो जरूरत होती तो मैं कै देती। मनो मनई मन मैं सोची के उनसे पूछो जाए के भैया, काए घड़ी देख रए हते का के कबे खाना निबटे औ कबे खाना बनवाबे की बात करी जाए।’’ बतात-बतात मोए हंसी आन लगी।
‘‘सई में जो अच्छो के उने ख्वाने ने हतो बाकी पूछ के जे पक्को करने रओ के काल को कैबे को ने रए के पूछो नईं।’’ फुआ सोई हंसन लगीें।
‘‘जेई तो आए फुआ! धजी में ने अजी में, नोनी दुलैया सजी में।’’ मैंने कई।
‘‘बा सो सब ठीक आए, बाकी जे जो तुम बतकाव कर रई, बा उने पता परी तो बे का सोचहें?’’ भौजी ने फिकर करी।
‘‘ने कछू! बे का सोचहें? सई तो सई आए। सच बोले में डराबे को का?’’ मैंने कई।
‘‘अरे, एक दार हम ओरन के संगे सोई ऐसई भओ।’’ फुआ बतान लगीं, ‘‘का भओ के हम ओरें घूमबे के लाने बनारस गए। उते हमाए दूर के एक रिस्तेदार रैत्ते। उनसे फोन पे बात भई तो बे बोले के आप ओरें कल दुपारी को हमाए इते खाबे पे आओ। हम ओरन ने सोची के चलो अच्छो आए, जेई बहाने से उन ओरन से मिलबो हो जैहे औ रिस्तेदारी में एक मोड़ी के लाने मोड़ा ढूंढबे की सोई चल रई हती, सो हम ओरन ने सोची के जेई बहाने बा बात बी हो जाहे। सो हम ओरें दूसरे दिनां उनके इते पौंचे। उन्ने अच्छे से बिठाओ। पानी को पूछो। फेर चाय-माय चली। जेई करत-करत कुल्ल देर हो गई। हम ओरें भोजन के लाने परखे, औ उते कोनऊं भोजन की बातई ने कर रओ हतो। तुमाए फूफा जू से ने रओ गओ। सो उन्ने बात घुमा के कई के हम ओरने खों निकरने सोई आए सो भोजन के लाने तनक जल्दी करा देओ। जा सुन के उनकी घरवारी बोली के जा तो इन्ने हमें बताओ नईं के आप ओरन को खाना सोई इन्ने रखो आए, ने तो हम तो अबे लौं बना के परसई देते। अपनी घरवारी की सेन के बे भैयाजू कैन लगे के हमने तुमें बताई तो रई। तुम हमाई बात सुनतईनइयां। उन ओरन की झिकझिक सुन के तुमाए फूफा जू को मुंडा खराब हो गओ। बे बोले के अब नई बनो खाना तो रैन देओ, हमाए लिंगे बी टेम नइयां खाबे खों। औ बे उठ खड़े भए। हमें सोई बुरौ लगो। सो हमने सोई कै दई के अच्छो रओ के हमने आप ओरन से मोड़ी के रिस्ता के लाने ने कई ने तो आप ओरें जाने कोन टाईप को मोड़ा ढूंढते। अब चाए हमाई बात उने बुरई लगी होय, सो लगी रए, हमाई बला से।’’ फुआ बोलीं।
‘‘सो फेर आप ओरन के भोजन को का भओ?’’ भौजी ने फुआ से पूछी।
‘‘होने का रओ? उनके इते से उठे सो सीधे एक होटल में पौंचे। उते भरपेट खाओ तब कईं जां में जां आई। हम ओरें मरे जा रए ते भूक से।’’ फुआ बोलीं।
‘‘सई में फुआ, खाबे-पीबे में चतुराई ने दिखाओ चाइए।’’ मैंने हंस के कई।      
 बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जो कोनऊं पाउना आए सो ऊके संगे ऐसो करो जाओ चाइए के नईं?
---------------------------
#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat  

Wednesday, October 1, 2025

चर्चा प्लस | मां दुर्गा की कृपा सदा रहेगी यदि स्त्री का सम्मान सुरक्षित रहे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 01.10.2025 को प्रकाशित) 
---------------------


चर्चा प्लस
मां दुर्गा की कृपा सदा रहेगी यदि स्त्री का सम्मान सुरक्षित रहे
         - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह     
नवरात्रि...नौ दिन देवी दुर्गा के नौ रूपों की स्तुति... दुर्गा जो स्त्रीशक्ति का प्रतीक हैं, असुरों का विनाश करने की क्षमता रखती हैं... किन्तु इस बात पर विश्वास करना ही प्र्याप्त है क्या? सिर्फ़ सोचने या मानने से नहीं बल्कि करने से कोई भी कार्य पूरा होता है। इसलिए यदि आज स्त्री प्रताड़ित है, अपराधों का शिकार हो रही है तो उसे अपनी शक्ति को पहचानते हुए स्वयं दुर्गा की शक्ति में ढलना होगा। डट कर समाना करना होगा स्त्रीजाति के विरुद्ध की समस्त बुराइयों का और स्त्री का सम्मान करना सीखना होगा समस्त पुरुषों को, तभी नवरात्रि का अनुष्ठान सार्थक होगा।

   या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता,
   नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
मां दुर्गा की उपासना करते समय जिस स्त्रीशक्ति का बोध होता है वह उपासना के बाद स्मरण क्यों नहीं रहता? न स्त्रियों को और न पुरुषों को। समाचारपत्रों में आए दिन स्त्री के विरुद्ध किए गए जघन्य अपराधों के समाचारों भरे रहते हैं। कभी तेजाब कांड तो कभी दहेज हत्या तो कभी बलात्कार और बलात्कार के बाद नृशंसतापूर्वक हत्या। ये घटनाएं हरेक पाठक के दिल-दिमाग़ को झकझोरती हैं। बहुत बुरा लगता है ऐसे समाचारों को पढ़ कर। समाज में आती जा रही चारित्रिक गिरावट को देख कर अत्यंत दुख भी होता है लेकिन सिर्फ़ शोक प्रकट करने या रोने से समस्या का समाधान नहीं निकलता है। देवी दुर्गा का दैवीय चरित्र हमें यही सिखाता है कि अपराधियों को दण्डित करने के लिए स्वयं के साहस को हथियार बनाना पड़ता है। जिस महिषासुर को देवता भी नहीं मार पा रहे थे उसे देवी दुर्गा ने मार कर देवताओं को भी प्रताड़ना से बचाया। नवरात्रि के दौरान लगभग हर हिन्दू स्त्री अपनी क्षमता के अनुसार दुर्गा के स्मरण में व्रत, उपवास पूजा-पाठ करती है। अनेक महिला निर्जलाव्रत भी रखती हैं। पुरुष भी पीछे नहीं रहते हैं। वे भी पूरे समर्पणभाव से मां दुर्गा की स्तुति करते हैं। नौ दिन तक चप्पल-जूते न पहनना, दाढ़ी नहीं बनाना आदि जैसे सकल्पों का निर्वाह करते हैं। लेकिन वहीं जब किसी स्त्री को प्रताड़ित किए जाने का मामला समाने आता है तो अधिकांश स्त्री-पुरुष तटस्थ भाव अपना लेते हैं। उस समय गोया यह भूल जाते हैं कि आदि शक्ति दुर्गा के चरित्र से शिक्षा ले कर अपनी शक्ति को भी तो पहचानना जरूरी है।
किसी भी प्रकार की प्रताड़ना या हिंसा का स्त्रीसमाज पर शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक दुष्प्राभाव पड़ता है। इसके कारण महिलाओं के काम तथा निर्णय लेने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। परिवार में आपसी रिश्तों  और आसपड़ौस के साथ रिश्तों व बच्चों  पर भी इस हिंसा का सीधा दुष्प्रकभाव देखा जा सकता है। इससे स्त्रियों की सार्वजनिक भागीदारी में बाधा पड़ती है और वे स्वयं को अबला समझने लगती हैं। जबकि इसके विपरीत मां दुर्गा का चरित्र उन्हें दृढ़ और सबल होने का संदेश देता है।
हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है। उल्लेखनीय है कि शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है। वेदों में तो दुर्गा का व्यापाक उल्लेख है। उपनिषद में देवी दुर्गा को “उमा हैमवती“ अर्थात् हिमालय की पुत्री कहा गया है। वहीं पुराणों में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है। वैसे दुर्गा शिव की अद्र्धांगिनी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने धारण किया था देवी दुर्गा के और भी कई रूपों की कल्पना की गई है। दुर्गा सप्तशती में दुर्गा के कई रूप भी बताए गए है, जैसे- ब्राह्मणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नरसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती, भीमादेवी, भ्रामरी, शाकम्भरी, आदिशक्ति, रक्तदन्तिका।
दुर्गा सप्तशती में कुल 13 अध्याय हैं, जिसमें 700 श्लोकों में देवी-चरित्र का वर्णन है। मुख्य रूप से ये तीन चरित्र हैं, प्रथम चरित्र (प्रथम अध्याय), मध्यम चरित्र (2-4 अध्याय) और उत्तम चरित्र (5-13 अध्याय)। प्रथम चरित्र की देवी महाकाली, मध्यम चरित्र की देवी महालक्ष्मी और उत्तम चरित्र की देवी महासरस्वती मानी गई है। यहां दृष्टव्य है कि महाकाली की स्तुथति मात्र एक अध्याय में, महालक्ष्मी की स्तुति तीन अध्यायों में और महासरस्वती की स्तुति नौ अध्यायों में वर्णित है, जो सरस्वती की वरिष्ठता, काली (शक्ति) और लक्ष्मी (धन) से अधिक सिद्ध करती है। मंा दुर्गा के तीनों चरित्रों से संबंधित तीन रोचक कहानियां भी हैं जो
प्रथम चरित्र - बहुत पहले सुरथ नाम के राजा राज्य करते थे। शत्रुओं और दुष्ट मंत्रियों के कारण उनका राज्य, कोष सब कुछ हाथ से निकल गया। वह निराश होकर वन से चले गए, जहां समाधि नामक एक वैश्य से उनकी भेंट हुई। उनकी भेंट मेधा नामक ऋषि के आश्रम में हुई। इन दोनों व्यक्तियों ने ऋषि से पूछा कि यद्यपि हम दोनों के साथ अपने लोगों (पुत्र, मंत्रियों आदि) ने दुव्र्यवहार किया है फिर भी उनकी ओर हमारा मन लगा रहता है। मुनिवर, क्या कारण है कि ज्ञानी व्यक्तियों को भी मोह होता है। ऋषि ने कहा कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, भगवान विष्णु की योगनिद्रा ज्ञानी पुरुषों के चित्त को भी बलपूर्वक खींचकर मोहयुक्त कर देती है, वहीं भगवती भक्तों को वर देती है और ’परमा’ अर्थात ब्रह्म ज्ञानस्वरूपा मुनि ने कहा, ’नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिद ततम्’ अर्थात वह देवी नित्या है और उसी में सारा विश्व व्याप्त है। प्रलय के पश्चात भगवान विष्णु योगनिद्रा में निमग्न थे तब उनके कानों के मैल से मधु और कैटभ नाम के दो असुर उत्पन्न हुए। उन्होंने ब्रह्माजी को आहार बनाना चाहा। ब्रह्माजी उनसे बचने के लिए योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। तब देवी योगनिद्रा उन दोनों असुरों का संहार किया।
मध्यम चरित्र - इस चरित्र में मेधा नामक ऋषि ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य के प्रति मोहजनित कामोपासना द्वारा अर्जित फलोपभोग के निराकरण के लिए निष्काम उपासना का उपदेश दिया है। प्राचीनकाल में महिषासुर सभी देवताओं को हराकर स्वयं इन्द्र बन गया और सभी देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। वे सभी देवता- ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के पास सहायतार्थ गए। उनकी करुण कहानी सुनकर विष्णु और शंकर के मुख से तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार का तेज अन्य देवताओं के शरीर से भी निकला। यह सब एक होकर देवी रूप में परिणित हुआ। इस देवी ने महिषासुर और उनकी सेना का नाश किया। देवताओं ने अपना अभीष्ट प्राप्त कर, देवी से वर मांगा। ’जब-जब हम लोगों पर विपत्तियां आएं, तब-तब आप हमें आपदाओं से विमुक्त करें और जो मनुष्य आपके इस चरित्र को प्रेमपूर्वक पढ़ें या सुनें वे संपूर्ण सुख और ऐश्वर्यों से संपन्न हों।’ महिषासुर को मार कर देवी ‘महिषासुरमर्दिनी’ कहलाईं।
उत्तम चरित्र - उत्तम चरित्र में परानिष्ठा ज्ञान के बाधक आत्म-मोहन, अहंकार आदि के निराकरण का वर्णन है। पूर्व काल में शुंभ और निशुंभ नामक दो असुर हुए। उन्होंने इन्द्र आदि देवताओं पर आधिपत्य कर लिया। बार-बार होते इस अत्याचार के निराकरण के लिए देवता दुर्गा देवी की प्रार्थना हिमालय पर्वत पर जाकर करने लगे। देवी प्रकट हुई और उन्होंने देवताओं से उनकी प्रार्थना करने का कारण पूछा। कारण जानकर देवी ने परम सुंदरी ’अंबिका’ रूप धारण किया। इस सुंदरी को शुंभ-निशुंभ के सेवकों चंड और मुंड ने देखा। इन सेवकों से शुंभ-निशुंभ को सुंदरी के बारे में जानकारी मिली और उन्होंने सुग्रीव नामक असुर को अंबिका को लाने के लिए भेजा। देवी ने सुग्रीव से कहा, ’जो व्यक्ति युद्ध में मुझ पर विजय प्राप्त करेगा, उसी से मैं विवाह करूंगी।’ दूत के द्वारा अपने स्वामी की शक्ति का बार-बार वर्णन करने पर देवी उस असुर के साथ नहीं गई। तब शुंभ-निशुंभ ने सुंदरी को बलपूर्वक खींचकर लाने के लिए धूम्रलोचन नामक असुर को आदेश दिया। धूम्रलोचन देवी के हुंकार मात्र से भस्म हो गया। फिर चंड-मुंड दोनों एक बड़ी सेना लेकर आए तो देवी ने असुर की सेना का विनाश किया और चंड-मुंड का शीश काट दिया, जिसके कारण देवी का नाम ’चामुंडा’ पड़ा। असुर सेना का विनाश करने के बाद देवी ने शुंभ-निशुंभ को संदेश भेजा कि वे देवताओं को उनके छीने अधिकार दे दें और पाताल में जाकर रहें, परंतु शुंभ-निशुंभ मारे गए। रक्तबीज की विशेषता थी कि उसके शरीर से रक्त की जितनी बूंदें पृथ्वी पर गिरती थीं, उतने ही रक्तबीज फिर से उत्पन्न हो जाते थे। देवी ने अपने मुख का विस्तार करके रक्तबीज के शरीर का रक्त को अपने मुख में ले लिया और असुर का सिर काट डाला। इसके पश्चात शुंभ और निशुंभ भी मारे गए और तब देवताओं ने स्तुति की-
सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरी।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरी विनाशम्।।
          हमें यह विचार करना ही होगा कि पूजा-अर्चना द्वारा हम देवी के इन चरित्रों का आह्वान करते हैं तो फिर देवी के इन चरित्रों से प्रेरणा ले कर उन लोगों पर शिकंजा क्यों नहीं कस पाते हैं जो असुरों जैसे कर्म करते हैं? क्या हम इन प्रेरक कथाओं के मर्म को समझ नहीं पाते हैं अथवा समझना ही नहीं चाहते हैं? बहरहाल, एक और रोचक कथा है- राजा सुरथ और समाधि वैश्य दोनों ने देवी की आराधना की। देवी की कृपा से सुरथ को उनका खोया राज्य और वैश्य का मनोरथ पूर्ण हुआ। उसी प्रकार जो व्यक्ति भगवती की आराधना करते हैं उनका मनोरथ पूर्ण होता है। ऐसी मान्यता है कि दुर्गा सप्तशती के केवल 100 बार पाठ करने से सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है। इस मान्यता को व्यवहारिकता में ढालते हुए   यह मां दुर्गा की सच्ची स्तुति होगी।
  ---------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

