Friday, August 31, 2018

चर्चा प्लस ... ‘इंडिया’ क्यों? सिर्फ़ ‘भारत’ क्यों नहीं ? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस ...
‘इंडिया’ क्यों? सिर्फ़ ‘भारत’ क्यों नहीं ?
- डॉ. शरद सिंह

विदेशों में हम भारतीयों से जब हमारी नागरिकता पूछी जाती है तो हम गर्व से कहते हैं-‘आई एम इंडियन’। इसी बात को जब हिन्दी में कहने की बारी आती है तो ‘मैं इंडियन हूं’ कहने में गर्व का अनुभव करते हैं। गोया ‘भारतीय’ कहना कोई लज्जाजनक बात हो। इसका सबसे बड़ा कारण है हमारे देश के तीन नामों का होना। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसके तीन नाम एक साथ क्रियाशील हों। अब समय आ गया है कि इस विचित्र स्थिति से उबरते हुए देश का आधिकारिक रूप से एक नाम और वह भी मूल प्राचीन नाम ‘भारत’ मान्य कर दिया जाए।
‘इंडिया’ क्यों? सिर्फ़ ‘भारत’ क्यों नहीं ? - डॉ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस .. Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper

विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र का दर्ज़ा रखने वाला देश - भारत, हिन्दुस्तान या इंडिया। एक देश जिसके तीन नाम। आधिकारिक तौर पर दो नाम हैं-इंडिया और भारत। बार-बार इस बात की मांग उठती रही है कि देश का एक नाम रहे-‘भारत’। अभी कुछ अरसा पहले विश्वविख्यात जैन संत आचार्य विद्यासागर ने ‘इंडिया’ शब्द की व्याख्या करते हुए देश का नाम ‘भारत’ रखे जाने पर तार्किक पक्ष रखे हैं और ‘भारत बोलो’ मुहिम का आह्वान किया है।

भारत या इंडिया, क्या नाम है इस देश का? हिन्दुस्तान सिर्फ़ बोलचाल में है अथवा पुराने अभिलेखों में किन्तु ‘इंडिया’ और ‘भारत’ आज भी समान रूप से प्रयोग में लाया जा रहा है। सन् 2012 में लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने केंद्र सरकार से यह प्रश्न किया था। सूचना के अधिकार के अंतर्गत उर्वशी शर्मा ने पूछा था कि सरकारी तौर पर भारत का नाम क्या है? उन्होंने अपने प्रश्न पूछे जाने का कारण बताते हुए उल्लेख किया िा कि “इस बारे में हमारे बीच काफी असमंजस है। बच्चे पूछते हैं कि जापान का एक नाम है, चीन का एक नाम है लेकिन अपने देश के दो नाम क्यूं हैं।“ इसीलिए वे यह जानना चाहती हैं कि वे बच्चों को सही-सही उत्तर दे सकें और आने वाली पीढ़ी के बीच इस बारे में कोई संदेह न रहे। उर्वशी ने कहा कि “हमें सुबूत चाहिए कि किसने और कब इस देश का नाम भारत या इंडिया रखा? कब ये फैसला लिया गया?“

उर्वशी का तर्क था कि यह एक भ्रम की स्थिति है जो सरकारी स्तर पर भी देश के दो नामों का प्रयोग किया जाता है। इसी आधार पर उन्होंने कहा कि ‘‘मैं केवल ये जानना चाहती हूं कि भारत का सरकारी नाम भारत है या इंडिया क्योंकि सरकारी तौर पर भी दोनों नाम इस्तेमाल किए जाते हैं।“ उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा है- ’इंडिया दैट इज़ भारत’। अर्थात् देश के दो नाम हैं। सरकारी कामकाज में ’गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया’ और ’भारत सरकार’ दोनों का प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी में भारत और इंडिया दोनों का इस्तेमाल किया जाता है जबकि हिंदी में भी इंडिया कहा जाता है. उर्वशी ने कहा था कि वे इस मुद्दे को गंभीरता से लेती हैं क्योंकि ये देश की पहचान का सवाल है।

उर्वशी को प्रधानमंत्री कार्यालय से जवाब मिला जिसमें कहा गया कि उनके आवेदन को गृह मंत्रालय के पास भेजा गया हैं। किन्तु गृह मंत्रालय में इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था। इसलिए इसे संस्कृति विभाग और फिर वहां से राष्ट्रीय अभिलेखागार भेजा गया, जहां जानकारी की ढूंढ-खोज शुरू हुई। राष्ट्रीय अभिलेखागार 300 वर्षों के सरकारी दस्तावेज़ों का खज़ाना है। आज भी उर्वशी को अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा है।

