Thursday, December 29, 2022

बतकाव बिन्ना की | ई साल का करी आप ओरन ने? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"ई साल का करी आप ओरन ने?"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
ई साल का करी आप ओरन ने?                                                                               - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह  
          भुनसारे जब मोरी नींद खुली सो पैलऊं जेई खयाल आओ जी में के ई साल मैंने का खास करी? वोई बेरा मोरी नजर घड़ी पे पड़ गई, मनो कुल्ल छै बजे हते। अब मैंने सोची के जे लेखा-जोखा सुभै छै बजे से करबे से अच्छो है के तनक औ सो लओ जाए। ई साल को जो टेम निकर गओ, अब बो कहूं भगो जा नईं रओ। सात बजे उठ के सोई सोची जा सकत आए। सो मैंने पल्ली मूंड़ लों खेंची औ गुड़प हो गई। काए से के मोरे इते सुभै के नल सात बजे के बाद आउत आएं सो पानी भरबे की कोनऊं जल्दी ने हती। सोओ जा सकत्तो। बाकी मोरे संगे जेई रोज को होत आए। पांच बजे नींद खुलत आए, तनक सो खयाल आत आए के उठो जाए। तनक कसरत-मसरत कर लई जाए। मनो फेर लगत आए के जे ठंड में कसरत करे से कहूं कछु हो गओ, सो का करबी? जब गर्मी परहे सो दूनी कसरत कर लेबी। सो अलारम बंद के, घड़ी की तरफी से मों फेर के निन्दू अम्मा की गोदी में दुबक जात हों। फेर सात बजे नींद खुलत आए। मनो खुद से नईं, नासमिटे अलारम की टें-टें, पीं-पीं से। मगर बो का है के सबरे दार्शनिक खयाल भुनसारेई आउत आएं। का करने? कोन के लाने करने? का हुइए ईंसे? औ जागबे से ई बैराग्य होन लगत आए। मोरे संगे सो जेई होत आए, बाकी आप ओरन की आप जानों!
रामधई भारी जी से सुभै साढ़े सात पे बिस्तर छोड़ने परत आए। जे नल वारे टेम औ काए नईं बढ़ा देत? दस-एक बजे खोलते, सो अच्छो रैतो। खैर, अकेली मोरी को सुनहे? कछु जनें, जनीं सो ऐसी आएं के भुनसारे से ट्रेकसूट पैहन के दौड़बे निकर परत आएं। को जाने का मजो आत आए? अरे, ठंड पर रई सोबे के लाने। सूरज भैया सोई देर से जागत आएं और जे दौड़बे वारे मों अंधेरे निकर परत आएं। मैंने खुद सो नईं देखी, बाकी सो के उठबे के बाद सुनी आए उनके बारे में। कई जनी भौतई अच्छी आएं, जो दुफैरी में धूप तापत-तापत सबरी खबर सुना देत आएं। मोरी मानें सो जे अपने रिर्पोटर हरों खों खबर के लाने कहूं भटकबे की जरूरत नाइयां, बे सो बस इत्तो करें के लुगाइयन की दुफैर की मंडली में शामिल हो जाएं, सो पूरे मोहल्ला भरे की खबरें हाथ लग जेहें।
खैर, मैंने जगबे के बाद सोची के मैंने ई साल का-का करो? आधा-पौन घंटा मूंड़ खुजात सोचत रई, पर कछु याद नईं परी। औ मोई मति मारी गई रई के मैं जे सोचबे को काम घर के आंगूं धूप में ठाड़ी-ठाड़ी कर रई हती। मोरो ध्यान नईं गओ रओ, मनो उते से टुकटुक की मम्मी एक बेरा निकरीं। बे मंदिर जा रई हुइएं। दूसरी बेरा उन्ने मोए लौटत में देखी, सो उनसे कऐ बिना नई रओ गओ औ बे बोल परीं-‘‘काए जिज्जी, मूंड में जुंआ पर गए का?’’
‘‘नईं तो?’’ मैं चैंकी।
‘‘नईं, हमने जात बेरा देखी सो आप अपनो मूंड़ खुजा रई हतीं, औ लौटत बेरा में सोई खुजात मिलीं। जेई से हमें लगो। बाकी आप प्याज खो मींड के ओको रस निकार के मूंड़ पे लगइयो, सो सबरे जुंआ मर जेहें।’’ टुकटुक की मम्मी मोरी कछु सुने बिगर बोलत चली गईं।
मोए भौतई गुस्सा आओ। उनपे नईं, खुद पे, के काए के लाने बाहरे ठाड़ी हो के मूंड़ खुजात भई सोच रई हती। अरे, जे सोचबे को काम अंदर बी कर सकत्ती। अब बे आज दुफैरी की सभा में सबखों जेई बताहें के शरद जिज्जी के मूंड़ में जुआं पर गए। बाकी अब का हो सकत्तो? तीर सो कमान से निकर गओ रओ। जे सोच के मोरे मूंड़ में सच्ची की खुजरी होन लगी। फेर मोए खयाल आओ के ई साल में अपनो करो धरो सो कछु याद नई आ रओ, सो काय न भैयाजी औ भौजी से पूछी जाए।
मैं भैयाजी के घरे पौंची। बे ठैरे औ लेट-लतीफ। बे कुल्ला-मुखारी कर के टाॅवेल से मों पोंछत मिले।
‘‘भैयाजी गुडमाॅर्निंग!’’ मैंने कहीं।
‘‘गुड मार्निंग बिन्ना!’’ भैयाजी खुस होत भए बोले।
‘‘भैयाजी! जे अंग्रेज कित्ते समझदार आएं के चाए दुफैरी हो चली होय, मनो भुनसारे के बाद पैली बार मिल रए होंय सो गुडमार्निंग कही जात है। मनो रात खों नौ बजे बी गुड ईवनिंग रैत आए। ईसे जे फीलिंग आउत आए के अबे कछु देर नईं भई।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ बिन्ना! तभई सो कहो जात आए के उनके राज में कभऊं सूरज नईं डूबत्तो! अब डूबतई कां से, बा सो गुडमार्निंग औ गुड ईवनिंग मेंई उलझो रैत्तो। मनो जे छोड़ो, अपनी कओ, के का हाल-चाल आए?’’ भैयाजी ने पूंछी।
‘‘हाल औ चाल दोई ठीक आएं। बाकी आप सो जे बताओ के आपने ई साल का खास करो?’’
‘‘खास? कछु नईं!’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसो नईं हो सकत। कछु सो खास करो हुइए। मनो कोनऊं से झगड़ा करो होय, कोनऊं की मदद करी होय, औ नईं सो बे संकल्प पूरे करे होंय जो साल के पैलऊं दिनां लए रैएं।’’ मैंने भैयाजी से पूंछी।
‘‘हूं! ऐसो तो कछु याद नई परत। बाकी रई संकल्प की बात, सो बे कभऊं कोनऊं के पूरे नईं होत। हऔ, हमने सोची रई के ई साल कोनऊं सो टंटा ने करबी औ साल भर टंटाई करबे परो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काय को टंटा?’’
‘‘अरे, मकान को नामांतरण कराने रओ। जूता के तल्ला घिस गए हमाय तो। एक दिनां हमें गुस्सा चढ़ी सो हमने दफ्तर में जा के दारी-मतारी करी सो, दूसरे दिनां काम हो गओ। बाकी हमाओ टंटा ने करबो वारो संकल्प धरो रै गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ कछू?’’
‘‘औ का?’’ भैयाजी सोचन लगे। फेर उचकत भए बोले,‘‘अरे हऔ, बा रामचरण खों यूरिया दिलवाबै गए रए।’’
‘‘आप दिलवा रै हते? अरे, बे सो रामचरण भैया जाई रै हते, सो आप संगे चले गए रए।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ, सो का? हम ऊके संगे गए, या बो हमाए संगे, बात सो एकई कहाई।’’ भैयाजी खों मोरी बात तनक बुरई लगी।
‘‘हऔ, चलो मान लई। बाकी आपको उते दिसा मैदान के लाने लोटा-परेड सोई करनी परी हती।’’ खीं-खीं करत भईं मैंने बोलई दई।
‘‘तुम कछु भूलत आओ के नोईं?’’भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘सो, औ बताओ भैयाजी के आपने ई 2022 के साल में का खास करो?’’ मैंने फेर पूछी।
‘‘जे का बताहें? हम बताउत आएं तुमें बिन्ना!’’ हम ओरन की बातें सुनत-सुनत भौजी से रओ नई गओ, औ बे बोल परीं। बे बतान लगीं,‘‘तुमाए भैयाजी ने कभऊं कछु खास करो आए जो ई साल में कर लेते? हमाए संगे ब्याओ करबे के अलाबा अपनी कुल्ल जिनगी में कछु खास नईं करो इन्ने।’’
‘‘जे औ सुन लो इनकीं!’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, सो का हम झूठ कै रए? हमने परोंई कही रई के पूरौ साल कढ़ गऔ औ तुमने कछू खास नईं करो। अब जो बचो-खुचो समै आए ऊमें तुम सोई तनक पदयात्रा कर लेओ। कछु सेहत बन जेहे, कछू नांव हो जेहे औ जो कहूं अगली साल कछू कोनऊं फेर बदल हुइए सो तुमाओ भाग खुल जेहे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘बड़ीे दूर की कही भौजी आपने!’’ मोरे मों से कै आओ।
‘‘जे सो हमें जेई टाईप से ठेन करत रैंत आएं, बिन्ना! बाकी अबकी साल जरूर कछू खास करबी, ऐसो सोच रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन टेम पे सोची? भुनसारे? के दुफैर की गुडमाॅर्निंग पे?’’ मैंने हंसत भई पूंछी।
भैयाजी सो ने बोल पाए, मनो भौजी ठठा के हंस परीं।  
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मोय का करने के कोन ने ई साल में कछु खास करो के नईं। मोय पतो आए के मैंने कछु खास नईं करो! हो सकत के अगली साल कछु खास हो जाए। तो अब अगली साल, मनो अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। औ सोचो के आप ओरन खों का कछु खास करने अगली साल में। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की नईं साल की पैलऊं से राम-राम! नई साल में आप सबई लाने सब कछू अच्छो-अच्छो होय, जेई मोरी दुआ आए !!!
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(29.12.2022)
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Wednesday, December 28, 2022

चर्चा प्लस | काश! हम सबक ले लें 2022 की घटनाओं से | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
काश! हम सबक ले लें 2022 की घटनाओं से
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       हर साल यादों की झोली में कई खट्टे-मीठे अनुभव डाल जाता है। कोई अच्छी बात होती है तो कोई बुरी बात। कोई प्रफुल्लित कर देने वाली तो कोई आतंकित कर देने वाली। कई प्रश्न हल हो जाते हैं तो कई अनुत्तरित रह जाते हैं। वर्ष 2022 भी अनेक यादें छोड़ कर जा रहा है जिनमें वे सबक भी हैं जिनसे हमें सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए। इस पूरे साल में पूरी दुनिया में राजनीति, समाज, साहित्य, फिल्म, खेल, अर्थजगत आदि सभी जगह कुछ न कुछ विशेष घटित हुआ। कुछ प्रमुख घटनाएं जो हमारे लिए सबक की तरह हैं उन्हें हमें याद रखना ही होगा ताकि वर्ष 2023 सुखद रहे।  
 
वर्ष 2022 में 24 फरवरी को एक वैश्विक अशांति का श्रीगणेश हुआ जब रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत हुई। यह युद्ध आज भी छिड़ा हुआ है। रूस और यूक्रेन दोनों ही देशों के लिए यह युद्ध अत्यंत कष्टदायी रहा किन्तु आज भी (26 दिसंबर 2022 तक) दोनों आमने-सामने डटे हुए हैं। इस युद्ध के कारण  यूक्रेन के लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा। रूस द्वारा युद्ध आरंभ करने के बाद से ही अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने उस पर कठोर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए जिनमें से अधिकांश आर्थिक प्रतिबंध हैं। किन्तु अभी तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। आशा यही की जानी चाहिए कि वर्ष 2023 में दोनों देश शांति से रहने के लिए सहमत हो जाएंगे। क्योंकि युद्ध आमजनता की नहीं बल्कि राजनेताओं की महत्वाकांक्षा का दुष्परिणाम होते हैं, जिनमें मारी जाती है निर्दोष आमजनता।
वर्ष 2022 की 8 सितंबर को ब्रिटेन के इतिहास में एक नया अध्याय आरंभ हुआ और ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का 96 वर्ष की आयु में निधन के साथ एक युग का अंत हो गया। महारानी ऐलिजाबेथ द्वितीय के निधन के बाद उनके बेटे प्रिंस चार्ल्स ब्रिटेन के नए राजा बने। 14 नवंबर 1948, को जन्में प्रिंस चार्ल्स के दो बेटे प्रिंस विलियम और प्रिंस हैरी हैं। इनमें से प्रिंस विलियम क्राउन प्रिंस हैं।

ब्रिटेन में ही एक और ऐतिहासिक काम हुआ कि वहां भारतीयमूल के ब्रिटिश नागरिक ऋषि सुनक को प्रधानमंत्री चुना गया। यह कदम सारी दुनिया के लिए एक सबक के समान है कि नागरिकता के आधार पर देश का महत्वपूर्ण पद किसी भी मूल के व्यक्ति को सौंपा जा सकता है।