Tuesday, September 30, 2025

पुस्तक समीक्षा | द्वैताद्वैत की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का काव्यात्मक आख्यान | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | द्वैताद्वैत की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का काव्यात्मक आख्यान | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा
द्वैताद्वैत की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का काव्यात्मक आख्यान
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
काव्य संग्रह- कारे कन्हाई के कान लगी है
कवि     - डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.
मूल्य     - 80/-
---------------------
       राधा-कृष्ण का प्रेम कवियों के लिए प्रिय विषय रहा है क्योंकि राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन विचारों एवं भावनाओं को मात्र लौकिक नहीं वरन अलौकिकता तक ले जाता है। भक्त कवियों में अधिकांश ने राधा-कृष्ण के परस्पर प्रेम को अपने काव्य के लिए चुना। इसके द्वारा वे आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप की समुचित व्याख्या कर पाए। पद्मश्री डाॅ. अवधकिशोर जड़िया ने भी अपने काव्य में राधा-कृष्ण के प्रेम के विविध रूपों को वर्णित किया है। उनके काव्य संग्रह ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ में उन्होंने बृषभान एवं कृष्ण के प्रेम के विविध स्वरूपों का वर्णन किया है। यूं तो कई कवियों ने वृषभान अर्थात राधा को ‘वृषभानलली’ अथवा ‘‘वृषभानुजा’’ कह कर संबोधित किया है किन्तु कुछ काव्यों में उन्हें सुविधानुसार ‘‘वृषभान’’ भी कहा गया है। कृष्ण और राधा के प्रेम को ले कर अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार कृष्ण और राधा का प्रेम सांसारिक बंधनों से मुक्त था। वहीं दूसरा मत है कि कृष्ण के साथ राधा के विवाह को ब्रह्मा जी ने संपन्न कराया था जोकि आध्यात्मिक विवाह था।
राधा-कृष्ण के प्रेम को ले कर आत्मा और परमात्मा के परस्पर संबंधों को भी विविध दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया गया है। जैसे द्वैताद्वैत मत में आत्मा और ईश्वर के बीच भेद और अभेद दोनों को स्वीकार किया गया है। इसका आशय है कि आत्मा और परमात्मा एक ही समय में अलग भी हैं और एक भी हैं। इस द्वैताद्वैत सिद्धांत के प्रवर्तक 12वीं-13वीं शताब्दी के आचार्य निम्बार्क थे, जो वैष्णव संप्रदाय के थे। यह एक ऐसा दर्शन है जो नदी और समुद्र के संबंध की तरह, जीवात्मा और परमात्मा के बीच स्वाभाविक भिन्नता और एकता दोनों को प्रस्तुत करता है। इसके अनुसार ब्रह्म जीव से भिन्न भी है और अभिन्न भी। जैसे पत्ते, प्रभा तथा इन्द्रियाँ पृथक स्थिति रखते हुए भी वृक्ष, दीपक और प्राण से अभिन्न हैं, उसी प्रकार जीव भी अपना अलग अस्तित्व रखते हुए ब्रह्म से अभिन्न है। उल्लेखनीय है कि धर्मोपासना में राधा की यह महत्ता निम्बार्क संप्रदाय में ही प्रथम बार स्वीकृति हुई थी। श्री निम्बार्काचार्य के ‘‘दशश्लोकी’’ के प्रसिद्ध श्लोक में राधा के इसी महत्तम स्वरूप का स्मरण किया गया है-
अंगे तु वामे वृषभानुजा मुदा विराजमाना मनुरूपसौभगा।
सख्यै सहस्त्रैः परिसेवितां सदा, स्मरेमि देवीं सकलेष्ट कामदां।।

