Wednesday, February 24, 2021
चर्चा प्लस | स्त्री-विरोधी होता समय बनाम बलात्कार की बढ़ती दर | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, February 23, 2021
आत्मनिर्भरता का संदेश देता सागर का माटी शिल्प | लेख| डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
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लेख :
आत्मनिर्भरता का संदेश देता सागर का माटी शिल्प
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
जब मनुष्य ने आकृतियां बनाना आरंभ किया होगा तब सबसे पहले उसने मिट्टी का ही सहारा लिया होगा । खाने के उपयोग में लाए जाने वाले बर्तन, बच्चों के खिलौने, महिलाओं के पहनने वाले आभूषण सभी वस्तुएं मिट्टी से ही बनाना शुरू किया होगा। मनुष्यों ने बुंदेलखंड में प्रागैतिहासिक काल से मनुष्यों का निवास स्थान रहा है। अनेक स्थानों से प्रागैतिहासिक कालीन खिलौने और आभूषण के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो यह साबित करते हैं बुंदेलखंड में मिट्टी से बनाई जाने वाली कलाकृतियों की परंपरा बहुत पुरानी है। यह आत्मनिर्भरता की ओर मज़बूत क़दम है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज की मिट्टी से अनेक कलाकृतियां बनाई जाती हैं। जिनमें कुछ सजावटी होती हैं तो कुछ बच्चों के खेलने के लिए खिलौनों के रूप में, कुछ दैनिक जीवन में उपयोग में लाए जाने वाले बर्तनों के रूप में तथा कुछ आभूषण के रूप में।
सागर ज़िले में बच्चों के खेलने के लिए हाथी, पक्षी, गुड्डे-गुड़िया आदि खिलौने बनाए जाते हैं। कुछ खिलौने आमतौर पर कुछ विशेष त्योहारों के समय बनाए और बेंचे जाते हैं। जैसे संक्रांति के समय मिट्टी के घोड़े और हाथी बनाए जाते हैं, जिनमें पाहिए लगे होते हैं। इनकी सुंदरता देखते ही बनती है। इनमें लगाम और महावत सहित सुंदर चित्रकारी भी होती है। ये हाथी, घोड़े इस प्रकार के होते हैं कि जिनमें सुतली बांधकर बच्चे आसानी से दौड़ा सकते हैं। खिलौने के रूप में बैलगाड़ी की बनाई जाती है। इसी प्रकार बालिकाओं को घरेलू कामकाज की शिक्षा देने वाले खिलौनों में गेहूं पीसने की चक्की बनाई जाती है। इसमें बाक़ायदे दो पाट होते हैं। गेहूं अथवा अनाज डालने के लिए छेद भी बना होता है। साथ ही चक्की में मूठ फंसाने के लिए भी छेद होता है। बच्चों के खेलने के लिए गुड्डा और गुड़िया बनाई जाती हैं जिन्हें पुतरा- पुतरियां कहते हैं। यह पुतरा- पुतरिया खेलने के काम आती हैं और अक्षय तृतीया के समय इनका विवाह भी रचाया जाता है, जो सामाजिक संस्कारों की शिक्षा देने का एक बेहतरीन माध्यम बनता है। मिट्टी की इन पुतरा- पुतरियों को सुंदर कपड़े पहनाए जाते हैं तथा हाथ से बने सुंदर ज़ेवरों से सजाया जाता है। बच्चों के खेलने के लिए है पानी भरने के लिए छोटे-छोटे घड़े, रसोई घर के बर्तन, चूल्हा आदि बनाया जाता है। आजकल आधुनिक युग में छोटे-छोटे गैस के सिलेंडर की बनाए जाते हैं, जिन्हें बड़ी खूबसूरती से लाल रंग से रंगा जाता है जिससे वे देखने में असली कुकिंग गैस के सिलेंडर जैसे दिखाई देते हैं।
