Tuesday, June 17, 2025

पुस्तक समीक्षा | कटाक्ष का तीव्र पैनापन है इन कविताओं में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 17.06.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा
कटाक्ष का तीव्र पैनापन है इन कविताओं में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
कविता संग्रह - स्वर्ग और नर्क
कवि - बद्री लाल ‘‘दिव्य’’
प्रकाशक-जीएस पब्लिशर डिस्ट्रीब्यूटर्स, एफ-7, गली नं. 1,पंचशील गार्डन एक्स., नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 350/-
--------------------
‘‘स्वर्ग और नर्क’’ काव्य संग्रह में कुल 51 कविताएं हैं। जिसमें हास्य, व्यंग तथा कटाक्ष तीनों भाव मौजूद हैं किन्तु कटाक्ष प्रभावी है। इस संग्रह के कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं के प्रति चिंता का अनुभव करते हैं और इसीलिए वे अव्यवस्थाओं को सुधारना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि समाज और राजनीति में सब कुछ जनहित का हो जाए। यद्यपि उन्हें इस बात का भी अहसास है कि उनकी अभिलाष दुरूह है। जिस समाज की रग-रग में भ्रष्टाचार समा चुका हो उस समाज में एक स्वच्छ वातावरण स्थापित होते देखना, जागती आंखों से देखने वाले सपने के समान है। किंतु वे निराश नहीं हैं। उन्हें आशा है कि लोग अपनी विडंबनाओं के यथार्थ को समझेंगे और उन्हें सुधारने का प्रयास करेंगे। बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ की रचनाओं में तीव्र सामाजिक सरोकार होता है। वे हिन्दी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते हैं। अपनी माटी और अपनी बोली के प्रति लगाव उन्हें सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजग रखता है। अब तक उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें तीन काव्य संग्रह राजस्थानी में है।
संग्रह का नाम ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ रखे जाने की सार्थकता इसमें संग्रहीत कविताओं को पढ़ने के बाद स्वतः स्पष्ट हो जाती है। वैसे स्वर्ग और नर्क की कल्पना मनुष्य ने स्वयं की अनियमितताओं पर अंकुश लगाने के लिए की है। जैसा कि कहा जाता है कि जो अच्छे काम करता है वह मरणोपरांत स्वर्ग जाता है, वहीं बुरे काम करने वाले को नर्क में जगह मिलती है। इस धारणा का विस्तृत वर्णन वेदव्यास कृत ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। यह संकल्पना मनुष्य को गलत काम करने से रोकने के आधार पर तय की गई। किंतु गलत कार्यों में लिप्त मनुष्य एक ढीठ व्यक्ति की भांति यही सोचता है कि स्वर्ग और नरक किसने देखा है अतः जो इच्छा हो वह करना चाहिए चाहे वह सही हो या गलत। स्वर्ग और नरक की इसी संकल्पना पर आधारित है संग्रह की शीर्षक कविता ‘‘स्वर्ग और नर्क’’-
किसी ने कहा -
नर्क में कौन जाता है
और स्वर्ग में कौन ?
मैंने कहा सिर्फ
वो आदमी ही
नर्क का भागीदार है।
जिसका भ्रष्टाचार, चोरी, घोटाला
अन्याय, दुराचार, हत्या, धोखाधड़ी
बलात्कार आदि /तत्वों पर
पूरा-पूरा अधिकार है।
शेष सभी पर
स्वर्ग/बरकरार है।
संग्रह की प्रथम कविता ‘‘दुल्हन ही दहेज है’’ एक चुटीली किंतु मंचीय शैली की कविता है। जो चुटकी लेती है, आईना दिखाती है और हंसाती भी है किंतु वह गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती जो संग्रह की अन्य कविताओं में है। कुछ पंक्तियां देखिए -
मैंने कहा
दुल्हन ही दहेज है।
एक बोला-
‘‘लेकिन मुझे इससे परहेज है।’’
मैंने कहा ‘‘क्यों?’’
कहने लगा
मेरे एक ही लड़का है जो वकील है।
और तिजोरी की /बंद सील है।
मैंने कहा- भाई साहब !
इसमें फिर क्यों ढील है ?
इसे जानवरों के मेले में
ले जाइये।
और वहां बांध आइये।
वहां मुंह मांगा दाम
मिल जायेगा।
और बिना कमाए
जीवन भर का काम
चल जाएगा।
    ‘‘बेटी का बाप’’ कविता भी एक उम्दा कथ्य लिए हुए कमजोर कविता है। वहीं ‘‘आदमी से आदमियत तक’’ शीर्षक कविता अपने शिल्प और कथ्य दोनों दृष्टि से प्रभावी है-
कभी-कभी आदमी
अहर्निश लिप्त रहता है
अपनी जन्मजात/आदतों में ।
कर्म की प्रधानता से हटकर
आदमी कर देता है
अपनी हदें पार।
उसके हृदय में
लगा रहता है
कुटिलताओं का अम्बार ।
कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार महेन्द्र नेह ने उचित लिखा है कि ‘‘कवि दिव्य की कविताएँ तीक्ष्ण व्यंग्य-बाणों से बेधने के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों के समाधान की दिशा भी निरूपित करती है। ... श्दिव्यश् के काव्य-लोक की पहचान मूलतः लोक भाषा और शैली से उद्भूत रही है। लोक में यदि आनंद की व्याप्ति है तो वहाँ पीड़ा और करुणा के स्वरों का आर्तनाद भी है, इसके साथ-साथ लोक में अभिजात-संसार के प्रति गहरे उपहास और व्यंग्य की सुक्तियों, चुटकुलों, किस्सों, कथाओं और गीतों की एक अविरल धारा भी अविरल बहती रहती है, ‘स्वर्ग और नर्क’ में शामिल कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि कवि ने अपने परम्परा से प्राप्त लोक-अनुभवों और दृष्टि को एक नए आकार में ढालने की, अपने विचारों और चिंतन को एक नई दिशा में मोड़ने की सचेत पहल की है।’’
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ समाज में लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराधों को देख कर वर्तमान दौर के किसी भी जिम्मेदार रचनाकार की भांति चिंतित एवं आक्रोशित हो उठते हैं। उनकी कविता है -‘‘दरिन्दों से हिसाब’’। इसमें उन्होंने व्यवस्था के खोखलेपन को भी खुल कर ललकारा है। कविता का एक अंश देखिए-
आजकल लड़कियों की
व्यथा को
समझना ही भारी है।
जो नहीं समझता
वो तो स्वयं ही
अत्याचारी है।
आज देश में लड़कियाँ
नहीं है सुरक्षित।
लूट लेते है अस्मत
अपने ही घर में भक्षित।
राष्ट्र के रखवाले
ये कैसी रक्षा कर रहे हैं।
शायद दुष्कर्मी भेड़ियों से
डर रहे हैं।
वर्दी तो हमारी स्वयं ही
लाचार है।
सुरक्षा के नाम पर
केवल थोथा प्रचार है।
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ के काव्य संग्रह ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ की कविताओं से हो कर गुज़रना अव्यवस्था को ले कर उनके भीतर के आक्रोश के ताप को महसूस करने के समान हैं। वे कहीं भी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते किन्तु उनके आक्रोश की तीव्रता की धार बहुत पैनी है। वे खुले शब्दों में ललकारते हैं लापरवाह एवं भ्रष्टाचारी लोगों को। कविताओं की शैली व्यंजनात्मक है। भाषा आम बोलचाल की है, सहज, सुगम्य और संवादी। एक-दो कमजोर कविताओं को छोड़ दिया जाए तो पूरा संग्रह समृद्ध एवं प्रभावपूर्ण है। ये कविताएं भावनाओं एवं विचारों को आंदोलित करने में सक्षम हैं।
----------------------------