डाॅ अवध किशोर जड़िया ने अपने काव्य संग्रह ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ में द्वैताद्वैत के सिद्धांत को आधार रूप में लिया है। यद्यपि उनकी यह कृति उनके काव्यात्मक उदयकाल की कृति है। कई बार रचनाएं इच्छित समय पर प्रकाशित नहीं हो पाती हैं। किन्तु इससे श्रेष्ठ रचना के स्वरूप पर कोई अन्तर नहीं आता है। इस कृति के सृजन एवं प्रकाशन के बारे में डाॅ. जड़िया नेे ‘‘अनुरोध’’ के अंतर्गत स्वयं लिखा है कि ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है- वर्ष 1968 की रचना है। इस कृति के विषय में यह कहना अत्यंत आवश्यक है कि जिस समय यह शतक लिखा गया, उस समय मेरी आयु 20 वर्ष की थी। मैं शास. आयुर्वेद चिकित्सालय महाविद्यालय ग्वालियर म.प्र. में तृतीय वर्ष का छात्र था, इसी के मध्य कालेज में हड़ताल चली और उन्हीं दिनों में यह शतक भी पूरा हुआ। कृति का वर्ण्य विषय यह है कि, जब से श्रीराधा, श्रीकृष्ण के कहने में लगीं हैं और इस कारण उनमें जो परिवर्तन आए हैं उन्हीं सारे परिवर्तनों को समर्पित होता हुआ यह सम्पूर्ण शतक है। संयोगवश उन्हीं दिनों मेरे पूज्य गुरुवर श्री शंकर लाल जी सूरौठिया ने मेरे लिये जो शुभकामना लिखी थी वह आज फलीभूत हो रही है, उस समय यह छंद, पत्र द्वारा मुझे प्राप्त हुआ था।’’ 

जिस समय शंकर लाल सूरौठिया जी ने इस कृति की भूमिका लिखी उसी समय उन्होंने पहचान लिया था कि कृति का मूल स्वरूप द्वैताद्वैत पर आधारित है। सूरौठिया जी ने लिखा है -‘‘बड़े गौरव की बात है कि नवयुवक कवि डॉ. किशोर का प्रथम प्रयास पद्य की प्राचीन पद्धति से ही प्रस्फुटित हुआ है। ‘कारे कन्हाई से कान लगी है’ रचना से स्पष्ट हो जाता है कि कवि प्राचीन काव्य धारा के प्रति कितना जागरूक है, साथ ही वर्तमान में जब कि अतुकांत कविता का बोलबाला है, प्राचीन काव्य परम्परा के प्रति प्रेरणा प्रदान करने वाला है। द्वैताद्वैत के सिद्धान्त पर आधारित यह रचना पाठकों को भौतिक जगत को भूलकर भगवान की भावना में विभोर होकर लीन होने का अवसर प्रदान कर देती है। ‘कारे कन्हाई के कान लगी है’ रचना में वृषभानुजा एवं बृजेश की संयोगावस्था का चित्रण प्रसादगुण युक्त चित्रात्मक भाषा में बड़े ही मार्मिक ढंग से हुआ है। स्वाभाविकता कविता का प्रमुख लक्षण है। मत्तगयन्द छंद हृदय को रसमय कर देने में पूर्ण सफल है। ....मुझे विश्वास है कि किशोर कवि में एक महान कवि का बीज विद्यमान है।’’ 

सुखद संयोग यह रहा कि सूरोठिया जी की भविष्यवाणी इतनी सटीक सिद्ध हुई कि पेशे से चिकित्सक रहे डाॅ अवध किशोर जड़िया को साहित्य के लिए ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। किन्तु जिस समय डाॅ जड़िया ने एक युवा कवि एवं विद्यार्थी के रूप में इस कृति की रचना की थी उस समय हिन्दी काव्य आधुनिक काव्यशैली एवं प्रगतिशील विचारों का अनुपालन कर रहा था। इस तथ्य को ‘‘आशंसा’’ के रूप में सागर विश्वविद्वालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष पद्मश्री डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे ने कुछ इस प्रकार लिखा है- ‘‘आजकल प्राचीनता के नाम पर लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं और कविता को उन्होंने सामान्य अभ्यास की वस्तु बना लिया है। परन्तु इस प्रकार की काव्यकृतियों का अनुशीलन करने पर विदित होता है कि काव्य संस्कार, साधना और अनुभूति की वस्तु है। सुकवि ‘किशोर’ को काव्य का स्फुरण और दायित्व उनके पूज्य और वरेण्य पिता के माध्यम से सच्चे और सार्थक रूप से प्राप्त हुआ है। उन्होंने ब्रजवाणी तथा मत्तगयन्द, सवैया आदि छंदों का सफल उपयोग करते हुए कृष्ण काव्य की पुनीत तथा समृद्ध परिपाटी को एक कदम और आगे बढ़ाया है। टेक या समस्यापूर्ति पर आधारित इस काव्य की मुख्य पंक्ति को कृति का शीर्षक देना एक स्वस्थ तथा सात्विक लक्षण है।’’

