Tuesday, July 23, 2024

पुस्तक समीक्षा | आदर्श के अतिवादी गलियारे से गुजरता उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 23.07.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री आर. के. तिवारी के लघु उपन्यास "किशनगढ़ की कविता" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
आदर्श के अतिवादी गलियारे से गुजरता उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - किशनगढ़ की कविता
लेखक   - आर. के. तिवारी
प्रकाशक - एन.डी. पब्लिकेशन, 10 सिविल लाईन, एल.आई.सी., सागर
मूल्य    - 150/-
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जब एक आम पाठक के हाथ में लघु उपन्यास आता है तो उसके मन में सहज ही प्रश्न उठता है कि उपन्यास, लघु उपन्यास और लंबी कहानी में क्या अंतर है? क्या मात्र इतना ही कि उपन्यास अधिक पन्नों का होता है और लघु उपन्यास कम पन्नों का और लंबी कहानी उससे भी कम या फिर लघु उपन्यास के लगभग समीप? या फिर और भी अंतर होते हैं? अंग्रेजी में उपन्यास को ‘‘नाॅवेल’’ कहा जाता है और लघु उपन्यास को ‘‘नाॅवेल्ला’’। पिछले दो दशक से अंग्रेजी में लघु उपन्यास यानी ‘‘नाॅवेल्ला’’ लिखे का चलन बढ़ा है। बल्कि उससे भी छोटे उपन्यास जिन्हें ‘‘चिकलेट्स’’ नाम दिया गया है, वे भी चलन में हैं। खैर यहां ‘‘चिकलेट्स’’ का कोई संदर्भ नहीं है अतः उसकी चर्चा फिर कभी। वस्तुतः उपन्यास, लघु उपन्यास और कहानी में दो और महत्वपूर्ण अंतर पाए जाते हैं। एक तो उपकथानकों का और दूसरा पात्रों की संख्या का। एक उपन्यास में अनेक उपकथानक हो सकते हैं किन्तु लघु उपन्यास में उतने ही उपकथानक उचित होते हैं जिनका कम से कम पन्नों में विस्तार कर के समायोजित किया जा सके। वहीं लम्बी कहानी में उपकथानक नहीं बल्कि छोटे-छोटे घटनाक्रम होते हैं जो मूलकथानक को चर्मोत्कर्ष तक पहुंचाते हैं। उपन्यास, लघु उपन्यास और लम्बी कहानी - इन तीनों विधाओं में ये तकनीकी अंतर लेखक को साधने होते हैं, पाठक तो सिर्फ पढ़ता है और अनुभव करता है कि उसे भावनात्मक एवं वैचारिक उपलब्धि हुई कि नहीं। यदि लेखन सधा हुआ हो तो पाठक को मिलने वाली उपलब्धि सुनिश्चित रहती है। अभी हाल ही में कथाकार आर. के. तिवारी का नया लघु उपनयास आया है-‘‘किशनगढ़ की कविता’’।     

     कथाकार राजकुमार तिवारी ने अपने पूर्व लघु उपन्यास एवं कथा संग्रह में स्त्री पात्रों को प्रमुखता दी है। ‘‘करमजली’’, ’’कुमुद पंचरवाली’’, ’’कावेरी के खंडहर’’ - इन तीनों कृतियों में स्त्री पात्र प्रमुख रहे हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ते हुए उन्होंने अपने इस नवीनतम लघु उपन्यास में भी स्त्री पात्र को प्रमुखता दी है जैसा कि उपन्यास के नाम ’’ किशनगढ़ की कविता’’ से ही स्पष्ट हो जाता है कि इस उपन्यास में ’’कविता’’ नाम की एक स्त्री के बारे में कथानक है। तो क्या यह उपन्यास एक स्त्री विमर्श रचता है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए पूरा उपन्यास पढ़ना आवश्यक है। यद्यपि डॉ. लक्ष्मी पांडेय द्वारा लिखी गई उपन्यास की भूमिका से उपन्यास के कथानक के बारे में काफी कुछ जानकारी उपन्यास पढ़ने के पूर्व में ही मिल जाती है।