#पुस्तकसमीक्षा  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer  #आचरण  #DrMissSharadSinghपुस्तक समीक्षा
कटाक्ष का तीव्र पैनापन है इन कविताओं में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
कविता संग्रह - स्वर्ग और नर्क
कवि - बद्री लाल ‘‘दिव्य’’
प्रकाशक-जीएस पब्लिशर डिस्ट्रीब्यूटर्स, एफ-7, गली नं. 1,पंचशील गार्डन एक्स., नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 350/-
--------------------
‘‘स्वर्ग और नर्क’’ काव्य संग्रह में कुल 51 कविताएं हैं। जिसमें हास्य, व्यंग तथा कटाक्ष तीनों भाव मौजूद हैं किन्तु कटाक्ष प्रभावी है। इस संग्रह के कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं के प्रति चिंता का अनुभव करते हैं और इसीलिए वे अव्यवस्थाओं को सुधारना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि समाज और राजनीति में सब कुछ जनहित का हो जाए। यद्यपि उन्हें इस बात का भी अहसास है कि उनकी अभिलाष दुरूह है। जिस समाज की रग-रग में भ्रष्टाचार समा चुका हो उस समाज में एक स्वच्छ वातावरण स्थापित होते देखना, जागती आंखों से देखने वाले सपने के समान है। किंतु वे निराश नहीं हैं। उन्हें आशा है कि लोग अपनी विडंबनाओं के यथार्थ को समझेंगे और उन्हें सुधारने का प्रयास करेंगे। बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ की रचनाओं में तीव्र सामाजिक सरोकार होता है। वे हिन्दी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते हैं। अपनी माटी और अपनी बोली के प्रति लगाव उन्हें सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजग रखता है। अब तक उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें तीन काव्य संग्रह राजस्थानी में है।
संग्रह का नाम ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ रखे जाने की सार्थकता इसमें संग्रहीत कविताओं को पढ़ने के बाद स्वतः स्पष्ट हो जाती है। वैसे स्वर्ग और नर्क की कल्पना मनुष्य ने स्वयं की अनियमितताओं पर अंकुश लगाने के लिए की है। जैसा कि कहा जाता है कि जो अच्छे काम करता है वह मरणोपरांत स्वर्ग जाता है, वहीं बुरे काम करने वाले को नर्क में जगह मिलती है। इस धारणा का विस्तृत वर्णन वेदव्यास कृत ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। यह संकल्पना मनुष्य को गलत काम करने से रोकने के आधार पर तय की गई। किंतु गलत कार्यों में लिप्त मनुष्य एक ढीठ व्यक्ति की भांति यही सोचता है कि स्वर्ग और नरक किसने देखा है अतः जो इच्छा हो वह करना चाहिए चाहे वह सही हो या गलत। स्वर्ग और नरक की इसी संकल्पना पर आधारित है संग्रह की शीर्षक कविता ‘‘स्वर्ग और नर्क’’-
किसी ने कहा -
नर्क में कौन जाता है
और स्वर्ग में कौन ?
मैंने कहा सिर्फ
वो आदमी ही
नर्क का भागीदार है।
जिसका भ्रष्टाचार, चोरी, घोटाला
अन्याय, दुराचार, हत्या, धोखाधड़ी
बलात्कार आदि /तत्वों पर
पूरा-पूरा अधिकार है।
शेष सभी पर
स्वर्ग/बरकरार है।
संग्रह की प्रथम कविता ‘‘दुल्हन ही दहेज है’’ एक चुटीली किंतु मंचीय शैली की कविता है। जो चुटकी लेती है, आईना दिखाती है और हंसाती भी है किंतु वह गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती जो संग्रह की अन्य कविताओं में है। कुछ पंक्तियां देखिए -
मैंने कहा
दुल्हन ही दहेज है।
एक बोला-
‘‘लेकिन मुझे इससे परहेज है।’’
मैंने कहा ‘‘क्यों?’’
कहने लगा
मेरे एक ही लड़का है जो वकील है।
और तिजोरी की /बंद सील है।
मैंने कहा- भाई साहब !
इसमें फिर क्यों ढील है ?
इसे जानवरों के मेले में
ले जाइये।
और वहां बांध आइये।
वहां मुंह मांगा दाम
मिल जायेगा।
और बिना कमाए
जीवन भर का काम
चल जाएगा।
    ‘‘बेटी का बाप’’ कविता भी एक उम्दा कथ्य लिए हुए कमजोर कविता है। वहीं ‘‘आदमी से आदमियत तक’’ शीर्षक कविता अपने शिल्प और कथ्य दोनों दृष्टि से प्रभावी है-
कभी-कभी आदमी
अहर्निश लिप्त रहता है
अपनी जन्मजात/आदतों में ।
कर्म की प्रधानता से हटकर
आदमी कर देता है
अपनी हदें पार।
उसके हृदय में
लगा रहता है
कुटिलताओं का अम्बार ।
कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार महेन्द्र नेह ने उचित लिखा है कि ‘‘कवि दिव्य की कविताएँ तीक्ष्ण व्यंग्य-बाणों से बेधने के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों के समाधान की दिशा भी निरूपित करती है। ... श्दिव्यश् के काव्य-लोक की पहचान मूलतः लोक भाषा और शैली से उद्भूत रही है। लोक में यदि आनंद की व्याप्ति है तो वहाँ पीड़ा और करुणा के स्वरों का आर्तनाद भी है, इसके साथ-साथ लोक में अभिजात-संसार के प्रति गहरे उपहास और व्यंग्य की सुक्तियों, चुटकुलों, किस्सों, कथाओं और गीतों की एक अविरल धारा भी अविरल बहती रहती है, ‘स्वर्ग और नर्क’ में शामिल कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि कवि ने अपने परम्परा से प्राप्त लोक-अनुभवों और दृष्टि को एक नए आकार में ढालने की, अपने विचारों और चिंतन को एक नई दिशा में मोड़ने की सचेत पहल की है।’’
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ समाज में लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराधों को देख कर वर्तमान दौर के किसी भी जिम्मेदार रचनाकार की भांति चिंतित एवं आक्रोशित हो उठते हैं। उनकी कविता है -‘‘दरिन्दों से हिसाब’’। इसमें उन्होंने व्यवस्था के खोखलेपन को भी खुल कर ललकारा है। कविता का एक अंश देखिए-
आजकल लड़कियों की
व्यथा को
समझना ही भारी है।
जो नहीं समझता
वो तो स्वयं ही
अत्याचारी है।
आज देश में लड़कियाँ
नहीं है सुरक्षित।
लूट लेते है अस्मत
अपने ही घर में भक्षित।
राष्ट्र के रखवाले
ये कैसी रक्षा कर रहे हैं।
शायद दुष्कर्मी भेड़ियों से
डर रहे हैं।
वर्दी तो हमारी स्वयं ही
लाचार है।
सुरक्षा के नाम पर
केवल थोथा प्रचार है।
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ के काव्य संग्रह ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ की कविताओं से हो कर गुज़रना अव्यवस्था को ले कर उनके भीतर के आक्रोश के ताप को महसूस करने के समान हैं। वे कहीं भी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते किन्तु उनके आक्रोश की तीव्रता की धार बहुत पैनी है। वे खुले शब्दों में ललकारते हैं लापरवाह एवं भ्रष्टाचारी लोगों को। कविताओं की शैली व्यंजनात्मक है। भाषा आम बोलचाल की है, सहज, सुगम्य और संवादी। एक-दो कमजोर कविताओं को छोड़ दिया जाए तो पूरा संग्रह समृद्ध एवं प्रभावपूर्ण है। ये कविताएं भावनाओं एवं विचारों को आंदोलित करने में सक्षम हैं।
----------------------------
#पुस्तकसमीक्षा  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer  #आचरण  #DrMissSharadSingh

