Tuesday, July 30, 2024

संपूर्ण न्यायिक व्यवस्था को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।- डॉ. शरद सिंह

संपूर्ण न्यायिक व्यवस्था को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।- डॉ. शरद सिंह

यदि न्याय आम आदमी तक शीघ्र न पहुंच सके तो न्यायपालिका के होने का कोई अर्थ नहीं है। यह भी सच है कि यदि न्यायपालिका आदेश पारित कर भी दे तो कार्यपालिका उसके क्रियान्वयन में बरसों लगा देती है। संपूर्ण न्यायिक व्यवस्था को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।
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Dr (Ms) Sharad Singh on Indian Judiciary system in Rajsthan Patrika, 30.07.2024

पुस्तक समीक्षा | सुप्त चेतना को झकझोर कर जगाने वाली कालजयी पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 30.07.2024 को  #आचरण में
प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री रघु ठाकुर जी की पुस्तक "समस्या और समाधान" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
सुप्त चेतना को झकझोर कर जगाने वाली कालजयी पुस्तक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - समस्या और समाधान
लेखक   - रघु ठाकुर
प्रकाशक - वी.एल.मीडिया सॉल्यूशन, बी59-ए, एफ/एफ, गुलाब बाग, उत्तम नगर, नई दिल्ली -110059
मूल्य    - 300/-
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आज हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर से गुजर रहे हैं जहां बौद्धिकता पर हजार प्रश्न खड़े हो गए हैं। क्या बौद्धिकता कृत्रिम हो सकती है और अगर कृत्रिम है तो वह बौद्धिकता कैसे हुई? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। ऐसे ही अनेक प्रश्न है जो समस्याएं उत्पन्न करते हैं और ये समस्याएं राजनीति के गलियारों से होकर आम जनता तक पहुंचती हैं। आमजन इन समस्याओं से जूझता तो रहता है किंतु इनका समाधान नहीं ढूंढ पाता है। वस्तुत आमजन समस्याओं की तह तक पहुंच ही नहीं पाता है। वह उस चेहरे को कभी नहीं देख पाता है जो मुखौटे के भीतर छिपा रहता है। गांधीवादी एवं लोहिया के विचारों के अनुगामी प्रखर चिंतक रघु ठाकुर ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक “समस्या और समाधान” में ऐसी ही समस्याओं को सामने रखा है। रघु ठाकुर की लेखकीय प्रवृत्ति है वे मात्र समस्याओं को उजागर नहीं करते हैं बल्कि उनका समाधान भी सुझाते हैं। “समस्या और समाधान” पुस्तक में यूं तो रघु ठाकुर के वे लेख है जो समय-समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं किंतु उनकी समसामयिकता एवं मूल्यवत्ता आज भी यथावत है, क्योंकि जिन समस्याओं का इन लेखों में उल्लेख किया गया है वे समस्याएं आज भी सतत जारी हैं।
“समस्या और समाधान” में कुल 39 लेख हैं। जो विषयानुसार 6 खण्डों में विभक्त हैं।  ये खण्ड हैं-  1. कानून और न्यायपालिका, 2.समाजवाद एवं पूंजीवाद, 3. गांधी लोहिया, 4. शिक्षा और भाषा, 5. नारी एवं 6. विविध विषय। इनमें प्रायः सभी लेख यथासमय संपादकीय या समाचारपत्रों व पत्रिकाओं के अग्र लेख के रूप में प्रकाशित हुए हैं। स्वाभाविक है कि लेखों की पृष्ठभूमि में उस समय की घटनाएं हैं और उसके विस्तार में समग्र विमर्श ।

