'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा -
बुंदेली माटी की सोंधी महक में रची-बसी काव्य रचनाओं के स्वर
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - एक बांसुरी कितने राग
कवि - पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.- 471111
मूल्य - 200/-
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बुंदेलखंड की जिस भूमि पर ईसुरी और पद्माकर जैसे कवि हुए हों वहां की माटी के लिए यह कहना आवश्यक नहीं है कि यह साहित्य के लिए अत्यंत उर्वरा एवं भावसिक्त भूमि है। जिस प्रकार ईसुरी ने ‘फाग’ लिख कर प्रेम के सर्वस्व को व्यक्त कर दिया वहीं जीवन के यथार्थ दर्शन को भी वाणी दी। उसी प्रकार कवि पद्मश्री डाॅ. अवधकिशोर जड़िया ने अपने गीतों के माध्यम से प्रेम, दर्शन एवं जीवन की कठोरता को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि जहां उनके कुछ गीत हरिवंश राय बच्चन के करीब ठहरते हैं तो कहीं ईसुरी के करीब। वहीं कुछ गीत आधुनिक अति यर्थाथवादी काव्यधारा को प्रतिम्बित करते हैं। इन सब के होते हुए भी उनकी कहन की शैली में एक बुंदेली ठसक एवं माधुर्य है, जो बुंदेली काव्यभूमि की विशेषता है।
‘‘एक बांसुरी कितने राग’’ डाॅ. अवधकिशोर जड़िया का इसी वर्ष प्रकाशित काव्य संग्रह है जिसमें कुल 58 रचनाएं हैं। इसमें भजन, प्रेमगीत, यथार्थपरक गीत तथा कुछ दोहे भी हैं। इस संग्रह की रचनाओं एवं प्रकाशन के संबंध में डाॅ जड़िया ने ‘‘अपनी बात’’ में लिखा है-‘‘वर्ष 2009 से वर्ष 2024 की कालावधि में मेरे जीवन में घटित घटनाओं और घटते उत्साह के कारण ये कवितायें पुस्तक का आकार न ले सकीं। मेरे पुत्र चि. शशिभूषण जड़िया की यह अभिलाषा थी कि अब जितनी भी शेष रचनाएं हैं, सभी एक पुस्तक के रुप में प्रकाशित हो और काव्य की रस-सत्ता सभी के सम्मुख आ जाए यह अत्यन्त आवश्यक है। मैं भी चाहता था कि मेरा सम्पूर्ण सृजन जब आप सबने देखा सुना, तो यह शेष रचनायें भी आपके दृष्टिपथ से आकलन प्राप्त करे।’’
अपनी छांदासिक रचनाओं के बल पर दीर्घकाल तक मंचों पर अपनी धाक जमाए रहे डाॅ अवध किशोर जड़िया विभिन्न आयोजनों में आज भी अपनी रचनाओं के लिए सम्मान पाते हैं। डाॅ. जड़िया के छंद, गीत, दोहे दिल-दिमाग को देर तक सम्मोहित किए रहते हैं। इस संग्रह की कविताओं में भी कुछ कविताएं ऐसी हैं जो उन्हें पढ़ने वाले के साथ देर तक बतियाती रहेंगी। यद्यपि संग्रह की पहली कविता में वे बड़ी सादगी से अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
हम कवि बुंदेली वानी के
झांसी की रानी के। हम कवि बुन्देली.....
छत्रसाल घरती के हीरा,
पन्ना के पानी के। हम कवि बुन्देली.....
‘‘पद्माकर’’ के कीर्ति केतु हम,
होरी हुरयानी के। हम कवि बुन्देली.....
फिर वे चौकड़िया छंद में ओरछा के रामराजा की स्तुति करते हैं। यही तो बुंदेली माटी का कमाल है कि कवि अपनी भावयात्रा में कितनी भी दूर क्यों न निकल जाए किन्तु वह अपनी यात्रा का आरंभ अपने पूज्य एवं लोकदेवता के स्मरण के साथ ही करता है। इसीलिए ‘‘ओरछेश रामराजा सरकार’’ गीत में डाॅ. जड़िया लिखते हैं-
का कएं धनुष बान बारे की, जग मग उजियारे की
छवि उनकी उनकी देहरी की, आंगन की द्वारे की
धरा धाम ओरछा पुण्य, सलिला जल उल्छारे की
रक्षा करत देत भिक्षा, इच्छा लखि मंगनारे की
का कएं धनुष बान बारे की।।
इसके उपरांत कवि ने अपनी मूल धारा को ग्रहण किया है औ वे ‘‘एक बांसुरी पर’’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
कैसे कैसे राग बजाये एक बांसुरी पर।
तुमने सातों स्वर आजमाये एक बांसुरी पर।।
फूंक भरी उगलियां चली, या कभी रही रीती।
तुम्हें नहीं मालूम बांसुरी पर क्या क्या बीती ।।
यश अपयश के साये छाये एक बांसुरी पर।
बुंदेलखंड ईसुरी, प्रियाराम, गंगाधर व्यास आदि ने श्रेष्ठ चौकड़िया छंद लिखे। अतः चौकड़िया छंदों को अपनाने वाले डाॅ. जड़िया ने जब अपने कवित्त में ईसुरी को याद किया तो उन्होंने चौकड़िया छंद को ही अपना माध्यम बनाया। ‘‘ईसुरी’’ नाम यह रचना देखिए-
वाणी पुत्र मेड़की वारौ, बड़ो चढ़ो फगवारौ।
हिन्ना कैसी भरत चैकड़ी, ठगत देखवे वारौ।
भीतर ठठत जात चैकड़िया, फटत जात इंदियारौ।
बुंदेली की शब्द सम्पदा, कौ सिरमौर सितारौ।
मैंने आरम्भ में ही संकेत दिया था कि डाॅ अवध किशोर जड़िया की कुछ रचनाएं ‘‘बच्चन’’ के समकक्ष ठहरती हैं। गीत ‘‘जिस दिन तुम रहते हो’’ के रूप में बानगी देखिए-
जिस दिन तुम रहते हो, वह दिन उत्सव होता है।
पीते तो पानी है, लेकिन आसव होता है ।।
आशायें गर्वित हो जातीं, क्षितिज रंग शाला ।
बाहु वलय में मलय गंध, आंखों में मधुशाला ।।
मुदित देह की हलचल में, हर अवयव होता है।
पीते तो पानी है लेकिन, आसव होता है ।।
रूमानियत पर डाॅ जड़िया की गहरी पकड़ है। वे बड़ी केामलता से एवं शिष्टता से भावों को पूरी रूमानियत के साथ व्यक्त कर देने में महारत रखते हैं। ‘‘थोडी देर’’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
चलो बैठ कर हम तुम, कुछ बतियांएं थोडी देर।
बतरस के वर्षण की, करें कृपायें थोड़ी देर ।।
मन की गांठ खुलेगी धन का लगा देर होगा।
सुनते ही सुनते गरीब-मन, धन-कुबेर होगा।
भंगिमाएं आंखों में सब कह जाएं थोड़ी देर।
संग्रह में एक अलग ही तासीर की एक रचना है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को उसके अंतर्मन की गहराइयों तक छू जाएगी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यह रचना अपने आप में अद्वितीय है। इसमें राग भी है, यथार्थ भी है और जीवन का वह पड़ाव है जहां एक व्यक्ति की संवेदनाएं दूसरे व्यक्ति की संवेदनाओं की मोहताज़ हो जाती हैं। इतना ही नहीं, तब दूसरे व्यक्ति की संवेदनाएं औषधि से कहीं बढ़ कर साबित होती है। शीर्षक है - ‘‘आज सुबह से’’।
आज सुबह से रुलाई आई।
सामने तेरी दवाई आई।।
तूने बोला था, अब तुम खा लेना,
आज खाने की भी घड़ी आई।
आज सुबह से रुलाई आई ।।
तुम्हारी प्रीति छटपटा के उठी,
शहद की शीशी उठाकर लाई।
आज सुबह से रुलाई आई।।
जहां तक यथार्थ की बात है तो कवि का ये एक दोहा सटीक उदाहरण प्रस्तुत करता है-
साठ बरस का डोकरा, यहाँ पड़ा बिन हेत ।
उधर जानवर चने का, चरे जा रहे खेत ।।
अब बात आती है डाॅ जड़िया के अद्यतन परिवेश की रचनाओं की। इनमें भी उनकी रचनात्मक विशेषताएं स्पष्ट देखी जा सकती हैं। इस संग्रह में उनकी एक रचना है ‘‘हम सिलेन्डर गैस के हैं (एलपीजी)’’। इसमें उन्होंने मानवीय प्रकृति की तुलना गैस के सिलेंडर से की है-
हम सिलेन्डर गैस के हैं सच हमीं ज्वालामुखी हैं।
खो दिया है स्वत्व हमने, उसी कारण से दुखी हैं।।
वर्ना हम उर्जा, भरे घनपिण्ड हैं -ऊर्ध्वगामी
अगर कुछ संकल्प की होते हमारे,
तो अलग होते नजारे ।
पद्मश्री डाॅ अवध किशोर जड़िया बुंदेली माटी के गौरवशाली कवि हैं और उन्होंने अपने कविधर्म को बखूबी निभाया है। मध्यप्रदेश के हरपालपुर निवासी पेशे से आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी रहे डाॅ. जड़िया के लिए उनके समकक्ष कुछ विद्वान यह कहते रहे हैं कि ‘‘डाॅ जड़िया मरीज के शरीर का ईलाज आयुर्वेद के रस-रसायन से करते हैं, तो मन का ईलाज अपनी कविताओं के रस से किया करते हैं।’’ बहरहाल, डाॅ जड़िया के इस काव्य संग्रह ‘‘एक बांसुरी कितने राग’’ एक उम्दा काव्यकृति है। निश्चितरूप से यह पाठकों को पसंद आएगा। बस, एक चीज खटकती है, वह है मुद्रण की अनेक त्रुटियां जो खीर में ककंड़-सी किरकिराहट पैदा कर देती हैं। अगले संस्करण में इस ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
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(12.08.2025 )
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कवि - पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया