Wednesday, August 31, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-3 | भारतीय इतिहास में दर्ज़ कुछ महत्वपूर्ण दलबदल | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस 
राजनीतिक दलबदल: अध्याय-3
भारतीय इतिहास में दर्ज़ कुछ महत्वपूर्ण दलबदल
  -  डॉ (सुश्री) शरद सिंह
                                       

दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की, अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला और अब अध्याय-3 में इतिहास के पन्ने पलट कर देखते हैं दलबदल की उन महत्वपूर्ण घटनाओं को, जिन्होंने भारतीय राजनीति को बहुत गहरे प्रभावित किया। आज दलबदल के जो मायने हो गए हैं क्या पहले भी वही थे? इसका पता स्वतः चल जाएगा जब हम इन घटनाओं पर दृष्टिपात करेंगे।     

(डिस्क्लेमेर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनैतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता और खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)

हम अर्थात् हम भारत के नागरिक, लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था का पालन करने वाले, लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था का पालन करते हुए जिस उम्मीदवार के पक्ष में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं, उसे विजयी बनाते हैं और फिर जब वह हमारे इच्छित राजनीतिक दल को त्याग कर अपने इच्छित राजनीतिक दल में चला जाता है तो इसे क्या मात्र एक सामान्य दलबदल मान लिया जाना पर्याप्त होगा? क्या वह दलबदल करते समय विजयी उम्मीदवार अपने मतदाताओं से इस संबंध में विचार-विमर्श करता है? अथवा अपना निर्णय कुछ तर्कों के साथ उन्हें थमा देता है और मतदाता अवाक खड़ा रह जाता है। भारतीय राजनीति के स्वतंत्रता बाद के लम्बे सफर में ऐसे कई अवसर आए हैं जब लोकतंत्र को दलबदल का पाठ पढ़ाया गया है। दलबदल में अनैतिकता का प्रश्न उठने पर इसे ‘‘अवसरवादिता की राजनीति’’ भी कहा गया है। इसे नैतिक ठहराने के लिए ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ का सहारा लिया जाता है।

स्वतंत्र भारत में सन् 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में पहले आम चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो सका था। अन्य पार्टियों की कुल सीटें 223 के मुकाबले कांग्रेस को 152 सीटें मिली थीं। तब दक्षिण भारत के दिग्गज नेता टी. प्रकाशम के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया। लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि तत्कालीन राज्यपाल ने सेवानिवृत्त गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। जबकि सी. राजगोपालाचारी विधान सभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद दलबदल का दौर चला और 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस के पक्ष में आ गए। परिणामस्वरूप राजाजी मुख्यमंत्री बन पाए। दलबदल की राजनीतिक प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए राजाजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘दल के सदस्यों का सामूहिक दलबदल लोकतंत्र का सार है। सामूहिक रूप से दलबदल का आधार कई बार निजी स्वार्थों की अपेक्षा दलों और उनके नेताओं का अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है। अगर हम विधायकों की या अन्य सदस्यों की अपना दल बदलने की स्वतंत्रता छीन लें, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति-प्रथा का रूप धारण नहीं करने देना चाहिए, बल्कि इसके लचीलेपन को कायम रखना चाहिए, अन्यथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा।’’

लगभग साल भर बाद इसी राजनीतिक मंच पर यही नाटक पुनः प्रस्तुत किया गया। टी. प्रकाशम को कांग्रेस की ओर से आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन दिया गया। प्रकाशम ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और मुख्यमंत्री के पद के समक्ष अपने दल को त्यागने की अपनी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ को सुना।
उस समय यह प्रश्न उठा था कि क्या ऐसे विधायक को अयोग्य ठहराया जा सकता है जिसने दलबदल लिया हो? तब केंद्रीय विधि मंत्रालय ने दलबदल के समर्थन में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘दल-बदल के कारण यदि किसी विधायक को अयोग्य ठहराया जाएगा या उसका त्यागपत्र अनिवार्य किया जाएगा तो यह संविधान में मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 19 में दिए गए संघ निर्माण और विचार की स्वतंत्रता के विरुद्ध होगा। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 का भी हवाला दिया गया। जिनके तहत विधायकों और सांसदों को विधान सभा और संसद में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी इच्छानुसार मतदान करने की स्वतंत्रता भी शामिल हैं।’’

मद्रास में धमाकेदार शुरुआत के बाद दलबदल मानो चलन में आ गया। छोटे-मोटे दलबदल की बात छोड़ कर उस दलबदल को याद किया जाए जब चौथे आम चुनाव में कांग्रेस के कमजोर पड़ने से जांच-पड़ताल की नौबत आई। संसदीय सचिवालय से संबद्ध संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने इस पड़ताल में दलबदल पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। वे यह देख कर अचम्भित रह गए कि सन् 1967 और सन् 1969 (फरवरी) के राज्य विधानसभा चुनावों के बीच भारत के राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के करीब 3500 सदस्यों में से 550 सदस्यों ने अपना दल बदला था। इस तरह मात्र एक वर्ष में 438 विधायकों ने दलबदल किया था। स्वयं कांग्रेस के 175 विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए थे। जिसकी चोट कांग्रेस को सहना पड़ी थी। इसके परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य सामने आया कि आमतौर पर यह कदम मंत्रीपद पाने के लालच में उठाया गया था। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ने लोकसभा में जानकारी दी थी कि दलबदलुओं का भाव हरियाणा में (तत्कालीन मुद्रा मूल्य में) 20 हजार रुपये से लेकर 40 हजार रुपये तक आंका रहा था। प्रेस का मानना था कि यह राशि इससे कहीं अधिक एक और दो लाख तक जा पहुंची थी।
हरियाणा ने तो दलबदल में हमेशा ही नायाब उदाहरण प्रस्तुत किए है। हरियाणा में एक ऐसे विघायक हुए जिनका नाम गिनीजबुक नहीं तो कम से कम लिम्काबुक में तो रहना ही चाहिए। (शायद हो भी, मुझे इसकी जानकारी नहीं है।) वे निर्दलीय विधायक थे। उनका नाम था गया लाल। चुनाव जीतने के बाद पहले तो वे कांग्रेस में शामिल हुए फिर पंद्रह दिनों में ही उन्होंने तीन बार दल-बदल किया। कांग्रेस छोड़कर पहले वे ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ में गए। फिर कुछ दिनों में वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में आने के बाद नौ घंटे एक बार फिर बार विशाल हरियाणा पार्टी में चले गए। इस पर विशाल हरियाणा पार्टी के नेता राव वीरेन्द्र सिंह ने एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस में कहा था कि - ‘गया राम’ अब ‘आया राम’ हो गए हैं’। ‘आया राम गया राम’ वाला मुहावरा चरितार्थ करने में विधायक गया राम ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ कुछ अधिक तेज गति से उन्हें दलबदल कराती रही। यद्यपि बंसीलाल ने विशाल हरियाणा पार्टी के विधायकों का दलबदल कराकर हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बनावा दी थी।

जून 1979 में दलबदल को ले कर हरियाणा एक बार फिर सुर्खियों में आया। जनता पार्टी के नेता भजनलाल बहुमत हासिल कर हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। फिर जनवरी 1980 में केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई। भजनलाल के समक्ष कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव रखा गया।  भजनलाल तो मानो प्रतीक्षा ही कर रहे थे। वे अपनी समूची सरकार सहित कांग्रेस में शामिल गए। इस तरह एक झटके में जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस की सरकार में परिवर्तित हो गई, जबकि भजनलाल यथावत मुख्यमंत्री बने रहे। इसी तारतम्य में विधायकों को अज्ञातवास में रखने का चलन भी शुरू हुआ। सन् 1982 में विधायक बृजमोहन के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। कहा जाता है कि बृज मोहन को कांग्रेस में शामिल करने के लिए प्रलोभन से लेकर धमकी तक दी गई। तब चैधरी देवीलाल ने उन्हें नई दिल्ली के एक होटल के कमरे में बंदी बना लिया। बृज मोहन भी कम नहीं थे, वे ड्रेनेज-पाइप के सहारे होटल से निकल भागने में सफल हो गए। कैद से भागने का उदाहरण विधायक लाल सिंह ने भी पेश किया। लाल सिंह यूं तो कांग्रेस से विधायक पद की टिकट के लिए उम्मीदवार थे लेकिन किसी कारण से उन्हें टिकट नहीं दिया गया। इससे लाल सिंह रुष्ट हो गए। उन्होंने बगावत कर दी। वे चुनाव में निर्दलीय उम्मीवार की हैसीयत से खड़े हुए और चुनाव जीत गए। इस पर उन्हें कांग्रेस पार्टी से निष्काषित कर दिया गया। तब देवीलाल ने उन्हें एक घर में कैद कर दिया। लाल सिंह ने भी वही कमाल दिखाया और खिड़की से कूद कर भाग निकले। इस पर कांग्रेस ने उन्हें फिर अपने दल में शामिल कर लिया और मंत्रीपद भी दिया गया। 

दलबदल की चाल कांग्रेस को भी बखूबी आती थी। सन् 1967 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा। तब गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल की सरकार ने शपथ ग्रहण किया। लेकिन गोविंद नारायण सिंह अपने विधायकों को अधिक समय अपने दल से जोड़े नहीं रख सके। उनके दल के कई विधायक दलबदल कर कांग्रेस में चले गए। परिणाम यह हुआ कि गोविंद नारायण सिंह की सरकार गिर गई और सत्ता की बागडोर एक बार फिर कांग्रेस के हाथ में आ गई। श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। छिप-छिपा कर लालच दे कर दलबदल कराना लगभग निरंतर ही चलता रहा है। इस ‘फिशिंग’ में मंत्रीपद किसी बड़े चारे का काम करता रहा है। जैसे सन् 1970 में उत्तर प्रदेश में  दलबदल करा कर त्रिभुवन नारायण सिंह कांग्रेस की सरकार बनवाने में सफल हुए थे।

विधायकों को ‘‘सामूहिक हाईजैक’’ करने का सबसे पहले बड़ा उदाहरण दक्षिण भारत से ही सामने आया था। सन् 1983 के चुनाव में आंध्र में कांग्रेस को पराजय मिली। एनटी रामाराव (एनटीआर) ने मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता सम्हाली। सन् 1984 में अचानक एनटीआर का स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्हें अपना ईलाज कराने अमरीका जाना पड़ा। दल में तोड़-फोड़ करने वालों को यह उचित अवसर समझ में आया। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने एनटीआर सरकार के वित्त मंत्री भास्कर राव को दलबदल के लिए मना लिया। आंध्र में बैठे कांग्रेसी राज्यपाल ने आनन-फानन में भास्कर राव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। मगर एनटीआर जीवट नेता थे। एनटीआर के निर्देश पर उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने तेलगू देशम पार्टी के 163 विधायकों को फिल्म स्टूडियो ‘रामकृष्ण स्टूडियोज’ में कैद कर दिया। यह स्टूडियो एनटीआर के बेटे का था। बंधक बनाए गए विधायकों को वहां सारी सुख-सुविधा उपलब्ध कराई गई लेकिन बदले में उनके सारे बाहरी संपर्क ‘‘जैम’’ कर दिए गए। परिणाम यह हुआ कि भास्कर राव अपने ही विधायकों से संपर्क नहीं कर सके। इसके बाद इन सभी विधायकों को दिल्ली ले जाया गया और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल के सामने उनकी परेड कराई गई। देशभर के सभी विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार के इस कृत्य के खिलाफ आंदोलन किया तथा निंदा प्रस्ताव पारित किया। बहरहाल, भास्कर राव की सरकार गिर गई और एनटीआर एक बार फिर मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो गए।
दलबदल एक ऐसी संक्रामक विचारधारा है जिसने दक्षिण से उत्तर तक और पूर्व से पश्चिम तक किसी राज्य को अछूता नहीं छोड़ा है। गोवा जैसे राज्य भी इसके प्रभाव में रह चुके हैं। वहीं बिहार ने तो समय के साथ कदम मिलाया ही है। अभी, सन् 2022 के मध्य में जनता दल-यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार ने दलबदल के दम पर ही आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

दलबदल किसी भी राजनीतिक दल को तोड़ने में सक्षम रहता है अतः मन ही मन हर दल इस स्थिति से डरता भी है। इसीलिए राजीव गांधी सरकार के समय सन् 1985 में संविधान के 52वें संशोधन द्वारा ‘दलबदल विरोधी कानून’ लाया गया था। लेकिन तब से अब तक राजनीतिक दलबदल के परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन आ चुका है। आज चौकन्ना संचार माध्यम ‘‘हाईजैक किए गए’’ विधायकों को ढूंढ निकालता है और सब यह देख कर दंग रह जाते हैं कि वे वहां क्रिकेट खेल रहे होते हैं, मौज-मस्ती कर रहे होते हैं। जिसकी एक झलक मध्यप्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिराए जाने के दौरान सभी ने देखी है।
आखिर दलबदल निषेध कानून क्या है? यह कितना कारगर साबित हुआ? क्या यह कानून अब मूल्यहीन हो कर रह गया है अथवा इसकी अर्थवत्ता अभी भी शेष है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दलबदल एक लाभप्रद पैकेज का रूप लेता जा रहा है? इन प्रश्नों के उत्तरों की चर्चा इस धारावाहिक की अगली यानी चौथी किस्त में करूंगी।
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Tuesday, August 30, 2022

पुस्तक समीक्षा | इन कहानियों में स्त्रीविमर्श भी है और पुरुषविमर्श भी | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 30.08.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कथाकार निरुपम के कहानी संग्रह  "चौदहवीं का चांद" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏


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पुस्तक समीक्षा
इन कहानियों में स्त्रीविमर्श भी है और पुरुषविमर्श भी
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - चौदहवीं का चांद
लेखक - निरुपम
प्रकाशक - परिंदे पब्लिकेशन, 79-ए, दिलशाद गार्डन (नियर पोस्टआफिस), दिल्ली-110095
मूल्य    - 200/-
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    ‘‘चौदहवीं का चांद’’ कहानीकार निरुपम का चौथा कहानी संग्रह है। इस कहानी संग्रह की कहानियों पर चर्चा करने से पहले लेखक की साहित्यिक यात्रा पर दृष्टिपात कर लिया जाए। जैसा कि पुस्तक के बाहरी अंतिम पृष्ठ में दिया गया है, निरुपम का मूल नाम अनुपम श्रीवास्तव है। वे जिला उपभोक्ता फोरम आयोग, सागर के अध्यक्ष हैं। इनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-‘‘काॅमन लव स्टोरी’’, ‘‘अजनबी रिश्तों का पार्क’’ और ‘‘अपने-अपने हिस्से का कबाड़’’। इनके अतिरिक्त नौ कविता संग्रह तथा एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है। कथाकार निरुपम के इस कहानी संग्रह ‘‘चौदहवीं का चांद’’ में उनकी कुल बारह कहानियां हैं। इन कहानियों में स्त्रीविमर्श भी है और पुरुषविमर्श भी। इन कहानियों से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि किसी सधे हुए कहानीकार की कहानियों से गुज़र रहे हैं। नपा-तुला कथानक और सीमित और सटीक पात्र। यही तो एक अच्छी कहानी की खूबी होती है। एक विशेषता और जो मैंने इन कहानियों में पाई कि निरुपम अपनी कथानकों को अनावश्यक लम्बा नहीं खींचते हैं। कथानक का क्रम जहां थम जाना चाहिए, वहीं थमता है।यह भी एक अभ्यासजनित खूबी है जिसकी कमी कई कहानीकारों में देखी जाती है। इसीलिए संग्रह में छोटी-बड़ी दोनों प्रकार की कहानियां हैं। बहरहाल, अब बात की जाए संग्रह की कहानियों की।
पहली कहानी है ‘‘आखिरी विछोह’’। यह एक ऐसी प्रेमकथा है जो स्त्री-पुरुष की तमाम मनोनैतिक कमजोरियों के गलियारों से होती हुई उस ठिकाने पर पहुंचती है जहां आखिरी विछोह अर्थात् अंतिम विदा तय है। काॅलेज के जीवन में उपजा प्रेम, जिसमें प्रेमी ने अपने कदम पीछे खींच लिए, फिर भी वह अपनी प्रेमिका को भुला नहीं पाया और वर्षों बाद पुनः भेंट होने पर उसके निकट जाने को लालायित हो उठा। जबकि प्रेमिका आज भी आकर्षक व्यक्तित्व की धनी थी और उसके उलट प्रेमी उसकी प्रेमिका के ही शब्दों में ‘‘अब तो तुम्हारे शरीर में थुल-थुलापन भी आ गया है।’’ इस सब के बावजूद जब प्रेमिका ने बार रूम में चल कर बीयर पीने का आमंत्रण दिया तो ‘‘अनुज तुरंत सहमत हो गया। एक सुंदर महिला मित्र के साथ बीयर पीने का यह पहला मौका था। वह एक नाजुक रंगीन एहसास से जुड़ गया, उसे लगा कि वह बिना पंख उड़ गया।’’ जबकि वह विवाहित था और उसकी भूतपूर्व प्रेमिका अपने तलाकशुदा पति के विवाह में शामिल होने उस शहर आई थी। प्रेमिका की जिन्दगी एक खुली किताब की तरह थी। उसने अपने प्रेमी यानी अनुज से न तो पहले कुछ छिपाया और न बाद में। लेकिन अनुज ने वर्षों पहले पारिवारिक स्थितियों के कारण उसके विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया था और अब जब उसे बीयर के नशे में डूबती-उतराती अपनी पूर्व प्रेमिका मिली तो वह संयम नहीं रख सका। अंततः एक ग्लानि के साथ वह सदा के लिए विदा लेने का कदम उठाता है और यहीं पर कहानी पुरुषविमर्श के सांचे में ढली हुई मिलती है। लेखक ने बड़ी बेबाकी से पुरुषों के मनोभावों एवं मानसिकता को कहानी में पिरोया है जिससे यह कहानी एक आम कहानी से अलग साबित होती है। कहानी के क्लाईमेक्स ने इस कहानी को स्त्रीविमर्श के दायरे से बाहर निकाल कर पुरुषविमर्श के पक्ष में ला खड़ा किया है, जहां पुरुष स्त्री को दोषी नहीं ठहराता है बल्कि स्वयं को एक अवसरवादी के रूप में पाता है।
‘‘बिना अंत की कहानी’’ डायरी के कुछ पन्नों के रूप में है। वे पन्ने जो कथानायक के अपने पिता के साथ मतभेद और अबोलेपन के बारे में बताते हैं, मां की टूटन और बीमारी के बारे में जानकारी देते हैं, साथ ही अस्मिता नाम की उस युवती के बारे में चर्चा करते हैं जो कथानायक की प्रेमिका है और पारिवारिक विरोधों के चलते दोनों अपने रिश्ते को नाम नहीं दे सके थे। किन्तु अब अस्मिता कानूनीरूप से विवाहमुक्त होने जा रही है जो कथानायक के मन में नई आशा का संचार करता है। फिर भी यह तय करना कठिन है कि कहीं इतिहास स्वयं को दोहराएगा तो नहीं? कहानी रोचक बन पड़ी है।
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘‘चौदहवीं का चांद’’ भी अपने आप में पुरुषविमर्श का आह्वान करती है। एक प्रेम त्रिकोण जिसमें धार्मिक भावनाओं का अनजाने ही, अनावश्यक गहरा दखल हो जाता है। इदरीश, सोनाली और हिन्दू कथानायक। सोनाली इदरीश के प्रति आकर्षित है और कथानायक सोनाली के प्रति। इदरीश और सोनाली परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर एक कक्षा आगे पहुंच जाते हैं जबकि कथानायक अनुत्तीर्ण हो कर पीछे रह जाता है। सोनाली के प्रेम को प्राप्त न कर पाने के स्थिति में उसे इदरीश का मुस्लिम होना खटकने लगता है, यहां तक कि उसे ताजमहल की प्रतिकृति से भी चिढ़ होने लगती है। यह कहानी कई दिलचस्प मोड़ लेती है। चौदहवीं का चांद जो रूमानीयत का पर्याय बन चुका है धीरे-धीरे एक अलग ही तपिश भरा आकार लेने लगता है।
‘‘दुख का विकल्प’’ एक लघुकथा है लेकिन मनोवैज्ञानिक धरातल पर यह एक बड़ा चिंतन सामने रखती है। कथानक में मौजूद गहन मनोविमर्श को समझने के लिए यह एक संवाद ही पर्याप्त है जब कथानायिका सुवी अपनी दादी से कहती है-‘‘मेरी मां की मृत्यु हुई। महिलाओं ने कहा, सुहागिन हो कर मरना कितना सौभाग्यशाली है। मेरी मां को अंतिम क्रियाकर्म के पहले सुहागिन की तरह सजाया गया। मैं इस तर्क के साथ उस दुख को पार कर गई। फिर अकेलेपन से जूझते मेरे पिता की मृत्यु हुई। सबने कहा, पूरी उम्र शान से जी ली। हर जिम्मेदारी निभा दी। इतनी अच्छी मृत्यु भगवान नसीबवालों को देता है। मैं इन तर्कों के सहारे दुख से दूर आ गई।’’ फिर सहसा वह कह उठी-‘‘पर अब?’’  यह ‘‘अब’’ कहानी को ऐसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर ले जाता है जहां उत्तर की तलाश जरूरी हो जाती है।
‘‘दरारें और खालीपन’’,‘‘फारगति’’,‘‘गांधीजी का चश्मा’’,‘‘नए संत की प्रतीक्षा’’,‘‘पारदर्शी कांच के पार की दुनिया’’ आदि ऐसी कहानियां हैं जो लेखक के सामाजिक सरोकारों से परिचित कराती हैं। इस बात को भी स्थापित करती हैं कि लेखक मात्र कहानीकार कहलाने के लिए कहानियां नहीं लिख रहा है वरन वह कथानकों को आत्मसात कर के, उन्हें अपने-पराए अनुभवों के तराजू में तौल कर कहानियों का स्वरूप दे रहा है। इनमें कहानी ‘‘गांधी का चश्मा’’ वर्तमान में नैतिक मूल्यों के पतन पर तीखा प्रहार करती है। कहानी का एक पैरा देखिए-‘‘खड़े होते ही उसका ध्यान चौराहे पर खड़ी गांधी जी की मूर्ति पर चला गया। उसे लगा कि गांधी जी का चेहरा उसी शराब की दुकान की तरफ है। उसे ख्याल आया कि गांधीजी शराब की दुकान और दुकान पर होती गतिविधियां देख कर कितने दुखी होते होंगे। मूर्ति में साक्षात दर्शन करने की मनोवृत्ति से वशीभूत होकर शायद उसने ऐसा सोचा और वह दुखी हो गया। मूर्ति की तरफ गौर से देखते हुए आभास हुआ कि गांधीजी की आंखों पर से चश्मा गायब है। उसे लगा कि दिनभर शराब की दुकान की गतिविधियां देखते-देखते गांधी जी ने अपना चश्मा उतार कर कहीं रख दिया होगा। फिर उसे लगा गांधी की दृष्टि से नाराज विचारधारा वाला शायद नाराजगी दिखा गया है। फिर उसे लगा कि चोर उसे कीमती समझ कर चुरा ले गया है।’’
कहानी ‘‘पुनरावृत्ति नहीं होती पुनरावृत्ति’’ जीवन में सफलताओं की प्राप्ति और दुनियावी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किए गए वैवाहिक संबंधों का ताना-बाना सामने रखती है। कथानायिका शालिनी ऐसी स्त्री है जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले एक राजनेता से विवाह करती है और उसकी मृत्यु के बाद एक मशहूर रंगकर्मी से विवाह बंधन में बंध जाती है जो उससे लगभग दुगुनी उम्र का है। कुछ समय बाद एक बार फिर वैवध्य का दंश उसे आहत कर जाता है। आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बेमेल विवाह कोई नई बात नहीं है। इतिहास के राजनीतिक पन्नों पर इस तरह के अनेक किस्से दर्ज हैं। लेकिन जो इस तरह के संबंधों को अपनाता है या उनसे गुजरता है, उसकी मनोदशा को इस कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है। शालिनी अपने रंगकर्मी पति की मृत्यु के बाद कहती है कि ‘‘कुमार कहते थे हम रंगकर्मी हैं। जब मंच पर होते हैं तो सिर्फ उस किरदार को जीते हैं जिसे निभाने आए हैं। मुझे लगा कि जिंदगी के अलग-अलग हिस्सों में भी अलग- अलग प्ले होते हैं, समय के जिस हिस्से में आप जिस किरदार में हो उसे ईमानदारी से निभा लो यही जिंदगी है।’’  
संग्रह में एक और महत्वपूर्ण कहानी है ‘‘संभावनाओं के शहर की तलाश में’’। यह कहानी इस बात को याद दिलाती है कि हम तकनीकी रूप से चाहे जितने भी आगे क्यों न बढ़ गए हों लेकि मानसिक रूप से अभी भी बहुत पीछे हैं। लाॅ स्टूडेंट्स अनुप्रिया और शाहिद का अदालत में जा कर विवाह कर लेना उन सभी को नागवार गुज़रा जिनका इन दोनों के जीवन से सीधे कोई लेना-देना नहीं था। अनुप्रिया के परिजन समाज के भय से दोनों के विरोधी बन गए। वहीं सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल करते हुए अपशब्दों की बौछार की जाने लगी। वे उस शहर की तलाश में निकल पड़े जहां उन्हें चैन से जीने की संभावना दिखाई दे सके।
कथाकार निरुपम की कहानियों में बयान की सादगी है। वे भाषाई और मुहावरों के संजाल से साफ़ बचते हुए अपनी बात कह जाते हैं, यही खूबी उनकी कहानियों को हर वर्ग के पाठकों से जोड़ने में सक्षम है। हर दृष्टि से ‘‘चौदहवीं का चांद’’ पठनीय एवं विचारणीय कहानी संग्रह है।       
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Monday, August 29, 2022

मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह का जन्मदिन 29 अगस्त 2022 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

🎂दीदी ! आज 29 अगस्त है ......🎂 तुम्हारा जन्मदिन ..💐 
पर न केक है न तुम हो .. तुम्हारी बहना अकेली है.... बहुत अकेली... एकदम अकेली... तुम्हारे बिना सन्नाटा छाया है...
    तुम्हीं तो मेरी हंसी थीं जो खो गई ... 
    तुम्हीं तो मेरी खुशी थीं जो गुम हो गई... 
बस, यही दुआ है कि तुम जहां भी रहो, बहुत खुश रहो... तुम्हें वे सारी खुशियां, सारे सुख, वो सब कुछ मिले जो तुम्हें कभी नहीं मिल सका... 
    मेरी प्यारी दीदू ! तुम्हारी शरद बेटू तुम्हें हर पल याद करती है, इस कसक के साथ कि मैं तुम्हें बचा नहीं सकी...तुम्हें खो दिया... इतना लाचार खुद को कभी नहीं पाया था ... 
    ईश्वर से भरोसा उठ चुका है अब तो... लेकिन तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम हमेशा अपनी बेटू के साथ रहोगी, उसे हिम्मत दोगी, उसे रास्ता दिखाओगी !
    काश! तुम्हें देख पाती, छू पाती, तुम्हारी गोद में सिर रख कर सो पाती...
    Miss You Didu ...
    Happy birthday 🎂
    Love you हमेशा की तरह ❤️
    दुनिया की मेरी सबसे अच्छी दीदी अपनी इस बहना का कभी साथ मत छोड़ना...!
हम फिर मिलेंगे एक दिन...मुझे विश्वास है.. 
Love U Di 🌷 ❤️🌷
I Love you too much ❤️

Sunday, August 28, 2022

महिलाओं के लिए ज़रूरी... | पत्रिका टॉक शो | आठवां स्थापना दिवस | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"सप्तदी, सात वचन, सात फेरे और सात वर्ष... पत्रिका और सागर का गठबंधन निरंतर मज़बूत हुआ है जिसका सुपरिणाम है कि हम सागर संस्करण के स्थापना की आठवीं वर्षगांठ मना रहे हैं।
पत्रिका ने महिलाओं को प्रतिनिधित्व दिया है। महिलाओं की सुविधा और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए शहर में टेम्पो की संख्या और टाईम में वृद्धि किया जाना जरूरी है। महिलाओं के लिए बनाए गए सुलभ शौचालय के उचित प्रबंधन की जरूरत है। बसस्टैंड, स्कूल, कॉलेज आदि स्थानों पर सैनिटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन लगाए जाने की जरूरत है। इन छोटी-छोटी बुनियादी जरूरतों के पूरे होने से महिलाओं का सम्मान और सुरक्षा में वृद्धि होगी।" कल राजस्थान पत्रिका के सागर संस्करण 'पत्रिका' के 8 वें स्थापना दिवस पर एक टॉक शो का आयोजन किया गया जिसमें नारी सुरक्षा और सम्मान विषय पर मैंने (डॉ सुश्री शरद सिंह ने) अपने ये विचार रखे।
            पत्रिका द्वारा अपने कार्यालयीन सभागार में  आयोजित तथा पत्रकार श्रीमती रेशू जैन द्वारा संचालित इस टॉक शो में नगर की जिन प्रमुख बुद्धिजीवी महिलाओं ने अपने-अपने  विचार साझा किए उनमें प्रमुख थीं- मैं स्वयं डॉ (सुश्री) शरद सिंह, पूर्व विधायक श्रीमती पारुल साहू केशरी, समाजसेवी एवं जनप्रतिनिधि श्रीमती निधि जैन, अध्यक्ष रीगल राइट्स काउंसलिंग प्रदेश उपाध्यक्ष श्रीमती अनु शैलेंद्र जैन, केशरवानी महिला समाज की अध्यक्ष श्रीमती विनीता केशरवानी, सिविल सर्जन डॉ ज्योति चौहान, एडिशनल एसपी श्रीमती ज्योति ठाकुर, टीआई महिला थाना सुश्री संगीता सिंह, यातायात थाना टीआई सुश्री उपमा सिंह, शासकीय महिला महाविद्यालय की प्रोफेसर डॉ. अंजना चतुर्वेदी तिवारी, समाज सेवी श्रीमती इंदु चौधरी समाजसेवी श्रीमती स्वाति हल्वे, पार्षद श्रीमती आयुषी चौरसिया आदि।
      हार्दिक धन्यवाद सागर संपादकीय प्रभारी श्री बृजेश कुमार तिवारी जी 🙏
💐 हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद सागर #पत्रिका  परिवार🙏💐

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संस्मरण | कविता का वशीकरण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


संस्मरण | नवभारत | 28.08. 2022
कविता का वशीकरण
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        वह दिन मैं कभी भूल नहीं सकती, जब मां ने स्कूल से लौट कर बताया कि आज एक पुराने परिचित घर आने वाले हैं। वर्षा दीदी ने पूछा कि कौन हैं वे? उन दिनों मैं शायद आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। मुझे भी जिज्ञासा हुई।

‘‘बहुत बड़े कवि हैं। तुम लोग उनकी कविताएं अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़ती हो।’’ मां तो इतना कह कर नाश्ता-पानी के जुगाड़ में लग गईं। उन दिनों हमारे घर में चाय का चलन नहीं था। मां बुंदेली संस्कृति में रच-बस चुकी थीं। यद्यपि मालवा उनके मन और जीवन से गया नहीं था। घर में साड़ी के बजाए मालवी स्टाईल की लहंगा-चुन्नी पहनना पसंद करती थीं। आखिर अपनी जन्मभूमि को कोई कैसे भुला सकता है? वे मालव कन्या थीं। ‘‘मालविका’’ थीं। उनको यह उपनाम डाॅ. श्याम परमार ने उनकी लेखकीय प्रतिभा को देखते हुए दिया था। मजे की बात यह कि वर्षा दीदी का जन्म रीवा में हुआ था इसलिए वे स्वयं को ‘‘बघेली कन्या’’ कहा करती थीं। जबकि मेरा जन्म विशुद्ध बुंदेलखंड में पन्ना में हुआ सो मैं जन्मजात ‘‘बुंदेली कन्या’’ बन गई। तो, मैं बता रही थी नाश्ते के बारे में। तब बुंदेलखंड में अतिथि के लिए नाश्ते में पोहा नहीं बनाया जाता था। आमतौर पर घरों में सलोनी, पपड़िया, सेव आदि बना कर रख लिए जाते थे, यानी ये नाश्ते हमेशा मौजूद रहते थे। मां भी रविवार की छुट्टी में खाना बनाने वाली बऊ के साथ मिल कर इस तरह के आईटेम बना कर रख लिया करती थीं। लेकिन यदि किसी को नाश्ता ताज़ा बना कर कराना होता था तो भजिए और गुलगुले तले जाते। साथ में चिप्स और पापड़ भी रहते। पोहा हमारे घर उन दिनों कभी-कभार ही बनता था। लेकिन उस दिन मां पोहा बनाने में जुट गईं। घर में आलू, प्याज और धनिया पत्ती के अलावा और कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे पोहे में डाला जा सकता था। उन दिनों पन्ना में हरी मटर सिर्फ़ सीजन में ही मिलती थी और हमारे फ्रिज होने का सवाल ही नहीं था। उस समय फ्रिज घोर विलासिता की वस्तु थी, अतः हम तो उसे ‘अफोर्ड’ करने की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। सो, डिब्बाबंद मटर भी घर में नहीं रख सकते थे। खैर उस समय मैंने ये सब नहीं सोचा होगा लेकिन अब उन दिनों को याद करती हूं तो उन दिनों के अभाव और उपलब्धता सभी कुछ याद आते हैं।

लगभग आधे घंटे बाद कुंडी खटखटाने की आवाज़ आई। सबसे पहले भाग कर मैं ही दरवाज़े पर गई। सामने देखा तो चकाचक सफेद धोती-कुर्ता पहने एक सज्जन खड़े थे। कुर्ते के ऊपर जैकेट और एक कंधे पर खादी का एक झोला।
‘‘ये मालविका जी का घर है न?’’ उन्होंने मुझसे प्रश्न किया। मैंने अपनी मुंडी हिला कर हामी भरी ही थी कि मां और वर्षा दीदी आ गईं।

‘‘आइए-आइए! बेटा इन्हें प्रणाम करो! ये श्रीकृष्ण सरल जी हैं, जिनकी कविताएं तुम लोगों ने याद कर रखी हैं।’’ मां ने परिचय कराया। ‘‘श्रीकृष्ण सरल’’ यह नाम सुन कर तो मैं अवाक हो कर उनकी ओर देखती रह गई। वे मुझे बिलकुल अपने नानाजी की तरह लगे। नानाजी भी सफेद धोती-कुर्ता पहनते थे। वे काफी देर हमारे घर पर रुके। उन्होंने नाश्ता किया और अपनी दो-तीन लम्बी-लम्बी कविताएं सुनाईं। जितना ओज उनकी कविताओं में था उतना ही ओज उनके काव्य-पाठ में था। उन्होंने हम दोनों बहनों को अपनी एक-एक गीत-पुस्तक भी भेंट की। यद्यपि उनकी वे पुस्तकें तो हमने चार दिन बाद पढ़ीं। साक्षात उनके मुख से देशभक्ति में डूबा गौरवगान सुनने के बाद ओजपूर्ण गीतों का जो असर हम दोनों बहनों पर हुआ, उसके कारण हम दोनों बहनें चार दिन तक ‘सरल’ जी जैसी कविता लिखने के प्रयास में जुटी रहीं। देखा जाए तो यह बचपना ही था क्योंकि देशभक्ति पूर्ण कविताएं तभी लिखी जा सकती हैं जब देश प्रेम की भावनाएं मन में हिलोरें ले रही हो। ऐसी कविताएं अंतःकरण से उपजती हैं, सुने-सुनाए आधार पर नहीं। बहरहाल, हमने जो कविताएं लिखीं, उन्हें मां ने देखा-पढ़ा। वर्षा दीदी की कविताओं में मां ने आवश्यक सुधार भी किए। मगर मैं बचपन से ही अड़ियल किस्म की रही हूं। मुझे अपनी रचनाएं जंचवाना पसंद नहीं था। मैंने मां को पढ़ने तो दी लेकिन सुधारने नहीं दी। मां ने भी सुधारने पर जोर नहीं दिया क्योंकि वे जानती थीं कि यदि वे जोर देंगी तो मैं अपनी कविताएं फाड़ कर फेंक दूंगी। वह तो मेरी आदत में तब थोड़ा परिवर्तन आया जब मैंने सन् 2004 में अपना पहना उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ लिखा। यह 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास की पांडुलिपि वर्षा दीदी को इस वार्निंग के साथ पढ़ने को सौंपी थी कि इसमें जो भी गड़बड़ी आपको लगे उसे आप अलग नोट करिएगा। पांडुलिपि में काटा-पीटी की जरूरत नहीं है। दीदी तो बचपन से ही देखती आई थीं कि गलती निकाले जाने पर मैं किस तरह अपनी रचना का अंतिम संस्कार कर देती हूं अतः उन्होंने मेरी वार्निंग का पूरा ध्यान रखा। कहने का आशय यह कि श्रीेकृष्ण ‘‘सरल’’ जी की कविताएं सुन कर जुनून में आ कर मैंने जो कविता लिखी थी उसे मैंने उस वर्ष 26 जनवरी के समारोह में सुना कर दम लिया। मैंने भरसक प्रयास भी यही किया था कि मैं ‘‘सरल’’ जी की भांति अपनी कविता का पाठ करूं। स्कूल में मां के अलावा किसी को कविताकला का विशेष ज्ञान नहीं था इसलिए सभी से मुझे प्रशंसा मिली। यह तय है कि मां ने जरूर अपना सिर पीटा होगा मेरी कविता सुन कर।

इसी तरह का कविताई का एक बार और जूनून हम दोनों बहनों पर सवार हुआ था। तब मैं बीए फस्र्टईयर में पढ़ रही थी। एक रचनाकार के रूप में मेरी पहचान बनती जा रही थी। उन दिनों पन्ना में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार आया करते थे, जिनमें मेरी और दीदी की रचनाएं प्रकाशित होती रहती थींे। दीदी ने उन दिनों कुछ मंचों पर भी काव्यपाठ करना शुरू कर दिया था। यद्यपि मंचों का गिरता स्तर देख कर यह सिलसिला बहुत लम्बा नहीं चला। दीदी का कंठ बहुत मधुर था। उनमें अपनी आवाज से श्रोताओं को बांध लेने की क्षमता थी लेकिन मंचीय लटके-झटके उन्हें नहीं आते थे और मां को भी वह सब पसंद नहीं था। कुछ श्रेष्ठ मंचों पर श्रेष्ठ कवियों से भी भेंट हुई और आत्मीयता के तार जुड़े। जिनमें से एक थे बुंदेलखंड के ख्यातनाम कवि डाॅ. अवधकिशोर जड़िया जी। उन दिनों उनके घनाक्षरी छंदों की बड़ी धूम थी। बहुत ही सहज और सरल स्वभाव के हंसमुख व्यक्ति। अब तो उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है। जिस समय की मैंने घटना बता रही हूं, उन दिनों बारिश के बाद और ठंड के आगमन से पहले का मौसम था। इसीलिए हम लोग घर के आगे वाले बरामदे में सो रहे थे। यही कोई सुबह के चार बजे का समय था। ऐसा लगा कि कोई दीदी का नाम ले कर जोर-जोर से पुकार रहा है। मां, दीदी और मैं तीनों हड़बड़ा कर उठ बैठे। सुबह की नींद यूं भी गहरी होती है अतः एकदम से कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है? मां ने लपक कर लाईट जलाई। तब हमने देखा कि सामने डाॅ.अवधकिशोर जड़िया जी खड़े हुए थे।

‘‘सुप्रभात! देखो मैंने जगा दिया न सबको।’’ वे हंसते हुए बोले। फिर कहने लगे,‘‘अभी कवि सम्मेलन खत्म हुआ है। मैं सीधा वहीं से चला आ रहा हूं। मेरी बस छः बजे की है। अगर मैं आप लोगों से बिना मिले चला जाता तो आप लोग नाराज हो जाते।’’
‘‘हां-हां, बैठो न भैया!’’ मां ने तत्काल एक खाट का बिस्तर ठीक-ठाक किया और कहा। वे इत्मिनान से बिस्तर पर आलथी-पालथी मार कर बैठ गए। फिर दीदी से साधिकार बोले,‘‘जाओ वर्षा बेटा झटपट चाय तो बना लाओ!’’

चाय पीने के बाद वे हम लोगों को बताने लगे कि उन्होंने कविसम्मेलन में कौन-कौन सी कविताएं सुनाईं हैं। हम लोग भी उत्सुकता से उनकी कविताएं सुनने लगे। उन्होंने अपने बेहतरीन अंदाज में अपनी घनाक्षरियां सुनाईं। लगभग साढ़े पांच बजे वे छतरपुर की बस पकड़ने के लिए रवाना हो गए। लेकिन सुबह-सवेरे के कोरे-ताजे दिमाग में घनाक्षरी छंदों की गूंज ऐसी बैठी कि दो दिन तक हम दोनों बहनें घनाक्षरी लिखने में जुटी रहीं। जब हम लोगों ने जी भर की घनाक्षरियां लिख लीं और यह समझ में आ गया कि अब इससे अधिक नहीं लिखा जा सकता है, तब कहीं जा कर वह जुनून हम दोनों के सिर से उतरा।

सच तो यह है कि श्रीकृष्ण ‘‘सरल’’ और डाॅ. अवधकिशोर जड़िया जी के काव्य में जो पूर्णता (परफेक्शन) थी, उसने हमें वशीभूत कर लिया था। इतना गहरा असर और किसी के काव्यपाठ ने मुझ पर नहीं डाला। आज मैं इन दोनों घटनाओं के महत्व को समझ पाती हूं कि जिस रचना में पूर्णता होती है और जिस रचनाकार में सृजन के प्रति समर्पण (डिवोशन) होता है, उसी की प्रस्तुति सुनने वाले को सम्मोहित कर पाती है। यद्यपि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इन दोनों रचनाकारों के पहले या बाद में जिन कवि या कवयित्रियों की रचनाएं मैंने सुनीं वे प्रभावी नहीं थीं लेकिन इन दोनों कवियों के काव्य और प्रस्तुति में कुछ तो विशेष था जिसने मन को गहरे तक आंदोलित किया और दो-चार दिन तक हमारे मन मस्तिष्क को वशीभूत रखा।      
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#संस्मरण #डॉसुश्रीशरदसिंह #हिंदीसाहित्य #लेख #memoir #mymemories #DrMissSharadSingh

Article | We Should Listen The Warning Of Climate Change | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

My Article published in Central Chronicle -
*We Should Listen The Warning Of Climate Change*