Monday, June 16, 2025

"कविता के सरोकार" विषय पर संबोधन | मुख्य अतिथि डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पुस्तक चर्चा


कल मैंने विवेकानंद अकादमी में पुस्तक परिचर्चा में मुख्य अतिथि के रूप में दीप प्रज्ज्वलित किया तथा "कविता के सरोकार" विषय पर अपना संबोधन दिया। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Yesterday, as a chief guest I have lit the lamp and address on "the Concerns of poetry" in a book discussion at Vivekanand Academy.


#डॉसुश्रीशरदसिंह #drmisssharadsingh
#bookdiscussion #पुस्तकचर्चा 

Saturday, June 14, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | स्मार्ट सिटी में पगला कुत्ता? जे न चलहे!| डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

  टॉपिक एक्सपर्ट | स्मार्ट सिटी में पगला कुत्ता? जे न चलहे!| डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
स्मार्ट सिटी में पगला कुत्ता? जे न चलहे!
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

           जे हर की साल हो रई के स्मार्ट सिटी में कौनऊं ने कौनऊं कुत्ता पगलया जात आएं औ लोगन खों काटत फिरत आए। जब लौं बा दस-बीस खों काट नईं लेत तब तक प्रसासन ऊकी खबरई नईं लेत आए, मनो जे कछू गंभीर बात ने होए। काट रओ, सो काटन देओ। औ प्रसासन को खबर जबे आत आए, जब पब्लिक चिचियान लगत आए के “काट लओ, काट लओ!”, “कबे पकरहो?” तब कऊं जा के जिम्मेवार हरें जागत आएं औ सहूरी बंधात आएं के “तनक गम्म खाओ, अबई देखत आएं!” औ तब तक दो चार औ कट जात आएं। ई दफा तो गजबई की रई। पत्रकार हरन ने बा पगला कुत्ता औ आवारा कुत्तन के बारे में पूछो तो जवाब मिलो के कुत्तन की नसबंदी के लाने टेंडर डारो गओ आए। मने उते एक पगला कुत्ता बीस जने खों काटत फिरत रओ औ इते नसबंदी को टेंडर डारबे को काम चलत रओ। बाकी जे समझ ने आई के बा पगला कुत्ता की प्राब्लम से कुत्तन की नसबंदी को का मेल? 
      जेई तो सल्ल आए के राजकाज की मुतकी बातें पब्लिक को समझ ई में नईं आत। सो, पगला कुत्ता से कटत भई पब्लिक भैरानी सी फिरत आए। तंगा के विजय टॉकीज चौराहा पे कछू दुकानदारन ने बैनर सोई लगा दओ के “नो सर्विस, नो टैक्स”। उनको कैबो आए के जोन सेवाओं के लाने हम ओरें टैक्स भरत आएं बा तो नगर निगम देत नइयां, सो अब हमें भी टैक्स नहीं देने। मनो उनको कैबो बी सई आए के पगला कुत्ता से कटवाबे के लाने टैक्स थोड़े दओ जात आए। बाकी जे गिचड़ को जो कछू होय पर पगला कुत्ता इत्ते दिनां लौं काटत फिरत रओ, जे तो गलत आए। ई पे तो एक्शन लओ जाओ चाइए। सई कई के नईं?
------------------------------
Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
#टॉपिकएक्सपर्ट #डॉसुश्रीशरदसिंह  #DrMissSharadSingh #पत्रिका  #PatrikaNews #rajsthanpatrika #सागर  #topicexpert #बुंदेली #बुंदेलीकॉलम

Friday, June 13, 2025

शून्यकाल | हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
 शून्यकाल
हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                   
      जब से सोनम रघुवंशी कांड सामने आया है तब से सोशल मीडिया पर जिस तरह लड़कियों के बारे में विचार व्यक्त किए जा रहे हैं वह ट्रोल करने वालों की बीमार मानसिकता को बखूबी दिखाते हैं। यह सोचना कि आज की लड़कियों को क्या होता जा रहा है, बिल्कुल व्यर्थ की चिंता है। क्योंकि हर लड़की सोनम रघुवंशी नहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे हर पति सुशील शर्मा नहीं होता जिसने अपनी पत्नी को मार कर तंदूर में जला दिया था। समाज में घटित होने वाली किसी एक घटना को लेकर सभी पर प्रश्न चिन्ह लगाना एक बीमार मानसिकता का सबूत है। सोनम रघुवंशी ने जो किया वह तो गलत है ही लेकिन सभी लड़कियों को ट्रोल किया जाना भी गलत है।

    एक लड़की अपराध करें और सभी लड़कियों को मजाक का निशाना बनाया जाए यह कहां का इंसाफ है? राक्षसी समाज में भी जहां सूर्पनखा जैसी स्त्री हुई जिसने रावण को उकसाया कि वह सीता का अपहरण कर के राम को दंडित करे, वही मंदोदरी जैसी स्त्री भी हुई जिसने सीता के सतीत्व के प्रति रावण को सदैव सचेत किया तथा सीता का पक्ष लिया। हर समाज में कुछ लोग अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे होते हैं और कुछ बहुत बुरे होते हैं। लेकिन बहुत थोड़े से कुछ बहुत बुरे लोगों के कारण पूरे समाज पर लांछन नहीं लगाया जा सकता है।
        जो 1995 के आसपास पैदा हुए होंगे वह तो तंदूर कांड के बारे में जानते ही नहीं होंगे लेकिन जो उस समय युवा या प्रौढ़ रहे होंगे वे बखूबी उस घटना के बारे में उस समय पढ़े और सुने होंगे और आज भी याद करके सिहर उठते होंगे। अपराध की कहानियों में एक रोंगटे खड़े कर देने वाली वारदात के रूप में नैना साहनी तन्दूर कांड दर्ज़ है।  नैना साहनी की हत्या उसके पति सुशील शर्मा ने 2 जुलाई 1995 को की थी। दिल्ली युवक कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष और तत्कालीन विधायक सुशील शर्मा और उसकी पत्नी नैना साहनी दोनों मैं पहले अच्छे संबंध थे। फिर सुशील शर्मा को संदेह हुआ कि नैना के सम्बंध उसके सहपाठी करीम मतलूब से हैं। इसी संदेह के चलते यह जघन्य घटना घटी। 02 जुलाई 1995 को सुशील ने नैना को किसी से फोन पर बात करते देखा। बात खत्म होने के बाद सुशील ने फोन री-डायल किया। नैना ने   करीम मतलूब से बात किया था । वह क्या बात कर रही थी यह पूछे बिना उसने गुस्से में आकर नैना पर लाइसेंसी रिवाल्वर से ताबड़तोड़ तीन फायर कर दिए। इसमें नैना की मौत हो गई। पुलिस के अनुसार सुशील नैना के शव को लपेटकर अशोक यात्री निवास स्थित बगिया रेस्टोरेंट ले गया। वहां उसने नैना के कई टुकड़े किए और तंदूर में झोंक दिए। सुशील ने रेस्टोरेंट के मैनेजर केशव की मदद से नैना के शव को तंदूर में जलाने की कोशिश की। इसी कारण इसे तन्दूर हत्याकांड कहा जाता है।
          दूसरी घटना राजनीतिक की जमीन की नहीं बल्कि एक प्रेम कहानी से शुरू हुई जिसका रोंगटे खड़े कर देने वाला अंत हुआ। इस प्रेम कहानी की शुरुआत 2010 में हुई, जब छपरा बिहार की रहने वाली जूही के पास साजिद अली गलती से कॉल कर बैठा। रॉन्ग नंबर डॉयल होने पर दोनों में बातचीत होने लगी और बात परस्पर प्रेम तक जा पहुंची। सन 2011 में साजिद ने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की और इसी बीच जूही ने गर्वमेंट कॉलेज से बीए आनर्स साइकोलॉजी से पढ़ाई की।
जूही और साजिद एक दूसरे से शादी करना चाहते थे किंतु परिवार वाले राजी नहीं थे। इसलिए सन 2014 में घर वालों के खिलाफ जाकर दोनों ने शादी कर ली। फिर 2016 में दोनों बिहार से दिल्ली पहुंचे और कुछ समय बाद दोनों में अनबन होने लगी। यह अनबन इतनी अधिक बढ़ी कि एक दिन साजिद ने जूही को गला दबाकर मार दिया। बात यही नहीं थमीं। इसके बाद साजिद ने अपने दो भाइयों के साथ मिलकर जूही के शव के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें बैग्स में भरकर जंगल में फेंक दिया। 
          क्या साजिद की इस हरकत पर हर लड़के या हर पति पर उंगली उठाई जा सकती है? 
    हमारे देश में दहेज हत्याएं तो दशकों से होती चली आ रही है लेकिन कभी भी इसके लिए सभी लड़कों को ट्रोल नहीं किया गया। किया भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति का नहीं होता है। समाज में अनेक ऐसे उदाहरण है जब पत्नी ने पति की जान बचाने के लिए अपनी किडनी पति को दे दी। भारतीय पत्नियां तो वैसे भी सेवा भाव के लिए सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं।
       सोनम रघुवंशी कांड पर कुछ भी टिप्पणी करना या लिखना आवश्यक नहीं था किंतु जब सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी टिप्पणियां देखी जो सभी लड़कियों को लक्ष्य करके लिखी गई थीं, तो मन विचलित हुआ। समाज में स्त्री और पुरुष दोनों समान महत्व रखते हैं, ऐसे में एक-दूसरे के प्रति संदेह को जन्म देना या एक दूसरे के प्रति भय उत्पन्न करना या किसी भी एक पक्ष को पूरा का पूरा संदेह के घेरे में खड़ा कर देना मुझे उचित नहीं लगता। मैंने सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी पढ़ी जिसमें यह कहा गया था की "इंदौर की लड़कियों को क्या हो गया है?" 
एक अन्य टिप्पणी थी -"यहां सब की सब ऐसी ही हैं।"
एक और टिप्पणी थी जिसमें यह विचार व्यक्त किया गया था कि "अब लड़के शादी करने से डरेंगे।"
