Wednesday, February 24, 2021

चर्चा प्लस | स्त्री-विरोधी होता समय बनाम बलात्कार की बढ़ती दर | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
स्त्री-विरोधी होता समय बनाम बलात्कार की बढ़ती दर
  - डाॅ शरद सिंह
   यदि किसी युवती को बलात्कारी से अपनी जान बचाने के लिए यह कहते हुए गिड़गिड़ाना पड़े कि ‘‘मेरे साथ रेप कर लो लेकिन मुझे पत्थरों से मत मारो!’’ यह स्त्री की असहाय स्थिति और अपराधी की दबंगई की सारी पराकाष्ठा पार हो जाती है और समाज, समय और कानून तब स्त्री-विरोधी कटघरे में खड़े दिखाई देते हैं। दरअसल, स्त्री-सुरक्षा के कड़े कानून लागू किए जाने के साथ ही राजनीतिक दलों, सरकारों और पुलिस में उसे लागू करने की प्रबल इच्छाशक्ति का होना भी जरूरी है। वरना समय स्त्री-विरोधी ही रहेगा।
         
दरिंदे  घूमते  हैं  टोह  लेते  भेड़ियों से
भला कैसे हों अब आबाद घर की बेटियां
बना वहशी किसी नन्ही परी को देखकर
उसे आई नहीं क्या याद घर की बेटियां

मेरी अपनी ग़ज़ल की यह पंक्तियां मुझसे पूछती हैं कि अब तक हालात क्यों नहीं बदले? जी हां, एक नन्हीं बच्ची से किए गए बलात्कार की जघन्य घटना से विचलित हो कर 20 अप्रैल 2013 को अपने ब्लाॅग पर मैंने यह कविता लिखी थी। जिसे सागर शहर में ही एक स्कूली चपरासी द्वारा नर्सरी की छात्रा से गंदी हरकत करने की घटना पर ‘‘दैनिक भास्कर’’ ने 07 दिसम्बर 2018 को प्रकाशित किया था। यानी लगभग पांच साल बाद भी हालात वही थे। वहीं, आज लगभग प्रतिदिन अख़बारों के पन्ने बलात्कार की नृशंस घटनाओं से भरे रहते हैं। मेरे इन दो शेरों को पंजाबी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार अशोक वशिष्ठ ने अपने नवीनतम पंजाबी उपन्यास ‘‘तंदां’’ में उद्धृत किया है। जो भी व्यक्ति संवेदनशील है वह बलात्कार की बढ़ती दर से विचलित है। बलात्कार के साथ नृशंसतापूर्वक हत्या की विकृत मानसिकता भी तेजी से बढ़ती जा रही है जो चींख-चींख कर आज के समय को स्त्री-विरोधी समय ठहराती है।
             यदि किसी युवती को बलात्कारी से अपनी जान बचाने के लिए यह कहते हुए गिड़गिड़ाना पड़े कि ‘‘मेरे साथ रेप कर लो लेकिन मुझे पत्थरों से मत मारो!’’ यह स्त्री की असहाय स्थिति और अपराधी की दबंगई की सारी पराकाष्ठा पार हो जाती हैं। भोपाल के कोलार इलाके में 16 जनवरी 2021 को यह पराकाष्ठा भी पार हो गई। पीड़िता की शिकायत के अनुसार 16 जनवरी की शाम को जब वह कोलार पुलिस थाना इलाके में अपने घर के पास टहल रही थी तभी एक व्यक्ति ने उस पर हमला किया और उसे खींच कर झाड़ियों में ले गया। शिकायत के अनुसार आरोपी ने उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश की और उसे जमीन पर पटक दिया, जिससे उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट आई। पीड़िता ने अपनी शिकायत में कहा कि विरोध करने पर आरोपी ने उसके सिर पर पत्थरों से हमला भी किया तब उसने जान बचाने के लिए बलात्कारी से दया की भीख मांगते हुए जान बख़्शने के बदले बलात्कार कर लेने की गुहार लगाई। अंततः उसकी मदद की पुकार सुन कर एक दंपति उसे बचाने पहुंच गया और उस युवती की जान बच गई।    
               दुर्भाग्य से हालात बदल ही नहीं रहे हैं। जब मैं अपने ‘‘चर्चा प्लस’’ काॅलम की फाईल उठा कर देखती हूं तो मुझे 12 जुलाई 2017 का अपना लेख याद दिलाता है कि तत्कालीन हालात जब मैंने ‘‘चर्चा प्लस’’ में लिखा था कि -‘‘आए दिन समाचारपत्र भरे रहते हैं बेटियों के प्रताड़ित होने के समाचारों से। कभी हत्या तो कभी बलात्कार तो कभी किसी अन्य तरह का शारीरिक उत्पीड़न। उस पर बैलों के स्थान पर जुती हुई दो बेटियों की अखबारों में छपी तस्वीर ने सोचने पर विवश कर दिया है कि प्रत्येक समुदाय में धर्मध्वजा उठाए रखने वाली और संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने वाली बेटियां कब तक असुरक्षित रहेंगी? आज के सामाजिक एवं सुरक्षा संबंधी समुद्र मंथन में बेटियों का शोषण रूपी विष बढ़ता जा रहा है और मानो शिव का कण्ठ उसे धारण करने के लिए छोटा पड़ता जा रहा है। क्या हम शिव के तांडव की प्रतीक्षा कर रहे हैं?’’
               हम बलात्कार के आंकड़ों का विषपान किए जा रहे हैं लेकिन वारदातें हैं कि थमने का नाम नहीं ले रही हैं। देश में महिलाओं को अपराधों और अपराधियों से बचाने के लिए यूं तो ढ़ेर सारे कानून बनाए गए हैं, लेकिन अपराध के आंकड़े शर्म से सिर झुका लेने को विवश करते हैं। आज देश में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि बलात्कार की घटनाओं पर कैसे अंकुश लगाया जाए? महिलाओं को यौन अपराध से कैसे सुरक्षित किया जाए? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार भारत महिलाओं के लिए अब भी सुरक्षित नहीं हो पाया है। सन् 2012 में नई दिल्ली में चलती बस में पैरामेडिकल की छात्रा से जघन्य बलात्कार और हत्या के ‘‘निर्भया कांड’’ के बाद देश में यौन हिंसा के मामले को लेकर सख्त कानून और फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए लेकिन महिलाओं के खिलाफ हिंसा अब भी बेरोकटोक जारी है। एनसीआरबी के मुताबिक 2018 महिलाओं ने करीब 33,356 बलात्कार के मामलों की रिपोर्ट की। एक साल पहले 2017 में बलात्कार के 32,559 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2016 में यह संख्या 38,947 थी।  एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों में हर साल बढ़ोतरी हो रही है। राज्यों की बात करें तो सन् 2018 में बलात्कार के मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा 5,433 मामले दर्ज हुए, दूसरे स्थान पर राजस्थान 4,335 तथा तीसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश 3,946 था।
                 दिल्ली के निर्भया कांड के बाद कानूनों में सुधार के बावजूद रेप की बढ़ती घटनाओं ने सरकार और पुलिस को कठघरे में खड़ा कर दिया है। आखिर महिलाओं के खिलाफ जघन्य मामलों पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा है? बलात्कार के सरकारी आंकड़े भयावह है। एनसीआरबी के आंकड़ों में बताते हैं कि वर्ष 2019 के दौरान रोजाना औसतन 88 महिलाओं के साथ रेप की घटनाएं हुईं। यहां ध्यान रखना होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक कारणों एवं भय के कारण बलात्कार की हर घटना थाने में दर्ज़ नहीं हो पाती है। जिसका आशय है कि वास्तविक आंकड़े इससे और अधिक हो सकते हैं। यूं भी देश में बलात्कार को महिलाओं के लिए शर्म का मामला माना जाता है और इसकी शिकार महिला को कलंकित जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है। बलात्कारी इसी मानसिक व सामाजिक सोच का फायदा उठाते हैं। कई मामलों में रेप का वीडियो वायरल करने की धमकी देकर भी पीड़िताओं का मुंह बंद रखा जाता है।
               बलात्कार की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए कई कड़े कानून बनाए गए हैं लेकिन जैसाकि आए दिन होने वाली जघन्य घटनाओं से जाहिर होता है कि बलात्कारियों को किसी कानून का ख़ौफ़ नहीं है। किसी जुनूनी हैवान की तरह वे अपराध को अंजाम दे डालते हैं। बलात्कार की निरंतर बढ़ती हुई आपराधिक प्रवृत्ति का कारण सभी अपने-अपने स्तर पर ढूंढते दिखाई देते हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने हाथरस गैंग रेप घटना की कड़ी निंदा करते हुए बेरोजगारी को इसकी वजह करार दिया था। काटजू ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा था कि ‘‘यौनसंबंध पुरुष की सामान्य इच्छा है। लेकिन भारत जैसे परंपरावादी समाज में शादी के बाद ही कोई यौनसंबंध बना सकता है। दूसरी ओर, बेरोजगारी बढ़ने की वजह से बड़ी तादाद में युवा सही उम्र में शादी नहीं कर सकते। तो क्या रेप की घटनाएं बढ़ेंगी नहीं?’’ पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू का यह तर्क आसानी से गले उतरने वाला नहीं था। बेरोजगारी एक कारण हो सकती है लेकिन मुख्य कारण नहीं। विकृत आपराधिक मानसिकता ही इस तरह के अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराई जा सकती है और इस विकृति के बढ़ने के बुनियादी तौर पर दो कारण दिखाई देते हैं- एक तो बढ़ती हुई नशे की आदत और दूसरी इंटरनेट पर मानसिक विकृत पैदा करने वाली सामग्रियों की सहज उपलब्धता।
                 बलात्कार के साथ जो सबसे खतरनाक और विकृत ट्रेंड जुड़ता जा रहा है वह है बलात्कार के बाद नृशंसतापूर्वक हत्या किया जाना। एक तो बलात्कार का अपराध ही हमारी सामाजिक व्यवस्था में किसी भी स्त्री, युवती या बच्ची के सामान्य जीवन के अधिकार छीन लेता है, उस पर जीने का अधिकार छीन लिया जाना, वह भी प्रताड़ित कर के, विकृति की घातक स्थिति को दर्शाता है।
             हमारे देश में बलात्कार गैर-जमानती अपराध है। लेकिन एक सर्वे के अनुसार ज्यादातर मामलों में सबूतों के अभाव में अपराधियों को जमानत मिल जाती है। ऐसे अपराधियों को राजनेताओं, पुलिस का संरक्षण भी मिला रहता है। न्यायाधीशों की कमी के चलते मामले सुनवाई तक पहुंच ही नहीं पाते। ज्यादातर मामलों में सबूतों के अभाव में अपराधी बहुत आसानी से छूट जाते हैं। इसके अलावा आज भी ऐसे अपराधों के बाद पीड़िता की तरफ उंगली उठती हैं, इससे अपराधियों का मनोबल बढ़ता है। दरअसल कड़े कानून लागू किए जाने के साथ ही राजनीतिक दलों, सरकारों और पुलिस में उसे लागू करने की प्रबल इच्छाशक्ति का होना भी जरूरी है। इसके साथ ही सामाजिक सोच में बदलाव भी जरूरी है यानी बलात्कारी का सामजिक बहिष्कार भी जरूरी है। जब तक बलात्कारी मानसिकता वाले व्यक्ति के मन में कानून और समाज को ले कर भय नहीं होगा तब तक हाथरस से ले कर सीधी तक और कठुआ से ले कर शहडोल तक समय स्त्री-विरोधी ही रहेगा।
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(दैनिक सागर दिनकर 24.02.2021 को प्रकाशित)
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Tuesday, February 23, 2021