      यदि कोई पूछे कि त्याग की क्या सीमा होनी चाहिए? तो इस प्रश्न का उत्तर यही होगा कि त्याग की कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है। यह व्यक्ति की इच्छा और क्षमता पर निर्भर है कि वह कितना त्याग कर सकता है? किन्तु जब त्याग का आकलन किया जाए तो उसके औचित्य का प्रश्न अवश्य उठता है। जो त्याग किया गया वह आवश्यक था या नहीं? भावुकता भरी भावनाओं के अतिरेक में भर कर किया गया त्याग कई बार कोई आदर्श स्थापित नहीं कर पाता है। यूं भी जब प्रश्न महज व्यक्ति प्रेम का हो। जिस व्याधि का इलाज हो और उस इलाज के रास्ते को न अपनाकर त्याग का उदाहरण गढ़ने का प्रयास किया जाए तो ऐसा प्रयास कई प्रश्न खड़े करता है। ऐसे कई प्रश्न उठते हैं कथाकार राजकुमार तिवारी के सत्य प्रकाशित उपन्यास ’’किशनगढ़ की कविता’’ में।
लेखक ने उपन्यास के नाम के साथ ’’एक प्रेम कथा’’ लिख कर पहले ही जता दिया है कि यह उपन्यास एक प्रेम कथा पर आधारित है। देखा जाए तो यह पाठक के लिए एक माइन्डसेट का काम करता है। पाठक को पढ़ना आरंभ करते समय इस बात का अहसास रहता है कि वह एक प्रेम कथा पढ़ने जा रहा है। जब प्रेम कथा है तो उसमें स्वाभाविक रूप से ट्रेजेडी भी होगी। लगभग पूरा उपन्यास फ्लैशबैक में है। एक व्यक्ति जो दादा की आयु तक पहुंच चुका है वह अपनी पोती को उसके विशेष आग्रह पर अपनी प्रेम कथा सुनाता है।

     कथानक के अनुसार एक गांव के ठाकुर साहब अपनी डॉक्टरी उत्तीर्ण बेटी के लिए स्कूल के अध्यापक को सहर्ष दामाद बनाने का मन बना लेते हैं। यहां एक तथ्य ज़रा खटकता है कि वह अध्यापक अनाथ है किंतु ब्राह्मण परिवार का है। एक ऐसे गांव में जहां ठाकुर साहब का वर्चस्व हो और समय भी एक पीढ़ी पहले का हो तो गैर जाति में बेटी का विवाह सहजता से संभव नहीं हो पता था। ऐसे संबंधों में सामाजिक दबाव हमेशा आड़े आता रहा है। आज भी ग्रामीण अंचल में इस तरह के विवाह बड़ी मुश्किल से हो पाते हैं। कई बार तो झूठे सम्मान कर परंपरा को निभाने के चक्कर में अपनी बेटी को अविवाहित ही रहने देते थे किन्तु विजातीय विवाह स्वीकार नहीं करते थे। अतः एक छोटे से गांव के सर्वसंपन्न ठाकुर साहब, जिनके आगे सभी नतमस्तक रहते हैं, ब्राह्मण परिवार के युवक को सहजता से अपने दामाद के रूप में देखने लगते हैं, यहां रूढ़िगत परम्परा से जुड़ा एक अंतर्द्वंद्व होना चाहिए था जो उपन्यास में नहीं रखा गया है।

      एक बिंदु और है जो थोड़ा चौंकाता है। जब उपन्यास की नायिका कविता अपने होने वाले पति रज्जन शर्मा से कहती है कि वह दूसरे गांव में जाकर चिकित्सा कार्य करेगी। इसके लिए विवाह को थोड़ा स्थगित भी किया जा सकता है। विवाह के बाद वह दूसरे गांव में अपना कार्य करती रहेगी जबकि उसे यानी रज्जन शर्मा को इसी गांव में अध्यापन करते हुए उसके पिता की देखभाल करनी होगी। वैसे, समय-समय पर वे परस्पर मिलते रहेंगे। यहां विचारणीय है कि जिस युवती ने अपना जीवन साथी स्वयं चुना, बेझिझक प्रेम प्रदर्शन किया और हर कदम पर यही जताया कि वह अपने प्रिय के बिना नहीं रह सकती है, और उससे इसके पूर्व अपनी ऐसी अभिलाषा के बारे में खुल कर नहीं बताया वह अचानक इतनी प्रैक्टिकल कैसे हो जाती है? यहां नायिका कविता के चरित्र एवं विचारों को और अधिक विस्तार देने की आवश्यकता थी जिससे यह बात स्पष्ट हो पाती कि नायिका के मन में पहले से इस तरह बाहर रहकर चिकित्सा कार्य करने का दृढ़ विचार था, जिससे नायक भी प्रभावित था।

      इस तरह की कुछ व्यावहारिक कमियों को अनदेखा कर दिया जाए तो यह उपन्यास एक भावुकता पूर्ण कथानक के साथ बहुत अच्छी तरह से प्रवाहमान रहता है। कथा इसके नायक की ओर से प्रस्तुत की गई है जिसके केंद्र में नायिका कविता है जो किशनगढ़ की निवासी है। नायक और नायिका का प्रेम सहज रूप से गतिमान होते हुए अचानक उसे मोड पर जा पहुंचता है जहां नायिका के साथ हादसा हो जाता है और वह एक भेड़िए के आक्रमण से जख्मी होकर दैहिक रूप से विकृत हो जाती है। उसका पिता किसी बड़े शहर में ले जाकर उसका इलाज करवाना चाहता है किंतु वह मना कर देती है और उसी गांव में उसे छोटे से चिकित्सालय में सीमित सुविधाओं के बीच अपना इलाज कराती है क्योंकि उसका तर्क था कि जिस डॉक्टर और नर्स ने उसे बचाया उन्हीं के हाथों वह अपना पूरा इलाज कराएगी। जबकि नायिका स्वयं एक चिकित्सक थी तो उसके द्वारा इस तरह का भावुकता पूर्ण निर्णय लिया जाना पाठक को असहज बन सकता है। इतना ही नहीं वह नायिका चाहती है उसका होने वाला पति उसकी नर्स से विवाह कर ले। नायिका कविता के अचानक अपने पिता के साथ अज्ञातवास में चले जाने पर नायक अत्यंत दुखी होने के बावजूद नायिका की इच्छा पूरी करने के लिए नर्स से विवाह कर लेता है और उसके साथ अपना वैवाहिक जीवन व्यतीत करता है। वह नर्स भी समर्पित भाव से नायक की जीवन संगिनी का दायित्व निभाती है।

       उपन्यास के अंत में घटनाक्रम एक मोड़ और लेता है। किंतु कुल मिलाकर देखा जाए तो यह पात्रों के द्वारा अतिरेकपूर्ण पूर्ण आदर्श रचता हुआ उपन्यास है, ठीक एक ‘‘ओल्ड स्कूल मूवी’’ की तरह। जो भावुक पाठकों की आंखों में आंसू लाने में सक्षम है किंतु विचारशील पाठकों को बार-बार सोचने पर मजबूर करता है कि इन पात्रों ने ऐसा क्यों किया?  वैसे यहां इस बात को ध्यान रखते हुए पात्रों के अति आदर्श पूर्ण आचरण को किसी हद तक स्वीकार किया जा सकता है कि यह कथानक उस व्यक्ति के जीवन पर है जो दादा की आयु यानी वृद्धावस्था  में पहुंच चुका है। फिर भी कई तथ्य छूटे हुए प्रतीत होते हैं। यह उपन्यास स्त्री विमर्श तो नहीं रचता है किंतु एक स्त्री की मनःस्थिति को व्यक्त करने में एक सीमा तक सफल रहा है।
      इस उपन्यास के लेखक आरके तिवारी को साहित्य सृजन करते एक लंबा अरसा हो गया है तथा उनकी विविध विधाओं पर 8 पुस्तकें, जिनमें दो उपन्यास और दो कहानी संग्रह शामिल हैं, प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसे निरंतर सृजनशील लेखक से और अधिक परिपक्व तथा उपदेयतापूर्ण उपन्यास की अपेक्षा की जा सकती है। यद्यपि  आदर्श के अतिवादी गलियारे से गुजरते इस उपन्यास में कई ऐसे तत्व हैं जो इसे पठनीय बनाते हैं। यह निर्विवाद है कि ‘‘किशनगढ़ की कविता’’ रोचक उपन्यास है। क्योंकि यह एक लघु उपन्यास है अतः इसमें पात्रों की सीमित संख्या इसका प्रभावी तत्व है। कथानक के प्रस्तुतिकरण में एक सधा हुआ प्रवाह है जो पाठक को बांधे रखने में सक्षम है। यदि लेखक ने अतिभावुकता के प्रति न्याय संगत तर्क भी दिया होता तो यह कथानक समसामयिकता की कसौटी पर एकदम खरा उतरता। फिर भी, लेखक आरके तिवारी जिस प्रकार निरंतर कथा जगत में अपनी पकड़ बनाते जा रहे हैं, वह उनके भावी उपन्यास लेखन के प्रति आशान्वित करता है।           
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