छांदासिकता से परिपूर्ण इस काव्य संग्रह में राधा अर्थात वृषभानुजा को आत्मा एवं कृष्ण को परमात्मा मानते हुए उनके लौकिक एवं अलौकिक दोनों स्वरूपों का वर्णन किया गया है। आरंभिक छंदों में वृषभानुजा के कृष्ण के प्रति प्रेम का संयोगात्मक विवरण है तथा उत्तरार्द्ध के छंदों में कृष्ण के वियोग का विवरण है। इसके साथ ही बारामासी प्रभावों को भी रेखांकित किया गया है। डाॅ. जड़िया ने अनुप्रास अलंकार का परंपरागत ढंग से बहुत सुंदर प्रयोग किया है, इसका उदाहरण देखें-  
गोपीं कहें सुन राधे लली, कत रान लगी कतरान लगी है।
रावै इतै, इतरावै नहीं, उत रान लगी उतरान लगी है।
बात सुनी एक, बागन में, बृज बल्लभ सों बतरान लगी है।
भान नहीं वृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।

‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ के टेक के साथ हर छंद का समापन अपने आप में रसानुभूति की अनूठी छवि प्रस्तुत करता है। 
सोचत सो चित चेत उठी, पुनि प्रीति पुनीत लगी सुलगी है।
कान्ह से कान करें का कहो, कुलकान की कान तो जात भगी है।
जानत जान जहान सबै, पर जा नित जात बनी सु-सगी है
भान नहीं वृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।
कुछ छंदों में दृश्यात्मकता एवं यथार्थबोध का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। जैसे झूला झूलते समय पींगे उठने पर राधा डरने लगती हैं और तब वे अपना डर दूूर करने के लिए कृष्ण का गुणगान करके अपना ध्यान बंटाती हैं। यह बहुत ही सुंदर एवं स्वाभाविक वर्णन है- 
झूला झुलावन लागी सखी, उर में ललना डरपान लगी है।
वेगवती मिचकी जो भई, डर सों नयना मिचकान लगी है।
प्रेम पगी मधुसूदन की, गुणग्राम गुपाल के गान लगी है।
भान नहीं वृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।

वहीं कृष्ण के मथुरा छोड़ कर चले जाने पर गोप-गोपियों की जो दशा है उसका वर्णन भी अत्यंत हृदयस्पर्शी है। चंद्र के समान कृष्ण के जाने से मथुरा में अमावस्या का अंधकार छा गया है और राधा के मुख की कांति भी अमावस्या की कालिमा से ढंक गई है-
चन्द्र गयो बृज को मथुरा बृज बीच अमावश आन लगी है।
राधिका के मुख चन्द्र को चोप, -गयो तन दीप्ति बिलान लगी है।
व्योम के तीसरे चन्द्र की आज सें-सारी कला बिनसान लगी है।
भान नहीं बृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।
डाॅ. अवध किशोर जड़िया की यह कृति ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ द्वैताद्वैत भक्ति के साथ छंद की पारंपरिक सृजनशीलता को भी सामने रखती है अतः इसकी महत्ता अपने-आप में स्वयंसिद्ध है। यह द्वैताद्वैव की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का सुंदर आख्यान है। इसे पूरा पढ़ने पर ही इसका वास्तविक लालित्य बोध अनुभव किया जा सकता है। छांदासिक काव्यप्रेमियों के लिए यह कृति अत्यंत रुचिकर है।   
---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer 
#पुस्तकसमीक्षक  #पुस्तक  #आचरण  #DrMissSharadSingh

Saturday, September 27, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | इते तो खाली बम्प दिखात आएं सूचना नोंई | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | इते तो खाली बम्प दिखात आएं सूचना नोंई | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट  
इते तो खाली बम्प दिखात आएं सूचना नोंई
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

        का भऔ के कल्ल हमाए एक चिन्हारी वारे ने सोसल मिडिया पे अपनी फोटूएं चिपकाईं। बे आजकाल अपने मोड़ा के लिंगे अमरीका गए हैं। सो,  उन्ने उते अपने घूमत टेम की चार-छै ठाइयां फोटू चपका दईं। हमने देखी तो हम देखतई रै गए। उने नोंई। औ ने उते के खबसूरत सीन देख के। हम तो जा देख के देखत रै गए के उनके पांछू लगे खम्बा पे एक ठो सूचना लिखी रई, जीमें लिखो रओ के ‘स्पीड बम्प 12 किमी’। बा सू्चना पढ़ के हमाई आंखें खुली के खुली रै गईं। काए से के अपने इते तो रोड पे मुतके बम्प तो बना दए जात आएं पर उते एक ठइयां सूचना लिखबे की याद कोनऊं को नईं रैत। ने तो कछू लिख के बताओ जात आए औ ने तो डिजाइन सी बना के। सो, होत का आए के चलत-चलत एकदम से बम्पर आंगू आ जात आएं, जीमें उचके बिगर बच नईं सकत। औ कऊं-कऊं तो चार-चार ठइयां  बम्प ठाड़े कर दए गए आएं। ने मानों तो तनक सिविल लाइन से मकरोनिया जा के देख लेओ। औ ऊ पे बी जी ने भरे तो मकरोनिया से बहेरिया तिगड्डा निकर जइयो। एक बम्प पे तो मनो गाड़ी एक दार उचकत भर आए, औ जो चार-चार बम्प होंए तो ऐसो लगत आए के कोनऊं ने सूपा पे फटक दओ होए। स्कूटी, मोटर सायकिलें सो ऐसी उचकत आएं मनो तनक ने सम्हार पाओ तो मों के बल गिरबो तै समझियो। 
     मनो एक तरफी तो अपन ओरें अमेरिका वारन की बराबरी करबो चात आएं औ दूसरी तरफी अपने इते बिगर सूचना के बम्प बना के अपनेई लोगन के हात-गोड़े तोड़बे चात आएं। का लंगड़ा-लूला हो के अमेरिका की बराबरी करबी? तनक सोचियो!
------------------------------
Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
#टॉपिकएक्सपर्ट #डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #पत्रिका  #patrika #rajsthanpatrika #सागर  #topicexpert #बुंदेली #बुंदेलीकॉलम

Friday, September 26, 2025

शून्यकाल | कबीर के कथित स्त्री-विरोधी दोहों का सच | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | कबीर के कथित स्त्री-विरोधी दोहों का सच | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
 ----------------------------
शून्यकाल
कबीर के कथित स्त्री-विरोधी दोहों का सच
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       कबीर ने समाज को आईना दिखाने वाले और मानव-प्रेम के दोहे रचे। वह भी उस काल में जब बोधन जैसे कवि को मात्र इसलिए मृत्युदण्ड दे दिया गया था कि उसका कहना था कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म में कोई अंतर नहीं है। ऐसे दुरूह समय में पाखण्डियों को स्पष्ट शब्दों में ललकारने वाले कबीर क्या स्त्री-विरोधी दोहे लिख सकते हैं? यह एक चौंकाने वाला तथ्य है। यह एक शोध का विषय भी हो सकता है लेकिन इसके लिए पूर्वाग्रह से उठ कर बारीकी से तथ्यों को परखना होगा। इस संभावना पर भी गौर करना होगा कि कबीर को लांछित करने के लिए उनके नाम से स्त्री-विरोधी दोहे रच दिए गए हों।

       कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ की एक शोध छात्रा ने मुझसे प्रश्न किया था कि ‘‘क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?’’ यह प्रश्न चेतना को आंदोलित करने वाला था। मैंने उससे पूछा कि आप किस आधार पर कबीर के बारे में यह प्रश्न कर रही हैं? इस पर उस छात्रा ने मुझे कबीर के दो दोहे सुनाए। निश्चितरूप से वे दोनों दोहे स्त्री-विरोधी थे। मैंने उस छात्रा से यही कहा कि मैं तत्काल इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगी दो दिन बाद उत्तर दूंगी। दो दिन में मैंने कबीर का लगभग तमाम साहित्य खंगाल डाला और साथ ही उस परिदृश्य पर भी ध्यान दिया जो कबीर के समय मौजूद था। दो दिन बाद उस शोध छात्रा ने फिर अपना प्रश्न दोहराया कि ‘‘क्या कबीर स्त्री-विरोधी थे?’’ मैंने पूर्ण आश्वस्ति के साथ उसे उत्तर दिया कि मेरे विचार से कबीर स्त्री-विरोधी नहीं थे। उसने प्रतिप्रश्न किया कि लेकिन वे दोहे जिनमें कबीर ने स्त्री को सर्प से अधिक विषधारी बताया है? उसने जो दो दोहे मुझे उदाहरण स्वरूप सुनाए वे इस प्रकार थे -
(1) नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग।
‘कबिरा’ तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।
तथा,
(2) नारी तो हमहूं करी, तब न किया विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।