इस साल 14 अप्रैल को टेस्ला के सीईओ एलन मस्क ने ट्विटर खरीद लिया। उन्होंने ट्विटर के लिए टेक इट या लीव इट ऑफर में 44 अरब डॉलर (रु. 36,025 करोड़) की पेशकश की। एलन मस्क ने इस साल 13 अप्रैल को ट्विटर खरीदने का ऐलान किया था।
29 मई को पंजाबी सिंगर और कांग्रेस नेता सिद्धू मूसेवाला की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिससे पूरा देश सदमे में आ गया था। मानसा जिले में अज्ञात बंदूकधारियों ने 27 वर्षीय गायक की कार पर घात लगाकर हमला कर दिया, जिससे उनकी मौत हो गई।

वर्ष 2022 की 15 अगस्त को बिलकिस बानो मामले में 11 दोषियों को केंद्र से मंजूरी के बाद रिहा कर दिया गया। भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली गुजरात सरकार ने अक्टूबर में एक हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को बताया था। उस हलफनामे के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने छूट को मंजूरी दी क्योंकि दोषी 14 साल से जेल में थे और उनका व्यवहार अच्छा पाया गया था। जबकि दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन भारत सरकार ने उन्हें 14 साल जेल में बिताने के बाद रिहा करने की अनुमति दे दी। गुजरात दंगों के दौरान 11 लोगों ने 3 मार्च 2002 को अहमदाबाद के पास एक गांव में बानो के साथ गैंगरेप किया था। वह उस समय 19 वर्ष की थीं और गर्भवती भी थीं। हिंसा में उसके परिवार के चैदह सदस्य भी मारे गए थे, जिसमें उनकी तीन साल की बेटी भी शामिल थी। जिसका सिर अपराधियों ने जमीन पर पटक दिया था।

दुनिया भर की महिलाएं समय-समय पर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती रहती हैं। वर्ष 2022 ईरान की ‘‘हिज़ाब क्रांति’’ के लिए याद रखा जाएगा। 16 सितंबर को ईरान की 22 वर्षीय महसा अमीनी की मौत के बाद हिजाब का विरोध शुरू हुआ था। अमीनी ने अपना सिर नहीं ढंका था इसलिए पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया था। पुलिस पर आरोप है कि उसने हिरासत के दौरान अमीनी को प्रताड़ित किया था जिससे उसकी मौत हो गई। इस घटना के बाद पूरे ईरान में हिजाब के खिलाफ विरोध की आग लग गई थी। ईरान में इस साल हुए हिजाब विवाद के चलते सैकड़ों लोगों की जान चली गई। हिज़ाब को जबरन लागू रखने के लिए इरान की सरकार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और हिज़ाब के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन को खत्म करने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा बल प्रयोग भी किया गया। फिर भी ईरानी महिलाओं ने अपना आंदोलन वापस नहीं लिया। दुनिया भर की महिलाओं ने उनके इस आंदोलन का समर्थन किया।

इसी वर्ष देश की राजधानी एक बार फिर एक जघन्य हत्याकांड से थर्रा उठी। दिल्ली में पुलिस ने 14 नवंबर को एक व्यक्ति को अपने लिव-इन पार्टनर की हत्या करने, उसके शरीर को 35 टुकड़ों में काटने और शहर के भीतर और आसपास के विभिन्न स्थानों पर शरीर के अंगों को ठिकाने लगाने के आरोप में गिरफ्तार किया। दिल्ली पुलिस के अनुसार आरोपी यह कहानी आफताब और श्रद्धा के प्रेम और विवाद की थी। मृतक श्रद्धा वाकर (28) मुंबई में एक कॉल सेंटर में काम करने के दौरान आफताब (28) से परिचय हुआ था। कुछ समय बाद दोनों में प्यार हो गया। वे मुंबई से दिल्ली चले आए और दिल्ली के छतरपुर इलाके में किराए के अपार्टमेंट में रहने लगे। उनके परिवारों ने उनके रिश्ते को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। प्रेम इतनी घनी नफरत में बदला कि इस घटना ने नृशंसता की सारी सीमाएं तोड़ दीं। प्रेम संबंधों पर इतना बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया कि वह हमेशा एक कलंकित धब्बे की तरह देखा जाएगा।

वर्ष 2022 में कई हस्तियों ने इस संसार से विदा ले ली। 17 जनवरी को बिरजू महाराज, 6 फरवरी में को लता मंगेशकर, 15 फरवरी को बप्पी लहरी, 12 फरवरी को राहुल बजाज, 21 सितंबर को कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव का निधन हुआ।

इसी वर्ष गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘‘रेतसमाधि’’ के अंग्रेजी संस्करण को बुकर पुरस्कार मिला। इसी के साथ साहित्य में अंग्रेजी अनुवाद के बाज़ार गर्म होने की चिंता व्यक्त की गई। वहीं फिल्मी दुनिया विवादों से जूझती रही। वर्ष के अंतिम माह में फिल्म ‘पठान’ को ले कर हंगामा होता रहा और विवाद की राजनीति गर्माती रही।

खेल की दुनिया में भी उतार-चढ़ाव आए। इसी वर्ष 23 नवंबर को दुनिया के मशहूर क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने पियर्स मॉर्गन के साथ अपने विस्फोटक साक्षात्कार के बाद आपसी सहमति से मैनचेस्टर यूनाइटेड छोड़ दिया। वहीं टेनिस की दुनिया के सितारे सर्बियाई खिलाड़ी नोवाक जोकोविच ने 10वें ऑस्ट्रेलियन ओपन के लिए जनवरी में मेलबर्न के लिए उड़ान भरी थी। लेकिन जोकोविच का वीजा वैक्सिन विवाद के कारण रद्द कर दिया गया। दरअसल जोकोविच ने कोरोना की वैक्सीन लगवाने से मना कर दिया था, जिसके कारण उन्हें यूएस ओपन से भी बाहर करते हुए, संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। यद्यपि जुलाई में ब्रिटेन पहुंचे और सातवें विंबलडन खिताब को जीतने में सफल रहे।

कतर में हुए फीफा वल्र्डकप में भी भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिला। दक्षिण कोरिया एक ऐसे ऐशियाई देश के रूप में उभरा जिसने अपनी भावी दावेदारी के संकेत दे दिए। इसी के साथ क्रोएशिया और मोरक्को ने तो दिग्गज टीमों के पसीने छुड़ा दिए। अंततः लियोनेल मेसी के नेतृत्व में अर्जेंटीना ने फ्रांस  के मुकाबले 4-2 से खिताब अपने नाम किया। वहीं यह प्रश्न गर्माता रहा कि 14 अरब से अधिक जनसंख्या वाला भारत क्वालीफाइंग मैच ही नहीं जीत पाया।
 
जो लोग ग्लोबल वार्मिंग को कपोलकल्पित कह कर इसकी गंभीरता को अनदेखा कर देते थे वे भी वर्ष 2022 में स्तब्ध रह गए। वर्ष 2022 में ग्लोबल वार्मिंग ने यूरोप और अमेरिका में जानलेवा दस्तक दी। जुलाई की शुरुआत में यूरोप के कुछ हिस्सों में पारा खतरनाक रूप से बढ़ गया था। पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, ग्रीस और क्रोएशिया में जंगल की आग के कारण भीषण गर्मी की चपेट में थे। इस बीच, ब्रिटेन में झुलसा देने वाला तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। भीषण गर्मी की वजह से लोगों का दैनिक जीवन प्रभावित हुआ। भीषण गर्मी की वजह से यूरोप में ट्रेन सिग्नल पिघल गए। ट्रेन सिग्नल पिघल के कई फोटो सोशल मीडिया पर वायरल भी हुए। यूरोपियन कमीशन सैटेलाइट मॉनिटर ने कहा था कि 2022 की गर्मी यूरोप के रिकॉर्ड किए गए अब तक के इतिहास में सबसे गर्म थी। इस बार सदियों में सबसे अधिक सूखे के साथ रिकॉर्ड तोड़ हीटवेव का सामना करना पड़ा था। मई से सितंबर तक पूरे यूरोप में आग लगने की बड़ी घटनाएं दर्ज की गईं। पारे में आसामान्य उछाल देखने को मिला था। जिसके कारण कई जगहों पर सड़कें पिघलने की घटनाएं हुईं। एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेटर मैनचेस्टर के स्टॉकपोर्ट की सड़क पिघल कर चिपचिपी हो गई। क्योंकि सड़क पर बिछी डामर की पर्त पिघल गई। पटरियों में आग लगने के बाद कई ट्रेनों को भी स्थगित कर दिया गया। नेटवर्क रेल्स द्वारा शेयर की गई एक तस्वीर में दिखाया गया है कैसे आग लगने के बाद पटरी काली पड़ गई थी। इसमें यह भी दिखाया गया कि कैसे भीषण गर्मी के कारण ट्रेन का सिग्नल पिघल गया था। जुलाई 2022 में अमेरिका के कैलिफोर्निया के जंगलों में भीषण आग लगी। योशमिते नेशनल पार्क के पास लगी आग में 12 हजार एकड़ जंगल जलकर खाक हो गया। करीब 3 हजार लोग बेघर हो गए। आग ने भारत को भी प्रभावित किया। उत्तराखंड और हिमाचल में जंगलों में लगी आग बेकाबू हो कर जंगलों से होते हुए रिहायशी इलाकों तक जा पहुंची। उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद के 6 रेंज के जंगल लगातार धधकते रहे। हिमाचल प्रदेश के सोलन में भी कुछ ऐसा ही हाल देखने को मिला। हरे-भरे जंगल जलकर राख हो गए। इससे करोड़ों रुपए की वन संपदा और वन्य जीवों  को भारी नुकसान पहुंचा। राजस्थान के अलवर जिले के सरिस्का बाघ अभ्यारण के पृथ्वीपुरा-बालेटा गांव के जंगल के पहाड़ों में 28 मार्च को आग लग गई थी। कुछ ही वक्त में आग देखते ही देखते कई किलोमीटर क्षेत्र में फैल गई थी। हां, एक सुखद बात यह रही कि इसी वर्ष कूनो नेशनलपार्क में चीता लाया गया।

वर्ष 2022 की ये घटनाएं हमें बहुत कुछ सिखा गई हैं कि कैसे हमारे सामाजिक व्यवहार में चिंताजनक परिवर्तन हो रहा है, कैसे वैश्विक राजनीति कहीं युद्ध तो कहीं शांति का खेल खेल रही है, किस तरह जलवायु में परिवर्तन हो रहा है और किस तरह हम हम एक साथ (यूनाईटेड) हो कर खुद को साबित कर सकते हैं और सुख-शांति स्थापित कर सकते हैं। ये तो हैं कुछ चुंनिंदा घटनाएं। सभी इसमें शामिल नहीं हैं लेकिन सभी से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। क्योंकि अतीत और अनुभव से बड़ा और कोई शिक्षा या सबक नहीं होता है।
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Tuesday, December 27, 2022