आत्मनिर्भरता का संदेश देता सागर का माटी शिल्प | लेख| डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, 
प्रस्तुत है मेरा यह लेख, जिसे जनसंपर्क विभाग, मध्यप्रदेश शासन, सागर द्वारा अपने फेसबुक पेजों पर भी अपलोड किया गया है। 

https://www.facebook.com/556319881414962/posts/1339572243089718/

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और, Twitter पर भी...

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तथा,

https://twitter.com/sagarjdjs/status/1364250735039324171?s=08

लेख :

आत्मनिर्भरता का संदेश देता सागर का माटी शिल्प

   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह        

       जब मनुष्य ने आकृतियां बनाना आरंभ किया होगा तब सबसे पहले उसने मिट्टी का ही सहारा लिया होगा । खाने के उपयोग में लाए जाने वाले बर्तन, बच्चों के खिलौने,  महिलाओं के पहनने वाले आभूषण सभी वस्तुएं मिट्टी से ही बनाना शुरू किया होगा। मनुष्यों ने बुंदेलखंड में प्रागैतिहासिक काल से मनुष्यों का निवास स्थान रहा है। अनेक स्थानों से प्रागैतिहासिक कालीन खिलौने और आभूषण के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो यह साबित करते हैं बुंदेलखंड में मिट्टी से बनाई जाने वाली कलाकृतियों की परंपरा बहुत पुरानी है। यह आत्मनिर्भरता की ओर मज़बूत क़दम है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज की  मिट्टी से अनेक कलाकृतियां बनाई जाती हैं। जिनमें कुछ सजावटी होती हैं तो कुछ बच्चों के खेलने के लिए खिलौनों के रूप में, कुछ दैनिक जीवन में उपयोग में लाए जाने वाले बर्तनों के रूप में तथा कुछ आभूषण के रूप में।


         सागर ज़िले में बच्चों के खेलने के लिए हाथी, पक्षी,  गुड्डे-गुड़िया आदि खिलौने बनाए जाते हैं। कुछ खिलौने आमतौर पर कुछ विशेष त्योहारों के समय बनाए और बेंचे जाते हैं। जैसे संक्रांति के समय मिट्टी के घोड़े और हाथी बनाए जाते हैं, जिनमें  पाहिए लगे होते हैं। इनकी सुंदरता देखते ही बनती है। इनमें लगाम और महावत सहित सुंदर चित्रकारी भी होती है।  ये हाथी, घोड़े इस प्रकार के होते हैं कि जिनमें सुतली बांधकर बच्चे आसानी से दौड़ा सकते हैं। खिलौने  के रूप में बैलगाड़ी की बनाई जाती है। इसी प्रकार बालिकाओं को घरेलू कामकाज की शिक्षा देने वाले खिलौनों में गेहूं पीसने की चक्की  बनाई जाती है। इसमें बाक़ायदे  दो पाट होते हैं।  गेहूं अथवा अनाज डालने के लिए छेद भी बना होता है। साथ ही चक्की में  मूठ फंसाने  के लिए भी छेद होता है। बच्चों के खेलने के लिए गुड्डा और गुड़िया बनाई जाती हैं जिन्हें पुतरा- पुतरियां कहते हैं।  यह पुतरा- पुतरिया  खेलने के काम आती हैं और अक्षय तृतीया के समय इनका विवाह भी रचाया जाता है, जो सामाजिक संस्कारों की शिक्षा देने का एक बेहतरीन माध्यम बनता है।  मिट्टी की इन पुतरा- पुतरियों  को सुंदर कपड़े पहनाए जाते हैं तथा हाथ से बने सुंदर ज़ेवरों से सजाया जाता है। बच्चों के खेलने के लिए है पानी भरने के लिए छोटे-छोटे घड़े, रसोई घर के बर्तन, चूल्हा आदि बनाया जाता है। आजकल आधुनिक युग में  छोटे-छोटे गैस के सिलेंडर की बनाए जाते हैं,  जिन्हें बड़ी खूबसूरती से लाल रंग से रंगा जाता है जिससे वे देखने में असली कुकिंग गैस के सिलेंडर जैसे दिखाई देते हैं।


       धार्मिक आयोजनों के  लिए मिट्टी की बनी कलाकृतियां बनाई जाती हैं।  दीपावली के दिए तो सर्वविदित है और यह लगभग सभी जगह बनाए जाते हैं किंतु कुछ कलाकृतियां ऐसी हैं जो देवी-देवताओं की हैं और जिनका संबंध बुंदेलखंड से ही है। जैसे  महालक्ष्मी की पूजा के लिए महालक्ष्मी की प्रतिमा बनाई जाती है। यह प्रतिमा गज पर सवार महालक्ष्मी की होती है। इसकी विशेषता यह होती है कि इसे पूर्ण पकाया नहीं जाता है अर्थात  इसमें कच्चा रहता है किंतु इसकी साज-सज्जा बहुत ही सुंदर ढंग से की जाती है।  चटक रंग का प्रयोग करते हुए साड़ी, कपड़े और सोने के रंग के आभूषण उकेरे जाते हैं।  हाथी को भी सजाया जाता है। ग्वालन की मूर्तियां बनाई जाती है जो पूजा के दौरान दीप स्तंभ यानी कैंडल स्टैंड का काम भी करती हैं। इनमें पांच या पांच से अधिक दिए बनाए जाते हैं जिनमें तेल भरकर बाती लगाकर प्रज्वलित किया जाता है। देश के अन्य प्रांतों की भांति सागर ज़िले में भी  मिट्टी की गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पूजा के उपयोग के लिए अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाने में बुंदेलखंड के कलाकारों को महारत हासिल है।


        दैनिक जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं में मिट्टी से बनाई जाने वाली अनेक वस्तुएं हैं जैसे घड़े, नांद और तसले आदि।  ये दो प्रकार के होते हैं-  लाल रंग के और काले रंग के।  लाल रंग के बर्तनों में अधिक छिद्र होते हैं और इन पर हल्की रंगों से अथवा सफेद रंग से चित्रकारी की जाती है।  वही काले रंग के बर्तन ग्लेज़्ड होते हैं।  इस प्रकार के बर्तनों का उपयोग आमतौर पर दही जमाने, भोजन पकाने, दूध-दही रखने  और अचार आदि  अधिक दिनों तक रखी जाने वाली खाद्य वस्तुओं  को रखने के लिए होता है।




          ज़िले के ग्रामीण अंचलों में मिट्टी की गुरियां बनाई जाती हैं। इन गुरियों से तरह-तरह की मालाएं बनाई जाती हैं।  आजकल इस तरह की माला तथा आभूषणों का चलन बढ़ गया है।  इनकी मांग  शहरों की दुकानों से लेकर एंपोरियम तक होती है।  ड्राइंग रूम को सजाने के लिए छोटे-छोटे घरों  की आकृतियां,  फेंगशुई में प्रचलित कछुए,  लाफिंग बुद्धा,  विंड चाइम्स, लैंपशेड आदि अनेक  वस्तुएं यहां के कलाकार बनाते हैं।  यह आमतौर पर बाजार हाट में अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाकर बेचते हैं।   मेलों में भी  इस प्रकार की वस्तुएं बेची जाती हैं।  सागर ज़िले का माटी शिल्प बुंदेली कला-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है और सागर ज़िले को आत्मनिर्भर बनने में अपना योगदान देता है।

(माटीशिल्प की सभी फोटो : डॉ शरद सिंह)

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सागर, मध्यप्रदेश

#बुंदेलखंड #माटीशिल्प #आत्मनिर्भर  

#आत्मनिर्भरता



Saturday, February 20, 2021

मेरी पुस्तक ‘‘औरत तीन तस्वीरें’’ में मेरे ब्लाॅगर साथी | डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

प्रिय ब्लाॅगर साथियों,

सन् 2014 में मेरी पुस्तक ‘‘औरत तीन तस्वीरें’’ सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी। स्त्रीविमर्श की मेरी इस पुस्तक में एक अध्याय है वेश्यावृत्ति के प्रश्न पर। इन प्रश्नों को मैंने तीन कड़ियों में अपने ब्लाॅग ‘‘शरदाक्षरा’’ में उठाया था। जिसमें उस समय मेरे ब्लाॅग साथियों ने अपने विचार रखते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणियां की थीं। उनमें से अधिकांश टिप्पणियां अपनी पुस्तक के इस अध्याय में शामिल की थीं। अपनी पुस्तक के वे पन्ने यहां साझा कर रही हूं। सन् 2014 से 2021 के लम्बे अंतराल में दो-तीन ब्लाॅगर साथी बिछड़ गए, कुछ दूसरे प्लेटफार्म पर व्यस्त हो गए और कुछ फिर से मिल गए। 

   तो प्रस्तुत है पुस्तक का वह अध्याय जिसमें संगीता स्वरूप, दिलबाग विर्क, संजय भास्कर, कुंवर कुसुमेश, संजय कुमार चौरसिया, सुरेन्द्र सिंह झंझट, ज्ञानचंद मर्मज्ञ, शिखा वार्ष्णेय आदि बॅगर साथियों की टिप्पणियां साभार समाहित हैं।

Aurat Teen Tasveeren, Dr (Miss) Sharad Singh -Front Cover

Aurat Teen Tasveeren, Dr (Miss) Sharad Singh -Back Cover


यह पुस्तक अमेजाॅन पर ...

https://www.amazon.in/Sharad-Singh-Book-Set-Aurat/dp/B07Z2QX9VD


और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है

https://www.flipkart.com/aurat-teen-tasvire/p/itmfyjzmxhcgzas6


इसी पुस्तक की समीक्षा आजतक टीवी चैलन की साहित्यिकी में की गई थी। लिंक दे रही हूं-

https://www.aajtak.in/literature/review/story/book-review-aaurat-teen-tasverein-220596-2014-09-11


 इसे फेमिना पत्रिका (हिन्दी) ने वर्ष 2015 में सन् 2014 की स्त्रीविमर्श की श्रेष्ठ पुस्तकों में चुना था। जिसके पृष्ठ इस पोस्ट के अंत में दे रही हूं।


वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर एक सार्थक बहस


भारतीय दंडविधान 1860 से वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्यव्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। जिस्मफरोशी को कानूनी जामा पहनाए जाने की जोरदार वकालत करते हुए कांग्रेस सांसद प्रिया दत्त ने कहा था कि यौनकर्मी भी समाज का एक हिस्सा हैं और उनके अधिकारों की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती। सन् 2011, जनवरी में प्रिया दत्त के इस बयान के बाद समाज के प्रत्येक तबके में सुगबुगाहट शुरु हो गई थी। इस पर मैंने अपने ब्लाॅग ‘शरदाक्षरा’ में कुछ प्रश्न अपने ब्लाॅगर साथियों के समक्ष रखे। उन प्रबुद्ध साथियों ने बहस में पर्याप्त रुचि दिखाई और बहस तीन कड़ियों तक ज़ारी रही। इस लेख में उसी बहस को अपने प्रबुद्ध ब्लाॅगर साथियों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों सहित सहेज रही हूं जो उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे ब्लाॅग पर व्यक्त की थी। ये सभी टिप्पणियां जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए या नहीं, इस पर बड़ी ही बारीकी से जांच-परख करने में सक्षम हैं।

 

प्रिया दत्त ने कहा था कि ‘जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ताकि यौनकर्मियों की आजीविका पर कोई असर नहीं पड़े। मैं इस बात की वकालत करती हूं।’ उन्होंने कहा कि जिस्मफरोशी को दुनिया का सबसे पुराना पेशा कहा जाता है। यौनकर्मियों की समाज में एक पहचान है। हम उनके हकों की अनदेखी नहीं कर सकते। उन्हें समाज, पुलिस और कई बार मीडिया के शोषण का भी सामना करना पड़ता है। उत्तर-मध्य मुंबई की युवा सांसद ने कमाठीपुरा का नाम लिए बगैर कहा कि देश की आर्थिक राजधानी के कुछ रेड लाइट क्षेत्रों में विकास के नाम पर बहुत सारे यौनकर्मियों को बेघर किया जा रहा है।

प्रिया दत्त की इस मांग पर कुछ प्रश्न उठते हैः-

1-क्या किसी भी सामाजिक बुराई को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए ?

2-क्या वेश्यावृत्ति उन्मूलन के प्रयासों को तिलांजलि दे दी जानी चाहिए ?

3-जो वेश्याएं इस दलदल से निकलना चाहती हैं, उनके मुक्त होने के मनोबल का क्या होगा?

4-जहां भी जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया गया वहां वेश्याओं का शोषण दूर हो गया?

