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शरदाक्षरा....डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Expressions of Dr (Miss) Sharad Singh
Wednesday, November 26, 2025
चर्चा प्लस | अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, November 25, 2025
पुस्तक समीक्षा | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - रश्मियों का अपहरण
कवि - ज.ल. राठौर ‘प्रभाकर’
प्रकाशक - शिवराज प्रकाशन, म.न. 1/1898, गीता गली, मानसरोवर पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 395/-
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हिन्दी काव्य ने अपनी परम्पराओं को सहेजते हुए सदा नूतनता को स्वीकार किया है। यही कारण है कि हिन्दी काव्य आज भी निरन्तर समृद्ध होता जा रहा हैं। हिन्दी में गजल के प्रभाव से उर्दू शब्दों का समावेश अधिक हो गया था किन्तु सजल ने हिन्दी काव्य को हिन्दी भाषा के वास्तविक स्वरूप से पुनः जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। जहां तक हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ भाषाई सौंदर्य का प्रश्न है तो व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना रहा है कि यदि हिन्दी के भाषाई सौंदर्य से साक्षात्कार करना है तो जयशंकर प्रसाद के काव्य को पढ़ना चाहिए। यह इसलिए कि प्रसाद ने संस्कृतनिष्ठ परिष्कृत हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया। दैनिक संवाद में भले ही अंग्रेजी और उर्दू के शब्द सहज रूप से आ जाते हैं किन्तु जब बात साहित्य की हो तो भाषाई शुद्धता का आग्रह अनुचित नहीं है। हर भाषा का अपना एक सौंदर्य होता है और यह सौंदर्य तभी पूर्णरूप से प्रकट होता है जब उसमें मौलकिता हो, शुद्धता हो। हिन्दी की नई काव्य विधा सजल ने इस आग्रह को दृढ़ता से स्थापना दी है। यद्यपि अब सजल विधा नूतनता के प्रथम सोपान पर नहीं है, वरन यह कई सोपान चढ़ती हुई अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है। इसका श्रेय है डाॅ. अनिल गहलौत जी को।
रोचक तथ्य यह है कि सजल विधा अधुनातन तकनीक के गवाक्ष से हो कर साहित्य के प्रांगण में पहुंची है। इस संबंध में डाॅ. अनिल गहलौत ने अपनी पुस्तक ‘‘सजल और सजल का सृजन विज्ञान’’ में लिखा है कि -‘‘हमारे मोबाइल के वाट्स एप ग्रुप ‘‘गजल है जिंदगी’’ के साथियों से हमने सन 2016 में हिंदी को बचाने की अपनी इस चिंता को साझा किया। हमने कहा कि क्यों न गजल के समकक्ष हम हिंदी की एक अपनी विधा लाएँ जिसकी भाषा और व्याकरण के तथा शिल्प के अपने मानक हों। हमारे ग्रुप में अनेक हिंदी के विद्वान कवि, गजलकार, प्रोफेसर, समीक्षक और समाजसेवी जुड़े हुए थे। एक माह के सघन विचार-मंथन के उपरांत सहमति बनी। सजल विधा के नाम पर तथा सजल के अंग-उपांगों के हिंदी नामों पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। सजल की भाषा, व्याकरण और शिल्प के मानक भी सुनिश्चित किए गए। सजल की लय का आधार हिंदी छंदों की लय को मान्य किया गया। उसके उपरांत 5 सितंबर 2016 को उस ग्रुप पर सजल विधा के हिंदी साहित्य में पदार्पण की घोषणा की गई और ग्रुप का नाम बदलकर ‘‘सजल सर्जना’’ कर दिया गया। इस विमर्श में हमारे सहयोग और समर्थन में, श्रम और समय देकर सजल विधा को रूपायित करने में, प्रारंभ में जिनकी प्रमुख भूमिका रही उनके नाम हैं- वाराणसी के डॉ.चन्द्रभाल ‘‘सुकुमार’’, डॉ.रामसनेहीलाल शर्मा ‘‘यायावर’’, श्री विजय राठौर, श्रीमती रेखा लोढ़ा ‘‘स्मित’’, श्री विजय बागरी ‘‘विजय’’, डॉ० मोरमुकुट शर्मा, श्री संतोष कुमार सिंह, डॉ.बी.के.सिंह, डॉ० रामप्रकाश ‘‘पथिक’’, डॉ० राकेश सक्सेना, श्री रामवीर सिंह, श्री ईश्वरी प्रसाद यादव, श्री महेश कुमार शर्मा, श्रीमती कृष्णा राजपूत, एड. हरवेन्द्र सिंह गौर तथा डॉ.एल.एस.आचार्य आदि। (पृष्ठ 42-43)
ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजलों पर चर्चा करने से पूर्व सजल के उद्भव पर दृष्टिपात कर लेना मुझे इसलिए उचित लगा कि यदि इस संग्रह के जो पाठक सजल विधा से भली-भांति परिचित न हों, उन्हें भी इस नूतन विधा के उद्भव की एक झलक प्राप्त हो जाए। इस विधा को अस्तित्व में आए दस वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। यह सुखद है। किसी भी विधा का विकास तभी संभव होता है जब उसके प्रति साहित्य जगत में विश्वास हो और उसका स्वागत किया जा रहा हो। सजल विधा से गहराई से जुड़े सागर, मध्यप्रदेश निवासी ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी में सजल को ले कर मैंने सदैव असीम उत्साह देखा है। वे सजल विधा के प्रति आश्वस्त हैं, आस्थावान हैं तथा सतत सृजनशील रहते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के इस सजल संग्रह में उनके द्वारा संग्रहीत सजलों को पढ़ते समय उनके वैचारिक एवं भावनात्मक विस्तार से भली-भांति परिचय हुआ जा सकता है। ‘प्रभाकर’’ जी अपने सजलों में शांति, अहिंसा, प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्यता आदि विविध बिन्दुओं पर चिंन्तन करते दिखाई देते हैं। वर्तमान में सबसे अधिक पीड़ादायक हैं आतंकी गतिविधियां जो सम्पूर्ण मानवता पर प्रहार कर के प्रत्येक मानस को विचलित कर देती हैं। इस संदर्भ में ‘प्रभाकर’’ जी के एक सजल की कुछ पंक्तियां देखिए-
आँधी करने लगी आक्रमण ।
दीप-शिखा संकट में हर क्षण।
बाढ़ विकट उन्मादी आई ।
डूबा शांति-क्षेत्र का कण-कण।
‘‘प्रभाकर’’ जी स्थिति की विषमताओं का अवलोकन कर के ठहर नहीं जाते हैं वरन वे उन कारणों पर भी चिंतन करते हैं जो समस्त अव्यवस्था के मूल में है। वे लिखते हैं-
तिमिरण इतना पसरा क्यों है।
सूरज अभी न सँवरा क्यों है ।
तुम करते विघटन की बातें
मन में इतना कचरा क्यों है ।
कवि को पता है कि अव्यवस्थाओं का कारण छल, छद्म और भ्रष्टाचार है। इसीलिए कवि के हृदय में क्रोध भी उमड़ता है और वह अपनी लेखनी के द्वारा सब कुछ जला कर भस्म कर देना चाहता है, जिससे एक ऐसे संसार की रचना हो सके जिसमें सुख और शांति का वातावरण हो। इसीलिए कवि ‘‘प्रभाकर’’ उपचार की बात भी लिखते हैं -
आग लिखता हूँ सदा, अंगार लिखता हूँ।
ओज से परितप्त कर, ललकार लिखता हूँ।
अंधकारों का नहीं, साम्राज्य बढ़ पाए।
रश्मियों की मैं सतत, बौछार लिखता हूँ।
कवि इस बात से व्यथित भी हो उठता है कि अपात्र सुपात्र बने घूम रहे हैं तथा अयोग्य व्यक्ति छद्म के सहारे योग्यता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हैं। भाषाई संदर्भ में वे पाते हैं कि स्वयं हिन्दी भाषी हिन्दी की अवहेलना कर रहे हैं। यह सब कवि के लिए दुखद है, असहनीय है -
कैसा हुआ जगत का हाल !
चलता काग हंस की चाल !!
सूखा कहीं, कहीं है बाढ़ ।
मौसम ने बदले सुर-ताल ।।
ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी ने अतीत के संदर्भों के आधार पर वर्तमान का आकलन भी किया है। जैसे वे अपने एक सजल में कुन्ती पुत्र कर्ण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
जन्म से वह कर्ण कौन्तेय था।
नियति ने बना दिया. राधेय।।
समय को समझ सका है कौन ?
समय है अटल, सचल, अविजेय ।।
राष्ट्रहित-चिंतन से हम दूर ।
निजी हित-पोषण पहला ध्येय ।।
जब निज हित पोषण की भावना प्रबल हो जाती है तो प्रकृति तक का हनन होने लगता है। वनों का अवैध निर्बाध काटा जाना, पर्वतों को खण्डित किया जाना, बढ़ते प्रदूषण को अनदेखा किया जाना कवि के हृदय को सालता है। कवि ‘‘प्रभाकर’’ की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
धरती पर बढ़ रही घुटन है।
सहमा-सहमा आज गगन है।।
सिसक रही हैं सबकी साँसें ।
बहका-बहका रुग्ण पवन है।।
देखा जाए तो कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ अपने सजलों के माध्यम से जहां मार्ग के कंटकों के प्रति ध्यान आकर्षित करते हैं तो वहीं वे कंटकों के उन्मूलन तथा पीड़ा का निदान और उपचार भी सुझाते हैं। यह कवि के भीतर उपस्थित सकारात्मकता की द्योतक है। यूं भी प्रत्येक सृजनकार को आशावादी होना ही चाहिए। निराशा का उच्छेदन आशा से ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ‘‘प्रभाकर के सजल हिन्दी काव्य की वैचारिकी को परंपरागत रूप से समृद्ध करते हैं। ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजल शिल्प की दृष्टि से डाॅ. अनिल गहलौत द्वारा स्थापित किए गए सजल के सृजन-विज्ञान के मानक पर भी खरे उतरते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के सजलों का भाषाई सौंदर्य काव्यात्म तत्वों का रसास्वादन कराता है तथा विन्यास सजल विधा में उनकी पकड़ को दर्शाता है। यह सजल संग्रह पाठकों को काव्य की एक नई विधा का सुरुचिपूर्ण आस्वाद कराएगा।
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Saturday, November 22, 2025
टॉपिक एक्सपर्ट | ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
Friday, November 21, 2025
चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।
हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है? भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है?
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे?
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की।
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 21.11.2025 को प्रकाशित)
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चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।
हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है? भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है?
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे?
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की।
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 21.11.2025 को प्रकाशित)
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