Tuesday, October 14, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ”
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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(बुन्देली काव्य संग्रह)  - ई कुदाऊँ हेरौ
कवयित्री   - डॉ. प्रेमलता नीलम
प्रकाशक  - भव्या पब्लिकेशन
एल. जी. 42, लोअर ग्राउण्ड, करतार आर्केड, रायसेन रोड भोपाल, मध्यप्रदेश- 462023
मूल्य    - 300/-
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खंचत हारी, घुँघटा खेंचत नयना
जे दोऊ हैं अनारी
इन नयनों से बचकें रइयो,
रामधई देखत चढ़त तिजारी ।
भाल पै बिंदिया चम-चमके कानन करनफूल दम-दमके,
ठुसी, तिदानें, हमेल लटकें
करधनी पैरें, झूलन झूलाबारी।
  “ई कुदाउँ हेरौ” बुंदेली कविता की यह पंक्तियां बुंदेलखंड की रससिक्कतता की परिचायक हैं।  “ई कुदाउँ हेरौ” का अर्थ है इस तरफ देखो। एक स्त्री जब पूरा साज श्रृंगार कर लेती है तो उसके बाद वह चाहती है कि उसका प्रिय उसे जी भर कर देखें, उसके सौंदर्य की, उसके साज- सज्जा की प्रशंसा करें । यही भाव इस कविता में है जिसकी कवयित्री हैं डॉ. प्रेमलता नीलम। बुंदेलखंड में बुंदेली में लिखने वालों में एक चिरपरिचित नाम है डॉ प्रेमलता नीलम का। उनका नाम मंचों पर सम्मान सहित जाना जाता है। बुंदेली भूमि में जन्मी डॉ नीलम बुंदेली संस्कृति में रची बसी हैं। उन्होंने बुंदेली संस्कृति पर काफी सृजन किया है। उनकी यह कृति “ई कुदाउँ हेरौ” तेरहवीं कृति है।
        “ई कुदाउँ हेरौ” में संग्रहीत सभी काव्य रचनाओं को उनकी भाव भूमि के अनुसार चार खंड में विभक्त किया गया है। प्रथम खण्ड है देववंदना। इसमें सभी देव वंदनाएं रखी गई हैं। जैसे- गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, मझ्या दुरगा वन्दना, शिव आराधना, दूल्हा देव हरदौल तथा मातु पारवती अराधना (तीजा)।
             दूसरे खण्ड में “हमाऔ बुन्देलखण्ड” शीर्षक से जो रचनाएं संग्रहीत हैं उनमें बुंदेलखंड की विशेषताएं सहेजी गई है जैसे बुंदेलखंड के वीर नर- नारी तथा ग्रामीण अंचल की विशेषताएं आदि। इस खंड की कविताओं के शीर्षक देखिए जिनसे इसका कलेवर स्पष्ट हो जाएगा- मोरौ प्यारौ बुन्देलखण्ड,
रानी दुर्गावती, देवी दुर्गा अवतार, सुभद्रा कुमारी चौहान, बुन्देलखण्ड की वीरांगना, लक्ष्मी बाई, राजा वीर छत्रसाल, आल्हा ऊदल, हमाओ पियारो, हमाये गाँव,, भारत-माता, तिरंगी चुनरिया, हिलमिल रइयो, गाँव की सुद आऊत तथा रसवंती बोली बुन्देली।
        सुभद्रा कुमारी चौहान का स्मरण करते हुए, उन्हें अपना अपनत्व पूर्ण जिज्जी का संबोधन देते हुए डॉ नीलम ने ये पंक्तियां लिखी हैं-
जिज्जी बुंदेलखंड की भौतऊ नौनी शान, कवयित्री सुभद्रा कुमारी जूं चौहान
बुंदेलखंड के भइया बिन्नू हरों कौ,
भौतऊ नौनौ बढ़ाऔ है उनने मान,
जिज्जी जूं खौं बारम्बार प्रनाम ।

        तीसरे खण्ड में ऋतु संबंधी कविताएं हैं। जैसे- मन-बसंत, दुपरिया, सदसौ, उरेती की बूँदन, रिमझिम फुहार, वन - बसंत, बासंती - बयार, होरी के रंग, बीत हैं फिर दिन तपन के, स्यामा सांवरे घन साँवरे, घामौ, बैरन बदरिया, मनमीत, होरी के ढंग, परि पात, नजरिया, बाबरे, बदरा, मौसम आओ, आसा, फिर आई , होरी, सरद-रात, शीत लहर, कछु पतों नई, श्याम रंग, ठिठोली, कलुआ, गाँव में उमरिया, बदरिया - थम जा घनश्याम।
      तपते हुए जेठ मास की स्थिति का वर्णन करते हुए कवयित्री ने लिखा है- कछु पतों नई
कबे निकरो जेठ मास,
कबे आओ अषाढ़ मास
कछु पतौ नई चलौ ।
पहार सो दिन कड़ गओ,
कबे ऊं सूरज डूब गओ 
गइयन की ने डारी घांस
कछु पतौ नई चलौ ।
         चतुर्थ खण्ड में प्रेमानुरागी कविताएं हैं जैसे-  हिरदय बसिया, ई कुदाउँ हेरौ, खुनखुना, हँसन तुमाई, बिरथा उछाह, दुलार, जगो भोर भई, गुगुदी सी, गुइंयाँ, मनुआँ, सखी री, वीरन वेगिं अइयो, बैठ सकूटर पै, गुइयाँ पढ़बे चलो,-सुधियाँ, छिया-छियौऊअल, पिया अंगना, जीवन को उजियारो, मामुलिया, प्रेम, चलती बिरियाँ, पीरा, लोरी, उठो धना, भरत नैन मतारी, लौ लइयों, प्रीत अपुन की,  हिय के जियरा, सुद्ध बैहर, हरे मोरे राम जू, पुरखों की बगिया, कुंजन वन सी, नोने बुन्देली व्यंजन,  जीवन नइया, मन के तार, सुद्ध पानूँ,  नइयाँ पिया घरै, आऊँने पर है, कोयलिया कारी, बातन को धांसू तथा मन की पीर।
     इस खंड में एक बहुत छोटी सी किंतु बहुत महत्वपूर्ण रचना है “बैठ सकूटर पै” जिसमें दिखावा पसंद युवा पीढ़ी पर कटाक्ष किया गया है-
इन लरकन ने सबरी पूँजी
फैसन में गवांई
कै सुनो मोरे भाई..........
जुल्फे पारें छल्लादार कुरती ओछी चुन्नटदार समझ नै आवें नर कै नार
रंगी भौहें, मूंछो की कर दई सफाई..

डॉ प्रेमलता नीलम की रचनात्मकता के संबंध में भूमिका लिखते हुए डॉ श्यामसुंदर दुबे जी ने उचित लिखा है कि “बुन्देली की परंपरागत लोक कविता और आधुनिक कवियों द्वारा रचित कविताओं में वह राग-विराग-निष्ठा विधमान है। 'ई कुदाउँ हेरौ' बुंदेली काव्य रचनाओं का संकलन है। यह सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. प्रेमलता नीलम द्वारा रचित है। बुन्देली भावों का इंद्रधनुषी उजास इस संकलन को मनोरम्य बनाती है।”
       इसी प्रकार संग्रह की रचनाओं के प्रति अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए महेश सक्सेना ने लिखा है- "ई कुदाउँ हेरौ- बुन्देली काव्य संग्रह में गीत प्रस्तुत है जिनमें रागात्मकता और लालित्य है। गीतों की सरंचना में लोकजीवन बिम्व और प्रतीकों का चयन किया गया है। डॉ. नीलम के बुन्देली गीतों में गेय तत्व की प्रधानता है। बुन्देलखण्ड की अनोखी छटा इस पुस्तक में समाहित है। यह रचनायें लोक जीवन में प्रचलित धुनों पर गायकों द्वारा गायी जाएंगीं। "ई कुदाउँ हेरौ" पुस्तक में वीर पुरुष छत्रसाल, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, आल्हा ऊदल, लोक देवता हरदौल तथा प्रकृति से जुड़े मौसमी भावविचार श्रृंगार की छटा दृष्टिगोचर होती है। इन रचनाओं में पाठकों के मन में हर्षोल्लास जागृत होता है।”
     किसी भी बोली का विकास एवं संरक्षण तभी संभव है जब उस बोली में अधिक से अधिक साहित्य सृजन किया जाए ताकि वह बोली कविता, कहानी, कहावतों आदि के रूप में जन-जन तक पहुंचे। “ई कुदाउँ हेरौ” डॉ प्रेमलता नीलम की एक ऐसी काव्य कृति है जो बुंदेली काव्यात्मकता से तो जोड़ती ही है साथ ही बुंदेली संस्कृति एवं जीवन से भी जोड़ने का कार्य करती है। इस संग्रह की कविताएं बुंदेली जीवन से भली-भांति परिचित कराने में सक्षम है तथा इनका माधुर्य लोक जीवन को हृदय में सहज ही उतार देता है। चूंकि डॉ प्रेमलता नीलम बुंदेलखंड के दमोह शहर की निवासी हैं उनकी बुंदेली में दमोह अंचल की छाप है। हर बोली कि यह विशेषता होती है कि वह हर 100 कोस में कुछ न कुछ भाषाई परिवर्तन सहेज लेती है, देखा जाए तो यही बोली का लालित्य होता है। डॉ नीलम की लालित्यपूर्ण काव्य रचनाओं का यह बुंदेली काव्य संग्रह पठनीय एवं रोचक है। दरअसल, बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” अर्थात जरा बुंदेली संस्कृति की ओर देखो।
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Friday, October 10, 2025

शून्यकाल | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
         जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक है। परिवर्तन गतिशीलता का द्योतक होता है लेकिन स्वस्थ परंपराओं में परिवर्तन क्षेत्र की जातीय पहचान को संकट में डाल देता है। युवा पीढ़ी ऐसे कई पारंपरिक त्योहारों से दूर होती जा रही है जिनका जीवन, पर्यावरण और संस्कारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज मोबाइल संस्कृत में त्यौहार की परंपराओं पर बाजार का प्रभाव गहरा दिया है। जिससे त्यौहार की मौलिकता खत्म होती जा रही है, बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है।

    बुंदेलखंड में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हें बड़े-बूढ़े, औरत, बच्चे सभी मिलकर मनाते हैं। लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ बेटियां ही मनाती हैं, विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं। ऐसा ही एक त्यौहार है मामुलिया। बड़ा ही रोचक, बड़ा ही लुभावना है यह त्यौहार। यह जहां एक और बुंदेली संस्कृति को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर भोली भाली कन्याओं के मन के उत्साह को प्रकट करता है। दरअसल मामुलिया बुंदेली संस्कृति का एक उत्सवी-प्रतीक है। आज के दौड़-धूप के जीवन में जब बेटियां पढ़ाई और अपने भविष्य को संवारने के प्रति पूर्ण रूप से जुटी रहती है उनसे कहीं सांस्कृतिक लोक परंपराएं छूटती जा रही है मामुलिया का भी चलन घटना स्वाभाविक है। आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया। यूं तो मामुलिया मुख्य रूप से क्वांर मास में मनाया जाता है। इस त्यौहार में अलग-अलग दिन किसी एक के घर मामुलिया सजाई जाती है। जिसके घर मामुलिया सजाई जाने होती है, वह बालिका अन्य बालिकाओं को अपने घर निमंत्रण देती है। सभी बालिकाओं के इकट्ठे हो जाने के बाद वे बबूल या बेर के कांटों में रंग-बिरंगे फूल लगा कर उसे सजातीं हैं। यही सजी हुई शाख मामुलिया कहलाती है। मामुलिया को सजाने के बाद भुने चने, ज्वार की लाई, केला, खीरा आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके बाद बालिकाएं हाथों में हाथ डालकर मामुलिया के चारों ओर घूमती हुई गाती है-‘‘झमक चली मोरी मामुलिया....’’। इस प्रकार गांव भर में घूमती हुई बालिकाएं नदी अथवा तालाब के किनारे पहुंचती हैं। वे मामुलिया को नदी या तालाब में सिरा देती हैं। मामुलिया सिरा कर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखने से भूत लग जाता है। घर लौटने पर वह बालिका जिसके घर मामुलिया सजाई गई थी, शेष बालिकाओं को भीगे चने का न्योता देती है। मामुलिया बेटियों के पारस्परिक बहनापे का भी त्यौहार है। इस त्यौहार में बड़ों का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है अतः इससे बेटियों में सब कुछ खुद करने का आत्मविश्वास और कौशल बढ़ता है। इस प्रकार के त्यौहारों को उत्सवी आयोजन के रूप में मनाते हुए बचाया जा सकता है। जैसे दिसम्बर 2012 में झांसी महोत्सव में भी मामुलिया सजाने की प्रतियोगिता करा कर बेटियों को मामुलिया के बारे में जानकारी दी गई थी। इसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को हमीरपुर आदिवासी डेरा में ‘बेटी क्लब’ द्वारा लोक परंपरा का खेल मामुलिया और सुअटा खेला गया।  इसका संरक्षण आवश्यक है। क्योंकि यह परंपरा बेटियों के सम्मान के लिए बनाई गई है। ग्राम बसारी, हटा आदि लोकोसत्वों में भी मामुलिया जैसी परम्पराओं पर ध्यान दिया जाता है किन्तु जरूरी है शहरी जीवन को इन रोचक परम्पराओं से जोड़ना।

दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चौक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया।  बाद में भी वे दीपावली पर पूछा करती थीं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।

दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के  चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।
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Thursday, October 9, 2025

चर्चा प्लस | क्या उनकी आत्मा उन्हें कभी धिक्कारती नहीं? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 08.10.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस               
क्या उनकी आत्मा उन्हें कभी धिक्कारती नहीं?   
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
     उन बच्चों को खांसी आ रही थी। मां-बाप ने दवा समझ कर जो कफ सिरप उन्हें पिलाया वह ज़हर निकला। खांसते, तड़पते बच्चे मौत की नींद सो गए। बच्चों की खांसी खतम नहीं हुई बल्कि उनकी किडनी गलने लगी। बाज़ार जागता रहा। नफ़े की दरिया बहती रही। मां-बाप के सपने उसमें डूबते रहे। यदि बात मीडिया तक नहीं पहुंची होती तो मौत का बाज़ार यूं ही गर्म रहता। सिरप लिखने वाले डाक्टर पकड़े गए। सिरप बेचने वाले दूकानदार पकड़े गए। मगर उनका क्या जिन्होंने ऐसे सिरप बनाए और उनका क्या जिन्होंने क्वालिटी टेस्ट में बेझिझक ‘‘ओके’’ सर्टीफिकेट दे दिया। वे ड्रग इंस्पेक्टर, ड्रग अधिकारी और उनको बचाने वाले उनके आका, उन सबको चैन की नींद कैसे आती होगी? क्या उनकी आत्मा उन्हें कभी धिक्कारती नहीं?  

