आज 11.03.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
स्त्री जीवन और पारिवारिक ढांचे में आती दरारों को रेखांकित करता उपन्यास
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - श्यामली
लेखिका - सुनीला सराफ
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स,1/10206, पश्चिम गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली- 2
मूल्य - 200/-
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हिंदी साहित्य में ऐसे कई उपन्यास है जिनमें मुख्य पात्र नायिका है अर्थात एक स्त्री मुख्य पात्र है। कथाकार सुनीला सराफ का प्रथम उपन्यास ष्श्यामलीष् स्त्री-जीवन पर आधारित है और उसकी प्रमुख पात्र उपन्यास की नायिका ष्श्यामलीष् ही है। एक पारंपरिक परिवेश में स्त्री को एक साथ बहुत सारी जिम्मेदारियों को निभाना पड़ता है। विवाह पूर्व जब वह मायके में रहती है तो उसे माता-पिता की आज्ञा का सम्मान करना होता है। उसे अपने मायके की परंपराओं का पालन करना होता है। किंतु जब एक लड़की का विवाह हो जाता है और वह नववधू बन कर अपनी ससुराल आती है तो उसे ससुराल की परंपराओं को आत्मसात करना पड़ता है। अब यह उसका दायित्व होता है कि वह ससुराल की परंपराओं को सहेजे और आगे बढ़ाए। उसके लिए यह एक चुनौती भरी स्थिति होती है क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जो परंपराएं उसके मायके में संचालित थी वही परंपराएं ससुराल में भी उसे मिलें। कई बार आचार व्यवहार संस्कार का अंतर मिलता है जिसके साथ तालमेल बिठाना सिर्फ उसे नव विवाहिता का दायित्व होता है और किसी का नहीं। इससे भी बड़ी विडंबना का विषय भारतीय समाज में यह है कि सभी को गोरी, सुंदर, सुघढ़ वधू चाहिए, चाहे वर में कितने भी ऐब क्यों न हों। श्यामली के माध्यम से लेखिका ने समाज में व्याप्त इन्हीं विसंगतियों को सामने रखा है। यदि लड़की की रंगत सांवली है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी भी दृष्टि से अयोग्य है। एक सांवली लड़की भी किसी साफ रंगत वाली लड़की की भांति पूर्णतया योग्य होती है फिर भी सांवली रंगत वाली लड़की को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। पहले तो उसके विवाह में दिक्कत आती है। विवाह तय होता भी है तो दहेज की मोटी रकम और दया भावना के प्रदर्शन के साथ। यदि उसके कुशल व्यवहार से उसके सास ससुर उसे स्वीकार कर भी ले तो भी उसे अपने पति की उपेक्षा झेलनी पड़ती है क्योंकि वह पति की आकांक्षा के अनुरूप गोरी-चिट्टी जो नहीं होती। यूं भी यदि पति में ऐब हैं यानी वह शराबी है, जुआरी है या घर से विमुख है तो उसे सुधारने का दायित्व भी नवविवाहिता पर होता है मानो उसके पास कोई जादू की छड़ी हो जिसे वह घुमाएगी और उसका पति जो अपने माता-पिता के कहने से भी नहीं सुधरा उसके कहने पर एक रात में सुधर जाएगा। या फिर उसके पास कोई गोया वशीकरण मंत्र हो जिससे वह अपने पति को वश में करके सुधार सकेगी। यहां भी एक दिक्कत है कि यदि पत्नी ने अपने कुशल व्यवहार से पति को अपने प्रति आकर्षित कर भी लिया, अपना कहना मानने वाला बना भी लिया तो ससुराल के अन्य सदस्यों का यह आक्षेप रहेगा की बहू ने आते ही बेटे को अपने वश में कर लिया यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। श्यामली को भी ऐसे विकट अनुभवों से जूझना पड़ा। वह एक आम भारतीय नारी की भांति अपनी ससुराल की सारी उपेक्षाएं सहती हुई अपने कर्तव्य का निर्वाह करती रहती है जिससे एक समय ऐसा आता है जब उसके लिए परिस्थितियों किसी हद तक अनुकूल होने लगती है लेकिन यह अनुकूलता कब तक ठहरने वाली थी?