धार्मिक आयोजनों के लिए मिट्टी की बनी कलाकृतियां बनाई जाती हैं। दीपावली के दिए तो सर्वविदित है और यह लगभग सभी जगह बनाए जाते हैं किंतु कुछ कलाकृतियां ऐसी हैं जो देवी-देवताओं की हैं और जिनका संबंध बुंदेलखंड से ही है। जैसे महालक्ष्मी की पूजा के लिए महालक्ष्मी की प्रतिमा बनाई जाती है। यह प्रतिमा गज पर सवार महालक्ष्मी की होती है। इसकी विशेषता यह होती है कि इसे पूर्ण पकाया नहीं जाता है अर्थात इसमें कच्चा रहता है किंतु इसकी साज-सज्जा बहुत ही सुंदर ढंग से की जाती है। चटक रंग का प्रयोग करते हुए साड़ी, कपड़े और सोने के रंग के आभूषण उकेरे जाते हैं। हाथी को भी सजाया जाता है। ग्वालन की मूर्तियां बनाई जाती है जो पूजा के दौरान दीप स्तंभ यानी कैंडल स्टैंड का काम भी करती हैं। इनमें पांच या पांच से अधिक दिए बनाए जाते हैं जिनमें तेल भरकर बाती लगाकर प्रज्वलित किया जाता है। देश के अन्य प्रांतों की भांति सागर ज़िले में भी मिट्टी की गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पूजा के उपयोग के लिए अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाने में बुंदेलखंड के कलाकारों को महारत हासिल है।
दैनिक जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं में मिट्टी से बनाई जाने वाली अनेक वस्तुएं हैं जैसे घड़े, नांद और तसले आदि। ये दो प्रकार के होते हैं- लाल रंग के और काले रंग के। लाल रंग के बर्तनों में अधिक छिद्र होते हैं और इन पर हल्की रंगों से अथवा सफेद रंग से चित्रकारी की जाती है। वही काले रंग के बर्तन ग्लेज़्ड होते हैं। इस प्रकार के बर्तनों का उपयोग आमतौर पर दही जमाने, भोजन पकाने, दूध-दही रखने और अचार आदि अधिक दिनों तक रखी जाने वाली खाद्य वस्तुओं को रखने के लिए होता है।
ज़िले के ग्रामीण अंचलों में मिट्टी की गुरियां बनाई जाती हैं। इन गुरियों से तरह-तरह की मालाएं बनाई जाती हैं। आजकल इस तरह की माला तथा आभूषणों का चलन बढ़ गया है। इनकी मांग शहरों की दुकानों से लेकर एंपोरियम तक होती है। ड्राइंग रूम को सजाने के लिए छोटे-छोटे घरों की आकृतियां, फेंगशुई में प्रचलित कछुए, लाफिंग बुद्धा, विंड चाइम्स, लैंपशेड आदि अनेक वस्तुएं यहां के कलाकार बनाते हैं। यह आमतौर पर बाजार हाट में अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाकर बेचते हैं। मेलों में भी इस प्रकार की वस्तुएं बेची जाती हैं। सागर ज़िले का माटी शिल्प बुंदेली कला-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है और सागर ज़िले को आत्मनिर्भर बनने में अपना योगदान देता है।
(माटीशिल्प की सभी फोटो : डॉ शरद सिंह)
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#बुंदेलखंड #माटीशिल्प #आत्मनिर्भर
#आत्मनिर्भरता
Saturday, February 20, 2021
मेरी पुस्तक ‘‘औरत तीन तस्वीरें’’ में मेरे ब्लाॅगर साथी | डाॅ शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh |
प्रिय ब्लाॅगर साथियों,
सन् 2014 में मेरी पुस्तक ‘‘औरत तीन तस्वीरें’’ सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी। स्त्रीविमर्श की मेरी इस पुस्तक में एक अध्याय है वेश्यावृत्ति के प्रश्न पर। इन प्रश्नों को मैंने तीन कड़ियों में अपने ब्लाॅग ‘‘शरदाक्षरा’’ में उठाया था। जिसमें उस समय मेरे ब्लाॅग साथियों ने अपने विचार रखते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणियां की थीं। उनमें से अधिकांश टिप्पणियां अपनी पुस्तक के इस अध्याय में शामिल की थीं। अपनी पुस्तक के वे पन्ने यहां साझा कर रही हूं। सन् 2014 से 2021 के लम्बे अंतराल में दो-तीन ब्लाॅगर साथी बिछड़ गए, कुछ दूसरे प्लेटफार्म पर व्यस्त हो गए और कुछ फिर से मिल गए।
तो प्रस्तुत है पुस्तक का वह अध्याय जिसमें संगीता स्वरूप, दिलबाग विर्क, संजय भास्कर, कुंवर कुसुमेश, संजय कुमार चौरसिया, सुरेन्द्र सिंह झंझट, ज्ञानचंद मर्मज्ञ, शिखा वार्ष्णेय आदि बॅगर साथियों की टिप्पणियां साभार समाहित हैं।
Aurat Teen Tasveeren, Dr (Miss) Sharad Singh -Front Cover |
Aurat Teen Tasveeren, Dr (Miss) Sharad Singh -Back Cover |
यह पुस्तक अमेजाॅन पर ...