5- क्या वेश्यावृत्ति के कारण फैलने वाले एड्स जैसे जानलेवा रोग वेश्यावृत्ति को संरक्षण दे कर रोके जा सकते हैं ?

6- क्या इस प्रकार का संकेतक हम अपने शहर, गांव या कस्बे में देखना चाहेंगे?

7- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार विश्व में लगभग 60 लाख बाल श्रमिक बंधक एवं बेगार प्रथा से जुड़े हुए है, लगभग 20 लाख वेश्यावृत्ति तथा पोर्नोग्राफी में हैं, 10 लाख से अधिक बालश्रमिक नशीले पदार्थों की तस्करी में हैं। सन् 2004-2005 में उत्तरप्रदेश, छत्तीसग, बिहार, कर्नाटक आदि भारत में सेंटर फाॅर एजुकेशन एण्ड कम्युनिकेशन द्वारा कराए गए अध्ययनों में यह तथ्य सामने आए कि आदिवासी क्षेत्रों तथा दलित परिवारों में से विशेष रूप से आर्थिकरूप से कमजोर परिवारों के बच्चों को बंधक श्रमिक एवं बेगार श्रमिक के लिए चुना जाता है। नगरीय क्षेत्रों में भी आर्थिक रूप से विपन्न घरों के बच्चे बालश्रमिक बनने को विवश रहते हैं।

वेश्यावृत्ति में झोंक दिए जाने वाले इन बच्चों पर इस तरह के कानून का क्या प्रभाव पड़ेगा? 


कुछ और प्रश्न वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर (दूसरी कड़ी)  


अपनी पिछली पोस्ट में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न प्रबुद्ध ब्लाॅगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने व्यंगात्मक सहमति। 

सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ ने स्पष्ट कहा कि ‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता। किसी सामाजिक बुराई को समाप्त करने की जगह उसे कानूनी मान्यता दे देना, भारतीय समाज के लिए आत्मघाती ही साबित होगा।’ साथ ही उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव भी दिया कि ‘इस धंधे से जुड़े लोगों के जीवनयापन के लिए कोई दूसरी सम्मानजनक व्यवस्था सरकारें करें। इन्हें इस धंधे की भयानकता से अवगत कराकर जागरूक किया जाये।’ अमरेन्द्र ‘अमर ने सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ की बात का समर्थन किया। दिलबाग विर्क ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रिायों के लिए उस वातावरण को तैयार किए जाने का आह्वान किया जो ऐसी औरतों का जीवन बदल सके। उनके अनुसार, ‘दुर्भाग्यवश इज्जतदार लोगों का बिकना कोई नहीं देखता जो मजबूरी के चलते जिस्म बेचते हैं उनकी मजबूरियां दूर होनी चाहिए ताकि वे मुख्य धारा में लौट सकें।’ कुंवर कुसुमेश ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रिायों की विवशता पर बहुत मार्मिक शेर उद्धृत किया- 

उसने तो जिस्म को ही बेचा है, एक फाकें को टालने के लिए।

लोग  ईमान  बेच  देते  हैं,  अपना मतलब निकलने के लिए।

                 

मनोज कुमार, रचना दीक्षित, जाकिर अली ‘रजनीश’ एवं विजय माथुर ने ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ उठाए जाना को सकारात्मक माना।

राज भाटिया ने प्रिया दत्त की इस मांग के प्रति सहमति जताने वालों पर कटाक्ष करते हुए बड़ी खरी बात कही कि -‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हूं, और जो भी इसे कानूनी मान्यता देने के हक में है वो एक बार इन वेश्याओं से तो पूछे कि यह किस नर्क  में रह रही है , इन्हें जबर्दस्ती से धकेला जाता है इस दलदल में,  हां जो अपनी  मर्जी से बिकना चाहे उस के लिये लाईसेंस या कानूनी मान्यता हो, उस में किसी दलाल का काम ना हो, क्योंकि जो जान बूझ कर दल दल में जाना चाहे जाये। वैसे हमारे सांसद कोई अच्छा रास्ता क्यों नही सोचते? अगर यह सांसद इन लोगो की भलाई के लिये ही काम करना चाहते हैं तो अपने बेटों की शादी इन से कर दें, ये कम से कम इज्जत से तो रह पायेंगी।’

संजय कुमार चौरसिया ने जहां एक ओर देह व्यापार से जुड़ी स्त्रिायों की विवशता को उनके भरण-पोषण की विवशता के रूप में रेखांकित किया वहीं साथ ही उन्होंने सम्पन्न घरों की उन औरतों का भी स्मरण कराया जो सुविधाभोगी होने के लिए देह व्यापार में लिप्त हो जाती हैं। गिरीश पंकज ने प्रिया दत्त की इस मांग पर व्यंगात्मक सहमति जताते हुए टिप्पणी की कि -‘जिस्मफरोशी को मान्यता देने में कोई बुराई नहीं है। कोई अब उतारू हो ही जाये कि ये धंधा करना है तो करे। जी भर कर कर ले। लोग देह को सीढ़ी बना कर कहां से कहां पहुंच रहे है(या पहुंच रही हैं) तो फिर बेचारी वे मजबूर औरते क्या गलत कर रही है, जो केवल जिस्म को कमाई का साधन बनाना चाहती है। बैठे-ठाले जब तगड़ी कमाई हो सकती है, तो यह कुटीर उद्योग जैसा धंधा (भले ही लोग गन्दा समझे,) बुरा नहीं है, जो इस धंधे को बुरा मानते है, वे अपनी जगह बने रहे, मगर जो पैसे वाले स्त्री-देह को देख कर कुत्ते की तरह जीभ लपलपाते रहते हैं, उनका दोहन खूब होना ही चाहियेकृ बहुत हराम की कमाई है सेठों और लम्पटों के पास। जिस्मफरोशी को मान्यता मिल जायेगी तो ये दौलत भी बहार आयेगी। ये और बात है, की तब निकल पड़ेगी पुलिस वालों की, गुंडों की, नेताओं की। क्या-क्या होगा, यह अलग से कभी लिखा जायेगा। फिलहाल जिस्मफरोशी को मान्यता देने की बात है। वह दे दी जाये, चोरी-छिपे कुकर्म करने से अच्छा है, लाइसेंस ही दे दो न, सब सुखी रहे। समलैंगिकों को मान्यता देने की बात हो रही है,लिवइन रिलेशनशिप को मान्यता मिल रही है। इसलिए प्रियादत्त गलत नहीं कह रही, वह देख रही है इस समय को।’ 

संगीता स्वरुप ने एक बुनियादी चिन्ता की ओर संकेत करते हुए कहा कि  ‘कानून बनते हैं पर पालन नहीं होता गिरीश पंकज जी की बात में दम है लेकिन फिर भी क्या ऐसी स्त्रियों को उनका पूरा हक मिल पाएगा?’ 

वहीं, राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने बहुत ही समीक्षात्मक विचार प्रकट किए कि -‘इस काम के वैधानिक करने या ना करने दोनों पक्षों के पक्ष और उलटे में तर्क हैं, वैधानिक होने में बुरी नहीं है अगर सही तरह से कानून बनाया जाए। अगर शराब बिक सकती है ये कह के कि समझदार लोग नहीं पीयेंगे। तो फिर इसमें क्या प्राॅब्लम है,जिनको वहां जाना है वो जायेंगे ही लीगल हो या न हो। लीगल होने से पुलिस की आमदनी बंद हो जायेगी थोड़ी। अगर ना हो और उन्मूलन हो जाए तो सब से अच्छा,वैधानिक न होने की जरूरत पड़ेे तो अच्छा,लेकिन देह व्यापार से जुड़ेे स्त्री-पुरुष के लिए कदम उठाना जरूरी है।’


इस सार्थक चर्चा के बाद भी मुझे लग रहा है कि कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अभी भी विचारणीय हैं जिन्हें मैं यहां विनम्रतापूर्वक आप सबके समक्ष रख रही हूं - 

1- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक रूप से चलने दिया जाएगा तो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, उस स्थिति में वेश्यागामी पुरुषों की पत्नियों और बच्चों का जीवन क्या सामान्य रह सकेगा?  

2- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दे दिया जाए तो जिस्मफरोशी करने वाली औरतों, उनके बच्चों और उनके परिवार की (विशेषरूप से) महिला सदस्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा का क्या होगा?