सुनीला सराफ के उपन्यास की नायिका ष्श्यामलीष् के अनुभवों से गुजरते हुए सहसा मालती जोशी का उपन्यास ‘‘समर्पण का सुख’’ स्मृति में कौंध जाता है। सामाजिक एवं पारिवारिक विषयों पर सिद्धहस्त प्रतिष्ठित लेखिका मालती जोशी ने जिस आंतरिक संवेदनशीलता से अपने उपन्यास और कहानियां लिखी हैं, उसी विशेषता की झलक इस उपन्यास में देखी जा सकती है।
वस्तुतः स्त्री जीवन विभिन्न सामाजिक संबंधों पारिवारिक दायित्व एवं परिवार के सदस्यों की आकांक्षाओं के बीच बिखरा रहता है इस बिखराव में उसे स्वयं के अनुरोध जीने का समय कभी नहीं मिलता है । पारिवारिक जीवन की आपत्ति में वह अपनी आकांक्षाओं को लगभग भूल ही जाती है फिर भी उसे इतनी अभिलाषा तो रहती है की परिवार संयुक्त बना रहे उसकी संताने उसकी भावनाओं का सम्मान करें। किंतु आज विखंडित होते परिवारों में मां की भावनाओं का सम्मान करने की फुर्सत किसी को नहीं रहती है बहुत कम ऐसे परिवार हैं जिसमें बच्चे अपने माता-पिता की खुशियों अथवा उनकी आकांक्षाओं के बारे में विचार करते हैं।
सुनीला सराफ का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का आह्वान तो करता ही है साथ ही परिवार में उपेक्षा का शिकार होने वाले युवाओं की समस्या पर भी दृष्टिपात करता है। शामली का पति एक ऐसा ही युवा है जिस पर किसी को भरोसा नहीं है, यहां तक की उसका स्वयं का पिता उसकी योग्यता पर विश्वास नहीं करता है। सोने चांदी अर्थात सराफा के परंपरागत व्यवसाय को अपने पुत्र के हाथों सौंपने का विचार भी पिता के मन में तब तक नहीं आता है जब तक परिस्थितिवश उसे पुत्र को सौंपना नहीं पड़ता। यहां एक बात और उभर कर सामने आती है की श्यमली का पति पहले अपने पारंपरिक व्यवसाय में रुचि नहीं रखता था वह मुंबई जाकर फिल्मी दुनिया में अपनी किस्मत आजमाना चाहता था और उसने घर से भाग कर यह प्रयास किया भी अतः इस स्थिति में पिता का रुष्ट होना स्वाभाविक था किंतु जब वह घर लौट आया और उसे पत्नी की प्रेरणा से अनुभव हुआ कि वह अपने पारंपरिक व्यवसाय में ही अपना जीवन सवार सकता है, तबभी उसका पिता उसके भीतर के विश्वास को दृढ़ बनाने की बजाय उसके प्रति अविश्वास करता रहा। यह स्थितियां अनेक परिवारों में आती है जहां पारंपरिक व्यवसाय अपनाने की बात पसंद-नापसंद के विवाद में ढल जाती है। इस मुद्दे को उठाकर लेखिका ने एक ज्वलंत समस्या को बड़ी स्वाभाविकता के साथ रेखांकित किया है।
लगभग तीन पीढियां का विस्तार लिए हुए कथानक ने उपन्यास में बहुत सारी घटनाएं और पात्र समेट रखे हैं जोकि स्वाभाविक रूप से आते चले गए हैं। जीवन का विस्तार है तो अनेक घटनाएं भी होगी अनेक उतार-चढ़ाव होंगे ही, और उन सब का विवरण बड़ी सटीकता से लेखिका ने दिया है। ष्श्यामलीष् एक ऐसा उपन्यास है जिसका विस्तृत कैनवस है। जिसमें बहुत सारे दृश्य है और बहुत सारी घटनाएं भी। उपन्यास का आरंभ कोरोना काल से होता है। इसके बाद घटनाक्रम फ्लैशबैक में चलता है। श्यामली का पूरा जीवन फ्लैशबैक में वर्णित है। उपन्यास के एक-एक पात्र जीवंत हैं। कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे हैं। जैसेकि आम जीवन में होते हैं। परिस्थितियोंवश उन पात्रों के स्वभाव में भी अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिवर्तन होते हैं। जिन पर पाठकों को कभी सहानुभूति होगी, कभी दया आएगी, कभी झुंझलाहट होगी, तो कभी क्रोध आएगा। यह सब इसलिए संभव है क्योंकि कथानक पाठक से तादात्म्य में बनाने में सक्षम है। उपन्यास में एक पक्ष और भी है वह है संपत्ति के बंटवारे को लेकर पारिवारिक विवाद जिसके चलते भाई-भाई का दुश्मन हो जाता है, संतान माता-पिता को अपना शत्रु मानने लगती है और तमाम संवेदनाओं को तक में रखकर वैमनस्यता तक मामला पहुंच जाता है। कई बार तो यह स्थिति भी बनती है कि माता अथवा पिता मृत्युशैया पर पड़े होते हैं और संतानों को संपत्ति के बंटवारे की चिंता रहती है। परिवार के इस संवेदनशील पक्ष को भी लेखिका ने बड़ी सटीकता से प्रस्तुत किया है।
लेखिका सुनीला सराफ के काव्य संग्रह एवं कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कथा लेखन में उनकी अच्छी पकड़ है और इसी बात का लाभ उनके इस प्रथम उपन्यास को भी मिला है। इस उपन्यास में प्रवाह है, सहजता है, सरलता है। कथानक आम जीवन से उठाया गया है जिससे यह सभी से सहजता के साथ तारतम्य जोड़ सकता है। कई बार कथा लेखन करने वालों को उपन्यास के रूप में कथानक को विस्तार देना कठिन हो जाता है किंतु लेखिका ने सुंदर ढंग से कथानक को विस्तार दिया है। सामाजिक श्रेणी का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का आधार लेते हुए पारिवारिक एवं सामाजिक विमर्शों की भी समुचित व्याख्या करता है। उपन्यास की शैली पाठकों को बांधे रखने में सक्षम है। लेखिका के प्रथम उपन्यास की दृष्टि से इसे एक सशक्त उपन्यास कहा जा सकता है। इसे पढ़ने में निश्चित रूप से सभी पाठकों को आनंद आएगा तथा कुछ समय के लिए उन्हें चिंतनशीलता के उसे संसार से जोड़ देगा जहां परिवार और समाज में संबंधों की जटिलता व्याप्त है, जहां स्त्री आज भी अपने अधिकारों के लिए जूझ रही है और अपने परिवार पर अपना सर्वस्व मिटाने के बावजूद भी अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए संकट से घिरी हुई है।
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