पुस्तक समीक्षा | कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 27.12.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक आर. के. तिवारी के व्यंग्य संग्रह "कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ" की समीक्षा... 
पुस्तक समीक्षा
अनुभूत घटनाओं से उपजे मौलिक व्यंग्य  
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह  - कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ
लेखक   - आर. के. तिवारी
प्रकाशक - स्वयं लेखक (द्वारिका विहार काॅलोनी के पीछे, कैला माता मंदिर के पास, तिली वार्ड, सागर म.प्र.-140002)
  मूल्य      - 175/-
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यूं तो साहित्य की कोई भी विधा आसान नहीं होती है, उस पर व्यंग विधा तो और भी आसान नहीं है। व्यंग लेखन एक दुरूह कार्य है। व्यंग्य में हास-परिहास के साथ आलोचना का पुट भी रहता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की सटीक परिभाषा दी है- ‘‘व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहां बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे।’’ यानी व्यंग्य तीखा व तेज-तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। वहीं हरिशंकर परसाई ने व्यक्ति व समाज में उपस्थित विसंगति को लोगों के सामने लाने में व्यंग्य को सहायक माना है। उनके अनुसार, ‘‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है।’’
हिन्दी में व्यंग्य लेख का बहुत लम्बा इतिहास नहीं है किन्तु जब से हिन्दी में व्यंग्य लेखन का आरम्भ हुआ तब से उसने उत्तरोत्तर लोकप्रियता पाई है। वस्तुतः व्यंग्य की धारा पद्य से गद्य की ओर बही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यंग्य विधा ने पद्य का साथ छोड़ दिया हो। आज भी गद्य और पद्य दोनों में समान रूप से असरदार व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। व्यंग्य विधा आज साहित्य की केन्द्रीय विधाओं के समीप आ गई है। व्यंग्य विधा के बारे में ज्ञान चतुर्वेदी का यह कथन बहुत गहन अर्थ रखता है-‘‘वैसे इन दिनों बहुत सारा व्यंग्य ऐसा लिखा भी जा रहा है कि पूछने की तमन्ना तो हमारी भी होती है कि ऐसा व्यंग्य किसलिए? पर मैं उम्मीद करता हूं कि सम्पादक इतना कड़वा सवाल करने से कतराएगा. सहृदय सम्पादक का काम ऐसे प्रश्नों से आखें मींचे रहना है जिनसे सामना करने से स्वयं व्यंग्यकार छुपते फिर रहे हैं. तो क्या सम्पादक आश्चर्य कर रहा है कि यह आजकल क्या चल रहा है कि व्यंग्य इतना लिखा जा रहा है यह विधा साहित्य के केंद्र में न भी आ गयी हो पर यह ‘सेंटरस्टेज’ के आसपास तो मंडराने ही लगी है. वह दौर कब का जा चुका है जब इस बात का स्यापा पीटा जाता था कि हाय, व्यंग्य स्पिरिट मात्र है और लोग इसे फालतू ही विधा मनवाने पर आमादा हैं. व्यंग्य को तो परसाई जैसे लोग ही विधा का दर्जा दिलाकर चले गये जो कदाचित, संकोच में ही इसे मात्र स्पिरिट कहते रहे।’’
वैसे जिन्होंने हिन्दी साहित्य में व्यंग्य के गद्य लेखन को पहचान दिलाई उनमें कुछ प्रमुख नाम हैं- हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, प्रेम जन्मेजय, के.पी. सक्सेना, रवीन्द्र नाथ त्यागी, डॉ सुरेश आचार्य ज्ञान चतुर्वेदी, गिरीश पंकज, विवेकरंजन, पंकज प्रसून, जयजीत ज्योति अकलेचा आदि। इस श्रृंखला में अनेक नवोदित व्यंग्यकारों की कड़ियां जुड़ती जा रही हैं। इसी क्रम में व्यंग्यविधा का एक नवोदित नाम है आर.के. तिवारी।
‘‘कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ’’ लेखक आर के तिवारी की छठीं पुस्तक ए्वं पहला व्यंग्य संग्रह है। लेखक आर के तिवारी एक्सीडेंटल व्यंग्यकार नहीं हैं, उनकी कहानियों और उपन्यास में भी उनकी व्यंजनाशक्ति स्पष्ट दिखाई देती है। दिलचस्प बात यह है कि उनके व्यंग्यों में कथा साहित्य का आनन्द लिया जा सकता है। अर्थात् आर.के. तिवारी के व्यंग्य कथात्मक शैली के हैं। यही कारण है कि उनके कुछ व्यंग्य लेख के बजाए व्यंग्य कथा का भान देने लगते हैं। फिर भी इन व्यंग्यों की सब से बड़ी विशेषता यह है कि ये सुनी-सुनाई घटनाओं के आधार पर नहीं बल्कि अनुभूत घटनाओं के आधार पर लिखे गए हैं। जब व्यंग्य यथार्थपरक होते हैं तो उनका असर भी गहरा और व्यापक होता है। ऐसे व्यंग्यों में दृश्यात्मकता भी अधिक होती है। उदाहरण के लिए इस संग्रह के नाम के शीर्षक वाला व्यंग्य ही ले लिया जाए- ‘‘कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ’’। इस व्यंग्य में लेखक ने एक ऐसे वैवाहिक वर्षगांठ समारोह का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है जो पचासवीं वर्षगांठ के रूप में मनाया जा रहा है। वे गोया आंखों देखा हाल बताते हुए लिखते हैं कि ‘‘मेरा पूरा ध्यान मंच पर चल रहे कार्यक्रम पर था। मैंने देखा दादू आज बहुत खुश लग रहे थे शायद पुरानी यादों में खो रहे थे, या मन में लड्डू फूट रहे थे फिर मैंने गौर से अम्मा दुलैया को देखा। अम्मा दुलैया ही कहेंगे। लगा, आज इनके लड़कों ने इन्हें भी ब्यूटी पार्लर की सैर करा दी। इसीलिए ही चेहरा बहुत चमक रहा था पर मेरी नजर गले पर पड़ गई, जहां की काली स्याही-सी गर्दन साफ दिखाई दे रही थी। हां, लाल बढ़िया साड़ी में जरूर खूब जंच रही थीं। यह बात अलग थी कि वह एक चलती फिरती पुतरिया सी भले ही लग रही थीं, पर बहुत खुश दिख रही थीं।’’
इसी व्यंग्य में वे खुद पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूके हैं। लेखक के साथ समारोह में पहुंचे उनके गुरुवर मित्र कटाक्ष करते हैं कि -‘‘तुम क्या समझे, तुम साठ के हो कर लाल बाल कर के लड़का बन जाहो?’’
स्वयं पर कटाक्ष के बहाने व्यंग्यबाण चलाने की कला इस संग्रह के अन्य व्यंग्यों में भी देखी जा सकती है।
संग्रह में कुल इकतालीस व्यंग्य हैं। इनमें कई व्यंग्य साहित्यिक आयोजनों जैसे पुस्तक लोकार्पण, कविगोष्ठी आदि को आईना दिखाते हैं। लेखक ने एक श्रोता और दर्शक की भांति इन आयोजनों के परिदृश्य को देखा, अनुभव किया और आकलन करते हुए अपने व्यंग्यों में इनका कच्चा-चिट्ठा खोला है कि सभागार में उपस्थित लोग किस प्रकार समयखाऊ उद्बोधनों से बोर होते हैं। वहीं श्रोता भी वक्ताओं को सुनने के बजाए वहां से जाने का समय ढूंढते रहते हैं। यहां तक कि कुछ श्रोता तो इस बात की ताक में रहते हैं वे आयोजक की दृष्टि में आ जाएं ताकि दूसरे दिन समाचार में उनका नाम जुड़ जाए।
एक व्यंग्य है ‘‘नौ-दो ग्यारह’’। जिसमें व्यंग्यकार ने मूल विषय को छोड़ कर इधर-उधर की चर्चा करने और अनावश्यक उदाहरणों द्वारा अपनी विद्वता के झंडे गाड़ने का प्रयास करने वाले वक्ताओं पर कटाक्ष किया है। व्यंग्यकार अपने जिस साथी के साथ एक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचा है, वह साथी व्यंग्यकार को समीक्षक वक्ता के बारे में जानकारी देता है कि ‘‘अभी जिन समीक्षक का नाम लिया गया है, दो घंटे तो उन्हीं को समीक्षा में लगेंगे शायद आप वाकिफ नहीं हो।’’ इसके बाद व्यंग्यकार ने उक्त समीक्षक के संबंध में लिखा है कि ‘‘जब वे शुरू करते हैं तो लगता है हिंदी भाषा चल रही है। तभी लगने लगता है संस्कृत भाषा है। फिर थोड़ी देर में बीच-बीच में उर्दू की शेरो-शायरी करते हुए एक-दो कहावतें बुंदेली भाषा की भी कहने लगते हैं, और फिर जब समीक्षा अपने चरम पर पहुंचती है तो वह पुराने दादी मां के किस्से कहानी पर विचरण करती हुई, काव्य का रूप ले लेती है। पर इसमें भी एक विडंबना यह कि वे काव्य उस बेचारे कवि की पुस्तक के नहीं होते।’’
आर. के. तिवारी ने अपने व्यंग्यों में मुहावरों का रोचक प्रयोग किया है। व्यंग्य ‘‘फांकुओं की बैठक’’ में वे लिखते हैं-‘‘कम से कम इन्हें छठी का दूध याद आ जाएगा कि मुंह बजाना और गोली चलाना अलग बात है।’’
इसी तरह व्यंग्य ‘‘नहले पर दहला’’ में कहावत का दिलचस्प प्रयोग देखें-‘‘अरे आप क्या कह रहे हैं गुरुवर? क्या समीक्षा की पुस्तक का प्रकाशन हो रहा है उनका! मेरी बात सुन कर गुरुवर बोले, अरे भाई रामलाल आप आश्चर्य क्यों कर रहे हैं? मैंने कहा, आश्चर्य की ही तो बात है, वह इसलिए कि जहां तक मुझे ज्ञात है मैंने उनको समीक्षा करते कभी नहीं देखा-सुना! तब गुरूवर बोले, क्या हुआ भाई! एक कहावत है कि शादी भले नहीं हुई, पर बारातें खूब की हैं।’’
 व्यंग्यकार ने राजनैतिक, सामाजिक, सार्वजनिक और आर्थिक सहित लगभग हर क्षेत्र की विद्रुपताओं, विसंगतियों पर अपनी पारखी नजर डाली है। आज नवोदित रचनाकारों का ध्यान अपने रचनाकर्म को साधने के बजाए सम्मानपत्र प्राप्त करने के जुगाड़ में लगा रहा है। इस प्रवृति पर लेखक ने तंज़ यिका है। ‘‘गफ़लत’’ शीर्षक व्यंग में आर के तिवारी लिखते हैं- ‘‘आलोचना शब्द ही अपने आप में बुरा सा लगता है, जिसे कोई नहीं सुनना चाहता। आने वाली हमारी पीढ़ी कविताएं नहीं तुकबंदी और चुटकुले तक ही सीमित रह जाएंगी। कभी घरों में पुस्तकों के कारण अलमारियों में जगह नहीं रहती थी, पर अब तो वह जगह सम्मान पत्रों ने ले ली है। और एक दिन आने वाली पीढ़ी उन्हें भी पुस्तकों की तरह रद्दी में बेच देगी उनसे उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।’’
इस व्यंग्य संग्रह में हिन्दी के साथ ही लेखक के बुंदेली व्यंग्य भी शामिल हैं। इन व्यंग्यों में आंचलिकता की मिठास और चुटीलापन है। जैसे एक व्यंग्य है-‘‘पर्यावरण को ढोल: गदिया पे आम नईं जमत’’। लेखक ने लिखा है कि -‘‘सरकार की सबरी योजनाएं धरी रईं। नें नए-नए जंगल लगे और जो लगे सो बे जमतई मरत गए, काए उनखों टेम पे पानी नईं मिलो। पानी देबे वारो पानी के घूंट सबरो पइसा शराब में पी गओ। कोनऊं-कोनऊं पेड़ तो कागजों में लगे, तो कोनऊं भटारों पे लगे, जिने पानी तक नईं मिलो। बे मरत गए, भटारें मुंडी की मुंडी बनी रईं।’’
पर्यावरण पर केन्द्रित यह व्यंग्य समस्या को अपनी दृष्टि से व्याख्यायित करता है। व्यंग्य का दीर्घकाय शीर्षक है-‘‘कल चमन था आज एक सहरा हुआ/अब वहां जंगल कि मेवा कहां’’। इसमें लेखक ने गांवों के शहरीकरण और असली जंगल की जगह कांक्रीट के जंगल पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है। एक अंश देखिए-‘‘ हमारी ससुराल से कोसों दूर तक एक भी पेड़ दिखाई नहीं देते हैं। बस, एक दो मुंडी (टीले), पहाड़ियों की चोटियां ही बच पाई है, जहां अब भी इंसान अपनी पोक मशीनों और जेसीबी मशीनों से घात लगाए इंतजार कर रहा है कि कब मौका मिले और वह उसको भी समतल कर नेस्तनाबूद कर दें।’’
जहां तक व्यंग्यकार आर. के. तिवारी की शैली का प्रश्न है तो वह रोचकता लिए हुए है किन्तु उसमें जो कमी है भूमिका में ही उनके संज्ञान में लाया गया है। व्यंग्य विधा के पुरोधा डॉ सुरेश आचार्य ने संग्रह की भूमिका लिखते हुए निष्पक्षता का परिचय दिया है तथा लेखक की  व्यंगशैली की विशेषताओं और कमियों दोनों को रेखांकित किया है। डॉ आचार्य लिखते हैं कि ‘‘श्री आर के तिवारी अपने आसपास की गड़बड़ियों और विडंबना से भली भांति परिचित है। उनकी निरीक्षण शक्ति सूक्ष्म और बैठक है। उनकी रचनात्मक ऊर्जा हमें प्रभावित करती है। हां, उनमें एक प्रकार की एकरसता दिखाई देती है जो कदाचित वातावरण के चित्रण की दृष्टि से आवश्यक हो। कुल मिलाकर उनके नए व्यंग संग्रह का देश, समाज और हिंदी जगत में स्वागत होगा। उनसे यह आग्रह जरूर करूंगा कि व्यंग निबंध थोड़ा विस्तृत हो। यह मंगलमय होगा।’’
इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यंग्य संग्रह ‘‘कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ’’ के लगभग सभी व्यंग्य रोचक हैं और मनन-चिंतन जगाने वाले हैं। पुस्तक का आमुख आकर्षक है और पाठक को पुस्तक पढ़ने के लिए आमंत्रित करता प्रतीत होता है। निमिष आर्ट्स एण्ड पब्लिकेशन का मुद्रण साफ-सुथरा और सुरुचिपूर्ण है। लेखक ने आत्मकथ्य में आरम्भ में ही अपनी अभिलाषा व्यक्त करते हुए यह पंक्ति लिखी है कि-‘‘अभी हसरत और बाकी है, कुछ और कर गुज़रने की।’’ तो लेख की यह अभिलाषा पूर्ण हो तथा वे पाठकों के लिए शीघ्र ही अपना अगला व्यंग्य संग्रह लाएं, यही कामना है। यूं भी वर्तमान परिवेश मौलिक हास्य और परिमार्जन से दूर होता जा रहा है और यह कमी व्यंग्यविधा ही पूरी कर सकती है क्योंकि व्यंग्य में हास्य भी होता है और कटाक्ष के द्वारा परिमार्जन का रास्ता भी दिखा दिया जाता है। प्रस्तुत संग्रह के लेख समाज को आइना दिखाने में समर्थ हैं। इन र लेखों की सम्प्रेषणीयता आश्वस्त करती है कि ये लेख पाठकों से जुड़कर उनकी चेतना को झकझोरेंगे। इस दृष्टि से आर. के. तिवारी के व्यंग्य न सिर्फ रोचक हैं अपितु हर व्यक्ति सेे आत्मावलोकन एवं आत्मनिरीक्षण का आग्रह करते हैं। ये व्यंग्य संग्रह न केवल पठनीय हैं बल्कि असरदार भी हैं।
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Monday, December 26, 2022

समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह पुस्तक लोकार्पण समारोह में

