Friday, April 18, 2025

नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
शून्यकाल
     नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             
       बुंदेली संस्कृति को लेखबद्ध कर संजोने में जो नाम सबसे पहले लिया जाता है, वह स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त जी का नाम है। 01 जनवरी, 1931 को जन्मे नर्मदा प्रसाद गुप्त ने हिंदी और अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद ‘‘बुदेलखंड का मध्ययुगीन काव्य: एक ऐतिहासिक अनुशीलन’’ विषय में पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने लगभग 10 वर्ष अंग्रेजी और 25 वर्ष तक हिंदी के अध्यापन का दायित्व निभाया। सन् 1958 ई. से वे साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करते चले गए। उन्होंने अपना सृजन कार्य कविता और कहानी से प्रारम्भ किया। उनकी लगभग 35 कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनके द्वारा संपादित सबसे चर्चित पुस्तक रही ‘‘बुन्देलखंड का साहित्यिक इतिहास’’। उन्होंने ‘‘मामुलिया’’ त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन किया तथा बुन्देलखंड साहित्य अकादमी की स्थापना की। उन्हें अनेक सम्मानों से समय-समय पर सम्मानित किया गया।
डाॅ. नर्मदा प्रसाद गुप्त की कहानियों में भी बुंदेलखंड की गरिमा और नारी अस्मिता के प्रति उनका सकारात्मक आह्वान स्पष्ट दिखाई देता है। इस लेख में मैं उनकी कुछ कहानियों पर संक्षिप्त चर्चा करने जा रही हूं। इन कहानियों में बुंदेलखंड का इतिहास, वर्तमान तथा स्त्री के प्रति सामाजिक वैचारिकी को दृढ़तापूर्वक रेखांकित किया गया है। इससे सुगमता से समझा जा सकता है कि डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त बुंदेली संस्कृति के मात्र गौरव-गायक नहीं थे, वरन वे बुंदेली समाज में आए उस कलुष को भी मिटना चाहते थे जिनके कारण लगभग हर काल में स्त्रियों को अवहेलना और प्रताड़ना सहनी पड़ी। इसीलिए मैं सबसे पहले उस कहानी की चर्चा करने जा रही हूं जिसका नाम है ‘‘लाखा पातुर’’।  
बुंदेलखंड में ‘‘पातुर’’ नृत्यांगनाओं अर्थात नाचनेवालियों को कहा जाता है। इन स्त्रियों के प्रति पुरुषप्रधान सामाजिक दृष्टिकोण संतुलित नहीं रहता है। ये स्त्रि़यां कलानिपुण होते हुए भी समाज के लांछन का निशाना बनी रहती हैं। ‘‘लाखा पातुर’’ कहानी में कथाकार नर्मदा प्रसाद गुप्त ने राजाशाही के समय की एक ऐसी नृत्यांगना की कथा बुनी है जिसे एक प्रस्तर मूर्तिकार से प्रेम हो जाता है। इसी के समानांतर वर्तमान परिवेश का कथाप्रसंग भी चलता है जिसमें कथानायक एक चित्रकार है और उसे चित्रकला के लिए सम्मानस्वरूप मुख्यमंत्री से बीस हज़ार रुपए मिलते हैं। अर्थात् समानान्तर दो कालखंड किन्तु स्त्री के प्रति सोच लगभग एक जैसी, भले ही वह व्यक्ति कलानिष्णात है। पुराने कालखंड के प्रसंग के कुछ संवाद देखिए- 
‘‘देवराज तुम जानते हो कि राजनर्तकी के चारों ओर पत्थर की मोटी-मोटी प्राचीरें हैं जिनमें वह बंदी बनाकर रखी जाती है। उसका भी मन होता है कि वह खुले में नाचे, पर उसके पांव मर्यादा की रस्सियों से जकड़ी रहते हैं .... वे तभी खुलते हैं जब कोई राजा या सामंत बोली लगाए। जब बोली ही लगना है तो लाखों की लगे। न कोई लाख देगा न लाखा नाचेगी।’’
‘‘तो क्या नाचना छोड़ देगी? फिर राजनर्तकी की देह का बोझ होती रहेगी। आत्मा तो मर ही जाएगी। लोक से दूर रहकर कलाकार जीवित नहीं रह सकता इस विवाद को छोड़ो मुझे जाने दो।’’
‘‘पत्थरों में प्राण डालने वाले शिल्पी क्या तुम मुझे जीवन नहीं दे सकते?’’ लाखा फफक-फफक कर रो उठी थी।
देवराज ने जाते-जाते चेतावनी-सी दी थी, ‘‘लाखा पत्थर तो निर्दोष होते हैं उन्हें चाहे जैसा गढ़ लो।’’
‘‘तो क्या मैं पापिन हूं?’’ लाखा ने चींखकर सिर पकड़ लिया था। राजा और महात्मात्य ने तेजी से आकर स्थिति संभाल ली थी, लेकिन देवराज पहले ही जा चुका था।
जिस कलाकार से संवेदना की अपेक्षा की जाती है वह एक स्त्री की अपेक्षा पत्थर को निर्दोष मान रहा है। यह कथाकार की स्त्री-अस्मिता के प्रति संवेदना का सशक्त आह्वान है जो वस्तुस्थिति जता कर समाज को लज्जित कर, परमार्जित करना चाहता है।

दूसरी कहानी है- ‘‘एक और दुर्गावती’’। यह सती प्रथा की दूषित परंपरा का स्मरण कराते हुए पुरुषों द्वारा स्त्री की अनचाही उपेक्षा की कथा प्रस्तुत करती है। एक प्रोफेसर जो अतीत को खंगालने में इतना अधिक व्यस्त हो गया कि अपने वर्तमान में मौजूद अपनी पत्नी की आशाओं एवं आकांक्षाओं को ही भुला बैठा। ठीक वैसे ही जैसे पुराने समय में युद्धोन्मादी राजा अपनी रानियों के जीवन तक को भुला कर उनसे जौहर की आशा रखते थे। इस जौहर प्रथा को इतने महिमा मंडित रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा कि यह दूषित परंपरा सदियों तक चलती रही। इस कथा में प्रोफेसर अपने असिस्टेंट बलराम और प्रहलाद के साथ एक किले की छानबीन करते समय जौहर की घटना के साक्ष्य ढूंढने लगता है। उस समय कुछ संवाद उभर कर एक दृश्य रचते हैं। यह एक छोटा-सा दृश्य कथानक के समूचे स्वरूप की महत्वपूर्ण कड़ी के समान है-
बलराम ने अफसोस-सा जाहिर करते हुए कहा- ‘‘सर, जौहर के बाद कोई नहीं बचा और किला उजड़ गया। आज तक न जाने कितने राजा आए, पर कोई भी आबाद नहीं रह सका। लोग कहते हैं कि सती का शाप लगा है इस किले को।’’
प्रहलाद बारूदखाने की गहराई का अंदाजा लगा रहे थे और प्रोफेसर उसमें डूबने लगे थे। शाप...आखिर शाप तो उनके घर को भी लगा है। सविता उनसे ऊबकर हृदयेश का आसरा चाहती है। उसने तलाक की अरजी दे दी है। कारण कुछ नहीं, केवल इतना कि उसके पति किताबों, गुफाओं, लेखों सबके चक्कर में उसकी देखभाल नहीं कर पाते। पति का प्यार नहीं दे पाते। वह अपने ही घर में ऐसे रहती रही है, जैसे उसकी शादी न हुई हो। आज तक पत्नी की जिंदगी को तरसती रही। पत्नी की जिन्दगी....। सविता की धुंधली-सी छाया उस बारूदखाने में डोलने लगी और प्राफेसर अचानक फुसफुसा पडे-सविता...!
प्रोफेसर की आवाज सुनकर प्रहलाद ने कहा था- सर, चलें। सविता जी इंतजार कर रही होगी।
कहानी के इस अंश से स्पष्ट हो जाता है कि कथाकार ने अतीत की स्त्री के अस्तित्व के समापन और वर्तमान की स्त्री के अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष को दर्शाने के लिए जौहर की प्रथा को एक रूपक के रूप में प्रयोग किया है। 
तीसरी कहानी है-‘‘ठांड़ी जरै मथुरावाली’’। इस कहानी में सामाजिक परिवेश है, स्त्री है, पारिवारिक संबंध हैं, प्रेम संबंध हैं और लोकगीत के रूप में लोक संस्कृति भी है। जब संबंधों में उलझने पैदा होने लगें तो बुद्धि भी छटपटा कर रह जाती है। यह समझना कठिन हो जाता है कि जो कदम उठाया जा रहा है, वह सही है या नहीं? कथा का यह छोटा-सा यह अंश देखिए- 
‘‘नहीं, मुझे आज ही पहुंचना है। प्रेमा आंखों में गीलापन लिए फर्श की तरफ देखती रही। वह भी पैर के नाखून से लिखने लगा था। गोविन्द कुछ रोष में जाने लगे कि उसने द्वार तक उनको भेज दिया और नमस्कार कहकर अपने कमरे में आ बैठा। सोचने लगा कि विष-लता अब खूब लहलहा उठी है, आगे क्या होगा। मां पीछे लौटना नहीं चाहती और बाबूजी को मालूम नहीं कि कथा अपने आप बढ़ती जा रही है। गोविन्द जाने क्या-क्या कह गए, लेकिन मां बड़े संयम से सुनती रही प्रेमा ने बहुत साहस दिखाया। मुमकिन है कि उसके शब्द मां के लिए मरहम का काम करे और समस्या हल हो जाए।’’
डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त ने ओरछा की सुप्रसिद्ध नर्तकी पर कहानी लिखी है-‘‘प्रवीणराय’’। एक ऐसी नृत्यांगना जो इतिहास में स्त्री के साहस और बुद्धिकौशल की प्रतीक के रूप में दर्ज़ है। प्रवीणराय को राजनीति की शतरंज की बिसात पर एक प्यादे की भांति चलाने का प्रयास किया गया किन्तु वह एक विजयी रानी की तरह अकबर के दरबार से ओरछा लौटी, वह भी अकबर को मुंहतोड़ जवाब दे कर। लेकिन अकबर के दरबार तक पहुंचने के पहले उसे अपनी क्रोध पर किस तरह काबू में करना पड़ा इसका विवरण भी कथाकार डाॅ. गुप्त ने इस कहानी में दिया है। यह एक झलक देखिए-  
‘‘प्रवीण, युद्ध केवल तलवार से नहीं लड़ा जाता, कलम भी पैनी होती है। अपनी कलम और कला से सैकडों को जीत सकती हो। फिर एक बादशाह को नहीं? और उस बादशाह को, जो कलम और कला का सम्मान करता है। उठो तैयार हो जाओ।’’
प्रवीण ने साहस बटोर कर कहा था- ‘‘आचार्य में सबके लिए तैयार हूं पर अपनी प्रतिष्ठा और सतीत्व के मूल्य पर नहीं।’’  
‘‘किन्तु आंच आने पर तुम वहां भी कटार का सहारा ले सकती हो। अकेले सूने में मरने से क्या बनता है? ऐसे मरो कि दो-चार याद रखें।’’ इतना ही कहा था कि वह तैयारी करने लगी।
कितना विश्वास करती है प्रवीण। इंद्रजीत से भी नहीं पूछा और घोड़े पर बैठकर चल दी। पतिराम साथ था, नहीं तो और भी मुसीबत होती। किसी तरह आ ही गए, लेकिन बात रह जाए तब तो। प्रवीण का भरोसा है, वह बादशाह को कैसे जीतती कौन से दांव से नृत्य, वीणा या कविता से? अगर कविता से जीतती तो भाषा की जीत सारे देश पर छा जाएगी। कविराज ने मन ही मन एक गौरव का एहसास किया और दर्द से चारों तरफ देखकर अपनी नजरें रहीम पर गड़ा दीं।

डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त द्वारा लिखी गई अन्य कहानियों में जैसे ‘‘चौपड़’’, ‘‘पैजना के कंकरा’’ आदि में बुंदेली जीवन के अतीत और वर्तमान का तुलनात्मक दृश्य इतने मंजे हुए ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि कथाकार की कथालेखन की सिद्धहस्तता में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता है। डाॅ. गुप्त की कहानियां जिस प्रकार बुंदेली संस्कृति, समाज, राजनीति आदि के परिवेश को धरोहर के रूप में संजोती हैं, ठीक उसी प्रकार से डाॅ. गुप्त की कहानियों को संजोए रखने की महती आवश्यकता है। क्योंकि ये कहानियां महज कथारस की कहानियां नहीं है वरन नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार द्वारा लिखी गईं ऐतिहासिक एवं सामाजिक मूल्यों की कहानियां हैं।
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Thursday, April 17, 2025

बतकाव बिन्ना की | पड़ा ने मारी पूंछ, नपवा डारी मूंछ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
पड़ा ने मारी पूंछ, नपवा डारी मूंछ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘औ भैयाजी, चाचाजी को का हाल आए?’’ मैंने भैयाजी से पूंछी।
‘‘अब तो बे ठीक आएं। का है के ठीक तो बे पैले बी हते, बस तनक घबड़ा गए रए जे जाने के जोन से उन्ने इलाज कराओ रओ बा भौतई बड़ो फर्जी डाक्टर निकरो।’’ भैयाजी ने अपने दमोए वारे चाचाजी के बारे में बताई। बेई वारे जिनके बारे में पिछली हप्ता अपन ने बतकाव करी हती। 
‘‘तुमने पढ़ी? बा फर्जी डाक्टर की अस्पताल बंद कराई गई संगे नौ जने औ पकरे गए जोन वाकी प्रबंधन कमेटी में हते। ऊमें दो ठइयां लुगाइयां सोई आएं। उनको जी ने पसीजो, जो बे ऐसो गलत काम रोकबे की जांगा खुदई सील-सिक्का लगात रईं।
‘‘भैयाजी, लालच सबसे बड़ो पर्दा होत आए, जा पर्दा जोन की आंखन पे पड़ जाए ऊको फेर कछू औ नईं दिखात। आप सुनत-पढ़त नइंया का, के ऐसई मुतके फर्जी वारे डाक्टरी की आड़ में ह्यूमन आॅर्गन बेचन लगत आएं। अब आप उनको का कैहो?’’ मैंने भैयाजी से कई।’’
‘‘हम तो उनको आदमखोर कैबी।’’ कैत भई भौजी उतईं आ गईं। फेर भौजी आगे बोलीं,‘‘सई में! जोन मानुस हो के दूसरे मानुस के हाड़-गोड़ बेचन लगे तो बा आदमखोर ई तो कओ जैहे।’’
‘‘सई कई भौजी! मनो आजकाल का नईं हो रओ। एक जमाना हतो के डाक्टर भगवान घांई पूजे जात्ते। काय से के तब उनके काम ऐसे साजे रए, पर अब तो बे दूकानदार बन गए। मैं जे नईं कै रई के अच्छे डाक्टर अब नईं बचे, बे है, पर गिनती के आएं। बाकी तो... अब का कई जाए।’’ मैंने कई।
‘‘नईं तुम सई कै रईं बिन्ना! जब हम ओरें लोहरे हते तो हमाई तबीयत खराब होत संगे हमाए पापाजी डाक्टर खों बुला लात्ते। ऊ टेम पे डाक्टर हरों के पास लमरेटा स्कूटर भओ करत्तो। सो, डाक्टर साब अपने स्कूटर पे बैठ के आजात्ते। घरे आ के अच्छे से जांच करत्ते औ पापाजी जो कछू फीस देत्ते सो बे ले लेत्ते। सो होत जे रओ के डाक्टरन से सबई को घर जैसो ब्यौहार बन जात्तो। औ अब देखो तो बे अपने टेम के आगूं-पांछू ने मरीज देखहें औ ने सकल दिखाहें। कछू खास दुकान पे उनकी दवा मिलत आए। इत्तई नईं, पांच सौ रुपईया से नैचें कोनऊं की फीस ने हुइए। लुटाई सी करत आएं।’’ भौजी बोलीं।
‘‘लुटाई की ने कओ। अबे जेई साल की जनवरी में हमाओ एक दोस्त अपने बाबूजी खों उते दिल्ली के एक प्राईवेट अस्पताले ले गओ। उते मुतको इलाज चलो। बे जैसे-तैसे उते डरे रए। बाकी बाबूजी ने बच पाए। तब लौं भौतई खर्चा हो गओ रओ। अस्पताल को लम्बो बिल बन गओ रओ। इत्ते पइसा उनके ऐंगर ऊ टेम पे ने रए। अस्पताल वारन से साफ कै दई के पैले पूरे पइसा जमा करो, ने तो हम तुमाए बाप की लहास ने देहैं। बा बिचारो एक तो ऊंसई बिपदा को मारो, ऊ पे ऐसी जल्लादी ऊके संगे करी गई। बा तो ऊके गांव को एक मोड़ा मिल गओ जो उते दिल्ली में अनवरसिटी में पढ़बे खों गओ रओ, सो ऊने बताओ के फोन पे घरे से पइसा कैसे मंगाए जा सकत आएं? तब कऊं जा के हमाए दोस्त ने अपने घरे फोन करो, पइसा मंगाए औ बिल चुका के अपने बाबूजी की लहास ले पाए। बड़ो बुरौ करो उन ओरन ने।’’ भैयाजी ने बताई।  
‘‘अरे, जो दूसरे सहरन में बी डिगरी चैक करी जाए तो कओ औ ऐसे फर्जी वारे मुतके निकर आएं।’’ भौजी ने कई। 
‘‘वैसे चाचाजी ने ठीक करी के इते चैकअप करा लओ सो सहूरी तो लग गई। ने तो बे डरात रैते।’’ मैंने कई।
‘‘बाकी आजकाल कछू अजीब सो नईं हो रओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘कैसो अजीब सो?’’मैंने पूछी।
‘‘जेई के कोऊ नाचत-नाचत गिरत आए औ पतो परत आए के बा तो गुजर गओ। कोऊ ब्याओ के समै घोड़ी चढ़त आए औ घोड़ी पे चढ़े-चढ़े निकर लेत आए। अबे देखो के एक मोड़ा चौदा साल को रओ, औ ऊको साईलेंट अटैक आओ औ बा ने बच पाओ। अब चौदा साल की उम्मर का कोनऊं हार्ट फेल होबे की उमर आए? को जाने का हो रओ।’’ भैयाजी चिन्ता करत भए बोले।
‘‘हऔ बात तो सोचबे वारी आए। भैयाजी, पर जे देखो आप के अपन ओरे मिलावटी खा रए। केमिकल वारो खा रए। एक ठइयां लौकी चार दिना के लाने फ्रिज में रख देओ, फेर देखो के ऊपे काली सी धारियां परन लगत आएं। सबरे फल मार्केट में कच्चे लाए जाते आएं फेर उनको केमिकल डार के पकाओ जात आए। मैंने तो सुनी आए के कलींदा खों मीठो करबे के लाने ऊको सोई कोनऊं केमिकल वारी सुई टुच्च दई जात आए। अब ऐसे में औ का हुइए?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! एक दार हम लखनऊ से बनारस जा रए हते बाई रोड। रस्ता में हमें लौकी के बगीचा दिखाने। तीन-तीन, चार-चार फुट की लौकियां उते लटकी दिखीें। हमाई तो आंखें खुली के खुली रै गईं। फेर हमाए टैक्सी डिराईवर ने बताई के जा इंजेक्शन लगा के रातई-रात बड़ी करी गई आएं। हम तो सन्नाटा खा के रै गए।’’ भौजी ने बताई।
‘‘बाद में तो कओ जान लगो के जोन सब्जी ज्यादा चमकदार दिखाए बा नई खाओ चाइए, जोन ज्यादा बड़ी होए सो जान लेओ के ऊमें सुई टुच्ची गई आए। ओई टेम पे एक जने खों बाबा रामदेव ने बताई रई के लौकी के जूस पियो करो। बा लौकी को जूस पी के मर गओ। खूब हल्ला मचो। कइयों ने बाबा खों गरियाओ। बाद में पता परी के बा जोन टाईप की लौकी को जूस पी रओ हतो बा केमिकल से बड़ी करी जात्ती।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘का आए भैयाजी के, अपने इते बा कहनात आए न के पड़ा ने मारी पूंछ़ तो नापन लागे मूंछ। जेई होत आएं जब लौं कोनऊं कांड ने हो जाए तब लौं सबरे प्रसासन वारे पल्ली ओढ़ के सोए रैत आएं। औ फेर आगे की सबई जानक आएं।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई में बिन्ना! हम तो कै रए के चाए अस्पतालें होंए, चाए जिम होंए, चाए पैथलाजी वारे होंए, सबई के समै-समै पे इमानदारी से जांचे होत रैनी चाइए। ईसे फर्जी वारे पांव ने फैला पाहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे हम तो कैत आएं के स्कूलन की सोई जांचें होनी चाइए। एक गली में चार-चार ठइया इंग्लिश मीडियम स्कूलें मिल जात आएं। बा बी एक-एक कुठरिया में चलत भईं। ने तो उनके ऐंगर खेल को मैदान रैत आए, ने तो प्रयोगशाला रैत आए औ ने तो बे सगरी सुबिदा रैत आए जोन स्कूलन में नियम से होनी चाइए। उते के टीचर तो मनो बेरोजगारी के मारे रैत आएं सो औना-पौना में कैसऊं बी काम करत रैत आएं। मनो बच्चन के मां-बाप सोई नईं देखत आएं के उते बच्चा खों का-का सुबिदा मिल रई? बे तो इंग्लिश मीडियम को बोर्ड देखत आएं औ उधारे खाए से भरती करा आत आएं। बाकी ई सब में प्रसासन को बी कछू दायित्व बनत आए। कोनऊं सहर में देख लेओ 75 परसेंट स्कूलें ऐसी निकरें जोन स्कूल के नियम-कायदा पे फिट ने बैठत हुइएं। हमें तो जे लगत आए के जे सब कोऊ खों दिखत काए नइयां?’’ भौजी अपने जी की कैत गईं। 
‘‘जेई तो बात आए भौजी! के सब कछू नाक के नैचे होत रैत आए मनो जब लौं कछू मामलों बिगर के मीडिया लों ने पौंचे तब लौं कोनऊं खों कछू नई दिखात।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, अबई अपने सागरे की एक खबर पढ़ी रई के एक कोनऊं राधा रमण कालेज आफ मेडिकल सांईंसेस आए, ऊकी छात्राएं कलेक्टर के इते पौंचीं औ उन्ने शिकायत करी के उने चैतन्य मेडिकल कालेज में दाखिला दओ गओ, राधा रमण में पढ़ाई कराई गई औ दसा जे के उते के सर्टीफिकेट की कऊं कोनऊं पूछ-परख नोंई। मने बे तो ठगी गईं। उनकी मेनत गई, उनके बाप-मतई के पइसा गए औ मिलो ठेंगा। बाकी अब प्रसासन जांच कराहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो हमने कई भैयाजी के अपने इते जेई हाल आए के एक पंडज्जी जा रए हते तो उनखों रस्ता चलत में एक पड़ा ने पूंछ मार दई। गिलावे से छपी पूंछ उनपे परी तो उनको नहाओ-धोओ सब बरोबर हो गओ। बे पैले तो पड़ा के मालक से भिड़ परे, फेर चैन ने परी तो राजा के लिंगे पौंचे। राजा ने उनकी अरज सुनी। सो तुरतईं उन्ने सिपाई को हुकम दओ के बा पड़ा की मूंछन की लंबाई नाप लाए। पंडज्जी चकराए के मामलो पड़ा की पूंछ को आए औ जे मूंछ नापने को हुकम दे रए? पंडज्जी ने हिम्मत करके राजा से कई के मालक! बा पड़ा ने पूंछ मारी रई, मूंछ नोईं। ई पे राजा ने कई के जेई तो राजा औ परजा में फरक आए। तुम पूंछ की सोच रए औ हमें करने न्याय सो हम ऊकी पूंछ तो उखरवा नईं सकत तो ऊकी मूंछें नपवा के पूंछ के बरोबर की मूंछे उखरवा लेबी, तभई तो ऊको सजा मिलहे। जा सुन के पंडज्जी ने अपनो मूंड़ पकर लओ। बा तो कछू मुआवजा की उमींद लगा के हते, पर इते राजा मूंछ पटा के टरका रओ। पर राजा से बा कछू कै नई सकत्तो, ने तो राजा पंडज्जी को सबई कछू पटा देतो।’’ मैंने भैयाजी खों जा कैनात वारी स्टोरी सुना डारी।                 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। तब लौं मनो सोचियो जरूर ई बारे में के का कभऊं कोनऊं कांड के पैले इते फर्जीबाड़ा को पता लगाओ जा सकत आए? 
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Wednesday, April 16, 2025