   सर्वप्रथम तृतीय खंड ‘गांधी लोहिया‘‘ के उसे प्रथम लेख की चर्चा आवश्यक है जिसमें लेखक ने लिखा है- ‘‘गांधी को पूजो मत, अमल करो‘‘। इस संदर्भ में याद आता है डाॅ. अंबेडकर का कथन। 26 नवंबर, 1949 को संविधान बनने के बाद, डॉ. अंबेडकर ने अपने पहले भाषण में साफ शब्दों में कहा था कि ‘‘धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंततरू तानाशाही का सीधा रास्ता है।’’  स्पष्ट है कि बाबा साहब अंबेडकर की बातों के मर्म को लोगों ने नहीं समझा और इसीलिए 24 सितंबर 2018 को प्रकाशित अपने लेख में गांधीवादी चिंतक रघु ठाकुर ने कहा कि ‘‘आज गांधी को पूजने की नहीं, जीवन और कर्म में उतारने की आवश्यकता है। गांधी ही देश और दुनिया की समस्याओं का हल है। उत्तर दुनिया, देश व समाज को देना है।‘‘
इस पुस्तक की भूमिका वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक जयराम शुक्ल नाम लिखी है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘उनके (रघु ठाकुर के) विचारों का फलक डॉ. लोहिया की तरह विस्तृत और वैश्विक है। लोहिया के वैचारिक वंशधर होते हुए भी वे मत-मतांतर और वाद-विवादों से ऊपर स्वयं को वास्तविकतावादी/मानवतावादी मानते हैं। लोहिया और गांधी में डूबे रहने के बावजूद अपने समकालीनों की भांति इन्हें अपने अपने परिचय में बिल्ले की तरह नहीं टांकते।’’
पुस्तक का प्रथम खंड है ‘‘कानून और न्यायपालिका’’। यह दोनों ही हर देश की सुव्यवस्था के आधार स्तंभ होते हैं। कानून और न्यायपालिका न सिर्फ भारत की अपितु पूरे विश्व की चिंता का विषय रहा है। 26 अगस्त से 6 सितंबर 1985 तक मिलान में आयोजित अपराध की रोकथाम और अपराधियों के उपचार पर सातवें संयुक्त राष्ट्र कांग्रेस द्वारा मंथन के उपरांत 29 नवंबर 1985 के महासभा संकल्प 40/32 और 13 दिसंबर 1985 के 40/146 द्वारा समर्थन के बाद इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे। जिनमें प्रमुख थे कि बिना किसी भेदभाव के मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के सम्मान को बढ़ावा देने और प्रोत्साहित करने में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त किया जा सके, जबकि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा विशेष रूप से कानून के समक्ष समानता, निर्दोषता की धारणा और कानून द्वारा स्थापित सक्षम, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायाधिकरण द्वारा निष्पक्ष और सार्वजनिक सुनवाई के अधिकार के सिद्धांतों को सुनिश्चित किया जाए। प्रत्येक देश में न्याय का संगठन और प्रशासन उन सिद्धांतों से प्रेरित होना चाहिए, और उन्हें पूरी तरह वास्तविकता में बदलने के प्रयास किए जाने चाहिए।’’ इस वैश्विक मुद्दे को भारतीय परिप्रेक्ष्य में आकलन करते हुए रघु ठाकुर ने भारतीय कानून एवं न्याय व्यवस्था पर सटीक लेख लिखे हैं। ये लेख हैं - धारा 144 का दुरुपयोग बंद, न्यायपालिका पारदर्शी हुई, न्यायपालिका, पुलिस कमिश्नर प्रणाली कसौटी पर, माफी के बजाए बलात्कार, हत्या एवं डकैती के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम हो, संवैधानिक संस्थाओं के प्रति पनपता अविश्वास तथा संसदीय समितियों की कानून निर्माण में भूमिका।
दूसरे खंड ‘‘समाजवाद एवं पूंजीवाद‘‘ में  लेखक ने उन तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया है जो पूंजीवादी विचारधारा के चलते शिल्प, कला, आम आदमी, ज्ञान एवं अर्थसत्ता को प्रभावित करते हैं। इस खंड में लेख हैं - अन्धकार से प्रकाश की ओर, भारतीय लोक कला और शिल्प कला में ही भारतीय समाजवाद है,  पूंजीवाद, आम आदमी केन्द्रित नहीं हो सकता, मुद्रीकरण के आवरण में निजीकरण एवं मानवीय शोषण की नींव पर पूंजीवाद की इमारत।
तीसरे खंड ‘‘गांधी लोहिया‘‘ में लेखक ने गांधी और लोहिया के विचारों को व्याख्याित करते हुए इस और ध्यान दिलाया है कि व्यक्ति पूजा राजनीति का चरित्र बदल देती है। गांधी और लोहिया पर केंद्रित ये लेख हैं - गांधी को पूजो मत, अमल करो, गांधी तो सबके हैं और किसी के भी नहीं, क्या कट्टरपंथी ताकतें महात्मा गांधी के विचारों को मार पाएंगी, लोहिया का कथन सच निकला, जे. पी. ने देश को हिलाया, भारतीय संविधान और डॉ. राम मनोहर लोहिया। इस खंड का अंतिम लेख है- व्यक्ति को सत्याग्रह और समाज को सिविल नाफरमानी पर चलना होगा।

    चौथे खंड ‘‘शिक्षा और भाषा’’ में भाषा को लेकर राजनीतिक द्वंद्व को बड़ी बारीकी से रेखांकित एवं विश्लेषित किया गया है। वस्तुतः भाषा का अहित दोनों स्थितियों में होता है, जब राजनीति भाषा की उपेक्षा करती है अथवा स्वयं साहित्यकार एवं भाषाविद भाषा को संकुचित दृष्टि से देखने लगते हैं तथा उसके विस्तार के रास्ते में निराशाजनक बातों की बधाएं खड़ी करने लगते हैं। इस संदर्भ में लेखक रघु ठाकुर ने प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का वह उद्धरण दिया है जिसमें उन्होंने हिंदी को एक क्षेत्रीय भाषा घोषित कर दिया था। नामवर सिंह का वह कथन न सिर्फ चौंकाता है बल्कि सोचने पर विवश करता है कि हिंदी की यह दशा क्यों हुई?  ‘‘देश में दो स्तरीय भाषा लागू की जाए एक हिंदी और दूसरी अंग्रेजी क्योंकि हिंदी पूरे देश की भाषा नहीं है।’’ - क्यों एक हिंदी के आलोचक को यह बात कहनी पड़ी? यह हिंदी जगत में एक बड़ा मुद्दा बन सकता था किंतु इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया। इस विषय को विस्तार से खंगाला है लेखक रघु ठाकुर ने। इस खंड में जो लेख है वे इस प्रकार हैं- बदलते समाज में शिक्षा, नई शिक्षा नीति रू एक विश्लेषण, भाषा की राजनीति, अंग्रेजी के चक्रव्यूह में फंसी राष्ट्रभाषा, हिंदी क्यों नहीं बन पा रही राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय भाषा यानी राष्ट्रीय एकता तथा हिन्दी पर हमला।