3- क्या स्त्री की देह को सेठों की तिजोरियों से धन निकालने का साधन बनने देना न्यायसंगत और मानवीय होगा? क्या कोई पुरुष अपने परिवार की महिलाओं को ऐसा साधन बनाने का साहस करेगा? तब क्या पुरुष की सामाजिक एवं पारिवारिक प्रतिष्ठा कायम रह सकेगी?

4.- विवशता भरे धंधे जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा देने के मुद्दे को क्या ऐच्छिक प्रवृति वाले सम्बंधों जैसे समलैंगिकों को मान्यता अथवा लिव-इन-रिलेशनशिप को मान्यता की भांति देखा जाना उचित होगा?

5.-भावी पीढ़ी के उन्मुक्तता भरे जीवन को ऐसे कानून से स्वस्थ वातावरण मिलेगा या अस्वस्थ वातारण मिलेगा?


बहस जारी रहेगी....वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर (तीसरी कड़ी) 


अपनी पिछली पोस्ट ‘कुछ और प्रश्न: वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर’ में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, कुछ और प्रश्न  प्रबुद्ध ब्लाॅगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने सहमति। 

डाॅ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा कि ‘आधुनिक समाज में ये मुद्दे सिर्फ बहस करने के लिए उठाये जा रहे हैं। इस तरह के विषय उठाने वालों का (चाहे वे प्रिया दत्त ही क्यों न हों) कोई सार्थक अर्थ नहीं होता है। इस तरह की समस्या को यदि वैधानिक बना दिया जाए तो घर-घर, गली-गली वेश्यावृत्ति होती दिखेगी।’ 

संजय कुमार चौरसिया ने लिखा कि ‘एक-एक प्रश्न अपने आप में बहुत मायने रखता है, सभी पर विचार करना बहुत जरूरी है।’

सुरेन्द्र सिंह झंझट ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में लिखा कि ‘आज जब हम नारी-उत्थान और नारी सम्मान की बातें करते हैं, ऐसे में वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने का मतलब इसे बढ़ावा देना है....क्या हम इसी तरह नारी सम्मान की रक्षा करेंगे....आज महिलाएं पुरुषों से किसी भी मामले में पीछे नहीं हैं - चाहे वह सेवा हो, व्यवसाय हो, राजनीति हो, साहित्य हो, खेल हो या सेना हो अगर कहीं इनकी सहभागिता कम है तो प्रयास जारी है कि इनकी सहभागिता बढ़े दहेज उत्पीडन, यौन शोषण एवं आनर किलिंग जैसी विभीषिकाओं से जूझ रही नारी को निजात दिलाने के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका, स्वयंसेवी संस्थाएं एवं प्रबुद्ध वर्ग प्रयासरत हैं....नारी मात्र भोग की वस्तु नहीं है बल्कि वह मां, बहन, बेटी, बहू और अर्धांगिनी जैसे पवित्रा संबंधों से सकल सृष्टि को पूर्णता प्रदान करने वाली शक्ति है फिर हम नारी के प्रति किस दृष्टिकोण के तहत वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने की बात सोच भी सकते हैं? जो महिलाएं इस क्षेत्र में हैं उनमें से कम से कम 90 प्रतिशत किसी न किसी मजबूरी के कारण नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। अगर कोई सार्थक पहल करनी ही है तो कुछ सकारात्मक सोचा जाये, इस पेशे में लगी बुजुर्ग या अधेड़ महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के क्रम में रोजमर्रा की जरूरतों वाले सामानों की छोटी-मोटी दूकाने खुलवाई जाएं, समाज के लोग सामने आकर साहस का परिचय देते हुए मेडिकल जांच के उपरांत लड़कियों का विवाह करवाएं, भयंकर बीमारियों से जूझ रही महिलाओं का उचित इलाज कराया जाए, छोटी बच्चियों को इस माहौल से दूर करके प्रारंभिक और ऊंची शिक्षा दिलवाई जाये जिससे वे संभ्रांत समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकें, इनकी बस्तियों से दलालों को दूर किया जाये, न मानने पर दण्डित किया जाये द्य इनके गलियों-मोहल्लों में अस्पताल, स्कूल, आदि सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं, कुल मिलाकर इस दलदल से इन्हें उबारा जाये न कि वैधानिक दर्जा देकर सदा के लिए दलदल में धकेल दिया जाये।’

सुशील बाकलीवाल के विचार से ‘प्रश्न आपके जटिल इसलिये है कि पक्ष व विपक्ष दोनों दिशाओं में उदाहरण सहित काफी कुछ कहा जा सकता है। किन्तु सच यह है कि उन सभी स्त्रियों के हित में जो किसी भी मजबूरी या दबाव के चलते इस धंधे में सिसक रही हैं उनकी इस दलदल से मुक्ति के ठोस उपाय किये जाने चाहिये।’

राजेश  कुमार ‘नचिकेता’ ने सुशील जी से सहमति प्रकट करते हुए लिखा कि ‘आपका भय अन्यथा नहीं है शायद इस कारण भी ये वैधानिक नहीं हुआ है। इस कुरीती को दूर करने के लिए इसका वैधानिक होना बिलकुल जरूरी नहीं है। बल्कि उन्मूलन का प्रयास होना ही बेहतर विकल्प है। किसी भी कुरीति को मान्य बनाना कोई तर्क नहीं हो सकता और ना ही इससे समस्या से निजात पायी जा सकती है, ठीक वैसे ही जैसे की घूसखोरी को वैधानिक बना के इससे नहीं निबटा जा सकता वैधानिक बनाने के विपक्ष में एक प्रश्न मैं भी जोड़ देता हूं। वैधानिक करने से क्या इसे अपना व्यवसाय बनाने वालों को छोट नहीं मिल जायेगी...और अधिक अधिक पुरुष भी आ जायेंगे इस काम मेंकृऔर मैं मानता हूं की पुरुषों में इस काम को करने के मजबूरी हो ये काफी मुश्किल जान पड़ता है।’ 

शिखा वार्ष्णेय ने लिखा कि ‘एकदम सही सवाल उठाये हैं आपने। वेश्यावृति को वैधानिक बना दिया गया तो जायज नाजायज के बीच की रेखा ही नहीं रह जायेगी।’

ज्ञानचंद मर्मज्ञ के अनुसार ‘आपके सारे सवालों के जवाब बस यही हैं कि वेश्यावृत्ति को संवैधानिक नहीं बनाना चाहिए। यह समाज पर लगा एक ऐसा धब्बा है जिसे मिटाने के लिए सदियां गुजर जाएंगी फिर भी इंसानियत शर्मसार रहेगी।’

डाॅ. श्याम गुप्ता ने कुछ और महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए ‘....किसी कुप्रथा को मिटाने के प्रयत्न की बजाए उसे संवैधानिक बनाना एक मूर्खतापूर्ण सोच है...जो मूलतः विदेशी चश्मे से देखने के आदी लोगों की है....आखिर हम सती-प्रथा, बाल-विवाह, बलात्कार, छेड़छाड़ सभी को क्यों नहीं संवैधानिक बना देते....आखिर सरकार ट्रेफिक के, हेल्मेट के नियम क्यों बनाती है, जिसे मरना है मरने दे।कृजहां तक कानून के ठीक तरह से न पालन की बात है वह आचरण की समस्या है...चोरी जाने कब से असंवैधानिक है पर क्या चोरी-डकैती समाज से खत्म हुई तो क्या पुनः चोरी को संवैधानिक कर दिया जाय.....सही है गैर संवैधानिकता के डर से निष्चय ही समाज में कुछ तो नियमन रहता है.. बिना उसके तो ?’

संजय भास्कर भी मानते हैं कि ‘प्रश्न जटिल है जो सिर्फ वेश्याओं से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसका असर समाज की दूसरी संस्थाओं पर भी पडेगा।’

सतीश सक्सेना मानते हैं कि ‘कानूनी जामा पहनना ही उचित है !’ उन्होंने अपनी विस्तृत टिप्पणी में लिखा कि ‘इससे इस वर्ग का विकास होगा! जहां तक नाक-भौं सिकोड़ने का सवाल है लोगों की मानसिकता कोई नहीं रोक पाया है! मानव विकास के शुरूआती दिनों से, आदिम काल से यह नहीं रुका है और न रुक सकता! वेश्याएं समाज में समाज में गन्दगी नहीं फैलाती बल्कि गंदगी रोकने में सहायक है, सवाल केवल यह है कि आप के लिए ( पाठकों ) समाज और परिवार की परिभाषा क्या है ! 