राजस्थान और मध्य प्रदेश में कफ सिरप पीने से कई बच्चों की मौत हो गई और कई बच्चे गंभीर रूप से बीमार हैं। इसके बावजूद, राजस्थान की सरकार मानने को ही तैयार हुई कि बच्चों की मौत कफ सिरप पीने से हुई है। कफ सिरप में गड़बड़ी के चलते 2019 में जम्मू-कश्मीर में 19 बच्चों की मौत हो गई थी। साथ ही, गांबिया और उज्बेकिस्तान में भी कई बच्चों की मौत हुई थी। तब भी जांच में गड़बड़ी पाई गई थी, लेकिन प्रदेशिक सरकारें इन मौतों पर पर्दा डालने का पूरा प्रयास करती रही, जब तक कि मीडिया सजग नहीं हो गया। 
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में कफ सिरप पीने से 11 बच्चों की मौत के बाद राज्य सरकार ने सख्त कदम उठाए। सिरप का सुझाव देने वाले डॉक्टर और सिरप निर्माता कंपनी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। डॉ. प्रवीण सोनी को गिरफ्तार कर लिया गया। तमिलनाडु की दवा निर्माता कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के खिलाफ मामला दर्ज होने के बाद, विशेष जांच दल-एसआईटी तमिलनाडु में मामले की जांच करेगा। इस बीच, जारी एक रिपोर्ट में कोल्ड्रिफ सिरप में हानिकारक डायएथिलीन ग्लाइकॉल की मात्रा 48 दशमलव 6 प्रतिशत पाई गई है। बीते एक महीने में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में 11 और राजस्थान में तीन बच्चों की मौत के बाद दोनों राज्यों में बाल स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं। इन बच्चों के परिवार का कहना है कि कफ सिरप पीने के बाद बच्चों का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ा और उन्हें बचाया नहीं जा सका। मध्य प्रदेश ड्रग कंट्रोल विभाग ने शनिवार सुबह तमिलनाडु में बनने वाली कोल्ड्रिफ कफ सिरप पर प्रतिबंध लगा दिया था। वहीं पुलिस ने सरकारी डॉक्टर प्रवीण सोनी, कफ सिरप बनाने वाली कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के संचालकों और अन्य लोगों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की गई। यह कार्रवाई 5 अक्तूबर को परासिया ब्लॉक के चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर अंकित सहलाम की शिकायत पर हुई।
कोल्ड्रिफ कफ सिरप पीने से शिशुओं और बच्चों की मौत का मामला बढ़ता ही गया। मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस सिरप को पीने से कई बच्चों ने अपनी जान गंवा दीं। मासूमों के माता-पिता गहरे सदमें में हैं। उनके लिए यह विश्वास करना कठिन है कि जिसे वे अमृत समझ कर अपने बच्चों को पिला रहे थे, वह घोर हलाहल विष था। इस सिलसिले में बैतूल के कलमेश्वरा गांव के कैलाश यादव के बच्चे की मौत भी 8 सितम्बर को हुई थी। कैलाश अपने 3 साल 11 माह के बेटे कबीर की सर्दी खांसी होने पर छिंदवाड़ा के परासिया के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ प्रवीण सोनी के पास 24 अगस्त को इलाज के लिए ले गए थे। डाक्टर ने उसे सर्दी खांसी के कोल्ड्रिफ सिरप सहित अन्य दवाएं लिखी थी। इन दवाइयों के उपयोग के बाद बच्चे की तबीयत और बिगड़ गई। इसके बाद उसका तीन अस्पतालों में इलाज कराया गया लेकिन 8 सितम्बर को मौत हो गई। कैलाश यादव ने हर संभव प्रयास किया कि उसका बेटा बच जाए। डॉ प्रवीण सोनी के द्वारा कोल्ड्रिफ सिरप लिखे और पिलाए जाने के बाद बच्चे की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। तब उसे दूसरे क्लिनिक में भेजा गया। दूसरे क्लिनिक वाले ने बताया कि बच्चे की किडनी धीरे-धीरे खराब हो रही है। इसके बाद उसका इलाज चार अस्पतालों में कराया लेकिन कैलाश अपने बेटे को बचा नहीं सके। उन्हें बेटे के इलाज के लिए अपनी जमीन भी गिरवी रखनी पड़ी। उनके हजारों रुपए खर्च हो गए। कैलाश यादव के अनुसार कुल मिलकर साढ़े चार लाख का खर्च आया, फिर भी बेटा बच नहीं सका। वह उनका अकेला बेटा था। एक बाप के लिए इससे बढ़कर कष्टप्रद और क्या हो सकता है कि उसे अपने बेटे को तिल-तिल कर के मरते हुए देखना पड़े। कैलाश यादव ने जांच टीम को कोल्ड्रिफ सीरप की शीशी सौंपी जिसमे थोड़ी सी दवाई बची थी। इसके अलावा दो अन्य दवाओं की शीशी भी उन्होंने दी जिसको लैब भेजा गया है। यह एक बाप की व्यथा-कथा है जबकि सिरप के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या डेढ़ दर्जन से अधिक है।  
अमानवीयता की हद ये कि मध्यप्रदेश में 16 बच्चों की जान लेने वाला कोल्ड्रिफ सिरप किसी दवा फैक्ट्री में नहीं, बल्कि एक जहरघर में बना था जहां घरेलू गैस चूल्हों पर केमिकल उबाले जा रहे थे। प्लास्टिक पाइपों से जहरीला तरल टपक रहा था और बिना दस्ताने, बिना मास्क के मजदूर मौत का सिरप घोल रहे थे। जंग लगे उपकरण, गंदगी, खुली नालियां, दीवारों पर फफूंदी, कोई एयर फिल्टर नहीं, कोई लैब नहीं, कोई सुरक्षा सिस्टम नहीं। जांचकर्ताओं ने 39 गंभीर और 325 बड़ी खामियां दर्ज कीं। जांच में खुलासा हुआ कि कांचीपुरम की श्रीसन फार्मास्यूटिकल्स ने इस सिरप को बनाने के लिए इंडस्ट्रियल ग्रेड केमिकल चेन्नई के स्थानीय डीलरों से नकद और जीपे से खरीदे, वो भी बिना किसी जांच या अनुमति के। यानि सिरप में इस्तेमाल होने वाले अहम रासायनिक तत्व प्रोपाइलीन ग्लाइकॉल को किसी प्रमाणित दवा सप्लायर से नहीं बल्कि पेंट और केमिकल व्यापारियों से लिया था, वो भी बिना किसी परीक्षण के। यह कैसे संभव हो पाया? उस समय वे सारे जांचकर्ता कहां थे जिनकी जिम्मेदारी किसी भी दवा के निर्माण प्रक्रिया पर ध्यान रखने की है? दरअसल लाइसेंसधारी दवा निर्माता इंडस्ट्रियल केमिकल से बच्चों की दवा बना रहे थे और देश का नियामक तंत्र बस तमाशा देख रहा था। जांच विशेषज्ञों के अनुसार इस सिरप में पाया गया 48.6 प्रतिशत डाइएथिलीन ग्लाइकॉल वही रासायनिक जहर है जो पेंट और एंटीफ्रीज में इस्तेमाल होता है। यही जहर बच्चों की दवा बनकर उनके गले से नीचे उतरा और सीधे किडनी फेल कर गया। इलाज के नाम पर दी गई इस दवा ने 16 मासूमों की सांसें छीन लीं। तमिलनाडु ड्रग्स कंट्रोल डायरेक्टरेट की 3 अक्टूबर 2025 की जांच रिपोर्ट में बताया गया कि कोल्ड्रिफ सिरप में 48.6 फीसदी डाइएथिलीन ग्लाइकॉल मिला था वही इंडस्ट्रियल सॉल्वेंट जो पेंट और एंटीफ्रीज में इस्तेमाल होता है। यही जहरीला सिरप छिंदवाड़ा में बुखार और खांसी से पीड़ित बच्चों को दिया गया, जो इलाज नहीं बल्कि मौत का फरमान साबित हुआ।
1 और 2 अक्टूबर को जब देश में नवमीं और दशहरा मनाया जा रहा था तब फैक्ट््री पर छापा मार का भयावह सच का सामना किया जा रहा था। क्या इसके लिए सिर्फ दवा कंपनी जिम्मेदार है? क्या सिर्फ डाक्टर जिम्मेदार हैं? या वह पूरा तंत्र जिम्मेदार है जो ऐसे घातक निर्माण के प्रति आंखे मूंदे बैठा रहता है। सारा मामला प्रकाश में आने के बाद जितना शोर मीडिया ने मचाया और अदालत ने संज्ञान में लिया उतना न तो आम जनता ने इसे गंभीरता से लिया और न राजनीतिज्ञों ने। त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में कहीं कोई कैंडल मार्च नहीं हुआ और ना ही आमजन की ओर से बड़ी प्रतिक्रिया सामने आई। अभी भी न जाने कितने मानक नियमों का उल्लंघन करते हुए जीवन से खिलवाड़ कर रहे होंगे किन्तु स्वार्थ एवं चेतनाहीनता की पराकाष्ठा ने आंखों पर पर्दा डाल रखा है।
हाल ही में शरद पूर्णिमा के अवसर पर मिठाइयों में काम आने वाला मावा कई स्थानों पर बिकता हुआ अमानक स्तर का ही नहीं वरन जहरीले स्तर का पाया गया। जहर के सौदागरों का ऐसा साहस कैसे हो जाता है? स्पष्ट है कि लम्बी कानून प्रक्रिया और अपने आकाओं का भरोसा उन्हें दुस्साहसी बनाए रखता है और वे दूसरों के स्वास्थ्य एवं जान से खिलवाड़ करते रहते हैं।
निठारी कांड को हो सकता है कि कई लोगों ने भुला दिया हो किन्तु जिन लोगों ने नहींे भुलाया आज भी उन्हें उन मासूम बच्चों की सिसकियां परेशान करती होंगी। लेकिन शायद बच्चों के जीवन से खेलने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे शायद चैन की कहरी नींद सोते होंगे। वरना ऐसा जघन्य अपराध करने से पहले वे सौ बार सोचते। उस प्रशासन तंत्र को भी सोचना चाहिए कि मासूम बच्चों की मौत पर खड़े किए गए भविष्य के महल कभी टिक नहींे पाते हैं, वे एक दिन भरभरा कर ढह जाते हैं। अफसोस कि इससे पहले वे दर्जनों मासूमों से उनके जीवन का अधिकार छीन चुके होते हैं। मासूम बच्चों के माता-पिता के सुनहरे सपनों को रौंद चुके होते हैं। क्या ऐसे लोगों को जो मासूम बच्चों की मौत के जिम्मेदार हैं उन्हें फांसी नहीं तो कम से कम आजन्म कारावास जैसा कठोर दण्ड तो मिलना ही चाहिए। दण्ड की एक मिसाल जरूरी है इस तरह के बाकी अपराधियों को सबक सिखाने के लिए। वरना ऐसे अपराधी अपराध कर के भी चैन की नींद सोते रहेंगे और अभागे मां-बाप अपनी संतानों को असमय खो कर पीड़ा के साथ जीवन भर जागते रहेंगे। आमजन और प्रशासन दोनों को अपनी सजगता का परिचय देने की जरूरत है यदि वे अपनी भावी पीढ़ी को सुरक्षित देखना चाहते हैं तो। 
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Tuesday, October 7, 2025