डॉ सुश्री शरद सिंह के साहित्यिक अवदान पर श्यामलम की आठवीं साहित्य परिक्रमा में चर्चा

निःशब्द सा अनुभव कर रही हूं...  अभिभूत हूं.. भावुकता में हूं... सागर शहर की अग्रणी संस्था जो साहित्य संस्कृत कला एवं भाषा के लिए समर्पित है, "साहित्य परिक्रमा" उसका वह आयोजन है जिसमें होने का  सपना यहां का हर साहित्यकार देखता है... 
🚩अपने शहर में, अपनों के द्वारा, अपने साहित्य पर चर्चा ... इससे बढ़कर उपलब्धि भला और क्या हो सकती है? बस, यही कह सकती हूं कि यह आयोजन मेरे लिए अमूल्य है... अतुलनीय है... अनन्य है .....
🚩हार्दिक आभार श्यामलम संस्था 🚩🙏🚩
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चर्चा प्लस | प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
        प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता गीता’ में
          - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
श्रीमद्भगवद्गीता को आदर्श ग्रंथ माना जाता है। इसमें जीवन का उद्देश्य और महत्व बताया गया है। इसमें असत्य पर सत्य की जीत के लिए शस्त्र उठाने को उचित ठहराया गया है। इसमें आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व को समझाया गया है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि ‘‘मैं’’ यानी ईश्वर इस संसार के सभी तत्वों में विद्यमान है। इसलिए अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो हम पाएंगे कि गीता का उपदेश देते हुए कृष्ण प्रकृति के महत्व और उसके संरक्षण की आवश्यकता का भी उपदेश देते हैं। हमें गीता के श्लोकों के रूप में लिखे प्रकृति संरक्षण के संदेश को समझना चाहिए। यही कि यदि ईश्वर प्रकृति के प्रत्येक तत्व में है तो प्रकृति को क्षति पहुंचाना ईश्वर का अनादर करना है।   
आज पूरा विश्व पर्यावरण के क्षरण से जूझ रहा है। आज स्थिति इतनी विकट हो गई है कि पर्यावरण संरक्षण एक वैश्विक मुद्दा बन गया है। ओजोन परत के क्षरण के कारण पृथ्वी पर सूर्य का तापमान बढ़ने लगा है। आज विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से त्रस्त नजर आ रहा है। कहीं सुनामी आ रही है, तो कहीं भूकंप आ रहा है। यह सब पर्यावरण में असंतुलन के कारण हो रहा है। प्रकृति के इस असंतुलन के लिए मानव ही जिम्मेदार है। अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए उसने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर उन्हें नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है। आज हम मनुष्यों को यह भ्रम है कि हमने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है। हम एंटी-ग्रेविटी में काम कर सकते हैं, हमने गॉड पार्टिकल्स का पता लगा लिया है, हमारे पास ग्रहों का पता लगाने के लिए रॉकेट भेजने की क्षमता है और हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में प्रवेश कर चुके हैं। हम इसका अर्थ यह समझते हैं कि हम मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह हमारा भ्रम है। जब प्रकृति और मनुष्य के बीच संघर्ष होता है, तो अंततः प्रकृति जीत जाती है। सुनामी में मनुष्यों को तिनके की तरह बहा ले जाने की क्षमता होती है।
पर्यावरण संरक्षण की चेतना प्राचीन काल से ही प्रचलित है। प्रकृति और मनुष्य सदैव एक दूसरे के पूरक रहे हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना निरर्थक है। हमारे प्राचीन ग्रंथ हमें पर्यावरण संरक्षण के बारे में बहुत सी बातें बताते हैं। उनमें प्रकृति संतुलन, पर्यावरण संतुलन और जलवायु संतुलन के बारे में स्पष्ट चर्चा की गई है। दरअसल हमारे पूर्वज प्रकृति पूजक थे और वे प्रकृति के महत्व को भली-भांति समझते थे। जिन धार्मिक ग्रंथों को हम केवल धर्म या दर्शन मानते हैं, उन ग्रंथों में भी प्रकृति संरक्षण और प्रकृति के महत्व का वर्णन मिलता है। जिस प्रकार भगवद्गीता में पाप और पुण्य की व्याख्या की गई है, अन्याय के विरुद्ध न्याय के माध्यम से शस्त्र उठाने को उचित ठहराया गया है, वहीं उस ग्रंथ में प्रकृति के महत्व को भी स्थापित किया गया है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व में दैवीय शक्ति होने की बात कही गई है। अर्थात जब प्रकृति के प्रत्येक तत्व में ईश्वर है, तो वे सभी तत्व पूजनीय हैं और उनकी सेवा व देखभाल करना मनुष्य का कर्तव्य है। भगवद्गीता हिंदू समुदाय के लिए एक पवित्र ग्रंथ माना जाता है। भगवद शब्द भगवान से आया है, जिसका अर्थ है सर्वोच्च शक्ति वाला ईश्वर और गीता शब्द का अर्थ है गीत। इस प्रकार भगवद गीता शीर्षक ईश्वर के गीत को संदर्भित करता है। गीता की रचना शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी। वास्तव में गीता महान महाकाव्य महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है, जिसे वेद व्यास ने लिखा था। गीता कुरुक्षेत्र युद्ध की शुरुआत के दौरान अर्जुन को उनके सारथी भगवान कृष्ण द्वारा दी गई सलाह है। भगवद गीता के अनुसार प्रकृति तीन गुणों से बनी है जो प्रवृत्तियाँ या संचालन के तरीके हैं, जिन्हें रजस (निर्माण), सत्व (संरक्षण), और तम (विनाश) के रूप में जाना जाता है। सत्व में अच्छाई, प्रकाश और सद्भाव के गुण शामिल हैं। गीता के अध्याय 3 के एक श्लोक में प्रकृति से लेकर बादलों, बारिश, भोजन और मानव व्यवहार तक के चक्र को समझाया गया है। अर्थात जीवित प्राणी भोजन पर जीवित रहते हैं, जो बादलों (वर्षा) से उत्पन्न होता है और आगे बादल यज्ञ से उत्पन्न होते हैं, जो भगवान को अर्पित किए गए प्रसाद हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रकृति संरक्षण को महत्व दिया गया है। गीता में प्रकृति को माता के रूप में दर्शाया गया है, जो सभी जीवों को पोषण देती है और उनकी रक्षा करती है। गीता में पर्यावरण के विभिन्न घटकों में समन्वय और एकीकरण की बात कही गई है, और श्रीकृष्ण ने स्वयं पर्यावरण संरक्षण का अनुभव भी किया था। श्रीमद्भगवद् गीता में पर्यावरण संतुलन का वैज्ञानिक तथ्य उस समय स्पष्ट होता है जब श्रीकृष्ण पारिस्थितिकी और पर्यावरण के विभिन्न घटकों में समन्वय और एकीकरण की बात कहते हैं। मथुरा के राजमहलों से निर्वासित श्रीकृष्ण बाल रूप में ही ‘कालिया दह’ के विषाक्त जल को प्रदूषण रहित करते हैं। दावाग्नि पान कर वनों का संरक्षण करते हैं क्योंकि वन और वनस्पतियां जैव विविधता का अक्षय भंडार होती हैं। गो पालन में वह पशु-संरक्षण और गोवर्धन धारण करके पृथ्वी का संरक्षण भी करते हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति को माता कहकर इस तथ्य को समक्ष रखते हैं कि प्रकृति सब जीवधारियों को गर्भ में धारण कर उनका पोषण करती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में स्थित सूर्य और चंद्रमा इन्हें पोषित करते हैं। चंद्रमा की शीतल किरणें वनस्पतियों और औषधियों में रस का संचार करती हैं। श्रीकृष्ण ने सूर्य और नक्षत्रों के अधिपति चंद्रमा को स्वयं में पर्यवसित किया है। वृक्षों में अश्वत्थ कहकर वे उसकी आक्सीजन क्षमता का परिचय देते हैं। जल पर तैरती नाव, पोतवाहकों की वायु-चक्र से प्रभावित होती गतिशीलता पर भी उनकी गहरी दृष्टि गयी है। जलचर जीवों और आकाशगामी पंछियों के साथ ही श्रीकृष्ण पारिस्थितिकी और जीवमंडल एवं उसके वैज्ञानिक प्रभावों की चर्चा करते हैं।
गीता के अध्याय 3 के एक श्लोक में प्रकृति के प्रति बादल, वर्षा, भोजन और मानव व्यवहार के चक्र को समझाया गया है। -
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यद् अन्नसम्भवः
यज्ञद् भवति पर्जन्यों यज्ञः कर्मसमुद्भवः (113-1411)
- इसका अर्थ है कि जीव अन्न पर जीवित रहते हैं, जो बादल (वर्षा) से उत्पन्न होता है और बादल यज्ञ से उत्पन्न होता है, जो भगवान को अर्पित किया जाता है। संचित यज्ञ को कर्म के साधन के रूप में उपयोग किया जाएगा, अर्थात आज की आहुति कल में प्राप्त होगी।
दूसरे शब्दों कहा जाए तो अन्नाद् भवन्ति भूतानि अर्थात सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। पर्जन्यात् अन्नसम्भवः अर्थात अन्न वर्षा से होता है। यज्ञाद् भवति पर्जन्यो अर्थात वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञः कर्मसमुद्भवः अर्थात् यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। यह श्लोक दर्शाता है कि सृष्टि का चक्र कर्म, यज्ञ, वर्षा और अन्न के माध्यम से चलता है।
एक अन्य श्लोक प्रकृति को प्रत्येक कार्य का प्रमुख नियंत्रक बताता है। दूसरी ओर यह कहा जा सकता है कि प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से उसकी नियमित गतिविधियाँ प्रभावित होंगी, जिसका असर मानव जीवन पर पड़ सकता है। यह कविता उन लोगों को चेतावनी भी देती है, जो प्रकृति की शक्ति में विश्वास नहीं करते हैं।-
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। (3-27)
भावार्थ है कि दुनिया में सभी कर्म प्रकृति के गुण के द्वारा ही किए जाते हैं। प्रकृति के गुणों से ही सभी तरह के कर्म किए जाते हैं। उदाहरण के लिए शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, नदियाँ प्रवाहित होती हैं, भौतिक वस्तुओं में परिवर्तन होता रहता है। यह सब प्रकृति द्वारा नियंत्रित एवं निर्धारित होता है जबकि ‘‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’’ अर्थात अहंकार से मोहित हो चुके इंसान को लगता है कि वह स्वतः प्रेरित हो कर कर्म कर कर रहा है। वह भूल जाता है कि प्रकृति ही मनुष्य की भी नियंता है और वह अपने नियंता को ही क्षति पहुंचाने लगता है।

गीता (अध्याय 7) में प्रकृति के सजीव और निर्जीव तत्वों के संबंध में कुछ सुंदर श्लोक हैं। -
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (7/4)
अर्थात गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है। 
इस प्रकार प्रकृति के सभी तत्व ईश्वर का अंश हैं। उन्हें नुकसान पहुंचाना ईश्वर का अनादर करने के समान है।   

सातवें अध्याय के ही पांचवें श्लोक में कहा गया है-
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।।
स्वामी रामसुख दास ने इस श्लोक का बहुत सटीक अर्थ बताया है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश - ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार - ये आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस ‘‘अपरा’’ प्रकृतिसे भिन्न मेरी जीवरूपा बनी हुुई मेरी श्पराश् प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। अर्थात यदि ईश्वर को स्वीकार करते हैं, उनका सम्मान करते हैं तो प्रकृति का भी सम्मान करना चाहिए।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। 
सातवें अध्याय के छठे श्लोक में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि परा और अपरा इन दोनों प्रकृतियोंके संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ। भावर्थ देखें तो- प्रकृति ईश्वर का स्वरूप है। यदि प्रकृति को क्षति पहुचाएंगे तो प्रकृति यानी ईश्वर रुष्ट हो जाएगा और प्रलय उत्पन्न होगा। वही, यदि प्रकृति संरक्षित रहे तो ईश्वर प्रसन्न रहेंगे और श्री और समृद्धि प्राप्त होगी।
सारांशतः देखा जाए तो ‘‘श्रीमद्भगवद् गीता’’ हमें सही ढंग से जीने का रास्ता दिखाती है और बिना लोभ-लालच के कर्म करने का निर्देश देती है। यदि मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा तो हम प्रकृति का क्रूरता से दोहन नहीं करेंगे और प्रकृति के संरक्षण के बारे में सोचेंगे। बस, यही कहा ह। बस, यही कहा है  श्रीकृष्ण ने गीता में। अब यह हम पर निर्भर है कि हम इसके एक-एक श्लोकों का गहराई से मर्म समझें अथवा उन श्लोकों को रट कर अपनी धार्मिक क्रिया की इति मान लें। वस्तुतः हमें प्रकृति के महत्व को आत्मसात करना चाहिए जिसे हमारे पूर्वजों ने दार्शनिक और धार्मिक शिक्षाओं के माध्यम से हमें समझाया है। हमें यह ध्यान देना चाहिए और सीखना चाहिए कि जिसको हम जीवन का मूल ज्ञान मानते हैं उस ‘‘श्रीमद्भगवद् गीता’’ की शिक्षाएं हमें प्रकृति के संरक्षण का मार्ग दिखाती हैं।
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Tuesday, April 15, 2025

पुस्तक समीक्षा | मानवीय संबंधों के बूझे-अबूझेपन रेखांकित करती कहानियां | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 15.04.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा    

मानवीय संबंधों के बूझे-अबूझेपन  रेखांकित करती कहानियां
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - मैं उन्हें नहीं जानती
लेखिका  - उर्मिला शिरीष
प्रकाशक -शिवना प्रकाशन, पी.सी.लैब सम्राट काॅप्लेक्स बेसमेंट, बसस्टेंड, सिहोर,म.प्र-466001
मूल्य    - 275/-
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हिन्दी कथा साहित्य जगत में उर्मिला शिरीष एक स्थापित नाम है। अब तक उनके दो दर्जन से अधिक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कहानियां मन को उद्वेलित करने में सक्षम होती हैं। उनकी कहानियों का धरातल सामाजिक होते हुए भी मनोवैज्ञानिक होता है। वे हर कारण की तह तक उतरती हैं और फिर उसे अपनी कहानी का विषयवस्तु बनाती हैं, यही खूबी है उनके कथा लेखन की। उनकी भाषा और शिल्प की चर्चा बाद में। पहले बात समीक्ष्य कहानी संग्रह ‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’। शिवना प्रकाशन, सिहोर से प्रकाशित इस संग्रह में उनकी चौदह कहानियां हैं।
उर्मिला शिरीष के जीवनानुभव की सीमा वृहद है जोकि उनकी कहानियों से गुज़रने के बाद दावे से कहा जा सकता है। वे मानवीय संबंधों की बारीकियों को बड़ी कोमलता से उठाती हैं और पूरे विश्वास के साथ उन्हें विस्तार देती हुईं उस क्लाईमेक्स की ओर ले जाती हैं जहां पहुंच कर पढ़ने वाले को यही लगता है कि इस कहानी का अंत इससे इतर और कुछ हो ही नहीं सकता था। ‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’ की कहानियों में विषय की विविधता है जिनमें विदेशी भूमि पर उपजी परिस्थियों की एक मार्मिक कहानी भी है जिसका नाम है ‘‘स्पेस’’। यह संग्रह की पहली कहानी नहीं है फिर भी मैं इसी कहानी से समीक्षा की शुरूआत करना चाहूंगी। बहुत पहले भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका झुम्पा लहरी का कहानी संग्रह ‘‘अनकस्टम्ड अर्थ’’ पढ़ा था। झुम्पा लहरी ने अमेरिका में बसे भारतीय परिवारों विशेष रूप से बंगाली परिवार के बारे में कहानियां लिखी थीं। अरसे बाद उर्मिला शिरीष की कहानी ‘‘स्पेस’’ पढ़ कर लगा कि जो पक्ष झुम्पा लहरी से छूट गया था, उसे उर्मिला जी ने बड़ी गहनता एवं मार्मिकता से सामने रखा। अमेरिका में बसे बेटे बहू की घोर उपेक्षित एवं प्रताड़ित मां की करुणामय कथा। जिस बेटे को अमेरिका में सेटल होने के लिए मां ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया, वही बेटा मां को अपनी पत्नी के अत्याचारों से नहीं बचा पा रहा था। साथ ही वह स्वयं भी मात्र इसलिए अपनी पत्नी के अमानवीय व्यवहार को सहन कर रहा था कि बेसहारा मां को वह अपने से अलग नहीं कर पा रहा था। अमेरिका पारिवारिक संबंधों को ले कर कठोर है। एक फोनकाॅल पर पुलिस तुरंत हाज़िर हो कर दोषी को पकड़ कर जेल में डाल देती है, भारी जुर्माना करती है। एक बच्चा भी अपने माता-पिता की मार के विरुद्ध पुलिस बुला सकता है। एक भारतीय मां अपनी बहू के विरुद्ध किसी से शिकायत करने का साहस भी नहीं जुटा पाती है। कारण कि माता-पुत्र अपनी बहू की भांति निर्लज्ज नहीं थे। वे खामोशी से सब कुछ सह रहे थे। वह तो उनकी एक पड़ोसन से यह सब सहन नहीं हुआ। जबकि पड़ोसन की तो बहू भी विदेशी थी किन्तु भारतीय परम्पराओं एवं संस्कारों का आदर करने वाली। अतः पड़ोसन और उसकी बहू उस मां को उसकी बहू के अत्याचार से बचाने का बीड़ा उठाती हैं। जिस विस्तार से प्रताड़ना के विविध रूपों का वर्णन है उसे पढ़ कर कोई भी यही चाहेगा कि उस निरीह महिला की मदद की जानी चाहिए। इस कथानक के मूल में एक बहुत बड़ी पीड़ा इस बात की भी छिपी है कि बच्चों को विदेश भेजने और वहां उनके बसने पर खुश होने वाले माता-पिता अपने-आप में कितने अकेले पड़ जाते हैं। फिर चाहे वे भारत में रहें या बच्चों के साथ विदेश में। बेशक सब के साथ यह नहीं होता है किन्तु ऐसा भी होता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
संग्रह में एक बहुत चुलबुली कहानी है ‘‘दुपट्टा’’। यह कहानी शुरू होती है एक नाॅटी किस्म की घटना से और समाप्त होती है गहरे विमर्श पर। माॅर्निंग वाॅक पर जाने वाले एक दंपति का किस्सा है। पति एक पराई स्त्री को यह देख कर प्रभावित होता है कि वह चाहे भारतीय परिधान पहने या पाश्चात्य, पर एक दुपट्टा अवश्य ओढ़ती है। उसे देख कर वह अपनी पत्नी से भी दुपट्टा ओढ़े जाने की अपेक्षा करता है। बात बहस तक भी जा पहुंचती है। पत्नी सोचती है कि क्या दुपट्टा ओढ़ना या न ओढ़ना ही सब कुछ है? स्त्री की अपनी इच्छा कोई मायने नहीं रखती? एक वैचारिक द्वंद्व के बाद कहानी दिलचस्प मोड़ पर समाप्त होती है।
जब हम सोचते हैं कि हम अपने परिजन, परिचित, मित्र या संबंधी को पूरी तरह से जानते हैं, तभी कुछ ऐसा घटित होता है कि लगता है कि हम तो वस्तुतः उन्हें जानते ही नहीं थे। इसी धरातल की दो कहानियां हैं संग्रह में। रोचक बात ये है कि इसमें एक कहानी संग्रह की प्रथम कहानी है और दूसरी संग्रह की अंतिम कहानी। अंतिम कहानी की चर्चा पहले करना समीचीन होगा क्योंकि इसी कहानी के शीर्षक पर संग्रह का नाम है ‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’। परिवार में प्रायः सबसे बड़ी बहन पर अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने का दायित्व होता है। भाई-बहनों को सम्हालते-सम्हालते वह कब अपनी मां में ढल जाती हैं, उसे स्वयं पता नहीं चलता। इसके विपरीत उसके भाई-बहन उसके बारे में कितना जानते हैं अथवा उसके दुख-सुख की कितनी परवाह करते हैं, यह दावे से नहीं कहा जा सकता है। सच तो ये है कि पूरा परिवार उससे अपनी समस्याएं कहता-सुनता है किन्तु उसकी समस्याएं उससे कभी पूछता नहीं है। सभी यही मान कर चलते हैं कि वह तो बड़ी है, उसका घर पहले बस गया है, वह पूरी तरह सुखी है। ठीक यही स्थिति है इस कहानी की प्रमुख पात्र जिया की। जिस बहन को जिया ने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, उसे भी वर्षों बाद इस बात का अहसास होता है कि वह जिया को बिलकुल नहीं जानती है।
इसी अजानेपन की दूसरी और संग्रह की पहली कहानी है ‘‘देखेगा सारा गांव बंधु’’। एक बेटी अपनी मां को कितना जानती है? या एक बेटा अपने पिता को कितना जानता है? यह एक जटिल प्रश्न है। क्योंकि संतान अपने माता-पिता को उसके एक पक्षीय रूप में अर्थात् माता-पिता के रूप में ही जानते हैं। वे यह कभी समझ नहीं पाते हैं कि एक व्यक्ति के रूप में माता और पिता का भी अपना एक निजी संसार होता है, निजी अनुभव होते हैं या यूं कहा जाए कि उनका अपना एक गोपन संसार होता है। एक पुत्र अपने पिता के बारे में बहुत कुछ जानते हुए भी, मानो कुछ भी नहीं जान पाता है। चारित्रिक विशेषताओं एवं विभिन्न मनोदशाओं की गलियों को पार करती यह कहानी एक नास्टैल्जिक दुनिया में पहुचा देती है। संग्रह की बेहतरीन कहानी है यह।
कहानी ‘‘चल खुसरो घर आपने’’ को भी इसी क्रम में रखा जा सकता है। एक मां, एक बेटी दोनों ही भरे पूरे परिवार के होते हुए भी अपने-अपने मोर्चे पर अकेलेपन से जूझने को विवश हैं। आयु के उस पड़ाव में जब सबसे अधिक सहारे की जरूरत होती है, उनकी आंतरिक पीड़ा समझने वाला कोई नहीं है। उस अवस्था में क्या मोक्ष का द्वार हीे उनके अपने घर का द्वार है, जहां लौट कर उन्हें सुकून मिल सकता है? कहानी का मर्म विचिलित करता है।  
‘‘कहा-अनकहा’’ कहानी परिस्थितियों, अंतद्र्वंद्व एवं एक अदद सहारे की दबी हुई ललक के ताने-बाने से बुनी हुई है। एक अकेली महिला जिसकी बेटी-दामाद दूसरे शहर में हैं एक ऐसे व्यक्ति से अनायास टकराती है जो उसका मददगार बन कर सामने आता है। लेकिन आज कर समय आंख मूंद कर विश्वास कर लेने का भी समय नहीं है। वह महिला अस्पताल जाती है। कष्ट में है। अस्पताल में भीड़ है। परेशानियां हैं। तभी एक व्यक्ति उसकी मदद को तत्पर हो उठता है, निःस्वार्थ। अस्पताल में एक अनजान व्यक्ति मदद करे और वह भी निःस्वार्थ तो शंका जागना स्वाभाविक है। हर कदम पर मदद को बढ़ा हुआ हाथ और उस हाथ को थामते हुए भारी उधेड़बुन। यह संबंध किस मोड़ तक जा सकेगा यह उस महिला के निर्णय पर निर्भर है। घटनाक्रम की स्वाभाविकता ऐसी है गोया सब कुछ अपनी आंखों के सामने घटित हो रहा हो। सभी चरित्रों को उनकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत करना उर्मिला शिरीष की लेखकीय विशिष्टता है जो कथानक को जीवंत बना देती है।
‘‘नियति’’ एक नाटकीय घटनाक्रम के साथ क्लाईमेक्स पर पहुंचने वाली कहानी है जो कुछ पाठकों को असंभावित लग सकती है किन्तु जीवन विविधताओं से भरा हुआ है। यहां कुछ भी असंभव नहीं है। यह कहानी एक ऐसा हल भी देती है जिससे किसी स्त्री का जीवन संवर सकता है। एक विधवा स्त्री जिसकी युवा होती बेटी है। उस बेटी की पढ़ाई-लिखाई, लालन-पालन, सुरक्षा आदि की जिम्मेदारी उठाना असान नहीं है, वह भी अपनी सास एवं ससुरालियों के ताने एवं प्रताड़ना सहते हुए। उस पर अनुबंध का समय समाप्त होने पर उसकी नौकरी भी चली जाती है। तब उसकी एक मैडम उसका साथ देती है। उसके लिए एक विधुर भी तलाशती है। तब प्रश्न आता है बेटी का। इस प्रश्न का समाधान अस्वाभाविक लग सकता है किन्तु असंभव नहीं। आखिर कहानी का नाम भी ‘‘नियति’’ है और नियति में कुछ भी असंभव नहीं होता।
‘‘सप्तधारा’’ कहानी में जिस मुद्दे को उठाया गया है वह लगभग हर दूसरे घर का मुद्दा है। बेटियां तो पराई होती हैं का पुरातन फार्मूला, विवाह के बाद बेटियों के उन अधिकारों को भी छीन लेता है जो उन्हें मानवता के नाते मिलना चाहिए। मान लीजिए कि वृद्वावस्था में बाल-बच्चे दुत्कार दें तो एक अकेली वृद्वा कहां अपना सिर छुपाएगी? कहां शरण पाएगी? क्या वृद्वाश्रम में? एक छोटी-सी मानवीय सोच और पहल वृद्वाश्रम के सरवाजे बंद कर के स्वामित्व और गरिमा भरे जीवन के दरवाजे खोल सकती हैं बशर्ते बचपन से राखी बंधवा कर बहन की ताज़िन्दगी रक्षा करने का वचन देने वाला भाई रास्ता ढूंढ निकाले। यह एक सार्थक कहानी है जो एक सार्थक सोच को प्रस्तावित करती है।
‘‘मैं उन्हें नहीं जानती’’ कहानी संग्रह उर्मिला शिरीष के चिरपरिचित अंदाज़ की कहानियां जिनमें वे संवेदनाओं किसी तार-वाद्य के तार की भांति झंकृत करती हैं और फिर उसकी अनुगूंज में शेष कथा कह जाती हैं। यह अनुगूंज पाठक के मन-मस्तिष्क में भी देर तक गुंजायमान रहती है। चाहे परिवार हो या समाज हो, वे हर स्तर पर मानवता को स्थापित करना चाहती हैं। वे सकारात्मकता पर विश्वास करती हैं और इसीलिए उनकी कहानियां भी एक सकारात्मक संभावना के साथ अपनी पूर्णता को प्राप्त करती हैं। यूं भी उर्मिला शिरीष की कहानियां मनोवैज्ञानिक खिड़कियां खोलती हैंैं। उनकी कहानियों में वर्णित संबंधों में स्वार्थपरता, एकाकीपन, अंतर्विरोध, सामाजिक एवं पारिवारिक द्वंद्व, मानो मौन यथार्थ को शब्द देते हैं। वे स्त्री स्वतंत्रता, स्त्रीशक्ति एवं स्त्री स्वाभिमान को अपनी कहानियों में रखती हैं किन्तु किसी स्त्रीवादी नारे की भांति नहीं अपितु मानवतावादी दृष्टिकोण से, सहज रूप में। उर्मिला जी का शिल्प और भाषाई कौशल उन्हें अन्य समकालीन कथा लेखिकाओं से अलग ठहराता है।  उर्मिला शिरीष का यह कहानी संग्रह इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें मात्र समस्याएं और प्रश्न नहीं उठाए गए हैं वरन उनके हल भी सुझाए गए हैं। यह पूरा संग्रह सामाजिक विमर्श का है।            
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Saturday, April 12, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | छायरी औ पीबे को पानी की कबे रखे जैहें? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
टाॅपिक एक्सपर्ट
छायरी औ पीबे को पानी की कबे रखे जैहें?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

          ई दफा गरमी कछू पैले से परन लगी। अबे जेठ ने आओ औ जेठ घांईं तपन लगो। जेई से ई बेर श्रीराम सेवा समिति वारन ने रेलवे स्टेशन पे एक मईना पैले से अपनी जलसेवा चालू कर दई। ओ सुभै से इते मकरोनिया वारी कचरागाड़ी के भोंपू पे आपदा प्रबंधन वारों की सलाय बजत भई सुनी के घरे से निकरो तो पानी पी के निकरो, दुफारी 12 से 3:00 बजे तक बाहरे निकरबे से बचियो, जो निकरियो सो मूंड़ पे गमछा डारे रहियो। ऐसी मुतकी बातें एनाउंस करी जा रईं ती। अच्छो करो उन्ने। बाकी जा सब से हमें ख्याल आई के बाकी इंतजाम को करहे? सेवा करबे वारे औ आपदा वारे भर पुन्न कमाहें के कछू पुन्न नगरपालिका औ नगरनिगम सोई कमा लेवे।
     पर की साल सिविल लाइन चौराहा पे छायरी बनाई गई रई, जीसें ट्राफिक सिग्नल पे रुकबे वारन की खपड़िया ने तपे। ई दार अबे लौं ऐसी छायरी नईं लगाई गई। जागां-जागां पे पियत को ठंडो पानी को घड़ा रखो जाओ चाइए। अब सब ओरें ने तो चार पहिया पे चलत आएं औ ने ठंडे पानी की बाटलें खरीद सकत आएं। ऊपरे से घनी गरमी पर रई। दफ्तरन को टेम सोई बदल दओ जातो तो अच्छो रैतो। बाकी का ऐसो नईं हो सकत का, के टोल नाका घांईं ट्राफिक सिग्नल वारे चौराहन पे सोई परमानेंट छायरी बना दई जाए। ईसे का हुइए के अबे गरमियन में तो बा काम दैहे औ बरसात में सोई भीगबे से बचाहे। औ ऊपरे से हर की साल छायरी लगाबे की सल्ल नोईं। बाकी चाए कच्चो काम करो जाए, चाए पक्को करो जाए, मनो अब छायरी बना दई जानी चाइए। औ ठंडो पानी को घड़ो सोई धरबो सुरू कर दओ चाइए। हमाओ तो जेई कैबो आए।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, April 11, 2025

शून्यकाल | दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 
शून्यकाल

दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     भारत में बड़ी संख्या में लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूक नहीं है। वहीं यूनाईटेड नेशन्स के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण सन् 2030 तक दुनिया में 10 करोड़ से ज्यादा पर्यावरणीय शरणार्थी होंगे। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
 
 इंवायरमेंटल रिफ्यूजी यानी पर्यावरणीय शरणार्थी अर्थात् वह व्यक्ति जो पर्यावरण में हुए प्राकृतिक एवं मानवजनित परिवर्तनों के कारण शरणार्थी बन गया हो। पहले सिर्फ़ युद्ध-शरणार्थी हुआ करते थे लेकिन अब पर्यावरणीय शरणार्थी यानी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी होने लगे हैं। सूडान और सोमालिया जैसे अफ्रिकी देशों में गृहयुद्ध से कहीं अधिक लोग शरणार्थी जीवन बिताने को विवश हुए हैं प्रकृतिक आपदा के कारण। उनके गांवों के जलस्रोत सूख गए, पानी उपलब्ध न होने के कारण उनके मवेशी मरने लगे और उनके स्वयं के प्राणों पर संकट आ गया। जिससे मजबूर हो कर उन्हें अपना गांव, घर छोड़ कर दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। लेकिन उनका यह विस्थापन अवैध है क्योंकि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी को शरण देने का कानून अभी किसी भी देश में नहीं बनाया गया है। ऐसे शरणार्थी वास्तविक शराणार्थी होने पर भी न तो शराणार्थी कहलाते हैं और न उन्हें कोई सहायता मिल पाती है। यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि पर्यावरण परिवर्तन के कारण सन् 2050 तक अफ्रिका, लैटिन अमरीका और दक्षिण एशिया से लगभग 140 मिलियन लोग इंवायरमेंटल रिफ्यूजी के रूप में अपनी मुख्य भूमि छोड़ कर दूसरे भू भाग में विस्थापित हो जाएंगे।    
भारत में भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी बढ़ते जा रहे हैं। ये रिफ्यूजी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपना गांव छोड़ कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर बन कर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखें कि आए दिन किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का समाचार मिलता है। सरकार किसानों को हर संभव सहायता देती है। तो फिर यह आत्महत्या क्यों? यदि राजनीतिक चश्मा उतार कर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दी जाने वाली रुपयों की सहायता से न तो फसल उगाई जा सकती है और न बचााई जा सकती है। फसल उगाने के लिए बुनियादी जरूरत है पानी की। जिसे हम लगभग गंवाते जा रहे हैं। 

