Tuesday, February 28, 2023

पुस्तक समीक्षा | हिन्दी शिशुगीतों के पुनः प्रचलन की दिशा में सार्थक कृति | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 28.02.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री डॉ. वन्दना मिश्र  की पुस्तक "सांसों की सरगम लोरी-प्रभाती" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
हिन्दी शिशुगीतों के पुनः प्रचलन की दिशा में सार्थक कृति
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - सांसों की सरगम लोरी- प्रभाती
कवयित्री     - डाॅ. वन्दना मिश्र
प्रकाशक     - आईसेक्ट पब्लिकेशन, ई 7/22, एसबीआई, आरेरा काॅलोनी, भोपाल-462016
मूल्य        - 250/-
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        आज परिवारों का स्वरूप बदल गया है। एकल परिवार का चलन बढ़ गया है जिसमें पति-पत्नी और बच्चों के सिवा और किसी के लिए संभावना नहीं रहती है। अधिक से अधिक प्रसवकाल में परिवार के बुजुर्गों का सानिंध्य पा लिया जाता है। पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले माता-पिता को अधिक अवकाश भी नहीं मिलता है। आॅफिस जाने से छूट मिल भी जाए तो "वर्क फ्राम होम" का प्रावधान रहता है। फिर टेक्नाॅलाॅजी की प्रगति ने "अलेक्सा" जैसे विकल्प दे दिए हैं। जिन्हें बच्चे के निकट पहुंचे बिना आदेश दे दिया जाए कि "अलेक्सा राईम सुनाओ!" तो "अलेक्सा" जैसी इलेक्ट्रानिक डिवाईस राईम यानी शिशुगीत सुनाने लगती हैं। बेशक उस गीत को गाने वाली गायिका अपने स्वर द्वारा कितना भी ममत्व उंडेलना चाहे किन्तु वह माता अथवा पिता की थपकियों के गर्म स्पर्श को शिशु बच्चे तक नहीं पहुंचा सकती है। इस विडंबना का एक पक्ष और भी है कि हम आंग्लभाषा की अंधी दौड़ में स्वयं को झोंक चुके हैं। हर युवा माता-पिता अपने शिशु को आंग्ल भाषा में शिशुगीत सुनाना चाहता है, अपनी मातृभाषा में नहीं। ताकि उनके शिशु के मानस में अंग्रेजी भाषा के संस्कार पड़ें, किसी और भाषा के नहीं। इस प्रकार की परिस्थितियों में मातृभाषा या हिन्दी के शिशुगीतों का हाशिए में चले जाना स्वाभाविक है। इस दिशा में डाॅ. वन्दना मिश्र के शिशुगीतों का संग्रह ‘‘सांसों की सरगम लोरी-प्रभाती’’ शिशुगीतों की परम्परा को बचाने का एक सार्थक प्रयास है।
शिशुगीतों के कुल 84 पृष्ठ के संग्रह ‘‘सांसों की सरगम लोरी-प्रभाती’’ में डाॅ. वन्दना मिश्र ने स्वरचित 16 प्रभाती गीत तथा 15 लोरियां रखीं हैं। इनके अतिरिक्त संग्रह के अंतिम पृष्ठों पर गिनती तथा हिन्दी वर्णमाला पर छोटी-छोटी तुकबंदियां दी हैं जो वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को याद रखने में रोचकता प्रदान करेंगी।
यहां याद रखने की बात यह है कि शिशुगीतों का हमारे तथा शिशु के जीवन में महत्व क्या है? तो इस विषय में मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि शिशुओं के लिए माता-पिता द्वारा उनके लिए गाया जाने वाला प्रत्येक गीत थेरेपी का काम करता है। वे उस गीत के स्वरों के उतार-चढ़ाव से अपने माता-पिता की मनःस्थिति को भांप सकते हें तथा ये गीत शिशुओं और उनके माता-पिता के बीच गहरा संबंध स्थापित करता है। यह माना जाता है कि यदि एक पांच माह का शिशु प्रतिदिन किसी गीत को सुनता है, तो वह उसे सुनते ही उसकी संगीत रचना को पहचान सकता है। यूं भी प्रत्येक माता-पिता अपने रोते हुए शिशु को चुप कराने के लिए अथवा उसे सुलाने के लिए अपनी गोद में ले कर उसे थपकी देते हैं और कुछ न कुछ गुनगुनाते हैं। वे जानते हैं कि ऐसा करने से उनका शिशु रोना भूल जाएगा या फिर मीठी नींद सोने लगेगा। इसीलिए इसे संगीत थेरेपी के अंतर्गत भी रखा जाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि शिशु भी संगीत के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। यह इसलिए कि जब माता-पिता या कोई अन्य व्यक्ति भी शिशुओं से बात करता है तो अपने स्वर को कोमल और आत्मीय भावों से भर देता है। यह भावनात्मक स्वर शिशु को प्रफुल्लित करता है। इसीलिए माना जाता है कि लोरी का गायन शिशुओं को आश्वस्त करता है और उनमें सुरक्षा की भावना जगाता है। यह सच है कि अबोध शिशु भाषा और शब्दों से परिचित नहीं होता है किन्तु उन शब्दों में तथा उनको गाए जाने वाले स्वरों में निहित कोमला तथा ममत्व से भलीभांति परिचित होता जाता है। जैसे-जैसे शिशु में शब्दबोध बढ़ता है वह उन्हें दुहराने का प्रयास भी करता है जो उसके स्वयं के स्वरों को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। 
पहले लोरी और प्रभाती दोनों के गायन का चलन था। मां शिशुओं एवं नन्हें बच्चों को प्रभाती गा कर जगाती थी। आज की भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में कवयित्री डाॅ वन्दना मिश्र ने प्रभातियां लिख कर उन्हें पुनः चलन में लाने की आकांक्षा की है। उनकी एक प्रभाती देखिए जिसका शीर्षक है ‘‘देखो सूरज आया’’-
देखो सूरज आया है
नवजीवन को लाया है
ठंडी हवा चली है ऐसे
जैसे हमें बुलाया है
इसी तरह एक और प्रभाती है जिसमें एक मां अपने शिशु को जगाने के लिए प्रकृति के तत्वों का वास्ता दे रही है-
खुली फूल की पंखुरियां रे
भोर हुई लाल मेरे
उठ जा रे।
सोने गए तारे
जो साथ थे हमारे
बोल उठी चिड़ियां रे
भोर हुई लाला मेरे
उठ जा रे।
कुछ प्रभातियां ऐसी हैं जो हर किसी को अपने बचपन की याद दिला देंगी। जैसे एक गीत है ‘दर्जी भैया टोपी सिल दो’ -
दर्जी भैया टोपी सिल दो
करो नहीं निराश
टोपी सिल कर दी थी तुमने
दादाजी को खास
दादा जी ने टोपी पहन के
था दरबार सजाया
राजा-रानी दोनों को
अपने घर बुलवाया।
   इस संग्रह में बहुत सुंदर प्रभातियों के साथ ही सुंदर लोरियां भी हैं जिनमें शिशु से मीठी-मीठी नींद सोने का ममत्व भरा आग्रह है। जैसे एक लोरी ‘‘मीठी-मीठी निंदिया’’ की कुछ पंक्तियों को देखिए-
मीठी-मीठी निंदिया
बुलाती है तुझको
सपनों की दुनिया
लुभाती है तुझको
सुखद सपन में खो जा
सो जा राज दुलारे
मेरे प्यारे सो जा
राज दुलारे सो जा।
एक चंचल नन्हीं बालिका की झुंझलाई हुई मां की ओर से लिखी गई लोरी भी इस संग्रह में है जो मां-बेटी की दिनचर्या भी व्यक्त करती है-
पीले-पीले फूल खिले हैं
झूला उनका डाला है
आओ बिटिया रानी तुमको
यह गुलदान सजाया है।
तेरी एक हंसी की खातिर
दिन भर मेहनत करती हूं।
तू खुश रह और खिले फूल-सी
इतनी हसरत रखती हूं।
धमा चैकड़ी तुम करती हो
दिन भर घूमो यहां-वहां
तेरे पीछे-पीछे मैं तो
दिन भर भागा करती हूं।
    कवयित्री ने वर्णमाला के अक्षरों को अपने शब्दों में पहचान दी है जो दो-दो-पंक्तियों की तुकबंदी के रूप में सहज और सरल है। उदाहरण देखिए-
क - कमल जल में खिलता है / अंदर रह बाहर खिलता है
ख - खरगोश प्यारा न्यारा-सा/ सरपट दौड़ लगाता-सा
ग - गमला सुंदर एक लगाओ/ पर्यावरण को शुद्ध बनाओ
   इस प्रकार हिन्दी की पूरी वर्णमाला को कविताबद्ध करने का प्रयास किया गया है।
जैसा कि मैंने पहले ही उल्लेख किया कि शिशुओं एवं नन्हें बच्चों के प्रति समयाभाव एवं मशीनीकृत होते जीवन के दौरान शिशुगीतों का स्वयं माता-पिता द्वारा कम गाया जाना सालता है। अतः भावनात्मक रूप से ऐसे शुष्क होते समय में डाॅ. वन्दना मिश्र का शिशुगीतों का संग्रह प्रकाशित होना अपने आप में महत्व रखता है। यह संग्रह सुंदर चित्रों से सजा हुआ है। काग़ज़ और मुद्रण बेहतरीन है किन्तु हिन्दी शिशुगीतों को पुनः चलन में लाने की दृष्टि से पुस्तक का मूल्य अधिक है। संग्रह के कुछ शिशुगीतों में कवयित्री ने शिल्प तथा तुकबंदियों पर अधिक ध्यान नहीं दिया है जो तनिक खटकता है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि यह संग्रह अपनी अर्थवत्ता स्थापित करने में समर्थ है।           
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Monday, February 27, 2023

ग़ज़ल एल्बम "जुस्तजू" का यूट्यूब पर लांचिंग समारोह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कल मैं एक ग़ज़ल एल्बम "जुस्तजू"  के यूट्यूब लांच में शामिल हुई। इस एल्बम के ग़ज़लकार हैं मेरे सागर शहर के जानेमाने आर्थोपेडिक सर्जन डॉ मनीष झा तथा इसे गाया है बनारस घराने के प्रसिद्ध युवा गायक  श्री बृजेश मिश्र ने। शाम्भवी क्रिएटर फाउंडेशन तथा श्यामलम संस्था के द्वारा आयोजित इस आयोजन में आमंत्रितों ने गायक और ग़ज़लकार से संवाद किया तथा ग़ज़लों के टीज़र भी देखे। आनंददायक अनुभव रहा। (26.02.2023)
💐अनुज डॉ मनीष झा तथा श्री बृजेश मिश्र को आनंत शुभकामनाएं 🌷💐🌷

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Sunday, February 26, 2023

बुंदेली लोकजीवन में श्रीराम का नाम एक विश्वास है किस का अनुभव बुंदेली लोकगीतों में किया जा सकता है। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा "राम काव्य परम्परा और बुंदेलखंड" विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का दूसरा दिन... समापन सत्र में  मुख्य वक्ता के रूप में मेरा  व्याख्यान... इस सत्र के मुख्य अतिथि थे जबलपुर से पधारे हिंदी और भारतीय संस्कृति के विद्वान डॉ त्रिभुवन नाथ शुक्ल जी। हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी, भाषा विज्ञान अधिष्ठाता डॉ. चंदाबेन की महत्वपूर्ण उपस्थिति में संचालन किया हिस्सा विभाग के प्राध्यापक डॉ राजेंद्र यादव ने।
      आभार प्रकट किया हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ आशुतोष मिश्र ने। तदुपरांत राष्ट्रगान के साथ दो दिवसीय सेमिनार का समापन हुआ।
      इस अवसर पर शाल, श्रीफल, पुष्प गुच्छ, स्मृति चिन्ह एवं पुस्तकों से हम अतिथियों का आत्मीय स्वागत किया गया। इस सेमिनार की अभी विशेषता रही कि इसमें बड़ी संख्या में स्थानीय एवं देश भर से आए शोध छात्रों एवं प्राध्यापकों द्वारा अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। साहित्य के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति इस प्रकार शोध की रुचि देखकर अत्यंत सुखद अनुभूति हुई।
       
