Wednesday, April 14, 2021

चर्चा प्लस | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : व्यंजन-परंपरा | डाॅ. शरद सिंह


चर्चा प्लस        
 बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : व्यंजन-परंपरा
         - डाॅ. शरद सिंह                                                                 
      हमारी परंपराएं हमें संस्कार देती हैं। खान-पान की परंपरा हमें खाद्य-अखाद्य और कब क्या खाना चाहिए, इस बात का बोध कराती हैं। बुंदेलखंड की व्यंजन-परंपरा बहुत समृद्ध है किन्तु बर्गर, पिज्जा, चाउमिन ने इस पर भी अपना दुष्प्रभाव डाला है। बुंदेलखंड में परंपराओं पर छाए संकट के क्रम में इस बार ‘‘चर्चा प्लस’’ में चर्चा कर रही हूं बदलती व्यंजन-परंपरा की ।
कोरोना आपदा के पहले भोपाल एक माॅल के ‘फूडजोन’ में यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ था कि वहां पारंपरिक बुंदेली व्यंजनों का भी एक ‘काॅर्नर’ है। उसके बाद झांसी के में भी बुंदेली फूड जोन काॅर्नर देखने को मिला। संयोगवश उन्हीं दिनों ‘इपिक चैनल’ के प्रसिद्ध टीवी शो ‘नाॅदर्न फ्लेवर’ में बुंदेली शादियों में बनाए जाने वाले पारंपरिक व्यजनों पर एक कार्यक्रम देखा जिसमें ‘सिंदोरा-सिंदोरी’ जैसे व्यंजन बनाने की विधि बताई गई थी। इन सबको देख कर मुझे वो दिन याद आ गए जब बचपन में मैं बिरचुन यानी सूखे बेर का चूरा खाती हुई इंद्रजाल काॅमिक्स पढ़ा करती थी। स्वादानुसार नमक या शक्कर डाल कर बेरचुन का गाढ़ा घोल भी बनाया जाता था। मेरी मां खाना बनाने वाली महराजिन ‘बऊ’ के साथ मिलकर छुट्टी के दिन खुरमा-पपड़ियां बनाया करती थीं। महीनों तक रखे जा सकने वाले खुरमा-पपड़िया को हम बच्चों से बचा कर रखने के लिए ढेर सारे जतन करने पड़ते थे मां को। उन दिनों लपटा और लप्सी भी हमारी जबान पर चढ़ा हुआ था। चीले की फरमाईश तो आए दिन होती थी। गुड़ डले हुए गुलगुलों का स्वाद कभी भुलाया नहीं जा सकता है। मेरे बचपन के समय इतनी मंहगाई नहीं थी। चार की चिरौंजी सस्ती मिलती थी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि गुलगुलों में चिंरौंजियां भी डाली जाती थीं। पारंपरिक व्यंजनों का यह शौक मुझे अपनी मां से विरासत में मिला। लेकिन अब इस व्यस्त ज़िन्दगी में ऐसे बहुत कम अवसर आते हैं जब घर में कोई विशेष पारंपरिक व्यंजन बन पाता हो। रिश्तेदारों एवं परिचितों के बच्चे तो पिज्जा, बर्गर, नूडल्स और चाउमिन पर फ़िदा रहते हैं। रहा शादी-विवाह के समारोहों का सवाल तो वहां भी बुंदेली छोड़ कर विभिन्न प्रांतों के व्यंजनों के स्टाॅल लगे होते हैं, गोया बुंदेली व्यंजन रोज घरों पर बन रहे हों। यही कारण है कि बुंदेलखण्ड के पारंपरिक व्यंजन घर से बेघर होते जा रहे हैं।


ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड के पारंपरिक व्यंजनों का कोई मौसमी नियम ही न हो। किस मौसम में क्या खाया जाना चाहिए, इसका निर्देश साहित्य तक में मिलता है। जैसे -
चैते गुड, वैसाखे तेल, जेठे पंथ, अषाढ़े बेल
साउन साग, भादौं दही, क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना, माघै मिसरी, फागुन चना
जो यह बारह देई बचाय, ता घर वैद कभऊं नइं जाए।।