देश के नामों को ले कर उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके मांग की जा चुकी है कि ‘इंडिया’ का नाम बदल कर भारत किया जाना चाहिए। याचिका में कहा गया था कि महाराजा परीक्षित, कुरु वंश के अंतिम दुर्जेय सम्राट की मृत्यु तक, पूरी दुनिया भारतवर्ष के रूप में जाना जाता था। इसके अलावा दुनिया के एक महान सम्राट का शासन था । भारत ऋग्वेद में उल्लेख किया है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और राज्यों से जवाब मांगा। यह याचिका को महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता निरंजन भटवाल ने दायर की थी। मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू और न्यायाधीश अरूण मिश्रा की पीठ ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस जनहित याचिका पर नोटिस भी जारी किया। इस याचिका में केंद्र को किसी सरकारी उद्देश्य के लिए और आधिकारिक पत्रों में इंडिया नाम का उपयोग करने से रोकने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता निरंजन भटवाल ने आग्रह किया कि न केवल सरकारी अपितु गैर सरकारी संगठनों और कॉरपोरेट्स को भी सभी आधिकारिक और अनाधिकारिक उद्देश्यों के लिए देश का नाम ‘भारत’ का उपयोग करने का निर्देश दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश लगभग छह माह बाद भी याचिकाकर्ता को कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला।

भारत का इतिहास सदियों से काफी गौरवशाली रहा है। भारत का नाम प्राचीन वर्षों में ‘भारतवर्ष’ था। इसके पूर्व भारत नाम जम्बूदीप था। देश का नाम भारत होने के संबंध में एक सर्वमान्यकथा प्रचलित है कि कुरूवंशीय राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर ही देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। यद्यपि कई आधुनिक विद्वान इस कथा को प्रमाण के अभाव में खारिज़ करते हैं किन्तु पुराणों में ‘भारतवर्ष’ नाम का उल्लेख नकारा नहीं जा सकता है। ‘वायु पुराण’ में इस बात की पुष्टि होती है कि देश का नाम भारतवर्ष क्यों पड़ा। इस संदर्भ में ‘वायु पुराण’ का यह श्लोक ध्यान देने योग्य है जिसमें कहा गया है कि हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है-

हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।

तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधाः।

इंडिया नाम तो अंग्रेजों की गुलामी के साथ आयाजबकि पुराणों में भारत के प्राचीन नाम जम्बूद्वीप का भी उल्लेख मिलता है। जम्बूदीप का अर्थ है समग्र द्वीप। भारत के प्राचीन धर्म ग्रंथों में हर जगह जम्बूदीप का उल्लेख आता है। उस समय भू-भाग एक विस्तृत द्वीप था जिसे आगे चल कर भारतीय उपमहाद्वीप कहा गया। ‘वायु पुराण’ में ही दी गई एक अन्य कथा के अनुसार त्रेता युग में देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ‘वायु पुराण’ के अनुसार त्रेता युग के प्रारंभ में स्वंयभू मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने भरत खंड को बसाया था। लेकिन राजा प्रियव्रत के कोई भी पुत्र नहीं था इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नींध्र को गोद ले लिया था जिसका पुत्र नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था और ऋषभ के पुत्र का नाम भरत था और भरत के नाम पर ही देश का नाम भारतवर्ष पड़ा था। उस वक्त राजा प्रियव्रत ने अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को पूरी धरती के सातों महाद्वीपों का अलग-अलग राजा नियुक्त किया था। इस तरह राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक अग्नींध्र को बनाया था। इसके बाद राजा भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र को दिया वही भारतवर्ष कहलाया। ‘वायु पुराण’ में यह कथा इस प्रकार है-

व्याख्या सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत। अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।। प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।। तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजसः। ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुजः।। नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

विचारणी है कि जब कम्बोडिया अपना नाम बदल कर मोलिक नाम कम्पूचिया कर सकता है, सिलोन अपने मौलिक नाम श्रीलंका को अपना सकता है तो इंडिया सिर्फ़ भारत क्यों नहीं हो सकता है। एक देश, एक नाम, एक पहचान - यह जरूरी है देश के वैश्विक गौरव के लिए।
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( सागर दिनकर, 31.08.2018)