इस पर मैंने उससे पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि वे स्त्री-विरोधी दोहे कबीर ने ही रचे हैं। कबीर वाचिक परम्परा के कवि थे। उन्होंने स्वयं कहा है कि -“मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।” अतः जब आज हम पाते हैं कि विरोधीजन प्रकाशित, प्रमाणित रचनाओं में भी हेरफेर कर देते हैं तो क्या यह संभव नहीं है कि कबीर की स्पष्टवादिता से खीझे हुए विरोधियों ने उन्हें अपने खेमे का दिखाने के लिए कुछ स्त्री-विरोधी दोहे उनके नाम से प्रचारित कर दिए हों। इस पर गंभीरता से शोध होना चाहिए। मेरे विचार से तो शोध के उपरांत ऐसे भ्रामक दोहे कबीर-साहित्य से खारिज़ किए जाने चाहिए।
          कबीर ने जिस काल में दोहों की रचना की उस समय सिकन्दर लोदी का शासन था। 1489 से 1517 ई. का।  सिकन्दर लोदी एक असहिष्णु शासक था। उसकी धार्मिक भेद-भाव की नीतियों के कारण समाज हिन्दू और मुस्लिम दो भागों में बंटा हुआ था। दोनों धार्मिक समाजों में एकता की बात करना अपराध की श्रेणी में गिना जाता था। इसका उदाहरण कवि बोधन के हश्र के रूप में देखा जा सकता है। कवि बोधन ने यही कहा कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म एक समान है और परिणामस्वरूप उसे मुत्युदण्ड दे दिया गया। ऐसे दुरूह समय में कबीर दोनों धर्मों के पाखण्डियों को खुले शब्दों में ललकार रहे थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति, एक समाज का स्वरूप दिया। मूर्तिपूजा पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है -
पहान पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
या तो यह चाकी भली, पीस खाये संसार।।
     इसी प्रकार खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर वे कटाक्ष करते हैं कि -
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय”
      कबीर का नाम हिंदी भक्त कवियों में निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा में प्रमुखता से गिना जाता है। कबीर की रचनाओं को मुख्यतः निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता हैः रमैनी, सबद, साखी। ’रमैनी’ और ’सबद’ गाए जाने वाले ’गीत या भजन’ के रूप में प्रचलित हैं। ’साखी’ शब्द साक्षी शब्द का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है - “आंखों देखी अथवा भली प्रकार समझी हुई बात।“ कबीर की साखियां दोहों में लिखी गई हैं जिनमें भक्ति व ज्ञान उपदेशों को संग्रहित किया गया है। 
    कबीर ने उलटबांसियां भी कही हैं। कबीर न तो मात्र सामाजिक सुधारवादी थे और न ही धर्म के नाम पर विभेदवादी। वे आध्यात्मिकता की सार्वभौम आधारभूमि पर सामाजिक क्रांति के नायक थे। कबीर मानववादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान थे। वह युग अमानवीयता का था, इसलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, सम्वेदनाओं तथा चेतना को जागृत करने का प्रयास किया। कबीर वर्गसंघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। 
      जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक दूसरे के समीप लाना चाहते थे। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडियों को संबोधित करके कहा कि -
जो तुम बाभन बाभनि जाया, आन घाट काहे नहि आया।
जो तुम तुरक तुरकानी जाया, तो भीतर खतना क्यूं न कराया।।
     कबीर का समाज-दर्शन अथवा आदर्श समाज विषयक उनकी मान्यताएँ ठोस यथार्थ का आधार लेकर खडी हैं। अपने समय के सामन्ती समाज में जिस प्रकार का शोषण दमन और उत्पीडन उन्होंने देखा-सुना था, उनके मूल में उन्हें सामन्ती स्वार्थ एवम धार्मिक पाखण्डवाद दिखाई दिया जिसकी पुष्टि दार्शनिक सिद्धान्तों की भ्रामक व्यवस्था से की जाती थी और जिसका व्यक्त रूप बाह्याचार एवम कर्मकाण्ड थे। कबीर ने समाज व्यवस्था सत्यता, सहजता, समता और सदाचार पर आश्रित करना चाहा जिसके परिणाम स्वरूप कथनी और करनी के अन्तर को उन्होंने सामाजिक विकृतियों का मूलाधार माना और सत्याग्रह पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नीवं रखी। यहां विचारणीय है कि जो कवि, जो विचारक मानवप्रेम और मानव एकता की बात करता हो वह स्त्री-विरोधी दोहे कैसे रच सकता है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘जांत-पांत पूछे नहिं कोय। हरि को भजे सो हरि का होय।।
इसके बाद कबीर के उस पक्ष को भी ध्यान में रखना होगा जिसमें वे सूफी भावना को स्वीार करते हुए स्वयं को अर्थात् आतमा को स्त्री और परब्रह्म को पुरूष मानते हैं-
   सुर तैंतीस कौतिक आए, मुनियर सहस अठासी।
   कहैं ‘कबीर’ हम ब्याह चले हैं, पुरुष एक अविनासी।।
      अतः कबीर ने तो स्वयं को भी स्त्री की भांति माना और अपने गुरु रामानंद का स्मरण करते हुए यही कहा कि - कहैं ‘कबीर’ मैं कछु न कीन्हा। सखि सुहाग राम मोहि दीन्हा।।
     एक बिन्दु यह भी है कि कबीर का जीवन के प्रति सकारात्मक एवं तटस्थ दृष्टिकोण था। उन्होंने कहा कि - 
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। 
देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
     इस भंगुर जीवन का अंत जब मृत्यु ही है तो उससे भयभीत क्यों होना? इसी सत्य के महत्व को समझते हुए वे स्पष्टवादी बने रहे। उन्हें शासक, शासन अथवा पाखण्डियों से कभी भय नहीं लगा। उन्होंने कहा कि - 
आए हैं तो जाएंगे, राजा, रंक, फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।।
           कवि थे जिन्होंने प्रेम की महत्ता को ज्ञान से भी ऊंचा बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञान व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है किन्तु प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जो सच्चे अर्थों में मनुष्य बन गया शेष ज्ञान तो उसे स्वयं हो जाएगा-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। 
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
       अतः प्रेम को सर्वोपरि मानने वाले, पाखण्ड को ललकारते हुए स्पष्ट बोलने वाले, आत्मा को स्त्री और ब्रह्म को पुरुष मानने वाले कबीर स्त्री-विरोधी दोहे भला कैसे रच सकते थे? मुझे तो संदेह है इन दोहों पर। मेरा हमेशा यही आग्रह रहेगा कि कबीर के विचारों के प्रति भ्रम उत्पन्न करने वाले दोहों को जांचने और संदेहास्पद निकलने पर खारिज करने की जरूरत है।
----------------------------
#DrMissSharadSingh #columnist #डॉसुश्रीशरदसिंह  #स्तम्भकार #शून्यकाल #कॉलम #shoonyakaal #column  #नयादौर 

बतकाव बिन्ना की | नौरातें चलत भर बे गलत काम नईं करत | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