अर्थात चैत्र मास में गुड़ का सेवन करना अहितकर है, क्योंकि नया गुड़ कफकारी होता है। वैशाख में गर्मी की प्रखरता रहती है, तेल की प्रकृति गर्म होती है इसलिए हानिकारक है। ज्येष्ठ मास में गर्मी की भीषणता रहती है अतः हल्का, सुपाच्य भोजन लेना चाहिए। आषाढ मास में बेल का सेवन नहीं करना चाहिए। और भाद्रपद में दही पित्त को कुपित करता है। आश्विन में करेला पककर पित्तकारक हो जाता है, अतएव हानिकर सिद्ध होता है। कार्तिक मास, जो कि वर्षा और शीत ऋतु का संधिस्थल है,  उसमें पित्त का कोप और कफ का संचय होता है और मही यानी मट्ठे से शरीर में कफ बढता है, इसलिए त्याज्य है. अगहन में सर्दी अधिक होती है, जीरा की तासीर भी शीतकारक है, इसलिए इससे बचना चाहिए। पौष मास में धनिया, माघ में मिसरी और फाल्गुन में चना खाना उचित नहीं होता है। इनको ध्यान में रखकर जो मनुष्य खान-पान में सावधानी रखते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं, उनको कभी डाक्टर-वैद्य की आवश्यकता नहीं पडती।


सावन हर्रै भादों चीत। क्वार मास गुड़ खायउ मीत।।

कातिक मूली अगहन तेल। पूस में करै दूध से मेल।।

माघ मास घिउ खींचरी खाय। फागुन उठि के प्रात नहाय।।

चैत मास में नीम बेसहनी। बैसाके में खाय जड़हनी।।

          अर्थात् सावन मास में हर्रै, भादों मास में चिरायता, क्वार मास में गुड़ कार्तिक में मूली, अगहन में तेल, पौष मास में दूध, माघ मास में घी और खिचड़ी, फागुन मास में प्रातः स्नान, चैत मास में नीम का सेवन, वैशाख मास में जड़हन का भात खाना चाहिए। अब इस तरह का खान-पान चलन से बाहर होता जा रहा है और इन कहावतों के बारे में भी कम ही लोगों को ज्ञान है।

  

रहा पारंपरिक व्यंजनों का प्रश्न तो, पूड़ी के लड्डुओं का स्वाद वह कभी नहीं भूल सकता है जिसने उन्हें अपने जीवन में एक भी बार खाया हो। ये त्यौहारों बनाए जाते हैं। (चूंकि ‘थे’ लिखने में अंतस कचोटता है अतः मैं ‘है’ ही लिखूंगी) बेसन की बड़ी एवं मोटी पूड़ियां तेल में सेंककर हाथों से बारीक मीड़ी जाती है। फिर उन्हें चलनी से छानकर थोड़े से घी में भूना जाता है। उसके बाद शक्कर या गुड़ डाल कर हाथों से बांधा जाता है। स्वाद बढ़ाने के लिए कालीमिर्च अथवा इलायची भी डाल दी जाती है। इसी तरह है हिंगोरा। बिना मठे की बेसन की कढ़ी जिसमें हींग का तड़का लगाया जाता है। आंवरिया भी इसी श्रेणी का एक व्यंजन है। आंवरिया अर्थात् आंवले की कढ़ी। इसमें सूखे आंवलों की कलियों को तेल में भूनकर सिल पर पीस लिया जाता है। फिर बेसन को पानी में घोलकर किसी बर्तन में चूल्हे पर चढ़ा देते हैं और कढ़ी पक जाने पर, चूल्हे से उतारने के पहले इसमें आंवलों का चूर्ण और नमक डाल देते हैं। इच्छानुसार इसमें लाल मिर्च, जीरा, प्याज एवं लहसुन आदि भी पीस कर डाला जाता है। फरा भी एक पारंपरिक बुंदेली व्यंजन है। इसमें गेहूं के आटे को मांड़ कर छोटी-छोटी पूड़िया बेल ली जाती हैं फिर इन्हें खौलते हुए पानी में सेंका जाता है। बफौरी, मीड़ा, निघौना, रस खीर, बेसन के आलू, फरा, अद्रेनी, थोपा, पूड़ी के लडडू, महेरी या महेई, करार, मांडे, एरसे या आंसे, लपटा, हिंगोरा, आंवरिया, ठोमर, ठड़ूला, डुबरी, कचूमर, कुम्हड़े की खीर, गुना, खाकड़ा, लप्सी, रसाजें, खींच, बिरचून, लुचई, गकरिआ, पपड़िया, टिक्कड़, बरी, बिजौरा, कचरिया, खुरमा-खुरमी, बतियां आदि अनेक ऐसे व्यंजन हैं जो बुंदेली रसोई के अभिन्न अंग हुआ करते थे किंतु अब ये इतालवी या चाइनीज़ फूड तले दबते जा रहे हैं। जबकि इनमें से अनेक ऐसे व्यंजन हैं जो ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।