पांचवा खंड ‘‘नारी‘‘ महिलाओं की अस्मिता की समस्या पर केंद्रित है। ये लेख हैं- अबला तेरी यही कहानी, नारी की बढ़ती ताकत, हनीट्रैप काण्ड और पुरुषवादी समाज, महिला आरक्षणः लोहिया की दृष्टि में, चित भी मेरी-पट भी मेरी एवं मानसिक क्रांति जरूरी। लेख ‘‘हनीट्रैप काण्ड और पुरुषवादी समाज’’ में लेखक ने स्त्रीपक्ष को पूरी मानवीयता के साथ रखते हुए इस बात के लिए मीडिया को भी दोषी ठहराया है, जो विवश स्त्री को ही हाइलाइट करती है, अपराधी पुरुष को नहीं। लेखक ने लिखा है कि “हमारा समाज आज भी कितना पुरुषवादी है, इस हनीट्रैप कांड के बाद मीडिया के समाचारों ने इसे सिद्ध कर दिया है। महिला राजनेता, पत्रकार और अफसर भी इस पर चुप्पी साधे हैं। वे साहस के साथ इस सच को कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं कि ब्लैकमेल की अपराधी महिलाएं तो हैं पर जो पुरुष अपने पद और पैसे के लालच में उन महिलाओं को इस कुपथ पर खींचने और लाने के जिम्मेवार हैं, क्या वे इनसे भी बड़े गुनहगार नहीं हैं?’

छठें खण्ड ‘‘विविध विषय‘‘ के अंतर्गत जो विषय उठाए गए हैं, वे हैं- अश्वेत आन्दोलन से संवाद, एफ. डी. आई. का देश पर हमला, पर्यावरण रक्षा कुछ सुझाव, बैंकों का निजीकरण सरकार का आत्मघाती कदम, वनभूमि का असली मालिक आदिवासी ही है, विश्व संसद बने, ग्रामीण समाज-आजादी के पहले एवं बाद में तथा जमीन अधिग्रहण की नीति क्या हो।
लेखक रघु ठाकुर की चिंता समूचे विश्व, देश और देश के प्रत्येक उस व्यक्ति तक की है जिसके पास कानून या अधिकार पहुंच नहीं पाते हैं। रघु ठाकुर के चिंतन में असीमित विस्तार है। वे मानवतावादी दृष्टिकोण से हर एक तथ्य को तौलते, परखते हैं। ‘‘समस्या और समाधान‘‘ पुस्तक के लेखों को संपादित किया है डॉ. शिव श्रीवास्तव ने। पुस्तक के बैक कव्हर पर  सुप्रसिद्ध हिंदी आलोचक शंभूनाथ की सर्वोचित टिप्पणी है कि ‘‘रघु ठाकुर के लेख राष्ट्रीय संकल्प की प्रेरणा हैं।‘‘ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘रघु ठाकुर लंबे समय से समाजवादी आंदोलन से जुड़े एक समर्पित योद्धा ही नहीं, एक प्रमुख राजनीतिक चिंतक भी हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘समस्या और समाधान’ में कई बुनियादी प्रश्न उठाए हैं, जिनका संबंध भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा से है।‘‘

बतौर लेखक रघु ठाकुर जिस स्पष्टता के साथ अपने विचारों को अपने लेखों में प्रस्तुत करते हैं, वह युवा लेखकों के लिए भी पथ प्रदर्शक है। ये लेख उन्हें बताते हैं की एक लेखक की कलम को किस तरह सच का साथ देना चाहिए। वस्तुतः यह पुस्तक हर देश काल में बार-बार पढ़े जाने योग्य है। यह उस समय तक पढ़े जाने योग्य है जब तक की समस्याओं का समाधान न हो जाए और यदि समाधान हो जाता है तो उसके बाद भी यह पढ़े जाने योग्य है कि आखिर समस्याएं क्या थी और उनका सम्मान समाधान कैसे मुमकिन हुआ। कहने का आशय है कि ऐसी पुस्तकें अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण कालजयी होती हैं। ऐसी पुस्तकें सुप्त चेतना को झकझोर कर जगाने का काम करती हैं। वर्तमान समय में इसे पढ़ा जाना और भी अधिक जरूरी है।
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