Friday, August 24, 2018

चर्चा प्लस ... इंटरनेट गेमर्स के निशाने पर बच्चे और युवा - डॉ. शरद सिंह

 
चर्चा प्लस : इंटरनेट गेमर्स के निशाने पर बच्चे और युवा - डॉ. शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस :
इंटरनेट गेमर्स के निशाने पर बच्चे और युवा
- डॉ. शरद सिंह
कुछ अरसा पहले ‘ब्लू व्हेल’ नाम के इन्टरनेट गेम ने दुनिया भर में कई युवाओं की जान ले ली थी। दुनिया भर में अनेक देशों ने इस गेम को न केवल प्रतिबंधित किया था बल्कि इसे न खेले जाने के लिए मुहिम भी चलाई। ब्लू व्हेल के बाद आया ‘किकी चैलेंज’। किकी चैलेंज से भी अधिक घातक सिद्ध हुआ ‘मैरी पौपिंस चैलेंज’। इसी क्रम में अब आ गया है एक घातक व्हाटएप्प गेम -‘मोमो’। ऐसा लगता है मानो कुछ साईको किस्म के गेमर्स युवा जगत को आत्मघाती उन्माद की दुनिया में ले जाना चाहते हैं। यह वह संकट है जिसके प्रति युवाओं का सचेत रहना जरूरी है। 
इंटरनेट गेमर्स के निशाने पर बच्चे और युवा - डॉ. शरद सिंह ... चर्चा प्लसColumn of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper
जिसने भी यह खबर सुनी वह चौंक गया। चौंकना स्वाभाविक था। आखिर 14 साल की उम्र भला कोई ऐसी उम्र होती है जिसमें फांसी लगा कर आत्महत्या करने का विचार आए और उसे अमल भी कर लिया जाए। शायद इंटरनेट की दुनिया में पहुंच कर बच्चे यह भी सीख रहे हैं कि आत्मघाती कदम कैसे उठाए जाते हैं। घटना मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की है। मोबाइल पर गेम खेल रही 14 साल की बेटी को डांट लगाना मां को भारी पड़ गया। कक्षा 9वीं में पढ़ने वाली बच्ची ने कमरा बंद करके खुद को फांसी लगा ली। घर में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था और 14 साल की बच्ची अपनी मां के फोन पर गेम खेल रही थी। बच्ची की मां ने उसे फोन छोड़कर पढ़ाई करने को कहा तो वह अपने कमरे में चले गई। मां ने उसे आवाज लगाई तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद उन्होंने उसके कमरे की खिड़की खोलकर देखा तो वह स्तब्ध रह गईं। बच्ची फंदे पर लटकी हुई थी। जब उसे अस्पताल ले जाया गया तो डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। यदि इस प्रश्न का उत्तर ढूंढा जाए कि यह आत्मघाती कदम उस नन्हीं बच्ची को कैसे सूझा होगा? तो उंगली इंटरनेट की ओर उठती है।
मोबाईल और इंटरनेट बच्चों और युवाओं सहज ही आकर्षित कर लेते हैं। मुझे आद है अपनी सागर से भोपाल की वह छोटी-सी यात्रा। राज्यरानी एक्सप्रेस की उस इकलौती चेयरकार में एक युवा मां अपने दो साल के बच्चे के साथ सफर कर रही थी। लगभग छब्बीस-सत्ताईस हज़ार कीमत का मोबाईल फोन उसने अपने बेटे के हाथ में दे रखा था। फोन की कीमत शायद इससे भी अधिक रही हो। उसका बेटा मोबाई के बटन दबाता जिससे की-पैड टोन बजती और वह खुश हो कर हाथ हिलाने लगता। इस फेर में कई बार उसके हाथ से फोन छूट कर गिरा। ऐसा लगता था जैसे आर्थिक रूप् से समृद्ध उस युवा मां को न तो अपने कीमती मोबाईल फोन की चिन्ता थी और न अपने बेटे पर पड़ने वाले फोन के दुष्प्रभाव की। उस नन्हें बच्चे पर फोन के रेडिएशन पर असर की परवाह थी। उसे तो मजा आ रहा था अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करने में। मुझे विचार आया कि वह बच्चा ज़रा बड़ा होगा तब भी उसके हाथों में मोबाईल होगा। तब वह उन चीजों से रूबरू होगा जो उसे उस उम्र में देखनी भी नहीं चाहिए और उसे टोकने वाला कोई नहीं होगा। ऐसे ही बच्चे युवावस्था में पहुंचते-पहुंचते हानिकारक साईट्स और गेमर्स के हत्थे चढ़ जाते हैं।
कुछ समय पहले इन्टरनेट पर एक गेम आया था- ब्लू व्हेल। इस ब्लू व्हेल गेम की वजह से भारत समेत कई देशों में किशोरों और बच्चों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आए थे। लगभग 130 से ज्यादा जान गई थीं ब्लू व्हेल गेम के कारण। इस गेम के तहत खुद को हर रोज किसी न किसी तरह से नुकसान पहुंचाना होता था 50वें दिन खुद की जान लेने के साथ यह गेम खत्म होती थी अब व्हाट्सअप मंच पर उपलब्ध ‘मोमो’ से भी वैसा ही खतरा पैदा होने की आशंका जताई जा रही है। ब्लू व्हेल गेम के बाद अब इस नए व्हाट्सएप गेम ‘मोमो’ ने कई देशों की चिंता बढ़ा दी है। यह खतरनाक गेम खासतौर से किशोरों और बच्चों को अपना निशाना बनाने की कोशिश में है। विशेषज्ञों ने दुनियाभर के माता-पिता को चेताया है कि यह व्हाट्सएप गेम ब्लू व्हेल गेम की तरह घातक साबित हो सकती है। इस गेम के जरिए यूजर को हिंसक तस्वीरें भेजी जाती हैं। अगर यूजर इसे खेलने से मना करता है, तो उसे धमकाने की भी कोशिश की जाती है। इस गेम के लिए जो डरावनी तस्वीर इस्तेमाल की जा रही है, उसे जापानी कलाकार मिदोरी हायाशी ने बनाया था। हालांकि मिदोरी का इस गेम से कोई लेना-देना नहीं है। अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में एक 12 साल की लड़की की संदिग्ध मौत के पीछे इसी गेम को माना जा रहा है। पुलिस का भी यह मानना है कि मोमो गेम की चुनौती के तहत बच्ची ने संभवतः आत्महत्या का वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड करने की भी कोशिश की थी। अर्जेंटीना में प्रशासन ने इस संबंध में लोगों को जागरूक करने की मुहिम भी शुरू कर दी है।
इससे पहले सोशल मीडिया पर ‘‘आइस बकेट’’ चैलेंज चला था जिसमें बर्फ से भरी बाल्टी को अपने सिर पर उड़ेलना था और ऐसा करते हुए अपना वीडियो अपलोड करना था। इसके बाद सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर करने लगा किकी चैलेंज। कनेडियन हिप हॉप सुपरस्टार ड्रेक के लेटेस्ट ऐल्बम स्कॉर्पियन के हिट सॉन्ग ‘इन माय फीलिंग’ पर शुरू हुआ ‘किकी चैलेंज’ दुनियाभर में वायरल हो गया। इसमें सिलेब्रिटीज के भी शामिल हो जाने से अधिक से अधिक लोगो को इसने आकर्षित किया। आम लोग भी इस चैलेंज को पूरा करने में जुट गए। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि स्पेन, अमेरीका, मलेशिया और यूएई में लोग इस चैलेंज वीकार करने लगे और दूसरों के लिए मुसीबत खड़ी करने लगे। यहां तक कि पुलिस को एडवाइजरी तक जारी करनी पड़ी जिसमें लोगों से अपील की गई कि वे कीकी चैलेंज को स्वीकार न करें यह खतरनाक हो सकता है। अमेरिकी पुलिस ने इसे सबसे खतरनाक डांस मूव बताया। वहीं फ्लोरिडा की पुलिस ने यह डांस मूव करते हुए पकड़े जाने पर 1000 डॉलर का जुर्माना लगाने का एलान किया। भारत में यूपी और दिल्ली समेत कई राज्यों में पुलिस ने चेतावनी जारी की। इस चैलेंज में कैनेडियन रैपर ड्रेक के गाने ‘इन माय फीलिंग’ पर लोग चलती गाड़ी से उतरकर डांस स्टेप करते थे। इस दौरान गाड़ी की रफ्तार बहुत धीमी होती थी। चैलेंज की खास बात है कि डांस के बाद वापस चलती गाड़ी में ही बैठना होता है।
इसी तरह का घातक चैलेंज है मैरी पौपिंस चैलेंज। इसमें किसी ऊंचाई पर चढ़ कर एक खुले छाते के सहारे नीचे कूद पड़ना होता है। इस चैलेंज में भी कई लोगों ने अपनी जान गंवाई। चैलेंज वाले इन गेम्स के क्रम में अब आ धमका है ‘मोमो’ गेम। इसका प्लेटफार्म व्हाट्सएप्प होने से इसके अधिक से अधिक वायरल होने की संभावना है। भले ही भारत में एक बार में व्हाट्सएप्प मैसेज को पांच से अधिक फॉवर्ड करने पर रोक लगा दी गई है लेकिन खतरों से भरे इस गेम का खतरा सिर्फ सजगता से ही टाला जा सकता है। माता-पिता, अभिभावकों, मित्रों और शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए बच्चों और युवाओं की मोबाईल और इंटरनेट गतिविधियों पर ध्यान रखना होगा, तभी सुरक्षित रहेंगे बच्चे और युवा।
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(Sagar Dinkar, Daily, 22.08.2018)
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Saturday, August 18, 2018