       इसमें कोई संदेह नहीं की जो अपराध सोनम रघुवंशी ने किया वह क्षमा के योग्य नहीं है। यह सुनकर अवाक रह जाना स्वाभाविक है कि कोई नव विवाहिता अपने हनीमून के दौरान अपने पति को सुपारी देकर मरवा सकती है अथवा सुपारी किलर द्वारा ना मारे जाने पर स्वयं मारे जाने को ततपर हो सकती है। यदि न्यायालय की भाषा में इसे कहा जाए तो यह "रेयर ऑफ द रेयरेस्ट" केस है। ऐसी वारदात करने वाले सभी अपराधियों को यानी सोनम रघुवंशी और उसके साथियों को कठोर दंड दिया ही जाना चाहिए किंतु इस जघन्य घटना को लेकर किसी शहर विशेष की लड़कियों अथवा समाज की सभी लड़कियों अथवा सभी विवाहित स्त्रियों को लक्ष्य करके लांछित करने वाली टिप्पणियां करना अनुचित है। सोशल मीडिया पर विराजमान कथित बुद्धिजीवियों को इस तरह लांछन लगाकर चुटकुले बाजी करने के बजाय गंभीरता से यह सोचना चाहिए कि यह स्थिति बनी क्यों और कैसे? परिवार अथवा समाज में कहीं कोई ऐसी बड़ी चूक तो नहीं हो रही है जिससे अभी और सोनम रघुवंशी पैदा हो सकने की संभावना हो। सोनम रघुवंशी ने अपने  नव विवाहित पति राज रघुवंशी को मारने के बजाय विवाह के पहले ही शादी करने से मना क्यों नहीं किया? जब वह इतनी गहरी अपराधिक प्रवृत्ति की है तो वह खुलकर अपने अनचाहे (?) विवाह का विरोध क्यों नहीं कर सकी? क्या पारिवारिक दबाव था अथवा वह किसी आपराधिक रोमांच का अवसर ढूंढ रही थी? इन प्रश्नों के उत्तर धीरे-धीरे सामने आते जाएंगे। आरंभिक परिस्थितियों में तो स्वयं राज रघुवंशी के परिवार वाले सोनम को अपराधी मानने को तैयार नहीं थे। एक हंसी खुशी से किए गए विवाह उत्सव के बाद ऐसी जघन्य हत्या की कल्पना भला कौन कर सकता है? इस तरह का अपराध कोई साइको अपराधी ही अंजाम दे सकता है।
        अपराधियों का मनोविज्ञान अर्थात क्रिमिनल साइकोलॉजी अपने आप में एक अलग अध्ययन शाखा है। इसमें आपराधिक व्यवहार और उसके कारणों का अध्ययन किया जाता है। इसमें अपराधियों के विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का विश्लेषण शामिल है। यह अपराधियों के प्रोफाइल बनाने, उनके पुन: अपराध के जोखिम का मूल्यांकन करने, और पुनर्वास कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद करता है। डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय में क्रिमिनोलॉजी एक स्वतंत्र विभाग है जिसमें अपराध से संबंधित सभी पक्षों का अध्ययन एवं अध्यापन किया जाता है। अपनी किताब “न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां” लिखने से पूर्व मेरा क्रिमिनोलॉजी या फॉरेंसिक साइंस यानी न्यायालयिक विज्ञान से कोई नाता नहीं था। मैं इतिहास की विद्यार्थी रही तथा साहित्य में कलम चलाई। किंतु अपराध अन्वेषण ब्यूरो द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन निकाल कर जब “न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां” ( द न्यू चैलेंज का फॉरेंसिक साइंस) विषय पर पुस्तक लिखने के लिए स्वतंत्र लेखकों को आमंत्रित किया गया तो मुझे यह विषय एक चुनौती जैसा लगा और मैंने इस विषय पर पुस्तक लिखने की ठानी। अपराध अन्वेषण ब्यूरो नई दिल्ली द्वारा मेरी सिनॉप्सिस स्वीकार कर लिए जाने के बाद मुझे किताब लिखने की स्वीकृति प्रदान की गई। इसके बाद मैंने अपराध शास्त्र और फोरेंसिक विशेषज्ञों से चर्चाएं की। विश्वविद्यालय के जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय में बैठकर घंटों अपराध विज्ञान एवं फॉरेंसिक साइंस संबंधित पुस्तक पढ़ीं। इस दौरान मुझे क्रिमिनल साइकोलॉजी पढ़ने की भी जरूरत पड़ी। “न्यायिक विज्ञान की नई चुनौतियां” विषय पर मेरे द्वारा लिखी गई किताब को राष्ट्रीय गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कार प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इससे पूर्व मैं कला संकाय की एक छात्रा रही। “खजुराहो की मूर्ति कला के सौंदर्यात्मक तत्व” पर  मैं पीएचडी की थी। लेकिन इस किताब को लिखने के बाद अपराध और अपराधियों को देखने का मेरा नजरिया ही बदल गया। अब जब किसी अपराध के बारे में मैं पढ़ती हूं तो मुझे लगता है कि अपराध की तह में जाकर यह जानना भी जरूरी है कि यह घटित हुआ तो क्यों हुआ? भले ही घटना के कारण के आधार पर हर अपराधी को निर्दोष या मासूम नहीं कहा जा सकता है, यह घटना की प्रकृति पर निर्भर करता है कि अपराधी ने कितनी क्रूरता से अपराध को अंजाम दिया। लेकिन जब से सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी मिली है तब से सभी को न्यायाधीश बनने की बड़ी हड़बड़ी रहती है। किसी भी अपराध का घटनाक्रम पूरी तरह सामने आए बिना ही लोग अपराधी या निरपराध की घोषणा करने लगते हैं। संयम की यह कमी भी अपने आप में एक मानसिक अस्थिरता की परिचायक है। 
           सिर्फ सोनम रघुवंशी का मामला ही नहीं, बल्कि और भी जातिगत या धार्मिक अपराधों में भी सीधे-सीधे लोगों पर आक्षेप लगाए जाने लगता है। क्या किसी एक व्यक्ति के अपराध के आधार पर किसी समुदाय, किसी जाति या किसी लिंग के सभी लोग अपराधी प्रवृत्ति के हो सकते हैं? हर व्यक्ति की मानसिकता परस्पर दूसरे से भिन्न होती है हर कोई अपराध में प्रवृत नहीं हो सकता है। लड़ाई, झगड़ा, विवाद आदि तो हर परिवार में होते हैं लेकिन कोई किसी की जघन्य हत्या नहीं करता। इसलिए किसी एक लड़के या लड़की के अपराध को लेकर पूरे लड़कों या लड़कियों को संदेह के घेरे में खड़ा कर देना उचित नहीं है। कई ऐसे सोशल मीडिया वीर भी हैं जो तात्कालिक आवेग में आकर अनाप-शनाप टिप्पणी कर देते हैं अथवा पोस्ट डाल देते हैं और फिर जब उन्हें समझ में आता है कि वे जल्दबाजी कर बैठे हैं तो वह तत्काल अपनी टिप्पणी या पोस्ट डिलीट कर देते हैं। ऐसे लोग भी अस्थिर मानसिकता के होते हैं। ऐसे लोगों के प्रभाव में सोशल मीडिया के कृत्रिम आवेग में आकर कोई भी टिप्पणी करने से पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता है। 
-------------------------- 
#DrMissSharadSingh #columnist  #डॉसुश्रीशरदसिंह #स्तम्भकार #शून्यकाल  #कॉलम  #shoonyakaal #column #नयादौर 

Thursday, June 12, 2025

बतकाव बिन्ना की | ज्यादा ने इतराओ, सोनम घांईं मिलहे तो पता परहे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
---------------------------
बतकाव बिन्ना की
ज्यादा ने इतराओ, सोनम घांईं मिलहे तो पता परहे
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘देख तो बिन्ना! कित्ते नखरे आएं ई मोड़ा के।’’ भौजी बोलीं।
‘‘ईमें नखरे की कोनऊं बात नोईं। आपने पूछी सो हमने बता दई। अब आप खों ने पुसाए सो आप जानों!’’ भौजी को भनेज मों बनात भओ बोलो।
‘‘हो का गओ? काए की गिचड़ चल रई आप दोई में?’’मैंने पूछी।
‘‘देखो ने बुआ, पैले तो इन्ने हमसे हमाई पसंद पूछी औ अब बोल रईं के हम नखरा दिखा रए। जो कोन सो ढंग आए?’’ भनेज भिनभिनात भओ मोसे बोलो।
‘‘जे नखरा नईं तो का आए? ऐसईं नईं ऊंसई, ऊंसई नईं ऐसईं, इत्ते भाव नईं खाए जात।‘‘ भौजी भनभनात भईं बोलीं।
‘‘कोन चीज की पसंद? काय की बात कर रए आप ओरें?’’ मोए कछू समझ नईं परी।
‘‘हम बता रए तुमें बिन्ना!’’ बीच में कूंदत भए भैयाजी बोले, ‘‘का आए के जे अपने भनेज साब के ब्याओ के लाने लड़किया ढूंढी जा रईं। मनो अबे लौं जित्ती ढूंढी ऊमें एकऊ इने ने पुसाई। जेई लाने तुमाई भौजी इने समझा रईं के मोड़ी में इत्ती ज्यादा कमी-बेसी नईं निकारी जात आए।’’
‘‘औ का! अब तुमई बताओ बिन्ना के मनो कोनऊं मोड़ी तनक दबे रंग की होय पर ऊको चाल-चलन सब कछू अच्छो होय तो का ऊको खाली जे लाने रिजेक्ट करो जाओ चाई के ऊको रंग दबो कहानो? का जे ठीक आए?’’ भौजी ने मोसे पूछी।
‘‘बिलकुल नईं! मोड़ी के रंग से कछू फरक नईं परत। बा कैनात आए ने के सूरत भले अच्छी ने होए पर सीरत अच्छी होनी चाइए। मोड़ी को ब्यौहार अच्छो होय तो सब कछू अच्छो कहानो।’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो हम इने समझा रए के, भैया! फेयर एंड लवली वारी मोड़ी के जो काम फेयर ने भए तो रोऊत फिरहो। ज्यादा नखरे ने दिखाओ, जो सोनम घांईं मिलहे तो पता परहे।’’ भौजी ने फेर भनेज को ताना मारो।
भौजी को भनेज साफ्टवेयर इंजीनियर आए बेंगलुरू में। कोनऊं अच्छी मल्टी नेशनल कंपनी में। सो मोय जेई लगो के भौजी जबरिया ऊको ठेन कर रईं। अरे, ऊकी कोनऊं अपनी पसंद हुइए, सो ऊको अपनी पसंद की छांटन देओ।
‘‘बुरौ ने मानियो भौजी, पर एक बात कएं के इनखों अपनी पसंद की छांट लेन देओ। काए से के ऊके संगे जिनगी इने बितानी आए, आप ओरों को नोंईं।’’ मैंने भौजी से कई। मैंने देखी के मोरी बात सुन के भनेज जू को मों कुम्हड़ा के फूल घांई खिल गओ। ऊको कोऊ ऊकी तरफी से बोलने वारो जो मिल गओ, ने तो भैयाजी औ भौजी दोई अपनी मनवाने खों पिले परे हते।
‘‘सो हम ओरें कोन खूंटा गाड़े दे रए? पूछई तो रए के तुमें कैसी मोड़ी चाइए तो महराज जू को कैबो आए के इने दूद घांईं गोरी, अंग्रेजी वारी पढ़ी-लिखी, नौकरी करत भई, बा बी कोनऊं मल्टी नेशनल कंपनी में, ऊको खानो बनाऊत बनत होए, घर सम्हार सके, रिश्तेदारी सम्हार सके, ऐसी टाईप की मोड़ी चाऊने। कऊं मिलहे ऐसी मोड़ी? जोन मल्टी नेशनल कंपनी में नौकरी कर रई हुइए, ऊको का खाना बनानो आऊत हुइए? नौकरी पाबे के पैले तो पढ़त-पढ़त ऊकी जिनगी कढ़ गई हुइए, बा भला खाना बनाबो औ घर सम्हारनो कबे सीख पाई हुइए? औ जोन ज्यादई सुंदरी भई सो ब्यूटी पार्लर में सबरो पइसा फूंकत रैहे। जे बात जे महाराज समझई नईं पा रए।’’ भौजी ने खुल के बता दई जो सल्ल हती।
‘‘अरे नईं आप ने डराओ! ऐसो बी नइयां के बड़ी नोकरी करबे वारी मोड़ी घर ने सम्हार पाहे। मोड़ियां तो सबई कछू सम्हार लेत आएं। आप तो समझतई हो।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘जेई तो हम इन ओरन से कै रए के हमें इते-उते मोड़ी ने दिखाओ। उन मोड़ियन खों मना करबे में हमें सोई बुरौ लगहे। हमें जोन टाईप की मोड़ी चाउने, बा हमें ढूंढन देओ, आप ओरें ने परेसान हो।’’ भनेज तुरतई मोसे बोलो। ऊके जा कैतई सात मोय सबरी किसां समझ में आ गई।
‘‘सो अब बेटा, तुम तनक सई-सई बता देओ के जोन तुमने पसंद कर राखी आए बा कां की आए औ का करत आए? का बो तुमाई कंपनी में आए?’’ मैंने सूदे-सूदे भनेज से पूछो।
‘‘बुआ आप बी!’’ भनेज झेंपत भओ बोलो।