https://www.amazon.in/Sharad-Singh-Book-Set-Aurat/dp/B07Z2QX9VD
और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है
https://www.flipkart.com/aurat-teen-tasvire/p/itmfyjzmxhcgzas6
इसी पुस्तक की समीक्षा आजतक टीवी चैलन की साहित्यिकी में की गई थी। लिंक दे रही हूं-
https://www.aajtak.in/literature/review/story/book-review-aaurat-teen-tasverein-220596-2014-09-11
इसे फेमिना पत्रिका (हिन्दी) ने वर्ष 2015 में सन् 2014 की स्त्रीविमर्श की श्रेष्ठ पुस्तकों में चुना था। जिसके पृष्ठ इस पोस्ट के अंत में दे रही हूं।
वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर एक सार्थक बहस
भारतीय दंडविधान 1860 से वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्यव्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। जिस्मफरोशी को कानूनी जामा पहनाए जाने की जोरदार वकालत करते हुए कांग्रेस सांसद प्रिया दत्त ने कहा था कि यौनकर्मी भी समाज का एक हिस्सा हैं और उनके अधिकारों की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती। सन् 2011, जनवरी में प्रिया दत्त के इस बयान के बाद समाज के प्रत्येक तबके में सुगबुगाहट शुरु हो गई थी। इस पर मैंने अपने ब्लाॅग ‘शरदाक्षरा’ में कुछ प्रश्न अपने ब्लाॅगर साथियों के समक्ष रखे। उन प्रबुद्ध साथियों ने बहस में पर्याप्त रुचि दिखाई और बहस तीन कड़ियों तक ज़ारी रही। इस लेख में उसी बहस को अपने प्रबुद्ध ब्लाॅगर साथियों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों सहित सहेज रही हूं जो उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे ब्लाॅग पर व्यक्त की थी। ये सभी टिप्पणियां जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए या नहीं, इस पर बड़ी ही बारीकी से जांच-परख करने में सक्षम हैं।
प्रिया दत्त ने कहा था कि ‘जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ताकि यौनकर्मियों की आजीविका पर कोई असर नहीं पड़े। मैं इस बात की वकालत करती हूं।’ उन्होंने कहा कि जिस्मफरोशी को दुनिया का सबसे पुराना पेशा कहा जाता है। यौनकर्मियों की समाज में एक पहचान है। हम उनके हकों की अनदेखी नहीं कर सकते। उन्हें समाज, पुलिस और कई बार मीडिया के शोषण का भी सामना करना पड़ता है। उत्तर-मध्य मुंबई की युवा सांसद ने कमाठीपुरा का नाम लिए बगैर कहा कि देश की आर्थिक राजधानी के कुछ रेड लाइट क्षेत्रों में विकास के नाम पर बहुत सारे यौनकर्मियों को बेघर किया जा रहा है।
प्रिया दत्त की इस मांग पर कुछ प्रश्न उठते हैः-
1-क्या किसी भी सामाजिक बुराई को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए ?
2-क्या वेश्यावृत्ति उन्मूलन के प्रयासों को तिलांजलि दे दी जानी चाहिए ?
3-जो वेश्याएं इस दलदल से निकलना चाहती हैं, उनके मुक्त होने के मनोबल का क्या होगा?
4-जहां भी जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया गया वहां वेश्याओं का शोषण दूर हो गया?
5- क्या वेश्यावृत्ति के कारण फैलने वाले एड्स जैसे जानलेवा रोग वेश्यावृत्ति को संरक्षण दे कर रोके जा सकते हैं ?
6- क्या इस प्रकार का संकेतक हम अपने शहर, गांव या कस्बे में देखना चाहेंगे?
7- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार विश्व में लगभग 60 लाख बाल श्रमिक बंधक एवं बेगार प्रथा से जुड़े हुए है, लगभग 20 लाख वेश्यावृत्ति तथा पोर्नोग्राफी में हैं, 10 लाख से अधिक बालश्रमिक नशीले पदार्थों की तस्करी में हैं। सन् 2004-2005 में उत्तरप्रदेश, छत्तीसग, बिहार, कर्नाटक आदि भारत में सेंटर फाॅर एजुकेशन एण्ड कम्युनिकेशन द्वारा कराए गए अध्ययनों में यह तथ्य सामने आए कि आदिवासी क्षेत्रों तथा दलित परिवारों में से विशेष रूप से आर्थिकरूप से कमजोर परिवारों के बच्चों को बंधक श्रमिक एवं बेगार श्रमिक के लिए चुना जाता है। नगरीय क्षेत्रों में भी आर्थिक रूप से विपन्न घरों के बच्चे बालश्रमिक बनने को विवश रहते हैं।
वेश्यावृत्ति में झोंक दिए जाने वाले इन बच्चों पर इस तरह के कानून का क्या प्रभाव पड़ेगा?
कुछ और प्रश्न वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर (दूसरी कड़ी)
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न प्रबुद्ध ब्लाॅगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने व्यंगात्मक सहमति।
सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ ने स्पष्ट कहा कि ‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता। किसी सामाजिक बुराई को समाप्त करने की जगह उसे कानूनी मान्यता दे देना, भारतीय समाज के लिए आत्मघाती ही साबित होगा।’ साथ ही उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव भी दिया कि ‘इस धंधे से जुड़े लोगों के जीवनयापन के लिए कोई दूसरी सम्मानजनक व्यवस्था सरकारें करें। इन्हें इस धंधे की भयानकता से अवगत कराकर जागरूक किया जाये।’ अमरेन्द्र ‘अमर’ ने सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ की बात का समर्थन किया। दिलबाग विर्क ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रिायों के लिए उस वातावरण को तैयार किए जाने का आह्वान किया जो ऐसी औरतों का जीवन बदल सके। उनके अनुसार, ‘दुर्भाग्यवश इज्जतदार लोगों का बिकना कोई नहीं देखता जो मजबूरी के चलते जिस्म बेचते हैं उनकी मजबूरियां दूर होनी चाहिए ताकि वे मुख्य धारा में लौट सकें।’ कुंवर कुसुमेश ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रिायों की विवशता पर बहुत मार्मिक शेर उद्धृत किया-
उसने तो जिस्म को ही बेचा है, एक फाकें को टालने के लिए।
लोग ईमान बेच देते हैं, अपना मतलब निकलने के लिए।
मनोज कुमार, रचना दीक्षित, जाकिर अली ‘रजनीश’ एवं विजय माथुर ने ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ उठाए जाना को सकारात्मक माना।
राज भाटिया ने प्रिया दत्त की इस मांग के प्रति सहमति जताने वालों पर कटाक्ष करते हुए बड़ी खरी बात कही कि -‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हूं, और जो भी इसे कानूनी मान्यता देने के हक में है वो एक बार इन वेश्याओं से तो पूछे कि यह किस नर्क में रह रही है , इन्हें जबर्दस्ती से धकेला जाता है इस दलदल में, हां जो अपनी मर्जी से बिकना चाहे उस के लिये लाईसेंस या कानूनी मान्यता हो, उस में किसी दलाल का काम ना हो, क्योंकि जो जान बूझ कर दल दल में जाना चाहे जाये। वैसे हमारे सांसद कोई अच्छा रास्ता क्यों नही सोचते? अगर यह सांसद इन लोगो की भलाई के लिये ही काम करना चाहते हैं तो अपने बेटों की शादी इन से कर दें, ये कम से कम इज्जत से तो रह पायेंगी।’
संजय कुमार चौरसिया ने जहां एक ओर देह व्यापार से जुड़ी स्त्रिायों की विवशता को उनके भरण-पोषण की विवशता के रूप में रेखांकित किया वहीं साथ ही उन्होंने सम्पन्न घरों की उन औरतों का भी स्मरण कराया जो सुविधाभोगी होने के लिए देह व्यापार में लिप्त हो जाती हैं। गिरीश पंकज ने प्रिया दत्त की इस मांग पर व्यंगात्मक सहमति जताते हुए टिप्पणी की कि -‘जिस्मफरोशी को मान्यता देने में कोई बुराई नहीं है। कोई अब उतारू हो ही जाये कि ये धंधा करना है तो करे। जी भर कर कर ले। लोग देह को सीढ़ी बना कर कहां से कहां पहुंच रहे है(या पहुंच रही हैं) तो फिर बेचारी वे मजबूर औरते क्या गलत कर रही है, जो केवल जिस्म को कमाई का साधन बनाना चाहती है। बैठे-ठाले जब तगड़ी कमाई हो सकती है, तो यह कुटीर उद्योग जैसा धंधा (भले ही लोग गन्दा समझे,) बुरा नहीं है, जो इस धंधे को बुरा मानते है, वे अपनी जगह बने रहे, मगर जो पैसे वाले स्त्री-देह को देख कर कुत्ते की तरह जीभ लपलपाते रहते हैं, उनका दोहन खूब होना ही चाहियेकृ बहुत हराम की कमाई है सेठों और लम्पटों के पास। जिस्मफरोशी को मान्यता मिल जायेगी तो ये दौलत भी बहार आयेगी। ये और बात है, की तब निकल पड़ेगी पुलिस वालों की, गुंडों की, नेताओं की। क्या-क्या होगा, यह अलग से कभी लिखा जायेगा। फिलहाल जिस्मफरोशी को मान्यता देने की बात है। वह दे दी जाये, चोरी-छिपे कुकर्म करने से अच्छा है, लाइसेंस ही दे दो न, सब सुखी रहे। समलैंगिकों को मान्यता देने की बात हो रही है,लिवइन रिलेशनशिप को मान्यता मिल रही है। इसलिए प्रियादत्त गलत नहीं कह रही, वह देख रही है इस समय को।’
संगीता स्वरुप ने एक बुनियादी चिन्ता की ओर संकेत करते हुए कहा कि ‘कानून बनते हैं पर पालन नहीं होता गिरीश पंकज जी की बात में दम है लेकिन फिर भी क्या ऐसी स्त्रियों को उनका पूरा हक मिल पाएगा?’
वहीं, राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने बहुत ही समीक्षात्मक विचार प्रकट किए कि -‘इस काम के वैधानिक करने या ना करने दोनों पक्षों के पक्ष और उलटे में तर्क हैं, वैधानिक होने में बुरी नहीं है अगर सही तरह से कानून बनाया जाए। अगर शराब बिक सकती है ये कह के कि समझदार लोग नहीं पीयेंगे। तो फिर इसमें क्या प्राॅब्लम है,जिनको वहां जाना है वो जायेंगे ही लीगल हो या न हो। लीगल होने से पुलिस की आमदनी बंद हो जायेगी थोड़ी। अगर ना हो और उन्मूलन हो जाए तो सब से अच्छा,वैधानिक न होने की जरूरत पड़ेे तो अच्छा,लेकिन देह व्यापार से जुड़ेे स्त्री-पुरुष के लिए कदम उठाना जरूरी है।’
इस सार्थक चर्चा के बाद भी मुझे लग रहा है कि कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अभी भी विचारणीय हैं जिन्हें मैं यहां विनम्रतापूर्वक आप सबके समक्ष रख रही हूं -
1- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक रूप से चलने दिया जाएगा तो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, उस स्थिति में वेश्यागामी पुरुषों की पत्नियों और बच्चों का जीवन क्या सामान्य रह सकेगा?
2- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दे दिया जाए तो जिस्मफरोशी करने वाली औरतों, उनके बच्चों और उनके परिवार की (विशेषरूप से) महिला सदस्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा का क्या होगा?
3- क्या स्त्री की देह को सेठों की तिजोरियों से धन निकालने का साधन बनने देना न्यायसंगत और मानवीय होगा? क्या कोई पुरुष अपने परिवार की महिलाओं को ऐसा साधन बनाने का साहस करेगा? तब क्या पुरुष की सामाजिक एवं पारिवारिक प्रतिष्ठा कायम रह सकेगी?