    -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

    In the rainy season of 2022, both coastal and inland—are finding themselves underwater due to flood. Extreme weather, sea level rise, and other climate change impacts are increasingly to blame. Here’s a look at what links flooding and our warming world. Yes! Only one thing and that is climate change. The climate change is warning us in the form of irregularities in temperature and weather. We can save ourselves only by listening to this warning, understanding and making efforts accordingly.
Flood.. Flood.. More flood. What for the waiting we are? Flood havoc in western, eastern and southern districts of Rajasthan. There was a time when people here were unaware of words like flood but now the situation has turned to the opposite. Now floods are occurring in the desert almost every year. If we talk about Madhya Pradesh, then in Malwa, Nimar, Hoshangabad, Bhopal divisions, heavy rains forced the doors of the dams to open. Not only the elderly but middle-aged people also rightly said that "we have never seen such heavy rain in these areas before". 
The surprising thing is that the forest is not able to attract rain. Most of the areas of Bundelkhand this time too have not received enough rain till the last week of August'22. Uttar Pradesh with big rivers is also suffering from low rainfall. At the same time, in August 2022, the earthquake of 5.2 in Lakhimpur Kheri area had put everyone in terrible panic. 20 Aug, 1:12 am, Earthquake tremors were felt in the entire district including Lakhimpur city. People were sleeping soundly at that time. People were stirred by this tremor of about 15 to 20 seconds. Fearing something untoward, people came out of their homes. Earthquake tremors were felt not only in Lakhimpur Kheri but in many districts adjoining Nepal including Lucknow, Bahraich, Shravasti, Balrampur, Sitapur, Barabanki, Gorakhpur, Siddharthnagar. Actually, the country has been divided into four different zones regarding the earthquake. According to the Macro Seismic Zoning Mapping, it includes Zone-5 to Zone-2. Zone 5 has been rated as the most sensitive and similarly Zone 2 is considered the least sensitive. An earthquake with a magnitude of 4 to 4.9 can break windows. Household items may shake at a magnitude of 5 to 5.9. An earthquake of magnitude 6 to 6.9 can cause cracks in the foundations of buildings. An earthquake with a magnitude of 7 to 7.9 can cause buildings to collapse. Large bridges can also collapse when an earthquake of magnitude 8 to 8.9 occurs. Earthquakes with a magnitude of more than 9 can cause complete destruction. If the sea is near, then a tsunami can also occur. Uttar Pradesh is in Zone-IV of Earthquake. Major parts of Uttar Pradesh are already in Zone-IV of Earthquake. Seismic Zone IV is considered the high-damage risk zone. The IS Code allots 0.24 to this zone. Moreover, 18% of the total area of the country belongs to Zone IV. According to the United States Geological Survey (USGS) earthquake report noticed the earthquakes increasing in 2022.
Just as earthquakes warn of geological changes, rain and drought also warn about climate change. The effect of climate change is now clearly visible in India too. This time in Monsoon season, where people lived in many parts of the country due to torrential rains and floods, there are some areas of the country where there was drought; there was very little rain here. At the beginning of the monsoon, the Indian Meteorological Department and meteorologists make many predictions about the monsoon, but this time the weather changed its activity many times and all the predictions appeared to be failing. It all starts with the release of greenhouse gasses like carbon dioxide and methane. As humans keep burning fossil fuels, the atmosphere gets hotter. That hot air holds more water vapor, and so when it rains, it rains harder. Climate scientists have been predicting for decades that heavy rain would get more common as the Earth heats up. "Over the last few decades, global warming has been on an accelerated pace and its marks can be seen in any single day of global weather since the 2000s. Generation Z has never lived a day without feeling the influence of global warming," added Roxy Mathew Koll from the Indian Institute of Tropical Meteorology in Pune. 
Normally 588 mm of rain should have been received across the country till August 16 but till now it has received 645.4 mm of rain. Central India received 24% excess rainfall in South India, 30% more rain while Northeast Eastern states received 17% less rain. Areas in the Ganges belt received up to 45% less rainfall than normal. If the state of Uttarakhand is seen in the areas of Ganga belt, then there was 12% less rain than normal in Uttar Pradesh, 45% in Bihar, 40% in Jharkhand, 36% and West Bengal 36%. At the same time, there are many areas of Assam, Odisha, Gujarat, Rajasthan, Maharashtra, Konkan and southern states where rains and floods have caused havoc. Due to the change in weather, this time torrential rains are continuing in the southern areas like Rajasthan, Maharashtra.. and Central India, whereas in North India such as the Gangetic plains, where there was more rain earlier, there is a drought situation.
In fact, for every degree (Celsius) of climate change, the amount of water vapor in the atmosphere increases by around 7%. This results in more intense extreme rainfall events almost everywhere as the world warms. So we will have tried to reduce global warming in anyhow. Because climate changes have warning to us in terms of heavy rains, droughts, increasing temperature, decreasing temperature etc. Overall, it is warning us in the form of irregularities in temperature and weather. We can save ourselves only by listening to this warning, understanding and making efforts accordingly.
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 (28.08.2022)
#climatechange  #MyClimateDiary 
#KnowYourClimate 
#KnowYourEnvironment 
#UNClimateChange 
#savetheearth

Thursday, August 25, 2022

बतकाव बिन्ना की | चाए ‘बुंदेली बम्प’ बने, चाए ‘दाऊ सिंह डड्डा’ बने | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात


 "चाए ‘बुंदेली बम्प’ बने, चाए ‘दाऊ सिंह डड्डा’ बने"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
🌷हार्दिक धन्यवाद "प्रवीण प्रभात" 🙏
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बतकाव बिन्ना की        
चाए ‘बुंदेली बम्प’ बने, चाए ‘दाऊ सिंह डड्डा’ बने                                 
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
         '‘काए भैयाजी अपने इते बुंदेली में फिलम काए नई बन रईं? पैलऊं सो बनत्ती, पर अब सो एकऊ सुनाई नई परत। ऐसो काए?’’ मैंने भैया जी से पूछी।
‘‘हऔ बात तो ठीक कै रईं बिन्ना! मोए भी याद नई आ रई के कोनऊं फिलम बुंदेली की अभईं पिछले दिनां बनी होय। बाकी अपने सागर जिला में वा फिलम जरूर बनी, का नांव ऊको...।’’ भैया जी अपनो मूंड़ खुजाउन लगे।
‘‘फैमली फस्र्ट !’’
‘‘हऔ, बोई!
‘‘आपने देखी?’’
‘‘नई! बा तो टाॅकीज वाली नई हती।’’
‘‘हऔ! ओटीटी प्लेटफार्म एमएक्स प्लेयर पे रिलीज भई रई। औ बा अपनी बुंदेली में बी ने हती।’’ मैंने कही।
‘‘तुमने देखी?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नई! मोरी टीवी पुरानी वाली आए सो ऊमें ओटीटी दिखात नइयां औ मोबाईल पे फिलम देखबे में कछु मजो सो नईं आत आए।’’ मैंने भैयाजी खों साफ-साफ बता दई।
‘‘जेई सो हमाई दसा आए। तुमाई भौजी कहूं से सुन आईं के नई वारी टीवी पे, वोई जीमें ओटीटी चैनल दिखात आएं ऊमें अच्छी फिलमें औ सीरियल आउत रैत आएं, सो बे हमाएं पीछे पड़ गईं के हमें तो नई वारी टीवी लान देओ। फेर हमने तुमाई भौजी खों मोबाईल पे नई वारी टीवी के रेट दिखा दए। रेट देखतई साथ बे तो आड़ी हो गईं। कैन लगीं के मोए नई चाउने जे नई-मई टीवी। हमाई पुरानी साजी। पइसन के मामले में तो तुमाई भौजी कभऊं-कभऊं दिमाग से काम ले लेत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जब घर चलाने होय सो दिमाग से काम लेनई परत आए।’’ मैंने सोई हामी भरी।
‘‘बाकी ई तरफी जे जो फिलमें टाॅकीज में आईं, बे सो सबरी फ्लाॅप हो गईं। लला सिंह चड्ढा फ्लाप हो गई, रक्षाबंधन फ्लाप हो गई। जे ओरें कोन टाईप की फिलमें बना रए के एकऊ नई चल पा रईं।’’ भैयाजी ने कही।
‘‘बना का रए हाॅलीवुड की नकल मार रए। नाम धरो लाल सिंह चड्ढा औ कहानी हती टाॅम हैंक्स की फारेस्ट गम्प की। मने बोई की रीमेक रही। अब आपई तनक सोचो भैयाजी के कहां टाॅम हैंक्स औ कहां अपने आमिर खान, मने कहां राजा भोज औ कहां गंगुआ तेली।’’ मैंने कही। काए से मोए टाॅम हैंक्स भौतई पोसात आए।
‘‘अब तुम कछु ज्यादा नई कै रईं? कछु तो कदर करो चाइए अपने इते के हीरो हरन की।’’ भैयाजी मोरी बात को बुरौ मान गए।
‘‘अब आप ऐसो ने कहो भैयाजी! ईसे हमाई देशभक्ति कछु कम नई भई जा रई। बे ओरें हाॅलीवुड की नकल मारें सो कछु नईं औ हमें उते को हीरो पोसा गओ सो आप अपने-तेरे करन लगे। जे बात ठीक नइयां। अपने आमीर भैया टेक्नाॅलौजी से 57 के 17 की उमर के बन गए, चलो ठीक रओ, पर एक्टिंग सोई ऊंसई होय तब ने।’’ मैंने सोई खरी-खरी भैयाजी से कै दई।
‘‘हऔ, एक्टिंग में सो दम नई रई। बो एक फिलम आई रई आमिर की जीमें बो एलियन बनो रओ। औ फिलम चलाबे के लाने चड्डी पहनबे के बजाय रेडियो धर के ठाड़ो रओ आओ। जो का आए? मोए जे सब नई पोसात। फिलम सो आई रई पैडमैन। कित्ती नोनी फिलम। बा हती अपने इते की कहानी पे।’’
‘‘हऔ! तभई सो खूब चली बा। भैयाजी बात जे आए के अब तो बच्चा हरें लों हाॅलीवुड की फिलम देखत रैत आएं, सो अब आज के दर्शक खों बेवकूफ नई बनाओ जा सकत आए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हमने कहूं पढ़ो रओ के आमिर को मोड़ा जुनैद खान एक्टिंग की ट्रेनिंग लेबेे खों अमेरिका गओ रओ, ने तो बो सोई ई फिलम में रैतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब मोड़ा अमेरिका ई सो जाहे एक्टिंग सीखबे के लाने, काए से उने फिर जिनगी भरे उतई की सो नकल मारने परहे। जिते की चुरानंे उते सो जानई परहे। औ आप भैयाजी हाॅलीवुड की कै रै, इते सो दक्षिण भारत की फिल्मन को रीमेक बनाऊत नई थक रए।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘हऔ! ठीक कै रईं! जेई से सो अब टीवी पे साउथ की फिलम ज्यादा पोसात आएं। हम सोई बेई देखत आएं। जो कोनऊ हिन्दी में डब कर के हाॅलीवुड की फिलम आ गई सो बो देख लई, नई तो साउथ की सो कहूं गई नइयां। सच्ची अब बाॅलीबुड की फिलम देखबे को मनई नई करत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई सो मैं कै रई भैयाजी! जो ओरीजल वारी देखबे खों मिल रई होय सो नकल को देखहे। इने काए नईं समझ में आउती जे बातें?’’ भैयाजी से पूछी।
‘‘उने समझ के करने का आए? उने अपने इते के टेलेंट की कोन परवा कहानी? ने तो अपने इते के कलाकार चुनते, इतई की कहानी बनाउते फेर देखते के कैसे नई चलती फिलमें? एक बे अपने अक्षय कुमार भैया ठैरे, पैडमैन घांई फिलम सो नोनी बनाई पर उनखांे सोई बिदेसी मोड़ियन खों नचाए बिना चैन नईं परत। अरे, अपने इते की मोड़ियन खों नचाउत नई बनत का? मगर उने सो गोरी चमड़ी दिखाने रैत आए।’’ अब भैयाजी की गाड़ी पटरी से उतरन लगी।
‘‘चलो छोड़ो भैयाजी! आप सो जे सोचो के बाॅलीवुड वारे अब अपने बुंदेलखंड में फिलम सूटबें के लाने आन लगे आएं, पर अपने इते के फिलम बनाबे वारे अच्छी बुंदेली फिलम काए नई बना रए? उने सोई बनाओ चाइए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, एक फिलम वारो हमाओ पैचान को सो आए। हम ऊसे कैबी के इते फेस्टिमल-वेस्टिमल करा रए सो तो ठीक पर बुंदेली में फिलम सोई बनाओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे-अरे, ऐसो ने कइयो! आप की बात से डरा के कहूं बो फेस्टिमलई बंद ने कर दे। कछु सो होन देओ। बाकी बो है को?’’
‘‘अब जे छोड़ो के बा कोआ। बाकी ऊके संग वारे को मोड़ा सोई बिदेस में एक्टिंग सीखबे के लाने गओ रओ।’’
‘‘सो? संग वारे के मोड़ा को का करने?’’ मैंने पूछी।
‘‘करने कछु नईं, बा सो हमें याद आ गई। ऊ मोड़ा ने उते से लौट के सोई बाॅलीवुड में काम करो रओ।’’
‘‘फेर?’’
‘‘फेर का? ऊकी फिलम-इलम चली नईं, आज बो गिट्टियन की कांट्रेटरगिरी कर रओ। ने तो उसे कैबी के उते बाॅलीवुड में हीरो ने बन सके, सो इते बुंदेली की फिलम बनाओ औ ऊमें हीरो बन के कछु कर दिखाओ।’’ भैयाजी खुदई की बात पे फूलत भए बोले।
‘‘हऔ, संगे जे सोई कै दइयो के बुंदेली मने बुंदेलखंड की कहानी पे बनाउने परहे, जे नई के ‘फारेस्ट गम्प’ पे ‘बंुदेली बम्प’ बना के धर देओ, औ फेर अपने इते के दर्शक गरियात फिरें।’’ मैंने हंस के कही। बाकी भैयाजी मोरो व्यंग ने समझे औ बे जे कैत भए उठ खड़े भए के,‘‘ऊको मोबाईल नंबर तलासने परहे, जाने कोन सी डायरी में लिखो रओ।’’   
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए बुंदेली बम्प बने, चाए दाऊ सिंह डड्डा बने? मोए का? बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(25.08.2022)
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Wednesday, August 24, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-2 | इतिहास के आईने में पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार और दलबदलू | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
राजनीतिक दलबदल: अध्याय-2
इतिहास के आईने में पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार और दलबदलू
  - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                             
        दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की थी। इस अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला जाए। क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि दलबदल वर्तमान राजनीति का ही हिस्सा है और अतीत में इसका अस्तित्व नहीं था या कम था। क्या सचमुच नहीं था? यदि था तो क्या इतना ही अवसरवादिता पूर्ण था या उसका कोई और स्वरूप था? चलिए देखते हैं!    
(डिस्क्लेमर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनीतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता औा खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दलबदल का शाब्दिक अर्थ है अपना दल छोड़ कर दूसरे के दल में चले जाना। यह राजनीतिक कदम बड़ा अजीब है। कभी तो इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है तो कभी ऐसा करने वाले पर लानत भेजी जाती है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि आमजन का अपना दृष्टिकोण उससे जुड़ा होता है। जब कोई व्यक्ति उस दल को छोड़ कर जिससे जनता रुष्ट है, दूसरे दल में जाता है तो जनता खुश होती है। वहीं जब कोई व्यक्ति उस दल को छोड़ता है जिस पर जनता प्रसन्न है तो उसे बुरा लगता है और वह दलबदलने वाले को ‘‘मूर्ख’’ करार दे देती है। जबकि कोई भी दलबदलने वाला मूर्ख नहीं होता है। वह अपनी दृष्टि से अपने दल और अपनी स्थितियों के तालमेल का आकलन करता रहता है। जब उसे लगता है कि उसका अपना दल उसकी उपेक्षा कर रहा है, उसकी राय पर ध्यान नहीं दे रहा है तो वह अपने दल से विद्रोह कर बैठता है और दूसरे दल में शामिल हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हम अपने भारतीय इतिहास के पन्नों पर देख सकते हैं।
 
पुराणों के किस्से भी दलबदलुओं से वंचित नहीं हैं। देवताओं के राजा इन्द्र तो राजनीतिक छल-कपट के पर्याय कहे जाते हैं। प्राचीन भारत की यह स्थिति थी कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था। अतः उस समय दलबदल का स्वरूप तनिक भिन्न था। अपने राज्य के विस्तार तथा अपनी शक्ति के विस्तार आदि के उद्देश्य से एक राजा अपने पूर्व मित्र राजाओं को छोड़ कर नए मित्र या संबंधी बना लेता था। फिर वह अपने नए मित्र या संबंधी के साथ मिल कर पुराने मित्र के राज्य पर आक्रमण कर देता था। ध्यान रखने की बात यह है कि तब राजनीतिक दल नहीं अपितु छोटे-बड़े राज्य थेे जिनकी अपनी-अपनी राजनीतिक लिप्साएं थीं।  यह स्थिति उस समय और भी बढ़ी जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि राजनीति स्वार्थ को महत्व देती थी, भले ही वह स्वार्थ राज्य और शक्ति के विस्तार ही क्यों न हो। ‘‘ऋग्वेद’’ तथा ‘‘अथर्ववेद’’ राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, पक्ष परिवर्तन, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के एक श्लोक में राजा के लिए आवश्यक गुण संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वधीभाव बताये गए हैं, अर्थात् राजा को आवश्यकता तथा परिस्थिति अनुसार अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मित्रता, शत्रुता, आक्रमण, उपेक्षा, संरक्षण अथवा फूट डालने का प्रयत्न करना चाहिए।

महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में उपलब्ध विशेष राजनीतिक विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ पर खरे उतरते दिखाई देते हैं। महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित ‘‘रामायण’’ में विभीषण का चरित्र एक दलबदलू के रूप में हम पाते हैं, भले ही उसने सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए अपने भाई रावण के विरुद्ध राम का साथ दिया था। वस्तुतः रावण ने विभीषण की राय कभी नहीं मानी। लंका दहन के कारण हनुमान को प्राणदण्ड दिए जाने के रावण के आदेश को रोकने का प्रास विभीषण ने किया और कहा था कि शास्त्रानुसार दूत का वध नीति विरोधी है, उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, चाहे वह कैसा ही अपराध क्यों न करे। रावण ने उसकी यह बात भी नहीं सुनी थी। अततः विभीषण ने राम का साथ देने का निर्णय लिया।

‘‘महाभारत’’ महाकाव्य तो राजनीति के सभी तत्वों का ‘‘इनसाईक्लोपीडिया’’ है। राजनीतिक प्रभुत्व पाने के लिए छल, कपट, संधि, युद्ध आदि सभी कुछ ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। एक छोटा सा उदाहरण है कि द्रोण और द्रुपद बाल्यावस्था से बहुत अच्छे मित्र थे। दोनों ने भारद्वाज आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की। एक दिन द्रुपद ने द्रोणाचार्य से कहा कि जब मैं राजा बनूंगा, तब तुम मेरे साथ रहना। मेरा राज्य, संपत्ति और सुख सब पर तुम्हारा भी मेरे समान ही अधिकार होगा। शिक्षा पूर्ण करके दोनों अपने-अपने जीवन क्षेत्र में व्यस्त हो गए। एक दिन द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा दूसरे ऋषिपुत्रों को दूध पीता देख कर दूध के लिए रोने लगा। द्रोणाचार्य के पास एक भी गाय नहीं थी। वे दूध का प्रबंध करने में असमर्थ थे। तब उन्हें द्रुपद की याद आई, जो उस समय तक राजा बन चुका था। द्रोण को लगा कि राज्य में सहभागिता की बात करने वाला द्रुपद एक गाय तो उपहार में दे ही देगा। द्रोणाचार्य ने द्रुपद को स्मरण कराया कि मैं तुम्हारे बचपन का मित्र हूं। द्रोणाचार्य की बात सुन कर राजा द्रुपद ने उनका अपमान किया और कहा कि एक राजा और एक साधारण ब्राह्मण कभी मित्र नहीं हो सकते। द्रोण अपमानित हो कर लौट आए। बाद में उन्हें कौरव व पांडवों के शिक्षक बनने का अवसर मिला। शिक्षा पूरी होने पर द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि- ‘‘तुम पांचाल देश के राजा द्रुपद को बंदी बना कर मेरे पास ले आओ। यही मेरी गुरुदक्षिणा है।’’ पहले कौरवों ने राजा द्रुपद पर आक्रमण कर उसे बंदी बनाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। बाद में पांडवों ने अर्जुन के पराक्रम से राजा द्रुपद को बंदी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के पास लेकर आए। यह राजनीति का वह चेहरा था जिसने प्रतिशोध को जन्म दिया और यही प्रतिशोध अपना आकार बदलता हुआ महाभारत के युद्ध तक जा पहुंचा। द्रुपद ने द्रोण का साथ छोड़ा क्योंकि द्रोण उस समय द्रुपद की राजसत्ता के लिए उपयोगी नहीं थे। द्रोण ने द्रुपद से राजनयिक बदला लेने का रास्ता निकाला क्योंकि दोनों के बीच तीव्र मतभेद हो चुका था।  

326 ईसा पूर्व में सिंधु नदी पार करने के बाद सिकंदर तक्षशिला पहुंचा था जिस पर राजा अम्भी शासन कर रहा था। राजा अम्भी ने सिकंदर के समक्ष आत्मसमर्पण किया और उसे बहुत सारे उपहारों के साथ सम्मानित किया और बदले में उन्होंने सिकंदर की सेना को समर्थन दिया और इस तरह उन्होंने सभी पड़ोसी शासकों - चेनूब, अबिसारा और पोरस को धोखा दिया।

कौटिल्य और राजनीति पर्यायवाची हैं। कौटिल्य का वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था। इतिहास में वह चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध है। चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य का राजगुरु तथा परामर्शदाता था। चाणक्य ने 326 ई. पू. में सिकन्दर के आक्रमण से उत्पन्न आन्तरिक अराजकता की स्थिति में मौर्य वंश के सम्राट चन्द्रगुप्त के राजनीतिक गुरु बना। चाणक्य ने प्रसिद्ध राजनीतिक पुस्तक ‘‘अर्थशास्त्र’’ लिखी। इस पुस्तक की रचना में चाणक्य का मूल उद्देश्य सशक्त राजतन्त्र के माध्यम से भारत का राजनीतिक एकीकरण करना था। ये अपने ढंग की एक ऐसी अनोखी पुस्तक है जिसे भारत की राजनीति शास्त्र की प्रथम पुस्तक कहा जा सकता है। इसमें राजनीति का विवेचन स्वतंत्र विज्ञान के रूप में दिया गया है। राज्य व्यवस्था के संचालन हेतु कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत परामर्श के आधार पर ही मौर्य शासक एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो सके थे। उसी की सहायता से चन्द्रगुप्त चक्रवर्ती सम्राट बना। मध्यांतर के इस काल में राजा को शत्रु पक्ष को दुर्बल करने के लिए गुप्तचरों के सहयोग से उनमें मतभेद पैदा करना चाहिए इस बीच शक्तिशाली राज्यों के निजी संघर्षों, संधियों अथवा गुटों के प्रति तटस्थता की नीति अपनानी चाहिए अथवा शक्तिशाली राज्य का समर्थन करना चाहिए। कौटिल्य का मत था कि यदि सम्भव हो तो दुर्बल अथवा आश्रयहीन शत्रु को आत्मसात कर, अपनी शक्ति का निरन्तर विकास करना चाहिए। इस प्रकार कौटिल्य राजा को शक्ति संतुलन की नीति को अपनाकर अपनी सुरक्षा और अपना मान तथा धन बढ़ाने का परामर्श देता है।
पक्षद्रोह या दलबदल उस समय भी देखा जा सकता है जब मुहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था। 679 ईस्वी में राजा दाहिर को पक्षद्रोहियों का दंश झेलना पड़ा था। राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के आक्रमणकारियों से लड़ते रहे। राजा दाहिर और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी थी। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी की।

भारत में धोखेबाज, देशद्रोही या फिर गद्दारी करने वाले व्यक्ति को ‘‘जयचंद’’ कहकर पुकारा जाता हैं। किसी भी राजा के लिए इससे बड़ा कलंक क्या हो सकता हैं। जबकि राजा जयचंद विद्वानों का बहुत सम्मान और सत्कार करने वाले था। अपनी वीरता, साहस, कुशल नेतृत्व और दूरदर्शिता जैसे गुणों के चलते राजा जयचंद ने कन्नौज राज्य का काफी विस्तार किया था। विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य ”नैषधमहाकाव्य” की रचना करने वाले श्रीहर्ष का आश्रयदाता जयचंद ही था। यद्यपि इतिहासकार इस कथा पर एकमत नहीं हैं फिर भी यह बहुप्रचलित है कि संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री थी और पृथ्वीराज ने संयोगिता का (उसकी सहमति से) अपहरण कर उससे विवाह किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिए जयचंद ने मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया और साथ ही वादा किया कि युद्ध के दौरान राजा जयचंद की पूरी सेना मोहम्मद गोरी का साथ देगी। जयचंद के इस कार्य को देशद्रोह के रूप में देखा जाता है।  

अंग्रेजों ने भारत में दो सौ सालों तक राज किया। यह संभव हुआ सेनापति मीर जाफर के पक्षद्रोह के कारण। अंग्रेजों ने उपमहाद्वीप में पांव पसारने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की, उस समय सन 1733 में जन्मे मिर्जा मुहम्मद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब थे और उनका सेनापति था मीर जाफर। मात्र 24 वर्षीय नवाब के आधीन रहते हुए मीर जाफर की राजनीतिक लिप्साएं अंगड़ाइयां लेने लगीं। लार्ड क्लाइव ने इसका लाभ उठाकर एक षड्यंत्र रचा जिसमें नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफर, साहूकार जगत सेठ, राय दुर्लभ तथा अमीचंद को अपने पक्ष में मिला लिया। इसका परिणाम हुआ कि मुहम्मद सिराजुद्दौला की युद्ध में पराजय हुई और बंगाल पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया।
देश के स्वतंत्रता प्रयास पक्षघातियों के कारण ही असफल होते रहे और अंग्रेजों को भारत के शासक बने रहने का एक दीर्घ काल मिला। चाहे झांसी की रानी के मारे जाने की घटना हो या बुंदेला विद्रोह में मधुकरशाह के पकड़े जाने का मामला पक्षघातियों ने ही हमेशा राजनीतिक समीकरण बदले। समय के साथ पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार, दलबदलू - इन चारों शब्दों के अर्थ राजनीतिक दृष्टि से एकरूप होते गए। फिर भी इनके अलग-अलग अर्थ याद रखना भी आवश्यक है जिससे दलबदल के वर्तमान स्वरूप को समझने में आसानी होगी-

पक्षद्रोही (हाॅस्टाईल) वह है जो अपने ही पक्ष को हानि पहुंचाने के लिए शत्रुतापूर्ण है, अमित्र एवं आक्रामक है।

पक्षघाती (टर्नकोट) वह है जो राजनीतिक दल, धार्मिक समूह आदि को छोड़कर भिन्न विचारधारा वाले समूह से जुड़ जाए या पक्ष बदल ले।

गद्दार (ट्रायटर) वह है जो किसी मित्र, देश या सिद्धांत आदि को धोखा देता है।

दलबदलू (डिफेक्टर) वह है जो अपने दल को छोड़ कर किसी दूसरे दल अथवा किसी विरोधी के पक्ष में चला जाए।

इतिहास के पन्नों पर ऐसे अनेक किस्से दर्ज़ हैं जो गद्दारी, पक्षद्रोह, दलबदल आदि की घटनाओं के उदाहरण हैं। उस समय दलबदल का परिणाम युद्ध और रक्तपात होता था, गनीमत कि अब मात्र सत्ता परिवर्तन का परिणाम ही हमारे सामने आता है।

स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने के बाद दलबदल का क्या स्वरूप रहा तथा दलबदल की कुछ बड़ी घटनाओं के बारे में अगले अध्याय में चर्चा करूंगी। उनमें वे घटनाएं भी शामिल होंगी जिन्होंने दलबदल निषेध कानून लागू किए जाने को विवश किया। यह सब पढ़िए अगली किस्त में।
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Tuesday, August 23, 2022

पुस्तक समीक्षा | इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 23.08.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि, गांधीवादी समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर के काव्य संग्रह  "ईश्वर तुम कहां हो?" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - ईश्वर तुम कहां हो?
कवि    - रघु ठाकुर
प्रकाशक - राजेंद्र प्रसाद राजन, प्रज्ञान शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थान, नई दिल्ली
मूल्य - 100/-
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    कोरोना काल में जिस दौर से मानव जाति गुजरी है और जिस तरह के हालात से वर्तमान व्यवस्थाएं गुजर रही है उसमें अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से जाग उठता है की ईश्वर है भी या नहीं? और यदि है तो वह कहां है क्या उसे ये विभीषिकाएं, ये आपदाएं, ये अव्यवस्थाएं दिखाई नहीं दे रही हैं? क्योंकि जिस समय आम जनता आपदा से जूझ रही थी, उसकी रोजी-रोटी उससे छिन रही थी और उसके अपने परिजन उसकी आंखों के सामने असमय काल का ग्रास बन रहे थे, ठीक उसी समय चंद पूंजीपतियों की संपत्ति और बैंक बैलेंस में तेजी से इजाफा हो रहा था। क्या यह असंतुलन ईश्वर को दिखाई नहीं दे रहा था? क्या यह अन्याय ईश्वर नहीं देख पा रहा था? जब यह सब कुछ घटित हो रहा था तब ईश्वर कहां था? यदि माइथोलॉजी को माने तो मनुष्यों का कष्ट दूर करने के लिए ईश्वर स्वयं धरती पर नहीं आता है वरन वह धरती पर अपना दूत भेजता है अथवा स्वयं मानव रूप में अवतार लेता है। रोचक बात यह है कि चाहे ईश्वर का दूत हो अथवा स्वयं ईश्वर मानव अवतार के रूप में धरती पर प्रकट हो, दोनों को ही मानवी जीवन के कष्ट झेलने पड़ते हैं। तो फिर ईश्वर अपने ईश्वरीय रूप में ही मनुष्य की सहायता क्यों नहीं करता है? समाज की दशा और दिशा पर चिंतन करते हुए सुपरिचित विचारक एवं कवि रघु ठाकुर ने कविताएं लिखी हैं तथा उनके नवीनतम काव्य संग्रह का नाम है- ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?‘‘

  रघु ठाकुर सुप्रसिद्ध गांधीवादी समाजवादी चिंतक हैं, जिन्होंने अपना समूचा जीवन समतामूलक समाज संरचना के लिए समर्पित कर दिया है। वे मात्र साहित्य सृजन नहीं करते हैं बल्कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के बारे में भी सोचते हैं और उसके हित में हर संभव प्रयास करते हैं। इसीलिए रघु ठाकुर की कविताएं आम आदमी की आवाज बनकर हमारे कानों में ध्वनित होती है और हमारे विचारों को निरंतर झकझोरती है। जैसा कि पुस्तक के पृष्ठ भाग में भी उनका परिचय दिया गया है कि -‘‘बचपन से युवावस्था तक और युवावस्था से लेकर अब तक उनका जीवन विचारों की क्रांति मशाल लेकर समूचे देश में अलख जगा रहे हैं और दमित-दलित तथा वंचित, पिछड़े वर्गों के अधिकारों की लड़ाई अनवरत लड़ रहे हैं। डॉ. लोहिया द्वारा प्रकाशित ‘‘जन‘‘ एवं ‘‘मैनकाइंड‘‘ में लेखन तथा श्री जॉर्ज फर्नांडिस के द्वारा प्रकाशित श्प्रतिपक्षश् एवं ‘‘द अदर साइड‘‘ के संपादन से जुड़े रहे। वर्तमान में दक्षेस महासंघ के अध्यक्ष तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संरक्षक भी हैं सुल्तानपुर से प्रकाशित ‘‘लोकतांत्रिक समाजवाद’’ मासिक समाचार पत्र के संस्थापक सदस्य रहे और संप्रति ’’दुखियावाणी’’ भोपाल के संपादक भी हैं।’’
     ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?’’ कविता संग्रह में कुल 47 कविताएं हैं। जो कि जन चेतना को जगाने की दिशा में प्रखर आह्वान के समान हैं। संग्रह की भूमिका वरिष्ठ पत्रकार एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष रह चुके श्री रामचरण जोशी ने तथा वरिष्ठ कवि ध्रुव शुक्ल ने लिखी है। रामशरण जोशी ने रघु ठाकुर के चिंतन एवं इन कविताओं की आत्मा की पड़ताल करते हुए लिखा है- ‘‘रघु जी की कविताएं बहुरंगी सामाजिक सरोकार से ओतप्रोत हैं। संयोगों की पृष्ठभूमि कवि एक्टिविस्ट को एक मौका देती है कि भारतीय गणतंत्र ने अपनी पौन सदी की यात्रा कैसे तय की है? देश के शासक वर्ग में विभिन्न स्तर के नागरिकों के साथ कैसा सलूक किया है? देश के शासक वर्ग में विभिन्न स्तर के नागरिकों के साथ कैसा सुलूक किया है? गांधी के अंतिम व्यक्ति के जीवन में कितना गुणात्मक परिवर्तन आया है? क्या वह अपनी किस्मत बदल सकता है? क्या समतावादी भारत का निर्माण हो सकता है? क्या धन, धरती और सत्ता का न्याय संगत बंटवारा किया जा सकता है? इस तरह के तमाम सवाल रघु जी की कविताओं में गुंजित होते हैं।’’
इस प्रकार ध्रुव शुक्ल ने ‘‘समाजवाद की रघुकुल रीत’’ शीर्षक से भूमिका लिखते हुए रघु ठाकुर की कविताओं पर समुचित प्रकाश डाला है वे लिखते हैं- ‘‘रघु ठाकुर अपने छात्र जीवन से ही कविता को एक आयुध की तरह बरतते रहे हैं। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा की अमिधा शक्ति को ही अपनाया है। कोई राजनेता अगर अमिधा की शक्ति को साध ले तो समाज में घर कर गए रोगों के लक्षणों को सहजता से ढंग से प्रकट कर सकता है।’’
रघु ठाकुर के काव्य संग्रह ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?’’ में संग्रहीत कविताएं विलक्षण भाव बोध उत्पन्न करती हैं। इसी शीर्षक की कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
कहते हैं ईश्वर सर्वशक्तिमान है
उन्हें तो सब कुछ करना आसान है
पर ईश्वर तब तुम कहां थे,
जब भेड़िए, दरिंदे उस अबला नारी का तन लूट रहे थे।
वे हजारों लाखों मजदूर कर्मचारी,
खदानों में खून पसीना बहाकर
पसीने से लथपथ और धुंए को नाकों में भरकर
धूल कणों को सांसो में खींच रहे थे
ईश्वर तुम तब कहां थे,
जब वे खांसते, खखारते, कफ उगलते, टीबी के बीमार बन रहे थे
परंतु इन्हीं मजबूरों के श्रम का शोषण कर
मोदी और मित्तल खरबपति बन गए
इन्हीं के पसीने से
जिंदल और अंबानी नए बादशाह  गए, ईश्वर तब तुम कहां थे?

संग्रह में एक कविता है ‘‘गरीब की आत्महत्या‘‘। इस कविता में वर्तमान में प्रचलित चुनावी परिदृश्य पर तीखा कटाक्ष किया गया है। कवि यह स्मरण कराना चाहते हैं कि नेता तो अपनी स्वार्थपरता में डूबे हुए हैं ही वही आम जनता भी अपने गढ़े हुए भ्रम में जी रही है। कविता की यह पंक्तियां विचारणीय हैं -
चुनाव की जीत हार के सट्टे पर
अरबों के दांव लगते हैं।
  गरीबों के विकास के लिए
घोषणा पत्र, दृष्टि पत्र
करोड़ों में छपते हैं
और गरीब, इलाज के अभाव में
कर्ज से भयभीत होकर
आत्महत्या करते हैं।

समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने एक कवि के रूप में अपने समाजवादी विचारों को बड़े ही सुंदर और सात्विक शब्दों में अपनी कविता ‘‘समाजवादी‘‘ में पिरोया है जिसके एक एक शब्द कवि के व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय देते हैं। कवितांश-
हम जो समाजवादी हुए
न हिंदू के रहे - न मुसलमान के रहे
न अगड़े के रहे - न पिछड़ों के रहे
न दोस्त के रहे - न दुश्मन के रहे
न अपनों के रहे - न परायों के रहे
हम जो समाजवादी हुए
बेकसी व मुफलिसी की जिंदगी जिए,
न गरीब के रहे - न अमीर के रहे
हम तो ताउम्र
सफर करते रहे।

रघु ठाकुर की यह विशेषता है कि वे सत्य कहने से कभी नहीं हिचकते हैं। उनके यही वैचारिक तेवर उनकी कविताओं में भी उभर कर सामने आते हैं, जब वे खरे
-खरे शब्दों में अव्यवस्था और राजनीतिक स्वार्थपरता को लानत भेजते हैं। इसी तारतम्य में उनकी एक छोटी कविता है ‘‘राष्ट्रवाद‘‘, कम शब्दों की किंतु व्यापक अर्थ और भावार्थ सहेजे हुए-
हवाई अड्डों को बेचा है
रेल को भी बेचेंगे
बी. एस. एन. एल. को बंद करेंगे
जीवन बीमा को बेचेंगे
खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई. लाकर वॉलमार्ट को दे देंगे,
सारे देश को बेच-बेचकर,
जय राष्ट्रवाद फिर बोलेंगे।

यूं तो संग्रह की सभी कविताएं वैचारिकता सुसंपन्न हैं और यह आशा करती हैं कि जो भी इन्हें पढ़ेगा वह कुछ पल ठिठक कर परिस्थितियों पर विचार अवश्य करेगा। ‘‘नहीं चाहिए ये अच्छे दिन‘‘ एक ऐसी ही कविता है, जो दो पल ठहर कर सोचने के लिए विवश करती है-
नहीं चाहिए ये अच्छे दिन
हमें लौटा दो बीते हुए दिन
गैस सिलेंडर छः सौ का था,
रेल का भाड़ा आधा था
इंटरनेट भी सस्ता था
देश पर कर्ज आधा था।
पहले बिजली जलती थी
अब तो बिजली जलाती है
जिस दिन बिल घर आता है
झटका तेज लगाती है......

इस संग्रह को मिलाकर 15 पुस्तकों के रचनाकार रघु ठाकुर का काव्य संसार सर्वाधिक समर्थ और अव्यक्त को व्यक्त करने वाला है। वस्तुतः रघु ठाकुर हमारे समय के उन जुझारू कवियों में से एक हैं, जिनकी कविताओं का सादा और सरल चेहरा मुखौटाहीन है। वे चटकदार रंगों में डूबे शब्दों के बजाय, आम आदमी के जीवन के धूसर शब्दों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं, इसीलिए उनकी कविताएं शब्द जाल फेंकने के बजाय सीधा संवाद करती हैं। रघु ठाकुर के इस काव्य संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए, पिकासो की विश्वविख्यात क्रांतिकारी पेंटिंग ‘‘गुएर्निका‘‘ पर कविता लिखने वाले फ्रांसीसी कवि पॉल एलुआर का यह कथन याद आता है कि ‘‘जब तक कविता जनचेतना को जगाने का काम करती रहेगी तब तक वह अपने मौलिक स्वरूप में रहेगी।‘‘ इस दृष्टि से इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है।                               
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Sunday, August 21, 2022

अपने समय से आगे की लेखिका थीं इस्मत आपा- डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रलेस की संगोष्ठी

"आज  इस्मत चुग़ताई जिनका जन्म दिन है। 21 अगस्त, 1915 को जन्मी इस्मत चुग़ताई को सभी इस्मत आपा कह कर पुकारते थे।  वे भारतीय साहित्य में एक चर्चित और सशक्त कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपनी रचनाओं में बेबाकी से रखने का जोखिम भी उठाया। पहली बात तो यह कि वे उस समुदाय से आती थीं, जहां पर्दा प्रथा ज़बर्दस्त तरीके से था । और दूसरी बात कि उन्होंने स्त्री जीवन से जुड़े उन मुद्दों को उठाया जिन पर चर्चा होने पर आज भी समाज ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवी वर्ग तक सकते में आ जाता है। इस्मत आपा ने इस सच्चाई को अपनी कहानियों के जरिए दुनिया के सामने लाया।
     इस्मत आपा अपनी कहानी  'लिहाफ'  के कारण चर्चा में आईं। गौरतलब है कि यह कहानी सन 1941 में लिखी गई थी। इस कहानी में उन्होंने महिलाओं के बीच समलैंगिकता के मुद्दे को उठाया था। उस दौर में किसी महिला के लिए ऐसी कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत आपा पर अश्लीलता का मुकद्दमा दायर किया गया।  बाद में मुकदमा वापस भी ले लिया गया।  लेकिन तमाम विरोधियों से वे न कभी डरी और न कभी दबीं। इस्मत आपा मूलतः ऊर्दू की लेखिका थीं, लेकिन हिंदी में भी उन्होंने अपनी कलम चलाई। भारतीय साहित्य में उनका स्थान एक प्रगतिशील लेखिका के रूप में सदा बना रहेगा।" अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में मैंने (यानी डॉ सुश्री शरद सिंह ने) प्रगतिशील लेखक संघ की मकरोनिया (सागर) इकाई की संगोष्ठी में विचार रखें। 
         इस संगोष्ठी में मकरोनिया इकाई के अध्यक्ष डॉ सतीश पांडेय, सागर इकाई के अध्यक्ष डॉ टीकाराम त्रिपाठी, श्री पी आर मलैया जी तथा श्री वीरेंद्र प्रधान जी ने सुविख्यात व्यंग्यकार एवं प्रगतिशील लेखक हरिशंकर परसाई के कृतित्व एवं विचारों पर समुचित प्रकाश डाला। संगोष्ठी के दूसरे सत्र में कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें श्री संतोष रोहित, डॉ सतीश पांडेय, डॉ टीकाराम त्रिपाठी, श्री वीरेंद्र प्रधान, सुश्री भावना बड़ोन्या, श्रीमती ममता भूरिया, श्री मुकेश तिवारी, श्री कंवल आदि  सहित मैंने भी काव्य पाठ किया।
भारी बारिश के बावजूद सभी साहित्यकारों की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।
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श्रीकृष्ण एक लाईफ मैनेजमेंट गुरु हैं -- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"भगवान श्रीकृष्ण और उनकी लीलाओं से तो हम आप सभी परिचित हैं। जन्माष्टमी आते हैं हम प्रसन्नता पूर्वक श्री कृष्ण का जन्मोत्सव मनाते हैं उनके बाल स्वरूप का श्रृंगार करते हैं, उन्हें झूला झूलाते हैं और यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि बालकृष्ण हमारे घर में प्रवेश कर चुके हैं। निश्चित रूप से यह एक सुखद कल्पना है। लेकिन क्या हम श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व और चरित्र के सभी पक्षों को भली भांति जानते हैं यह समझते हैं अगर नहीं तो हमें जानना और समझना चाहिए। उनके विचारों, कर्मों, कलाओं और लीलाओं पर अगर आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि श्रीकृष्ण सिर्फ एक भगवान या अवतार भर नहीं थे। इन सबसे आगे वह एक ऐसे पथ प्रदर्शक और मार्गदर्शक थे,जिनकी सार्थकता हर युग में बनी रहेगी।
      आज छल कपट भरे कारपोरेट युग में श्रीकृष्ण के उपदेश, कार्य और चरित्र हमें मार्गदर्शन देते हैं। वे एक कुशल संचालक थे। महाभारत के युद्ध के दौरान पांडवों की युद्ध संरचना ही नहीं बल्कि अर्जुन के रथ की लगाम भी कृष्ण ने ही थामी थी। उन्होंने स्वयं कोई शस्त्र नहीं उठाया था  लेकिन वे सारथी बनकर युद्ध के मैदान में उतरे थे। एक कुशल संचालक जैसे अपने कक्ष में बैठा रहता है और पूरे कारपोरेट ऑफिस का संचालन करता है, परिवार का मुखिया एक स्थान में बैठा रहता है किंतु परिवार के सभी सदस्यों को उचित सलाह देखकर वह परिवार का व्यवस्थित संचालन करता है, ठीक उसी प्रकार कृष्ण ने अर्जुन के रथ का सारथी बनकर पांडवों के युद्ध का संचालन किया और उन्हें विजय दिलाई।
          कृष्ण ने हर स्थिति में सत्य और न्याय का साथ दिया। यही बात उन्होंने अर्जुन को भी समझाई थी कि जब संघर्ष अच्छे और बुरे का हो और बुराई को मिटाना हो तो ऐसी स्थिति में संबंधों को भुला देना चाहिए। जैसे आज के समय में हम भाई- भतीजावाद के नाम से पीड़ित रहते हैं। इसी भाई भतीजावाद का प्रतिरोध किया था श्रीकृष्ण ने और कहा था कि यदि यह संबंध दोषपूर्ण है तो मिथ्या हैं, इन संबंधों के साथ में मत पड़ो।  श्री कृष्ण ने कर्म को प्रधानता दी। उन्होंने यही कहा कि फल यानी परिणाम के बारे में मत सोचो। बस कर्म करते रहो! यदि अच्छे कर्म करोगे तो अच्छा फल मिलेगा और बुरे कर्म करोगे तो बुरा फल मिलेगा।
     कृष्ण का चरित्र यह भी हमें समझाता है कि अपनी धनसंपदा, बाहुबल आदि का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, जब अति आवश्यक हो तभी इन सब चीजों को प्रस्तुत करना चाहिए।  श्रीकृष्ण ने आवश्यकता होने पर ही अर्जुन को अपने विराट रूप के दर्शन कराए थे, अन्यथा वे एक सामान्य व्यक्क्ति की भांति सबके बीच रह रहे थे। 
       श्री कृष्ण एक अवतार, एक ईश्वर के रूप में ही नहीं वरन एक लाइफ मैनेजमेंट गुरु के रूप में भी हर समय प्रासंगिक हैं। बस जरूरत है उनके विचारों और व्यक्तित्व को समझने की।" मैंने (डॉ सुश्री शरद सिंह ने) अपना अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए अपने ये विचार रखे थे कल.20.08.2022 को बुंदेलखंड हिंदी साहित्य संस्कृति विकास मंच सागर द्वारा 1440 वी एवं आन लाईन स्वरूप 118 वी साप्ताहिक संगोष्ठी में।     
          श्री मणीकांत चौबे  बेलिहाज  प्रांतीय संयोजक के निर्देशन में मध्य प्रदेश के अलावा देश के विभिन्न प्रांतों नई दिल्ली,यू पी,गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान,झारखंड  के साहित्य मनीषियों ने अपना रचना पाठ किया । कार्यक्रम का संचालन किया कवि एवं कुशल संचालक डॉ नलिन जैन ने। श्री कृष्ण कांत पक्षी के संरक्षण में निरंतर आयोजित हो रहे आयोजनों के तारतम्य में कल के इस आयोजन में आभार प्रदर्शन किया एडवोकेट राधाकृष्ण व्यास ने।
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