पुस्तक समीक्षा | पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा  
पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - दोहा मंजूषा
कवयित्री     - पुष्पा चिले
प्रकाशक -. जवाहर पुस्तकालय, हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक,मथुरा, उ.प्र.
मूल्य      - 200/-
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  हिन्दी काव्य में दोहा सबसे अधिक प्रचलित विधा रही है। दो पंक्तियों में सब कुछ कह देने की कला, छांदासिकता एवं स्मरणीय रहने की क्षमता ने सृजनकर्ताओं को सदैव इस विधा की ओर आकर्षित किया है। दोहे गागार में सागर भरने की कला रखते हैं। दोहों के संबंध में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखत में छोटे लगें,  घाव करें गंभीर।।

मध्यप्रदेश के दमोह शहर की प्रतिष्ठित रचनाकार पुष्पा चिले के उपन्यास, कहानियां, कविता संग्रह आदि प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु इस बार उनका दोहा संग्रह प्रकाशित हो कर पाठकों के समक्ष आया है। दोहा संग्रह का नाम है-‘‘दोहा मंजूषा’’। संग्रह की भूमिका डॉ. एस. पी. पचौरी सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड वि. वि. छतरपुर म. प्र. ने लिखी है। उन्होंने पुष्पा चिले के दोहों पर प्रकाश डालते हुए लिखा हैं कि ‘‘इनके द्वारा सृजित 1021 दोहों वाली इस कृति में प्रायः सभी पहलुओं यथा-सामाजिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, राष्ट्रीय तथा लौकिक जीवन के मर्मस्पर्शी उद्धरण एवं संवाद समायोजित हैं। पुराणों से लेकर आत्मज्ञान की बातें जो बुजुर्गों द्वारा कही, सुनाई जाती हैं, इनके दोहों की बुनियादें हैं। इनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि श्रीमती चिले को समाज की तथा उसमें रहने वाली पीढ़ी-दर-पीढ़ी की विशेष चिंता है। इसीके वशीभूत वह अपने दोहों के मार्फत लोगों को न केवल दिशा निर्देश देती प्रतीत हैं, बल्कि उन्हें समाज और जीवन के प्रायोगिक धरातल पर खरा उतरने के प्रति सचेत करती हुई ऐसे-ऐसे नुक्खे प्रदान करती दृष्टिगोचर होतीं हैं, जिससे वह जीवन में न केवल सफलता के सोपान अर्जित करें, बल्कि मानवतावादी सांचे में ढलकर ऐसा जीवन व्यतीत करे, जिससे समाज भी आलोकित हो सके। प्रकारांतर से रचना का यही उद्देश्य प्रतीत होता है। इसी क्रम में राधाकृष्ण, गोपियों के संवाद, देशप्रेम की भावना, स्वर्णिम भारत भूमि, महाराणा प्रताप, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महारानी पद्मावती का शौर्य पराक्रम, उनका बलिदान आदि की अमर मार्मिक गाथाओं को दोहावली में संजोया गया है। भारत की समृद्ध परम्परायें, वासंती हवायें, पवित्र पावन गंगा, मातृभाषा हिंदी, गौरवशाली भारत का संविधान, भारतीय सेना के रणबांकुरे, पराक्रमी जवानों आदि सभी का आदर सम्मान करते हुए कवयित्री ने अपनी सृजन यात्रा में प्रेरणास्पद अंशों को समाहित करते हुए रचना को जीवंत बनाने का हर संभव प्रयास किया है।’’

पुप्पा चिले ने अपने दोहों में वर्तमान जीवनमूल्यों पर गहन दृष्टि डाली है। वे जीवन के हर पक्ष का आकलन करती हैं। यूं भी धर्म, चिन्तन एवं दर्शन का भारतीय मानस में बहुत अधिक महत्व है। स्वयं को नास्तिक कहने वाला व्यक्ति भी कभी न कभी ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास करने लगता है अथवा निरुत्तर रह जाता है। अतः ईश्वरीय सत्ता के मानवीय रूप से दोहा संग्रह का आरम्भ कवयित्री ने किया है जिसमें उन्होंने श्रीराम के श्रीसीता से प्रथम भेंट के प्रसंग को चुना है-
पुष्प वाटिका में हुआ, प्रथम सिया का दर्ष। 
हृदय भरा रघुनाथ के, अनिवर्चनीय हर्ष ।।
अमर हो गयी वाटिका, जहाँ रहीं जगदम्ब । 
दुखी हो रही जानकी, प्रभु आओ अवलम्ब ।।

जीवन में सब कुछ सुखद रहे, यह संभव नहीं है। जैसे दिन के बाद रात आती है, प्रकाश के साथ अंधकार का अस्तित्व बनता चलता है उसी प्रकार सुख के साथ दुख की घड़ियां भी नेपथ्य में आकार लेने लगती हैं तथा समय आने पर वे प्रकट हो जाती हैं। यही हुआ श्रीराम एवं श्रीसीता के जीवन में भी। एक वाटिका में दोनों ने परस्पर प्रथम दरस पाए थे और कुछ अंतराल बाद जब शोकचक्र चला तो दूसरी वाटिका में सीता को राम के स्मरण में अश्रु बहाते हुए दिन व्यतीत करने पड़े। इस प्रसंग को कवयित्री ने कुछ इस प्रकार लिखा है-
शोक वाटिका में सिया, हर पल जपतीं राम । 
शोक संतप्त अशोक भी, जपता प्रभु का नाम ।।

कवयित्री पुप्पा चिले भारतीय दर्शन के उस पक्ष को भी साथ ले कर चली हैं जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया है तथा अहंकार मुक्त जीवन जीने का मार्ग सुझाया है- 
गीता में श्रीकृष्ण ने, दिया वास्तविक ज्ञान। 
प्रभु से सुनकर पार्थ को, हुआ सत्य का भान।।
रथ के पहिये को उठा, किया कृष्ण ने वार। 
विजय सत्य की हो गयी, अंहकार गया हार।।
जीवन रथ को ले चलो, अब तो प्रभु के धाम। 
संघर्षों ने  थका दिया,  वहीं मिले आराम।।
सप्त रश्मियों से सजे, रथ में नित आदित्य । 
धरा प्रकाशित कर रहे, तिमिर हटायें नित्य ।।

कवयित्री जीवन इमें आने वाले उतार- चढ़ाव से न घबराने का भी आह्वान करती हैं। परिस्थितियां चाहे कितनी भी विपरीत क्यों न हों, व्यक्ति यदि आत्मविश्वास बनाए रखे तो वह कीचड़ में कमल के समान खिल कर अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। दोहा देखिए-
कीचड़ में खिलकर हमें,पंकज देता ज्ञान । 
जग में रहकर भी रहें, हम भी कमल समान।।
यदि शुचिता उर में बसे, सदा रहें हरी संग। 
सारा जग सुन्दर लगे, झरती रहे उमंग।।
प्रगति के सोपानों पर, बाधा के प्रतिकूल। 
बिना रुके बढते रहें, मिले शिखर अनुकूल ।।
जीवन पथ में तितिक्षा, आती है बहु काम। 
यही जीत का रास्ता, मंजिल का पैगाम ।।

ऐसा नहीं है कि कवयित्री पुष्पा चिले दर्शन पर ही ध्यान दे रही हों, उनका ध्यान उस ओर भी है जहां भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वे राजनीति में आती जा रही निर्लज्जता से क्षुब्ध हैं। नेताओं एवं अधिकारियों की मिलीभगत भी उनकी दृष्टि से छिपी नहीं हैं। जिन लोगों को जनता के हित पर ध्यान देना चाहिए, वे ही जनता को लूट रहे हैं, कवयित्री ने इस दशा पर तीखा कटाक्ष किया है-
नेता हैं निर्लज्ज वे, वादे करें अनेक। 
जेबें अपनी भर रहे, झूठी बातें फेंक ।।
भ्रष्टाचार को देखके, क्षुब्ध हो रहे लोग। 
नेता, अधिकारी सबै, भाये वैभव रोग ।।
नेताओं को सुध नहीं, जनता है बेहाल। 
जनता को ही लूटके, हो गय मालामाल।।

इसी के साथ वे नेताओं से अपेक्षा करती हैं कि उन्हें अपने कर्तव्यों को याद रखना चाहिए तथा भ्रष्टाचार में लिप्त न होते हुए जनहित में काम करना चाहिए-
नेताओं से अपेक्षा, करें सुनीति विचार। 
जनहित के कल्याण का, रहे प्रथम आधार।।