‘‘जे अब तुम सई के नखरा दिखा रए। काए से के इन ओरन खों परेसान ने करो। जब तुमने अपने लाने मोड़ी पसंद कर राखी आए तो इने बता देओ। जे ओरें फालतू में नाएं-माएं ने भटकें। एक तरफी तुमई कै रए के तुमें मोड़ी वारों खो मना करत में जी दुखहे तो पैलई उन ओरन से बात चलवा के उनकी आसा काए जगा रए? जे बी तो गलत आए। काए सई बात आए के नईं?’’ मैंने भनेज साब की क्लास ले लई।
‘‘हऔ बुआ आप सई कै रईं। हमें एक मोड़ी पसंद आए औ बा हमाए संगे काम करत आए।’’ भनेज हिचकत भओ बोलो।
‘‘औ बा तुमें पसंद करत आए के नईं? के एकई तरफी को खेल चल रओ?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘हऔ, बा बी हमें भौत लाईक करत आए।’’ भनेज तुरतईं बोलो।
‘‘कोन सो वारो लाईक? असली वारो के सोसल मीडिया वारो?’’ भैयाजी ने तनक चुटकी लई।
‘‘असली वारो।’’ भनेज तुरतईं बोल परो। फेर तनक झेंप सोई गओ।
‘‘तो बा सब कछू कर लेत आए? मने खाना बना लेत आए? झाडूं-पोंछा कर लेत आए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हऔ! बा तो छुट्टी के दिनां हमाए फ्लैट में आ के सब कछू ठीक-ठाक कर जात आए। औ हम संगे खाना बना लेत आएं। बड़ी नोनी आए बा।’’ भनेज अपनी पसंद की तारीफ करत भओ बोलो।
‘‘देखो भौयाजी, औ देखो भौजी! जे आए असल बात, जोन के कारण ने बेटा जी मोड़ी में छत्तीस के बदले बहत्तर गुन की डिमांड कर रए हते। काए से के इने घर सम्हारने वारी पैलई मिल गई आए, सो कोनऊं औ इने चाइए नईं।’’ मैं हंसत भई बोली।
‘‘सो जे पैले काए नईं बताई? हम ओरन को मूंड़ पिरा गओ तुमाए जोग मोडी ढूंढत-ढूंढत।’’ भौजी भनेज खों लाड़ से डपटत भई बोलीं।
‘‘कछू नईं! कर लेन देओ ईको पसंद बाकी ब्याओ तो बईं हुइए जां हम तै करबी।’’ भैयाजी ने जे कै के कम सबई खों चैंका दओ।
‘‘जो का कै रए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हम सई कै रए। इनके बाप-मताई ने जे जिम्मा अपन ओरन खों सौंपो आए के अपन इनके लाने इतई की अच्छी सी मोड़ी देख लेबें। सो अब तो इतई की औ हमाए पसंद की मोड़ी से इनको ब्याओ हुइए। देख लइयो!’’ भैयाजी मनो अपनो फाईनल डिसीजन बताऊत भए बोले।
‘‘आप से हमें जे उमींद ने हती। अब जो हमने सब बता दओ, फेर बी आप अपनी पसंद की मोड़ी से हमाओ ब्याओ कराहो। इट इज़ नाॅट फेयर।’’ भैयाजी की बात सुन के भनेज इत्तो घबड़ानों के बुंदेली बोलत-बोलत अंग्रेजी बोलन लगो।
‘‘अब तुम कछू करो। हमें जो करने बा हम कर के रैबी। औ तुमें सोई पतो आए के तुमाएं बाप-मताई हमाओ कहो कभऊं ने टालहें।’’ भैयाजी अपनी अड़ी लगा के बैठ गए।
‘‘जे आपको का हो गओ भैयाजी? जोन मोड़ी ईको पसंद आए, ऊके संगे जे खुस रैहे, आप काए कोनऊं औ मोड़ी ईके गले पाड़ रए?’’ मोए बी भैयाजी से पूछने परी।
‘‘अब तुम बीच में ने परो! हमने सोच बी लई आए के ईके लाने कोन सी मोड़ी ठीक रैहे।’’भैयाजी बोले।
‘‘कोन-सीे मोड़ी?’’ भौजी सोई अचरज करत भई पूछ बैठीं।
‘‘बो छुन्ने महराज जू की लोहरी मोड़ी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बा? बा तो पूरी तोपचंद आए। ऊसे तो कोनऊं खों पिटवा लेओ, मनो आप ऊसे पानी को गिलास नईं मंगा सकत।’’ भौजी आंखे फाड़त बोलीं।
‘‘हऔ, सुनी तो हमने बी आए के बा बड़ी दादा टाईप की मोड़ी आए। बा तो बेटा जू खों एक लपाड़ा लगा के चुप करा दैहे।’’ मैंने बी कई।
‘‘जेई से तो! बा मोड़ी सबसे ठीक रैहे ईके लाने। बाकी हमाओ तो जोई कैबो आए के मोड़ी पसंद करबे में ऐसो नखरा दिखाबे वारे औ अपनी पसंद छिपाबे वारे मोड़ा खों सोनम घांई मोड़ी मिलो चाइए। जोन पता परी के ब्याओ करा के ले गई, औ फेर लगा आई ठिकाने।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
बे हंसे तो हम ओरन खों समझ परी के बे अबे लौं भनेज की टांग खिचाई आ कर रए हते।
‘‘सई कई भैयाजी आपने! इनके लाने तो सोनम घांई सई रैहे।’’ मैंने सोई हंस के कई।
जा सब सुन के भनेज की जान में जान आई, ने तो ऊकी जान कढ़ी जा रई ती।                
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के एक सोनम के चलत भए सबई मोड़ियन पे उंगरिया नईं उठानी का ठीक आए? अपने इते सीता औ सावित्री होत आएं, बा एक सोनम तो अपवाद ठैरी। जेई नांव की एक से एक अच्छी मोड़ियां आएं अपने इते। काए, सई कई के नई?  
---------------------------
#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat  

Wednesday, June 11, 2025

चर्चा प्लस | कबीर जयंती विशेष : कबीर के ‘राम’ हैं उनकी सहज समाधि के आधार | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस (सागर दिनकर)    

कबीर जयंती विशेष : कबीर के ‘राम’ हैं उनकी सहज समाधि के आधार         
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             
     कबीर की प्रासंगिकता कोई नकार नहीं सकता है। कबीर की वाणी कालजयी वाणी है। उन्होंने जिस मानव स्वाभिमान और निडरता का साथ देते हुए, धार्मिक आडंबर ओढ़ने वालों को ललकारा, वैसा साहस आज भी दिखाई नहीं देता है। कबीर ने सहजसमाधि के रूप में जीने का आसान तरीका बताया जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर की सहज समाधि का अर्थ है मन को स्थिर करना और उसे बाहरी दुनिया के विचारों से मुक्त करके एक गहरी, आनंदमय अवस्था में ले जाना। यह समाधि सहज और स्वाभाविक है, किसी विशेष प्रयास या साधना की आवश्यकता नहीं होती। इसमें किसी भी दिखावे या आडंबर की कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिए यह सहज समाधि है। 

कबीर की सहज समाधि जीवन जीने का सही ढंग सिखाती है जिसमें दिखावे या आडंबर के लिए कतई गुंजाइश नहीं है। यह स्वयं के भीतर झांकने और स्वयं को पहचानने की एक जीवन पद्धति है। इसमें निर्गुण राम के स्मरण का भाव है। इसमें दैनिक जीवन के समस्त कर्म करते हुए समाधिस्थ अवस्था का अनुभव करने की अवस्था है जैसे रस्सी पर खेल दिखाने वाली नटनी जितनी तन्मयता से खेल दिखाती है उतनी ही सजगता से अपना संतुलन बनाए रखती है-
नटनी चढ़ै बांस पर, नटवा ढ़ोल बजावै जी। 
इधर-उधर से निगह बचाकर, सुरति बांस पे लावे जी। ।।  
कबीर का जन्म लहरतारा के पास जुलाहा परिवार में सन 1398 में जेष्ठ पूर्णिमा को माना जाता है। वे संत रामानंद के शिष्य बने और ज्ञान का अलख जगाया। कबीर ने साधुक्कड़ी भाषा में किसी भी संप्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किए बिना खरी बात कही। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्तिपूजा आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर ने हिंदू मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर के विचार और उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावनअक्षरी और उलटबांसी  में मिलते हैं।
कबीर ने समाज के साथ-साथ आत्म-उत्थान पर भी बल दिया। आत्म-उत्थान के लिए उन्होंने समाधि के उस चरण को उत्तम ठहराया जिसमें मनुष्य अपने अंतर्मन में झांक सके और अपने अंतर्मन को भलीभांति समझा सके। कबीर ने सहजयान की बहुत प्रशंसा की और इसे सबसे उत्तम कहा। कबीर के अनुसार सहज समाधि की अवस्था दुख-सुख से परे परम सुखदायक अवस्था है। जो इस समाधि में रम जाता है वह अपने नेत्रों से अलख को देख लेता है। जो गुरु इस सहज समाधि की शिक्षा देता है वह सर्वोत्तम गुरु होता है-
     संतो, सहज समाधि भली 
     सुख-दुख के इक परे परम, 
    सुख तेहि में रहा समाई ।।
कबीर के राम को अवतारी राम की छाया से भी दूर रखना चाहते हैं। उनके राम कोमल भाव के नहीं हैं, फिर भी उनकी चेतना ज्यादा मानवीय है। कबीर अपने राम के साथय सम्बन्ध स्थापित करते हैं-‘हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया’। अपने भगवान के साथ मानवीय सम्बन्ध मानवी की कल्पना करना बहुत बड़ी बात है।
कबीर ने सहज समाधि की विशेषताओं को विस्तार से समझाते हुए कहा है कि इस समाधि को प्राप्त करने के लिए न तो शरीर को तप की आग में तपाने की आवश्यकता होती है और कामवासना में लिप्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होने की। यह समाधि अवस्था उस मधुर अनुभव की भांति है जो इसे प्राप्त करता है, तो वहीं इसकी मधुरता को जान पाता है -
      मीठा सो जो सहेजैं पावा।
     अति कलेस थैं करूं कहावा।।
कबीर इस तथ्य को स्पष्ट किया कि वस्तुतः सहजसमाधि का नाम तो सभी लेते हैं किंतु उसके बारे में जानते कम ही लोग हैं अथवा सहज समाधि को लेकर भ्रमित रहते हैं। यह तो सामाजिक व्यवस्था है जिसमें हरि की सहज प्राप्ति हो जाती है। कबीर सहज समाधि को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह कोई आडंबर युक्त क्रिया नहीं है अपितु सहज भाव से जीवनयापन करते हुए राम अथवा हरि में लीन हो जाना ही सहज समाधि है।
   सहज-सहज सब ही कहैं, 
   सहज न चीन्हैं कोई ।
   जिन सहजै हरिजी मिलैं
   सहज कहीजैं सोई ।।
   सहज समाधि के लिए न तो ग्रंथों की आवश्यकता है और न किसी पूजा पाठ की। इसके लिए बस इतना करना पर्याप्त है कि विषय-वासना का त्याग, संतान, धन, पत्नी और आसक्ति से मन को हटा कर  'राम' के प्रति समर्पित कर दिया जाए। जो भी ऐसा कर लेता है वह सहजसमाधि में प्रविष्ट हो जाता है। कबीर कहते हैं कि यह तो बहुत सरल है-
     आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं
     तनिक कष्ट नहीं धारों । 
    .खुले नैनी पहिचानौं हंसि हंसि 
     सुंदर रूप निहारौं ।।
इस सहज समाधि की अवस्था को पाकर साधक सहज सुख पा लेता है तथा सांसारिक दुखों के सामने अविचल खड़ा रह सकता है। वह न तो स्वयं किसी से डरता है और न किसी को डराता है। यह तो ब्रह्मज्ञान है जो मनुष्य के भीतर विवेक को स्थापित करता है, धैर्य धारण करना सिखाता है और युगों युगों के विश्राम का सुख देता है -
   अब मैं पाईबो रे, पाइबौ ब्रह्मगियान।
   सहज समाधें सुख मैं रहिबौ 
   कोटि कलप विश्राम ।।
कबीर कहते हैं कि जब मन ‘‘राम’’ में लीन हो जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है, चित्त एकाग्र हो जाता है - उस समय मन स्वयं ही भोग की ओर से हटकर योग में प्रवृत्त होने लगता है। यह साधक की साधना की चरम स्थिति ही तो है जिसमें उसे दोनों लोकों का सुख प्राप्त होने लगता है -
एक जुगति एक मिलै, किंवा जोग का भोग।
इन दून्यूं फल पाइए, राम नाम सिद्ध जोग ।।
सहज समाधि के बारे में कबीर के विचार सिद्धों के सहजयान संबंधी विचार के बहुत समीप हैं। सिद्धों के समय सहज भावना उत्तम और सरल मानी जाती थी। सिद्ध भी यही मानते थे कि घर बार को त्याग कर साधु होना व्यर्थ है यदि त्याग करना है तो सभी प्रकार के आडंबरों का त्याग करना चाहिए। सिद्ध संत गोरखनाथ ने भी सहज जीवन के बारे में यही कहा है कि  ‘‘हंसना, खेलना और मस्त रहना चाहिए किंतु काम और क्रोध का साथ नहीं करना चाहिए। ऐसा ही हंसना, खेलना और गीत गाना चाहिए किंतु अपने चित्त की दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिए। साथ ही सदा ध्यान लगाना और ब्रह्म ज्ञान की चर्चा करनी चाहिए।’’
    हंसीबा खेलिबा रहिबा रंग, 
    काम क्रोध न करिबा संग। 
    हंसिबा खेलिबा गइबा गीत 
    दिढ करि राखि अपना चीत।।
    हंसीबा खेलिबा धरिबा ध्यान 
    अहनिस कथिबा ब्रह्म गियान।
    हंसै खेलै न करै मन भंग 
    ते निहचल सदा नाथ के संग।।
सिद्धों और नाथों की सहज ज्ञान परंपरा की जो प्रवृत्ति कबीर  तक पहुंची उसे कबीर ने आत्मसात किया और उसे सहज समाधि के रूप में और अधिक सरलीकृत किया। जिससे लोग सुगमता पूर्वक उसे अपना सकें। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन का यह कथन समीचीन है कि ‘‘यद्यपि कबीर के समय तक एक भी सहजयानी नहीं रह गया था फिर भी इन्हीं (पूर्ववर्ती) से कबीर तक सहज शब्द पहुंचा था। जिस प्रकार सिद्ध सहज ध्यान और प्रवज्या से रहित गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए सहज जीवन की प्रशंसा करते हैं वैसे ही कबीर साधु वेश से रहित घर में रहकर जीवन साधना में लीन थे।’’
संसार में रहकर सांसारिकता के अवगुणों में न डूबना ही सहजसमाधि का मूलमंत्र कहा जा सकता है। सिद्धों के इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कबीर ने कहा है -
साधु ! सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी 
दिन-दिन अधिक चली 
जंह-जंह डोलों सो परिकरमा 
जो कछु करौं सो सेवा 
जब सोवौं तब करो दंडवत 
पूजौं और न देवा
कहौं तो नाम सुनौं सो सुमिरन 
खावौं पियौं सो पूजा 
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं 
भाव मिटावौं दूजा
कबीर ने अपने जीवन में संयम, चिंतन, मनन एवं साधना को अपनाया। उन्होंने सदैव भक्ति का सहज मार्ग ही सुझाया। यह वही सहज मार्ग था जो सिद्धों-नाथों के बाद आडम्बरों की भीड़ में लगभग खो गया था किंतु कबीर ने उसे पुनर्स्थापित किया तथा शांति एवं धैर्यवान जीवन की धारणा को जनसामान्य के सामने रखा। आज जब सारी दुनिया उपभोक्ता बनी बाजार के पीछे व्याकुल हो कर आंख मूंद कर दौड़ रही है, कबीर की सहज समाधि जीवन शैली शांति और निर्लिप्ति के साथ जीने का रास्ता दिखाती है जो उनके निगुर्ण राम से उपजी है जो बहुआयामी हैं किन्तु समस्त दोषों से परे हैं।
------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह #कबीरजयंती #संतकबीर