हर वर्ष बढ़ती गरमी अपने पिछले रिकाॅर्ड तोड़ती नज़र आती है। जल स्रोत तेजी से सूखते जा रहे हैं या फिर उनका जलस्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वृक्षों और पोखरों में स्वच्छन्द जीवन बिताने वाले पक्षियों के लिए मुट्ठी भर दाने और एक सकोरा पानी रख देने भर से हम अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह एक सकोरा पानी भी तब तक ही हम पक्षियों को दे सकेंगे जब तक हमारे पास अपनी प्यास बुझाने के लिए प्र्याप्त पानी होगा लेकिन हमारी प्यास भी अब संकट के दायरे में आती जा रही है। हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए मौजूदा पीढ़ीें के लिए ही गंभीर संकट खड़े कर दिए हैं। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, नदियों से रेत का असीमित उत्खनन, जहरीली गैस उत्सर्जन करने वाले वाहनों की सीमा तोड़ती संख्या, खाद्यान्न की आपूर्ति पर जनसंख्यावृद्धि का भारी दबाव जैसे वे प्रमुख कारण हैं जो आज पानी की उपलब्धता, सांस लेने को शुद्ध हवा और तापमान के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और देश का पढ़ा-लिखा तबका यह सब देख कर भी अनदेखा कर रहा है। 

सन् 1992 में जब रियो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु कंवेशन पर दस्तखत हुए, तो अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैस पर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया। इसके विपरीत वाशिंगटन ने हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की, जब भी यह तय करने की बात हुई कि किस गैस को कम करना है, किस तरह, कितना और कब। सन् 1997 में अमेरिका ज्यादातर देशों की तरह क्योटो संधि में शामिल होने को तैयार हो गया, जिसमें सिर्फ धनी देशों के लिए उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किये गये थे, जो ग्लोबल वॉर्मिंग का स्रोत समझे जाने वाले कार्बन प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं। अमेरिका कई रियायतें हासिल करने के बाद इसके लिए तैयार हुआ.बिल किं्लटन के उपराष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन डेमोक्रैटिक प्राशासन इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिये सीनेट में जरूरी दो तिहाई बहुमत कभी नहीं जुटा पाया। और जब बिल किं्लटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो सारी स्थिति बदल गई। पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी ऐसी संधि के विरोधी थे जो उनके विचार में विकासशील देशों को फोसिल इंधन जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देता था जबकि धनी देशों के हाथ उत्सर्जन की सीमाओं के साथ बांध दिये गये थे। यह संधि 2005 में अमेरिका की भागीदारी के बिना शुरू हुई। रूस के हस्ताक्षर के साथ संधि को लागू करने के लिए जरूरी 55 देशों ने इस पर अनुमोदन के बाद दस्तखत कर दिये थे। कनाडा बाद में संधि से बाहर निकल आया जबकि न्यूजीलैंड, जापान और रूस ने कार्बन कटौती के दूसरे चरण में भाग नहीं लिया। सन् 2009 में दुनिया भर के देश क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पर एक नई संधि करने के लिए इकट्ठा हुए जिसमें अमेरिका, चीन और भारत सहित सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने थे। लेकिन धनी और गरीब देशों के बीच बोझ के बांटने के मुद्दे पर मतभेदों के बीच कोपेनहैगन सम्मेलन विफल हो गया। कुछ दूसरे देशों के समर्थन के साथ अमेरिका ने इस पर जोर दिया कि डील को संधि न कहा जाए। अंत में बैठक में एक अनौपचारिक समझौता हुआ जिसमें औसत ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिक पूर्व स्तर से 2 डिग्री पर रोकने पर सहमति हुई, लेकिन उत्सर्जन में कटौती का कोई लक्ष्य तय नहीं हुआ.अगला लक्ष्य 2015 तक वैश्विक संधि कर लेने का हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के शी जिनपिंग के साथ मिलकर भारत सहित 195 देशों को जलवायु संधि के लिए इकट्ठा किया। उत्सर्जन लक्ष्यों को प्रतिबद्धता के बदले योगदान कहा गया जिसकी वजह से ओबामा इस संधि का अनुमोदन कर पाए। डोनाल्ड ट्रम्प इसके लिए कुछ प्रयास भी किया। लेकिन फिर एक बार सबकुछ अधर में लटका हुआ है।

भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार दिखने लगी है। बारिश के स्वभाव में आए बदलाव की वजह से हिमालयी राज्यों में कई नदियां रास्ता बदल चुकी हैं। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है। बीते कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह चुके हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से कई नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक बीते कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदला है। अब कुछ क्षेत्रों में बारिश बहुत ज्यादा और लंबे समय तक होती है। इसकी वजह से नदियां लबालब भर कर अपना रास्ता बदलने लगती हैं। नदियों के रास्ता बदलने से असम के लखीमपुर और धेमाजी जिले के कई गांव साफ हो चुके हैं। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने अपना रास्ता 300 मीटर दूर तक बदला है तो कहीं कहीं नदियां 1.8 किलोमीटर दूर जा चुकी हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) के अनुसार जलवायु की सामान्य स्थिति में बरसात पूरे साल अच्छे ढंग से बंटी रहती है। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका स्वभाव बदला है। भारत सहित पूरी दुनिया में बड़े शहरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन विशेषज्ञों की राय में यह सिर्फ शुरुआत है। सन् 2050 तक दुनिया की सत्तर फीसदी आबादी शहरों में रहेगी। भारत जैसे देश जिसकी आबादी सवा अरब है। तेजी से बढ़ती जा रही है, इन बड़े शहरों के पर्यावरण को बचाने के लिए काम करना होगा। सवा करोड़ के भारत में शहरों की घनी आबादी पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी बजा रही है। आबादी के मामले में साठ सत्तर लाख से लेकर करोड़ के आंकड़े को छूते इन शहरों में अगर फौरन पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है। पहले से ही घनी आबादी वाले इन शहरों पर दबाव बढ़ेगा। बिजली की जरूरत के अलावा बुनियादी सुविधाओं की भी व्यवस्था करनी होगी। नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्त्रोत गर्माने लगेंगे, तो दूसरी तरफ लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। पिछले दशक में दिल्ली की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। वहीं मुंबई की भी आबादी लगभग दो करोड़ का आंकड़ा पार हो चली है।

यदि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी की बढ़ती दर को रोकना है तो हमें सबसे पहले उन सब कामों को रोकना होगा जिनसे पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। वृक्षों को बचाना होगा तथा नए वृक्षों की पौध लगानी होगी तथा उस पौधों की ईमानदारी से रक्षा करनी होगी। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
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Thursday, April 10, 2025

बतकाव बिन्ना की | बा ऊपरे सुफेद बनो रओ, भीतरेे करिया निकरो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम


बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
बा ऊपरे सुफेद बनो रओ, भीतरेे करिया निकरो
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
         दोरे की घंटी बजी। मैंने बायरे झांक के देखो। भैयाजी औ भौजी दिखानीं। 
इत्ते टेम? दुफैर के साढ़े ग्यारा बज रए हते। जा टेम तो उन ओरन के खाबे-पीबे को होत आए? ऐसे टेम पे बे घाम में काए निकरे? मोय तनक अचरज भओ। चिन्ता भई। बाकी मैंने तुरतईं बायरे जा के दोरे खोलो।
‘‘आप ओरे ई टेम पे? सब ठीक तो आए?’’ मोसे पूछे बिगर ने रओ गओ।
‘‘हऔ सब ठीक आए! पैले तो पानी पिला बिन्ना! बायरे भौतई गरमी आए।’’ भैयाजी कैत भए सोफा पे आ बैठे। पांछू से भौजी सोई रुमाल से अपनो मों पोंछत भईं भीतरे आईं औ कैन लगीं,‘‘जा तो घाम में अभई से लुघरिया सी छू रई। ऐसो लग रओ मनो बायरे आगी-सी लगी होय।’’
‘‘हऔ, जब के अबे तो अप्रैल ई चल रओ। मई औ जून में का हुइए?’’ कैत भई मैंने पंखा चलाओ औ किचन में जा के दो गिलास पानी ले आई।
‘‘अबे फ्रिज में बाॅटलें धरनी सुरू र्नइं करी?’’ भैयाजी एक बेर में गिलास को पूरो पानी गटकत भए पूछन लगे।
‘‘अबे नईं! अबे का आए के मौसम बदल सो रओ आए औ ऊंसई मोय प्रिज को ठंडो पानी नईं पोसात। मोय तो घड़े को पानी अच्छो लगत आए। बाकी नओ घड़ो अबे ले ने पाई। एकाद दिनां जाबी तो लाबी।’’ मैंने भैयाजी खों बताई औ पूछी, ‘‘औ लाओं?’’
‘‘नईं! तनक देर में चाय जरूर बना लइयो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप औ, बिन्ना खों काए परेसान कर रए? घरे चलियो सो हम पिबा देबी।’’ भौजी ने भैयाजी खों टोंको। 
‘‘ईमें परेसानी काय की? आप सोई गजब की कै रईं? अभईं बनाऊं के तनक देर में?’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘तनक ठैर के!’’ भौजी बोलीं।
‘‘आप ओरें आ कां से रए?’’ मोए पूछे बिगर रओ नईं जा रओ हतो।
‘‘अरे का बताएं, बिन्ना! संकारे चार बजे बा दमोए वारी चाची को फोन आओ के बे ओरें सागरे आ रए चाचा जू खों इते चेकअप कराने खों। औ उन्ने हम दोई खों उते तला के ऐंगर वारे अस्पताल पे मिलबे खों बोलो। सो सुभै सात बजे हम दोई उते अस्पतालें पौंचे।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘सरकारी वारे में?’’ मैंने पूछी।
‘‘नईं, उते जोन प्राईवेट अस्पताल बनी आए। बा संजय ड््राईव के इते, ऊ वारे में।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘का हो गओ चाचा जी खों?’’ मैंने पूछी।
‘‘अबे कछू नईं भओ। बाकी हम दोई खों बी जेई लगो हतो के उनकी तबीयत ज्यादा बिगरी हुइए, तभईं बे ओरें उने ले के सागरे आ रए। मनो उते अस्पताले पौंच के पतो परो के अबे उने कछू नईं भओ, बस, तनक डरा गए।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘डरा गए मने? काय से डरा गए?’’ मैंने पूछी।
‘‘भओ का के दो-ढाई मईना पैले उनके सीने में दरद उठो रओ। उन्ने उतई दमोय में डाक्टर खों दिखाओ। दो दिनां भरती बी रए। डाक्टर ने बताई रई के हल्को सो अटैक आओ रओ। बाकी अब तो लग रओ के बा हार्ट को अटैक रओ के गैस को अटैक? डाक्टर ने सई बताओ रओ के नईं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘काए? आप ऐसो काए कै रए? जबे डाक्टर ने हार्ट को अटैक कओ रओ, तो हार्ट ई को अटैक रओ हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘कछू नईं कओ जा सकत बिन्ना! देख नई रईं, बा फर्जी डाक्टर खों कैसे पुलिस पकर लाई।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, बा तो गजब को फ्राडिया निकरो।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! ओई को तो दिखाओ रओ इन ओरन ने। सो अब डरा गए के का पता ऊने का दबाई दई, औ का करो। कईं अब ने कछू हो जाए। मनो इत्ते दिनां बाद कछू ने हुइए। पर दिल में डर तो बैठई जात आए। सो चाचा जू खों जब से पता परी के बा डाक्टर फर्जी निकरो तब से बे घबड़ा रए हते। फेर उनके बड़े वारे मोड़ा ने सोची के जो पैले सई को हार्ट अटैक ने बी आओ रओ हुइए तो अब घबड़ात-घबड़ात सई को हार्ट अटैक आ जाहे। सो ऊने चाचा जू से कई के सागरे चल एक बेर पूरो चेकअप करा लेत आएं सो सबरी संका मिट जैहे। जेई लाने बे ओरे भुनसारे निकर परे इते के लाने।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘तो बे ओरें अब कां आए? लौट गए का?’’ मैंने पूछी।
‘‘नईं, बे ओरे उतई आएं। पूरी जांच कराबे में अबे टेम लगहे। बाकी अरजेंट में ज्यादा पइसा दे के संझा लों रिपोर्टें मिल जैहे। जे ठीक रओ के अबे जो डाक्टर ने चेकअप करो तो बे बोले के घबड़ाने की कोन ऊं बात नोंई, सब ठीक आए। बाकी जांच में पूरो पतो पर जैहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हमने तो उन ओरन से कई रई के घरे चलो, भोजन-पानी कर के अस्पताले पौंच जाइयो। सो बे ओरें कैन लगे के दूर परहे। औ अबे मुतकी जांचे होने, इतई रुकबे से रिपोर्ट के लाने टोंकत रैबी। फेर बे ओरे हम ओरन से बोले के आप ओरे जाओ, जो कछू जरूरत परहे तो हम फोन कर देबी औ जो सब ठीक निकरहे सो बा बी बता देबी। सो, उनको कैबो बी ठीक हतो, हम ओरें उते रुक के करत बी का? इन्ने उन ओरन खों उते नास्ता-पानी करा दओ औ उतई की एक होटल में एक कमरा दवा दओ, के बे ओरें आराम कर सकें। सपर-खोंर सकें।’’ भौजी ने बताई।
‘‘जा ठीक करो। इते तक आबे में उन ओरन खों परेसानी तो होती। संगे टेम बी खराब होतो। चलो मैं अब चाय बना रई। चाय पियत भए आगे की कैबी-सुनबी।’’ कैत भई मैं उठ खड़ी भई।
किचन में पौंच के मैंने तुरतईं। कुकर में एक डब्बा में दाल धरी और दूसरे में चाऊंर। दूसरे छोटे कुकर में आलू उबलने खों धर दए। फेर चाय को पानी चढ़ाओ। तीन बर्नर वारो चूला को जेई तो फायदा रैत आए के तीन काम एक संगे करो जा सकत आएं। जब लौं मैं चाय छान के बैठक में पौंची, उत्ते में दोई कुकर सीटी मारन लगे। 
‘‘काय, तुमाओ खाना नईं बनो का? तुम तो जल्दी बना लेत आओ?’’ भौजी ने कुकर की सीटी सुन के पूछी।
‘‘मोरो खाना तो बनो धरो, जा तो आप ओरन के लाने बना रई। अब का थके-थकाए घरे जा के आप बनाहो का?’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘बिन्ना, तुम औ परेसान हो रईं!’’ भौजी खों संकोच लगी।
‘‘ऐसो बोल के मोरो जी ने दुखाओ। आप ओरे चाय पी लो फेर सब्जी छौंक के तुरतईं रोटी बना देबी, सो अच्छे से भोजन करियो औ आराम करियो। काय से जब कोनऊं के बीमारी की खबर मिले तो सरीर से ज्यादा जी में थकान हो जात आए।’’ मैंने कई।
‘‘सई में! पर देख तो बिन्ना, बा कैसो राच्छस डाक्टर आए, ऊको तनकऊं ने लगो के बा कित्तो बड़ो पाप कर रओ?’’ भौजी बोलीं।
‘‘औ का।’’ भैयाजी सोई बोल परे,‘‘ ऊने तो राष्ट्रपती जू की नकली सील-सिक्का लगा के फर्जी सर्टीफिकेट बना लओ। औ ऊपे गजब की बात जे के हार्ट की सर्जरी करत्तो ससुरो...।’’भैयाजी ने ऊके लाने तनक गारी-सी दई। बाकी ऊने कामई ऐसो करो, गरियाबे जोग।
‘‘सई कै रए भैयाजी आप! आदमी डाक्टर खों भगवान मानत आए औ अपनी जिनगी ऊके हाथ में सौंपे के सोचत आए के जा सब ठीक कर दैहे। जो ठीक आए के डाक्टर भगवान नईं होत, पर जा तो शैतान निकरो। डाक्टरी पढ़ी नईं औ कलेजा चीरन लगो, ऐसे में मरीज को रामनाम सत्त ने होतो तो औ का होतो? ऊ पापी खों तो कर्री सजा मिलो चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘बा तो ठीक आए बिन्ना! अब तो ऊको पुलिस ने पकर लओ आए और केस फाईल कर दई गई हुइए, मनो जे बताओ के ऊके कागज-पत्तर पैले कोनऊं ने चैक ने करे? औ जोन ने नईं करो या मिली-भगत करी, उने बी पकरो जाओ चाइए। बोलो सई के नईं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बिलकुल सई। ऊकी लाईसेंस औ डिगरी पैलई चैक कर लए जाते तो इत्ते लोग बेमौत ने मरते।’’ मैंने कई।
‘‘सई में बिन्ना! सबने ऊको देवता घांईं समझो औ मों मांगी फीस दई। औ मिलो का? जान औ चली गई। औ जोन की जान नईं गई बे अब चाचा जू घांई डरात फिर रए के उनको इलाज पैले ठीक करो गओ के नईं। बे ओरंे ऊसईं डरा-डरा के मरे जा रए। कित्तो नीच आदमी आए बा। डाक्टर को सुफेद कपड़ा पैन्ह के करिया काम कर रओ हतो।’’ भौजी बोलीं। 
‘‘हऔ, बा ऊपरे से सुफेद बना रओ, भीतरे से करिया निकरो। बाकी अब ऊ को औ ऊ के सबई संगवारों खों अच्छी बत्ती दओ जाओ चाइए।’’ भैयाजी बोले। औ कोनऊं बात होती तो मोय भैयाजी को ऐसो कैबो बुरौ लगतो, मनो बा पापी तो गरियाबे जोग ई आए।
‘‘चलो मैं सब्जी छौंक के रोटी बना रई, तब तक आप ओरें हाथ मों धो लेओ।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी से कई।       
बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। तब लौं मनो सोचियो जरूर ई बारे में के ईमें सासन वारन की भी लापरवाई आए के नईं? 
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