कवयित्री ने वर्तमान समाज में आती जा रही असंवेदनशीलता को भी रेखांकित किया है। एक समय था जब श्रवण कुमार जैसे पंत्र ने अपने माता-पिता को अपने कंधे पर रखे कांवर में बिठा कर तीर्थयात्रा कराई थी किन्तु आज के पुत्र अपने माता-पिता की अवहेलना के प्रतिदिन नए उदाहरण प्रस्तुत करते रहते हैं। स्थिति अब यहां तक आ गई है कि वे अपने असहाय माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम तलाशने लगते हैं- 
वृद्ध अवस्था में हुये, मात-पिता असहाय । 
पुत्रवधु अब दे रही, चुप रहने की राय ।।
जीवित हैं बस नाम को, रिश्तों के संबंध। 
अब तो केवल स्वार्थ से, ही बनते अनुबंध ।।
अपने वृद्धजन की अवहेलना करने वाले लोग जब उनकी मृत्यु पर दिखावे का आडंबर रचते हैं तो वह बड़ा विद्रूप लगता है। इस दशा पर कटाक्ष करते हुए पुष्पा चिले ने लिखा है-
जीते पानी ना दिया, मरे खिलायें खीर। 
फिर भी अशीष दे रहे, पितर बहाकर नीर।।

पुष्पा जी उन लोगों को नराधम कहती हैं जो आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। मानव हो कर मानव के विरुद्ध विध्वंस नराधमता का ही तो उदाहरण है-
आतंकी मानव नहीं, राक्षस से भी नीच। 
विध्वंशी वृत्ती इनकी, विष हैं मानव बीच।।

कवयित्री पुष्पा चिले ने जहां अपने दोहे में उत्तराखंड के जोशीमठ का उल्लेख करते हुए पर्यावरण के प्रति सचेत किया है, वहीं उन्होंने कोरोना महामारी की आपदा पर भी कलम चलाई है। देखा जाए तो पुष्पा चिले के दोहों में जीवन की समग्रता मिलती है। पुस्तक की साज-सज्जा तथा मुखपृष्ठ आकर्षक है। बस, टंकण की त्रुटियां खटकती हैं, विशेषरूप से मुखपृष्ठ पर ही मंजूषा शब्द का त्रुटिपूर्ण मुद्रण अखरता है। किन्तु पुष्पा चिले के इस संग्रह के सभी दोहे उम्दा हैं। पढ़े जाने येाग्य हैं तथा ये चिन्तन-मनन का आह्वान करते है।    
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Saturday, October 4, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | दस मूंड़ को रावन बार दओ, अब बुराई सोई बार देओ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | दस मूंड़ को रावन बार दओ, अब बुराई सोई बार देओ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट | दस मूंड़ को रावन बार दओ, अब बुराई सोई बार देओ
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
      दसेरा कढ़ गओ। सहर में मनो मुतकी जांगा रावन जलाओ गओ, मगर दो जांगा पे खीब बतकाव चली। एक तो पीटीसी ग्राउंड वारी जांगा जहां सहर की महपौर ने पौंचीं, काय से के निगम के आयुक्त जू ने उनको अपमान करो है, ऐसो उनको कैबो आए। बाकी त्योहार म्योहार के समै ऐसो करो नईं चाइए। अखीर बे सहर की महापौर ठैरीं, उनको सम्मान राखो चाइए। जेई से तो कछू सयाने कै रए हते के रावन की नाभी में दो दार तीर घालो गओ फेर बी बा न मरो।  बा तो ऊके पैरन में लुघरिया छुबाई गई, तब कऊं बा जरो। अब ई बात खों को कां से जोर के देख रओ, जे तो बेई जानें। बाकी मकरोनिया पे बजरिया वारे रावन सोई अड़ी दिखा गओ। जबके उते विधायक रए, सांसद रईं, नगरपालिका के अध्यक्ष रए औ भारी भीर रई। उते कोनऊं मनमुटाव नईं रओ। मनो रावन जबे जलाओ जा रओ तो ऊकी मुंडी से तनक सी आगी निकरी औ फुस्स हो गई। फेर ऊपे पेट्रोल डार के ऊको जलाओ गओ। रावन बी सोचत हुइए के जे हम कां फंस गए। ऐसी गत तो रामजी के जमाने में ने भई। मनो कभऊं-कभऊं ऐसो हो जात आए, कछु नईं।
         बस जेई आए के जैसे दस मूंड़ को रावन जलाओ गओ ऊंसई सबरे आपसी बुराई बार देवें। काए से आपस में लड़े से अपनोई नुकसान होत आए। औ ऊंसईं सहर में फैली सबरी बुराई सोई बार देओ, जीसें अपन ओरें शान से मूंड़ उठा के कएं के अपनो सागर, नोनो सागर!
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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शून्यकाल | फिल्मी दुनिया में बुंदेलखंड की उपस्थिति को प्रतीक्षा है एक बॉक्स ऑफिस की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | फिल्मी दुनिया में बुंदेलखंड की उपस्थिति को प्रतीक्षा है एक बॉक्स ऑफिस की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
फिल्मी दुनिया में बुंदेलखंड की उपस्थिति को प्रतीक्षा है एक बॉक्स ऑफिस की
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता- निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। फिर भी बुंदेली फिल्मों का निर्माण उस तरह से नहीं हुआ जैसे भोजपुरी फिल्मों का होता है। क्षेत्रीयता के हिसाब से भोजपुरी फिल्मों में जिस तरह से अपनी धाक जमाई उसे देख कर लगता है कि उस तक पहुंचाने के लिए बुंदेली को अभी लंबी यात्रा करनी पड़ेगी।

कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’      
          मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता-निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’ 
      बेशक हप्पू सिंह का पात्र बुंदेली और बुंदेलखंड के परिप्रेक्ष्य में एक मील का पत्थर है जहां से मनोरंजन जगत में बुंदेली के लिए अनेक रास्ते खुलने लगे हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 20 जिलों में बुंदेली भाषा बोली और सुनी जाती है। बुंदेली संस्कृति के विद्वान स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्ता ने अपनी किताब बुंदेली संस्कृति और साहित्य में लिखा है कि ‘‘मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा और निमाड़ा, चार जिलों में बुंदेली का प्रवाह ज्यादा है। भारतीय लोक परंपरा के विकास में बुंदेली का अहम योगदान है।’’ अब बुंदेली का प्रभाव टीवी चैनल्स पर छाता जा रहा है। इससे पहले मंचों और सीडी के माध्यम से बुंदेली लोकगीतों एवं नाटकों का बोलबाला रहा किन्तु अपसंस्कृति की छाया ने इसमें फूहड़पन घोल दिया। जिससे बुंदेली एक बार फिर तिरस्कार की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन टीवी चैनल्स ने बुंदेली के प्रसार में एक नई जान फूंक दी। चूंकि टीवी चैनल्स परिवार के साथ देखे जा सकने वाले कार्यक्रम दिखाने के अधिकारी होते हैं अतः इनमें बुंदेली के स्तर को चोट पहुंचने की संभावना नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि हप्पू सिंह के किरदार के रूप में बुंदेली को हास्य की भाषा के रूप में प्रोजेक्ट करने से नुकसान हो सकता है किन्तु वस्तुतः यह भय निरापद है। हास्य-व्यंग्य के संवाद किसी भी व्यक्ति के दिल को गुदगुदाते हैं और उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इससे संबंधित भाषा को भी निकअता पाने का अवसर मिलता है। लोग आज बुंदेली के संवादों को बहुत पसंद करने लगे हैं। हप्पू सिंह के किरदार में कलाकार योगेश त्रिपाठी जब किसी भी मंच से अपने सीरियल के डाॅयलाॅग ‘‘काए कां गए थे’’ या ‘‘काय का हो रओ’’ बोलते हैं तो बुंदेलीखंड से बाहर के श्रोता ओर दर्शक भी न केवल तालियां बजाते हैं बल्कि उनके डाॅयलाॅग दोहराने लगते हैं। बुंदेली संवादों ने टीवी चैनल्स की टीआरपी पर भी अपनी धाक जमा ली है। एक और टीवी सीरियल ‘‘गुडिया हमारी सब वे भारी’’ में बुंदेली संवाद और बुन्देली पारिवारिक चुहलबाजी को बड़े खूबसूरत ढंग से प्रसतुत किया गया है। इसे भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों भरपूर लोकप्रियता मिल रही है। इसमें चुलबुली गुडिया का किरदार सारिका बहरोलिया अपने बुन्देली के शब्दों से खूब वाहवाही पा रही हैं।
सन् 1992 में आए प्रसिद्ध टीवी धरावाहिक ‘‘परिवर्तन’’ से अपनी पहचान बनाने वाले गोविंद नामदेव आज एक लोकप्रिय अभिनेता हैं। उनके अभिनय की विविधता दर्शकों को हमेशा प्रभावित करती है। सन् 1995 में महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सीरियल ‘‘स्वाभिमान’’ में आशुतोष राणा एक सादगी भरे ऐसे ग्रामीण युवा जो शहर के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ है, के रोल में छोटे पर्दे पर आए तो दर्शकों के दिलों पर ‘‘त्यागी’’ के रूप में अपनी छाप छोड़ गए। महेश भट्ट ने उनकी प्रतिभा को आगे बढ़ाया और आशुतोष राणा को अपनी फिल्म ‘‘दुश्मन’’ में सायको किलर ‘‘गोकुल पंडित’’ के रोल के लिए चुना। सन् 1098 में फिल्म ‘‘चाईना गेट’’ में सागर में जन्में और सागर में ही पले-बढ़े मुकेश तिवारी को ‘‘जगीरा’’ का रोल मिला तो उनका बोला यह संवाद बच्चे-बच्चे की जुबान पर छा गया था-‘‘मेरे मन को भाया, मैं कुत्ता काट के खाया।’’
         अकसर यह हंसी मज़ाक में कहा जाता है कि बुंदेलखंड के अभिनेताओं को हीरो के बदले विलेन का ही रोल मिलता है। जब यही प्रश्न गोविंद नामदेव से पूछा गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में उत्तर दिया कि ‘‘बुंदेलखंड के पानी में ठसक है, इसलिए यहां के विलेन सबसे ज्यादा सामने आ रहे हैं और कोई बड़ा हीरो अभी तक नहीं आया।’’ यह बहुत हद तक सच है कि बुंदेलखंड के किसी भी अभिनेता को हीरो का रोल नहीं मिल पाया है लेकिन यह भी सच है कि ललितपुर में जन्में अभिनेता राजा बुंदेला ने ‘‘विजेता’’ और ‘‘अर्जुन’’ जैसी फिल्मों में सकारात्मक रोल किए। स्वयं गोविंद नामदेव ने अनेक सकारात्मक रोल किए हैं। बेशक़ यह कमी जरूर रही है कि बुंदेलखंड से किसी अभिनेत्री ने अपनी जोरदार उपस्थिति बाॅलीवुड में अभी तक दर्ज़ नहीं कराई है। लेकिन संभावनाएं विपुल हैं। पिछले कुछ वर्षों से बुंदेलखंड में फिल्म फेस्टिवल्स के छोटे-बड़े कई आयोजन हो चुके हैं। खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में देशी विदेशी फिल्मों के साथ बुंदेलखंड के कलाकारों द्वारा बनाई गई टेली और शार्ट फिल्मों तथा वृत्त चित्रों का भी प्रदर्शन किया जाने लगा है। इससे मंनोरंजन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं में उत्साह बढ़ा है। खजुराहो, झांसी और ओरछा में भी फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं। अभिनेता गोविंद नामदेव सागर, दमोह आदि शहरों में अभिनय प्रशिक्षण शिविर लगा कर प्रशिक्षण देते रहते हैं जिससे बुंदेली कलाकारों को अपनी अभिनय क्षमता को निखारने का अवसर मिलता है तथा वे आत्मविश्वास के साथ फिल्म और टेलीविजन की ओर बढ़ने लगे हैं।
खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में कई बुंदेली शार्ट्स फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इनमें कुछ फिल्में वाकई गंभीर विषयों पर थीं ओर उन्हें पूरी गंभीरता से बनाया गया था। बुंदेलखंड के युवा फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखना होगा कि वे ‘‘टिकटाॅक’’ की ज़मीन से ऊपर उठ कर फिल्म बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। माना कि बुंदेलखंड में आर्थिक साधनों की कमी है लेकिन यह बात याद रखने की है कि ‘चक्र’, ‘पार’, ‘दामुल’, ‘अंकुर’ जैसी कालजयी फिल्में सीमित साधनों में बनाई गई थीं। यदि अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि वरिष्ठ अभिनेताओं, निर्देशकों एवं निर्माताओं से सीखते हुए बुंदेलखंड के युवा मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड का नाम रोशन करेंगे।
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Friday, October 3, 2025

बतकाव बिन्ना की | कई होती तो घरे बनवा देते आपके लाने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम


बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव  बिन्ना की
कई होती तो घरे बनवा देते आपके लाने                               
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