Tribute to Late Atal Bihari Vajapayee ji by Dr (Miss) Sharad Singh

हार्दिक आभार "दैनिक भास्कर" सागर संस्करण... भारत रत्न स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति मेरी विनम्र संवेदनाओं को सबसे साझा करने के लिए...- डॉ शरद सिंह
Tribute to Late Atal Bihari Vajapayee ji by Dr (Miss) Sharad Singh, Dainik Bhaskar, 17.08.2018

Tribute to Late Atal Bihari Vajapayee ji by Dr (Miss) Sharad Singh, Dainik Bhaskar, 17.08.2018

Rashtravadi Vyaktitva Atal Bihari Vajpeyee written by Dr (Miss) Sharad Singh

राष्ट्रवादी व्यक्तित्व अटल बिहारी वाजपेयी को सादर नमन ...

 
Rashtravadi Vyaktitva Atal Bihari Vajpeyee written by Dr (Miss) Sharad Singh

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है किन्तु किसी विशिष्ट व्यक्ति को सचमुच खो देना सदैव पीड़ा पहुंचाता है .....
“राष्ट्रवादी व्यक्तित्व” श्रृंखला में अटल जी के जीवन पर “राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : अटल बिहारी वाजपेयी” किताब लिखने के दौरान उनके व्यक्तित्व को मैंने विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखा, जाना और समझा। मुझे महसूस हुआ कि वे किसी भी दलगत विचारों की संकीर्णता से परे थे। भोपाल में श्रीमती सुधा मलैया द्वारा अपनी संस्था 'ओजस्विनी' की ओर से आयोजित स्त्री सम्मान कार्यक्रम के दौरान मुझे और मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह जी को अटल जी से मिलने और उनसे विस्तृत चर्चा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। वह दिन अविस्मरणीय है मेरे लिए।
🙏स्व. अटल जी को सादर नमन

चर्चा प्लस ...बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस :
स्वतंत्रता से बढ़ कर कोई नेमत नहीं
- डॉ. शरद सिंह
जिन्होंने गुलामी की पीड़ा नहीं झेली उनके लिए आजादी के महत्व को महसूस करना ज़रा कठिन हो सकता है लेकिन वे बुजुर्ग स्वतंत्रता का सच्ची मूल्यवत्ता जानते हैं जिन्होंने कभी परतंत्रता में सांस ली थी। वह समय था जब देश भक्ति के तराने गाना भी अपराध था। आज अभिव्यक्ति की आजादी है जो उस समय नहीं थी। इस अभिव्यक्ति आजादी
का सम्मान करना भी तो हमारा कर्त्तव्य है। स्वतंत्रता एक नेमत है और इसे सम्हाल कर रखना हमारा दायित्व है। 
बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह ... चर्चा प्लस ... Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper
 