1. प्रश्न अपने आप में बहुत सीमित है, वहां जाने वाले कौन हैं? इसे समझना होगा!

2. हर एक का अपना निजी समाज होता है और प्रतिष्ठा के मापदंड ही अलग अलग होते हैं! जरा इसी सन्दर्भ में हिजड़ों के बारे में विचार करें।

3. यह प्रश्न ही असंगत हैं यह विशेष वर्ग, अच्छे भले परिवारों में कौन सा सामंजस्य है? 

4. बहुत आवश्यक है।

5. मेरे विचार से दोनों अलग अलग क्षेत्र है! आपके उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर बेहद जटिल है! ब्लाक मस्तिष्क से अगर इस पर विचार करेंगे तो इस महत्वपूर्ण विषय के साथ अन्याय ही होगा !’

विजय कुमार सप्पत्ती मानते हैं कि ‘आई थिंक दैट दिस प्रोफेशन शुड बी गिवेन  लीगल स्टेटस ओनली...कम से कम इस कारण से औरतों का शोषण तो नहीं होगा!’

रचना दीक्षित के अनुसार ‘जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने से वेश्यावृत्ति का उन्मूलन होगा, ये तो हास्यास्पद ही होगा। हां, इसका समाज पर व्यापक असर होना स्वाभाविक है।’

मनप्रीत कौर ने रचना दीक्षित के विचारों पर सहमति प्रकट की और जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने की बात का विरोध किया।  

अरविन्द जांगिड ने बहुत ही रोचक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा कि ‘जिस्म फरोशी को ही यदि संवैधानिक दर्जा देना है तो फिर चोरी को भी दे दो, लूट खसोट, भ्रष्टाचार, आदि को भी संवैधानिक दर्जा दे दो. सीधी सी बात है की हमारे वर्तमान समाज के नैतिक पक्ष का तीव्र गति से पतन होता जा रहा है। ये बहुत ही चिंता का विषय है और ये हुआ इसलिए है क्यों की अच्छे लोग अपनी मर्यादा की दुहाई देकर चुप हो जाते हैं, बोलते ही नहीं, बुराई इसलिए जीतती है क्यों की उसका संगठन होता है, और एक नेक व्यक्ति को जब नीलाम किया जाता है तो बाकी नेक व्यक्ति भेड़ बकरियों की तरह बस देखते ही रहते हैं। नेक बात पर लड़ना बिलकुल सही है और हमें इस और प्रयत्न भी करना होगा, अन्यथा यदि समाज के नैतिक पक्ष का पतन यूं ही होता रहा तो हो सकता है की आने वाले समय में बच्चे शब्दकोष से पता लगाएंगे की ‘मामा’ कहते किसे हैं।’

मुकेश कुमार सिन्हा ने अरविन्द जांगिड के तर्क से सहमति प्रकट करते हुए अपनी राय दी कि ‘जो अपराध की श्रेणी में है, उसको वैसे ही ट्रीट करना बेहतर है।नहीं तो फिर भगवान मालिक है। फिर तो बलात्कारी भी अगर कहे, मैं विवाह करने के लिए तैयार हूं मुझे सजा मत दो । क्या ऐसे किसी घृणित कार्य को सहमति दी जा सकती है?’

डाॅ. अजीत  के अनुसार ‘समाजशास्त्रिायों, मनोवैज्ञानिकों के लिए भी यह अभी यह तय करना थोड़ा मुश्किल काम होगा कि इस आफ्टर मैथ्स क्या रहेंगे कारण भारतीय समाज की संरचना अधिक संश्लिष्ट है। मेरी राय से इसके उन्मूलन के लिए इसको कानून वैद्य करना तार्किक नही होगा इससे और बढ़ावा ही मिलेगी।’

यह तय है कि जब-जब वेश्यावृत्ति का मुद्दा उठेगा तब-तब समाज सोचने पर मजबूर होगा इसे वैध दर्ज़ा दिया जाना चाहिए या नहीं।


(उन सभी के प्रति आभार जिनके विचार यथावत् मैंने यहां प्रस्तुत किए। यह एक बहुत ही स्वरूथ एवं सार्थक बहस रही। इसमें शामिल सभी प्रबुद्ध व्यक्तियों ने खुल कर अपने विचारों को रखा और एक संवेदनशील विषय के प्रत्येक पक्ष को सामने लाने में मदद की। सभी के विचार यहां साभार प्रस्तुत किए गए हैं।)

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फेमिना इंडिया (हिन्दी)
Femina, September 2015

Femina, September 2015

Femina, September 2015

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 #औरत तीन तस्वीरें #सामयिक प्रकाशन #Femina #ब्लाॅगरसाथी #डाॅ शरद सिंह


Friday, February 19, 2021

नमामि देवी नर्मदे | विशेष लेख | नर्मदा जयंती | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, नर्मदा जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

   नर्मदा जयंती पर प्रस्तुत है मेरा यह विशेष लेख, जिसे जनसंपर्क विभाग, मध्यप्रदेश शासन, सागर द्वारा अपने फेसबुक पेजों पर भी अपलोड किया गया है। 



नर्मदा जयंती पर विशेष लेख

    नमामि देवी नर्मदे !

                  - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

आज 19 फरवरी 2021 को नर्मदा जयंती है। सागर जिले सहित समूचे बुंदेलखंड, समूचे मध्यप्रदेश में नर्मदा जयंती धूम-धाम से मनाई जाती है। यूं भी नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक मध्यप्रदेश में स्थित होने के कारण यह पर्व मध्यप्रदेशवासियों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। नर्मदातट पर बसे शहरों व स्थानों  जैसे होशंगाबाद (नर्मदापुर), महेश्वर, अमरकण्टक, ओंकारेश्वर आदि सहित नर्मदा तट से दूर बसे शहरों व स्थानों में भी नर्मदा जयंती विधि-विधान से मनाई जाती है। इस दिन प्रातःकाल मां नर्मदा का पूजन-अर्चन व अभिषेक प्रारंभ हो जाता है। सायंकाल नर्मदा तट पर दीपदान कर दीपमालिकाएं सजाई जाती हैं। ग्रामीण अंचलों में भंडारे व भजन-कीर्तन का आयोजन किया जाता है। नर्मदा के प्रति अटूट श्रद्धा के एक नहीं अनेक कारण हैं। पूरे विश्व में मां नर्मदा ही एकमात्र ऐसी नदी हैं जिनकी परिक्रमा की जाती है। मां नर्मदा सात पवित्रतम नदियों में से एक हैं-
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, 
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेस्मित सन्निधिकुरुः।। 

शास्त्रों के अनुसार मां नर्मदा के दर्शन मात्र से पुण्यफल प्राप्त होता है -

त्रिभिः सारस्वतं पुण्यं सप्ताहेन तु यामुनम।
सद्यः पुनाति गांग्गेय दर्शनादेव नर्मदा।।

अर्थात् सरस्वती का जल तीन दिन में, यमुना का जल एक सप्ताह में, गंगाजल स्नान करते ही पवित्र करता है किन्तु मां नर्मदा के जल का दर्शन मात्र ही पवित्र करने वाला होता है। कलियुग में मां नर्मदा के दर्शन मात्र से तीन जन्म के और नर्मदा स्नान से हजार जन्मों के पापों की निवृत्ति होती है।

नमामि देवी नर्मदे

नर्मदा मात्र एक नदी नहीं अपितु संस्कृति का उद्गम है, आस्था का प्रतीक है और इसके तट पर बसने वाले मनुष्यों की जीवन रेखा है। नर्मदा मैकल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से निकल कर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों को सिंचित करती हुई भरुच में पहुंच कर खम्बात की खाड़ी में सागर से जा मिलती है। नर्मदा के तट पर प्रागैतिहासिक मानवों ने आश्रय पाया था। नर्मदा के प्रति अपनत्व और श्रद्धा रखने वाले आज भी इसे अपनी मां-पिता के समान मानते हैं। नर्मदा-स्नान के लिए पहुंचने वाले श्रद्धालु जब इसके घाटों पर पहुंचते हें तो जो उनकी भावुक मनोदशा होती है उसका वर्णन इस बुंदेली ‘बम्बुलिया’ लोकगीत में बखूबी मिलता है-
नरबदा मैया ऐसे तो मिली रे
ऐसे तो मिलीं के जैसे मिले
मताई औ बाप, रे
नरबदा मैया हो....

नर्मदा की जलधाराएं आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देती हैं, ये तन-मन को तरोताज़ा कर देती हैं। कालिदास के मेघदूत ने भी अपनी थकान मिटाने के लिए नर्मदा के उद्गम क्षेत्र अमरकंटक को ही अपना पड़ाव बनाया था। नर्मदा भारत की वह इकलौती नदी है, जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। इसका जन्म किसी ग्लैशियर से नहीं हुआ है बल्कि यह वनाच्छादित पर्वत से निकली है। इसीलिए इसकी जलधाराएं गंगा आदि अन्य नदियों की जलधाराओं की अपेक्षा शांत हैं। यही कारण है कि मन को एकाग्रता देने के इच्छुक नर्मदा के तट को ध्यान-योग के अधिक उपयुक्त मानते हैं। इसकी जलधाराओं को देख कर मिलने वाली शांति मन को अलौकिक-सी अद्भुत अनुभूति प्रदान करती है।

नर्मदा से जुड़ी आस्था और श्रद्धा इसे विशेष नदी का स्थान दिलाती है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है- नर्मदा जयंती। नर्मदा के जन्म के संबंध में अनेक रोचक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार अंधकासुर का वध करने के बाद शिव मैकल पर्वत पर समाधिस्थ थे। तभी ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता उनसे मिलने आए। देवताओं ने शिव से पूछा कि-‘हे भगवन! हम देवता भोगों में रत रहने से, बहुत-से राक्षसों का वध करने के कारण हमने अनेक पाप किए हैं, उनका निवारण कैसे होगा आप ही कुछ उपाय बताइए, तब शिवजी की भृकुटि से एक तेजोमय पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और कुछ ही देर बाद एक कन्या के रूप में परिवर्तित हो गई। उस कन्या का नाम नर्मदा रखा गया। सभी देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया। वह दिन था माघ शुक्ल सप्तमी का। उस दिन नर्मदा ने नदी के रूप में धरती पर बहना आरंभ किया। इसीलिए इस तिथि को नर्मदा अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

नमामि देवी नर्मदे

एक अन्य कथा के अनुसार तपस्या में बैठे शिव के पसीने से नर्मदा प्रकट हुई। नर्मदा ने प्रकट होते ही अपने अलौकिक सौंदर्य से ऐसी चमत्कारी लीलाएं प्रस्तुत कीं, जिन्हें देख कर स्वयं शिव-पार्वती चकित रह गए। उन लीलाओं को देख कर उनके मन में सुख का संचार हुआ। इसलिए उन्होंने नामकरण किया ‘नर्म’ अर्थात् सुख और ‘दा’ अर्थात् देने वाली -‘नर्मदा’।

नर्मदा के अवतरण के संबंध में ‘स्कंद’ पुराण में भी एक रोचक कथा मिलती है। इस कथा में कहा गया है कि राजा हिरण्यतेजा ने चौदह हजार वर्ष तक भगवान शिव की कठिन तपस्या की। तपस्या से  शिव प्रसन्न हो गए। तब राजा ने शिव से प्रार्थना की कि वे एक ऐसी नदी पृथ्वी पर प्रवाहित करें जो भूमि को सिंचित करे, पापों का प्रक्षालन करे और सभी प्रकार के सुख प्रदान करे। तब शिव ने नर्मदा को धरती पर अवतरित किया। वे मगरमच्छ पर सवार हो कर उदयाचल पर्वत पर उतरीं और पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हुईं। उसी समय विष्णु ने नर्मदा को आशीर्वाद दिया कि -
नर्मदे त्वें माहभागा सर्व पापहरि भव। 
त्वदत्सु याः शिलाः सर्वा शिव कल्पा भवन्तु ताः।
   अर्थात् तुम सभी पापों का हरण करने वाली होगी तथा तुम्हारे जल के पत्थर शिव-तुल्य पूजे जाएंगे। तब नर्मदा ने शिवजी से वर मांगा कि जैसे उत्तर में गंगा स्वर्ग से आकर प्रसिद्ध हुई है, उसी प्रकार से मैं भी दक्षिण गंगा के नाम से प्रसिद्ध होऊं। शिवजी ने नर्मदाजी को अजर-अमर होने तथा प्रलयकाल तक इस धरती पर रह कर आदर, सम्मान पाने का वरदान दिया।
नर्मदा की कथाएं जनमानस के लिए उन अनमोल विचारों की तरह हैं जो उन्हें प्रकृति का सम्मान और संरक्षण करने के लिए प्रेरित करती हैं। इसीलिए तो जनमानस स्तुति कर उठता है-
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
नमामि देवी नर्मदे,   नमामि देवी नर्मदे

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Wednesday, February 17, 2021

चर्चा प्लस | हर वृद्ध को पता होना चाहिए उसके कानूनी अधिकार | डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस    
हर वृद्ध को पता होना चाहिए उसके कानूनी अधिकार
 - डाॅ शरद सिंह
    चाहे कितनी भी बड़ी घटना हो, हम उसे भुलाने में देर नहीं लगाते हैं। ख़बरें पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने पर पहुंच कर दो-तीन पहुंच कर ग़ायब हो जाती है। यही आज का कड़वा सच है। पर इस सच से आगे बढ़ कर हमें सोचना ही होगा जब प्रश्न हमारे बुजुर्गों का हो। पिछले चर्चा प्लस में ‘समाज के मुंह पर ज़ोरदार तमाचा है इंदौर की घटना‘ और ‘सड़कों पर कहां से आते हैं ये वृद्ध भिखारी?’ शीर्षकों से दो लेख, जिनका संदर्भ था इंदौर नगर निगम कर्मचारियों द्वारा भिखारी बुजुर्गों को शिप्रा के समीप छोड़ने के प्रयास की शर्मनाक घटना। वृद्धों के भी होते हैं कानूनी अधिकार जिनके बारे में अधिकांश वृद्ध जानते ही नहीं हैं। इस मुद्दे पर ‘चर्चा प्लस’ में प्रस्तुत है चर्चा की तीसरी और अंतिम कड़ी।            
चर्चा प्लस | हर वृद्ध को पता होना चाहिए उसके कानूनी अधिकार | डाॅ शरद सिंह | सागर दिनकर, 17.02.2021

अर्जेन्टीना के कवि राबर्टो जुआरोज़ की एक कविता है-
‘‘वह बूढ़ा जो नुक्कड़ पर बैठा
फटा कोट पहने
मांगता है भीख,
क्या इसलिए कि वह भिखारी है?
नहीं, 
वह मांगता है-
क्योंकि हम बनना चाहते थे दाता
कितना सरल गणित है
समाज का।’’ 

जब कोई भीख मांगता है तो निःसंदेह उसके लिए समाज ही सबसे पहले उत्तरदायी होता है क्योंकि यदि परिवार किसी बुजुर्ग का त्याग करता है तो समाज उसे ऐसा न करने के लिए उस पर दबाव बना सकता है। लेकिन एकल परिवार के बढ़ते चलन के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाता है। आज बुजुर्ग हाशिए पर धकेले जा रहे हैं। जेनरेशन गैप और जीवन शैली में बदलाव के कारण बुजुर्ग व्यक्ति उपेक्षा, अलगाव और असुरक्षा के शिकार हो चले हैं। एकल परिवार के चलन में बुजृर्गों के लिए कोई जगह नहीं है। वे अपने पैतृक घरों में अकेले रह जाते हैं जहां उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता है। न ही उन्हें दवाइयों की याद दिलाने वाला कोई होता है, न ही उनकी दवाई लाने वाला कोई होता है। अनेक मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें वृद्ध माता-पिता के साथ इस तरह दुर्व्यवहार किया जाता है कि या तो वे स्वयं घर छोड़ देते हैं या फिर उन्हें घर से निकाल दिया जाता है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिसमें बुजुर्गों से मार-पीट, प्रताड़ना और यहां तक कि उनकी हत्या भी की गई है। कुछ समय पहले की ही बात है। 50 साल के एक प्रौढ़ ने अपनी मां की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह उनका चिकित्सा खर्च वहन नहीं कर पा रहा था। 
      