         ‘‘काए बिन्ना कां हो आईं?’’ फुआ ने पूछी। भैयाजी की फुआ मनो मोरी फुआ। हप्ता-खांड से बे इतई ठैरीं, भैयाजी के यां। रोजई से उनसे मिलनो होत रैत आए, सो जो एक दिनां मैं उनके लिंगे ने पौंची तो बे पूछन लगीं।
‘‘दमोए गई रई।’’ मैंने फुआ को बताओ।
‘‘काए के लाने?’’ फुआ ने पूछी।
‘‘उते मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी को एक कार्यक्रम रओ, बुंदेली पे।’’ मैंने उने बताओ।
‘‘बुंदेली पे?’’ उने सुन के तनक अचरज भओ।
‘‘हऔ! का आए के आजकाल बुंदेली बोलबो कम भओ जा रओ, सो जेई के लाने बतकाव रई के का करो जाए जीसें बुंदेली बोलबे को चलन बनो रए।’’ मैंने फुआ को बताओ।
‘‘हऔ, जा बात तो ठीक आए। काए से हम ओरे तो बुंदेली बोलत आएं, मनो आजकाल के लड़का बच्चा बुंदेली का सई से हिन्दी नईं बोल पात आएं।’’ फुआ बोलीं। बाकी उन्ने बात पते की कई।
‘‘आजकाल बुंदेली की रीलें औ नाच-गाने सोई चलत आएं सोसल मिडिया पे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, ईपे सोई उते बतकाव भई। काए से के रीलन में और नाच-गाने में फुहड़याई सोई चलन लगी आए।’’ मैंने कई।
‘‘फेर का सोचो गओ उते?’’ फुआ ने पूछी।
‘‘सोचबे को का रओ उते? एक दार सोचबे में कोनऊं हल थोड़े निकरहे। ईके लाने सबई जनों खों कछू ने कछू काम करने परहे।’’ मैंने कई।
‘‘जा तो सई आए। मनो औ का भओ उते?’’ फुआ ने पूछी।
‘‘औ ुदपाी को भोजन उतई पे रओ सो, सबने ने मिल के जीमों। अच्छो सो लगो। काय से के ऐसो मिलबे को मौको कभऊं-कभऊं आऊत आए। बाकी एक मजे की बात भई।’’ मैंने कई।
‘‘का भई? तनम हमें सोई बताओ।’’ फुआ ने पूछी।
‘‘हऔ, हम सोई तनक सुन लेवें!’’ भौजी सोई बोली।
‘‘का भओ के दमोए में मोरे एक चिन्हारी वारे रैत आएं। उनसे भेंट भई तो बे बड़े अच्छे से मिले। फेर दुपारी में भोजन को टेम भओ तो भोजन के लाने सबईखों लेन में लगने परो। काए से के बुफे को सिस्टम रओ। ई टाईप से लेन में लगबे को सोई अपनो मजो रैत आए। सो, मैं सोई लेन में ठाड़ी हो गई। मैं औ मोरी संगवारी बैन हरें जो कऊं भोपाल से आई रईं, तो कोनऊं टीकमगढ़ से। सो, हम आरें लेन में ठाड़ी रईं। इत्ते में उते से हमाए बेई चिन्हारी वारे भैया निकरे। उन्ने बताई के बे जा रए, काए से के उने कोनंऊं की गमी में जाने हतो। मैंने कई के आपखों जरूर जाओ चाइए। जेई सब बतकाव कर के बे उते से कढ़ लिए। मैं लेन में लगी रई औ जब नंबर आओ तो अपनी प्लेट में खाबे को आइटम रख लओ। मनो आइटम अच्छे रए। सन्नाटा सो मोए सबसे ज्यादा पोसाओ। हम ओरन ने सबने हंसी-ठठ्ठा कर भए अच्छे से जीमों औ फेर बैठ के बतकाव करन लगे। कछू देर में मोरे उनईं चिन्हारी वारों को फोन आओ सो बे पूछन लगे के आपकेा खाना भओ के नईं? मैंने कई हो गओ। सो बे कैन लगे के उते से निकरत समै हमसे जा गलती हो गई के हमने आप से जा ने पूछी के आपके लाने का घरे खाना बनवा दें? मैंने उनसे कई के भैया, बा की कोनऊं जरूरत ने हती, काए से के इते इत्तो अच्छो भोजन को इंतजाम रओ। औ ऊपे सबके संगे खाबे को मजोई दूसरो रैत आए। सो उन्ने कई के फेर बी हमें पूछो चाइए तो जो खाबे की आपने कई होती तो घरे बनवा देते आपके लाने। मैंने उनसे कई के जो जरूरत होती तो मैं कै देती। मनो मनई मन मैं सोची के उनसे पूछो जाए के भैया, काए घड़ी देख रए हते का के कबे खाना निबटे औ कबे खाना बनवाबे की बात करी जाए।’’ बतात-बतात मोए हंसी आन लगी।
‘‘सई में जो अच्छो के उने ख्वाने ने हतो बाकी पूछ के जे पक्को करने रओ के काल को कैबे को ने रए के पूछो नईं।’’ फुआ सोई हंसन लगीें।
‘‘जेई तो आए फुआ! धजी में ने अजी में, नोनी दुलैया सजी में।’’ मैंने कई।
‘‘बा सो सब ठीक आए, बाकी जे जो तुम बतकाव कर रई, बा उने पता परी तो बे का सोचहें?’’ भौजी ने फिकर करी।
‘‘ने कछू! बे का सोचहें? सई तो सई आए। सच बोले में डराबे को का?’’ मैंने कई।
‘‘अरे, एक दार हम ओरन के संगे सोई ऐसई भओ।’’ फुआ बतान लगीं, ‘‘का भओ के हम ओरें घूमबे के लाने बनारस गए। उते हमाए दूर के एक रिस्तेदार रैत्ते। उनसे फोन पे बात भई तो बे बोले के आप ओरें कल दुपारी को हमाए इते खाबे पे आओ। हम ओरन ने सोची के चलो अच्छो आए, जेई बहाने से उन ओरन से मिलबो हो जैहे औ रिस्तेदारी में एक मोड़ी के लाने मोड़ा ढूंढबे की सोई चल रई हती, सो हम ओरन ने सोची के जेई बहाने बा बात बी हो जाहे। सो हम ओरें दूसरे दिनां उनके इते पौंचे। उन्ने अच्छे से बिठाओ। पानी को पूछो। फेर चाय-माय चली। जेई करत-करत कुल्ल देर हो गई। हम ओरें भोजन के लाने परखे, औ उते कोनऊं भोजन की बातई ने कर रओ हतो। तुमाए फूफा जू से ने रओ गओ। सो उन्ने बात घुमा के कई के हम ओरने खों निकरने सोई आए सो भोजन के लाने तनक जल्दी करा देओ। जा सुन के उनकी घरवारी बोली के जा तो इन्ने हमें बताओ नईं के आप ओरन को खाना सोई इन्ने रखो आए, ने तो हम तो अबे लौं बना के परसई देते। अपनी घरवारी की सेन के बे भैयाजू कैन लगे के हमने तुमें बताई तो रई। तुम हमाई बात सुनतईनइयां। उन ओरन की झिकझिक सुन के तुमाए फूफा जू को मुंडा खराब हो गओ। बे बोले के अब नई बनो खाना तो रैन देओ, हमाए लिंगे बी टेम नइयां खाबे खों। औ बे उठ खड़े भए। हमें सोई बुरौ लगो। सो हमने सोई कै दई के अच्छो रओ के हमने आप ओरन से मोड़ी के रिस्ता के लाने ने कई ने तो आप ओरें जाने कोन टाईप को मोड़ा ढूंढते। अब चाए हमाई बात उने बुरई लगी होय, सो लगी रए, हमाई बला से।’’ फुआ बोलीं।
‘‘सो फेर आप ओरन के भोजन को का भओ?’’ भौजी ने फुआ से पूछी।
‘‘होने का रओ? उनके इते से उठे सो सीधे एक होटल में पौंचे। उते भरपेट खाओ तब कईं जां में जां आई। हम ओरें मरे जा रए ते भूक से।’’ फुआ बोलीं।
‘‘सई में फुआ, खाबे-पीबे में चतुराई ने दिखाओ चाइए।’’ मैंने हंस के कई।      
 बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जो कोनऊं पाउना आए सो ऊके संगे ऐसो करो जाओ चाइए के नईं?
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