25.12.2022...आदर्श संगीत महाविद्यालय का सभागार... श्यामलम संस्था के द्वारा स्व. शंकरदत्त चतुर्वेदी स्मरण पर्व वा शिक्षक सम्मान समारोह... लेखक आर.के.तिवारी जी की पुस्तक व्यंग्य-संग्रह "कुन्जी दाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगाँठ" का विमोचन... मुख्य अतिथि विधायक श्री शैलेन्द्र जैन, कार्यक्रम अध्यक्ष  प्रोफेसर श्री सुरेश आचार्य, समीक्षक  डॉ (सुश्री) शरद सिंह यानी मैं... स्व. चतुर्वेदी की पुत्री डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी, दामाद एडवोकेट अमित तिवारी, दोनों परिवारों के परिजन, श्यामलम सदस्य तथा नगर के बुद्धिजीवी। 
यादगार पल....🌷
📸 तस्वीरों के लिए हार्दिक धन्यवाद भाई मुकेश तिवारी एवं भाई माधवचंद्र चंदेल 🙏
📖 हार्दिक धन्यवाद श्यामलम एवं प्रिय बहन अंजना 🙏

#bookrelease #DrMissSharadSingh 
#डॉसुश्रीशरदसिंह

Sunday, December 25, 2022

Article | Bitter Winter, Homeless People And Our Efforts | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
Bitter Winter, Homeless People And Our Efforts
-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

Have we ever wondered how do homeless people spend the winter in the country? How do they spend their nights in the bitter cold? We do not even have a definite figure for this. But according to India’s 2011 census, approximately 47,000 of the city’s residents were sleeping rough. This number has increased in the last ten years. However, the agencies statistics show that 1.77 million Indians are homeless. Shelters are made for such people but are they enough? Probably not! We don't have a choice when it comes to saving lives. We couldn't be happier saving 2 out of 10. We must keep assessing our efforts.
As soon as the cold comes, we start making arrangements to keep ourselves warm. We have heater, blower, AC, geyser, blanket, quilt and many other solutions. But, how do homeless people spend the winter in the country? How do they spend their nights in the bitter cold? have we ever wondered how many homeless people die in cold weather in our country? We do not even have a definite figure for this. But according to India’s 2011 census, approximately 47,000 of the city’s residents were sleeping rough. This number has increased in the last ten years. Shelters are made for such people but are they enough? Probably not! People living on the streets have a much higher risk than the general population of developing fatal cases of hypothermia or frostbite. 

I remember a story I used to read in my childhood - "The Little Match Girl". It was a literary fairy tale by Danish poet and author Hans Christian Andersen. The story, about a dying child's dreams and hope, was first published in 1845. In the story, on a freezing New Year's Eve, a poor young girl, shivering and barefoot, tries to sell matches in the street. Afraid to go home because her father would beat her for failing to sell any matches, she huddles in the alley between two houses and lights matches, one by one, to warm herself. However, the girl is ignored by passersby as no one buys from her, leaving her to suffer alone in the cold weather. In the flame of the matches, she sees a series of comforting visions: the warm iron stove, the lovely roast goose, the great glorious Christmas tree. Each vision disappears as its match burns out. In the sky she sees a shooting star, which her late grandmother had told her means someone is on their way to Heaven. In the flame of the next match she sees her late grandmother, the only person that ever treated her with love and kindness. To keep the vision of her grandmother alive as long as possible, the girl lights the entire bundle of matches. When the matches are gone, the girl freezes to death, and her grandmother carries her soul to Heaven. The next morning, passers-by find the girl's body with a smile on her face, and express pity. They do not know about the wonderful visions she had seen, or how happy she is with her grandmother in Heaven. 
Every year as winter approaches and I think of the homeless, I remember this story. Don't know how many people are there in our country who tries to live with the help of their dreams in the cold like that little girl. Some remain successful while some fail and lose their lives. It is a good thing that in many cities, night shelters have been made for homeless people and bonfires are also arranged for such people in winter. Some kind people also distribute warm clothes and blankets to wear. But are these efforts enough? Can homeless people be kept alive with just this much? In fact, the aid efforts of the government, NGOs and donors need to be expanded. It is necessary to get take follow up the efforts made. Official figures show the city’s homeless shelters are only able to accommodate about 9,300 people. Not every homeless can find a place in the shelters. Most of the homeless people who spend their nights in the open, on the roadside or outside shops, die due to cold.

As a human being, it is the duty of every human being to help the homeless people in one way or the other. Nowadays, there is a trend of colony and colony's society in almost every small and big city. If the people of every colony and its society start giving free hot tea to at least fifty homeless people once a week at night, then seven colonies can provide heat to fifty people with hot drink in seven days. It will be a very small but exciting task. Homeless people can also be helped to build temporary sheds for winter nights. Help can be given by giving them warm clothes. If not a few people, but almost every citizen does this work, then no homeless person will die due to cold.

     We must remember that these homeless people who work for us on daily wages are not aliens. They are residents of this country like us. Simply, circumstances forced them to be helpless. Generally, people forced to leave their villages and come to the city in search of livelihood are forced to spend the night on the footpaths of the city, under flyovers. They have no guarantors and no money to rent a house. They are forced to spend the night under the open sky. Statistics show that 1.77 million Indians are homeless. The Universal Declaration of Human Rights defines “homelessness” as the state of people who do not have a regular dwelling because they are unable to obtain and maintain regular, safe, and adequate housing, or because they do not have a fixed, regular, and adequate night-time residence. In other words, the term “homeless” refers to someone who does not have a place to live. Several circumstances like financial constraints, a lack of security, or the house not being available at a suitable time and location cause such a situation.

There are an estimated 1.8 million homeless persons in India, of whom 52 percent live in cities. Despite the government's "Housing for All-2022 Plan", not all the homeless have been able to get houses so far. Orders have also been given by the State Home Ministers to light bonfires and help the homeless. But every week or fortnight this update is not released on how many people were helped. While we know that in our country the issue which is not followed up, negligence starts happening there. But when it is a question of people's lives, we cannot leave room for such negligence. Every citizen has to be helpful, aware and whistleblower when it comes to helping the homeless in the bitter cold. We must remember that even the smallest of efforts by us citizens can help our fellow homeless to beat the cold.
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 (25.12.2022)
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Friday, December 23, 2022

बतकाव बिन्ना की | बे ओरें कां गऐं जो मोड़ियन खों टोंकत आएं | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"बे ओरें कां गऐं जो मोड़ियन खों टोंकत आएं"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।

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बतकाव बिन्ना की 
बे ओरें कां गऐं जो मोड़ियन खों टोंकत आएं                                                              - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
          मैं भैयाजी के घरे पौंची। काए से के मोए पीनी हती चाय। मनो होत जे आए के जब आप सोचो के आज कहूं चाय मिल जाए सो वोई दिनां कोनऊं चाय को लो नईं पूछत। बाकी भैयाजी के इते ऐसो नइयां। भौजी घरे होंए सो बे चाय बना के पिला देत हैं, औ जो बे घरे ने होंय सो भैयाजी बना देत हैं। बड़ी नोनी चाय बनात आएं भैयाजी। फेर जे सोई आए के उनके घरे मैं मों बोल के चाय मंगा सकत हों। कोनऊं ओर के घरे ऐसो थोड़ई हो सकत आए। कोनऊं ने पिलाई सो पी लई, ने तो आंगू से तो मंगाई नईं जा सकत।   
मेंने देखी के भैयाजी अपने मोबाईल पे कछु टिपियाने में जुटे हते।
‘‘का कर रऐ भैयाजी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे करने का आए, ट्विटर पे पोस्टें देख रऐ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ट्विटर पे? सो आपको एकांट सोई आए ट्विटर पे?’’ मोय भारी अचरज भओ।
‘‘हऔ! ईमें ऐसो का खास कहानो? हमाओ सो इंस्टाग्राम पे सोई एकाउंट आए।’’ भैयाजी शान मारत भए बोले।
‘‘इंस्टाग्राम वारो आपको एकाउंट सो देखों है मैंने, बाकी ट्विटर को पतो नईं हतो।’’मैंने कही।
‘‘जब कोनऊं ट्रोन-मोल वाली पोस्टें देखने होय सो ट्विटर पे जाओ चाइए। ऐसी-ऐसी, ऐसी-ऐसी पोस्टें रैत आएं के अब हम का बताएं तुमाए लाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, हमें पतो आए! ऊमें कछू सो ऐसी रैत आएं के पढ़ के जी भन्ना सो जात आए। बाकी आप कोनऊं पोस्ट देख रऐ हते के कोनऊं पढ़ रऐ हते?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हम पढ़ रऐ हते! बो का आए, आजकाल बो शाहरुख औ दीपिका की फिलम आई है न, बोई के बारे में ऐसो-ऐसो लिखो गओ है के हम सो तुमाए लाने बता बी नईं सकत। गजबई कर देत आएं लोग सोई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब ईमें लिखबे वारन को का दोष आए? बे शाहरुख औ दीपिका खों करो धरो आए। काए के लाने उन्ने ऐसो पोज दओ के कछु कैत नहीं बनत। अब कहबे वारे भले कहें के का पैले ऐसे पोज औ ऐसे हुन्ना लत्ता फिलम में नईं होत्ते का? मनो होत्ते लेकिन बे फिलम में नचनियां को रोल करन वारी पैनत्तीं। औ अब देखो सो दीपिका घांई अभिनेत्री ऐसो पोज दे रईं। का उने ऐसो करो चाइए? का उनके लाने ऐसो करबो पोसात आए? कित्ते अच्छे-अच्छे रोल करे हैं उन्ने, सो अब कोन को कर्जा पटाने रओ के ऐसो पोज देने परो।’’ मोए सोई कै आई। सच्ची, कहों सो मोय सो हॉलीवुड की फिलमें  बी अच्छी लगत आएं, मनो जब अपने इते की फिलम में बेमतलब की नंगूपना दिखाई जात आए सो मोय तनकऊ नईं पोसात। 
‘‘तुम कै तो ठीक रईं बिन्ना, पर पोज भर का, तुम हुन्ना के रंग सोई दखो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे रंग में का धरो? मनो दीपिका ने बोई पोज काले या हरीरे रंग के कपड़ा में दओ होतो तो का ऊ सीन की नंगई में कछु कमी आ जाती? रंग की बात सो अलग धरो, मोय सो बा पोज ई नईं पोसाओ। बा सो कोनऊं थर्ड ग्रेड की फिलम को थर्ड ग्रेड की हिरोइन को सीन लग रओ आए। का दीपिका ने खुद नईं देखो पोज देबे के बाद? अब आपई सोचो भैयाजी, के कोनऊं लुगाई नहाबे वारे छोटे-छोटे कपड़ा में समुंदर के किनारे रेती पे लेटी धूप ले रई होय सो ऊको देख के उत्तो बुरौ ने लगहे जित्तो के पचीस फिट के पोस्टर पे ऐसो पोज देख के बुरौ लगहे। धूप लेबे वारी खों देख के सो दिमाग में जेई आहे के बा सो धूप ले रई, मनो जे बाई का कर रईं? का सोचहें मोड़ा-मोड़ी?’’ मोरो मुंडा खराब होन लगो।
‘‘जे अपने इते कछू सेंसर-मेंसर बचो आए के नईं? मोय सो लगत आए के ओटीटी पे सेंसर सो लगा नईं पा रै सो सोचत हुइएं के फिलम को सोई चलन देओ ऊंसई।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘सांची कई भैयाजी! आजकाल सेंसर बोर्ड सो तभई दिखात आए जब कोनऊं राजनीति वारी फिलम बनत आए। ने तो बाकी टेम पे पल्ली ओढ़ के सोत रैत आए। अरे, आप कोनऊं ‘बाज़ार’ या ‘मंडी’ घांई फिलम बना रए हो सो आप रेड लाईट एरिया की दसा खुल के दिखा लेओ, कोनऊं गलत नईंया। मनो सिरफ फिलम चलाने के लाने औ विवाद बनाबे के लाने ऐसो सीन करो सो जमत नइयां।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ तो बिन्ना! मनो तुमने एक बात गौर करी?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘का? का बात?’’
‘‘जेई के, जोन विरोध कर रए बेई अपनी पोस्टें चमकाबे के लाने सबसे पैले बोई फोटू लगा रए। फोटू दिखा के लिखत आएं के देखो जे कित्ती गंदी आए। अरे, भैया हरो! जो बे फोटुएं गंदी आंए सो तुम काए के लाने पोस्ट कर कर के फैला रए? तुमई कछु संसर कर लेओ? नईं उने सोई अपनी पोस्ट चमकाने आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे सो, होतई रैत आए भैयाजी! मोय सो जे लगत है के ई टेम पे बे ओरे कां हिरा गए जो बच्चियन के लाने, लुगाइयन के लाने उपदेस देत रैत आएं के पश्चिमी टाईप के  कपड़ा पहनबे के कारण लोग उनपे गंदी नज़र डारत आएं। अब उन ओरन खों जे सब नईं दिखा रओ? सबरे कां चले गए?’’ मोय सोई कै बिना रओ नई गओ।
‘‘सांची कै रईं बिन्ना! बच्चियां तनकऊं जींस पैहन लें सो बोई खटकन लगत आए। कछू करें अपराधी मनो दोष दओ जात आए मोड़ियन के हुन्ना-लत्ता खों। औ जे सब देख के अपराधी हरें का सीखहें? बात उठत है सो इंटरनेट को दोष दे दओ जात आए। चलो ठीक, मान लई! मनो जे सो फिल्म आए, ई के लाने सो कछु ध्यान रखो चाइए।। ने तो सबई खों एक सो रैन देओ। कोनऊं के लाने नियम कनून, औ कोनऊं के लाने कछु नईं।" मैंने कही।       
"चलो छोड़ो बिन्ना! अपन ओरें काय गिचड़ रऐ? उनें अपनी फिलम हिट कराने हती सो करा लई।" भैयाजी बोले।      
"हऔ! मनो बदनाम भऐ सो का, नांव सो भऔ!" मैंने कही। भैयाजी की बातन में दम सो हती।
‘‘औ का जे का पैलई बार हो रई? आजकाल सो फिलम को नांव चमकाने के लाने कछु ने कछु विवाद कर लो जात आए।’’ भैयाजी बोले।   
       ‘‘हऔ, कै सो आप ठीक रै हो! बाकी अब मोय चलो चाइए।’’ मैंने कही।
       ‘‘रुको तो, चाय पी लेओ, फेर जाइयो!’’ भौजी जबलौं चाय ले आई।ं
       सो, मैंने चाय पी। भौजी के लाने दिल से दुआएं दीं औ निकर परी उते से।    
          बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मोय सो जाने नइयां फिलम देखबे के लाने, सो मोय का। तो अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। औ कोनऊ साजी सी कहनात याद आए सो मोए जरूर बतइयो! सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम! 
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(22.12.2022)
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Wednesday, December 21, 2022

चर्चा प्लस | ट्रेंड : फिल्म, धमाल और बवाल का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
ट्रेंड : फिल्म, धमाल और बवाल का
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       एक हीरो की पिछली कई फिल्में फ्लाॅप हो रही हों, फिल्म इंडस्ट्री को कोरोनाकाल में तगड़ा घाटा लग चुका हो तो कुछ ऐसे हथकंडे अपनाने ही पड़ते हैं जिससे फिल्म रिलीज़ होने के पहले ही चर्चा में आ जाए। यह बात आसानी से समझ में आने वाली है। लेकिन जो बात समझना कठिन है, वह है एक प्रतिभावान, सफल अभिनेत्री का ऐसे हथकंडे के लिए राज़ी होना। क्या अभिनेत्री को पता नहीं था कि उसके कपड़ों का रंग और पोज़ बवाल मचा सकते हैं। हो सकता है कि न हो उसे पता। क्या निर्देशक, ड्रेस डिजायनर यानी पूरी टीम ही इससे बेख़बर थी क्या? या फिर एक भड़काउ ट्रेंड को अमल में लाया गया।
शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म रिलीज़ के पहले की चर्चा में आ गई थी क्योंकि उसके जो टीज़र जारी किए गए उसमें अभिनेत्री को अभिनेता के साथ एक विशेष रंग के कपड़े में उत्तेजक नृत्य करते दिखाया गया। जैसा की होना था, हुआ भी। अभिनेत्री के उत्तेजक पोज़ से कहीं अधिक हंगामा हुआ उसके कपड़ों के रंग पर। यह पहली फिल्म नहीं है जिसमें दीपिका के नृत्य को ले कर हंगामा हुआ हो। इससे पहले फिल्म ‘‘पद्मावत’’ के घूमर नृत्य पर देशव्यापी बवाल मचा था। यदि वह बवाल नहीं होता तो शायद जनता अब तक उस नृत्य को भुला चुकी होती। वह फिल्म भी पुरानी पड़ चुकी फिल्मों के बस्ते में बंाध कर कहीं ठिकाने लग चुकी होती। लेकिन वह फिल्म और वह नृत्य आज भी हमारे मानस पर अपनी जगह बनाए हुए है, इसलिए नहीं कि वे दोनों बहुत स्पेशल थे, बल्कि इसलिए कि उस फिल्म और उस नृत्य ने राजपूताना समुदाय के मन को ठेस पहुंचाई थी। इस बार समुदाय का दायरा बढ़ गया है। इस बार किसी एक समुदाय नहीं बल्कि एक धर्म विशेष को टाॅरगेट बनाया गया है। बेशक़ यह कहना गलत है कि फिल्मी दुनिया में भगवां रंग के कपड़े पहने नहीं जा सकते हैं। भगवा रंग तो होता ही सुंदर है और जब कोई भगवा रंग के कपड़े पहनता है तो उसकी सुंदरता भी बढ़ जाती है। शाहरुख की ही एक फिल्म थी जिसमें काजोल के साथ एक गाना फिल्माया गया था-‘‘रंग दे मुझे तू गेरुआ..’’। सब जानते हैं कि गाने में गेरुआ का आशय भगवां से ही था। लेकिन उस गाने पर कोई बवाल नहीं हुआ। कारण कि वह गाना सिनेमेटोग्राफिक सुंदरता और शालीनता से फिल्माया गया था।

रंग कभी दोषी या निर्दोष नहीं होते हैं। रंग मात्र रंग होते हैं जो मन को प्रफुल्लित करते हैं। किसी एक रंग पर किसी एक व्यक्ति या समुदाय का काॅपीराईट नहीं हो सकता है। प्रकृति ने रंगों की विविधता और उन्हें देखने की आंखों को क्षमता इसी लिए दी है ताकि हम प्रकृति को उसके पूरे सौंदर्य के साथ देख सकें, जान सकें और समझ सकें। यह त्रासदी ही है कि हमने रंगों को ज़मीन की तरह बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह भी एक प्रकार का रंग भेद है कि जब हम सोचते हैं हरा रंग फलां का है और भगवा रंग फलां का है। खैर, रंगभेद के इस संस्करण का उतना महत्व नहीं है जो चमड़ी के रंग के बजाए कपड़ों के रंग पर आधारित है। यहां महत्व है उस ट्रेंड को समझने का जो मासूमियत का मुखौटा ओढ़ कर दो समुदायों के बीच ज़हर फैलाने का काम करने लगा है। फिल्म की तस्वीरें और गाने जारी हुए तो लोग गुस्से से भर उठे। बात यह भी कह दी गई कि दीपिका को भगवां के बदले हरा रंग क्यों नहीं पहनाया गया? लेकिन सोचने की बात है कि क्या हरा रंग पहना देने से वो गाना या वे दृश्य स्वीकार्य हो जाते? क्या तब उनके पोज़ आपत्तिजनक नहीं रह जाते? फिर क्या अभिनेत्री और फिल्म की पूरी टीम भी शाहरुख के समुदाय की है? यही है वह बिन्दु जिसे समझने की और धैर्य से समझने की ज़रूरत है। शायद इसीलिए सेंसरबोर्ड का अस्तित्व आकार में आया होगा। जो अब लुप्तप्राय है।

फिल्मों को ले कर विवाद तो होते ही रहे हैं। बॉलीवुड फिल्मों को लेकर विवाद होना कोई नई बात नहीं है। कभी ये विवाद फिल्मों के टाइटल से जुड़ा होता तो कभी कंटेंट से। साल 2007 में रिलीज हुई फिल्म ‘‘निशब्द’’ को लेकर खूब हंगामा हुआ था। फिल्म एक लवस्टोरी पर आधारित थी। इसमें एक उम्रदराज शख्स अपनी बेटी की सहेली से प्यार करता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और दिवंगत अभिनेत्री जिया खान लीड रोल में थे। कई जगहों पर इस फिल्म के पोस्टर भी फाड़ दिए गए थे। वैसे यह फिल्म हाॅलीवुड की ‘‘प्वाइजन आईवी’’ पर आधारित थी। दीपा मेहता के निर्देशन में बनी फिल्म ‘‘फायर’’ दो महिलाओं के समलैंगिक रिश्तों पर आधारित थी। यह मध्यवर्गीय परिवार में उन दो महिलाओं की कहानी थी जो रिश्ते में देवरानी और जेठानी होती हैं और एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाती हैं। कई संगठनों ने इस फिल्म का विरोध किया था। दीपा मेहता की ही एक और फिल्म ‘‘वाटर’’ में विधवा महिलाओं के जीवन से जुड़ी स्याह दुनिया को दिखाया गया है। इसे बनारस में शूटिंग के दौरान ही बहुत विरोध झेलना पड़ा था। अक्षय कुमार और कियारा आडवाणी स्टारर सन् 2020 में आई फिल्म ‘‘लक्ष्मी बाॅम्ब’’ रिलीज से पहले ही विवादों में रही। जब ट्रेलर रिलीज हुआ था देखा गया कि फिल्म में मुस्लिम युवक और हिंदू युवती की लव स्टोरी दिखाई गई थी जिससे इस फिल्म को लव जिहाद से जोड़ा जाने लगा। बाद में फिल्म के नाम पर भी आपत्ति जताई जाने लगी। राजनेताओं और एक्टर मुकेश खन्ना समेत कई लोगों ने बॉम्ब के साथ देवी का नाम लक्ष्मी इस्तेमाल करने पर मेकर्स की कड़ी निंदा की। विवाद बढ़ने के बाद मेकर्स ने फिल्म का नाम लक्ष्मी बॉम्ब से लक्ष्मी कर दिया। वैसे यह फिल्म साउथ की ‘‘कंचना’’ फिल्म की हिंदी रिमेक थी। रीमेक में नाम क्यों बदला गया? यह कापीराईट का मसला था या ट्रेंड का, यह तो पता नहीं।

शाहरुख खान, इरफान पठान और लारा दत्ता स्टारर फिल्म बिल्लू का पहले नाम ‘‘बिल्लू बारबर’’ रखा गया था। फिल्म के टाइटल में नाई शब्द के होने से एक कम्यूनिटी ने इसके खिलाफ खूब आवाज उठाई। जब टाइटल के चलते विवाद बढ़ा तो मेकर्स ने फिल्म से बारबर शब्द हटाकर इसका नाम सिर्फ बिल्लू कर दिया था। दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और शाहिद कपूर की फिल्म ‘‘पदमावत’’ कई कारणों से विवादों में रही थी। करणी सेना ने पूरे देश में फिल्म रिलीज बैन करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया था। लोगों का आरोप है कि फिल्म में कई तथ्यों को गलत तरीके से पेश किया गया है और साथ ही राजपूत समुदाय को गलत दिखाने की कोशिश की गई थी। विवादों में आने के बाद फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगानी पड़ी थी। बाद में कुछ सीन, और टाइटल में बदलाव कर फिल्म को रिलीज किया गया था। रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की फिल्म का नाम पहले ‘‘रामलीला’’ रखा गया था जिसपर जमकर विवाद हुआ था। विवाद बढ़ने पर इसका नाम ‘‘राम-लीला’’ कर दिया गया था। बाद में रिलीज के कुछ दिन पहले ही फिल्म का नाम गोलियों की ‘‘राम-लीला: गोलियों की रासलीला’’ कर दिया गया। जब यह सभी जानते हैं कि ऐसे संवेदनशील नामों से बचना चाहिए, फिर भी कुछ निर्माता, निर्देशक ऐसे नामों का ही प्रयोग करके विवाद को बनने का अवसर देते हैं। ऐसा क्यों?

कुछ और फिल्में भी हैं जो विवाद के कारण अपनी पहचान दर्ज़ करा चुकी हैं। जैसे- आमिर खान की फिल्म ‘‘लालसिंह चड्ढा’’ को आमिर खान के एक पुराने बयान के कारण विवादों में आना पड़ा था। 2015 के साक्षात्कार में दिए गए बयान के कारण इस फिल्म का विरोध किया गया था। फिल्म ‘‘ब्रह्मास्त्र’’ रणबीर कपूर के पुराने के इंटरव्यू के चलते ट्रोल हुई थी। बजरंग दल ने अभिनेता की टिप्पणियों पर नाराजगी जताते हुए हंगामा किया था। इस फिल्म में अभिनेता अपने जूते पहने हुए एक मंदिर की घंटी बजाते हुए दिखाई दे रहे है। विवाद के ट्रेंड ने इन फिल्मों को बवाल के इतिहास में दर्ज़ करा दिया है।

दरअसल, बाॅलीवुड की फिल्म इंडस्ट्री के कुछ ‘‘मास्टर माइंड’’ यह समझ चुके हैं कि विवाद से भी फिल्म को सुर्खियां मिलती हैं। मैंने सोशल मीडिया पर ही एक व्यक्ति की टिप्पणी पढ़ी थी जिसने लिखा था कि -‘‘इस फिल्म पर अब इतना हंगामा हो रहा है मुझे इस फिल्म को देखना ही पड़ेगा कि इसमें आखिर ऐसा क्या है।’’ ऐसे कई लोग होंगे जो विवाद से आकर्षित हो कर फिल्म देखने को उतावले हो उठे होंगे। फिर दीपिका और शाहरुख का उत्तेजक गाना तो है ही फिल्म में। यानी ट्रेंड कामयाब।

दरअसल, इस विवाद ट्रेंड पर लगाम लगाए जाने की जरूरत है, इससे पहले कि यह ट्रेंड कोई नया मोड़ ले ले। फिल्मी दुनिया मनोरंजन की दुनिया है जो हंसाती है, रुलाती है, समझाती है और समाज का रुख बदलने की ताकत रखती है। जिन्होंने जया भादुड़ी की फिल्मों का जमाना देखा है या विद्या सिन्हा की फिल्में देखी हैं, उन्हें याद करना चाहिए कि इन अभिनेत्रियों ने लड़कियों के रहन-सहन का तरीका ही बदल दिया था। उस दौर में लड़कियों को साड़ी पहन कर खुशी मिलती थी। यानी उस दौर में साड़ी ट्रेंड करने लगी थी। फिल्म ‘‘हरे रामा हरे कृष्णा’’ के दौर में बेलबाॅटम और शर्ट ने ट्रेंड किया। अतीत में न जाना हो तो वर्तमान में हम देख सकते हैं कि टेलीविज़न और ओटीटी ने हर घर के रहन-सहन पर अपना गहरा असर डाला हुआ है। यानी फिल्मी दुनिया भी जानती है कि उसकी पकड़ समाज पर कितनी मजबूत है। फिर ऐसा धमाल, बवाल वाला रवैया क्यों? यह ट्रेंड क्यों अपनाया जा रहा है? बाहरी बवाल के बजाए इस बात की तह में पहुंचना अधिक जरूरी है। क्योंकि यह ट्रेंड बड़े शहरों के सिनेमाघरों को ही नहीं बल्कि छोटे शहरों और कस्बों के चौक-चौराहों को भी अपने विरोध की चपेट में ले रहा है। किसी समुदाय, जाति या धर्म की भावनाओं को चोट पहुंचाना एक धर्मनिरपेक्ष देश में कैसे स्वीकार किया जा सकता है? ऐसे ट्रेंड से बचने का एक ही तरीका है कि सेंसरबोर्ड एक बार फिर पुनःशक्तिवान बन जाए और वह भी तमाम राजनीतिक चश्मों को दूर कूड़ेदान में फेंक कर। वह सिर्फ यह ध्यान दे कि किसी भी फिल्म का कोई तत्व किसी भी जाति, धर्म या समुदाय की भावनाओं को आहत तो नहीं कर रहा है? यदि ऐसा कोई दृश्य हो तो उसे पारित न करे। हमारी फिल्मी दुनिया को इस ट्रेंड से बाहर निकला चाहिए कि यदि फिल्म को धमाल कराना है तो उसमें बवाल खड़े करने वाले तड़के डालो। लेकिन अच्छा तो यही है कि मनोरंजन की दुनिया मनोरंजन के लिए ही रहे, रंजोग़म देने के लिए नहीं।
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Tuesday, December 20, 2022

पुस्तक समीक्षा | कितना सन्नाटा है | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 20.12.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि श्री महेंद्र सिंह के ग़ज़ल संग्रह "कितना सन्नाटा है" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
सन्नाटे को ललकारतीं जनवादी स्वर की ग़ज़लें 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - कितना सन्नाटा है
कवि       - महेंद्र सिंह
प्रकाशक   - शिवना प्रकाशन, पीसी लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, बसस्टैंड, सिहोर, म.प्र. - 466001
मूल्य      - 200/-
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हिन्दी साहित्य जगत में महेंद्र सिंह की पहचान प्रतिरोध के कवि के रूप में है। सन् 2000 में उनका एक कविता संग्रह आया था जिसका नाम था ‘‘उनकी आवाज़’’। इसमें एक दलित समर्थक कविता थी जिसको लेकर भारी विवाद हुआ और महेंद्र सिंह पर आपराधिक प्रकरण दर्ज करि दिया गया। उन दिनों वे सागर में कार्यरत थे। कतिपय लोग उन्हें झुकाना चाहते थे और वे झुकने को तैयार नहीं थे। अंततः साहित्यिक संगठनों के प्रभावी हस्तक्षेप से प्रकरण पर विराम लगा। मध्यप्रदेश शासन के प्रशासनिक तबके में नायब तहसीलदार से यात्रा आरम्भ कर के डिप्टी कलेक्टर के पद से सेवानिवृत्त होने वाले महेंद्र सिंह ने भ्रमणशील लोहगढ़ियों को स्थायित्व एवं वोटर आईडी दिलाने की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। लिहाजा जिस साहित्यकार का जनसरोकार से गहरा रिश्ता होगा, उसकी लेखनी की आंच भी गहरी होगी।


‘‘कितना सन्नाटा है’’ महेंद्र सिंह का ताजा ग़ज़ल संग्रह है। पुस्तक की भूमिका प्रख्यात आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह तथा सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हरेराम समीप ने लिखी है। डॉ. विजय बहादुर सिंह ने लिखा है कि ‘‘उनके ग़ज़लों की बुनियादी भाषा आम बोलचाल वाली हिंदी है। अपनी उस मुहावरेदानी के साथ जिससे कहन में असरदारी आती है। महेंद्र सिंह ने अपनी ग़ज़लें इसी में कहीं भी हैं। बेशक़ इसी के चलते उनकी शायरी में जिंदादिली और खूबसूरती स्वतः चलकर आई है। फिर भी असल बात तो वह ‘बात’ है, जिसके लिए कोई भी शायर या कवि इस विधा के पास आता है। और महेंद्र सिंह इसी अर्थ में ‘बात’ के शायर हैं जो उनकी प्रत्येक ग़ज़ल के प्रत्येक शेर में साफ-साफ मौजूद है।’’

वहीं, हरेराम समीप ने रेखांकित किया है कि ‘‘महेंद्र सिंह की ग़ज़लों में समकाल निरंतर ध्वनित होता रहता है और भरे-पूरे समाज की उपस्थिति इन ग़ज़लों को जीवंत बनाए रखती है। अधिकांश ग़ज़लें समय से साक्षात्कार करती हैं। कवि की प्रतिबद्धता समाज में हाशिए पर जी रहे संघर्षरत वर्ग के प्रति स्पष्ट दिखाई देती है।’’

निःसंदेह महेंद्र सिंह की ग़ज़लों में जनवादी स्वर की हुंकार स्पष्ट सुनी जा सकती है। जनवादी ग़ज़लों की चर्चा आते ही बल्ली सिंह चीमा, अदम गोंडवी और दुष्यंत कुमार के नाम स्मृति में कौंध जाते हैं। इसके बाद जनवादी ग़ज़लों का जो स्वरूप सामने आता है वह सियासी नहीं (भले ही उसे सियासी रंग दे दिया जाता है) विशुद्ध जनपक्ष में खड़ा दिखाई देता है। जनवादी ग़ज़लकारों की भांति महेन्द्र सिंह को भी अव्यवस्था के प्रति सहनशील रवैया और प्रतिरोध की कमी निरन्तर चुभती है। इस चुभन की पीड़ा उनकी ग़ज़लों के रास्ते मुखर हुई है। संग्रह की पहली ही ग़ज़ल देखिए-
न जाने क्या थी लाचारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
सभी  ने  चुप्पियां  धारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।
न सुबहों के, न उजले दिन के अब बाकी बचे मानी
मुसलसल रात है तारी,  किसी ने कुछ नहीं बोला।
हमारे  तौर  जीने के,  कोई  तय  और  करता है
ये जाने कब से है जारी, किसी ने कुछ नहीं बोला।

विगत कुछ दशक में जनहित को रौंदने वाले बड़े से बड़े घोटाले और अपराध सामने आए किन्तु अपराधियों के विरूद्ध आमजन की ओर से कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया गया। गोया आमजन आंदोलन की चेतना को गहरी नींद में सुला चुका है। यह सब महसूस कर ग़ज़लकार महेंद्र सिंह अन्याय को सहते हुए ख़ामोश रहने वालों को धिक्कारते हुए कहते हैं-
थर-थर कांपों, डरो कि डरने के दिन आए हैं।
मर जाओ अधमरो कि मरने के दिन आए हैं।
हे धन पशुओं सिर्फ आपके हित प्रभु जन्में हैं
बाड़ा तोड़ो चरो कि चरने के दिन आए हैं।
जनसेवा के नाम भड़ैती,  ठगी, लूट करके
चलो सकेलो धरो कि धरने के दिन आए हैं।

धर्म, जाति, वर्ग के नाम पर लोगों के बीच परस्पर वैमनस्य फैलाने वालों की पोल खोलते हुए महेंद्र सिंह कहते हैं-
दिल में वो नफरत जगा कर मार देना चाहते हैं।
मौत का दर्शन पढ़ा कर मार देना चाहते हैं।
लूट के कानून पर उंगली उठाई इसलिए बस
वो हमें जालिम बताकर मार देना चाहते हैं।

महेंद्र सिंह का शब्द-संसार विस्तृत है। वे हिंदी और उर्दू शब्दों का मिलाजुला प्रयोग इतनी खूबसूरती से करते हैं कि वह एक चमत्कार-सा करती हुई पढ़ने वाले के अंतस को झकझोर देती है। बानगी देखिए-
आग भीतर तक लगी है सायबां दिखता नहीं।
यह जलन निर्धूम है जिसका धुआं दिखता नहीं।
कुछ नहीं है सिर्फ मृग़ज़ल और रेती के सिवा
सीझती है प्यास पर कोई कुआं दिखता नहीं।
जाति, मजहब की गली में सब भटकते रह गए
मंजिलों की ओर चलता कारवां दिखता नहीं।

कवि के सामाजिक सरोकार स्त्री वर्ग के प्रति भी हैं। उन्हें इस बात से कष्ट है कि स्त्रियों में अभी तक जागरूकता की कमी क्यों है? स्त्रियां अपने अधिकारों को हासिल क्यों नहीं कर पा रही हैं? अबोध, बेसहारा, लाचार, अबला जैसे विशेषणों के साथ वे क्यों घुट रही हैं? जबकि उन्हें अपने अधिकारों के लिए डटकर सामने आना चाहिए।
खरी-खरी कड़वी लगती है लग जाए।
जगता है आमर्ष  अगर  तो जग जाए।
क्यों अबोध है आधी आबादी अब तक
बहला-फुसलाकर जो चाहे ठग जाए।

‘‘कितना सन्नाटा है’’ संग्रह की यह एक ग़ज़ल महेंद्र सिंह की लेखनी के वैचारिक तेवर को पूरी तरह प्रतिबिंबित करने में सक्षम है-
सब देवों के धाम हमारी बस्ती में।
फिर भी है कोहराम हमारी बस्ती में।
कामयाब छल-कपट दबंगी ठकुराई मेहनत है नाकाम हमारी बस्ती में।
लड़की हुई जवान पिता की नींद उड़ी महंगे वर के दाम हमारी बस्ती में।

बाम्हन ठाकुर बनियों के टोले जाहिर
बाकी सब गुमनाम हमारी बस्ती में।
दारू ढलती, इज्जत बिकती रात ढले
आते कुछ हुक्काम हमारी बस्ती में।

संग्रह में छोटी बहर की बड़ी चोट करने वाली ग़ज़लें भी मौजूद हैं। दो उदाहरण देखिए-
वह हमें बहका रहे हैं।
हम बहकते जा रहे हैं।
पेट पर लातें लगाकर
पीठ को सहला रहे हैं।

जाति-पांति का चलन आम है।
देश    रूढ़ियों   का   गुलाम है।
लूट के   घर  भरने   वालों  का
जनसेवा   तकिया - कलाम है।

महेन्द्र सिंह का जन्म और शिक्षा भले ही बघेलखंड में हुई लेकिन बुंदेलखंड में वे लम्बे समय तक रहे और बुंदेली ने उनके मन पर अपनी जगह बना ली। छोटे बहर के क्रम में एक बुंदेली ग़ज़ल भी है जिसके तेवर संग्रह की अन्य ग़ज़लों की भांति तीखे और प्रहारक हैं -
परतौं कितउं परन नईं देनें।
इनखों हमें जियन नईं देनें।
कैसे छुऐ  अकास  चिरैया
पिजरौ बंद, उड़न नईं देनें।

महेंद्र सिंह के सृजन की है खूबी है कि वह अपनी ग़ज़लों के द्वारा सीधे समय से संवाद करते हैं और सोए हुए जनमानस को झकझोरते हैं, धिक्कारते हैं, फटकारते हैं और अव्यवस्था के कैनवास पर जनमत के रंगों से सुव्यवस्था का सुंदर चित्र बना देना चाहते हैं। दरअसल जनवाद विद्रूपताओं को उघाड़ कर सबके सामने रख देने का माद्दा है जिसे राजनीति से परे रख कर देखा जाना चाहिए, तब उसके वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है। जनवादी स्वर की ग़ज़ल पसंद करने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है। 
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Sunday, December 18, 2022

Article | Oh No! Toxic waste on the 'roof of the world'? | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


Article
Oh No! Toxic waste on the 'roof of the world'?
   -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

Often we have a habit of keeping unnecessary things on the roof of the house. Old coolers, cooler trolleys, old chair tables etc., we keep dumping many such junks on the roof of our house. But still prefer to throw the waste of the house in the dustbin. But there is someone who is dumping toxic waste on the roof of the house. This is wrong, isn't it? Toxic and radioactive waste, that too on the roof of the house can pose a threat to the entire atmosphere and the entire climate, if that roof is the roof of the world. Yes, according to news reports, China has turned the Tibetan Plateau into a dumping station for toxic waste. Remember that this plateau is between India and China.

The whole world is currently worried about climate change. International seminars are being held continuously on this and efforts are being made to adopt all those measures by which the condition of climate and environment can be improved. Even the traditional energy source like coal is being cut off, but on the other hand, a country is secretly making an entire plateau a dumping station for toxic waste. This is a matter of concern. Yes, China is the country that has made the plateau of Tibet a dumping station for toxic waste. Tibet is in danger from this, as well as India is also in danger because Tibet is situated between India and China. As far as toxic waste is concerned, it has the potential to harm not just one or two countries but the entire climate with its radiation.

New research suggests that the area of Himalayan glaciers has shrunk by 40 percent since the Little Ice Age maximum between 400-700 years ago, and that in the past few decades ice melt has accelerated faster than in other mountainous parts of the world. Atmospheric warming is the main driver of glacier melt in the Hindu Kush Himalayas—temperatures here, as at the poles, are rising faster than the global average. But local topography and other factors may also be shaping the pace of retreat, scientists say. Central Asia's Tibetan Plateau is called nicknamed "the roof of the world"-its average elevation is more than 4,500 meters (14,764 feet). It is the world's highest and largest plateau.
Shocking facts were revealed in the Rajgir Manifesto issued after the convention of the Indo-Tibetan Friendship Association held at the International Convention Center in Rajgir (Bihar) on 31 October and 1 November 2022. The declaration said that the inhuman way in which China has exploited the natural forests, dense vast forests and natural resources of Tibet has resulted in a serious imbalance in the environment. Tibet is a country situated at high altitude, which is the origin of ten major rivers flowing in Asian countries. According to environmentalists, due to this most of the rivers have become dry, or their flow has reduced. The Chinese rulers have started the work of reversing the course of the Brahmaputra river flowing in the north-east and Assam towards China. There used to be 46,000 marked glaciers in Tibet. The way the temperature is increasing, it is estimated that by 2030, 60 percent of the glaciers will end. Tibet has been turned into a dustbin of nuclear waste. To save Tibet's environment, the international community needs to take collective action so that Tibet can be saved from environmental destruction. This has serious global implications as 'Tibet' is the roof of the world. It affects the entire planet Earth.

Another report says, the carbon footprint of China's industrial activities, mining of lithium, and mining for nuclear minerals has also deeply affected the monsoon cycle in the region, said an article in Providence Journal. Subsequently, excessive industrial mining in the occupied territories of Tibet has also robbed the country of its natural resources, leaving the land barren and infertile, Tibet Press reported. In addition, China has also continuously ignored the Montreal Protocol, which exclusively prevents Beijing from using hydrocarbons, said the International Centre for Integrated Mountain Development. Beijing's land and resource policies for Tibet have largely inflicted severe damage to the people and environment. Detrimental waste dumping actions have destructed and degraded Beijing's eco-system, worryingly affecting its marine and offshore life. The negligence of Tibet's ecosystem led overseas Tibetan communities to demonstrate against China during the Glasgow COP26 summit in November 2021.

Many other reports prove this fact. An US-based journal (Jianli Yang, Providence, 28 December 2021) was claimed that China is dumping toxic waste in Tibet and further that it does not provide adequate resources to the region to protect its ecosystem. The carbon footprint of China’s industrial activities, mining of lithium, and mining for nuclear minerals in Tibet has deeply affected the monsoon cycle in the region claims the article in the Providence Journal.

The plateau of Tibet is also known as the "Water Tower" of Asia. It gives drinking water to about 2 billion people. Experts fear that by 2050 most of the water reserves in this region may be over. By the middle of this century, the entire Tibetan Plateau will lose a large part of its water tower. This information has been revealed from a study. This is by far the most comprehensive research on this issue. The research paper has been published in the natural climate change journal 'Nature'. Amu Darya Basin – which supplies water to Central Asia and Afghanistan, research shows a 119% drop in its water supply capacity. The Indus Basin – which supplies water to northern India, Kashmir and Pakistan – has shown a 79% drop in its water supply capacity. Overall, a quarter of the entire human population will be affected by it. In the news published in Radio Free Asia in 2020, a person named Gyaltsen said, the environment is worshiped in Tibet as the roof of the world. There is hardly any problem in the air and water here. Due to excessive exploitation of China, problems like pollution of air and water have also started coming here. Many species of animals have become extinct. Tibetans have been famous for their nomadic lifestyle. The number of nomads has also decreased due to the forced resettlement of China. They are facing a huge problem in adapting to the new lifestyle and gathering resources for living.

We cannot carry the load of toxic waste on the roof of our world when not only Asia but the whole earth is going through climate crisis. Not as a politician but as an environmentalist and a humanist, it has to be understood and appropriate steps have to be taken in time. It is better that the plateau of Tibet should be handed over to the Tibetans so that they can always protect that land.
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(18.12.2022)
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Thursday, December 15, 2022

बतकाव बिन्ना की | नंगू की गड़ई देख के आ रए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"नंगू की गड़ई देख के आ रए"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की      
नंगू की गड़ई देख के आ रए                             
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
            ‘‘आज तुमाए भैयाजी को मूड ठीक नइयां!’’ भौजी बोलीं। बाकी मैं मिलबे तो गई रई भौजी से, मनो उतई भैयाजी बैठे दिखाने।
‘‘काए? भैयाजी को काए मूड ठीक नइयां?‘‘मैंने भौजी से पूछी।
‘‘इन्हई से पूछ लेऔ!’’ कैत भई भौजी मुस्कान लगीं।
‘‘काए का हो गओ भैयाजी?’’ अब की मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘ने पूछो बिन्ना! हमाओ बड़ो मूड खराब आए!’’ भैयाजी बमकत भए बोले।
‘‘ऐसो का हो गओ? फीफा वल्र्ड कप में तुमाई टीम जीतत जा रई, औ का चाउने?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे, बा सब सो ठीक आए, मनो अब हम का बताएं तुमाए लाने?’’ भैयाजी ने कही।
‘‘कछू तो बोलो! काए बोलबे जोग ने होय सो बात अलग आए।’’ मैंने भैयाजी से ठिठोली करी।
‘‘काए नइयां बोलबे जोग! हमाए आगूं सो बड़ी लपरयाई कर रै हते, अब बताओ बिन्ना खों!’’ भौजी ने भैयाजी खों ठेन करी।
‘‘ऐसो का आए भैयाजी? अब कछू सो बताई देऔ! अब का आप मोरे प्राणई लैहो?’’ मैंने भैयाजी कई।
‘‘अरे, का बताएं तुमें, के हम नंगू की गड़ई देख के आ रए!’’ भैयाजी चिढ़त से बोले।
‘‘का मतलब? को आ नंगू?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। बाकी आप ओरन के लाने याद कराबो जरूरी आए के जे ‘नंगू की गड़ई’ एक कहनात आए। ईको कछू गलत मतलब ने निकारियो। औ, ईके पांछू की किसां जे आए के एक गांव में एक हती लुगाई। हती तो बा गरीब, मनो ऊको झूठी शान मारबे की बड़ी बुरी आदत हती। ऊके घरे खाबे-पीबे के लाले परे रत्ते। हुन्ना-लत्ता फटे-मटे से। मनो एक दिना ऊको दूसरे गांव में एक सेठ के इते तेरही खाबे को मौका परो। पंगत के बाद सबई जने खों भेंट में अच्छी साजी पीतल की गड़ई दई गई। बो गड़ई ले के अपने गांव लौटी, सो ऊके पांव जमीन पे नईं पर रै हते। ऊको लगो के जे गड़ई सबखों दिखाओ चाइए। बा निकर परी अपनी गड़ई धर के। कोनऊ मिलतो, वोई से कैन लगती, ‘‘जे देखो हमाई गड़ई! कभऊं देखी आए ऐसई गड़ई?’’ सो तभई से जे कहनात चल परी के जोन के पास कछु ने होय, औ कछू मिल जाए, औ बो इतरात फिरै सो ऊके लाने ‘‘नंगू की गड़ई’’ कहो जात आए।  
‘‘सो कोआ नंगू की गड़ई?’’ मैंने फिर के भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे बोई, अपनो छुट्टन दाऊ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बे? उने का हो गओ?’’ मोए छुट्टन दाऊ को नांव सुन के अचरज भओ।
‘‘औ का! बेई सो आएं।’’ भैयाजी ने कही। फेर बतान लगे,‘‘हम इते बाजार लो गए हते, के लौटत बेरा में छुट्टन टकरा गए। ऊंसे तो बे हमसे आंख बचात फिरत आएं, मनो आज जान के हमाए आंगू आ ठाड़े भए। हमसे पूछन लगे तुमने देखो रिजल्ट? हमने पूछी के काए को रिजल्ट। सो, बे बोले चुनाव को रिजल्ट। हमने कई के बा तो पुरानी बात हो गई। ई पे छुट्टन दाऊ कैन लगे के काए की पुरानी। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस जीत गई। सो हमाए मों से निकर आई के सो का भओ, दो जांगा से हार सोई गई।’’ भैयाजी बोले।  
‘‘आपने उनसे ऐसी कै दई? मनो बे तो पक्के कांग्रेसी आएं। उने तो बड़ो बुरौ लगो हुइए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ सो का हम डरात आंए उनसे! हमने सो कै दई के जे अपनी एक ठइयां जीत की ऐसी डुगडुगी बाजत फिरहो, सो नंगू की गड़ई घांई दिखेहो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कही सो ठीक, मनो आपको ऐसो कऔ नईं चाइए हतो। अब बे का करें, एक ठइयां जीत हाथ लगी सो अब बे ऊके बारे में बी ने बोलें का?’’ मैंने कई।
‘‘बोलें, मनो इत्ते ने बोलें के उन्ने खुदई ने कोनऊ तीर मार लेऔ होय। बे हिमाचल वारन ने जिताओ आए, कौन इन्ने जिताओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बाकी आए सो इन्हई की पार्टी, सो इनको खुश होने सो बनत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो जे अपनी पार्टी के लाने इते का कर रै? कहूं कोनऊ मुद्दा उठात दिखत आएं तुमें जे ओरें?’’ भैयाजी बोले।
‘‘ठीक कई! अपने इते सो कभऊं-कभऊं दिखात आएं। वा बी बुनियादी मुद्दा नोई, हवा-हवाई बातन को झंडा लेत फिरत आएं।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘औ का? इनके राहुल भैया सो मनो इत्तो पैदल चल रए, औ जे ओरें, उनके संगे फोटू खेंचा-खेंचा के भग आत आएं। अरे, इते आ के तुमई कछू यात्रा-मात्रा करो, सो जे नई हो रओ इनसे, औ बात करबे चले आएं हिमाचल में मिली भई जीत की।’’ भैयाजी खुनकत भए बोले।
‘‘आप कछू ज्यादाई खरी-खरी नईं बोल रए, भैयाजी?’’ मैंने भैयाजी खों टोंकी।
‘‘खरी सो बोलई चइए। जो खरी ने बोलबी सो इनको लगहे के हमने सो सबई जांगा पे सिक्का जमा लओ। जेई-जेई में सो कांग्रेस की ऐसई दसा हो गई। इन ओरन को कोनऊं भरम में नई रओ चइए। अपनी एक ठइयां जीत खों नंगू की गड़ई ने बनाएं। बाकी उते हिमाचल में जा के सीखें के बे उते के कांग्रेसी कैसे जीते। औ फेर जे मन बनाएं के हमें जीतबे के बाद इते से उते नई होने। पिछली विधान सभा चुनाव में का भओ रओ? जीती तो हती कांग्रेस, इते कमलनाथ जी मुख्यमंत्री सोई बन गए रए। मनो भओ का? अपने शिवराज भैया ने पटखनी दई औ जे गिरे चारो खाने चित्त।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ भैयाजी, आपको नई लग रई के अपन ओरन की बतकाव कछू ज्यादई सियासी होत जा रई। सो, अब मुतकी ने बोलो औ मोए चलन देऔ।’’ मैं उते से उठत भई बोली।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। रई बात नंगू औ ऊकी गड़ई की, सो बे जानें औ भैयाजी जानें, मोए का करने। तो अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। औ कोनऊ साजी सी कहनात याद आए सो मोए जरूर बतइयो! सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(15.12.2022)
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Wednesday, December 14, 2022

चर्चा प्लस | 14 दिसम्बर, उर्जा संरक्षण दिवस विशेष | समझना होगा ऊर्जा संरक्षण के महत्व और तरीकों को | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
14 दिसम्बर, उर्जा संरक्षण दिवस विशेष :
     समझना होगा ऊर्जा संरक्षण के महत्व और तरीकों को
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       जब लाईट चली जाती है तो हम झुंझला उठते हैं। यदि सरकार के द्वारा विद्युत कटौती की जाने लगती है तो हमारा क्रोध और बढ़ जाता है। डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ते हैं तो हम घबरा उठते हैं। लेकिन क्या हम ऊर्जा के इन स्रोतों की बचत के बारे में व्यक्तिगत स्तर पर कभी गंभीरता से विचार करते हैं? जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के लिए इलेक्ट्रिक गाड़ियां आ गईं लेकिन बिजली उत्पादन के लिए भी तो कोयला जैसा जीवाश्म ईंधन लगता है। यानी आगे चल कर हमें अपनाना होगा बिजली के पारंपरिक स्रोत का विकल्प। तो वह, अभी से क्यों नहीं? इस पर विचार करना जरूरी है।
आज से लगभग 18 वर्ष पूर्व, सन 2006 में भारत बुक सेंटर, लखनऊ से मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी-‘‘सस्ता और सुरक्षित ऊर्जा स्रोत: सौर तापीय ऊर्जा’’। इस पुस्तक के प्राक्कथन में मैंने लिखा था-‘‘वर्तमान समय ऊर्जा और उसके स्रोतों पर चिंतन करने का समय है। हम ऊर्जा संकट के जिस दौर से गुज़र रहे हैं, वह हमें अपने परंपरागत ऊर्जा स्रोतों पर पुनः दृष्टिपात करने का आग्रह कर रहा है। लकड़ी, कोयला, पनबिजली, गैस, खनिज तेल आदि हमारे परंपरागत ऊर्जा स्रोत मानव के द्वारा उस समय से काम में लाए जा रहे हैं जबसे इन स्रोतों की जानकारी मनुष्य को हुई। हजारों वर्षों से इन ऊर्जा स्रोतों के निरंतर काम में आने, जनसंख्या के दबाव बढ़ने तथा इन ऊर्जा स्रोतों की भावी उपलब्धता की गंभीरता की ओर स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। परंपरागत ऊर्जा स्रोतों को न तो पुनर्जीवित किया जा सकता है और न पुनर्निर्मित किया जा सकता है। इनका भंडार समाप्त हो जाने पर हम ऊर्जाहीन हो जाएंगे। अतः समय रहते परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के एक ऐसे विकल्प को अपना लेना आवश्यक है जो हमारी भावी आवश्यकताओं को सुचारू रूप से पूरा कर सके। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में जिन परंपरागत स्रोतों को अपनाया जा सकता है, वे हैं- 1.सौर ऊर्जा 2.पवन ऊर्जा 3.ज्वारीय ऊर्जा 4.भू-तापीय ऊर्जा। इन परंपरागत ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा अथवा सौर तापीय ऊर्जा सबसे उत्तम ऊर्जा स्रोत है। यह सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है और इसीलिए इसकी उपलब्धता सतत एवं अक्षुण्ण है। सौर तापीय ऊर्जा सब जगह उपलब्ध हो सकती है। इसको उपयोग में लाना भी आसान है। सौर तापीय ऊर्जा के क्षेत्र में निरंतर अनुसंधान हो रहे हैं तथा यह भविष्य की विश्वसनीय ऊर्जा के रूप में स्वीकार की जा चुकी है। सुदूर ग्रामीण अंचलों के लिए भी सौर तापीय ऊर्जा के द्वारा ईंधन एवं विद्युत की आपूर्ति की जा सकती है जो अन्य किसी स्रोत से दीर्घकाल तक संभव नहीं है। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, मैंने सौर तापीय उर्जा के बारे में जैसे-जैसे अध्ययन किया, वैसे-वैसे मैंने इसे एक सशक्त विश्वसनीय और उपयोग में आसान ऊर्जा स्रोत के रूप में पाया। मुझे लगता है कि सौर तापीय ऊर्जा भारत जैसे विकासशील देश में समाज के प्रत्येक स्तर के नागरिकों द्वारा अपनाया जाना चाहिए। इससे देश की राष्ट्रीय आय के एक बड़े भाग की बचत हो सकेगी, जो परंपरागत ऊर्जा को आयात करने में व्यय हो जाती है। सौर तापीय ऊर्जा को अपना कर न केवल ईंधन अपितु विद्युत आपूर्ति से संबंधित संकटों से भी हम उबर सकेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकेंगे।’’
तब से अब तक अर्थात् विगत 18 वर्ष में ऊर्जा के संबंध में स्थितियां बेहतर नहीं हुई हैं बल्कि और अधिक बिगड़ी हैं। आज फिर वही शब्द लिखने पड़ रहे हैं जो मैंने 18 वर्ष पूर्व लिखे थे कि आमजन जीवन में सौर ऊर्जा को अपनाए जाने की जरूरत है।
कोयले की उपलब्धता पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं और कोयला बिजली उत्पादन में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। कोयले की उपलब्धता के भावी संकट को देखते हुए जर्मनी ने अपने देश में कोयला खनन का काम बंद कर दिया है। अन्य देश भी इस दिशा में अपनी योजनाएं बना रहे हैं। भारत जैसे विकासशील देश के लिए एकदम से कोयले का उपयोग बंद कर देना संभव नहीं है अतः उसने जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में सन् 2030 से 2050 तक का समय मांगा है। हम यदि रेलवे लाईन के पास पहुंच कर देखें तो कुछ ही देर में कोयले से भरी मालगाड़ी सामने से गुज़रती हुई दिखाई दे जाएगी। वह पचासों बोगियों में भरा हुआ कोयला कारखानों और विद्युत तापगृहों में पहुंच कर ऊर्जा उत्पादन का काम करता है। वर्षों से इस प्रकार कोयला खनन किया जा रहा है। हजारों वर्ष में तैयार यह कोयला जिस तेजी से और जिस बड़े पैमाने में हमने उपयोग में लाया है, उससे भूमि के नीचे मौजूद कोयले का भंडार अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। कोयले का पुर्नउत्पादन इतनी तेजी से नहीं हो सकता है कि हम खोदते जाएं, कोयला निकालते जाएं और पृथ्वी हमें कोयला बना-बना कर देती जाए। यह हजारों वर्ष की प्राकृतिक प्रक्रिया से निर्मित होता है। इस बात को जानते हुए भी हमने यह अनदेखी की कि कोयला एक दिन पूरी तरह समाप्त हो सकता है। इसीलिए स्थिति इस गंभीरता तक आ पहुंची है कि कोयले का उपयोग बंद किए जाने का वैश्विक स्तर पर प्रयास आरम्भ करना पड़ रहा है।
हम दैनिक जीवन में विद्युत ऊर्जा का बेहद उपयोग करते हैं। अब तो ई-बाईक, ई-कार आदि के रूप में उपयोग बढ़ता जा रहा है। इस ‘ई’ का मतलब है इलेक्ट्रिक या बिजली। तो जब तक बिजली पारंपरिक स्रोतों पर निर्भर है और हमारे पारंपरिक स्रोत समाप्त नहीं हुए हैं तब तक हमें बिजली प्राप्त होती रहेगी। लेकिन उसके बाद? क्या हम अंधकारयुग में जीने को तैयार हैं? कदापि नहीं। इसकी कल्पना भी हम नहीं करना चाहते हैं। तो फिर क्यों न समय रहते ऊर्जा के अपने स्रोत को पारंपरिक से बदल कर वैकल्कि पर ‘‘स्विच’’ कर दिया जाए। यानी हम जीवाश्म ईंधन के बदले सौर ऊर्जा को स्रोत के रूप में पूरी तरह से अपना लें।
देश में हर वर्ष 14 दिसंबर को राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाया जाता है। यह ऊर्जा खपत के महत्व और हमारे दैनिक जीवन में इसके उपयोग और वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिति पर इसके प्रभाव का आकलन करने के लिए मनाया जाता है। भारत में राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाने का उद्देश्य रहता है, लोगों को ऊर्जा के महत्व, ऊर्जा की बचत, और ऊर्जा संरक्षण के बारे में जागरुक किया जा सके। ऊर्जा संरक्षण का सही अर्थ है ऊर्जा के अनावश्यक उपयोग को कम करके कम ऊर्जा का उपयोग कर ऊर्जा की बचत की जाए। कुशलता से ऊर्जा का उपयोग भविष्य में उपयोग के लिए इसे बचाने के लिए बहुत आवश्यक है। यह सच है कि विद्युत जैसी ऊर्जा को बचा कर उसका भंडारण नहीं किया जा सकता है, लेकिन उसके उत्पादन में लगने वाले कोयला जैसे स्रोत बचाए जा सकते हैं और मंहगी बिजली के विरुद्ध सौर ऊर्जा को अपना कर अपने घरेलू बजट को भी सम्हाला जा सकता है।
यह सच है कि वर्तमान में हमारे देश में सौर उपकरण घर में लगवाने मंहगे पड़ते हैं किन्तु आरंभिक खर्च के बाद न्यूनतम खर्च उसे बैलेंस कर देता है। यदि इस दिशा में सरकार कारगर सब्सिडी लागू कर दे तो सौर ऊर्जा के घरेलू उपकरण हर नागरिक के लिए सस्ते और आसानी से उपलब्ध हो सकेंगे। इस दिशा में चीन ने हमारे देश के बाजार को आकर्षित करने में कसर नहीं छोड़ी है। आॅनलाईन बाजार में कम से कम कीमत में उसने ऐसे उत्पाद उतार दिए हैं जो दिन भर सौर ऊर्जा ग्रहण करते हैं और रात भर घर, लाॅन, सड़क आदि को रोशन करते हैं। बेशक ये उपकरण बिना गारंटी के होते हैं किन्तु इनकी कम कीमत इनके ‘‘यूज एंड थ्रो’’ की क्वालिटी के आड़े नहीं आती है। यदि खाना पकाने के सोलर कुकर, चूल्हे और घरेलू बिजली के उपकरणों को सब्सिडी के साथ खुले बाजार में उपलब्ध कराया जाए तो इसे सभी लोग खरीदना पसंद करेंगे। इसका अनुमान बिजली बचाने वाले बल्बों, पंखों आदि की खरीदी के प्रति रुझान को देख कर लगाया जा सकता है। क्योंकि सुविधा पाने के साथ-साथ पैसे की बचत हर कोई करना चाहता है।  
यह भी सच है कि हमें ऊर्जा की बचत की आदत नहीं है। यह आदत हमें अपनानी होगी। कोई भी ऊर्जा की बचत इसकी गंभीरता से देखभाल करके कर सकता है। दैनिक उपयोग के बहुत से विद्युत उपकरणों को जैसे- बिना उपयोग के चलते हुए पंखों, बल्बों, हीटरों आदि को बंद कर के वि़ुत की बचत की जा सकती है। इस तरह ऊर्जा की बचत का तरीका ऊर्जा संरक्षण अभियान में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। जीवाश्म ईंधन, कच्चे तेल, कोयला, प्राकृतिक गैस आदि दैनिक जीवन में उपयोग के लिए पर्याप्त ऊर्जा उत्पन्न करते हैं लेकिन दिनों-दिन इनकी बढ़ती मांग प्राकृतिक संसाधनों के कम होने का भय पैदा करने लगा है। ऊर्जा संरक्षण ही केवल एक ऐसा रास्ता है जो ऊर्जा के गैर-नवीनीकृत साधनों के स्थान पर नवीनीकृत साधनों को प्रतिस्थापित करता है। ऊर्जा उपयोगकर्ताओं को ऊर्जा की कम खपत करने के साथ ही कुशल ऊर्जा संरक्षण के लिये जागरुक करने के उद्देश्य से विभिन्न देशों की सरकारों ने ऊर्जा और कार्बन के उपयोग पर कर लगा रखा है। उच्च ऊर्जा उपभोग पर कर ऊर्जा के प्रयोग को कम करने के साथ ही उपभोक्ताओं को एक सीमा के अन्दर ही ऊर्जा का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित करता है। किन्तु इससे अधिक नागरिक हित का तरीका है सौर ऊर्जा को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।
भवन निर्माण के समय थर्मल इंसुलेशन का प्रयोग हमारे देश में नहीं किया जाता है किन्तु इस दिशा में ऊर्जा के बचत वाले निर्माण को बढ़ावा दिया जा सकता है जिससे ठंड की ऋतु में ऊर्जा की बचत की जा सके। अन्यथा, ठंड के मौसम में हीटर, ब्लोअर आदि उपकरणों पर बड़े पैमाने पर ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। थर्मल पर्दें, स्मार्ट खिड़कियां इस दिशा में कारगर साबित हो रही हैं। ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा को प्राकृतिक रोशनी और कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप या सीएफएल से और अन्य साधनों के द्वारा ऊर्जा खपत कम की जा सकती है। साथ ही फ्लोरोसेंट बल्ब, रैखिक फ्लोरोसेंट, सौर स्मार्ट टॉर्च, स्काई लाइट, खिड़कियों से प्रकाश व्यवस्था और सौर लाइट का प्रयोग करके बचाया जा सकता है। जल संरक्षण भी बेहतर ऊर्जा संरक्षण का कार्य करता है। लोगों के द्वारा हर साल लगभग हजारों गैलन पानी बर्बाद किया जाता है जिसकी विभिन्न संरक्षण के साधनों जैसे- 6 जीपीएम या कम से कम प्रवाह वाले फव्वारों, बहुत कम फ्लश वाले शौचालय, नल जलवाहक, खाद शौचालयों का प्रयोग करके बचत की जा सकती है।
पूरे भारत में राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाते हुए अभियान को और प्रभावशाली, और विशेष बनाने के लिये सरकार द्वारा और अन्य संगठनों द्वारा लोगों के बीच में ऊर्जा संरक्षण प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया जाता है। ताकि ऊर्जा संरक्षण के प्रति ध्यान आकर्षित किया जा सके। इस दिन स्कूलों में चित्रकला प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती। राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण अभियान भारत में ऊर्जा संरक्षण की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए विद्युत मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया। भारत में पेट्रोलियम संरक्षण अनुसंधान एसोसिएशन वर्ष 1977 में भारत सरकार द्वारा भारतीय लोगों के बीच ऊर्जा संरक्षण और कुशलता को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया था। ये ऊर्जा का संरक्षण महान स्तर पर करने के लिये भारत सरकार द्वारा उठाया गया बहुत बड़ा कदम है। बेहतर ऊर्जा कुशलता और संरक्षण के लिए भारत सरकार ने एक अन्य संगठन ऊर्जा दक्षता ब्यूरों को भी 2001 में स्थापित किया गया।
ऊर्जा संरक्षण दिवस वस्तुतः एक राष्ट्रीय जागरूकता अभियान दिवस है। लेकिन जैसा कि हमारी प्रवृत्ति है कि चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हो या सरकारी स्तर पर, दिवस मनाने के बाद हम अपने सारे संकल्प भूल जाते हैं और सारी योजनाएं ठंडे-बस्ते में बांध देते हैं। लेकिन अब वह समय आ ही गया है कि हमें ऊर्जा की उपलब्धता एवं ऊर्जा स्रोतों के प्रति गंभीर होना होगा। हमें लापरवाही और अनदेखा करने की अपनी प्रवृत्ति को बदला होगा। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को खाली कोयला खदानें और तेल के रिक्त कुए सौंपने के बजाए उन्हें सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, सागरीय ऊर्जा के कभी न खाली होने वाले भंडार सौंप कर जाएं। विशेष रूप से सौर ऊर्जा का वह भंडार, जिससे दैनिक जीवन में भी सस्ती और सुगम ऊर्जा मिलती रहे। 
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