---------------------------
बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
--------------------------
बुंदेली कॉलम | बतकाव
बतकाव बिन्ना की
नौरातें चलत भर बे गलत काम नईं करत
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    ‘‘बिन्ना! तनक साजी सी चाय सो पिला देओ!’’ भैयाजी आतई साथ बोले। मोए समझ में आ गई के कोनऊं सल्ल बींध गई हुइए जो आतई साथ भैयाजी चाय के लाने बोल रए।
‘‘हऔ! अभईं लो!’’ मैंने कही। फेर तुरतईं चाय बना लाई।
‘‘अब तनक अच्छो लगो!’’ चाय सुड़कत भए भैयाजी बोले।  
‘‘का हो गऔ? काय की सल्ल बींध गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे ने पूछो!’’
‘‘अरे कछू तो बताओ आप!’’ मैंने सोई जिद पकर लई।
‘‘अरे बो आए न, अपन ओरने के इते को नेता!’’
‘‘को? कौन की कै रए?’’ मोए कछु समझ में ने आई।
‘‘अरे बोई जमुना, जमुना पार्षद!’’
‘‘अरे, उनकी कह रै! का कर दओ जमुना भेया ने?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे तुम सोई, ऊको भैया-वैया ने कहो!’’
‘‘काए? ईमें का बुराई दिखा रई?’’
‘‘बुराई तुमाए कैबे में नई दिखा रई, बो आदमई बुरौ कहानो!’’ भैयाजी चिड़कत भए बोले।
‘‘अब बे काए के लाने बुरै बन गए? काल तक तो आप ई ऊकी तारीफें करत फिरत्ते।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, मोए का पता रओ को जमुना सोई ऐसो निकरहे।’’ भैयाजी गुस्सा दिखात भए बोले।
‘‘मनो ऐसो का कर दओ उन्ने?’’ मैंने पूछी।
‘‘हमने कही न, के ऊके लाने इज्जत से ने बोलो! बो ई के काबिल नइयां! औ फेर ऊ तो ऊंसई तुमसे लोहरो ठैरो, सो तुम तो ऊको आप-वाप ने कहो करो।’’ भैयाजी मोय समझान लगे।
‘‘हऔ, हमें पतो आए के कौन से कैसे बात करी जात आए। आप सो अपनी कहो के ऊने आपके कौन से खेत काट लए?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘बो का हमाओ खेत काटहे? अगली बेरा आन देओ चुनाव, चार से ज्यादा वोटें ने मिल पाहें ऊको!’’ भैयाजी तिन्नात भए बोले।
‘‘चार? चार कौन-कौन की? एक आपकी, एक भौजी की....!’’
‘‘हम काए खों देबी?’’ मोरी बात काटत भए भैयाजी बोल परे।
‘‘सो, औ को देहे?’’ मैंने पूछी।
‘‘एक मताई की, एक बापराम की, एक लुगाई की औ एक ऊकी खुद की! ई चार से पांचवीं वोट ऊको मिल जाए सो हमाओ नांव बदल दइयो!’’ भैयाजी उखड़त भए बोले।
‘‘ऐसो का कर दओ ऊने? चलो अब आपई बता देओ!’’ अब मोए से रओ नई जा रओ हतो।
‘‘भओ का, के कुल्ल दिनां से हमाओ एक काम अटको डरो आए नगरपालिका में। सो हम सोचई रै हते के कोई दिनां जमुना मिल जेहे सो ऊसे कै देबी के हमाओ जल्दी काम करा देओ। अभईं आज संकारे जमुना हमें दिखा गओ। हमने ऊसे कहीं के हमाओ काम नगरपालिका में अटको परो आए, सो तुम तनक जल्दी करा देओ।’’ 
‘‘सो का कही ऊने? करा देहे जल्दी?’’ मैंने बीचई में पूछ लई।
‘‘अरे काय खों, ऊ ससुरो कहन लगो के अभई नौरातें चल रईं सो हम कछु ऐसो-वैसो काम नईं करा सकत आएं। काए से हम नौरातें में गल्त काम नईं करत।’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘ऐं? ऊने ऐसी कही? पर आपको तो गल्त काम नइयां, मोए पतो आए।’’ मोरे मों से निकर परो।
‘‘औ का! हमाओ काम ठक्का-ठाई आए! एकदम सांचो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ऊने ऐसी काए कई?’’ मोए अचरज भओ।
‘‘हमने सोई ऊसे पूछी, के भैया जमुना तुमाओ मुंडा सो ठिकाने पे आए के नईं? हम कोनऊ गल्त काम कराबे खों नईं कै रए, जो तुम हमाए लाने भाव दिखा रए। सो बो कैन लगो के अरे नईं भैयाजी आपको काम सो सांचो आए मनो जो आपको काम कराबी सो दस जने औ आ जेहें अपनों काम ले के। अब सबको काम सांचो सो रैहे ने, औ ई नौरातें चलत में हम गल्त काम ने करत आएं औ ने करात आएं।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘जे का बात भई? मने नौरातें के आगूं-पांछू बो गल्त करत रैत आए?’’ मोए बड़ो अचरज भओ जे सुन के।
‘‘औ का! तभईं सो हमाओे मुंडा खराब हो गओ। हमई ने सो ऊको जिताबे के लाने तरे-ऊपरे एक करो रओ और जे देखो! ऊ समै कैत रओ के अब कछु ने गल्त करबी औ ने गल्त होने देबी, औ अब देखो! हमें सो अभई की ऊकी बात सुन के जी में आओ रओ के ससुरे को एक लपाड़ा दे दें, बाकी हम गम्म खा के रै गए के मोहल्ला वारे का कैहें? हमाओ बकरा, हमई खों सींग दिखा रओ।’’ भैयाजी खदबदात भए बोले।
भैयाजी की कहनात सुन के मोए हंसी फूट परी -‘‘हमाओ बकरा, हमई खों सींग दिखा रओ।’’ 
‘‘भैयाजी, मनो अब सो ऊने सो आपई खों बकरा बना दओ।’’ मोसे हंसी रोकत ने बनीं। मोरी हंसी सुन के भैयाजी सोई हंसन लगे। मनो ईसे उनको मूड ठीक हो गओ।
‘‘भैयाजी आप तो जे सोचो के बो कम से कम नौरातें को तो लिहाज कर रओ, ने तों आजकाल नेता हरें एकऊं रातन को लिहाज नईं करत आएं। उनको सो चैबीसों घंटा औ सातो दिनां गल्त-सल्त करबे में जी लगो रैत आए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘हऔ, सो कोनऊं किरपा कर रओ का? ऊको सो पूरे बारहों मईना ईमानदारी से काम करो चाइए। चुनाव से पैलऊं खुदई कैत रओ के मोए सो कभऊं गल्त नहीं करने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई सो नेता औ जनता में फरक आए भैयाजी! उने बेवकूफ बनात बनत आए औ जनता खों सिरफ बेवकूफ बनबो आत आए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘ठीक कही बिन्ना तुमने, मनो जे बताओ के ऐसे में देवी मैया ऊपे कैसे के किरपा करहें? ऐसो धरम-करम कोनऊं काम खों नईंया।’’ भैयाजी ने कही।
‘‘देवी मैया की सो पतो नइयां भैयाजी, पर जे सो पक्को कहानो के अगली चुनाव में आप ऊपे किरपा ने करहो!’’ मैंने हंसत भए कही।
‘‘रामधईं! कभऊं ने करबी। ससुरो लबरा कहीं को।’’ भैयाजी सोई हंसन लगे। फेर कहन लगे,‘‘अब चलन देओ मोए, एकाध चक्कर खुदई लगाने पड़हे नगरपालिका को।’’
‘‘अभई उते ने जाओ भैयाजी! अभईं बे ओरें देवी पूजा में बिजी हुइएं।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘काए? जे आॅफिस के टेम पे काए बिजी हुइएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘आप सो ऐसे पूछ रए मनो आप कोनऊं औरई ग्रह से आए हो! जे कओ के आप खों पैले काम नई परो सो आप खों पतो नइयां मनो...!’’
‘‘हऔ-हऔ, आ गई समझ में!’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले औ चलबे खों ठाड़े हो गए। 
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए अगली चुनाव में जमुना भैया रैं जाए गंगा भैया, मोए का करने? अगली चुनाव में सो ऊंसई मुतको समै ठैरो, तब लों सो इन्हईं खों झेलने परहे। सो आप ओरें सोई सहूरी राखो! अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। बाकी सोचियो जरूर के का कोनउं के चार दिनां गलत ने करबे से सारे पाप धुल सकत आएं?    
---------------------------
#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat