Wednesday, November 26, 2025

चर्चा प्लस | अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 
चर्चा प्लस
अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
                                                                       इन दिनों भागवत कथा का आयोजन लगभग हर गांव, शहर, कस्बे में होता रहता है। भागवत कथा सुनाने के लिए कथा वाचकों को आमंत्रित किया जाता है। सामर्थ्य के अनुसार प्रसिद्धिवान कथावाचक बुलाए जाने का चलन है। जिस स्थान पर कथा होती है, वहां से कई-कई किलोमीटर दूर से श्रवणकर्ता भागवत कथा सुनने आते हैं। वे श्री कृष्ण की कथाएं सुनते हैं। कथावाचक द्वारा गाए जाने वाले भक्तिमय गानों पर झूमते-थिरकते हैं। हमारी सांस्कृतिक परंपराओं के अनुरूप होता है उत्सवी वातावरण। किन्तु धर्म का मर्म कितने लोग समझ पाते हैं यह कहना कठिन है।   

अभी हाल ही में मेरे शहर में भागवत कथा का बहुत बड़ा आयोजन हुआ। जिसमें सुप्रसिद्ध कथावाचक ने सात दिन तक कथा सुनाई। अपार जनसमूह उमड़ा रहा। इसी प्रकार के पिछले वर्ष के आयोजन में मैं भी कथा सुनने तथा उत्सवी वातावरण को महसूस करने कथा-स्थल पर गई थी। इस बार कतिपय कारणोंवश जाना नहीं हो सका। मेरे एक परिचित को जब यह ज्ञात हुआ कि मैं नहीं जा पाई तो उन्होंने भारी शोक प्रकट किया। उन्होंने इस प्रकार मुझे जताने का प्रसास किया कि मैंने जीवन का एक बहुत सुनहरा अवसर गवां दिया है। अफसोस मुझे भी था किन्तु जीवन के अन्य जरूरी काम भी छोड़े नहीं जा सकते हैं। फिर वह आयोजन स्थल मेरे घर से बहुत दूर था, शहर के दूसरे छोर पर। मैंने जब उन सज्जन से ढेर सारे उलाहने सुन लिए तब उकता कर मैंने उनसे पूछा कि क्या प्रहलाद चरित्र भी सुनाया गया था? यदि सुनाया गया था तो किस दिन? उनका उत्तर था, ‘‘अब ये तो याद नहीं है। बाकी, कथावाचक बड़े सुंदर ढंग से कथा कह रहे थे।’’
‘‘हर कथावाचक सुंदर ढंग से कथा कहते हैं, फिर ये तो बहुत प्रसिद्ध कथावाचक थे। मैं तो यह जानना चाहती हूं कि आपने क्या सुना और क्या गुना?’’ मैंने सीधे-सीधे पूछा।
‘‘अब हम सुनबे खों गए रहे, रटबे खों थोड़ी?’’ वे सज्जन खिसिया कर बुंदेली में बोले।
मैंने इसके आगे उनसे कुछ नहीं कहा। मुझे लगा कि चलो कथा न सही उत्सव का सुख तो इन्होंने पा ही लिया है, यही बहुत है। फिर मुझ लगा कि जो भी जन भागवत कथा सुनने जाते हैं क्या वे भागवत कथा का सही अर्थ समझ पाते हैं? या भक्ति के वातावरण में मात्र डुबकी लगा कर चले आते हैं? आखिर क्या है भागवत कथा?
वस्तुतः भागवत कथा, श्रीमद्भागवत पुराण पर आधारित 7 दिवसीय एक धार्मिक आयोजन है, जिसमें एक कथावाचक भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं और शिक्षाओं को सुनाते हैं। इसका मुख्य विषय भक्ति योग है, जिसमें भगवान कृष्ण को सर्वोपरि देव माना गया है। कथा के माध्यम से ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का संदेश दिया जाता है। यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का मार्ग दर्शाती है, जिसके श्रवण से आध्यात्मिक विकास और मन की शांति प्राप्त होती है। इस आयोजन का उद्देश्य भक्तों को भगवान कृष्ण के जीवन से जोड़ना और उन्हें जीवन के कष्टों से मुक्ति दिलाना है। यह आध्यात्मिक उत्थान और मन की शांति लाती है। इसे धार्मिक दृष्टि से कलियुग में पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का एक सरल साधन माना जाता है। यह भगवान के प्रति भक्ति को गहरा करती है और जीवन के उद्देश्य की समझ बढ़ाती है।
श्रवण मात्र से ही पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इससे भी बढ़ कर यह जीवन जीने की एक अद्भुत शैली सिखाती है। बशर्ते कोई इसके वास्तविक मर्म को समझ ले।
पुराण का अर्थ है - जो प्राचीन होते हुए भी सदा नवीन है अर्थात “पुरा अपि नवं इति प्रमाणं”। पुराण में 5 लक्षण होते हैं परन्तु श्रीमद्भागवत पुराण नहीं, अपितुय महापुराण है, जो सर्गादि 10 लक्षणों से युक्त है। इसमें गायत्री का महाभाष्य, जिसमें वृत्रासुर के वध की कथा है ।
यत्राधिक्षुत्र गायत्रीं वर्ण्यते धर्म विस्तर।
वृत्रासुर वधोपेतं तदवै भागवतं विदुः।।
इसमें जीवन जीने की एक अद्धभुत शैली है। यह महापुराण विशिष्ट है। श्रीमद्भागवत महापुराण  को भगवान श्रीकृष्ण का शब्दमय विग्रह, आध्यात्मिक रस की अलौकिक सरिता, असंतोष जीवन को शान्ति प्रदान करने वाला दिव्य संदेश तथा नर को नारायण बनाने वाली दिव्य चेतना से युक्त माना गया है । इसमें 12 स्कन्ध एवं 335 अध्याय हैं। इसे श्रीमद्भागवतं या केवल भागवतं भी कहा जाता है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का यह महान ग्रन्थ है। श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान नारायण के अवतारों का ही वर्णन है। 
नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने श्रीमद्भागवत महापुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण के चैबीस अवतारों की कथा कही है। श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक रूप का ही वर्णन किया गया है। यह माना जाता है कि इसके पठन एवं श्रवण से भोग और मोक्ष तो सुलभ हो ही जाते हैं, मन शुद्ध होता है और चेतना जाग्रत होती है। 
एक कथा के अनुसार एक बार भगवान् श्रीकृष्ण के सखा उद्धवजी ने श्री कृष्ण से एक प्रश्न किया कि ‘‘हे श्रीकृष्ण! जब आप सदेह अपने धाम चले जायेंगे, तब आपके भक्त इस धरती पर कैसे रहेंगे? वे किसकी उपासना करेंगे?’’ इस पर श्री कृष्ण ने उत्तर दिया कि ‘‘निर्गुण की उपासना करेंगे।’’ तब उद्धव ने पूछा,‘‘ भगवान! निर्गुण की उपासना में बहुत कष्ट है, अतः हे भगवन ! इस विषय में भली प्रकार से आप विचार करें।’’
मान्यता है कि उद्धव की बात का स्मरण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य देह के तेज को श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्रन्थ में प्रवेश कर प्रतिष्ठित दिया और ‘‘पद्मपुराणान्तर्गत श्रीमद्भागवत माहात्म्य’’ के अनुसार उसी दिन से श्रीमद्भागवत महापुराण भगवान श्री कृष्ण का ही शरीर माना जाता है-
स्वकीयं यद्भवेत्तेजसतच्च भागवतेदधात् ।
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद्भागवतार्णवम।।
सात दिन चलने वाली भागवत कथा में प्रत्येक दिन के लिए विषय निर्धारित रहते हैं।-
प्रथम दिन - श्रीगणेश पूजन, श्रीमद्भागवत माहात्म्य, मंगलाचरण, भीष्म-पाण्डवादि चरित्र, परीक्षित जन्म एवं श्री शुकदेव प्राकट्य की कथाएं।
दूसरे दिन - ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, भगवान् विराट का प्राकट्य, विदुर-मैत्रेय संवाद, कपिलोपाख्यान
तीसरे दिन -सती चरित्र, ध्रुव चरित्र, जड़भरत व प्रह्लाद चरित्र की कथाएं।
चौथे दिन  - गजेंद्र मोक्ष, समुद्र मंथन, वामन अवतार, श्रीराम चरित्र एवं श्रीकृष्ण प्राकट्योत्सव
पांचवें दिन - श्रीकृष्ण बाल लीलायें, श्रीगोवर्धन पूजा एवं छप्पनभोग का आनन्द।
छठें दिन  - महारासलीला, श्रीकृष्ण मथुरा गमन, गोपी-उद्धव संवाद एवं रुक्मिणी मंगल।
सातवें दिन - सुदामा चरित्र, श्रीशुकदेव विदाई, व्यास पूजन, कथा विश्राम एवं हवन पूर्णाहुति। 
  - इस प्रकार सात दिनों के लिए कथाओं तथा अनुष्ठानों का निर्धारण किया जाता है। कथावाचक कथाओं की निरंतरा से उत्पन्न होने वाली बोरियत को दूर रखने के लिए भक्ति गीतों का सहारा लेते हैं जिससे रोचकता बनी रहती है तथा श्रवणकर्ताओं में उत्साह बना रहता है।
भागवत कथा की अपनी समसामयिक प्रासंगिकता है जिसे स्वीकार करना अनेक प्रगतिवादी व्यक्तियों के लिए कठिन होगा किन्तु यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो साहित्य चाहे धार्मिक हो अथवा सामाजिक, पुरातन हो अथवा अधुनातन, दोनों की अपनी-अपनी मूल्यवत्ता होती है। जिसे सुन कर, पढ़ कर मन शांति, आनन्द एवं सदमार्ग को चुने जाते हैं जो श्रवणीय ही होती हैं। आज जब समाज से नैतिकता घटती जा रही है, ऐसे कठिन समय में यदि एक कथावाचक भागवत कथा के द्वारा  नैतिक और व्यावहारिक मार्गदर्शन देता है तो, भागवत कथा की उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। कथावाचक समकालीन मुद्दों को सामने रखकर प्राचीन शिक्षाओं को प्रासंगिक बनाते हैं, जिससे श्रोता अपने जीवन में समानताएं खोज सकते हैं। भागवत की शिक्षाएं इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सिखाती हैं तथा स्वार्थरहित होकर करने कर्तव्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। भागवत कथा मानसिक शांति प्रदान करती है। कथा परिसर का उत्सवी वातावरण नैराश्य भरे जीवन में उत्साह का संचार करता है। जीवन के प्रति राग उत्पन्न करता है तथा अतिशयता की स्थिति में बुरे कर्मों के प्रति वैराग्य भी उत्पन्न करता है। ऐसे आयोजन आज के युग में भौतिकवाद और आध्यात्मिक विवाद के दौर में उचित विचार-विमर्श की क्षमता जगाते हैं। भागवत कथाएं कभी भी धार्मिक कट्टरता को स्थान नहीं देती हैं वरन उनका आयोजन समरसता का वातावरण गढ़ता है, बशर्ते कट्टरता अथवा अतिप्रगतिवाद के चश्में को परे रख कर इन आयोजनों की ओर देखा जाए। इन्हें सुनने वाले भी यदि मन लगा कर कथाओं का मर्म आत्मसात करें तो जीवन सरस और सार्थक प्रतीत होगा।      
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(दैनिक, सागर दिनकर में 26.11.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, November 25, 2025

पुस्तक समीक्षा | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - रश्मियों का अपहरण
कवि            - ज.ल. राठौर ‘प्रभाकर’
प्रकाशक     - शिवराज प्रकाशन, म.न. 1/1898, गीता गली, मानसरोवर पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य       - 395/-
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हिन्दी काव्य ने अपनी परम्पराओं को सहेजते हुए सदा नूतनता को स्वीकार किया है। यही कारण है कि हिन्दी काव्य आज भी निरन्तर समृद्ध होता जा रहा हैं। हिन्दी में गजल के प्रभाव से उर्दू शब्दों का समावेश अधिक हो गया था किन्तु सजल ने हिन्दी काव्य को हिन्दी भाषा के वास्तविक स्वरूप से पुनः जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। जहां तक हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ भाषाई सौंदर्य का प्रश्न है तो व्यक्तिगत रूप से मेरा यह  मानना रहा है कि यदि हिन्दी के भाषाई सौंदर्य से साक्षात्कार करना है तो जयशंकर प्रसाद के काव्य को पढ़ना चाहिए। यह इसलिए कि प्रसाद ने संस्कृतनिष्ठ परिष्कृत हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया। दैनिक संवाद में भले ही अंग्रेजी और उर्दू के शब्द सहज रूप से आ जाते हैं किन्तु जब बात साहित्य की हो तो भाषाई शुद्धता का आग्रह अनुचित नहीं है। हर भाषा का अपना एक सौंदर्य होता है और यह सौंदर्य तभी पूर्णरूप से प्रकट होता है जब उसमें मौलकिता हो, शुद्धता हो। हिन्दी की नई काव्य विधा सजल ने इस आग्रह को दृढ़ता से स्थापना दी है। यद्यपि अब सजल विधा नूतनता के प्रथम सोपान पर नहीं है, वरन यह कई सोपान चढ़ती हुई अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है। इसका श्रेय है डाॅ. अनिल गहलौत जी को।
रोचक तथ्य यह है कि सजल विधा अधुनातन तकनीक के गवाक्ष से हो कर साहित्य के प्रांगण में पहुंची है। इस संबंध में डाॅ. अनिल गहलौत ने अपनी पुस्तक ‘‘सजल और सजल का सृजन विज्ञान’’ में लिखा है कि -‘‘हमारे मोबाइल के वाट्स एप ग्रुप ‘‘गजल है जिंदगी’’ के साथियों से हमने सन 2016 में हिंदी को बचाने की अपनी इस चिंता को साझा किया। हमने कहा कि क्यों न गजल के समकक्ष हम हिंदी की एक अपनी विधा लाएँ जिसकी भाषा और व्याकरण के तथा शिल्प के अपने मानक हों। हमारे ग्रुप में अनेक हिंदी के विद्वान कवि, गजलकार, प्रोफेसर, समीक्षक और समाजसेवी जुड़े हुए थे। एक माह के सघन विचार-मंथन के उपरांत सहमति बनी। सजल विधा के नाम पर तथा सजल के अंग-उपांगों के हिंदी नामों पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। सजल की भाषा, व्याकरण और शिल्प के मानक भी सुनिश्चित किए गए। सजल की लय का आधार हिंदी छंदों की लय को मान्य किया गया। उसके उपरांत 5 सितंबर 2016 को उस ग्रुप पर सजल विधा के हिंदी साहित्य में पदार्पण की घोषणा की गई और ग्रुप का नाम बदलकर ‘‘सजल सर्जना’’ कर दिया गया। इस विमर्श में हमारे सहयोग और समर्थन में, श्रम और समय देकर सजल विधा को रूपायित करने में, प्रारंभ में जिनकी प्रमुख भूमिका रही उनके नाम हैं- वाराणसी के डॉ.चन्द्रभाल ‘‘सुकुमार’’, डॉ.रामसनेहीलाल शर्मा ‘‘यायावर’’, श्री विजय राठौर, श्रीमती रेखा लोढ़ा ‘‘स्मित’’, श्री विजय बागरी ‘‘विजय’’, डॉ० मोरमुकुट शर्मा, श्री संतोष कुमार सिंह, डॉ.बी.के.सिंह, डॉ० रामप्रकाश ‘‘पथिक’’, डॉ० राकेश सक्सेना, श्री रामवीर सिंह, श्री ईश्वरी प्रसाद यादव, श्री महेश कुमार शर्मा, श्रीमती कृष्णा राजपूत, एड. हरवेन्द्र सिंह गौर तथा डॉ.एल.एस.आचार्य आदि। (पृष्ठ 42-43)
ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजलों पर चर्चा करने से पूर्व सजल के उद्भव पर दृष्टिपात कर लेना मुझे इसलिए उचित लगा कि यदि इस संग्रह के जो पाठक सजल विधा से भली-भांति परिचित न हों, उन्हें भी इस नूतन विधा के उद्भव की एक झलक प्राप्त हो जाए। इस विधा को अस्तित्व में आए दस वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। यह सुखद है। किसी भी विधा का विकास तभी संभव होता है जब उसके प्रति साहित्य जगत में विश्वास हो और उसका स्वागत किया जा रहा हो। सजल विधा से गहराई से जुड़े सागर, मध्यप्रदेश निवासी ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी में सजल को ले कर मैंने सदैव असीम उत्साह देखा है। वे सजल विधा के प्रति आश्वस्त हैं, आस्थावान हैं तथा सतत सृजनशील रहते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के इस सजल संग्रह में उनके द्वारा संग्रहीत सजलों को पढ़ते समय उनके वैचारिक एवं भावनात्मक विस्तार से भली-भांति परिचय हुआ जा सकता है। ‘प्रभाकर’’ जी अपने सजलों में शांति, अहिंसा, प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्यता आदि विविध बिन्दुओं पर चिंन्तन करते दिखाई देते हैं। वर्तमान में सबसे अधिक पीड़ादायक हैं आतंकी गतिविधियां जो सम्पूर्ण मानवता पर प्रहार कर के प्रत्येक मानस को विचलित कर देती हैं। इस संदर्भ में ‘प्रभाकर’’ जी के एक सजल की कुछ पंक्तियां देखिए-
आँधी करने लगी आक्रमण ।
दीप-शिखा संकट में हर क्षण।
बाढ़ विकट उन्मादी आई ।
डूबा शांति-क्षेत्र का कण-कण।
‘‘प्रभाकर’’ जी स्थिति की विषमताओं का अवलोकन कर के ठहर नहीं जाते हैं वरन वे उन कारणों पर भी चिंतन करते हैं जो समस्त अव्यवस्था के मूल में है। वे लिखते हैं-
तिमिरण इतना पसरा क्यों है।
सूरज अभी न सँवरा क्यों है ।
तुम करते विघटन की बातें 
मन में इतना कचरा क्यों है ।
कवि को पता है कि अव्यवस्थाओं का कारण छल, छद्म और भ्रष्टाचार है। इसीलिए कवि के हृदय में क्रोध भी उमड़ता है और वह अपनी लेखनी के द्वारा सब कुछ जला कर भस्म कर देना चाहता है, जिससे एक ऐसे संसार की रचना हो सके जिसमें सुख और शांति का वातावरण हो। इसीलिए कवि ‘‘प्रभाकर’’ उपचार की बात भी लिखते हैं -
आग लिखता हूँ सदा, अंगार लिखता हूँ।
ओज से परितप्त कर, ललकार लिखता हूँ।
अंधकारों का नहीं, साम्राज्य बढ़ पाए।
रश्मियों की मैं सतत, बौछार लिखता हूँ।
कवि इस बात से व्यथित भी हो उठता है कि अपात्र सुपात्र बने घूम रहे हैं तथा अयोग्य व्यक्ति छद्म के सहारे योग्यता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हैं। भाषाई संदर्भ में वे पाते हैं कि स्वयं हिन्दी भाषी हिन्दी की अवहेलना कर रहे हैं। यह सब कवि के लिए दुखद है, असहनीय है -
कैसा हुआ जगत का हाल !
चलता काग हंस की चाल !!
सूखा कहीं, कहीं है बाढ़ ।
मौसम ने बदले सुर-ताल ।।
ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी ने अतीत के संदर्भों के आधार पर वर्तमान का आकलन भी किया है। जैसे वे अपने एक सजल में कुन्ती पुत्र कर्ण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
जन्म से वह कर्ण कौन्तेय था।
नियति ने बना दिया. राधेय।।
समय को समझ सका है कौन ?
समय है अटल, सचल, अविजेय ।।
राष्ट्रहित-चिंतन से हम दूर ।
निजी हित-पोषण पहला ध्येय ।।
जब निज हित पोषण की भावना प्रबल हो जाती है तो प्रकृति तक का हनन होने लगता है। वनों का अवैध निर्बाध काटा जाना, पर्वतों को खण्डित किया जाना, बढ़ते प्रदूषण को अनदेखा किया जाना कवि के हृदय को सालता है। कवि ‘‘प्रभाकर’’ की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
धरती पर बढ़ रही घुटन है।
सहमा-सहमा आज गगन है।।
सिसक रही हैं सबकी साँसें ।
बहका-बहका रुग्ण पवन है।।
देखा जाए तो कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ अपने सजलों के माध्यम से जहां मार्ग के कंटकों के प्रति ध्यान आकर्षित करते हैं तो वहीं वे कंटकों के उन्मूलन तथा पीड़ा का  निदान और उपचार भी सुझाते हैं। यह कवि के भीतर उपस्थित सकारात्मकता की द्योतक है। यूं भी प्रत्येक सृजनकार को आशावादी होना ही चाहिए। निराशा का उच्छेदन आशा से ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ‘‘प्रभाकर के सजल हिन्दी काव्य की वैचारिकी को परंपरागत रूप से समृद्ध करते हैं। ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजल शिल्प की दृष्टि से डाॅ. अनिल गहलौत द्वारा स्थापित किए गए सजल के सृजन-विज्ञान के मानक पर भी खरे उतरते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के सजलों का भाषाई सौंदर्य काव्यात्म तत्वों का रसास्वादन कराता है तथा विन्यास सजल विधा में उनकी पकड़ को दर्शाता है। यह सजल संग्रह पाठकों को काव्य की एक नई विधा का सुरुचिपूर्ण आस्वाद कराएगा।        
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Saturday, November 22, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
     ब्याओ को सीजन सुरू होतई साथ न्योते सोई आन लगत आएं। कछू जने जेई लाने परखे रैत आएं के कबे न्योतो आए औ बे ब्यौहार निभाबे के लाने पौंचे। फेर अकेले ब्यौहार निभाबे की बात नोंई रैत। न्योते में जीमबे मने ‘स्वरुचि भोज’ की ब्यबस्था सोई रैत आए। पैले तो का होत्तो के पंगत लगत्ती। बराती, घराती, मैंमान हरें सबई पंगत में जीमत्ते। परसबे वारे पूंछ-पूंछ के बड़े प्रेम से सबरे ब्यंजन परसत जात्ते। ने कम, ने ज्यादा। मनो कोनऊं खों अफरत लौं खाने होय सो बा तब लौं खा सकत्तो जब लौं अफर ने जाए। बाकी एक नियम रैत्तो के पत्तल पे जूठो ने बचो चाइए। ऊको अन्न को अनादर मानो जात्तो। सो, ईसे जूठो अन्न न बचत्तो औ ने फिंकत्तो। 
        अब आजकाल का आए के बिदेसन की नकल में चल गओ आए बुफे। कायदों ऊको बी जेई आए के जित्तो जो खाने हो उत्तई अपनी प्लेट पे लेओ। मनो होत का आए के स्टालन पे मची रैत आए गदर सी। सो, सबई जने सोचत आएं के जित्ती बने प्लेट भर लेओ औ कऊं पसर के जीमों जाए। अब कोऊ ब्यंजन अच्छो लगत आए कोऊ नईं लगत। कोऊ पूरो खा लेत, तो कोऊ की प्लेट में मुतको बचो रै जात आए। बा जूठो कोऊ के काम को नईं रैत। जो बनाबे वारे या फेर परसत वारे बासन में साजो खाना बचे तो बा कोऊ गरीब-गुरबा, ने तो कोनऊं संस्था में भेजबे के काम आ जात आए। सो, अब कोनऊं ब्याओ के न्योतो में जाओ सो, खयाल राखियो के खाना की बरबादी ने होने पाए। जी भर के खाइयो, मनो प्लेट में उत्तई लेत जाइयो जित्ते में फिंके ना। काए से के अन्न से बढ़ के कछू नईंयां।
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Friday, November 21, 2025

चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 


चर्चा प्लस
धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
                
  आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।


हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है?  भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।  
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है?
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे?
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की।
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे।        
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(दैनिक, सागर दिनकर में 21.11.2025 को प्रकाशित) 
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चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 

चर्चा प्लस
धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
             
  आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।


हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है?  भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।  
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है?
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे?
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की।
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे।        
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(दैनिक, सागर दिनकर में 21.11.2025 को प्रकाशित) 
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शून्यकाल | मानवमूल्यों की पोषक है हमारी भारतीय संस्कृति | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | मानवमूल्यों की पोषक है हमारी भारतीय संस्कृति | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल
मानवमूल्यों की पोषक है हमारी भारतीय संस्कृति
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह 
                                                                                   संस्कृति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के सतत् विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है। मानव मूल्य संस्कृति से ही उत्पन्न होते हैं और संस्कृति की रक्षा करते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर के शाश्वत मूल्यों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति में पाषाण जैसी जड़ वस्तु भी देवत्व प्राप्त कर सर्वशक्तिमान हो सकती है और नदियां एवं पर्वत माता, पिता, बहन, आदि पारिवारिक संबंधी बन जाते हैं। ऐसी भारतीय संस्कृति की नाभि में मानवमूल्य ठीक उसी तरह अवस्थित है जैसे भगवान विष्णु की नाभि में कमल पुष्प और उस कमल पुष्प पर जिस तरह ब्रह्मा विद्यमान हैं, उसी तरह मानवमूल्य पर ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’ की लोक कल्याणकारी भावना विराजमान है। वस्तुतः मूल भारतीय संस्कृति में धर्म, जाति, विचार आदि के भेद को ‘भेद’ या अलगाव नहीं वरन् विविधता माना गया है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है।

      संस्कृति, राष्ट्र और समाज ये तीन ईकाइयां हैं, जो मानव संस्कृति को आकार देती हैं। सुसंस्कृति से सुराष्ट्र आकार लेता है और अपसंस्कृति से अपराष्ट्र। शब्द अनसुना सा लग सकता है-‘‘अपराष्ट्र’‘। किन्तु यदि राष्ट्रों की राजनीतिक स्तर पर अपराधों में लिप्तता राजनीतिक कुसंस्कारों को जन्म देती है और यही कुसंस्कार राष्ट्र में अतंकवाद की गतिविधियों को प्रश्रय देते हैं। विश्व में कई देश ऐसे हैं जो राजनीतिक दृष्टि से अपराष्ट्र की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। वहीं भारत की संस्कृति का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें अपसंस्कारों की कोई जगह नहीं है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है। यदि प्रत्येक मनुष्य में देवत्व के गुण जाग्रत हो जाएं तो सांस्कृतिक विकार जागने अथवा किसी विषम पल में जाग भी जाए तो उसके स्थाई रूप से बने रहने का प्रश्न ही नहीं है। संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या जड़ तत्वों के लिए भी कोई सांस्कृतिक आह्वान होता है जबकि जड़ तो जड़ है, निचेष्ट, निर्जीव। फिर निर्जीव के लिए संसकृति का कैसा स्वरूप, कैसा रूप? ठीक इसी बिन्दु पर भारतीय संस्कृति की महत्ता स्वयंसिद्ध होने लगती है।
      भारतीय संस्कृति समस्त जड़ ओर समस्त चेतन जगत से तादात्म्य स्थापित करने का तीव्र आग्रह करती है। यही आग्रह आज हम पर्यावरण संतुलन के आग्रह के रूप में देखते हैं, सुनते हैं और उसके लिए चिन्तन-मनन करते हैं। जब पा्रणियों का शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है और ये पंचतत्व वही हैं जिनसे संसार के जड़ तत्वों की भी पृथक-पृथक रचना हुई है, तो जड़ और चेतन के पारस्परिक संबंध अलग कहां हैं? ये दोनों तो घनिष्ठता से परस्पर जुड़े हुए हैं। 
        संस्कृति की ध्वजा को फहराते रहने का दायित्व मानव का है क्योंकि वही धरती पर उपस्थित शेष प्राणियों में सबसे अधिक विचारवान और निर्मितिपूर्ण है। निर्माणकौशल के सतत् विकास ने मानव को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठतर बना दिया है। मनुष्य के निर्माणकौशल ने ही उसे सामाजिक प्राणी बनाया और मिलजुल कर रहने के लाभ को जानना सिखाया। मानव के निर्माणकौशल के विकास ने आज उसे इलेक्ट्राॅनिकयुग तक पहुंचा दिया है और यह विकासयात्रा अभी जारी है। किन्तु इसी विकास ने मानवजीवन में ‘‘मूल्य’’ शब्द के स्वरूप को अर्थतंत्र का अनुगामी बना दिया है। यूं तो ‘‘मूल्य’’ एक मानक है श्रेष्ठता के आकलन का। जिसके लिए अधिक श्रम, अधिक मुद्रा खर्च करनी पड़े, जिसके लिए मानव मन में अधिक ललक हो किन्तु उपलब्धता सीमित हो, वह मूल्यवान है। इसके विपरीत जो सुगमता से, कम मुद्राओं में मिल जाए, जिसकी उपलब्धता भी प्रचुर हो और जिसके प्रति मानव मन में अधिक ललक न हो वह सस्ता कहलाता है। यही परिभाषा बनाई है अर्थशास्त्रियों ने। किन्तु जब बात संसकृति की हो अर्थात् जीवनशैली की हो तो ‘‘मूल्य’’ शब्द का अर्थ असीमित और अपरिमित हो जाता है। संस्कृति बाज़ार की वस्तु नहीं है, उसे खरीदा या बेचा नहीं जा सकता है। संस्कृति तो आचरण है जिसे अपनाया अथवा छोड़ा जा सकता है। जो संस्कृति को अपनाता है वह संस्कारवान होता है और जो संस्कृति का त्याग कर देता है, त्याग से यहां आशय सांस्कृति मूल्यों के त्याग से है। तो, जो संस्कृति को त्याग देता है वह असंस्कारी हो जाता है। 
                 भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी- देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। समयानुसार परिवर्तनों के बाद भी भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में निरन्तरता रही है।
भारतीय संस्कृति वह मार्ग सुझाती है कि वे सांस्कृतिक मूल्य कहां से सीख सकते हैं जो मनावजीवन को मूल्यवान बना दे -
परोपकाराय फलन्ति वृक्षः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदम् शरीरम्।

अर्थात् - वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गाय परोकार के लिए दूध देती हैं अतः अपने शरीर अर्थात् अपने जीवन को भी परोपकार में लगा देना चाहिए।

भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चौ्रासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मां है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे। भारतीय संस्कृति लोक व्यवहार की संस्कृति है जो हमने प्रकृति से सीखी है, इस बात को हमेशा हमें याद रखना चाहिए।  
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Thursday, November 20, 2025

बतकाव बिन्ना की | इत्तो ने भगाओ के ऊपरई पौंच जाओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की          
इत्तो ने भगाओ के ऊपरई पौंच जाओ                             
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

“काय भौजी का हो गओ? आपको मूड ठीक सो नईं दिखा रओ।” मैंने भौजी से पूछी।
“मूड कां से ठीक हुइए मरत-मरत बचे।’’ भौजी ने कई। जेई के संगे लगो के उनके सरीर में मनो फुरूरी सी दौर गई।
“काए का हो गओ? कऊं रपट परीं का?” मैंने भौजी से पूंछी।
“रपटें हमाएं दुस्मन!’’ भौजी भुनभुनात भई बोलीं।
‘‘हो का गओ?’’ मैंने फेर के पूछी।
‘‘अरे का बताएं, एक ठठरी के बंधे से पाला पर गओ। नास मिटे ऊकी।’’ भौजी बोलीं। बे बड़े गुस्से में दिखानीं।
‘‘को आ मिल गओ?’’ मैंने पूछा।
‘‘अरे का बताएं हम बजारे से लौट रए हते सो पांछू से एक मोड़ा सर्र दइयां निकरो औ बाजू से कढ़ गओ। इत्ते नजीक से कढ़ां के हमाए जे दांए बाजू से टकरात भओ गओ।’’ भौजी अपनो बाजू दिखात भईं बोलीं।
‘‘अरे का ज्यादा लग गई?’’ मैंने पूछी। ऊपरे से तो कछू नई दिखा रओ हतो, मनो मुंदी चोट रई हुइए।
‘‘ज्यादा तो नई लगी मनो झटका खा के जी सो घबड़ा गओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई, झटका सो लगत आए।’’ मैंने कई।
‘‘औ का हमने सोई चिल्ला के ऊको बोलों के इत्तो ने भगो के ऊपरई पौंच जाओ। बाकी बो कां सुनबे वालो हतो? बा तो ये जा, बो जा। एक पल में इते तो दूसरई पल में उते। को जाने काए की जल्दी रैत आए इन ओरन खों। अरे, तनक देरी में पौंच जाहो सो कोन ऊं पहाड़ ने टूट परहे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई में भौजी! जेई बात तो मोए समझ नईं परत के ऐसई कोन सी जल्दी रैत आए? मोड़ा हरों को तो एक बाईक भर मिल जाए, बस, फेर बे तो आसमान में उड़न लगत आएं। अभई कछू दिनां पैले मोरे संगे सोई ऐसई भओ रओ। मैं सिविल लेन से लौट रई हती। अपनी स्कूटी पे हती। इत्ते में मोरे पांछू से एक मोड़ा अपनी बाईक को हार्न टिटियांत सो कढ़ गओ। ऊकी स्पीड कओ 120 की रई होय। काय से के ऊकी बाईक सोई स्पोर्ट बाईक हती। बा मोरे बाजू से कढ़ो औ रामधईं ऐसो लगो के कोनऊं झोंका सो चलो होए। न जाने कोन खों दिखाओ चा ऊत आएं अपनी हिरोगिरी? ऐसई में तो बे खुद क ऊं जा के भिड़त आएं औ दूसरों की जान के लाने सोई मुसीबत बनत आएं।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! उने कोई रोकट-टोंकत बी नइयां। जबके अबे चार दिनां पैले तुमाए भैयाजी सौदा लाबे के लाने गए हते औ उन्ने जो अपनी बाईक ठाढ़ी करी सो जेई गलती भई के ऊको पछिलो चका रोड पे रओ। बस, उत्तई में बे पुलिस वारे आए औ उन्ने गाड़ी में तारो डार दओ।’’ भौजी बतान लगीं।
‘‘फेर?’’ मैंने पूछी।
‘‘फेर का? तुमाए भैयाजी ने फाईन भरो औ अपनी गाड़ी से तारो खुलवाओ। मनो जे जो गाड़ी भगाउत फिरत आएं उनके लाने कछू नियम-कायदो नइयां का?’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई में भौजी। अबे एक भौतई बड़ी दुर्घटना भई। का रओ के चार-पांच मोड़ा ग्वालियर से जनमदिन की पार्टी मनाबे खों झांसी पौंचे। देर तक उन्ने पार्टी करी औ फेर बे झांसी से ग्वालियर के लाने लौट परे। अब आजकाल के मोड़ा घर से इत्ती दूर जा के पार्टी करहें सो कछू पी-पुवा लओ हुइए। बाकी अखबार में सार्ह वारे में कछू ने रओ। मनो ापई सोचों के उनकी गार पूरी फुल स्पीड पे रेती की टिराली के नैंचे घुस गई। ऊके झटसे टिराली पलट गई औ पूरी रेत उनईं ओरन के ऊपरे गिरी। बे ओरें उतई दब के मर गए। अब कैबे खों तो उनके घरवारे कैत रए के जा सब ऊ टिराली वारे को दोष रओ, के बा अवैध रेत ढोउत फिर रओ हतो। अब आपई सोचो के जो बा अवैध रेत ढो गी रओ हतो तो बे ओरें से पांछू से घुसे, बा बी 120 की रफ्तार से। अब बोलो के कोन खों दोस दओ जाए?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘दोस तो घुसबेई वारो को कहाओ। बाकी नुकसान तो उनके घरवारों को भओ। जो कोनऊं खों ज्वान-जहान मोड़ा चलो जाए तो ईसे बढ़ के उनके लाने औ का दुख हो सकत आए? जे ऐसे मोड़ा हरें हैं बे अपने बाप-मताई के बारे में बी नईं सोचत आएं। उनके बाप-मताई की उनसे कित्ती उमींदें रैत आएं। कां तो बे सोचत आएं के मोउ़ा बड़ो हो हमाओ सहारा बनहे औ जो मोड़ा बड़ो भओ औ हात में कोनऊं बी गाड़ी आई, सो फेर ऊको रेस करबे से कोऊं ने रोक सकत। फेर चाए सूनी रोड होए, चाए भरी-भराई। ने उने अपनी फिकर, ने दूसरों की फिकर।’’ भौजी बोलीं।
‘‘आप बड़े होबे वारों की कै रईं? आजकाल सो लोहरे-लोहरे लड़का-बच्चा गाड़ियां दौड़ात रैत आएं। अभई दो दिनां पैले की बात आए के मैं राधा तिगड्डा के इते हती। उते बड़ो खतरनाक टिरेफिक रैत आए। मैंने ब्रेक लगाई, काए से सामने से एक चार पहिया चली आ रई हती। इत्ते में एक स्कूटी मोरी स्कूटी औ बा चार पहिया के बी से कढ़ गई। ऊपे चार मोड़िया सवार हतीं। चारों लोहरी हतीं। अबे तो उनको लाईसेंस बी ने बनो हुइए। बा चार पहिया वारो जो तुरतईं ब्रेक ने मारतो तो ऊको टकराबो तै हतो। गलती ऊकी ने होबे पर बी ऊकई कैलाती औ कओ जातो के ऊने मोड़ियन पे गाड़ी चढ़ा दई। जा कोनऊं न देखतो के बे मोड़ियां कम उम्मर की हतीं औ एकऊं ने हेलमेट लौं ने पैहनो तो। को जाने उनके बाप-मताई उने कैसे गाड़ी चलाबे देत आएं?’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘जेई तो बात आए बिन्ना के ने तो बाप-मताई को फिकर आए औ ने खुद मोड़ा-मोड़ियन खों औ ने पुलिस वारन खों। अब तो रोडन पे औ चैराहा पे कैमरे सोई लगे। सबई गाड़ियन की खच्च दीनां फोटू खिंच जात आए। बोई फोटू से गाड़ी के नंबर जांच के उनके बाप-मताई की खबर लई जानी चाइए के बे अपने लोहरे बच्चा हरों खों गाड़ी कैसे चलाउन देत आएं?’’ भौजी बोलीं।
‘‘सांची कै रई आप। ऐसोई होन चाइए। जब तक लौं कानून ने कसो जैहे तब तक लौं जे मोड़ा-मोड़ी ऐसई गाडी भगात रैहें।’’ मैंने कई।
‘‘औ का हो रओ? तुम ओरे का बतकाव कर रईं?’’ भैयाजी घर में घुसत भए बोले। बे कऊं कोनऊं से मिलबे के लाने गए रए।
‘‘कछू नईं हम ओरें जे गाड़ियां दौड़ाबे वारे मोड़ा-मोड़ियन की कै रए हते।’’ मैंने कई।
‘‘सुनो! आज एक मोड़ा ने हमाए बाजू में धक्का मार दओ। बा हमाए बाजू से ऐसो फर्राटे से कढ़ो के हमाए बाजू में धक्का लग गओ।’’ भौजीे ने अपनो बाजू दिखात भई भैयाजी खों बताई।
‘‘को आ हतो? तुमने उतई ऊको थपड़िया नईं दओ? सकल सुदर जाती।’’ भैयाजी बोले।
‘‘थपड़ियाबे की तो तब हो पाती जब बो ठैरतो। बा तो पलक झपकत में फुर्र हो गओ, ने तो हम ऊकी खपड़िया तोड़ देते।’’ भौजी भुनभुनात भई बोलीं।
‘‘जेई तो सल्ल आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘चलो छोड़ो, आप बताओ आपके भनेज मिले के नईं?’’ भौजी भैयाजी से पूछन लगीं।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के रोडन पे चलबो सेफ कैसे हो सकत आए?
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