4.- विवशता भरे धंधे जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा देने के मुद्दे को क्या ऐच्छिक प्रवृति वाले सम्बंधों जैसे समलैंगिकों को मान्यता अथवा लिव-इन-रिलेशनशिप को मान्यता की भांति देखा जाना उचित होगा?
5.-भावी पीढ़ी के उन्मुक्तता भरे जीवन को ऐसे कानून से स्वस्थ वातावरण मिलेगा या अस्वस्थ वातारण मिलेगा?
बहस जारी रहेगी....वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर (तीसरी कड़ी)
अपनी पिछली पोस्ट ‘कुछ और प्रश्न: वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर’ में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, कुछ और प्रश्न प्रबुद्ध ब्लाॅगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने सहमति।
डाॅ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा कि ‘आधुनिक समाज में ये मुद्दे सिर्फ बहस करने के लिए उठाये जा रहे हैं। इस तरह के विषय उठाने वालों का (चाहे वे प्रिया दत्त ही क्यों न हों) कोई सार्थक अर्थ नहीं होता है। इस तरह की समस्या को यदि वैधानिक बना दिया जाए तो घर-घर, गली-गली वेश्यावृत्ति होती दिखेगी।’
संजय कुमार चौरसिया ने लिखा कि ‘एक-एक प्रश्न अपने आप में बहुत मायने रखता है, सभी पर विचार करना बहुत जरूरी है।’
सुरेन्द्र सिंह झंझट ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में लिखा कि ‘आज जब हम नारी-उत्थान और नारी सम्मान की बातें करते हैं, ऐसे में वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने का मतलब इसे बढ़ावा देना है....क्या हम इसी तरह नारी सम्मान की रक्षा करेंगे....आज महिलाएं पुरुषों से किसी भी मामले में पीछे नहीं हैं - चाहे वह सेवा हो, व्यवसाय हो, राजनीति हो, साहित्य हो, खेल हो या सेना हो अगर कहीं इनकी सहभागिता कम है तो प्रयास जारी है कि इनकी सहभागिता बढ़े दहेज उत्पीडन, यौन शोषण एवं आनर किलिंग जैसी विभीषिकाओं से जूझ रही नारी को निजात दिलाने के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका, स्वयंसेवी संस्थाएं एवं प्रबुद्ध वर्ग प्रयासरत हैं....नारी मात्र भोग की वस्तु नहीं है बल्कि वह मां, बहन, बेटी, बहू और अर्धांगिनी जैसे पवित्रा संबंधों से सकल सृष्टि को पूर्णता प्रदान करने वाली शक्ति है फिर हम नारी के प्रति किस दृष्टिकोण के तहत वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने की बात सोच भी सकते हैं? जो महिलाएं इस क्षेत्र में हैं उनमें से कम से कम 90 प्रतिशत किसी न किसी मजबूरी के कारण नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। अगर कोई सार्थक पहल करनी ही है तो कुछ सकारात्मक सोचा जाये, इस पेशे में लगी बुजुर्ग या अधेड़ महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के क्रम में रोजमर्रा की जरूरतों वाले सामानों की छोटी-मोटी दूकाने खुलवाई जाएं, समाज के लोग सामने आकर साहस का परिचय देते हुए मेडिकल जांच के उपरांत लड़कियों का विवाह करवाएं, भयंकर बीमारियों से जूझ रही महिलाओं का उचित इलाज कराया जाए, छोटी बच्चियों को इस माहौल से दूर करके प्रारंभिक और ऊंची शिक्षा दिलवाई जाये जिससे वे संभ्रांत समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकें, इनकी बस्तियों से दलालों को दूर किया जाये, न मानने पर दण्डित किया जाये द्य इनके गलियों-मोहल्लों में अस्पताल, स्कूल, आदि सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं, कुल मिलाकर इस दलदल से इन्हें उबारा जाये न कि वैधानिक दर्जा देकर सदा के लिए दलदल में धकेल दिया जाये।’
सुशील बाकलीवाल के विचार से ‘प्रश्न आपके जटिल इसलिये है कि पक्ष व विपक्ष दोनों दिशाओं में उदाहरण सहित काफी कुछ कहा जा सकता है। किन्तु सच यह है कि उन सभी स्त्रियों के हित में जो किसी भी मजबूरी या दबाव के चलते इस धंधे में सिसक रही हैं उनकी इस दलदल से मुक्ति के ठोस उपाय किये जाने चाहिये।’
राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने सुशील जी से सहमति प्रकट करते हुए लिखा कि ‘आपका भय अन्यथा नहीं है शायद इस कारण भी ये वैधानिक नहीं हुआ है। इस कुरीती को दूर करने के लिए इसका वैधानिक होना बिलकुल जरूरी नहीं है। बल्कि उन्मूलन का प्रयास होना ही बेहतर विकल्प है। किसी भी कुरीति को मान्य बनाना कोई तर्क नहीं हो सकता और ना ही इससे समस्या से निजात पायी जा सकती है, ठीक वैसे ही जैसे की घूसखोरी को वैधानिक बना के इससे नहीं निबटा जा सकता वैधानिक बनाने के विपक्ष में एक प्रश्न मैं भी जोड़ देता हूं। वैधानिक करने से क्या इसे अपना व्यवसाय बनाने वालों को छोट नहीं मिल जायेगी...और अधिक अधिक पुरुष भी आ जायेंगे इस काम मेंकृऔर मैं मानता हूं की पुरुषों में इस काम को करने के मजबूरी हो ये काफी मुश्किल जान पड़ता है।’
शिखा वार्ष्णेय ने लिखा कि ‘एकदम सही सवाल उठाये हैं आपने। वेश्यावृति को वैधानिक बना दिया गया तो जायज नाजायज के बीच की रेखा ही नहीं रह जायेगी।’
ज्ञानचंद मर्मज्ञ के अनुसार ‘आपके सारे सवालों के जवाब बस यही हैं कि वेश्यावृत्ति को संवैधानिक नहीं बनाना चाहिए। यह समाज पर लगा एक ऐसा धब्बा है जिसे मिटाने के लिए सदियां गुजर जाएंगी फिर भी इंसानियत शर्मसार रहेगी।’
डाॅ. श्याम गुप्ता ने कुछ और महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए ‘....किसी कुप्रथा को मिटाने के प्रयत्न की बजाए उसे संवैधानिक बनाना एक मूर्खतापूर्ण सोच है...जो मूलतः विदेशी चश्मे से देखने के आदी लोगों की है....आखिर हम सती-प्रथा, बाल-विवाह, बलात्कार, छेड़छाड़ सभी को क्यों नहीं संवैधानिक बना देते....आखिर सरकार ट्रेफिक के, हेल्मेट के नियम क्यों बनाती है, जिसे मरना है मरने दे।कृजहां तक कानून के ठीक तरह से न पालन की बात है वह आचरण की समस्या है...चोरी जाने कब से असंवैधानिक है पर क्या चोरी-डकैती समाज से खत्म हुई तो क्या पुनः चोरी को संवैधानिक कर दिया जाय.....सही है गैर संवैधानिकता के डर से निष्चय ही समाज में कुछ तो नियमन रहता है.. बिना उसके तो ?’
संजय भास्कर भी मानते हैं कि ‘प्रश्न जटिल है जो सिर्फ वेश्याओं से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसका असर समाज की दूसरी संस्थाओं पर भी पडेगा।’
सतीश सक्सेना मानते हैं कि ‘कानूनी जामा पहनना ही उचित है !’ उन्होंने अपनी विस्तृत टिप्पणी में लिखा कि ‘इससे इस वर्ग का विकास होगा! जहां तक नाक-भौं सिकोड़ने का सवाल है लोगों की मानसिकता कोई नहीं रोक पाया है! मानव विकास के शुरूआती दिनों से, आदिम काल से यह नहीं रुका है और न रुक सकता! वेश्याएं समाज में समाज में गन्दगी नहीं फैलाती बल्कि गंदगी रोकने में सहायक है, सवाल केवल यह है कि आप के लिए ( पाठकों ) समाज और परिवार की परिभाषा क्या है !
1. प्रश्न अपने आप में बहुत सीमित है, वहां जाने वाले कौन हैं? इसे समझना होगा!
2. हर एक का अपना निजी समाज होता है और प्रतिष्ठा के मापदंड ही अलग अलग होते हैं! जरा इसी सन्दर्भ में हिजड़ों के बारे में विचार करें।
3. यह प्रश्न ही असंगत हैं यह विशेष वर्ग, अच्छे भले परिवारों में कौन सा सामंजस्य है?
4. बहुत आवश्यक है।
5. मेरे विचार से दोनों अलग अलग क्षेत्र है! आपके उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर बेहद जटिल है! ब्लाक मस्तिष्क से अगर इस पर विचार करेंगे तो इस महत्वपूर्ण विषय के साथ अन्याय ही होगा !’
विजय कुमार सप्पत्ती मानते हैं कि ‘आई थिंक दैट दिस प्रोफेशन शुड बी गिवेन लीगल स्टेटस ओनली...कम से कम इस कारण से औरतों का शोषण तो नहीं होगा!’
रचना दीक्षित के अनुसार ‘जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने से वेश्यावृत्ति का उन्मूलन होगा, ये तो हास्यास्पद ही होगा। हां, इसका समाज पर व्यापक असर होना स्वाभाविक है।’
मनप्रीत कौर ने रचना दीक्षित के विचारों पर सहमति प्रकट की और जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने की बात का विरोध किया।
अरविन्द जांगिड ने बहुत ही रोचक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा कि ‘जिस्म फरोशी को ही यदि संवैधानिक दर्जा देना है तो फिर चोरी को भी दे दो, लूट खसोट, भ्रष्टाचार, आदि को भी संवैधानिक दर्जा दे दो. सीधी सी बात है की हमारे वर्तमान समाज के नैतिक पक्ष का तीव्र गति से पतन होता जा रहा है। ये बहुत ही चिंता का विषय है और ये हुआ इसलिए है क्यों की अच्छे लोग अपनी मर्यादा की दुहाई देकर चुप हो जाते हैं, बोलते ही नहीं, बुराई इसलिए जीतती है क्यों की उसका संगठन होता है, और एक नेक व्यक्ति को जब नीलाम किया जाता है तो बाकी नेक व्यक्ति भेड़ बकरियों की तरह बस देखते ही रहते हैं। नेक बात पर लड़ना बिलकुल सही है और हमें इस और प्रयत्न भी करना होगा, अन्यथा यदि समाज के नैतिक पक्ष का पतन यूं ही होता रहा तो हो सकता है की आने वाले समय में बच्चे शब्दकोष से पता लगाएंगे की ‘मामा’ कहते किसे हैं।’
मुकेश कुमार सिन्हा ने अरविन्द जांगिड के तर्क से सहमति प्रकट करते हुए अपनी राय दी कि ‘जो अपराध की श्रेणी में है, उसको वैसे ही ट्रीट करना बेहतर है।नहीं तो फिर भगवान मालिक है। फिर तो बलात्कारी भी अगर कहे, मैं विवाह करने के लिए तैयार हूं मुझे सजा मत दो । क्या ऐसे किसी घृणित कार्य को सहमति दी जा सकती है?’
डाॅ. अजीत के अनुसार ‘समाजशास्त्रिायों, मनोवैज्ञानिकों के लिए भी यह अभी यह तय करना थोड़ा मुश्किल काम होगा कि इस आफ्टर मैथ्स क्या रहेंगे कारण भारतीय समाज की संरचना अधिक संश्लिष्ट है। मेरी राय से इसके उन्मूलन के लिए इसको कानून वैद्य करना तार्किक नही होगा इससे और बढ़ावा ही मिलेगी।’
यह तय है कि जब-जब वेश्यावृत्ति का मुद्दा उठेगा तब-तब समाज सोचने पर मजबूर होगा इसे वैध दर्ज़ा दिया जाना चाहिए या नहीं।
(उन सभी के प्रति आभार जिनके विचार यथावत् मैंने यहां प्रस्तुत किए। यह एक बहुत ही स्वरूथ एवं सार्थक बहस रही। इसमें शामिल सभी प्रबुद्ध व्यक्तियों ने खुल कर अपने विचारों को रखा और एक संवेदनशील विषय के प्रत्येक पक्ष को सामने लाने में मदद की। सभी के विचार यहां साभार प्रस्तुत किए गए हैं।)
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Friday, February 19, 2021
नमामि देवी नर्मदे | विशेष लेख | नर्मदा जयंती | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
Wednesday, February 17, 2021
चर्चा प्लस | हर वृद्ध को पता होना चाहिए उसके कानूनी अधिकार | डाॅ शरद सिंह
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