वृद्धों के पक्ष में सरकार ने मैंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटीजन्स एक्ट 2007 अर्थात् माता-पिता वरिष्ठ नागरिकों की देखरेख एवं कल्याण अधिनियम 2007 लागू किया हुआ है। यह कानून इसलिए बनाया गया ताकि वृद्ध अर्थात वरिष्ठ नागरिक आत्मसम्मान एवं आराम से जीवनयापन कर सकें। इस कानून के दायरे में वे सभी नागरिक आते हैं जो साठ वर्ष की उम्र पूर्ण कर चुके हों। यह कानून परिजन को भी परिभाषित करता है जिसके अनुसार स्वयं की संतान एवं निकट संबंधी न होने की स्थिति में वरिष्ठ नागरिकों के उत्तराधिकारी भी 'परिजन' हैं।  मैंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटीजन्स एक्ट 2007 बच्चों और परिजनों पर कानूनी उत्तरदायित्व तय करता है, जिससे बच्चे अपने माता-पिता और बुजुर्गों को सम्मानजनक तरीके से सामान्य जीवन बसर करने दें। इस कानून में राज्य सरकारों के लिए भी निर्देश हैं। इसमें कहा गया है कि राज्य सरकार हर जिले में वृद्धाश्रम खोले और उनका रखरखाव सुनिश्चित करें। इस कानून के अंतर्गत जो माता-पिता अपनी आय से अपना पालन-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं, वे वृद्धजन अपने वयस्क बच्चों से 'मेंटेनेंस मनी' लेने का अधिकार रहते हैैं। इस मेंटेनेंस में उचित आहार, आश्रय, कपड़ा और चिकित्सा उपचार आता है, ताकि वे वृद्धजन सामान्य जीवन जी सकें। पालक या तो वास्तविक हो, या उन्होंने बच्चे को गोद ले रखा हो, या सौतेले माता या पिता हों। फिर भले ही वे वरिष्ठ नागरिक हों या नहीं, लेकिन उनकी देखरेख का जिम्मा बच्चों पर होता है। ऐसे बुजर्ग जिनके बच्चे नहीं हैं और जो साठ वर्ष या इससे अधिक के हैं, वे भी मेंटेनेंस का दावा कर सकते हैं। वे परिजनों से मेंटेनेंस की अपील कर सकते हैं। वे उन लोगों से कह सकते हैं, जिनको उत्तराधिकार के रूप में उनकी संपत्ति मिलने वाली हो। इसका आवेदन उक्त बुजुर्ग को खुद ही देना होता है। इसके लिए वे किसी व्यक्ति को भी अधिकृत कर सकते हैं। साथ ही वे किसी स्वैच्छिक संगठन से भी आवेदन देने को कह सकते हैं। इस कानून के तहत बनाए गए न्यायाधिकरण या ट्रिब्यूनल तभी बनते हैं, जब यह स्पष्ट हो कि बच्चों या परिजनों ने उक्त बुजुर्ग की अनदेखी की या फिर उनकी देखरेख करने से इंकार कर दिया। ये न्यायाधिकरण इन बच्चों या परिजनों को 10,000 रु. महीना गुजारे के लिए देने को कह सकता है। इस तरह की प्रक्रिया में वकीलों की भी कोई जरूरत नहीं होती है। लेकिन सबसे बड़ी खामी यही होती है कि अधिकांश वृद्धों को अपने इस अधिकार का पता ही नहीं होता है। विशेष रूप से ग्रामीण अंचल के अथवा कम पढ़े लिखे एवं अपर वृद्धों के साथ इस कानूनी अज्ञान की समस्या विकट रूप से है।

मैंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटीजन्स एक्ट 2007 में एक महत्वपूर्ण  क्लॉज़ यह भी है कि यदि कोई वरिष्ठ नागरिक, जो उपहार या किसी अन्य तरीके से अपनी संपत्ति का हस्तांतरण किसी को करता है। जिसके नाम संपत्ति की गई है, यदि वह उक्त बुजुर्ग व्यक्ति की देखरेख नहीं कर पाता है या करने से इंकार करता है तो यह माना जाता है कि संपत्ति हस्तांतरण धोखाधड़ी से किया गया है अथवा या किसी के प्रभाव में संपत्ति हस्तांतरण करा लिया गया है। 

हिंदू दत्तक एवं देखभाल कानून 1956 में भी स्पष्ट उल्लेख है कि जो माता-पिता या पालक खुद का खर्च उठाने में सक्षम नहीं हैं, साथ ही उनको किसी स्रोत से आय नहीं है, उनको इस कानून में मेंटेनेंस पाने का अधिकार है तथा बच्चों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे माता-पिता की देखरेख करें।  मुस्लिमलॉ के अनुसार पुत्र एवं पुत्री का यह दायित्व बनता है कि वे अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखरेख करें। इस कानून के अंतर्गत विवाहित बेटियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे माता-पिता की देखरेख करें। यदि किसी मजिस्ट्रेट ने किसी वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता की जिम्मेदारी वहन करने का आदेश दिया है और कोई संतान या दत्तक या परिजन उसका पालन नहीं करता है तो उसके ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत प्रकरण चलाया जा सकता है तथा प्रथम श्रेणी के न्यायाधीश उसे माता-पिता को एक निश्चित मासिक भत्ता तय देने को कह सकते हैं। 

वृद्धों के हित में सरकार सदैव सजग रहती है। सन् 1999 में केंद्र सरकार ने वृद्धजन के लिए राष्ट्रीय नीति घोषित की थी। इसमें उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और उनके सुचारू जीवन का ध्यान रखा गया। इस नीति में परिजनों को बुजुर्गों की देखरेख के लिए प्रोत्साहित किया गया। सरकार की ओर से वरिष्ठ नागरिकों को कई सुविधाएं दी जाती हैं। जैसे रेल टिकट में छूट, ट्रेन में नीचे की बर्थ, आयकर में छूट, बैंक एफडी पर ज्यादा ब्याज आदि। 

देश में बुजुर्गों हित के लिए इतने नियम-कानून होने के बावजूद बुजुर्ग यदि सड़कों पर भिखारियों का जीवन बिताने को विवश हैं तो इसके मूल दो कारण हैं- पहला कि उन्हें इन कानूनों एवं प्रावधानों ज्ञान नहीं है और दूसरा कारण कि वे संतान-मोह के कारण अपने बच्चों के दुर्व्यवहार के विरुद्ध भी आवाज़ नहीं उठाना चाहते हैं। बुजुर्गों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी है कि वे सारे कानून और प्रावधान जो उनके हितों की रक्षा करते हैं, हर स्तर पर प्रचारित किए जाएं तथा स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी जोड़े जाएं। इससे बच्चों को भी इनका ज्ञान रहेगा और वे अन्याय करने से डरेंगे। वही दूसरी ओर यही बच्चे जब उम्र बढ़ने पर वृद्धावस्था या सीनियर सिटिजन के दौर में पहुंचेंगे तो उन्हें अपने अधिकारों का भली-भांति पता होगा। बहरहाल वर्तमान में जो वृद्धजन सड़कों पर भीख मांगने को विवश हैं उन्हें वृ़द्धाश्रमों में पहुंचा कर एक सम्मानजनक जीवन देना सरकार के साथ ही समाज के हर नागरिक का कर्त्तव्य बनता है। यह तय है कि अपने बुजुर्गों के प्रति संवेदनाओं को जगाए रखने से न तो वृद्धजन सड़कों पर भीख मांगने को मजबूर होंगे और ‘‘इंदौर-कांड’’ जैसी शर्मनाक घटना की पुनरावृत्ति भी कभी नहीं होगी। 

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(दैनिक सागर दिनकर 17.02.2021 को प्रकाशित)
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