Tuesday, March 11, 2025

पुस्तक समीक्षा | स्त्री जीवन और पारिवारिक ढांचे में आती दरारों को रेखांकित करता उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 11.03.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
स्त्री जीवन और पारिवारिक ढांचे में आती दरारों को रेखांकित करता उपन्यास 
     - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-------------------
उपन्यास        - श्यामली
लेखिका        - सुनीला सराफ
प्रकाशक        - अनुज्ञा बुक्स,1/10206, पश्चिम गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली- 2
मूल्य           - 200/-
-------------------
      हिंदी साहित्य में ऐसे कई उपन्यास है जिनमें मुख्य पात्र नायिका है अर्थात एक स्त्री मुख्य पात्र है। कथाकार सुनीला सराफ का प्रथम उपन्यास ष्श्यामलीष् स्त्री-जीवन पर आधारित है और उसकी प्रमुख पात्र उपन्यास की नायिका ष्श्यामलीष् ही है। एक पारंपरिक परिवेश में स्त्री को एक साथ बहुत सारी जिम्मेदारियों  को निभाना पड़ता है। विवाह पूर्व जब वह मायके में रहती है तो उसे माता-पिता की आज्ञा का सम्मान करना होता है। उसे अपने मायके की परंपराओं का पालन करना होता है। किंतु जब एक लड़की का विवाह हो जाता है और वह नववधू बन कर अपनी ससुराल आती है तो उसे ससुराल की परंपराओं को आत्मसात करना पड़ता है। अब यह उसका दायित्व होता है कि वह ससुराल की परंपराओं को सहेजे और आगे बढ़ाए। उसके लिए यह एक चुनौती भरी स्थिति होती है क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जो परंपराएं उसके मायके में संचालित थी वही परंपराएं ससुराल में भी उसे मिलें। कई बार आचार व्यवहार संस्कार का अंतर मिलता है जिसके साथ तालमेल बिठाना सिर्फ उसे नव विवाहिता का दायित्व होता है और किसी का नहीं। इससे भी बड़ी विडंबना का विषय भारतीय समाज में यह है कि सभी को गोरी, सुंदर, सुघढ़ वधू चाहिए, चाहे वर में  कितने भी ऐब क्यों न हों। श्यामली के माध्यम से लेखिका ने समाज में व्याप्त इन्हीं विसंगतियों को सामने रखा है। यदि लड़की की रंगत सांवली है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी भी दृष्टि से अयोग्य है। एक सांवली लड़की भी किसी साफ रंगत वाली लड़की की भांति पूर्णतया योग्य होती है फिर भी सांवली  रंगत वाली लड़की को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। पहले तो उसके विवाह में दिक्कत आती है। विवाह तय होता भी है तो दहेज की मोटी रकम और दया भावना के प्रदर्शन के साथ। यदि उसके कुशल व्यवहार से उसके सास ससुर उसे स्वीकार कर भी ले तो भी उसे अपने पति की उपेक्षा झेलनी पड़ती है क्योंकि वह पति की आकांक्षा के अनुरूप गोरी-चिट्टी जो नहीं होती। यूं भी यदि पति में ऐब हैं यानी वह शराबी है, जुआरी है या घर से विमुख है तो उसे सुधारने का दायित्व भी नवविवाहिता पर होता है मानो उसके पास कोई जादू की छड़ी हो जिसे वह घुमाएगी और उसका पति जो अपने माता-पिता के कहने से भी नहीं सुधरा उसके कहने पर एक रात में सुधर जाएगा। या फिर उसके पास कोई गोया वशीकरण मंत्र हो जिससे वह अपने पति को वश में करके सुधार सकेगी। यहां भी एक दिक्कत है कि यदि पत्नी ने अपने कुशल व्यवहार से पति को अपने प्रति आकर्षित कर भी लिया, अपना कहना मानने वाला बना भी लिया तो ससुराल के अन्य सदस्यों का यह आक्षेप रहेगा की बहू ने आते ही बेटे को अपने वश में कर लिया यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। श्यामली को भी ऐसे विकट अनुभवों से जूझना पड़ा। वह एक आम भारतीय नारी की भांति अपनी ससुराल की सारी उपेक्षाएं सहती हुई अपने कर्तव्य का निर्वाह करती रहती है जिससे एक समय ऐसा आता है जब उसके लिए परिस्थितियों किसी हद तक अनुकूल होने लगती है लेकिन यह अनुकूलता कब तक ठहरने वाली थी? 

सुनीला सराफ के उपन्यास की नायिका ष्श्यामलीष् के अनुभवों से गुजरते हुए सहसा मालती जोशी का उपन्यास ‘‘समर्पण का सुख’’ स्मृति में कौंध जाता है। सामाजिक एवं पारिवारिक विषयों पर सिद्धहस्त प्रतिष्ठित लेखिका  मालती जोशी ने  जिस आंतरिक संवेदनशीलता से अपने उपन्यास और कहानियां लिखी हैं, उसी विशेषता की झलक इस उपन्यास में देखी जा सकती है। 
वस्तुतः स्त्री जीवन विभिन्न सामाजिक संबंधों पारिवारिक दायित्व एवं परिवार के सदस्यों की आकांक्षाओं के बीच बिखरा रहता है इस बिखराव में उसे स्वयं के अनुरोध जीने का समय कभी नहीं मिलता है । पारिवारिक जीवन की आपत्ति में वह अपनी आकांक्षाओं को लगभग भूल ही जाती है फिर भी उसे इतनी अभिलाषा तो रहती है की परिवार संयुक्त बना रहे उसकी संताने उसकी भावनाओं का सम्मान करें। किंतु आज विखंडित होते परिवारों में मां की भावनाओं का सम्मान करने की फुर्सत किसी को नहीं रहती है बहुत कम ऐसे परिवार हैं जिसमें बच्चे अपने माता-पिता की खुशियों अथवा उनकी आकांक्षाओं के बारे में विचार करते हैं।     
सुनीला सराफ का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का आह्वान तो करता ही है साथ ही परिवार में उपेक्षा का शिकार होने वाले युवाओं की समस्या पर भी दृष्टिपात करता है। शामली का पति एक ऐसा ही युवा है जिस पर किसी को भरोसा नहीं है, यहां तक की उसका स्वयं का पिता उसकी योग्यता पर विश्वास नहीं करता है। सोने चांदी अर्थात सराफा के परंपरागत व्यवसाय को अपने पुत्र के हाथों सौंपने का विचार भी पिता के मन में तब तक नहीं आता है जब तक परिस्थितिवश उसे पुत्र को सौंपना नहीं पड़ता। यहां एक बात और उभर कर सामने आती है की श्यमली का पति पहले अपने पारंपरिक व्यवसाय में रुचि नहीं रखता था वह मुंबई जाकर फिल्मी दुनिया में अपनी किस्मत आजमाना चाहता था और उसने घर से भाग कर यह प्रयास किया भी अतः इस स्थिति में पिता का रुष्ट होना स्वाभाविक था किंतु जब वह घर लौट आया और उसे पत्नी की प्रेरणा से अनुभव हुआ कि वह अपने पारंपरिक व्यवसाय में ही अपना जीवन सवार सकता है, तबभी उसका पिता उसके भीतर के विश्वास को दृढ़ बनाने की बजाय उसके प्रति अविश्वास करता रहा। यह स्थितियां अनेक परिवारों में आती है जहां पारंपरिक व्यवसाय अपनाने की बात पसंद-नापसंद के विवाद में ढल जाती है। इस मुद्दे को उठाकर लेखिका ने एक ज्वलंत समस्या को बड़ी स्वाभाविकता के साथ रेखांकित किया है। 
लगभग तीन पीढियां का विस्तार लिए हुए कथानक ने उपन्यास में बहुत सारी घटनाएं और पात्र समेट रखे हैं जोकि स्वाभाविक रूप से आते चले गए हैं। जीवन का विस्तार है तो अनेक घटनाएं भी होगी अनेक उतार-चढ़ाव होंगे ही, और उन सब का विवरण बड़ी सटीकता से लेखिका ने दिया है। ष्श्यामलीष् एक ऐसा उपन्यास है जिसका विस्तृत कैनवस है। जिसमें बहुत सारे दृश्य है और बहुत सारी घटनाएं भी। उपन्यास का आरंभ कोरोना काल से होता है। इसके बाद घटनाक्रम फ्लैशबैक में चलता है। श्यामली का पूरा जीवन फ्लैशबैक में वर्णित है। उपन्यास के एक-एक पात्र जीवंत हैं। कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे हैं। जैसेकि आम जीवन में होते हैं। परिस्थितियोंवश उन पात्रों के स्वभाव में भी अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिवर्तन होते हैं। जिन पर पाठकों को कभी सहानुभूति होगी, कभी दया आएगी, कभी झुंझलाहट होगी, तो कभी क्रोध आएगा। यह सब इसलिए संभव है क्योंकि कथानक पाठक से तादात्म्य में बनाने में सक्षम है। उपन्यास में एक पक्ष और भी है वह है संपत्ति के बंटवारे को लेकर पारिवारिक विवाद जिसके चलते भाई-भाई का दुश्मन हो जाता है, संतान माता-पिता को अपना शत्रु मानने लगती है और तमाम संवेदनाओं को तक में रखकर वैमनस्यता तक मामला पहुंच जाता है। कई बार तो यह स्थिति भी बनती है कि माता अथवा पिता मृत्युशैया पर पड़े होते हैं और संतानों को संपत्ति के बंटवारे की चिंता रहती है। परिवार के इस संवेदनशील पक्ष को भी लेखिका ने बड़ी सटीकता से प्रस्तुत किया है।
लेखिका सुनीला सराफ के काव्य संग्रह एवं कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कथा लेखन में उनकी अच्छी पकड़ है और इसी बात का लाभ उनके इस प्रथम उपन्यास को भी मिला है। इस उपन्यास में प्रवाह है, सहजता है, सरलता है। कथानक आम जीवन से उठाया गया है जिससे यह सभी से सहजता के साथ तारतम्य जोड़ सकता है। कई बार कथा लेखन करने वालों को उपन्यास के रूप में कथानक को विस्तार देना कठिन हो जाता है किंतु लेखिका ने सुंदर ढंग से कथानक को विस्तार दिया है। सामाजिक श्रेणी का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का आधार लेते हुए पारिवारिक एवं सामाजिक विमर्शों की भी समुचित व्याख्या करता है। उपन्यास की शैली पाठकों को बांधे रखने में सक्षम है। लेखिका के प्रथम उपन्यास की दृष्टि से इसे एक सशक्त उपन्यास कहा जा सकता है। इसे पढ़ने में निश्चित रूप से सभी पाठकों को आनंद आएगा तथा कुछ समय के लिए उन्हें चिंतनशीलता के उसे संसार से जोड़ देगा जहां परिवार और समाज में संबंधों की जटिलता व्याप्त है, जहां स्त्री आज भी अपने अधिकारों के लिए जूझ रही है और अपने परिवार पर अपना सर्वस्व मिटाने के बावजूद भी अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए संकट से घिरी हुई है।
----------------------------
#पुस्तकसमीक्षा  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer  #आचरण  #DrMissSharadSingh

Saturday, March 8, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | जो औरतें तरक्की करहें, तो समाज तरक्की करहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
..................................
टाॅपिक एक्सपर्ट
जो औरतें तरक्की करहें, तो समाज तरक्की करहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       अपने इते समाज में का आए के औरतन की इज्जत तो करी जात आज, मनो उनको बुद्धि से कम समझो जात आए। जे करीब-करीब सबई के घरे होत आए के घर को आदमी चाए मताई होय, चाए लुगाई होय औ चाए बैन, भौजाई होय तनक-तनक सी बात पे जेई कैत मिलहे के “तुम जान देओ, तुमें समझ में ने आहे!”
    भैया, काए समझ में ने आहे? अरे कछू डिस्कस तो करो, फेर बी समझ ने परे सो कओ! बात का आज के लौं औरतन खों कम कृ के आंको जात आए। जबके आजकाल औरतें सबरे छेत्रन में आंगू दिखा रईं। अपनी राष्ट्रपति एक औरत आएं। चलो दूर की छोड़ो, सो देखो के अपने सागर की सेंट्रल यूनिवर्सिटी की कुलपति एक औरत आएं। बे का ऊंसई यूनिवर्सिटी सम्हाल रईं? अरे, बे खुदई वैज्ञानिक आएं औ उने यूनिवर्सिटी अच्छे से सम्हालने के लाने मुतके अवार्ड मिल चुके।  अपने गते कित्ती लौं औरतें पुलिस विभाग में आएं। महिला थाना की छोड़ बी दई जाए तो मुतकी पुलिसवालियां इते मुतकी जांगा काम कर रईं। महिला वकीलों की इते कोनऊं कमी नईं। एक से एस महिला डॉक्टर आएं इते। औ ई समै तो अपने इते महापौर औ सांसद सोई औरतें आएं।
      इते अपने सागर में भौत सी महिलाएं शेयर मार्केट में सोई काम कर रईं। जबके पैले जे फील्ड आदमियन को मानो जात्तो। अपने इते महिला पत्रकार सोई खूब काम कर रईं। औ हमाए घांईं लिखबे-पढ़बे वारी महिलाओं की इते कोनऊं कमी नोंई। मुतकी औरतें स्कूल, कॉलेज में पढ़ा रईं। मुतकी दफ्तरन में काम कर रईं। मुतकी दुकानें सम्हाल रईं। मने हमाओ कैबे को मतलब जो आए के औरत खों कम ने मानियो। जे जान लेओ के जो औरतें तरक्की करहें, तो समाज तरक्की करहे। सो, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की सभी खों भौत-भौत बधाई!
-------------------------
Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
#टॉपिकएक्सपर्ट #डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #पत्रिका  #patrika #rajsthanpatrika #सागर  #topicexpert #बुंदेली #बुंदेलीकॉलम 
#happyinternationalwomensday #WomensDay2025 #अंतरराष्ट्रीयमहिलादिवसकीहार्दिकशुभकामनाएं

Friday, March 7, 2025

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आकाशवाणी सागर की कविगोष्ठी में डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज एक लंबे अंतराल के बाद कार्यक्रम अधिकारी श्री दीपक निषाद जी के सौजन्य से आकाशवाणी सागर के स्टूडियो में हम चार कवत्रियां एकत्र हुई- डॉ चंचला दवे जी, डॉ निरंजन जैन जी, डॉ नमृता फुसकेले जी तथा में डॉ शरद सिंह। अवसर था अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर काव्य गोष्ठी की रिकॉर्डिंग का। इस कवयित्री गोष्ठी का संचालन मैंने ही किया। 🚩
       रिकॉर्डिंग के उपरांत दीपक निषाद जी को मैंने अपना बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" सादर भेंट किया।🙏
       सहज स्वभाव के श्री दीपक निषाद जी से मिलकर सदैव प्रसन्नता का अनुभव होता है। 😊
    वैसे हम  कवत्रियां तो काव्यकर्म के अलावा ठहाके लगाने में एक्सपर्ट हैं ही। 😄
     कल शाम महिला दिवस को संध्या 5:30 बजे इस कवयित्री गोष्ठी का आकाशवाणी सागर से प्रसारण किया जाएगा। प्रसार भारती मोबाईल एप्प के जरिए देश के किसी भी शहर में सुना जा सकता है। तो यदि आपको समय मिले तो अवश्य सुनिए...
#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #काव्यपाठ  #कवयित्रीगोष्ठी #आकाशवाणी #सागरआकाशवाणी #AllIndiaRadio  #allindiaradiosagar #radio

शून्यकाल | आज के माहौल को सही दिशा दे सकता है महाराजा छत्रसाल का स्त्रीविमर्श | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- शून्यकाल
       आज के माहौल को सही दिशा दे सकता है महाराजा छत्रसाल का स्त्रीविमर्श
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       वर्तमान में जिस तरह से स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ते जा रहे हैं और उनके प्रति चिन्ता व्यक्त की जा रही है वह अत्यंत विचारणीय है। स्त्रियों के प्रति अपराध करने वालों को किस प्रकार का दण्ड दिया जाना चाहिए या इन अपराधों में दोष किसका है? इस तरह के प्रश्न मन में बार-बार उठते हैं। इस संदर्भ में यदि इतिहास के पन्ने पलटे जाएं और महाराज छत्रसाल के स्त्री विमर्श को देखा जाए तो सभी प्रश्नों के उत्तर स्वतः मिल जाएंगे। इस प्रश्न का भी कि समाज में स्त्रियों के प्रति कैसा आचरण होना चाहिए।
      स्त्रियों के संदर्भ में महाराज छत्रसाल ने अपने चारित्रिक मापदण्ड को सदा ऊंचा बनाए रखा और यही अपेक्षा उन्होंने अपनी प्रजा और अपने सिपाहियों से भी की। इस बारे में एक और घटना सुनाता है कि जब गढ़ाकोटा के किलेदार इख़लास खां और महाराजा छत्रसाल के बीच युद्ध हुआ जिसमें इख़लास खां मारा गया तो छत्रसाल का गढ़ाकोटा के किले पर अधिकार हो गया। छत्रसाल के कुछ सिपाही जीत की खुशी में मदिरापान करने लगे और नशे में वे अपने राजा के आदेश को भूल गए। उन सिपाहियों ने इख़लास खां के परिवार की कुछ औरतों और लड़कियों को बुरे इरादों से बंदी बना लिया। महाराज छत्रसाल यह सूचना पा कर आगबबूला हो उठे और वे ललकारते हुए नंगी तलवार ले कर सिपाहियों के पास पहुंचे। महाराज छत्रसाल ने सिपाहियों से पूछा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? तो सिपाहियों ने कहा कि शत्रु की स्त्रियां तो बंादी या लूट के सामान की भांति होती हैं। यह सुन कर छत्रसाल तमतमा उठे -‘चुप रहो निर्लज्ज! ये सब तुम्हारी माताओं और बहनों के समान हैं! चलो, इनसे माफ़ी मांगो!’
         महाराज का रौद्र रूप देख कर सिपाही डर गए और उन्होंने उन बंदी औरतों से क्षमा मांगी और महाराज से भी क्षमा मांगने लगे। तब छत्रसाल ने कहा कि-‘‘ऐसी ग़लती के लिए हम छत्रसाल बुन्देला कभी क्षमा नहीं कर सकते....इस धरती पर जो भी स्त्रियों का अपमान करता है वो हमारा सबसे बड़ा शत्रु है.....और शत्रु का सिर काटे बिना हमारी तलवार अपनी म्यान में कभी वापस नहीं जाती हैे!’’ छत्रसाल ने अपनी तलवार से उन सिपाहियों के सिर धड़ से अलग कर दिए। 
      यह देख कर वे औरतें दंग रह गईं और उन्होंने छत्रसाल से पूछा कि जब सिपाहियों ने हमसे माफी मांग ली थी तो फिर उन्हें क्यों मारा? इस पर छत्रसाल ने उत्तर दिया कि-‘‘ये दण्ड तो उन्हें मिलना ही था। हमारे राज्य में जो भी इंसान औरतों से बदसलूकी करने के बारे में सोचेगा उसे इसी तरह कठोर दण्ड दिया जाएगा। यह बात हमारे सभी सिपाहियों और हमारी प्रजा को भी याद रखनी चाहिए। हमने उन्हें आप लोगों से माफ़ी मांगने का मौका इसलिए दिया था कि वे मरने से पहले अपनी गलती का अहसास कर सकें और अपनी गलती  के लिए सिर झुका सकें।’’ 
       यह सुन कर वे औरतें भावविभोर हो उठीं और छत्रसाल को दुआएं देते हुए बोलीं, ‘‘आपने जब इख़लास खां को मौत के घाट उतार कर गढ़ाकोटा का यह किला अपने कब्ज़े में किया तो हमें अफ़सोस हुआ था लेकिन इस वक़्त हमें फ़ख्र महसूस हो रहा है कि यह किला सही हाथों में गया है।’’ 

      महाराज छत्रसाल गुणों के आधार पर स्त्री और पुरुष को बराबर मानते थे। अपने इस विचार को उन्होंने अपने जीवन पर भी लागू किया और उन्होंने अपनी रानियों के गुणों को विकसित होने का समुचित अवसर प्रदान किया। महाराज स्वयं तो कवि थे ही, उनकी रानी कमलापति भी विदुषी कवयित्री थीं। वे उदगवां नोनेर के पंवारों की पुत्री थीं। महाराज उनकी कविताओं के बहुत बड़े प्रशंसक थे।  एक बार महाराज छत्रसाल किसी सैनिक अभियान पर गए थे। उस दौरान भगवत नाम के एक कवि उनके दर्शन करने मऊ पधारे। बहुत दिन तक जब महाराज नहीं लौटे तो कवि ने निराश हो कर महाराज के महल के दरवाजे पर खड़े हो कर ऊंची आवाज़ में एक दोहा पढ़ा। दोहा इस प्रकार था-
चल ‘भगवत’ चलिए जहां, शीतल झिरियन नीर।
बड़ी  समुद्र  का  सेइये, प्यासन मरियत तीर।।
संयोगवश अटारी पर बैठी रानी कमलापति को कवि का यह दोहा सुनाई पड़ गया। उन्होंने तत्काल हाथों कुछ धन के साथ उत्तर में एक दोहा लिख भेजा। वह दोहा इस प्रकार था-
भगवत गति जानी नहीं, का झिरियन को नीर।
बड़ौ समुद्र  ना छोड़िये, निकसत रतन गंभीर।। 

       महाराज छत्रसाल मानते थे कि इस पुरुषप्रधान समाज में पहला उत्तरदायित्व पुरुष है कि वह संयम रखे और स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करे। इस संबंध में एक रोचक घटना है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं विचलित हुए बिना एक स्त्री की भावनाओं का किस प्रकार सम्मान किया। यह बात उस समय की है जब वीर बुंदेले छत्रसाल युवा थे। एक दिन, ग्रीष्म ऋतु का दोपहर का समय था। ऐसे ही समय में छत्रसाल अश्व पर सवार होकर अपने चार साथियों के साथ कहीं जा रहे थे, यदाकदा वे स्वयं भी शत्रु की खोज खबर लेने को निकला करते थे। छत्रसाल घोड़े को दौड़ाते आगे ही बढ़ते चले गए। उनका घोड़ा जिसे वे ‘‘भलेभाई’’ के नाम से पुकारते थे, वह भी बुरी तरह से हांफ रहा था। भलेभाई की दशा देखकर छत्रसाल को तरस आ गया। महाराज ने वहीं रुक कर एक पेड़ की छांव में उसे बांध दिया। अपने साथियों सहित स्वयं विश्राम करने के लिए दूसरे पेड़ की छाया मंे लेट गए। उनकी आंख लग गई। पर वीर योद्धा की नींद कभी इतनी गहरी नहीं होती है कि उसे किसी आहट का पता ही न चले। नींद में ही उन्हें पायल की ध्वनि सुनाई दी। पायल की आवाज़ सुन कर छत्रसाल जाग गए। आंखें खुली तो उन्होंने देखा कि एक रूपवती युवती उनके पास खड़ी थी और उनको एकटक निहारे जा रही थी। वे हड़बड़ा कर उठ बैठे। उनके साथी भी जाग गए। 
‘देवी आप कौन हैं और आप यहां क्या कर रही हैं?’ छत्रसाल ने चकित स्वर में पूछा। उस स्त्री ने बताया कि उसका नाम सुन्दरी है और वह चाहती है कि महाराज उसका वरण कर लें। महाराज छत्रसाल यह सुन कर चकित रह गए। फिरभी उन्होंने पूछाकि वह क्यों ऐसा चाहती है? तब उस स्त्री ने लजाते हुए कहा कि ‘‘मेरी इच्छा हैकि आप के जैसा वीर पराक्रमी मेरा पुत्र हो। बस, इसीलिए मैं चाहती हूं कि आप मुझसे विवाह कर लें।’’ 
महाराज छत्रसाल उसकी बात सुन कर नाराज नहीं हुए, बल्कि उन्होंने झुक कर उस स्त्री के पांव छुए और कहा,‘‘आप मेरे जैसा पुत्र चाहती हैं न? तो मेरे जैसा क्यों? मुझे ही अपना पुत्र स्वीकार कीजिए माता! मैं आज आपको यह वचन देता हूं कि मैं सदा आपको अपनी माता का मान दूंगा और आज से आप मेरी ‘बऊआ जू’ कहलाएंगी!’’ वह स्त्री महाराज छत्रसाल की सच्चरित्रता देख कर गदगद हो गई। वहां उपस्थित सभी सिपाहियों ने महाराज के जयकारे लगाए। 

      विचारणीय है कि राजाशाही समय में सुन्दर स्त्रियां राजाओं और राजपरिवारों के हाथों का खिलौना बना दी जाती थीं, उस युग में महाराज छत्रसाल ने एक सुन्दर, युवा स्त्री को अपनी माता का दर्ज़ा दे कर वह आदर्श प्रस्तुत किया जिसने बुन्देला राज्य के प्रत्येक पुरुष का मार्गनिर्देशन किया। महाराज छत्रसाल ने समस्त पुरुषों के लिए एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो इससे पहले कभी किसी राजा ने प्रस्तुत नहीं किया था। उन्होंने अपने पौरुष का अनुचित लाभ नहीं लिया बल्कि उस स्त्री को माता मान कर उसके स्त्रीत्व को सम्मान दिया। यदि कोई स्त्री स्वयं आग्रह कर रही हो तो पुरुष के लिए संयम रखना कठिन हो जाता है किन्तु महाराज छत्रसाल ने सिद्ध कर दिया कि स्त्री के प्रति भावनाओं की स्वच्छता किसी भी प्रकार के चारित्रिक पतन को रोक सकती है। जब समाज पुरुषप्रधान है तो पुरुषों को भी आत्मनियंत्रण साधना होगा तभी समाज में स्त्रियां सुरक्षित रह सकती हैं। यही तो मूलमंत्र है महाराज छत्रसाल के स्त्रीविमर्श का।
----------------------------
#DrMissSharadSingh #columnist  #डॉसुश्रीशरदसिंह #स्तम्भकार #शून्यकाल  #कॉलम  #shoonyakaal #column #नयादौर

Thursday, March 6, 2025

बतकाव बिन्ना की | याद राखियो ! हमईं गणेश कुंवरि आएं औ हमईं लछमीबाई | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
------------------------
बतकाव बिन्ना की
याद राखियो ! हमईं गणेश कुंवरि आएं औ हमईं लछमीबाई
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
         ई दफा भैया औ भौजी से बतकाव की जांगा सूदे आपई ओरन से बतकाव करबे को जी चा रओ। ऊपे बी अपनी बैनो औ बिन्ना हरों से। बाकी भैया हरें सोई ईमें शामिल रहैं। उनको जानबो तो और ई जरूरी आए। का आए के 08 मार्च को होत आए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, सो ई दिनां सबई जने लुगाइयन की भौतई बड़वारी करत आएं। करबो बी चाइए, काए से के लुगाइयां कोनऊं से कम नोंईं। लुगाइयन के बारे में चरचा करत समै सब ओरें उनको धरम-करम वारो घरेलू रूप खों पैले याद रखत आएं। सई बी आए। ई समाज में सबसे ज्यादा धरम-करम करबे वारो कोनऊं होत आए तो बा लुगाइयां होत आएं। सबसे ज्यादा व्रत रखत आएं। सबसे ज्यादा कथा सुनत आएं औ सबसे ज्यादा भक्ति करत आएं। उनकी भक्ति से तो देवता सोई उनको कैबो टार ने पात आएं। जो भरोसो ने हो रओ होय तो तनक ओरछा के रामराजा खों याद कर लेओ।
ओरछा की रानी रईं गणेश कुंवरि। बे बड़ी भक्त रईं रामजी की। बे अजोध्या जात रैत्तीं रामलला के दरसन करबे खों। ऐसे समै पे उनको लगत्तो के हम तो चाए जब अजोध्या जा सकत आएं पर हमाई परजा तो रामलला के दरसन नईं कर पाउत आए, अच्छो रैतो के रामलला ओरछा में बिराजन लगते। जे रानी के मन में बिचार आत रैत्ते। सो रानी रामलला से बिनती करती रैत्तीं के आप हमाए ओरछा में आन बिराजो, जीसें हमाई परजा सोई रोजीना आपके दरसन कर सके। रानी की जे इच्छा रामलला ने सुन लई। सो, एक बेरा जब बे अजोघ्या में हतीं तो रात को उनको सपना दिखो के रामलला खुदई प्रकट हो के उनसे कै रए के भुनसारे जबे तुम सरयू में नहाबे खों जाहो तो तुमें उते हमाई मूरत मिलहे। तुम ऊको अपने संगे ओरछा ले जइयो औ उते हमें पधरा दइयो। संगे उन्ने एक ठइयां चेतावनी सोई दई के तुम हमें जां पैले बिठा देहो हम उतई बैठ जाबी, फेर हम उते से न उठबी, जे जाने रइयो। इत्तो बोल के रामलला चले गए औ रानी गणेश कुंवरि की नींद खुल गई। उन्ने बाहरे झांक के देखो के भुनसारो होबे वारो आए। सो उन्ने सबसे पैले तो एक हरकारो दौड़ाओ ओरछा के लाने के उते रामलला के लाने बनवाओ जा रओ मंदर में सबरी तैयारी कर लई जाए औ खुद बे नहाबे खों निकर परीं। सरयू में डुबकी लगात सात उने रामलला की मूरत दिखानीं। बे बड़ी खुस भईं। काय से के उनको सपना सच हो रओ तो। उन्ने खुसी-खुसी मूरत नदी से निकरवाई औ ऊको संगे ले के ओरछा के लाने निकर परीं। 
जबे रानी गणेश कंुवरि ओरछा पौंचीं तो पतो परो के मंदर में कछू काम रै गओ आए। संगे पंडज्जी ने कई के अब रात हो गई आए सो मंदर में रामलला खों संकारे ई पधराओ जा सकत आए। कछू उपाय ने देख के रानी ने रामलला की मूरत खों रात भर के लाने अपने महल में पधरा दओ। जेई तो रामलला की मरजी हती। सो, ईके बाद रामलला रानी के सपने में प्रकट भए औ उन्ने रानी खों याद कराओ के हमने पैलई कई हती के हमें जां पैले पधरा दओ जैहे हम हमेसा उतई रैहें। सो अब बा तुमाओ मंदर हमाए काम को नइयां। ऊमें तुम कोनऊं औ को पधराइयो, हम तो तुमाए महल में रैबी। रानी ने जा बात सबई खों बताई औ फेर विधि-विधान से रामलला खों महल में पधरा दओ गओ। तभई से उनें ‘‘रामराजा’’ कहो जाने लगो। 
मनो जो किसां बताबे को मतलब जे रओ के लुगाइयन खों जे याद रखो चाइए के उनमें सोई रानी गणेश कुंवरि घांई भक्ति रैत आए। बे चाएं तो भगवान खों अपने इते ला सकत आएं। जरूरत का आए के खुद पे भरोसो राखबे की। अपनी भक्ति पे भरोसो होय तो कोनऊं फजूल के बाबा-ढाबा के चक्कर में परबे की जरूरत नोंईं। काय से के लुगाइयन की भक्ति की भावना खों देख के फरजी बाबा हरें उनको फायदा उठान लगत आएं। सो लुगाइयन खों अपनी भक्ति की ताकत खों याद रखो चाइए।      
जित्ती भक्ति में आगूं उत्तई बहादुरी में आगूं। गांव की लुगाइयन खों देखो, बे आज बी एक ठइयां हंसिया ने तो कुल्हारी ले के हारें निकर परत आएं। फेर बे ने तो चार पांव के जानवर से डरात आएं औ ने दो पांव के जानवर से। बा तो शहर की लुगाइयन खों तनक गलत समझा दओ गओ के पढ़ी-लिखीं लुगाइयन खों मारा-कूटी नईं करो चाइए। अरे, काय नईं करो चाइए? ठीक आए के बिना बात के नईं करो चाइए, मनो कोनऊं उनके संगे बदसलूकी करे तो चप्पलें उतार के सूंट दओ जाने चाइए। जा मारा-कूटी जायज आए। जा सोई ठीक आए के पैले पुलिस खों खबर करी जाए, मनो जो इत्तो टेम ने होय तो लछमी बाई, झलकारी बाई औ अवंती बाई खों याद करत भए टूट परो ऊ छेड़बे वारे पे। रामधई, उते ठाड़े सबरे संग देन लगहें। होत का आए के शहर की मोड़ी होत तो बहादुर आए मगर ऊको सिखा दओ जात आए के जो कोनऊं छेड़ा-छाड़ी करे तो मूंड़ झुका के उते से कढ़ जाओ। ऊसे पंगा ने लेओ। जब के जेई में ऐसे लड़ई लफंगा हरें शेर बनत फिरत आएं। सो ऐसे टेम पे लुगाइयां डरें नईं। तुरतईं 100 नंबर पे डायल करें, नें तों महिला थाना को नंबर होय तो ऊपे घंटी मारें। औ अब तो एक ठइयां एप्प सोई बन गओ आए जीमें छेड़बे वारे की फोटू खिंच के पुलिस के पास पौंच जात आए सो बा एप्प काम में लाए। बो कैनात आए न, के जो डर गओ, सो मर गओ। सो बैनों अपन ओरन खों डर-डर के नईं मरने। मरो सो बहादुरी से मरो!   
ऊंसई, होत का आए के जबे लुगाइयन की बात चलत आए तो उनकी बहादुरी के लाने झांसी की रानी लछमी बाई को उदाहरण दऔ जात आए। सई बी आए। जो जमाना में राजा हरें अंग्रेजन को सामना करबे से डरान लगे ते, ऊ जमाना में रानी लछमी बाई ने तलवार उठाई। बा समै राजा बखत बली औ राजा मदर्न सिंह जू से आंगू बढ़ के रानी लछमी बाई ने अंग्रेजन खों छठी को दूद याद कराओ रओ। अंग्रेजन ने इतिहास में मुतके हेर-फेर करे औ देस के लाने लड़बे वारों खों दोंदरा देबे वारों कैबे में कोनऊं कसर ने छोड़ी, पर बे सोई रानी लछमी बाई के लाने कछु उल्टो-सूदो लिखबे की हिम्मत ने कर पाए। मने रानी लछमी बाई के मारे जाने पे बी उनकी हिम्मत से डरात रए अंग्रेज। बा तो का आए के अपने इते के मुतके बहादुर हरें भीतर घात से मारे गए। ने तो मधुकर शाह जू को को छीं सकत्तो? जेई बीरता दिखाए वारी लुगाइयन के संगे भओ। खैर, बा अलग बात आए।
अब कछू सल्ल दए फिरबे वारे कैत आएं के लछमी बाई कोन इते की हतीं बे तो ब्याओ कर के आई रईं। सो भैया हरें भूल जात आएं के लक्ष्मी बाई इते की बहू रईं औ ब्याओ के बाद मोड़ी को असली घर ऊकी ससुराल मानो जात आए। सो लछमी बाई सोई इतई की रईं। ब्याओ के बाद उन्ने इतई को पानी पियो औ इतई को नाज खाओ। तभई तो उनकी बहादुरी बनी रई। काए से के बुंदेलखंड की माटी में बहादुरी के गुन पाओ जात आए। अंग्रेजन को बिरोध बुंदेलखंड से ई सबसे पैले मने 1842 में सुरू भओ रओ। बाकी मोरो कैबे को मतलब जे के अपने इते लुगाइयां सजबे के लाने चूरियां भले पैनत आएं, मनो जरूरत के समै पे बे अपने बेई चूरियन वारे हाथन में तलवार उठाबो सोई जानत आएं। झलकारी बाई ने सोई जेई करो। अवंतीबाई ने सोई जता दओ रओ के लुगाइयन खों कोनऊं कमजोर ने समझे।
सो, बैनो के संगे औ सबई जने याद राखें के चाए मताई होय, चाए बैन होय, चाए चाची औ भौजी होए, चाए सहेली औ चाहबे वारी होय, सबई में गणेश कुंवरि घांई भक्ति बी रैत आए औ लछमी बाई घांई शक्ति बी रैत आए। सो बैनों अपने खों अबला-मबला ने समझे करो। तुमई से तो पीढ़ियां चल रईं। तुमई से तो बच्चा हरें पैली शिक्षा लेत आएं। तुम ने हो तो घर सोई घर नईं होत। सो खुद खों कम ने आंकों। खुद पे भरोसो राखो। औ रई सगरे जग की, सो, सबई याद राखें के लुगाई जां चंदन आएं उतई आग सोई आएं, जिते फूल आएं उतई तलवार सोई आएं। ऊकी इज्जत करी जाए चाइए। औ जो ऊकी इज्जत पे हाथ डारे ऊकी इत्ती थू-थू करी जाए के बाकी बी गलत करबे से डरान लगें।    
सो अब, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो बैनों याद राखियो के हमई गणेश कुंवरि आएं औ हमई लछमी बाई आएं! सो, तरफी सफलता पाओ औ ढेर सारी बधाइयां लेओ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की!  
      ---------------------------
#बतकावबिन्नाकी  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat  

चर्चा प्लस | अब नहीं बचा बड़ी-पापड़- अचार का समाजशास्त्र | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
      अब नहीं बचा बड़ी-पापड़-अचार का समाजशास्त्र 
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
      बड़ी-पापड़-अचार का यूं तो सीधा संबंध है स्वाद से। भोजन की थाली में इन तीनों का होना भोजन की पूर्णता का द्योतक है। पहले हर उत्तर भारतीय घर में बड़ी, पापड़ और अचार बनाए जाते थे। आज बाज़ार ने इन्हें अपने कब्जे में कर लिया है। या कहा जाए कि महिलाओं ने इन्हें अपने कब्जे़ से अलग दिया है। जीवनशैली भी बदल गई है। अब कामकाजी महिलाओं के पास इतना समय ही कहां है कि वे ऐसी सामग्री बनाने में जुट सकें। लेकिन जो कामकाजी नहीं हैं वे? ख़ैर, वहीं बाज़ार घर का स्वाद देने का वादा करता है। यह वादा निभाया भी जाता है। यानी स्वाद तो बचा हुआ है लेकिन ऐसी वस्तुओं के घरों में न बनने से जो कुछ खोया है वह समाजशास्त्र का विषय है।
     बड़ी हमेशा हरी सब्जी की भरपाई का एक अच्छा विकल्प रहा है। यह उस समय और अधिक महत्वपूर्ण था जब हर प्रकार की सब्जी बारहों महीने नहीं मिलती थी। अब तो कृषि शास्त्रियों ने ऐसी नई किस्में ईज़ाद कर लीं हैं कि हर मौसम में लगभग हर तरह की सब्जियों और फलों की उपलब्धता बनी रहती है। यह बात अलग है कि उसके स्वाद में अंतर रहता है किन्तु घर में सुखा कर रखी गई या बड़ी के रूप में सहेजी गई सब्जियों का भी स्वाद ताज़ा अथवा मौसमी सब्जियों से भिन्न होता रहा है। यहां सवाल सब्जियों के स्वाद का नहीं वरन उस अनुष्ठान का है जो घर में बड़ी बनाने के रूप में घूम-धाम से होता था। मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो मेरे घर में बड़ियां बनाने का काम किस तरह होता था। बड़ी वाला कुम्हड़ा जिसे हम लोग भूरा कुम्हड़ा कहते थे और जिसे पेठा कुम्हड़ा भी कहा जाता था, उन दिनों साप्ताहिक हाट में ही मिलता था। मां साप्ताहिक हाट से भूरा कुम्हड़ा और दालें खरीद कर रख लिया करती थीं। विशेषरूप से उड़द की दाल। भूरे कुम्हड़े की बड़ी उड़द की दाल के साथ बनाई जाती थी। जबकि मूंग की दाल की बड़ी अकेली बनती थी।
           चूंकि मां शिक्षिका थीं अतः उन्हें ऐसे बड़े घरेलू कामों के लिए रविवार का दिन ही मिलता था। जिसके लिए तैयारी पहले से शुरू कर दी जाती थी। शुक्रवार की रात को उड़द की दाल भिगो दी जाती थी। शनिवार को खाना बनाने वाली महराजिन जिन्हें हम लोग बऊ कह कर पुकारते थे, सुबह का खाना पकाने के बाद दाल सिलबट्टे में पीसती थीं। उड़द की दाल सिलबट्टे पर पीसना हंसी-खेल नहीं होता था। जिसे आदत होती थी वह तो आसानी से पीस लेता था वरना हथेली में गट्ठे पड़ जाते थे। कंधे दुखने लगते थे। शाम को हम सभी बारी-बारी से किसनी में कददू को किसते थे। हम बच्चे मजे के लिए यह काम करते थे जबकि बड़े आपस में बांट कर यह काम करते थे। एक बड़े-से कददू को पूरा किसना हाथ दुखा देने वाला काम होता था। बस, यही से साझेदारी शुरू हो जाती थी। मां और बऊ मिल कर कद्दू किसतीं। फिर उस किसे हुए कद्दू को दाल में मिला कर अच्छे से फंेटा जाता। इसे ‘‘पिठी’’ कहा जाता था। फिर पिठी को रात भर फर्मंटेशन के लिए ढांक कर छोड़ दिया जाता था। दूसरे दिन सुबह यानी रविवार को धूप में पुरानी धुली चादरें बिछा दी जाती थीं। पिठी को फिर फेंटा जाता था, इतना कि वह पानी में डालने पर हल्की हो कर तैरने लगे। यही पहचान थी पिठी के तैयार हो जाने की। फिर उसमें जरूरी मसाले डाल कर बड़ी बनाने का काम शुरू होता था। बऊ की नातिन भी हाथ बंटाने के लिए आती थी। इस तरह मैं, दीदी, मां, बऊ और बऊ की नातिन हम पांच लोग बड़ियां बनाते थे। उस दौरान खूब सारी बातें होती थीं। बहुत मजा आता था। बऊ आदतन मोहल्ला-पड़ोस की खबरें सुनाती थीं जो हम लोगों को भी सुनने का मौका मिलता था। बीच-बीच में मां और बऊ हमें समझाती जाती थीं कि किस आकार में, किस तरह और कितने पास-पास बड़ियां रखनी हैं। यह एक अघोषित कक्षा होती थी जिसमें एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को पाक कला के साथ-साथ बहुत कुछ सिखा देती थी। जिन घरों में ढेर सारी बड़ियां बनती थीं वहां मोहल्ला-पड़ोस की महिलाएं भी बुला ली जाती थीं, जो उस काम में हाथ बंटाती थीं। 
          मजे की बात ये कि पिसी हुई कुछ दाल पहले ही पिठी से अलग बचा ली जाती थी जिसमें कद्दू नहीं मिलाया जाता था। उसके भी दो भाग किए जाते थे। एक भाग में तिल और कद्दू के बीज डाल कर बिजौरी या बिजौड़े बनाए जाते थे और दूसरे भाग के बड़े तले जाते थे। बड़ों को दही में डाल कर दही बड़े बनाए जाते थे। जो बड़ी बनाए जाने के बाद नाश्ते के रूप में साथ बैठ कर खाए जाते थे। शाम तक तेज धूप में रखे जाने के बाद बड़ियां चादर से निकालने लायक हो जाती थीं। सो, इसके बाद काम शुरू होता था बड़ियों को सही-सलामत चादर से अलग करने का काम। शर्त यही होती थी कि एक भी बड़ी टूटनी नहीं चाहिए। यह टेक्नीक भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सहज भाव से प्रवाहित होती थी। परिवार और समाज में शिक्षा की स्वाभाविक प्रक्रिया। किन्तु यह प्रक्रिया यहीं नहीं थमती थी। दो-तीन दिन तक बड़ियों को लगातार सुखाने के बाद जब बड़ियां डब्बों में बंद कर के रखने के योग्य तैयार हो जाती थीं तब उसमें से बऊ का हिस्सा अलग निकाल दिया जाता था। कुछ और परिचितों को भी देने के लिए कुछ बड़ियां अलग-अलग डब्बों में रख दी जाती थीं। यह सामाजिक व्यवहार की अर्थात मिल-बंाट कर खाने की शिक्षा थी। यह उसके प्रति विनम्रता ज्ञापन भी था जिसने दाल पीसने में अच्छे मन से हाथ बंटाया। यद्यपि दाल पीसने के लिए बऊ को मां अलग से भुगतान करती थीं लेकिन बड़ी के उपभोग में भी साझेदारी जरूरी मानी जाती थी। 
             पापड़ का बनना तो बड़ी से भी अधिक सामाजिक व्यवहार से गुज़रता था। पापड़ बेलने की कठिनाई और मेहनत से ही ‘‘पापड़ बेलना’’ मुहावरा बना है। जो पापड़ बेलता है, वही जानता है कि यह कितना कठिन और श्रमसाध्य काम है। मैंने भी अपने घर में पापड़ बेले थे अतः मैं अनुभव के आधार पर इस बात का समर्थन कर सकती हूं। दिन में पापड़ बेलने के बाद रात भर हथेलियों के गट्ठे दुखते थे। मूंग और उड़द के पापड़ सबसे अधिक मेहनत मांगते हैं। यह मेहनत ही सबको परस्पर जोड़ने का काम भी करती है। घर की महिलाएं मिल कर दाल पीसने का काम करती थीं। फिर जब पापड़ बेलने का समय आता था तो पास-पड़ोस की महिलाएं उस घर में जुट जाती थीं। नहा-धो कर पूरी स्वच्छता के साथ। अलग-अलग आसनियां बिछा दी जाती थीं। चकला, बेलन और तेल की कटोरियां आसनियों के साथ रख दी जाती थीं। महिलाएं अपने-अपने घरेलू कामों से निवृत्त हो कर पापड़ बनने वाले घर में एकत्र होती थीं और फिर शुरू होता था दौर पापड़ बेलने का। जितनी अधिक महिलाएं उतनी तेजी से काम। ढेर सारी बातें, बीच-बीच में चाय का दौर और अंत में भरपेट नाश्ता। नाश्ते के दौरान यह तय किया जाता था कि अब अगली बारी किसके घर की है? यानी एक के बाद एक हर घर में पापड़ बनने होते थे जिसे सभी महिलाएं इसी तरह मिल कर बनाती थीं। तब मध्यमवर्गीय परिवार में ‘किटीपार्टी’ का चलन नहीं था। यह सहयोग भावना ही थी जो सबको परस्पर जोड़े रखती थी। लड़कियां भी इसमें हाथ बंटाती थीं तथा अपने से बड़ी आयु की महिलाओं से बातों-बातों में जीवन के विविध पक्ष का ज्ञान पा जाती थीं। एकदम व्यवहारिक ज्ञान। पापड़ों के सूखने के बाद भी वही होता था कि कम से कम दस-दस पापड़ सभी सहयोगी महिलाओं के घर भेजे जाते थे। चूंकि इस चलन को सभी निभाती थीं अतः नुकसान में कोई नहीं रहती थीं। वहीं परस्पर सौहाद्र्य का बोनस सुरक्षित रहता था।
           अचार का मामला तो और अधिक दिलचस्प है। इसमें भी अचार की मात्रा पर निर्भर होता था कि कितनी महिलाएं हाथ बटाएंगी। विशेष रूप से आम के अचार के मामले में। आम का अचार बनाने में सबसे पहला काम होता है आम को टुकड़ों में काटना और इसके लिए आवश्यकता होती है ‘‘आमकटना’’ की।एक विशेष तरह का हंसिया जिसमें लकड़ी का हत्था लगा होता है और जिसका आधार भी लकड़ी का होता है। आमकटना में आम काटना भी विशेष कला होती है। आम कट जाए मगर उंगलियां सलामत रहें। आमकटना के आधार पर जहां आम काटने को रखा जाता है, वहां सूती कपड़े का एक गोल पैड बना कर रखा जाता है। यह पैड उसी तरह का होता है जैसे सिर पर घड़ा रखने के लिए बनाया जाता है। उसी का लघु रूप। यह पैड आम को अपनी जगह पर टिकाए रखता है। इसी पैड पर टिका कर आम के टुकड़े काटे जाते हैं। विशेष बात यह कि पहले हर घर में आमकटना नहीं होता था। क्योंकि आम का अचार डालना एक वार्षिक आयोजन होता था अतः कई लोग सोचते कि एक दिन के काम के लिए आमकटना क्यों खरीद कर रखा जाए। लेकिन मोहल्ले में किसी एक घर में आमकटना जरूर होता था और यही आमकटना पूरे मोहल्ले में हर घर में घूमता रहता था। आमकटना की मालकिन से बाकायदा आमकटना मांगा जाता और फिर काम हो जाने पर उसे अच्छे से साफ कर के, घो-धा कर ईमानदारी से वापस कर दिया जाता था ताकि फिर अगले साल मांगा जा सके। आमकटना की मालकिन भी बिना किसी हीलहवाला के प्रसन्नतापूर्वक आमकटना दे दिया करती थी क्योंकि इससे मोहल्ले में उसकी पूछ-परख बढ़ती थी। इस तरह आम का अचार बनाने की प्रक्रिया भी सामाजिक व्यवहार गढ़ती थी। एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति करना, एक-दूसरे के काम आना, आपस में मिल कर काम करना, यही सब तो सिखाता था आम का अचार डालना।
          देखा जाए तो अचार-बड़ी-पापड़ का एक गहरा समाजशास्त्र था। मध्यमवर्गीय परिवार की महिलाओं को यह परस्पर जोड़े रखता था। इस जुड़ाव पर पहले टेलीविजन ने व्यवधान पहुंचाया और फिर उस मानसिकता ने जो उच्चवर्ग के अंधानुकरण की ओर धकेलती चली गई। मध्यमवर्ग में किटीपार्टी जैसे चलन आम हो गए। महिलाएं पैसे का दांव लगाने, उसमें जीतने और हारने से उत्पन्न पारस्परिक मनमुटाव और दिखावे की जकड़ में कैद होती गईं। उनका स्वाभाविक कौशल बाज़ार की भेंट चढ़ गया। घर में बने सामानों की जो परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी, उस पर रोक लग गई। अब सिर्फ वही महिलाएं इन कामों से जुड़ती हैं जिन्हें रसोई के कामों में गहरी रुचि होती है, अन्यथा एक बटन दबा कर पिज्जा-बर्गर के आॅर्डर देना आज सभी जानती हैं। आज सोशल मीडिया पर पारंपरिक अचार अथवा व्यंजन बनाने की विधियों की अनेक साईट्स चल रही हैं क्योंकि आज की युवतियों को जो शिक्षा अपनी मां, परिवार, मोहल्ले और पड़ोस की महिलाओं से मिलनी चाहिए थी वह उन्हें नहीं मिल पा रही है। अब ग्रामीण अंचलों में या धुर पारंपरिक परिवारों में ही यह चलन बचा है अन्यथा अचार-बड़ी-पापड़ के समाजशास्त्र पन्ना अब अतीत की गाथा बन गया है।     
------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

डॉ (सुश्री) शरद सिंह की अध्यक्षता में पुस्तक "सदा अटल" पर चर्चा

आज भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेई जी से संबंधित संस्मरण पर केंद्रित पुस्तक "सदा अटल"  पर बहुत सार्थक चर्चा हुई। श्री अभिषेक तिवारी जी द्वारा संपादित इस पुस्तक पर मुख्य अतिथि सागर विधायक भाई श्री शैलेंद्र जैन जी, विशिष्ट अतिथि भाई श्याम तिवारी जी अध्यक्ष भाजपा सागर,  भाई वृन्दावन अहिरवार जी अध्यक्ष नगर निगम सागर, प्रमुख वक्ता भाई डॉ.आशीष द्विवेदी जी संचालक इंक मीडिया सागर तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए मैंने अपने विचार रखे। स्वागत भाषण दिया फाउंडेशन की सागर इकाई की अध्यक्ष डॉ चंचला दवे जी ने तथा आभार प्रदर्शन किया फाउंडेशन के सचिव डॉ विनोद तिवारी जी ने। कवि श्री अरुण दुबे जी ने सस्वर सरस्वती वंदना तथा लोकगीत गायक शिवरतन यादव जी ने अटल जी की एक कविता प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संयोजन किया संस्था के संयोजक श्री रमाकांत मिश्रा जी ने।
           कार्यक्रम में शहर के साहित्य एवं राजनीतिक जगत के प्रमुख विद्वतजन की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।
        इस आयोजन के संकल्पनाकार थे "सदा अटल" पुस्तक के सह संपादक एवं श्यामलम अध्यक्ष अग्रज श्री उमाकांत मिश्रा जी।
         आयोजन के दौरान मैंने अतिथियों को अपने बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की प्रतियां भेंट की।
         कुछ तस्वीरें ...
 #डॉसुश्रीशरदसिंह #bookdiscussion  #DrMissSharadSingh #पुस्तकचर्चा  #अटलबिहारीवाजपेयी #जन्मशताब्दीवर्ष  #AtalBihariVajpayee

Wednesday, March 5, 2025

भारतीय ज्ञान परंपरा | पुस्तक | भारतीय भाषा लोक : वैविध्य और वैशिष्ट्य | कालजयी होने के तत्व हैं प्रवाहमान बुंदेली में | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

डॉ. हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर द्वारा गौर ज्ञान संगम-2 के अंतर्गत प्रकाशित पुस्तक "भारतीय भाषा लोक : वैविध्य और वैशिष्ट्य" में मेरा लेख  "कालजयी होने के तत्व हैं प्रवाहमान बुंदेली में" शामिल करने के लिए संपादक डॉ. शशिकुमार सिंह जी का हार्दिक धन्यवाद, आभार 🙏 
    संपादक मंडल  विश्वविद्यालय कुलपति डॉ नीलिमा गुप्ता, डॉ अजीत जायसवाल, डॉ संजय शर्मा तथा डॉ अनिल कुमार तिवारी जी का भी हार्दिक आभार 🙏
      उल्लेखनीय बात यह भी है कि इस पुस्तक का लोकार्पण महाकुंभ प्रयाग में किया गया था।
#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #बुंदेली #लोकभाषा #ज्ञानसंगम #गौरज्ञानसंगम #भारतीयज्ञानगंगा #कालजयी