Saturday, May 31, 2025

स्त्री शक्ति की प्रतीक यशस्विनी रानी अहिल्याबाई होल्कर - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रानी अहिल्याबाई होल्कर जी की 300 वीं जन्मजयंती के अवसर पर जनसंपर्क विभाग सागर द्वारा जारी किया मेरा लेख....
     यह आलेख PROSagar ओके सो जाने से कुछ अन्य समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुआ है....
    🚩हार्दिक धन्यवाद #PROSagar 🙏
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➡️ अहिल्या बाई होलकर की ३००वीं जन्म जयंती के उपलक्ष्य में आलेख

➡️ रानी अहिल्याबाई होल्कर की जन्म जयंती पर विशेष लेख

➡️ स्त्री शक्ति की प्रतीक यशस्विनी रानी अहिल्याबाई होल्कर

स्त्री शक्ति की प्रतीक अहिल्याबाई होल्कर  ने संकटों का सामना करते हुए जिस प्रकार स्वाभिमान और दृढ़तापूर्वक अपना जीवन जिया वह आज भी नारी की शक्ति, धैर्य और संवेदनाओं का अनुपम उदाहरण है। इस वर्ष हम रानी अहिल्याबाई की 300 वीं जन्मजयंती मना रहे हैं। ऐसे सुअवसर पर रानी के जीवन और कर्म का स्मरण कर हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। वस्तुतः हम पाश्चात्य भौतिकतावादी विचारों में पड़ कर अपने गौरवशाली अतीत को भूलते जा रहे थे किन्तु एक बार फिर हमें अवसर मिला है कि हम अपने विराट व्यक्तित्व के धनी पूर्वजों का पुनः स्मरण करें और अपना शीश गर्व से ऊंचा करें। तो आइए एक संक्षिप्त दृष्टि डालते हैं यशस्विनी रानी अहिल्याबाई होल्कर के जीवन और कर्म पर।

अहिल्याबाई होल्कर का जन्म वर्ष 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के जामखेड, अहमदनगर के चौंढी नामक गांव में हुआ था। उनके पिता मान्कोजी शिन्दे के एक सामान्य किसान थे।  अहिल्याबाई मनकोजी शिन्दे एवं सुशीला शिन्दे की इकलौती पुत्री थीं अतः उन्हें माता-पिता का भरपूर स्नेह मिला। अहिल्याबाई बचपन से ही एक सीधी और सरल स्वभाव की बालिका थीं। वे दूसरों का दुख देखकर द्रवित हो उठती थीं। बाल्यावस्था से ही उनके मन में जनकल्याण की भावना थी। वे धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। अहिल्याबाई  प्रतिदिन मंदिर जातीं और भगवान की पूजा-अर्चना करतीं।

       उन दिनों छोटी आयु में बेटियों का विवाह कर दिया जाता था। अहिल्याबाई की आयु उस समय मात्र 10 की थी जब होल्कर वंशीय राज्य के संस्थापक मल्हार राव होल्कर के पुत्र खण्डेराव के साथ उनका विवाह कर दिया गया।

एक सामान्य परिवार की नन्हीं बालिका अहिल्या होल्कर राजपरिवार की बहू बन गईं। यह स्थिति भी उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी किंतु उन्होंने अपने लगन और कर्तव्यनिष्ठा से अपने सास-ससुर, पति व अन्य सम्बन्धियों के हृदयों को जीत लिया। अहिल्याबाई के विवाह के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मल्हार राव होलकर अपने योग्य पुत्र के लिए योग्य वधु की तलाश में निकले थे। तभी अचानक उनका सामना अहिल्याबाई से हुआ और वे अहिल्याबाई के विलक्षण व्यक्तित्व को पहचान गए तथा उन्हें अपनी बहु बनाने का निर्णय ले लिया।

       एक योग्य बहू के रूप में रहते हुए समय के अनुरूप अहिल्याबाई ने क्रमशः  एक और एक पुत्री को जन्म दिया। पूरा होल्कर परिवार प्रसन्नता से भर उठा। किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था।
अहिल्याबाई होल्कर उस समय मात्र 29 वर्ष की आयु थी जब उनके पति खंडेराव होल्कर का निधन हो गया। राजा खांडेराव होलकर कुंभेर के युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार शोकाकुल रानी अहिल्याबाई ने सती होने का निर्णय लिया। तब उनके पिता समान ससुर मल्हार राव होलकर ने उन्हें सती होने से रोका और उनके दायित्वों का उन्हें स्मरण कराया।

      इसके बाद सन् 1766 ई. में उनके ससुर मल्हारराव होल्कर का भी देहांत हो गया। इससे राज्य पर संकट के बादल मंडराने लगे तब अहिल्याबाई होल्कर ने आगे बढ़ कर शासन की बागडोर सम्हाली। उनके कल्याणकारी शासन काल में होलकर साम्राज्य में कई उल्लेखनीय कार्य हुए जो आमजन के हित में थे।  

     जीवन की स्थितियां सम्हलती हुई प्रतीत हो रही थीं की तभी दुर्भाग्य ने एक बार फिर अहिल्याबाई होलकर के सुखों के द्वार पर दस्तक दिया। एक के बाद एक काल का कठोर प्रहार उन्हें झेलना पड़ा और उनसे उनके पुत्र मालेराव,  पुत्री मुक्ता, दामाद फणसे और दोहित्र नाथू भी सदा के लिए बिछड़ गए।

     कोई सामान्य स्त्री होती तो इतने आघातों के बाद हताश और निराश हो जाती। किंतु वे रानी अहिल्याबाई होल्कर थी जिन पर पूरे साम्राज्य का दायित्व था वह होलकर साम्राज्य की जनता की "राजमाता" थीं, पालिका थीं, वे परिस्थितियों से हार नहीं मान सकती थीं । उन्होंने अपने दुख को दबाकर सफलतापूर्वक अपने राजकीय दायित्वों का निर्वाह किया। उन्होंने कृषि को बढ़ावा दिया और कुटीर उद्योगों को विकसित किया। उनके शासनकाल में व्यापार और वाणिज्य को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। उन्होंने सार्वजनिक भवनों और सड़कों का निर्माण कराया।
       अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी जनहित के कार्य किए। उन्होंने विभिन्न तीर्थ स्थानों  मंदिरों, घाटों, कुँओं और बावडियों का निर्माण कराया तथा जहां आवश्यक था वहां जीर्णोद्धार भी कराया। उन्होंने तीर्थ स्थलों एवं घाटों पर अन्न एवं पेयजल की व्यवस्थाएं भी कराईं। अहिल्याबाई होल्कर का बुंदेलखंड से कोई सीधा संबंध नहीं था किंतु उन्होंने जानकारी मिलने पर बुंदेलखंड के कई तीर्थ स्थलों के लिए भी धन उपलब्ध कराया। वे एक उदार एवं लोकप्रिय शासिका थीं। उनकी प्रजा उन्हें एक राजमाता ही नहीं वरन एक देवी के समान सम्मान देती थी।
 
   रानी अहिल्याबाई ने महिला शिक्षा पर भी ध्यान दिया। वे स्त्रियों के लिए शिक्षा को आवश्यक मानती थीं। रानी अहिल्याबाई  विधवा महिलाओं की की भलाई के लिए राज्य में प्रचलित कानून में आवश्यक बदलाव किए। उनके द्वारा शासन सम्हालने से पूर्व कानून था कि पुत्रविहीन विधवा स्त्री की पूरी संपत्ति राजकोष में जमा कर दी जाती थी। यह बात रानी अहिल्याबाई को उचित नहीं लगी और उन्होंने विधवा स्त्रियों को उनके पति की संपत्ति पर अधिकार दिलाए जाने का कानून बनाया और उसे दृढ़ता पूर्वक लागू किया। यह एक बहुत बड़ा निर्णय था जिसका परंपरावादी कट्टरपंथियों के द्वारा विरोध भी किया गया किंतु रानी अपने निर्णय पर अडिग रहीं और उन्होंने विधवा स्त्रियों के हित में कानून लागू करके ही माना।

     वह दुखद तिथि 13 अगस्त, 1795 की थी जब नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर के किले में राजमाता अहिल्याबाई होल्कर ने चिरनिद्रा को ग्रहण किया। रानी अहिल्याबाई होलकर दैहिक रूप से भले ही इस दुनिया से विदा हो गईं किंतु उनकी दृढ़ता, स्त्रियों और आमजन के हित में किए गए उनके कार्यों तथा धर्म स्थलों के लिए उनके अवदान ने उन्हें अमर बना दिया है। उन्होंने यह दिखा दिया की एक सामान्य परिवार में जन्म लेने वाली स्त्री भी अपने निश्चय एवं लगन से सफलता पूर्वक एक पूरा साम्राज्य संभाल कर परिवार, समाज और इतिहास के लिए एक आदर्श स्थापित कर सकती है। रानी अहिल्याबाई होल्कर की जन्म जयंती पर उन्हें सादर नमन!
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह वरिष्ठ साहित्यकार एवं इतिहासविद, सागर (म.प्र.)
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टॉपिक एक्सपर्ट | उते तो खुसी, मनो इते गम्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में
टॉपिक एक्सपर्ट
उते तो खुसी, मनो इते गम्म
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

      जोन टाईप से आजकाल मोसम एक सो नई रैत, ओई टाईप से अपने इते की जिनगी चल रई। अब जेई देखो के संकारे बदरा से दिखात आएं, सो, जी करन लगत आए के दुफारी में इते चलो जाए, उते चलो जाए। मनो दुफारी होत-होत सूरज दाऊ उते ऊपरे से आंखें दिखाऊत आएं के तनक निकर के तो दिखाइयो, फेर हम बताएं! जेई दसा अपने इते जिनगी की आए। सहर में कछू अच्छे काम हो रए, जैसे महाराना प्रताप की स्टेचू, गीता के ग्यान के स्टेचू घांई किसम-किसम की स्टेचू लग रईं। महाराना प्रताप जंयती पे अच्छे बड्डे-बड्डे दो-दो ठइयां जलूस निकरे। कोऊं भले ईको सक्ती प्रदर्सन को जलूस कए, मनो हमें तो खुसी भई। खुसी तो मनो ई बात पे बी हो रई के अपने सहर में साहित्य वारो बुंदेली मेला लगबे वारो आए। ऊमें बायरे से पाऊना बी आहें। अच्छो रैहे। सो, जे तो भई खुसी वारी बात, अब गम्म वारी सोई सुन लेओ।
     बाकी जे गम्म कोनऊं नओ नईयां। कओ जात आए के बारा बरस में घूरा के दिन फिर जात आएं, पर इते तो छत्तीस बरस में आवारा पशुअन की समस्या हल ने हो पाई। सहर में गाड़ियां बढ़ गईं, मनो उने खड़ी करबे की जांगा अबे लौं ने बन पाई। सो होत का आए के सबरे फुटपाथ गाड़ियां ठाड़ी करबे को अड्डा बने रैत आएं। अब आपई सोचो के जो कऊं बिलकुल बायरे के पाऊंना आहें तो जे सब देख के का सोचहें? जेई तो सल्ल आए के भैया-बैन हरों खों जलूस से फुरसत नईयां औ  जलूसन के मारे प्रसासन भैरानों सो फिर रओ औ हम उते खुसी, इते गम्म में मरे जा रए।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, May 30, 2025

शून्यकाल | हिंदी पत्रकारिता दिवस और हिंदी टीवी पत्रकारिता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
 शून्यकाल
हिंदी पत्रकारिता दिवस और हिंदी टीवी पत्रकारिता
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह     
                                     
30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस। अब हिंदी पत्रकारिता के 200 वर्ष पूरे होने के करीब हैं। हिंदी पत्रकारिता दिवस पर हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हमारी हिंदी पत्रकारिता विशेष रूप से हिंदी टीवी पत्रकारिता किस दौर में चल रही है? क्योंकि आज पत्रकारिता का स्वरूप वह नहीं है जो देश की स्वंतत्रता के पूर्व या देश की स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद तक रहा। डिज़िटल क्रांति ने सबकुछ उलट-पलट दिया है। आज का पत्रकार नोटबुक और कलम ले कर नहीं घूमता है, उसके हाथ में एंड्रायड फोन और आईपैड होता है। वह लाईव स्ट्रीमिंग करता है और स्टूडियो में मुद्दे की बखिया उधेड़ता है। हाल ही में कुछ 'स्टूडियो घमासान' वायरल भी हुए। जिसने बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया।


*न खींचो कमान,  न तलवार निकालो।*
*जब तोप हो मुकाबिल, तब अखबार निकालो।*
       - इस शेर के माध्यम से अकबर इलाहाबादी ने पत्रकारिता के बारे में बिल्कुल ठीक कहा था क्योंकि अखबार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को न केवल स्थापित किया बल्कि मुखर भी किया। लेकिन समय के साथ पत्रकारिता में आमूल चूल परिवर्तन आए हैं जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टीवी पत्रकारिता का प्रचार प्रसार बड़ा तब से पत्रकारिता को अपना वास्तविक स्वरूप बचाने के लिए भी जमकर संघर्ष करना पड़ रहा है। अभी हाल ही में कुछ ऐसे वीडियो वायरल हुई जिसमें समाचार टीवी चैनल पर होने वाले डिबेट में जिस तरह की तू-तू-मैं-मैं और घमासान दिखी वह अत्यंत अशोभनीय थी। क्या चींख-चींख कर किसी बात को दोहराया जाना उसे हर हाल में सच ठहर सकता है? यह किसी से प्रश्न करने के बाद उसे उत्तर देने से पहले ही चुप करने के लिए उसे पर लगभग झपट पड़ना क्या उचित तरीका है? यही सब हो रहा है अधिकांश हिंदी समाचार टीवी चैनल्स में। जब इस तरह की बाइट्स वायरल होती है तो उस पर जो टिप्पणियां की जाती हैं, उन्हें यदि वे टीवी पत्रकार या एंकर्स एक बार पढ़ने का कष्ट करने तो शायद उन्हें आईने में अपना असली चेहरा दिखाई देने लगे। हाल ही में जो डिबेट बाइट्स  वायरल हुए थे, उन पर एक व्यक्ति ने टिप्पणी की थी कि अब बस एंकर के हाथों में एके-47 होने की कमी है। वहीं दूसरे व्यक्ति ने कमेंट किया था कि ऐसे डिबेट्स देखकर मन में हिंसा जागने लगती है और टीवी तोड़ देने का मन करता है। क्या 200 साल पहले हिंदी पत्रकारिता का जो सफर शुरू हुआ था उसे इस बिंदु पर पहुंचना चाहिए था?
       जी हां, 30 मई अर्थात हिंदी पत्रकारिता दिवस।  इसी तिथि को सन 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने पहला हिन्दी समाचार पत्र "उदन्त मार्तण्ड" का प्रकाशन शुरू किया था। उन दिनों कोलकाता से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र अंग्रेज़ी, बंगाली या उर्दू में होते थे। हिंदी बोलने वालों के लिए उनकी मूल भाषा में कोई अखबार नहीं था। मूल रूप से कानपुर के रहने वाले पं. शुक्ल ने इस कमी को पहचाना और अखबार निकालने का निर्णय किया। "उदंत मार्तंड जिसका मतलब है “उगता हुआ सूरज”। हर मंगलवार को प्रकाशित होता। यह एक ऐतिहासिक कदम था क्योंकि जो लोग अंग्रेज़ी नहीं जानते थे, वे अपने लिए महत्वपूर्ण समाचार पढ़, समझ और उससे जुड़ सकते थे। "उदन्त मार्तण्ड" के पहले अंक की 500 प्रतियां छपी थीं, लेकिन इसे ज्यादा पाठक नहीं मिल सके। 
एक अहिंदी भाषा क्षेत्र से प्रकाशित होने के कारण इसकी पाठक संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम थी दूसरे प्रति की हिंदी पाठकों तक इसे पहुंचाना भी एक कठिन कार्य था। इसके लिए डाक खर्च भी वहन करना पड़ता था। सरकारी व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से अखबार को कोई विशेष सहायता नहीं मिली। यद्यपि वित्तीय कठिनाइयों और सीमित पहुंच के कारण अखबार को मात्र 79 अंकों के बाद ही बंद करना पड़ा, लेकिन इसने हिंदी पत्रकारिता के जो मानक स्थापित किया वह आज भी एक गाइडलाइन के समान हैं।
    हिंदी पत्रकारिता प्रिंट तक ही सीमित नहीं रही। 90 के दशक के अंत में टेलीविजन के उदय ने एक नए युग की शुरुआत की। आजतक, एबीपी न्यूज़, ज़ी न्यूज़ और न्यूज़18 इंडिया जैसे हिंदी समाचार चैनल्स ने हिंदी टीवी पत्रकारिता की मुखरता एवं  लोकतांत्रिक स्वरूप से आमजन को परिचित कराया। डिजिटल क्रांति के कारण टीवी पत्रकारिता की तमाम सामग्री आज स्मार्टफ़ोन और सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर भी तुरंत उपलब्ध हो जाती है। हिंदी न्यूज़ पोर्टल, यूट्यूब चैनल और मोबाइल ऐप अब एक बड़े दर्शक वर्ग को अपनी सेवाएँ दे रहे हैं जो हिंदी में जानकारी रखना पसंद करते हैं। यह बदलाव खास तौर पर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हर साल गैर-मेट्रो क्षेत्रों से ज़्यादा भारतीय डिजिटल स्पेस से जुड़ रहे हैं।
     इस प्रगति के साथ एक बात और याद रखने की जरूरत है कि देश की स्वतंत्रता के बाद सन 1956 में प्रथम प्रेस आयोग ने पत्रकारिता की नैतिकता और प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक समिति गठित करने का विचार किया। इस विचार को क्रियान्वित होने में लगभग 10 वर्ष लग गए और 10 वर्ष बाद सन् 1966 में एक प्रेस परिषद का गठन किया गया। भारतीय प्रेस परिषद अथवा प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया देश में जहां पत्रकारिता के दायित्वों पर नज़र रखती है, वहीं पत्रकारिता जगत के अधिकारों की रक्षा के प्रति भी सचेत रहती है। भारतीय प्रेस परिषद यह भी सुनिश्चित करता है कि भारत में प्रेस किसी दबाव में काम करने को विवश न किया जाए। यूं तो 4 जुलाई 1966 को भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना हुई थी लेकिन 16 नवंबर 1966 को इसने विधिवत काम करना शुरू किया था। प्रेस काउंसिल ने प्रिंट मीडिया की न केवल रक्षा की बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उस पर लगाम भी लगाई। सच कहा जाए तो आज कई हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल्स को भी कड़े लगाम की आवश्यकता है। बहस का भद्दा संस्करण अथवा भूत प्रेत के अंधविश्वासी किस्से दिखाने पर रोक लगाई जाने की जरूरत है।
         इस पर विचार करना जरूरी है कि क्या कतिपय हिंदी टीवी चैनल्स अपनी टीआरपी बढ़ाने की लालसा के चलते हिंदी पत्रकारिता की साख को निरंतर दांव पर लगा रहे हैं? आज भी हर हिंदी दर्शक इतना प्रबुद्ध या समर्थ नहीं है कि वह झूठ और सच को धैर्य पूर्वक समझ सके और छन्नी से छान सके। इस बात को भी टटोलना होगा कि हिंदी टीवी पत्रकारिता में यह भद्दा ट्रेंड कहां से आया क्योंकि अंग्रेजी टीवी पत्रकारिता अभी भी उसे गिरावट के स्तर पर नहीं पहुंची है जिस पर हिंदी टीवी पत्रकारिता पहुंच गई है।  आज पत्रकारिता का स्वरूप वह नहीं है जो देश की स्वंतत्रता के पूर्व या देश की स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद तक रहा। डिज़िटल क्रांति ने सबकुछ उलट-पलट दिया है। आज का पत्रकार नोटबुक और कलम ले कर नहीं घूमता है, उसके हाथ में एंड्रायड फोन और आईपैड होता है। यदि आज के पत्रकार के साथ प्रेस फोटोग्राफर न भी हो तो भी वह अपने मोबाईल से इवेंट या मूवमेंट को कैप्चर कर सकता है। यहां तक कि लाईव स्ट्रीमिंग भी कर सकता है। आज बाईनरी दुनिया के सहारे सक्रिय पत्रकारिता का आकलन भी जनरेशन के रूप में ही किया जाना चाहिए। जैसे कम्प्यूटर टेक्नाॅलाॅजी के विकास की प्रक्रिया को दर्शाने के लिए जनरेशन शब्द का प्रयोग किया जाता है। जनरेशन यानी पीढ़ी। मनुष्य की पीढ़ी और कम्प्यूटर की पीढ़ी में बहुत अंतर है। हमने अपनी एक ही पीढ़ी में कम्प्यूटर की अनेक पीढ़ियां देख ली हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम इसी दौरान पत्रकारिता की भी कुछ पीढ़ियों से गुज़र चुके हैं।
        टेक्नोलॉजी के विकास के साथ पत्रकारिता को भी सही दिशा में विकसित होना चाहिए था किंतु ऐसा हुआ नहीं है। डिजिटल माध्यम के कई ऐसे कथित न्यूज चैनल्स और अखबारों (टोटली पीडीएफ बेस्ड) के कारण आम आदमी के मन में भी यह विचार उठने लगता है कि इन पर कोई लगाम क्यों नहीं लगाता? शायद राॅबर्ट रेडफोर्ड ने इसीलिए कहा था कि -‘‘सूचना के लोकतंत्रीकरण के कारण पत्रकारिता बहुत बदल गई है। कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी डाल सकता है। इसलिए सच का पता लगाना और ज्यादा मुश्किल हो गया है।’’
        हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल्स सनसनी फैलाने की पत्रकारिता में ढल गए हैं और प्रिंट मीडिया भी पीछे नहीं है। वह भी अपराध की खबरों को इस प्रकार से छापता है जैसे कभी ‘‘मनोहर कहानियां’’ या ‘‘सत्यकथा’’ जैसी पत्रिकाएं छापा करती थीं। उस समय ये पत्रिकाएं हर घर में नहीं आती थीं, लेकिन आज समाचारपत्र हर घर में आता है और टीवी हर घर में देखी जाती है। फिर भी यह कहना होगा कि प्रिंट मीडिया में अभी भी संयम बाकी है। वही टीवी पत्रकारिता का अपना एक अलग प्रभाव है। जहां तक टीवी पत्रकारिता का प्रश्न है तो जहां एक ओर दुनिया के बड़े से बड़े आतंकी संगठन पत्रकारों के दुश्मन बने हुए हैं, बड़े-बड़े राजनेता पत्रकारिता को अपने पक्ष में करने के लिए हर तरह के प्रयास में जुटे रहते हैं क्योंकि आज पत्रकारिता का जो स्वरूप है वह सेंसेक्स को उठाने और गिराने की क्षमता रखता है। सत्ता परिवर्तन की ताकत रखता है और आमजन को सच की तस्वीर दिखाने का माद्दा रखता है। 
     हिंदी पत्रकारिता दिवस पर यह आशा की जा सकती है कि हिंदी टीवी पत्रकारिता अपने आप को उस उच्च मानक पर वापस पहुंचा सकता है जहां से हिंदी पत्रकारिता शुरू हुई थी। वह उच्च मानक था आमजन को सच्चाई से परिचित कराना और अपनी पत्रकारी अस्मिता को बिकने नहीं देना। 
वरना आज हिंदी टीवी पत्रकारिता की दशा है बाकौल मसऊद भोपाली-
*बिक रहा हूँ सर-ए-बाज़ार ज़रा देखो तो।
है कोई मेरा ख़रीदार ज़रा देखो तो।*
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Thursday, May 29, 2025

बतकाव बिन्ना की | को आ दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
को आ दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा?
      - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘जो का कर रईं?’’ मैंने भौजी से पूछी। बे सूपा में पिसी फटक रई हतीं।
‘‘बस, काम ई कर रई।’’ भौजी पसीना पोंछत भईं बोलीं।
‘‘नौतपा चल रए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, चल रए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सुन रए के ई साल मानसून जल्दी आओ जा रओ।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘हऔ, सुनो तो हमने सोई आए। बाकी, आ जाए सो अच्छोे।’’ भौजी पिसी फटकत भईं बोलीं।
‘‘पिसी मंगा लई?’’ मैंने दूजी बतकाव छेड़बे के लाने भौजी से पूछी।
‘‘हऔ मंगा लई। बोई तो फटक रए। काय से के पानी बरसे के पैले साफ-सूफ कर के धर लओ जाए, ने तो बाद में मुस्किल परहे।’’ भौजी पिसी फटकत भई बोलीं।
‘‘खुरई की हुइए जे तो।’’ मैंने पिसी के कछू दाना उठा के पूछो।
‘‘हऔ! हम तो हर दारे उतई से मंगात आएं। तनक मैंगी भले परत आए, मनो रैती सबसे अच्छी आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘काए बिन्ना! तुम तो अकबर औ बीरबल घांई कर रईं।’’ इत्ते देर से हम दोई की बतकाव सुन रए भैयाजी मोसे बोल परे। 
‘‘का मतलब?’’ मैंने पूछी।
‘‘हमें तो खबर आ रई के तुमई ने जे किसां हमें सुनाई रई। मनो, चलो अब हम तुमें सुनाए दे रए। काय से के ई टेम पे जे तुमई पे फिट बैठ रई।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘कोन सी किसां? अकबर औ बीरबल की तो मुतकी किसां आएं। मोपे कोन सी वारी फिट कर रए आप?’’ मैंने सोई हंस के पूछी।
‘‘का भऔ के एक दिनां अकबर अपने दरबार में बैठे हते। उने बरहमेस कछू ने कछू सूझत रैत तो। सो ऊंसई उने सूझी औ उन्ने अपने दरबारियन से कई के आप ओरन में से जोन दरबारी हमाए लाने हमाए राज को सबसे बड़ो अंधरा ढूंढ लाहे, ऊको हम मुतको इनाम देबी। एक दरबारी ने पूछी के आ हम ओरन के लाने कित्ते दिनां को टेम दे रए? तो अकबर ने कई के तीन दिनां भौत आएं। आप ओरें ठैरे चतुरा, सो तीन दिनां में हमाए राज को सबसे बड़ो अंधरा ढूंढबे में आप ओरन खों कछू दिक्कत ने हुइए। बा दरबारी अकड़ के बोलो, अरे महराज तीन दिनां तो कुल्ल आएं। हम तो अबई संझा लों आपके आंगू सबसे बड़ो अंधरा ला के ठाड़ो कर देबी। अकबर ने देखी के बीरबल कछू नईं बोल रए, बे चुप्पई बैठे। सो, अकबर ने बीरबल से पूछी के काए बीरबल आप काए मों दाब के बैठे? आप खों सोई सबसे बड़ो अंधरा ढूंढ के लाने। ईपे बीरबल ने कई के हऔ महाराज आज से तीसरे दिनां हम आपके लाने आपके राज को का, ई दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा लान देबी। सबरे दरबारी बीरबल की बात पे हंसन लगे। उने लगो के ई दफा बीरबल खों मों की खानी परहे। फेर का रओ के सबरे दरबारी पूरे राज भर से अंधरा पकर-पकर के लान लगे। कोनऊं कछू साल पुरानो अंधरा रओ, तो कोनऊं जनम को अंधरा रओ तो कोनऊं खानदानी अंधरा रओ। मने किसम-किसम के अंधरा दरबार में ला के ठाड़े करे जात रए। जेई-जेई में दो दिनां कढ़ गए। तीसरे दिनां जब अकबर अपने दरबार में पौंचे तो उने उनके सबरे दरबारी औ उनके लाए भए अंधरा तो दिखा रए हते, मनो उने बीरबल ने दिखानो।’’
‘‘सो, बीरबल कां गओ?’’ भौजी ने पूछी। बे पिसी फटकत भईं भैयाजी को किसां सुन रई हतीं।
‘‘जेई तो अकबर महराज सोच में पर गए के बीरबल कां गए? सो उन्ने दरबारियन से पूछी। दरबारियन ने कई के हो सकत के बीरबल को सबसे बड़ो अंधरा ने मिलो हुइए सो सरम के मारे बे दरबार ने पधारे। बीरबल के ने आए से दरबारी तो बड़े खुस हते पर अकबर को कछू चिंता सी भई। उन्ने सिपाई दौड़ाए के बीरबल के घरे जा के ऊके बारे में पता कर के आओ। सिपाई बीरबल के घरे गए औ उते लौट के उन्ने अकबर को बताई के बीरबल तो अपने घरे खटिया गांथ रए। जा सुन के अबकर को मूंड़ चकरा गओ। आज तीसरो दिन आए औ बीरबल ने कई रई के बे राज को नईं बल्कि दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा से मिलवाहें औ खुदई खटिया गांथत बैठो आए। जो का?
सो अकबर महराज सिपाइयन के संगे खुदई चल परे बीरबल के घरे। उनके पांछू-पांछू सबई दरबारी लेन लगा के चल परे। सो, पूरो जुलूस बीरबल के घरे पौंचों। अकबर ने देखी के बीरबल सई में अपने अंगना में बैठे खटिया गांथ रए हते। बे बीरबल के लिंगे पौंचे औ पूछन लगे के बीरबल! जो का कर रए? तुमे तो आज सबसे बड़े अंधरा से हमें मिलाने रओ। जा सुन के बीरबल ने खटिया गंाथना छोड़ो औ हात जोर के बोलो, महाराज दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा इतई आए, आप देख लेओ। अकबर ने इते-उते नजर फेरी। कोनऊं ने दिखाओ। सो उन्ने बीरबल से पूछी के कां आए अंधरा? सो बीरबल ने ऊंसई हात जोर के कई के बा ई परदा के पांछू आए। आप जो परदा हटाहो से बा आपके लाने दिखा जाहे। अकबर को बड़ो अचरज भओ। ऊने आगे बढ़ के परदा हटाओ तो ऊके पांछू लगे आईना में ऊको अपनी सकल दिखानी। जा देख के अकबर तिन्ना गओ। बा भड़कत भओ बोलो के जे का मजाक आए? जे तो आईना में हम दिखा रए। अंधरा कां आए? ईपे बीरबल ने कई के महाराज जान की अमान राखियो, ई दुनिया के सबसे बड़े अंधरा तो आपई हो। जा सुन के अकबर रै गओ। ऊके पांछू ठाड़े दरबारी सोई सनाका खा के रै गए। फेर तनक सम्हरत भए अकबर ने कई के बीरबल तुम होस में तो आओ? कऊं पगला तो नई गए? जे का बक रए? ईपे बीरबल बोलो के महराज हम बक नोईं रएं, आपके लाने दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा पेश करो आए हमने। अकबर ने पूछी, बा कैसे? बीरबल बोलो के, बा ऐसे मालक के जे जो दरबारी हरें आपके लाने अंधरा ढूंढ-ढूंढ के लाए बे तो किस्मत के मारे अंधरा आएं। कोनऊं जनम से, तो कोनऊं खानदानी, तो कोनऊं बीमारी के मारे अंधरा हो गओ। मनो आप तो पूरे भले चंगा आओ। आपको अपनी दोई आंखन से पूरो सई-सई दिखात आए। बोलो दिखात आए के नईं? अकबर ने कई के हऔ दिखात आए, तो ई से का? बीरबल बोलो के ईसे जे के आप आए, आपने देखी के हम खटिया गांथ रए फेर बी आपने आतई पूछी के बीरबल जो का कर रए? मने आप खों दिखा बी रओ, फेर बी आपने पूछी। सो आप सबसे बड़े अंधरा कहाए के नईं? औ जो आप बुरौ ने मानो तो हम औ खोल के समझाए दे रए के आंख के अंधरा से बड़ो अकल को अंधरा होत आए। जोन देख के बी पूछे के का हो रओ? जा सुन के दरबारियन ने सोची के आज तो बीरबल गओ काम से। अब ईसे छुटकारा मिल जाहे। मनो अकबर समझ गओ औ बोलो हमें जेई जवाब तो चाउने रओ। जे हमाए बाकी दरबारी ने समझ पाए औ तुमने समझ लओ। चलो अब खटिया खों छोड़ो औ दरबार चलो। सो अकबर बीरबल के कंधा पे हात धर के ऊको अपने दरबार लिवा ले गए। बौ बाकी दरबारी अपनो सो मों ले के धरे के धरे रै गए।’’ भैयाजी पे किसां पूरी करी।
‘‘हऔ हम समझ गए के आप मोए दुनिया को सबसे बड़ो अंधरा बोल रए। काए से के मैंने आतई सात भौजी से पूछी रई के का कर रईं? जबके मैंने देखी रई के बे पिसी फटक रई हतीं।’’ मैंने हंस के कई।
‘‘इत्तोई नईं। तुमने जे सोई पूछो के पिसी मंगा लई? जब के तुम देख रईं हती के तुमाई भौजी पिसी फटक रई हतीं।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘सई कै रए आप! मनो का करो जाए, जमाना जेई को आए। सबको पतो के कोन की गइया रई औ कोन ने चारा खाओ मनो चुनाव आतई सात गइया औ चारा याद आन लगो। अरे हऔ! औ अबे बड़े मजे की भई। सुनो तो आप!’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘का भओ?’’ भैयाजी ने पूछो।
‘‘मैं आप के घर के लाने निकरी के पप्पू भैया मिल गए। बे चोरी के डायलाग बोलत भए बतान लगे के आज हमने बी छुटकल को बोल दओ आए के बा ज्यादा टर्र-टर्र ने करे ने तो ऊको हमाई गोली खाने परहे। पप्पू भैया जे बताई रै हते के उत्तई में पांछू से छुटकल आन टपके औ पप्पू भैया से पूछन लगे। कै तो रए हो मनो जे तो बताओ के कोन सी गोली ख्वाहो- ताकत वारी, के गटापरचा की, के संतरे वारी, के पिपरमिंट वारी? छुटकल के चिड़काए पे चिड़कत भए पप्पू भैया बोले के देसी कट्टा वारी गोली ख्वाहें तुमें तो। ईपे छुटकल हंसत भओ बोलो के गरजे वारे बदरा बरसत नइयां। औ मों चिढ़ात भओ उते से भाग गओ। अपने पप्पू भैया खिजियात भए ऊको गरियाबे टिके। हमने उने समझाओ के छुटकल की बातन में आप ने आओ। ऊको जो करने हतो, बा तो बा कर के भाग गओ अब आप को जो बर्रायानो मोए सुन्ने पर रओ। सो आप गम्म खाओ, ने तो उते बिहार चले जाओ। उते चुनाव को टेम आओ जा रओ सो उते अपने गले की खुजरी मिटा लइयो। उने मोरी बात जम गई आए। कऔ रात की गाड़ी से बे पटना के लाने निकर परें।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘जे सोई खूब रई। मनो इते नौतपा तप रए औ उते चुनाव के तपा चलन लगे। अब तो मुतकी डायलाग बाजी चलने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो मजे की आए, मनो जे बताओ के तुम दोई में से हमाए लाने चाय बना के को ला रओ?’’ भौजी अपनी कम्मर पे हात देत भई बोलीं। पिसी फटकत-फटकत उने कुल्ल देर हो गई रई।
‘‘मैं बना रई।’’ मैंने कई औ मैं चौंका की तरफी चल परी।          
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के बिहार वारे चुनाव में सबसे बड़ो अंधरा को निकरहे? 
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