आज सुबह ही एक मित्र ने दुखी स्वर में कहा कि अब व्हाट्एप्प पर पांच से अधिक मैसेज एक साथ फारवर्ड नहीं किए जा सकते हैं। उन्हें दार्शनिक संदेश भेजने का शौक है। उनके संदेश किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। उनके संदेशों से किसी माबलिंचिंग की भी रत्ती भर संभावना नहीं रहती है। इसीलिए वे दुखी हैं कि उनके हानिरहित संदेश भी उनके सभी मित्रो के पास एक साथ नहीं पहुंच सकेंगे। अपना यही दुख उन्होंने मेरे सामने प्रकट किया। वे सरकार के प्रति रोषित थे। मैंने उन्हें समझाया कि सरकार को पांच संदेशों की सीमा बांधने की आवश्यकता क्यों पड़ी, यह भी तो सोचिए। देश में मॉबलिंचिंग की अधिकांश घटनाओं में व्हाट्सएप्प पर थोक के भाव भेजे गए संदेशों की अहम भूमिका रही। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा। देखा जाए तो यह तो एक उदाहरण है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाने और उसका दुरुपयोग करने का। इससे पहले मध्यप्रदेश सहित देश के विभिन्न राज्यों में हुए जातीय प्रदर्शनों के दौरान भी इसी तरह के दुरुपयोग का मामला सामने आया था। वस्तुतः हमें प्रजातंत्र के अंतर्गत जो अधिकार मिले हैं उनका सही दिशा में उपयोग करके हम मानवीय संबंधों को सुदृढ़ बना सकते हैं किन्तु उन्हीं अधिकारों का दुरुपयोग कर के अमानवीयता को बढ़ावा दे बैठते हैं। इसके बाद यदि पाबंदियों का चाबुक चलता है तो उसका प्रतिवाद करने का भी अधिकार हम खो चुके होते हैं।
अभी पिछले दिनों मेरी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ का एक संस्मरण एक दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने बताया था कि ‘‘ जिस रात देश की स्वतंत्रता की विधिवत घोषणा होनी थी और लाल किले पर तिरंगा फहराया जानेवाला था, उस रात हम सभी जागते रहे। उस समय टेलीविजन तो था नहीं, पूरे मोहल्ले में एक रेडियो था जिसको बीच आंगन में रख दिया गया था और हम सब उसे घेर कर बैठे रहे थे। तिरंगा फहराए जाने की घोषणा ने हमें रोमांचित कर दिया था। अद्भुत था वह पल।’’ मैंने मां से जब संस्मरण उनसे सुना और फिर प्रकसशित होने के बाद पढ़ा तो मैंने उस रोमांच को महसूस करने की कोशिश की जो मेरी मां ने उस समय अनुभव किया होगा। ईमानदारी से कहूं तो मैं उस रोमांच को शतप्रतिशत महसूस नहीं कर सकी क्योंकि मैंने भी परतंत्रता के वे काले दिन नहीं देखे हैं। फिर मैंने स्मरण किया उन बलिदानियों के जीवन का जिन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। भगत सिंह को जब फांसी की सजा दी गई उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। लुधियाना के पास सराभा गांव के रहने वाले करतार सिंह को अंग्रेजों ने 19 साल की उम्र में ही फांसी दे दी थी। खुदीराम बोस की आयु उस मात्र 18 वर्ष थी जब उन्हें फांसी की सजा दी गई थी। इन युवाओं के आगे उनकी सारी उम्र पड़ी थी और युवावस्था के ढेर सारे सपने भी रहे होंगे लेकिन उन्होंने सबसे बड़ा स्वप्न देखा देश को आजाद कराने का और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए अपने प्राण निछावर कर दिए। ये तो वे नाम हैं जिन्हें हमने सुन रखा है, जिनके बारे में हम जानते हैं जबकि अनेक ऐसे युवा थे जो स्वतंत्रता के समर में युद्धरत रहे और अंग्रेजों की बर्बता के तले कुचले गए। आत्मबलिदान के सागर से निकाल कर लाया गया स्वतंत्रता का मोती जब मिलने वाला रहा होगा तो रोमांचित होना स्वाभाविक था। बलिदानियों के बलिदान को याद करके मुझे उस रोमांच का अनुभव हुआ और उस पल मुझे लगा कि कितना जरूरी है युवाओं के लिए यह जानना की जो स्वतंत्रता हमें मिली है वह किसी थाली में परोस कर हमें नहीं दी गई है, उसे पाने के लिए हमारे बुजुर्गों ने असीमित कष्ट उठाया है। इसी तारतम्य में मुझे अपने नानाजी स्व. संत श्यामचरण सिंह के उस संस्मरण की याद ताज़ा हो गई जो वे हमें हमारे बचपन में सुनाया करते थे। नानाजी गांधीवादी थे। वे महात्मा गांधी के आदर्शों पर चल कर देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे। वह लगभग 1946 की घटना थी। नानाजी उन दिनों वर्धा में थे। वे किसी गुप्त बैठक से वापस घर लौट रहे थे कि अचानक कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई। प्रत्येक व्यक्ति को घर से निकलने की मनाही थी। नानाजी को इस बारे में पता नहीं था। वे सड़क पर कुछ दूर ही चले थे कि एक सिपाही ने उन्हें ललकारते हुए रुकने को कहा। नानाजी रुक गए। सिपाही ने उन्हें डांटते हुए उनसे पूछा कि क्या तुम्हें पता नहीं है कि कर्फ्यू के दौरान घर से नहीं निकलना चाहिए। नानाजी ने निर्भीकता से उत्तर दिया कि उन्हें कर्फ्यू के नियम तो पता हैं लेकिन यह पता नहीं था कर्फ्यू लग गया है। इस पर सिपाही तनिक नरम पड़ा। उसने नानाजी को घर में ही रहने की हिदायत देते हुए वहां से जाने दिया। जब हम नानाजी से पूछते थे कि आपको सिपाही से डर नहीं लगा था तो वे उत्तर देते थे कि नहीं वह सिपाही भारतीय था लेकिन अंग्रेजों का नमक खा रहा था, ऐसे गद्दार से डरने का सवाल ही नहीं था। हम और पूछते कि यदि वह आपके साथ मारपीट करता तो? इस नानाजी हंस कर कहते कि जब गांधी जी लाठियां खा सकते थे तो मैं क्यों नहीं? गांधी जी और मेरा पवित्र लक्ष्य तो एक ही था- देश की आजादी।
‘लक्ष्य’-हां, यदि लक्ष्य पवित्र हो तो व्यक्ति निर्भीक रहता है वरना ‘फेक आई’ के पीछे छिप कर जगहर उगलता रहता है और वातावरण दूषित करता है। ऐसे छद्मवेशी महानुभावों के कारनामों का ही यह दुष्परिणाम होता है कि सरकार को लगाम कसनी पड़ती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करनी पड़ती है और सद्विचारों वाले व्यक्तियों को भी इस कटौती की सजा को भुगतना पड़ता है। यह समझना होगा खुराफातियों को कि स्वतंत्रता का अर्थ अधिकारों का दुरुपयोग नहीं होता है। उन अपराधी मनोवृत्तिवालों को भी समझना होगा कि स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी मासूम बच्ची या किसी महिला के साथ बलात्कार किया जाए अथवा मॉबलिंचिंग की जाए। स्वतंत्रता का अर्थ यह भी नहीं है कि इस बात पर आरोप-प्रत्यारोप किए जाएं कि किस व्यक्ति या किसी राजनीतिक दल ने देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता देश की सामूहिक आकांक्षा थी, देश का सामूहिक प्रयास था और यह देश की सामूहिक थाती है, इस पर किसी एक का सील-सिक्का नहीं लगाया जा सकता है। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इस अधिकार का सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है।
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Friday, August 10, 2018

बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह ... चर्चा प्लस ... Published in 'Dabang Media'

प्रिय मित्रो, मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....
http://dabangmedia.com/news.php?post_id=136456&title=

बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह ... चर्चा प्लस

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी
- डॉ. शरद सिंह
इस बार आमसभा चुनावों में कौन-सा राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाएगा? यह एक अहम प्रश्न है जिसका उत्तर सूची जारी होने पर ही मिलेगा। किन्तु क्या सूची में दर्ज़ किया जाना ही पर्याप्त होगा महिलाओं के लिए या फिर उन्हें उनके असली राजनीतिक अधिकार भी दिए जाएंगे? क्या एक बार फिर ‘रबर स्टैम्प’ म
हिला उम्मीदवार रहेंगी जो पति के निर्णय की उंगली पकड़ कर चलती रहेंगी अथवा इस बार वास्तविक योग्य महिला उम्मीदवारों को सूची में स्थान दिया जाएगा? यह ध्यान रखना जरूरी है कि बुंदेलखंड की महिलाएं अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए आज भी सच्चे राजनीतिक अधिकारों की राह देख रही हैं।
बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह ... चर्चा प्लस...Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper
आमसभा चुनावों के निकट आते ही सबसे पहले प्रश्न उठते हैं, किसको टिकट मिलेगी और किसको नहीं? कौन-सा राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाएगा? लेकिन क्या महिला उम्मीदवारों के आंकड़े बढ़ने से ही राजनीति में महिलाओं की पकड़ बढ़ जाएगी? सच तो यह है कि चुनाव निकट आते ही महिलाओं की तरफ़दारी करने वाले बयानों की बाढ़ आ जाती है किन्तु चुनाव होते ही किए गए वादे ठंडे बस्तों में बंधने लगते हैं, विशेषरूप से राजनीति में महिलाओं के प्रतिशत को ले कर। बुंदेलखंड के संदर्भ में देखा जाए तो बहुत ही विचित्र स्थिति दिखाई देती है। बुंदेलखंड जो दो राज्यों मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है, दोनों की एक साथ बात की जाए तो आंकड़ों के अनुसार राजनीति में महिलाओं की स्थिति काफी बेहतर दिखाई देती है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई आंकड़ों के परिदृश्य से अलग ही तस्वीर दिखाती है।
यदि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड की बात की जाए तो उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में अब तक हुए 15 विधानसभा चुनावों में 15 महिलाएं विधायक चुनी जा चुकी हैं। इनमें सबसे ज्यादा 11 दलित महिलाएं हैं और तीन पिछड़े और एक सामान्य वर्ग से हैं। इनमें से एक महिला छह बार विधायक चुनी जा चुकी है। मध्यप्रदेश में भी महिला विधायकों की गिनती अधिक तो नहीं लेकिन संतोषजनक है। समूचे बुंदेलखण्ड में सांसदों, विधायकों, सरपंचों, पंचों, नगरपालिका अध्यक्षों एवं पार्षदों के रूप में महिलाओं ने बेहतर उपस्थिति दर्ज़ कराई है। इन सारी राजनीतिक पदाधिकारी महिलाओं की यदि गिनती की जाए तो ऐसा प्रतीत होगा मानो बुंदेलखंड की महिलाएं पूर्णतः सशक्त हो गई हैं। मगर इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है जो इस प्रगति के गुब्बारे की हवा निकालने के लिए काफी है। जनसेवा के पदों पर चुनी गई महिलाओं में अधिकांश ऐसी हैं जो प्रचार-प्रसार तक में स्वतंत्र रूप से अपने नाम का उपयोग नहीं कर पाती हैं। उनके नाम के साथ उनके पति का नाम जुड़ा रहता है जो कि उनकी असली पहचान पर भारी पड़ता है। इससे सभी के मन में यह बात घर कर जाती है कि निर्णय लेने के सारे काम तो ‘भैयाजी’ करते हैं। ‘भौजी’ तो नाम भर की हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी को किसी महिला सरपंच से काम है तो वह महिला सरपंच के पास जाने के बजाए ‘सरपंचपति’ को ढूंढेगा जिससे उसका काम बन सके। कई पंचायतें ऐसी हैं जहां महिला सरपंच के स्थान पर सरपंचपति बैठकें आयोजित करते हैं तथा पत्नी की ओर से सारे निर्णय लेते हैं। यानी ऐसी महिला सरपंच होती हैं खालिस रबर-स्टैम्प। यदि इस व्यवस्था के तह में पहुंचा जाए तो पता चलता है कि वह महिला जिसे सरपंच की सीट के लिए चुनाव लड़वाया गया और जिता कर सरपंच बनवाया गया, वह न तो अधिक पढ़ी-लिखी है और न उसमें कभी कोई राजनीतिक रुझान रहा। चूंकि कतिपय कारणों से पति को टिकट नहीं मिल सकता था इसलिए पत्नी के लिए टिकट जुगाड़ लिया गया और पत्नी के नाम पर पति का शासन स्थापित हो गया।
महिला पार्षदों के पतियों द्वारा पत्नी के बदले बैठकों में भाग लेने पर कई बार आपत्तियां भी उठाई जाती हैं किन्तु इससे कोई दीर्घकालिक फर्क नहीं पड़ता है। ऐसी पहलकदमी कभी-कभी ही होती है। अधिकांश महिला सरपंच और पंच जिस सामाजिक माहौल से आती हैं उनमें उनका स्वतंत्र अस्तित्व बहुत कम होता है। पतियों की राजनीतिक लालसा उन्हें वैचारिकदृष्टि से अपाहिज बनाए रखती है। वे पति से पूछे बिना एक भी निर्णय नहीं ले पाती हैं। ऐसे उदाहरण देश के प्रत्येक हिससे में मिल जाएंगे किन्तु बुंदेलखंड सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में आज भी पिछड़ा हुआ है इसलिए इस क्षेत्र की महिलाओं का राजनीतिक अधिकार का स्वप्न आज भी दिवास्वप्न बना हुआ है।
यदि पंचायतों, पालिकाओं, निगमों, विधानसभाओं और लोकसभा के चुनावों में कुछ सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित न कर दी जातीं तो वह आंकड़ा भी शायद देखने को न मिल पाता जो आज कम से कम कुछ ढाढस तो बंधाता है। फिर भी यह मलाल तो रहता ही है कि राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी 10-15 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं देते हैं। भारतीय राजनीति में अभी भी पुरुषवादी सोच ही हावी है। राजनीतिक दलों के एजेंडे में महिला और महिलाओं के मुद्दे काफी पीछे आते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि महिलाओं को देश में कोई भी राजनीतिक दल वोट बैंक के तौर पर नहीं मानता है। अमूमन सभी दल मानते हैं कि महिलाएं अपने घर के पुरुषों के मुताबिक ही मतदान करती हैं। कुछ जमीनी नेता ही ऐसे हैं जो महिलाओं के हित में ठोस कदम उठाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन इससे परिवारों को आर्थिक लाभ तो मिलता है लेकिन उन परिवारों की महिलाओं को निर्णय की आजादी फिर भी नहीं दी जाती है। इस सामाजिक विडंबना के चलते बुंदेलखंड की विशेषरूप से ग्रामीण अंचल की महिलाएं आज भी शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जरूरी ज्ञान से भी वंचित हैं। उन्हें अपने कानूनी अधिकारों की भी समुचित जानकारी नहीं है। वे स्वसहायता समूह से तो जुड़ जाती हैं किन्तु भुगतान के समय या तो अंगूठा लगाने की अथवा टेढ़े-मेढ़े हस्ताक्षर करने की स्थिति रहती है। उन्हें भुगतान के ब्यौरे का ज्ञान नहीं रहता है अतः वे पूरी तरह से समूह की मुखिया की ईमानदारी पर आश्रित होती हैं। बुंदेलखंड की ग्रामीण औरतें आज भी जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ रही हैं। कई गांव ऐसे हैं जहां की महिलाओं को पीने का पानी लाने के लिए आठ-दस किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है। स्थिति बिगड़ने पर यदि जननी सुरक्षा वाहन अथवा 108 वाहन उपलब्ध न हो तो प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों एवं घरेलूहिंसा के मामले में भी बुंदेलखंड पीछे नहीं है।
ये स्थितियां बदल सकती हैं यदि राजनीति में महिलाओं को ईमानदारी भरा प्रतिनिधित्व दिया जाए। अब आगामी लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दल महिलाओं को उनकी योग्यता के आधार पर कितने प्रतिशत टिकट देते हैं, यह देखने का विषय रहेगा क्योंकि यही तय करेगा बुंदेलखंड में महिलाओं के विकास और उनके भविष्य को। यह सच है कि समूचा बुंदेलखंड ही अपने विकास की बाट जोह रहा है लेकिन उतना ही सच यह भी है कि इस क्षेत्र की महिलाएं अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए राजनीतिक अधिकारों की राह देख रही हैं।

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Monday, August 6, 2018

Friendship With Plants on World Friendship Day - Dr (Miss) Sharad Singh

Plantation By Dr Sharad Singh & Dr Varsha Singh with Navdunia Praja Mandal Sagar on World Friendship Day at District Hospital Premises Sagar (MP) India
05 अगस्त 2018, रविवार, ‘वर्ल्ड फ्रेंडशिप डे’ को जब सारी दुनिया में लोग अपने मित्रों को परस्पर बधाइयां दे रहे थे, उस समय नवदुनिया प्रजामंडल सागर, 'नवदुनिया' सागर संस्करण परिवार एवं नगर के जागरूक नागरिकों सहित मैंने (डॉ शरद सिंह) और मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह ने जिला अस्पताल परिसर में नीम के पौधे लगा कर वृक्षों से जीवन भर दोस्ती निभाने के अपने प्रण को दोहराया। एक सार्थक सुबह ... सचमुच एक सार्थक फ्रेंडशिप डे रहा कल !!!
मैं आभारी हूं  नवदुनिया प्रजामंडल सागर, 'नवदुनिया' सागर संस्करण की जिन्होंने यह अवसर उपलब्ध कराया !
समाचार एवं तस्वीरें उसी अवसर की....
Plantation By Dr Sharad Singh & Dr Varsha Singh with Navdunia Praja Mandal Sagar on World Friendship Day at District Hospital Premises Sagar (MP) India, Navdunia, Sagar Edition, 05.08.2018

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