🌷आभारी हूं डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर (मप्र) के हिंदी विभाग की 🙏

📷छायाचित्र सौजन्य एवं साभार भाई  Madhav Chandra Chandel  जी
एवं श्री Mukesh Tiwari जी 🌷🙏🌷

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Friday, February 24, 2023

राष्ट्रीय सेमिनार | राम काव्य परम्परा और बुंदेलखंड | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा "राम काव्य परम्परा और बुंदेलखंड" विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ हुआ। इस अवसर पर लोक संस्कृति के विद्वान डॉ. श्याम सुंदर दुबे, हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी, भाषा विज्ञान अधिष्ठाता डॉ. चंदाबेन तथा कुलपति डॉ नीलिमा गुप्ता के सारगर्भित उद्बोधन सुने। इस अवसर पर राम काव्य के अपेक्षाकृत कम चर्चित संदर्भ सामने आए। सब कुछ बहुत रोचक रहा।
24.02.2023
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Thursday, February 23, 2023

बतकाव बिन्ना की | आ रओ नांय से मांय होबे को सीजन | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"आ रओ, नांय से मांय होबे को सीजन.!"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
आ रओ, नांय से मांय होबे को सीजन..!           - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

        ‘‘भैयाजी, आपको ऐसो नई लग रओ के चुनाव को मौसम शुरू होबे वारो आए।’’ मैंने भैयाजी से पूछीं। भैयाजी ऊ टेम पे बैठ के अपने हाथ के नखून काट रए हते।
‘‘तुमें लग रई के चुनाव को सीजन आबे वारो आए? तुम्हें दिखा नई रओ के सीजन आई गओ। सबलौं दोंदरा मचन लगो। बाकी तनक दो घड़ी गम्म खाओ औ हमें नखून काट लेन देओ। ऐसो ने होय के तुमाई बातन में पर के हम अपनी उंगलियां काट लेंवे।’’ भैयाजी ने मोसे कही और अपनो नखून काटन लगे।
‘‘हऔ भैयाजी! आप नखून काट लेओ फेर बात करबी। बाकी आपको नखून काटत देख के मोय हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को निबंध याद आ गओ।’’ मैंने कही।
‘‘कोन सो निबंध?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे बोई, ‘नाखून क्यो बढ़ते हैं?’। मैंने बताई उनके लाने।
‘‘हऔ स्कूले में पढ़ो सो हमने सोई रओ, मनो का हतो ऊमें?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘ ऊमें द्विवेदी जी की छोटी बिटिया ने उनसे पूछ लौ के नखून काय बढ़त आएं? लेओ बिंध गई सल्ल! अब द्विवेदी जी सो हते सोंस-फिकर वारे, सो बे सोसन लगे के बात तो सई पूछ रई बिटिया के नखून काय बढ़त आएं? बस, फेर का हती बे सोसत-सोसत पौंच गए अपन ओरन के पुरखा बंदरा लौं। फेर उनको लगो के जे नखून सो जनावर होबे की निसानी आए। सो उन्ने जेई-जेई में पूरौ निबंध लिख डारो।’’ मैंने शार्टकट में निबंध सुना दऔ।
‘‘हऔ, अब मोय सोई याद आ गओ। एक जे निबंध हतो औ एक बो वारो रओ, बख्शी जी को।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, समझ गई। आप डाॅ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को ‘क्या लिखूं’ निबंध की कै रए न?’’ मैंने भैया जी से पूछी।
‘‘हऔ, उमें दो मोडियां रईं जिन्ने बख्शी जी के लाने दो टापिक दए हते लिखबे के लाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सही कई। ऊमें एक रई नमिता औ एक रई अमिता। नमिता ने बख्शी जी से कई के ‘‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’’ पे निबंध लिख देओ औ अमिता  बोली के ऊको ‘‘समाज सुधार’’ पे निबंध चाउने। जे सुन के बख्शी जी सोंस में पर गए के मनो दूर के ढोल सुहावने तो लगत आएं पर का इत्ते सुहावने के ऊपे पांच पेज को निबंध लिखो जा सके? ऊंसई समाज सधार सो इत्तो बड़ो विषय आय के ऊको पांच पेज में कैसो सुलटाओ जा सकत आए? बड़ों नोनो निबंध रओ।’’ मैंने ऊ निबंध के बारे में बता डारो।
‘‘तुमें सोई पूरौ निबंध याद कहानो!’’ भैयाजी मोपे खुस होत भए बोले।
‘‘बो का आए के जोन चीज मजेदार रैत आए बो याद रै जात आए। अब का आजकाल के जे नेता हरे याद रैहें?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, घूम-फेर के आ गई ने मुद्दे पे। चलो, हमाए नखून सोई कट गए। अब बतकाव करी जा सकत आए।’’ भैयाजी अपनो गमछा झटकारत भए बोले।
‘‘बतकाव का करना आए? आपई बताव के 2014 के चुनाव में को-को कां-कां से ठाड़ो भओ रओ, जे कोनऊं खों याद हुइए का? औ अब जैसो-जैसो चुनाव करीब आहे सबरे नांव ऐसे रटा दओ जाहें के मनो पचास बरस लौं ने भूलहें। अबई टीवी वारे सबई खों बुला-बुला के उनको चैखटो दिखाहें।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ सो ठीक तो आए। काय से के चुनाव के बाद उनमें से एकई-दो जने के चैखटा दिखा जाएं सो  सो भौत कहानें। जीतबे के बाद कोनऊं पलट के ने देखहें औ ने दिखाहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे बताओ भैयाजी के आप कोन मुद्दा पे अपनो वोट दैहो?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘कोनऊं मुद्दा पे नईं।’’ भैया जी बोले।
‘‘मने?’’
‘‘मने जे के, मुद्दा-फुद्दा पे कछू नई रखो। अब तुमई देख लेओ के गरीबी, बेरोजगारी घांई मुद्दा सो, सात पीढ़ी पैलऊं से चले आ रए, औ सात पीढ़ी बाद लौं चलहें। काम सो बो वारो हुइए जोन पे खात-पीयत को जुगाड़ हो सके।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब ऐसो बी नइयां! अब कछू ज्यादई बोल रए।’’ मैंने कई।
‘‘कैसो ऐसो नइयां? तुम जे कैसे कै रईं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘आपई देख लेओ, अपने ई छोटे से शहर में कित्ती सारी गाड़ियां दौड़न लगीं। इत्ते माल खुल गए। जे सब देख के ऐसो नई लगत के अपने इते से गरीब कऊं मों छिपा के चली गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ जरूर! काय का सड़क पे कोनऊं पैदल चलबे वारो तुमें दिखात नइयां का? औ जो खींसा में माल ने होय सो उते माल में को पूछ रओ? सबरे माल नोई जा सकत आएं बिन्ना! तनक अपनी आंखे खोल के देखो! लोगन खों रोजी-रोजगार नोई मिल रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, मोय सो सब दिखात आएं मनो मोय लगो के कऊं कोनऊं मोय पुरानो जमाने को ने समझन लगे के मैं आज लौं बेई मुद्दा पकरे बैठी दिखा रई।’’ मैंने भैयाजी से अपनी मन की बात कहई दई।
‘‘सो ऊंमें का? जोन दिनां जे मुद्दा खतम हो जेहें, ऊ दिना इनको कहूं सिरा आबी। बाकी अबे सो इनसे कभऊं छुटकारा होत दिखात नइयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो चुनाव टेम पे भौतई मजो आत आए। सबरे नांय के मांय भगत फिरत दिखात आएं। मने ई पार्टी वारे ऊ पार्टी में औ ऊ पार्टी वारे ई पार्टी में। औ इत्तई नईं, चुनाव के बाद लौं नांय से मांय होत रैत आंए। मनो नांय से मांय होबे को सीजन चल रओ होए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, अब अगली साल बड़ो वारो चुनाव हुइए। जेई से तो अबई से दोंदरा मचन लगो। अब बख्शी जी जो आजकाल होते तो बे लिखते के ‘‘चुनाव कैसे जीतूं’’। काय से के चुनाव के टेम पे दूर के ढोल सोई कान पे बजन लगत आएं औ समाज सुधार को तो ट्रेंड चलन लगत आए। सोसल तीडिया वारो, असली वारो नोईं।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘हऔ, औ जो द्विवेदी जी होते सो बे लिखते के ‘‘लोग चुनाव क्यों लड़ते हैं?’’ काय से के चुनाव के टेम पे कछू लोगन के भीतर को जनावर खंाई-खांई करन लगत आए।’’ मैंने सोई कई।
‘‘चलो, आन देओ चुनाव, मजो आहे।’’ भैयाजी बोले।
बात सो सही आए के मजो भौत आत आए चुनाव टेम पे। ऊ टेम पे चार दिनां के लाने लगन लगत आए के अपने सबरे विकास के काम हो जेहें। काय से के चुनाव बाद तो ठैरे टांय-टांय, फिस्स-फिस्स! सो जो कछू हुइए, देखबी, मजे लेबी। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, February 22, 2023

चर्चा प्लस | हमारा शांतिपूर्ण भविष्य : पर्यावरण, शांति और सुरक्षा में है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
हमारा शांतिपूर्ण भविष्य : पर्यावरण, शांति और सुरक्षा में  है 
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       हमारी दुनिया, हमारा शांतिपूर्ण भविष्य: पर्यावरण, शांति और सुरक्षा’’ - जी हां, यही थीम है इस वर्ष अर्थात् 2023 के ‘विश्व चिंतन दिवस’ की जो प्रति वर्ष 22 फरवरी को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। लेकिन क्या हम सचमुच चिंतनशील रह गए हैं? यदि हां, तो हमारी चिन्ताओं का सरोकार और सीमाएं क्या हैं? यह दिवस यूं तो गर्ल्स स्काउट गाईड्स द्वारा मनाया जाता है लेकिन इसका उद्देश्य उस दुनिया के बारे में चिंतन करने का है जिसमें लड़कियां रहती हैं। एक स्वस्थ दुनिया, स्वस्थ पर्यावरण और एक स्वस्थ शांतिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में लड़कियां सुरक्षित रह सकती हैं। किन्तु क्या लड़कियों को ऐसा अनुकूल वातावरण मिल रहा है और क्या वे पूरी तरह सुरक्षित हैं?
विश्व चिंतन दिवस प्रति वर्ष 22 फरवरी को मनाया जाता है। इसे अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस भी कहा जाता है। गर्ल स्काउट गाईड्स के नेतृत्व में यह दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है। इस दिन दुनिया भर की लड़कियों के वर्तमान और भविष्य के बारे में खुल कर चर्चा की जाती है तथा उनकी दशा सुधारने के लिए रूपरेखा तैयार की जाती है। यह दिन वैश्विक चिंतन के रूप में लड़कियों के सम्पूर्ण वातावरण को केन्द्र में रखा जाता है। जैसे वर्ष 2022 के विश्व चिंतन दिवस की थीम थी- “हमारी दुनिया, हमारा समान भविष्य: पर्यावरण और लैंगिक समानता”। इस थीम को आधार बना कर वर्ष भर इस बात पर समाज का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया गया कि एक संतुलित सामाजिक भविष्य के लिए लैंगिक समानता अति आवश्यक है। जहां लड़कियों को लड़कों की भांति समान अवसर दिए जाते हैं वह समाज तेजी से विकास करता है क्योंकि आधी आबादी कहलाने वाला स्त्री-समुदाय यदि पिछड़ा रहेगा तो समाज भी पिछड़ा रहेगा। किन्तु यह हमारी असफलता है कि हमारे देश में ही लड़कियों को लड़कों से कमतर समझने की भूल की जाती है। आज भी समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जो लड़की के बजाए लड़के को संतान के रूप में पाना चाहते हैं। आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसमें लड़कियों की शिक्षा पर भी समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। इस दृष्टि से विश्व चिंतन दिवस स्वयं स्काउट गाईड्स लड़कियों को स्वयं के बारे में और दुनिया भर की सभी लड़कियों के बारे में सोचने का अवसर देता है।  

स्काउट गाइड आंदोलन वर्ष 1908 में ब्रिटेन में सर बेडेन पॉवेल द्वारा आरम्भ किया गया। भारत में स्काउटिंग की शुरुआत वर्ष 1909 में हुई। विश्व चिंतन दिवस ने धीरे-धीरे इसने एक वैश्विक आंदोलन का रूप ले लिया। वर्ष 1938 में भारत भी स्काउट आंदोलन के विश्व संगठन का विधिवत सदस्य बन गया। वर्ष 1911 में भारत में गाइडिंग की शुरुआत हुई, तथा भारत स्काउटिंग 1913 में ऐनी बेसेन्ट द्वारा प्रारम्भ कराई थी। लेकिन कुछ लोग मानते है सन 1913 में पंडित श्रीराम बाजपेई ने शाहजहांपुर से स्काउट दल का निर्माण किया। बहरहाल, सन् 1916 में लड़कियों के लिए भी गाइड दल बना। इससे पहले सिर्फ लड़के ही स्काउट दल के सदस्य होते थे। स्काउट-गाइड के माध्यम से बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास कर उनमें सेवा का भाव विकसित किया जाता है।

22 फरवरी को बॉय स्काउट आंदोलन के संस्थापक लॉर्ड बैडेन पॉवेल और प्रतिनिधियों द्वारा लेडी ओलेव बैडेन पॉवेल, उनकी पत्नी और फस्र्ट वल्र्ड चीफ गाइड दोनों के जन्मदिन के रूप में चिह्नित किया गया है। 22 फरवरी 1857 में लंदन में हैंनग्रेटा ग्रेस स्मिथ ने एक बालक को जन्म दिया जिसका पूरा नाम रॉबर्ट स्टीफेनसन स्मिथ बेडन पाउल था। बच्चा 3 वर्ष का हुआ कि पिता का साया सर से उठ गया, माता ने अकेले ही बेडन पाउल को अच्छे संस्कार और अच्छी परवरिश दी और उसी परवरिश ने इस बालक को विश्व विख्यात कर दिया। सन 1900 में दक्षिण अफ्रीका के बोर युद्ध में बेडन पाउल ने 20 बालकों की टोली बनायी और उस टोली में असीम शौर्य साहस कर्तव्य परायणता का प्रशिक्षण देते हुए उन बच्चों की जो मिसाल बनाई वह आज प्रतिष्ठित संस्था के रूप में जानी जाती है। सारे सामान्य बालकों को पावेल ने दनकी असीम शक्ति से परिचित कराया था। आगे चल कर पावेल की पत्नी लेडी ओलेव बैडेन पॉवेल ने लड़कियों के लिए स्काउट गाईड की शुरूआत की।  
 वर्ष 1926 में आयोजित चौथे गर्ल स्काउट अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में, एक विशेष अंतर्राष्ट्रीय दिवस की आवश्यकता पर सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने प्रकाश डाला, जब तय किया गया कि गर्ल गाइड्स और गर्ल स्काउट्स गर्ल गाइडिंग और गर्ल स्काउटिंग के विश्वव्यापी प्रसार और सभी गर्ल गाइड्स के बारे में चिंतन करेंगे। इसके वैश्विक स्वरूप को देखते हुए सन 1999 में आयरलैंड में आयोजित 30 वें विश्व सम्मेलन में इस दिवस के नाम को  ‘‘थिंकिंग डे’’ से बदल कर ‘‘वल्र्ड थिंकिंग डे’’ कर दिया गया।

प्रत्येक वर्ष विशेष दिवस के लिए एक थीम निर्धारित की जाती है। वल्र्ड एसोसिएशन ऑफ गर्ल गाइड्स एंड गर्ल स्काउट्स द्वारा प्रत्येक वर्ष के विश्व चिंतन दिवस के लिए विषय के रूप में एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मुद्दे का चयन किया है, और अपने प्रत्येक पांच विश्व क्षेत्रों में से एक फोकस देश का चयन किया है। विगत वर्ष के विश्व चिंतन दिवस 2022 की थीम थी -‘‘हमारी दुनिया, हमारा समान भविष्य: पर्यावरण और लैंगिक समानता’’। इससे पहले वर्ष 2021 में थीम थी-‘‘स्टैंड टुगेदर फॉर पीस’’ अर्थात् शांति के लिए साथ खड़े होना। जबकि सन् 2020 में  ‘‘ विविधता, सहभागिता और समावेश’’ थीम रखी गई थी।

यह दिन लड़कियों एवं युवा महिलाओं के अधिकारों और जरूरतों के लिए आवाज़ उठाने का अवसर देता है। इस दिन जरूरतमंद और योग्य महिलाओं की मदद के लिए धन जुटाने का भी कार्य किया जाता है। इस दिन युवा लड़कियों को भी मुखर हो कर अपनी बात करने का अवसर मिलता है। लेकिन हमारे देश में लड़कियों को ले कर जमीनी सच्चाई कुछ अलग ही है।

‘चाइल्ड राइट्स एंड यू’ (क्राइ) की ‘स्टेटस रिपोर्ट ऑन मिसिंग चिल्ड्रेन’ रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश के 58 जिलों में प्रतिदिन औसतन आठ बच्चे जिनमें छह लड़कियां और दो लड़के-लापता हुए। रिपोर्ट के अनुसार 2021 में मध्य प्रदेश और राजस्थान में लापता लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में पांच गुना अधिक है.। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, मध्य प्रदेश में लापता बच्चों के 8,751 और राजस्थान में 3,179 मामले दर्ज किए गए। एनसीआरबी डेटा यह बताता है कि अखिल भारतीय स्तर पर लापता बच्चों की कुल संख्या में बालिकाओं का अनुपात 2016 में लगभग 65 फीसद था, जो बढ़कर 2020 में 77 प्रतिशत हो गया है। सभी चार राज्यों में यही चलन रहा है। सभी लापता बच्चों में मध्य प्रदेश और राजस्थान में लड़कियों का अनुपात सबसे अधिक है। लड़कियों के लापता होने की घटना में घरेलू नौकरों की बढ़ती मांग, व्यावसायिक यौन कार्य और घरेलू हिंसा, दुव्र्यवहार और उपेक्षा के कारण लड़कियां खुद घर छोड़ने को विवश हो जाती हैं।

नाबालिग लड़कियों को देहव्यापार में झोंक दिया जाता है। सन् 2021 में दिल्ली में मानव तस्कर गिरोह से जिन लड़कियों को मुक्त कराया गया था, उनकी उम्र 14 से 16 साल की थी। दिल्ली महिला आयोग के अनुसार छोटी-छोटी बच्चियों को पैसे का लालच देकर जिस्मफरोशी में धकेला जाता है। यह लालच कभी सीधे बच्चियों को दिया जाता है तो कभी उनके माता-पिता या अभिभावक को दिया जाता है। वे लोग पैसों के लोभ में अपने परिवार की नाबालिग लड़कियों को मानव तस्करों के हाथों बेंच देते हैं। कई बार घरेलू नौकरानियों के रूप में भी इन खरीदी हुई लड़कियों से जी तोड़ काम कराया जाता है। अनेक लड़कियों को चोरी-छिपे विदेश भेज दिया जाता है जहां उन्हें नर्क से भी बदतर जीवन जीना पड़ता है।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि- ‘‘किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम सूचकांक है, वहां की महिलाओं की स्थिति। हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्याओं को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। हमें नारीशक्ति के उद्धारक नहीं, वरन् उनके सेवक और सहायक बनना चाहिए। भारतीय नारियां संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भांति अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता है उन्हें उपयुक्त अवसर देने की। इसी आधार पर भारत के उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएं सन्निहित हैं।’’    
        किन्तु हमारे देश में बालिकाओं की शिक्षा में व्यापक विषमता है। बालकों की शिक्षा का जो प्रतिशत वर्तमान है उसकी तुलना में बालिकाओं की शिक्षा का प्रतिशत का ग्राफ आज भी नीचे है।

यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि शिक्षा का अर्थ मात्र अक्षर ज्ञान नहीं होता है। शिक्षा वहीं है जो स्वावलंबी बना, स्वविवेक जगाए और साहस का संचार करे। आज आंकडत्रों के हिसाब से बालिका शिक्षा में कुछ सुधार अवश्य हुआ है लेकिन आज भी बहुतेरी स्त्रियां ऐसी हैं जिन्हें अपने कानूनी अधिकारों का ज्ञान ही नहीं है। यदि ज्ञान है भी तो उसे पाने का साहस नहीं है। घरेलू हिंसा, प्रताड़ना का प्रतिकार करना आज भी स्त्रियों को पूरी तरह से नहीं आया है। पति से मार खाने के बाद भी यह कह देना कि बाथरूम में फिसल कर गिर गई थी, वहुत आम बात है। ऐसी स्त्रियों को हम अक्षर ज्ञानयुक्त तो कह सकते हैं किन्तु शिक्षित नहीं। उनके अधिकारों के ज्ञान की शुरूआत बालिकाओं को उनके बालपन से ही आरम्भ की जानी चाहिए। साथ ही गलत का विरोध करना भी उन्हें आना चाहिए।

बहुत आम-सा उदाहरण है कि आर्थि रूप से कमजोर वर्ग लड़कियों को शिक्षा के लिए सरकार द्वारा स्कालरशिप की राशि दी जाती है। जो बैंक में उनका खाता खुलवा कर उसमें भेजी जाती है। इससे एक लाभ तो हुआ है कि लड़कियां बैंकिंग कार्यप्रणाली से परिचित होती जा रही हैं। वहां मदद के नाम पर उन्हें कोई ठग नहीं सकता है। इसी बहाने बचत और खाते के महत्व से भी परिचित हो गई हैं। लेकिन यहां भी एक विषमता मौजूद है। भले ही परिवार गरीबी रेखा से नीचे हो लेकिन परिवार का पुरुष मुखिया शराब आदि नशे का आदी रहता है। अतः कई बार ऐसी स्थितियां सामने आती हैं जिनमें पिता अपनी बेटी से उसके स्कालरशिप के पैसे छीन कर शराब में लुटा देता है। बल्कि इसी धन के लालच में वह बेटी को स्कूल जाने की अनुमति देता है, वरना स्कूल जाने ही न दे। पिता की ऐसी चेष्टा का विरोध करना भी लड़कियों को सिखाया जाना जरूरी है। अन्यथा पहले पिता के घर में उनसे उनके आर्थिक अधिकार छीने जाते हैं और फिर पति के घर में उसे आर्थिक अधिकारों से दूर रखा जाता है। सामान्यरूप से देखने में ये छोटी-छोटी लगने वाली बातें ही समूचे समाज को विकृत कर देती हैं। 

  लड़कियों के प्रति अपराधों की स्थिति यह है कि जहां पहले सिर्फ ‘अपराध’ होते थे, वहां अब ‘‘जघन्य अपराध’’ होने लगे हैं। लड़कियां सुरक्षित समाज में ही भयमुक्त हो कर उन्नति कर सकती हैं। आज स्थिति यह है कि शाम ढलने के बाद यदि लड़की घर न लौटे तो माता-पिता चिंता में डूबने लगते हैं और स्वयं लड़की के मन में भी भयाकुलता बढ़ जाती है। जबकि आज पढ़ाई से लेकर नौकरी तक के लिए लड़कियों को शाम ढलने के बाद तक घर से बाहर रहना पड़ता है।

वस्तुतः यदि हम लड़कियों को स्वस्थ पर्यावरण, शांति और सुरक्षा देना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें घर में बच्चों लालन-पालन के समय से ही बेटा और बेटी में अंतर करना छोड़ना होगा। दोनों का समान रूप से लालन-पालन करने से लड़कियों में साहस जागेगा और लड़के भी लड़कियों को अपने बराबर मानने के आदी रहेंगे। लड़कियों की भलाई के बारे में हर जरूरी कदम सिर्फ नारे में ही नहीं वरन बुनियादी चिंतन की भांति अपने जीवन में चरितार्थ करना होगा।
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Tuesday, February 21, 2023

विश्व मातृभाषा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बोली हो या भाषा, भावनाओं का विकास एवं परिष्कार पहले आवश्यक है।
विश्व मातृभाषा दिवस की 
हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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पुस्तक समीक्षा | कठोर संदर्भों पर कोमलता भरे आग्रह की कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 21.02.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि श्री वीरेन्द्र प्रधान  की पुस्तक "हम रहेंगे जीवित हवाओं में" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
कठोर संदर्भों पर कोमलता भरे आग्रह की कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - हम रहेंगे जीवित हवाओं में
कवि        - वीरेन्द्र प्रधान
प्रकाशक     - नोशन प्रेस
मूल्य        - 175/-
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कविता भाषा, भाव, ग्राह्य-क्षमता एवं अभिव्यक्ति-क्षमता के परिष्कार का प्रतीक होती है। जो कविता को मात्र मनोरंजन की वस्तु समझते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर रहे होते हैं। कोई भी व्यक्ति कविता तभी लिख पाता है जब उसका हृदय आंदोलित होता है और मस्तिष्क विचारों की ध्वजा फहराने को तत्पर हो उठता है। कहने का आशय कि कविता विचार और भावनाओं का सुंदर एवं संतुलित समन्वय होती है। 
‘‘हम रहेंगे जीवित हवाओं में’’ कवि वीरेन्द्र प्रधान का दूसरा काव्य संग्रह है। इससे पूर्व उनका काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ प्रकाशित हो चुका है। इस दूसरे काव्यसंग्रह में संग्रहीत कविताएं समय से संवाद करने में सक्षम हैं। गोया वे समय को ललकारती हैं और समाज के समक्ष अपने शब्दों का आईना रख देती हैं ताकि समाज अपनी कुरुपता को देख सके और उसे दूर कर सके। इसके साथ यह भी कहना होगा कि वीरेन्द्र प्रधान के भीतर का कवि मात्र आईना रख कर शांत नहीं बैठता है क्योंकि वह चाहता है कि किसी भी कुरुपता को मुखौटे अथवा दिखावे के लेपन से नहीं छिपाया जाए वरन् उसे प्राकृतिक उपचार कर के दूर किया जाए जिससे समाज वास्तविक एवं लोकमंगलकारी रूप ग्रहण कर सके। 
दीर्घ जीवनानुभव एवं जनसामंजस्य कविता में लोकसत्ता की विश्वनीयतापूर्वक स्थापना करता है। वीरेन्द्र प्रधान भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत रहे। उनका गहन जनसंपर्क रहा तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी सेवाएं देने के दौरान ग्राम्यजीवन की कठिनाइयों को समीप से जाना-समझा। इसीलिए उनकी कविताओं में समसामयिक शहरी समस्याओं के साथ ही ग्रामीण समस्याओं पर भी गंभीर चिंतन देखा जा सकता है। वे अपनी कविताओं में बिना किसी लागलपेट के बड़ी व्यावहारिक बात करते हैं। वे जैसा देखते हैं, अनुभव करते हैं, ठीक वैसा ही लिपिबद्ध कर देते हैं। इसीलिए उनकी कविताएं सहज संवाद से युक्त होती हैं। उदाहरण के लिए इस संग्रह की कविता ‘‘गांव बनाम शहर’’ को देखिए जिसमें शहरों के फैलाव से सिमटते गांवों की वास्तविक स्थिति को कविता के कैनवास पर किसी पेंटिंग की भांति चित्रित कर दिया गया है, प्रभावी दृश्यात्मकता के साथ -
गंाव को अपनाने के नाम पर
जब शहर पसारता है हाथ
गांव अपने पांव सिकोड़
पेट की ओर लेता है मोड़
उस जीह्वा से बचने के लिए
जो शहर के लम्बे हाथों के पीछे छिप
निगल जाना चाहती है गांव।

 अर्थात् कवि उस ओर लक्षित कर रहा है जिसे देखते हुए भी अनदेखा कर दिया जाता है। शहर इंसान नहीं है लेकिन इंसान शहर की फैलाव के आड़ में अपने भूमिपति बनने की लिप्सा को फैलाता जाता है। यह बारीकी वीरेन्द्र प्रधान की कविताओं की विशेषता है। कवि उन स्थितियों पर भी दृष्टिपात करता है जिसके कारण खेतिहरों को अपनी खेती-किसानी छोड़ कर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने को विवश होना पड़ता हैं। ऐसी ही एक कविता हैं-‘‘गंाव को छोड़ आना था’’। गंाव से पलायन का कारण हमेशा सूखा अथवा खेती में नुकसान ही नहीं होता है। अन्य अनेक कारण भी होते हैं, जैसे- गंाव में बच्चों की अच्छी और उच्च शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि। एक पीढ़ी पहले तक इन बुनियादी आवश्यकताओं की ख़तिर गांव छोड़ने का विचार त्याग भी दिया जाता था किन्तु वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए शहरी आवश्यकता को समझती है। बल्कि यह कहा जाए कि शहर आज की पीढ़ी की आवश्यकता का हिस्सा बन चुके हैं। परिवार को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दे पाने के लिए गंाव से शहर की ओर पलायन नियति बच गया है। कवि इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए कहता है-
गंाव को छोड़ कर आना था
मन से या बेमन से
शहर को अपनाना था।
  
‘‘पांव’’, ‘‘विकास’’ और ‘‘कामना’’ विविध भावभूमि की कविताएं हैं। इसी क्रम में एक सशक्त कविता है ‘‘मूलचंद’’। इस कविता का एक अंश ही पूरी कविता को पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है-
अब भी है उसे याद
पिता-शिक्षक संवाद
जिसमें खाल उधेड़ देने
मगर हड्डियां बचा रखने
का विशेषाधिकार सुरक्षित किया गया था
शिक्षक के पास
उसे बदले में जानवर से मनुष्य बनाने के।

संवेदनाओं पर बाज़ार के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। संपर्क के माध्यम बढ़े हैं किन्तु संवेदनाएं घट गई हैं। सोशल मीडिया पर सूचनाओं की भीड़ मानो एक भगदड़ का माहौल पैदा करती है जिसमें हर कोई ‘लाईक’ ‘कमेंट’ के ताने-बाने में उलझ कर शतरंज के घोड़े की भांति ढाई घर की छलांग लगाता रहता है। इस प्रवृत्ति ने संवेदनाओं का माखौल तो बनाया ही है, साहित्य सृजन की गंभीरता को भी गहरी चोट पहुंचाई है। किन्तु वीरेन्द्र प्रधान अपनी कविताओं के प्रति पूर्णतया सजग हैं। उनके सृजन का गांभीर्य उनकी प्रत्येक कविता में अनुभव किया जा सकता है। उदाहरण के लिए इसी संग्रह की ‘‘आभार’’ शीर्षक कवितांश देखिए-
मरने को तो मरते हैं अब भी
पहले से ज़्यादा लोग
मगर अब नहीं आतीं खूंट पर कटी चिट्ठियां
और सीरियस होने के तार से 
किसी के मरने के समाचार
अब तो अख़बारों में फोटो सहित छपते हैं
मरने वाले की अंत्येष्टि और उठावने के समाचार।
सोशल मीडिया ने भी बहुत क़रीब ला दिया
व्यस्तता और समयाभाव के युग में 
बहुत समय बचा दिया।

कवि वीरेन्द्र प्रधान समाज में रह रहे स्त्री-पुरुष के बारे में ही नहीं सोचते हैं बल्कि वे उन किन्नरों के बारे में भी विचार करते हैं जो हमारे इसी समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। यह एक ऐसा मानवीय समुदाय है जो समाज में रह कर भी समाज से अलग-थलग रखा जाता है। एक सजग एवं समाज के परिष्कार की आकांक्षा रखने वाले कवि के रूप में वीरेन्द्र प्रधान भी र्थडजेंडर अर्थात् किन्नरों के बारे में चिंतन करते हैं। वे अपनी कविता ‘‘ एक किन्नर का कथन’ में लिखते हैं -
कभी किसी गर्भ जल परीक्षण में
नहीं हो पाती हमारी पहचान
इसलिए हम मारे नहीं जाते 
बच जाते हैैं भ्रूण हत्या के पाप से।
जीवित छोड़ दिये जाते हैं पल-पल मरने के लिये।
जन्म से लेकर मृत्यु तक यह पहचान का संकट
कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

लम्बी कविता का यह अंश किन्नरों के प्रति कवि के न्यायोचित आग्रह का उम्दा प्रमाण प्रस्तुत करता है। प्रेम, कोरोना आपदा, मौसम आदि पर भी कवि ने कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इन्हें पढ़ने वाले को ठिठक कर सोचने को विवश करती हैं। अपने काव्यकर्म के प्रति सजग वीरेन्द्र प्रधान सर्वहारा की पीड़ा को मुखर करते हुए भी विषमताओं के प्रति कठोरता के बजाए कोमलता का आग्रह रखते हैं, यह भी एक खूबी है उनकी कविताओं की। कविता संग्रह ‘‘हम रहेंगे जीवित हवाओं में’’ पाठकों को पसंद आएगा, साथ ही विचारों को आंदोलित भी करेगा।                   
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Thursday, February 16, 2023

बतकाव बिन्ना की | जे ओरें बाप-मताई लो काय जान लगत? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"जे ओरें बाप-मताई लो काय जान लगत?"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
बतकाव बिन्ना की
जे ओरें बाप-मताई लो काय जान लगत?                                                     
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘काय भैयाजी, अपन ओरन की गली में अबलौं विकास यात्रा ने आई। काय से के इते आती सो अपन ओरन खों सोई पतो पर जातो के कित्तो विकास भओ।’’ मैंने भैयाजी से कही। बे अपने घर के दुआरे में बैठ के अखबार पढ़ रए हते।
‘‘तुम सोई, कां की बात कर रईं! विकास सब ओरन खों नई दिखाओ जात। जिते दिखाने होत आए, उतई दिखाओ जात आए। उने सोई पता के अपन ओरन ऊंसई जानत के कित्तो विकास हो रओ, औ कित्तो हो गओ। अब तुमाए लाने अलग से बताबे काए आएं बे ओरें?’’ भैयाजी अखबार एक तरफी धरत भए बोले।
‘‘काए, अपन ओरन खों काए नई दिखाओ चाइए? का अपन ओरें वोट नईं देत का?’’ मैंने भैयाजी से कही। मोय उनकी जे बात ने पोसाई।
‘‘अब जेई तो सल्ल आए के तुमाए घांई वोटर तनक-तनक में अहसान सो फेरन लगत आएं के हमने वोट दओ रओ... हमने वोट दओ रओ! अरे, तुमाई अटकी हती सो तुमने वोट दओ रओ। इत्ती तकलीफ हो रई हती सो नई देने हतो।’’ भैयाजी सोई तिन्ना गए।
‘‘मोरी काय अटकी रई? बा तो सबई जने खों वोट दओ चाइए, सो मैंने बी दओ रओ। जो कोनऊं वोट ने देहे सो चुनाव को मतलबई का रैहे? बाकी आप काय के लाने मोय ठेन कर रए के मोरी अटकी हती सो मैंने वोट दओ रओ।’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हम ठेन नई कर रए, मनो याद करा रए के ऊ टेम पे वोट देबे से कऊं ज्यादा वोट देत भए सेल्फी लेबे की परी रैत आए। को जाने देख के बटन दबाओ रओ के ऊंसई दबा दओ।’’ भेयाजी बोले।
‘‘जे सो ज्यादा हो रई भैयाजी! पैलऊं बात तो जे के वोट देत भए अपन ओरें फोटू ने तो खींच सकत आएं औ ने खिंचा सकत आएं। उते से बाहरे आ के वोटिंग सेंटर की तख्ती के आगूं ठाड़े हो के फोटू खींच-खिंचा सकत आएं। सो आपको पैलऔ आरोप सो जे कट्टस हो गओ। रई उते बटन दबाबे की, सो का जे सरकार ऊंसई-ऊंसई बन गई? सो, आप बेफालतू की गिचड़ ने करो। आपखों विकास यात्रा देखबे को मन नई कर रओ, सो ने देखों, मनो मोरो सो खूबई मन हो रओ।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘सो जाओ देख आओ, जिते निकर रई होय, उतई हो आओ।’’ भैयाजी कुढ़त भए बोले।
‘‘जो का भैयाजी? आज मनो आपको मूड ठीक नईं दिखा रओ। का हो गओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘कछू नई भओ!’’ जो एक बेरा में बता दें सो भैयाजी काय के?
‘‘कछू तो आए? अब बताई देओ!’’ मैंने फेर के पूछी।
‘‘अरे, जे तुमाई भौजी आएं न....।’’ भैयाजी कैत भए चुप हो गए।
‘‘का करो भौजी ने? आपको मूंड़ सांे नईं फोड़ दओ? नईं बाकी मूंड फोड़ो होतो, तो पट्टी बंधती दिखाती।’’ मैंने भेयाजी खों टुंची करी।
‘‘बे मोरो मूंड़ फोड़ देतीं सो कोनऊं बात ने रैती, मनो उन्ने हमें हमाए बापराम की गाली दई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे नईं हो सकत! बे ऐसो-वैसो कछूं नईं कै सकत। आपके लाने कछू गलतफैमी हो गई हुइए।’’ मैंने कही।
‘‘कछू गलतफैमी नईं भई! उन्ने सूदे-सूदे हमसे कई के तुम उल्लू के पट्टा आओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ईमें का हो गओ?’’ मोय कछू समझ में ने आई।
‘‘का कही? के ईमें का हो गओ? काय तुम पढ़ी-लिखी नोईं? काय तुमें पतो नईं के उल्लू के पट्टा को मतलब का होत आए?’’ भैयाजी सो बमक परे और कैन लगे-‘‘तुमें सो बस अपनी भौजी के संगे ठाड़ी रैने, चाय बे हमें गाली देबें चाय हमपे लट्ठ चलाएं।’’
‘‘नई, मोरो मतलब जा नई रओ! मनो उन्ने कओ नई चाउने रओ हुइए, पर कै आई हुइए। सो कै आई, सो कै आई। अब ईको आप दिल पे ने लो। काय से के ऊंसई जे वारी गारी को मौसम चल रओ। अपने इते के एक पुराने मंत्री आएं उन्ने कलेक्टर के लाने उल्लू को पट्ठा कै दओ। जबके बे मंत्रीजी सोई अच्छे-खासे पढ़े-लिखे आएं। सो, जे सब चलत रैत आए। हो सकत आए के भौजी ने जे बात कऊं सुन लई होय औ उन्ने आपके लाने कै आई होय।’’ मैंने भैयाजी खों सहूरी बांधबे को कोसिस करी।
‘‘जेई सो हमें समझ में नईं आत के जे ओरें बाप-मताई लों काय जान लगत? अब देखो तुमाई भौजी ने हमें उल्लू को पट्ठा कओ सो जे मतलब के उन्ने हमाए बापराम खों उल्लू कै दओ। मने अपने ससुर बाबा खों उल्लू बोल दओ। अरे कैने रओ सो हमें उल्लू बोल देतीं। हमाए बापराम खों कैबे की का जरूरत हती?’’ भैयाजी बिगरत भए बोले।
‘‘कै सो आप ठीक रए, मनो जे सो कहनात आए। अब आपई सोचो के जोन लुगाई खों अच्छो सासरो नईं मिलत ऊके लाने रोज ठेन करो जात आए के- काय तुमए मताई-बाप ने तुमें कछू नईं सिखाओ का? - अब आपई सोचो के कोन बाप-मताई अपनी मोड़ी खों सबई कछू नईं सिखात के ऊको सासरे में कोनऊं ठेन ने कर पाए। पर मोड़ी सो मोड़ी आएं, मनो कछू ने सीख पाई, मनो ऊसे कछू गलती होई गई, सो ऊके लाने ऊके बाप-मताई लो कोसो जात आए। मनो मोरो जे कैबे के मतलब नोंई के बापराम खों उल्लू कैबो ठीक आए। बिलकुल गलत आए। मनो, भौजी ने सोशल मीडिया पे हजार दइयां जेई बोल पढे हुंइए, सो बे सोई गुस्सा में बोल बैठीं।’’ मैंने भैयाजी खों समझबे की कोसिस करी।
‘‘ऐसे कैसे बोल बैठीं। हमने सो कभऊं उने उल्लू की पट्ठी ने बोली, फेर उन्ने हमें उल्लू को पट्ठा काय बोल दओ?’’ भैयाजी के मुंडी में मनो उल्लू घुस गओ रओ। बे कछू सुनबे के लाने तैयारई नईं हते। बे बड़बड़ात भए बोले-‘‘हऔ, हमने जब उनसे कई के तुम हमाए बापराम लों काय पोंच रईं? सो बे कैन लगीं के बे मंत्री हरें बोलें सो कछू नईं औ हमने कै दई सो टुनना रए। तुम ठीक कै रईं तुमाई भौजी ने बोई बात पढ़ लई हुइए। बाकी पढ़ लई सो पढ़ लई, मनो उने हमसे ऐसो नई कओ चाइए। बे का कोनऊं कहूं की मंत्री-मिनिस्टर आएं? मंत्री-मिनिस्टर सो कछू कहें, उनको सो नांव होने। बो का कहाउत आए के बदनाम भए सो का भओ, नांव सो भओ। मनें उनखें सो नांव मिल गओ मनो तुमाई भौजी को का मिलो हमाओ जी दुखा के?’’
‘‘चलो, आप अब जे सब मेईं खों मैंकों। बुरई बात याद नई रखो चाइए। उन्ने कछू सोच के नई बोली हुइए। जे कओ के ई टेम पे कोनऊं विधानसभा या संसद में मार-कुट्टव्वल नईं चल रई, ने तों आपखों दो-चार घलई गई होती।’’ मैंने हंस के कई।      
‘‘हऔ, सही कई। मनो मोय जे समझ में नई आत के जे नेता हरें कोनऊं के बाप-मताई लों काय जान लगत आएं? उन ओरन खों ऐसो नई कओ चाइए। मनो सोचो के उनके ऐसऊं बिगड़े बोल सुन के तुमाई भौजी के बोल बिगड़ गए, सो मोड़-मोड़ी की जुबान को का हुइए? उनपे का असर हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप एकदम सही कै रए भैयाजी! बड्डे हरों खों बड्डन घांईं रैबो चाइए। काय से के उनके बोल सो छिन भर के लाने बिगड़े मनो मीडिया ऊको रट्टा लगवा देत आए। बाकी जे सब छोड़ो औ मोय सो आप जे बताओ के अपने इते विकास यात्रा वारे अबलों काय नईं आए?’’मैंने भैयाजी से पूछी। मोरी बात सुन के बे सोई हंस परे। मनो उनको मूड ठीक हो गओ कहानो।

मोय पतो आए के भौजी सोई पछता रई हुइएं के उन्ने का बोल दओ। मनों आप ओरें सोई बाप-मताई लों ने जइयो, अच्छो नईं लगत। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, February 15, 2023

चर्चा प्लस | भारतीय संस्कृति और मानवमूल्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
भारतीय संस्कृति और मानवमूल्य
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       संस्कृति, राष्ट्र और समाज ये तीन ईकाइयां हैं, जो मानव संस्कृति को आकार देती हैं। सुसंस्कृति से सुराष्ट्र आकार लेता है और अपसंस्कृति से अपराष्ट्र। शब्द अनसुना सा लग सकता है-‘‘अपराष्ट्र’‘। किन्तु यदि राष्ट्रों की राजनीतिक स्तर पर अपराधों में लिप्तता राजनीतिक कुसंस्कारों को जन्म देती है और यही कुसंस्कार राष्ट्र में अतंकवाद की गतिविधियों को प्रश्रय देते हैं। विश्व में कई देश ऐसे हैं जो राजनीतिक दृष्टि से अपराष्ट्र की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। वहीं भारत की संस्कृति का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें अपसंस्कारों की कोई जगह नहीं है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है।
संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या जड़ तत्वों के लिए भी कोई सांस्कृतिक आह्वान होता है जबकि जड़ तो जड़ है, निचेष्ट, निर्जीव। फिर निर्जीव के लिए संसकृति का कैसा स्वरूप, कैसा रूप? ठीक इसी बिन्दु पर भारतीय संस्कृति की महत्ता स्वयंसिद्ध होने लगती है। भारतीय संस्कृति समस्त जड़ ओर समस्त चेतन जगत से तादात्म्य स्थापित करने का तीव्र आग्रह करती है। यही आग्रह आज हम पर्यावरण संतुलन के आग्रह के रूप में देखते हैं, सुनते हैं और उसके लिए चिन्तन-मनन करते हैं। जब पा्रणियों का शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है और ये पंचतत्व वही हैं जिनसे संसार के जड़ तत्वों की भी पृथक-पृथक रचना हुई है, तो जड़ और चेतन के पारस्परिक संबंध अलग कहां हैं? ये दोनों तो घनिष्ठता से परस्पर जुड़े हुए हैं।
विकास ने मानवजीवन में ‘‘मूल्य’’ शब्द के स्वरूप को अर्थतंत्र का अनुगामी बना दिया है। यूं तो ‘‘मूल्य’’ एक मानक है श्रेष्ठता के आकलन का। जिसके लिए अधिक श्रम, अधिक मुद्रा खर्च करनी पड़े, जिसके लिए मानव मन में अधिक ललक हो किन्तु उपलब्धता सीमित हो, वह मूल्यवान है। इसके विपरीत जो सुगमता से, कम मुद्राओं में मिल जाए, जिसकी उपलब्धता भी प्रचुर हो और जिसके प्रति मानव मन में अधिक ललक न हो वह सस्ता कहलाता है। यही परिभाषा बनाई है अर्थशास्त्रियों ने। किन्तु जब बात संसकृति की हो अर्थात् जीवनशैली की हो तो ‘‘मूल्य’’ शब्द का अर्थ असीमित और अपरिमित हो जाता है। संस्कृति बाज़ार की वस्तु नहीं है, उसे खरीदा या बेचा नहीं जा सकता है। संस्कृति तो आचरण है जिसे अपनाया अथवा छोड़ा जा सकता है। जो संस्कृति को अपनाता है वह संस्कारवान होता है और जो संस्कृति का त्याग कर देता है, त्याग से यहां आशय सांस्कृति मूल्यों के त्याग से है। तो, जो संस्कृति को त्याग देता है वह असंस्कारी हो जाता है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी - देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। समयानुसार परिवर्तनों के बाद भी भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में निरन्तरता रही है। भारतीय संस्कृति वह मार्ग सुझाती है कि वे सांस्कृतिक मूल्य कहां से सीख सकते हैं जो मनावजीवन को मूल्यवान बना दे -
परोपकाराय फलन्ति वृक्षः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदम् शरीरम्।
अर्थात् - वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गाय परोकार के लिए दूध देती हैं अतः अपने शरीर अर्थात् अपने जीवन को भी परोपकार में लगा देना चाहिए।

भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चैरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मंा है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।

एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। बुंदेलखण्ड में नर्मदा को मां का स्थान दिया गया है। नर्मदा स्नान करने नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उठती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
अरे, ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
जब नर्मदा माता है तो गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी? क्या उनसे कोई नाता नहीं रह जाता है? लोकमानस त्रिवेणी से भी अपने रिश्तों को व्याख्यायित करता है। बाम्बुलिया गीत का ही एक और अंश उदाहरणार्थ-
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया... हो...
वहीं भोजपुरी लोकगीतों में गंगा को मां, यमुना को बहन, चांद और सूरज को भाई कहा गया है और साथ ही स्त्री की झिझक को प्रकट करते हुए यह भी कहा गया है कि इनके द्वारा अपने परदेसी पति को संदेश कैसे भिजवाऊं, अब प्रियतम तक तुम्हीं संदेश पहुंचाओ मेरी सखी!
चननिया छिटकी मैं का करूं गुंइया
गंगा मोरी मइया, जमुना मोरी बहिनी,
चान सुरुज दूनो भइया,
पिया को संदेस भेजूं गुंइया।
प्रकृति का मानवीकरण भोजपुरी लोकगीतों में बड़े सुन्दर ढंग से मिलता है। जैसे उपनयन, विवाह आदि संस्कारों में तीर्थस्थल गया को और तीर्थराज प्रयाग को निमंत्रण भेजा जाता है-
गया जी के नेवतिले आजु त
नेवीतीं बेनीमाधव हो
नेवतिलें तीरथ परयाग,
तबहीं जग पूरन हो ...
अर्थात् जब गया और तीर्थराज प्रयाग जैसे पावन स्थलों को आमंत्रित किया जाएगा, तभी यज्ञ तभी पूरा होगा।
भारतीय संस्कृति में मानवमूल्य की महत्ता इतनी सघन है कि प्रकृति को भी रक्तसंबंधियों से अधिक घनिष्ठ माना जाता है। इसके उदाहरण लोकसंस्कारों में देखे जा सकते हैं जो आज भी ग्रामीण अंचलों में निभाए जाते हैं-

कुआ पूजन - 
विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। ठीक किसी हठी रिश्तेदार की तरह। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हैं तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।

सप्तपदी में जल विधान - 
विवाह में सप्तपदी के समय पर जो पूजन-विधान किया जाता है, उसमें भी जल से भरे मिट्टी के सात कलशों का पूजन किया जाता है। ये सातो कलश सात समुद्रों के प्रतीक होते हैं। इन कलशों के जल को एक-दूसरे में मिला कर दो परिवारों के मिलन को प्रकट किया जाता है।
पूजा-पाठ में जल का प्रयोग - पूजा-पाठ के समय दूर्वा से जल छिड़क कर अग्नि तथा अन्य देवताओं को प्रतीक रूप में जल अर्पित किया जाता है जिससे जल की उपलब्धता सदा बनी रहे।

मातृत्व साझा कराना - 
सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्री के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
वस्तुतः संस्कृति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के सतत् विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है। मानव मूल्य संस्कृति से ही उत्पन्न होते हैं और संस्कृति की रक्षा करते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर के शाश्वत मूल्यों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति में पाषाण जैसी जड़ वस्तु भी देवत्व प्राप्त कर सर्वशक्तिमान हो सकती है और नदियां एवं पर्वत माता, पिता, बहन, आदि पारिवारिक संबंधी बन जाते हैं। भारतीय संस्कृति मानव मूल्यों के संरक्षण का पर्याय है।
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#भारतीयसंस्कृति #मानवमूल्य

Tuesday, February 14, 2023

पुस्तक समीक्षा | खिमलासा के क्षेत्रीय इतिहास पर एक नायाब पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 14.02.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक श्री केशव रावत  की पुस्तक "बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
खिमलासा के क्षेत्रीय इतिहास पर एक नायाब पुस्तक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा
लेखक   - केशव रावत
प्रकाशक - (स्वयं द्वारा) 4-3, चांदोरकर कम्पाउंड खिमलासा, जिला सागर (मप्र) - 470118
           (मोबा.9617633611)
मूल्य   - 100/-
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खिमलासा राजस्व की दृष्टि से मध्यप्रदेश के सागर जिले की एक साधारण-सी तहसील है लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से यह तहसील असाधारण है। दुर्भाग्यवश क्षेत्रीय इतिहास लेखन के प्रति हमारी उदासीनता ने अतीत के अनेक ज्ञान को सामने आने ही नहीं दिया है। आज भी कई ऐसे भौगेालिक क्षेत्र हैं जिनके इतिहास से हम भली-भांति परिचित नहीं हैं। क्षेत्रीय इतिहास के सामने आने में प्रायः दो समस्याएं बाधा बनती हैं-पहली समस्या गहन शोध द्वारा इतिहास लेखन की रुचि की कमी और दूसरी समस्या यदि किसी शोधकर्ता द्वारा अथक श्रम कर के क्षेत्रीय इतिहास की पुस्तक लिख ली जाए तो पहले तो उसे उचित प्रकाशक नहीं मिलते हैं और जब वह येनकेन प्रकारेण अपनी पुस्तक प्रकाशित करा ले तो उसे पर्याप्त प्रचार और उपलब्धता नहीं मिलती है। कई बार पांडुलिपियां प्रकाशन की प्रतीक्षा में वर्षों रखी रह जाती हैं। यदि कोई उन्हें प्रकाशित कराने की रुचि लेता है तो वे बच जाती हैं अन्यथा धीरे-धीरे नष्ट हो जाती हैं। हमने ऐसे अनेक हस्तलिखित दस्तावेज़ खो दिए हैं। बुन्देलखंड में यह समस्या कुछ अधिक ही रही है। एक ऐसी ही कृति प्रकाशित होने की प्रतीक्षा में वर्षों तक रखी रही लेकिन फिर उसके दिन फिरे और एक संस्कृतिप्रेमी ने उसे प्रकाशित कराने का बीड़ा उठाया। यह पुस्तक थी दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा लिखी गई ‘‘बुंदेलखंड का इतिहास’’, जिसे व्यक्तिगत रुचि ले कर बुंदेली संस्कृति के संरक्षक डाॅ बहादुर सिंह परमार ने प्रकाशित कराया। पुस्तक का सम्पूर्ण कलेवर कुल बारह खंडो में प्रकाशित हुआ है।
बुंदेलखंड के भीतर अनेक रियासतें रही हैं जिनका अपना-अपना गौरवशाली इतिहास है। इन रियासतों का ऐतिहासिक वैभव अतीत के राजनीतिक उतार-चढ़ाव के कारण दबा दिया गया अथवा तोड़-मरोड़ कर लिखा गया। लेकिन कई बार क्षेत्रीय प्रेम के वशीभूत अन्य विषयों के स्नातक अथवा स्नातकोत्तर ज्ञानी भी इतिहास लेखन का गंभीरकार्य पूरे दायित्व के साथ करते हैं। इसी श्रेणी की एक पुस्तक है ‘‘बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा’’। इसमें खिमलासा के इतिहास, स्थपत्य एवं संस्कृति को लेखबद्ध किया गया है। इसके लेखक हैं केशव रावत तथा इस पुस्तक का संपादन किया है राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शशिनंदन रावत ने। एक मानक पत्रिका के आकार की कुल 64 पृष्ठों की यह पुस्तक संक्षेप में खिमलासा का समग्र इतिहास समेटे हुए है। हिन्दी साहित्य के प्राध्यापक केशव रावत को खिमलासा का इतिहास लिखने की प्रेरणा कहां से मिली यह एक दिलचस्प प्रकरण है। इस संबंध में उन्होंने अपने प्राक्कथन में जानकारी देते हुए यह भी बताया है कि खिमलासा का बुंदेलखंड की उपकाशी होना इस पुस्तक के लेखन के मूल में है। लेखक ने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि -‘‘मां का आंचल ही नहीं छूट पाया था कि मैं अपनी मौसी की गोद में ललितपुर चला गया था। बालपन से किशोरावस्था पार करने तक मैंने कई बार अपनी मौसी से यह कहते सुना था कि खिमलासा किसी युग में काशी बनारस का ही एक हिस्सा था। 26 जून 1968 के नवभारत टाइम्स में नई दिल्ली से प्रकाशित एक लेख उपकाशी खिमलासा पढ़ा, जिससे मौसी की बात की पुष्टि हुई। किंतु बात फिर प्रश्नवाचक हो गई कि आखिर कौन-सा युग था वह जब खिमलासा काशी बनारस का अंग रहा होगा?’’
आगे लेखक ने लिखा है कि -‘‘30 वर्षों से अनेकों प्रश्न कई बार मेरे भी मन में उपजे। कुछ के तो समाधान ढूंढ निकाले किंतु अधिकांश के उत्तर एक दीर्घकाल अवधि तक अंतध्र्यान रहे। कई सूत्र ढूंढे, अनेक चर्चाएं की, इतिहास विधि, पंडितों आचार्यों से तर्क-वितर्क में कई बार हताश भी हुआ। इसी बीच मुझे एक दिन अचानक पंचांग की व पांडुलिपि हाथ लगी जिसे अचलो बाई स्वयं अपने हाथों से लिख कर तैयार करती थी। मौसी की बात सब सच सिद्ध हो गई। साक्षात होकर परंतु जिज्ञासा की आग में घी पड़ गया। अब खिमलासा की स्थापना और अस्तित्व पर फिर प्रश्नचिन्ह हो गया।’’
इस प्रकार साहित्य एवं शिक्षा का एक स्नातकोत्तर विद्वान स्वरुचि से इतिहास लेखन में प्रविष्ट हो गया। जब कोई व्यक्ति रुचि ले कर कोई काम करता है तो उसका परिणाम भी सटीक और सार्थक निकलता है। पं. केशव रावत ने इस बात के तथ्य ढूंढ निकाले कि खिमलासा को उपकाशी क्यों कहा जाता रहा है? विक्रम संवत 1878 में अचलो बाई द्वारा तैयार किए गए हस्तलिखित पंचाग के छायाचित्रों सहित लेखक ने इस बात को स्पष्ट किया है कि खिमलासा को उपकाशी का दर्ज़ा कैसे प्राप्त हुआ था। इस तथ्य को जानने के लिए इस पुस्तक को पढ़ना उत्तम रहेगा। किन्तु अचलो बाई कौन थी? इस बारे में लेखक ने जो जानकारी दी है उसका उल्लेख करना यहां समीचीन होगा। लेखक ने लिखा है कि डाॅ. हीरालाल रायबहादुर ने अपनी पुस्तक ‘‘सागर सरोज’’ में जिले के जिन चैदह रत्नों की चर्चा की है उनमें से एक रत्न का जन्म खिमलासा में हुआ था और वह थी विदुषी अचलो बाई। खिमलासा उस समय वेद-वेदांग के अध्ययन का केन्द्र था जिसके कारण काशी के विद्वानों से खिमलासा का सीधा संपर्क था।
पुस्तक की प्रस्तावना में प्रसिद्ध पुराविद एवं इतिहासकार स्व. कृष्णदत्त वाजपेयी ने खिमलासा के प्राचीन नाम की जानकारी दी है। उनके अनुसार खिमलासा का प्रचीन नाम ‘‘क्षैम्मोल्लासा’’ था। मुगलकाल में यहां दुर्ग तथा अन्य इमारतों का निर्माण हुआ और इसका नाम खिमलासा पड़ गया। प्रो. वाजपेयी तथा पं. केशव रावत के प्रमाण सत्य पर आधारित हैं क्योंकि बुंदेलखंड की प्रचीनता निर्विवाद है। इस भू-भाग पर प्रागैतिहासिक मानवों ने निवास किया जिसके प्रमाण सागर जिले में ही आबचंद की गुफाओं के भित्तिचित्र में मिलते हैं। सागर के एरण नामक स्थान से मौर्यकालीन सिक्के तथा गुप्तकालीन प्रतिमाएं मिली हैं। वैसे खजुराहो को बनाने या बसाने वाले चंदेलवंश के बारे में जो कथा है वह भी बुंदेलखंड को काशी से जोड़ती है। यह कथा उस रात से आरम्भ होती है जब वाराणसी के गहरवार राजा इंद्रजीत के राजपुरोहित की अतिसुन्दर कन्या हेमराज अर्थात हेमवती अपनी सखियों के साथ सरोवर में जल-क्रीड़ा कर रही थी। चन्द्रमा ने हेमवती को देखा तो वह उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। उसने हेमवती के सम्मुख विवाह प्रस्ताव रखा और उसी रात हेमवती ने चन्द्रमा के साथ गंधर्व विवाह कर लिया। चन्द्रमा ने हेमवती से कहा था कि वह कालिंजर के पास आसु नामक जगह में पहुंच कर अपनी संतान को जन्म दे। हेमवती ने केन नदी के तट पर स्थित आसु ग्राम में आ कर एक पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम रखा चन्द्रवर्मा। उसी चन्द्रवर्मा ने चंदेलवंश की स्थापना की। महाभारत महाकाव्य में बुंदेलखंड का उल्लेख उसके प्रचीन नाम दशार्ण के रूप में मिलता है। मैंने अपना उपन्यास ‘‘शिखण्डी’’ लिखते समय महाभारत का अध्ययन कर के पाया कि शिखंडी का विवाह जिस कन्या के साथ कराया गया था, वह दशार्णनरेश हिरण्यवर्मा की पुत्री हिरण्यमयी थी। बुंदेलखंड के इसी प्राचीनतम भू-भाग में बसे हुए खिमलासा की प्राचीनता पर भी कोई संदेह नहीं किया जा सकता है।
‘‘बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा’’ की पूर्ण सामग्री चार परिशिष्ट और 49 शीर्षकों में विभक्त है। लेखक ने प्रत्येक तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया है। जहां आवश्यक हुआ, वहां दस्तावेज़ और इमारतों के छायाचित्र भी समाहित किए गए हैं। इससे इस पुस्तक की प्रमाणिकता एवं मूल्यवत्ता बढ़ गई है। लेखक ने खिमलासा का इतिहास प्रागैतिहासिक युग से आरंभ किया है। इसके बाद पौराणिक काल के साथ ही गुप्त, मुगल, चंदेल, गोंड आदि साम्राज्यों की जानकारी देते हुए बुंदेला शासक महाराज छत्रसाल के समय का विवरण है। फिर पेशवाओं का आगमन और इसके बाद अंग्रेजी शासन के समय की स्थिति का वर्णन है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अंत में स्वतंत्रता संग्राम में खिमलासा के योगदान का भी जिक्र किया गया है।
परिशिष्ट दो में स्थापत्य की जानकारी दी गई है। खिमलासा में वास्तु कला एवं स्थापत्य कला के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। जिनमें प्रमुख हैं- किला, नगीना महल, पंचपीर की दरगाह, इबादत खाना, ईदगाह, डोयला जलाशय, बारादरी और गौरी मठ आदि।
परिशिष्ट 3 में संस्कृति की जानकारी दी गई है। समूचे बुंदेलखंड की भांति खिमलासा में भी सदा सांप्रदायिक सद्भाव रहा। यहां हिंदू संस्कृति फूली-फली। किंतु अन्य धर्म एवं संप्रदाय भी विकसित हुए। वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, मुस्लिम आदि मिलजुल का निवास करते रहे।
परिशिष्ट 4 में भौगोलिक विवरण दिया गया है इसमें जलवायु तथा उद्योग-धंधों की भी जानकारी दी गई है। संदर्भ सूची के उपरांत हालैंड की पर्यटक रियाना का पत्र रखा गया है जिसमें पत्र-लेखिका ने नगीना महल का सुंदर रेखा चित्र बनाया है।
ऐतिहासिक वैभव एवं पर्यटन की दृष्टि से पुस्तक में दी गई विशेष स्थलों की जानकारी महत्वपूर्ण है। यह पुस्तक खिमलासा के प्रति जिज्ञासा जगाने वाली, रुचि पैदा करने वाली तथा प्राचीन वैभव से परिचित कराने वाली एक महत्पूर्ण इतिहास पुस्तक है। इसे खिमलासा की गाईड-बुक के रूप में भी काम में लाया जा सकता है। पुस्तक में जिस प्रकार तथ्यों के साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं, उनसे पता चलता है कि लेखक ने कितनी मेहनत और लगन से अपने क्षेत्रीय इतिहास को लेखबद्ध किया है। इस पुस्तक को लिख कर लेखक केशव रावत ने इतिहास के खोए हुए पन्नों को फिर ढूंढ निकाला है तथा उपकाशी के रूप में उसकी प्राचीन महत्ता को पुनः स्थापित किया है। प्रत्येक तथ्य रोचक शैली में प्रस्तुत किए गए हैं। यह पुस्तक पठनीय है, संग्रहणीय है तथा चर्चा में बने रहने योग्य है, ताकि इस पुस्तक से लोग खिमलासा के महत्व से परिचित हो सकें। इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक पं. केशव रावत ने खिमलासा का इतिहास लिख कर बुंदेलखंड की एक और ऐतिहासिक महत्ता को रेखांकित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है जिसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।                 
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Monday, February 13, 2023

म.प्र. तुलसी साहित्य अकादमी सागर इकाई | बैठक एवं काव्य गोष्ठी | अध्यक्षता डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा

"काव्य जीवन को सरसता प्रदान करता है किन्तु साहित्य की विभिन्न विधाओं पर विचार-विमर्श भी आवश्यक है।" अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में मैंने यानी डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने कहा। 
    अवसर था कल शाम (12.02.2023) म.प्र. तुलसी साहित्य अकादमी की जिला इकाई सागर द्वारा होटल सिद्धी विनायक, सिविल लाइंस, के सभागार में बैठक एवं  काव्य गोष्ठी के आयोजन का। श्यामलम संस्था के अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्र जो तुलसी साहित्य अकादमी के संरक्षक हैं, ने अकादमी की भावी कार्य योजना पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे। मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ लोकगीत गायक श्री हरगोविंद विश्व। तुलसी साहित्य अकादमी, सागर इकाई के  अध्यक्ष श्री अरुण कुमार दुबे, संरक्षक मण्डल एवं कार्यकारिणी सभी सदस्यों ने काव्य पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ नलिन जैन ने किया।
छाया चित्र साभार सौजन्य श्री मुकेश तिवारी जी का 🙏

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अनुवाद भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | मुख्य अतिथि | पुस्तक लोकार्पण

"अनुवाद भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है। यह भाषाओं को विस्तार देता है तथा भौगोलिक सीमाओं के परे अपने विचारों, भावनाओं और सांस्कृतिक मूल्य सहित परस्पर दूसरे देशों में पहुंचाता है। डॉ. औदिच्य ने विश्व की विभिन्न भाषाओं के कालजयी सोनेट्स को अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करके हिंदी की साहित्यिक संपदा  को समृद्ध किया है। उनकी एक पुस्तक अनूदित सोनेट्स की है तो दूसरी पुस्तक उनके मौलिक सोनेट्स की है। इस तरह डॉ औदिच्य की दोनों पुस्तकें सोनेट्स का वृहद संसार हमारे सामने रखती हैं और यही इन पुस्तकों की अर्थवत्ता है।" मुख्य अतिथि के रूप में मैंने यानी डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने कहा।
       श्यामलम संस्था एवं वनमाली सृजन पीठ सागर मध्य प्रदेश के संयुक्त तत्वावधान में सागर के सॉनेटियर डॉ. विनीत मोहन औदिच्य के साॅनेट संग्रह "सिक्त स्वरों के साॅनेट" तथा अनूदित साॅनेट संग्रह "काव्य कादम्बिनी" के विमोचन का, विगत शनिवार  को । अध्यक्षता की डॉ.श्याम मनोहर सीरो़ठिया ने तथा विशिष्ट अतिथि थे डॉ आशुतोष मिश्र एवं डॉ अभिषेक ऋषि। 
छाया चित्र साभार सौजन्य श्री मुकेश तिवारी जी का 🙏

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Sunday, February 12, 2023

Article | Come Check This! How Aware We About The Environment? | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


Article
Come Check This! How Aware We About The Environment?
         -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

What we need from nature for our life is simply, a balanced environment and healthy climate. This can be achieved only when we are aware of environment and climate. Air, water, animals, birds, sound etc. are all necessary for the ecosystem. The environment is formed only by meeting the matter and conscious elements. Today, when the danger of global warming is increasing and many types of natural disasters are happening in front of us, then in such a time we have to test ourselves that how much we are aware of the environment. So come check this by few points, how aware we are about the environment?


As we all know environment is an important part of our life. We use environmental resources in our daily life. All human activities have an impact on the environment. In the present era, the biggest problem of environmental imbalance is global warming and due to which the temperature of the earth is increasing and the steps of human life are moving towards destruction. In such a time, if we do not take any big step to save the environment, then the day is not far when our existence will be in danger. In fact the environment is in danger! The speed at which development has taken place in the world in the past years, the pace of damage to the environment has also increased equally fast. But we have discovered many ways to maintain balance with nature and are continuously doing so. Ways in which our comforts and facilities may increase, but we can reduce pollution by establishing balance with nature. However, there is still a lack of awareness about the environment in the world. So let's come check this how aware are we about the environment?
No big talk, we start the investigation from our home. How good are we at household waste management? Do we keep wet and dry waste separately? Don't we throw garbage anywhere other than the garbage vehicle? These are some of the questions by answering which we can find out the awareness of our domestic environment.  It is often seen that household waste, including iron cans, paper, plastic, pieces of glass, inorganic substances or leftover food, animal bones, vegetable peels, etc. are thrown in such open places. Areas where people keep their milch cattle, poultry and other animals. There the faces of these animals also pollute the atmosphere. The environment is polluted due to improper disposal of garbage. Apart from spreading foul smell, germs also grow in it which are the causes of various diseases. Mosquitoes, flies and rats also thrive in such places. Therefore, the waste lying in the house, outside the house or in the settlements can cause serious consequences for the health of the community. So, if a person has thrown garbage on the road, what is our reaction after seeing it? Do we pick up that garbage and throw it in the nearby dustbin or just keep cursing that person? If we get it cleaned by picking it up or asking a sweeper, then assume that we are aware of environmental protection.
Second point that what percentage of chemicals do we use for cleaning our house? We should know that if harsh chemicals are used for domestic cleaning, then it has a bad effect on health. Harsh chemicals also disturb the balance of oxygen in the house due to which there is a fear of respiratory diseases. These days, natural and organic disinfectant floor cleaners prepared from herbal formulas are easily available. Do we buy disinfectant floor cleaner after reading its description or do we buy by style of 'anything will use'? If we use soft and eco-friendly cleaning solutions, it means that we are aware of the environment. Do we educate our children about household waste management and cleanliness? If yes, then we can call ourselves conscious parents.
Polythene causes pollution. Polythene bags below the standard are not suitable for storing food items. Apart from this, they fly from the dustbin and go into the drains, due to which the drains start getting jammed. Pollution increases rapidly due to blockage of drains. Therefore, instead of using polythene, it is better to use bags made of waste paper and bags made of cloth as much as possible. If we have minimized the use of polythene bags, then without hesitation we can call ourselves environment friendly.
One of the major reasons for global warming is the wild cutting of trees. With the shrinking of forests and the expansion of cities, the imbalance in the environment is increasing and the amount of toxic gases in the air is increasing. We all know that trees absorb carbon dioxide and release oxygen. Less trees means less oxygen. Knowing this basic thing, do we oppose the felling of trees? Do we plant trees on special occasions in our life? It is not necessary to plant trees in your house. If there is no space in the house, then we can plant trees by going to the city forest or any plantation field. Our aim should be to return to the earth those trees which we have cut down selfishly.
Some more points are necessary to be checked, such as whether we give food and water to birds in every season or not? Birds are an important link in the ecosystem. By protecting them, we protect the environment. We have taken away their shelter and food by cutting down trees. So if we give food and water to the birds, we protect the environment.
Water is the most important element of the environment. Due to our carelessness we are facing water crisis. That's why it is very important to conserve water. If we do not waste water, we can call ourselves eco-conscious.
Pollution is the most fatal for the balance of the environment. Be it air pollution or noise pollution. Up to 60 decibels is normal for the ears. More than this sound can prove to be dangerous for the health of the ear. Sound intensity greater than 130 decibels is considered fatal to the human ear. If we honk our car unnecessarily, we spread noise pollution. Nowadays loud sound systems are used in weddings and ceremonies. These also cause noise pollution. Making unnecessary loud noises is harmful to the environment.
So, after this checking we can understand how much environment friendly we are and how much we need to improve our habits to save the environment. Think about it and live with healthy environment.
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(12.02.2023)
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Thursday, February 9, 2023

बतकाव बिन्ना की | मनो कोदो-कुटकी के दिन फिर गए कहाने | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"मनो कोदो-कुटकी के दिन फिर गए कहाने "  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की

मनो कोदो-कुटकी के दिन फिर गए कहाने                                                     
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘आप कां गए हते? संकारे से दिखाने नईं!’’ मैंने भैयाजी पूछीं
‘‘अरे, मुन्ना दाऊ के इते लों गए रए। काय से के उनकी मोड़ी को ब्याओ होने।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘कबै? कबैै होने ब्याओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘अगली मईना। दो-चार दिनां में सबरे कार्ड बंट जेहैं। तुमाओ कार्ड बी कओ कल दुफारी लो आ जेहै।’ भैयाजी ने बताई।
‘‘आए सो भलो औ ने आए सो भलो!’’ मैंने कई।
‘‘काए? ऐसो काय कै रईं?’’ भैयाजी ने पूछी। उने अचरज भओ।
‘‘देखो ने भैयाजी! एक ब्याओ उत्तर में होत आए सो दूसरो दक्खिन में। मने, एक शहर के ई छोर पे तो दूसरो ऊ छोर पे। अब कां लो भगत फिरैं?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, तुम कै सो सांची रईं। कई बेरा सो हमें सोई समझ में नईं आत के इते जाओं जाए के उते जाओं जाए। जे ससुरी बड़ी सल्ल बिंधी रैत आए। मनो जोन के इते ने जाओ, बोई धनी सोचन लगत है के ब्योहार देबे के डर से ने आए।’’ भैयाजी अपनो दुखड़ा रोन लगे।
‘‘मोय सो सब जांगा जाबे में कठिन परत आए सो मैं कोनऊं चिनारी वारे के हाथ ब्योहार भेज के काम चला लेत हों। अब का करो जाए। ऊंसई जाओ सो उते खाबे-पीबे में मोरी दिलचस्पी रैत नइयां, सो नेग करी औ चले आए।’’ मैंने भैया से कई।
‘‘हऔ! मनो मुन्ना दाऊ के इते जरूर चलियो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काए? उनके इते का खास होने?’’ मैंने पूछी।
‘‘खास कओ सो जे के हम अबई उनके इते को मीनू बनवा के आ रए।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘आजकाल सो छै मईना पैले मीनू तै हो जात आए। काए से के छै मइना पैले शादीघर बुक कराने परत आए और बोई टेम पे केटरिंग वारों को सोई सेट कर लेने परत आए। सो इनको मीनू इत्तो लेट काए हो गओ? बे आपके लाने परखे हते का?’’ मैंने तनक चुटकी सी लई भैयाजी की।
‘‘जेई समझ लेओ। बाकी असल बात सुनो! भओ का के उन्ने हमें बुलाओ रओ कछू काम के लाने। बातई बात चली सो हमने उनसे खात-पियत के मीनू के बारे में पूछ लओ। बे बोले के ऊ सब सो तय हो चुको। हमने कई के दाऊ एक बेरा मोय मीनू चेक कर लेन देओ। हमने देखी के बोई पुरानो घिसो-पिटो मीनू हतो। सो हमने दाऊ से कही के आपके इते रिसेप्शन में बड़े बड़े नेता-मंत्री आहें। सो उने का जे खिलाहो? सो बे चैंके! उन्ने पूछी के ईमें का खराबी आए? हमने उने समझाई के जो आपको अपनो इम्प्रेशन डारने होय सो ई मीनू में मोटे अनाज को व्यंजन राखो, तब कछू खास लगहे। बे पूछन लगे के मोटे अनाज को व्यंजन को बनाहे? हमने कई के बा सब हम पे छोड़ो। हम गांव से लुगाइयन खो बुला लेहें। बे ओरें सब सम्हाल लेहैं। आप फिकर ने करो। उनें हमाई बात जम गई। बे खुदई कैन लगे के हऔ आजकाल मोटे अनाज के दिन फिर गए कहाने। अबई सो मोटे अनाज के व्यंजन खों मेला लगने वारो आए। सरकार ने सो मनो कै दई आए के गेंहूं की पिसी भौत खा लई अब तनक कोदो-कुटकी खान लगो। सो, ई तरहा दाऊ ने हमसे कई के हम उनके मीनू खों बदल के मोटे अनाज वारो कर देवें। सो बोई कर के हम आ रए। सच्ची बड़ो मजो आहे।’’ भैयाजी खुस होत भए बोले।
‘‘हऔ, भैयाजी! मजो सो आहे। मनो जे सोचो के अपन ओरें कित्ते सयाने ठैरे। जब लों सरकार ने बताए के हमें का खाने चाइए तब लों हम कछु ढंग को खाबो जानतई नइयां। सरकार ने जब कई रई के सोयाबीन खाओ चाइए। सो ऊ टेम पे सोयाबीन के अलावा कछु सूझत नई रओ। सोयाबीन को आटो, सोयाबीन की बड़ियां, सोयाबीन को पनीर, सोयाबीन को तेल, सोयाबीन को दूध, मनो सबई कछू सोयाबीन वारो हो गओ रओ। बाद में पता परी के सब जने के लाने सोयाबीन ठीक नई रैत। जैसे जोन खों थायराइड होय उनके लाने सोयाबीन नुकसान करत आए। डाक्टर सोई मना करत आएं। मनो कोदो-कुटकी सो अच्छो अनाज कहाओ। ज्वार, बाजरा सबई कछू सो अपन ओरन के इते हमेसई बनत रओ। पर हमने उने धीरे-धीरे बिसरा दओ। ज्वार मने जुंडी की गांकड़ें कित्ती नोनी लगत आएं।’’ मैंने भैया जी से कई।
‘‘हमने जोई तो करो आए के दाऊ के मीनू में जुंडी और बाजरे के गांकड़े, भंटें को भरता, गुलगुला, डुबरी, लपटा, चीला, फरा, बिजौरी, लुचई, गकरिआ, पपड़िया सोई जुड़वा दओ। औ हमने उनसे कई के जे सब कछू मोटे अनाज से बनाबे की कइयो। जब सबरे खाहें सो, उनको दिल गार्डन-गार्डन हो जेहै। औ आपकी सबई जयकारे करहैं। जे सुन के दाऊ खूबई ग्लेड भए!’’ भैयाजी अपनी छाती फुलात भए बोले।
‘‘आपने बिलकुल ठीक करो भैयाजी! जेई तरहा तो हम अपने पांरपरिक व्यंजनन को फेर के अपना पाहें। आपने भौतई नोनो काम करो!’’ मैंने भैयाजी की तारीफ करी।
‘‘बा तो मोटे अनाज वारी बात हमें याद आ गई सो हमने सोची के एक तीर से दो चिरैयां गिराई जाएं।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘का मतलब?’’
‘‘मतलब जे के ई तरहा से अपनो पारंपरिक व्यंजन दाऊ के मीनू में लगा दओ औ संगे दाऊ को राजनीति को नओ पाठ पढ़ा दओ। ऊंसई बे समझदार ठैरे, सो झट्टई समझ गए के जोन के लाने मेला-ठेला लगाओ जाने है, ऊनखों अपने मीनू में धरे से ऊपर वारे प्रसन्न हो जेहें। सरकार के संगे चलबे को अपनो अलग फायदा होत है। जेई सोच के उन्ने हमाई सलाह तुरतईं मान लई। सो दाऊ के आंगू हमाओ बी सिक्का जम गओ। कल को मान लोके उने कोनऊं टिकट-मिकट मिल गई सो बे अपने आदमी कहाहैं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बड़ी दूर की सोची भैयाजी आपने! मनो उने टिकट मिले चाए ने मिले पर कोटो-कुटकी के दिन तो फिर गए कहाने। कल तक लों उने कोनऊं पूछत नईं रओ मनो अब सब अकड़ के कैहें के हम ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी खात आएं। धन्य आएं अपन ओरें। बिचारी सरकार बी का-का सिखाए? कभऊं शौच के बाद हाथ धोबो सिखात आए सो कभऊं जे सिखात आए के अपन ओरने खों का खाने चाइए। सच्ची! भौत करत आए सरकार। पर देखियो के अब जेई मोटो अनाज कंपनी वारे अच्छी-नोनी पैकिंग में देहें औ अपन ओरें ऊकंे चैगुने दाम देके ऊको खरीदहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।’’
‘‘हऔ, सो ओट्स का आए? ओट्स मने जई कओ चाए जौ। पैले अपने इते जौ जानवरों को ख्वात रए, मनो अब ओट्स के नांव पे ऊकी दलिया और फ्लेक्स को जम के नास्ता करो जात आए। औ खूबई मैंगो मिलत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई सो मैं कै रई के अब कोदो-कुटकी के सोई भाव बढ़ जेहें। उनके बी दिन फिर गए कहाने। बाकी मोय सो अच्छो लग रओ, ईसे। सो अब मैं जा रई। मनो रिसेप्शन में मोय संगे ले चलियो।’’ मैंने भैयाजी से कई। भैयाजी ने हऔ कैत भए अपनी मुंडी हिला दई।
सो, मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब तो मोय गहूं नई लेने बल्कि ज्वार-बाजरा की पिसी लबीे औ गांकड़ें जींमबी। औ चाउंर के बदले कोदो मंगा के राखबी। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम
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