यूं तो हमारे देश में व्यंजनों की संख्या का निर्धारण आमतौर पर छप्पन प्रकार के व्यंजनों के रूप में किया जाता है, किंतु बुंदेलखंड में सौ से भी अधिक प्रकार के व्यंजन बनाए जाते रहे हैं। दुख तो तब होता है जब इन व्यंजनों में से कुछ को ‘स्ट्रीट फूड’ की श्रेणी में गिना जाता है। जो बुंदेली रसोईघर के राजा-रानी हुआ करते थे वे आज ‘स्ट्रीट फूड’ के रूप में बिकते हैं। यही है बाज़ारवाद का चमत्कार जिसने पारंपरिक व्यंजनों को घरों से बेघर कर के माॅल के आलीशान फूडजोन में पहुंचा दिया है जहां इनमें से कुछ व्यंजनों का अस्तित्व तो बचा हुआ है लेकिन दस रुपए के सामान को सौ रूपए में खरीद कर यह झूठा गुमान भी पालने का शगल आ गया है कि हम अपने पारंपरिक व्यंजनों को लुप्त होने से बचा रहे हैं। यद्यपि बुंदेलखंड में आयोजित किए जाने वाले बुंदेली उत्सव इन पारंपरिक व्यंजनों को पुनः चलन में लाने में अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं तथा साहित्यकार पारंपरिक बुंदेली व्यंजनों को पुस्तकाकार सहेज भी रहे हैं किंतु ये तभी चलन में लौट सकते हैं जब ये एक बार फिर हर घर की रसोई का हिस्सा बन जाएं। (क्रमशः)
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(दैनिक सागर दिनकर 14.04 .2021 को प्रकाशित)
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Wednesday, April 7, 2021

चर्चा प्लस - बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : त्योहार-परंपरा - डाॅ. शरद सिंह

चर्चा प्लस        
बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : त्योहार-परंपरा                   
     - डाॅ. शरद सिंह                              
          जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक है। परिवर्तन गतिशीलता का द्योतक होता है लेकिन स्वस्थ परंपराओं में परिवर्तन क्षेत्र की जातीय पहचान को संकट में डाल देता है। युवा पीढ़ी ऐसे कई पारंपरिक त्योहारों से दूर होती जा रही है जिनका जीवन, पर्यावरण और संस्कारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बुंदेलखंड में परंपराओं पर छाए संकट के क्रम में इस बार ‘‘चर्चा प्लस’’ में चर्चा कर रही हूं बदलती त्योहार-परंपरा की।
बुंदेलखंड में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हें बड़े-बूढ़े, औरत, बच्चे सभी मिलकर मनाते हैं। लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ बेटियां ही मनाती हैं, विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं। ऐसा ही एक त्यौहार है मामुलिया। बड़ा ही रोचक, बड़ा ही लुभावना है यह त्यौहार। यह जहां एक और बुंदेली संस्कृति को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर भोली भाली कन्याओं के मन के उत्साह को प्रकट करता है। दरअसल मामुलिया बुंदेली संस्कृति का एक उत्सवी-प्रतीक है। आज के दौड़-धूप के जीवन में जब बेटियां पढ़ाई और अपने भविष्य को संवारने के प्रति पूर्ण रूप से जुटी रहती है उनसे कहीं सांस्कृतिक लोक परंपराएं छूटती जा रही है मामुलिया का भी चलन घटना स्वाभाविक है। आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया। यूं तो मामुलिया मुख्य रूप से क्वांर मास में मनाया जाता है। इस त्यौहार में अलग-अलग दिन किसी एक के घर मामुलिया सजाई जाती है। जिसके घर मामुलिया सजाई जाने होती है, वह बालिका अन्य बालिकाओं को अपने घर निमंत्रण देती है। सभी बालिकाओं के इकट्ठे हो जाने के बाद वे बबूल या बेर के कांटों में रंग-बिरंगे फूल लगा कर उसे सजातीं हैं। यही सजी हुई शाख मामुलिया कहलाती है। मामुलिया को सजाने के बाद भुने चने, ज्वार की लाई, केला, खीरा आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके बाद बालिकाएं हाथों में हाथ डालकर मामुलिया के चारों ओर घूमती हुई गाती है-‘‘झमक चली मोरी मामुलिया....’’। इस प्रकार गांव भर में घूमती हुई बालिकाएं नदी अथवा तालाब के किनारे पहुंचती हैं। वे मामुलिया को नदी या तालाब में सिरा देती हैं। मामुलिया सिरा कर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखने से भूत लग जाता है। घर लौटने पर वह बालिका जिसके घर मामुलिया सजाई गई थी, शेष बालिकाओं को भीगे चने का न्योता देती है। मामुलिया बेटियों के पारस्परिक बहनापे का भी त्यौहार है। इस त्यौहार में बड़ों का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है अतः इससे बेटियों में सब कुछ खुद करने का आत्मविश्वास और कौशल बढ़ता है। इस प्रकार के त्यौहारों को उत्सवी आयोजन के रूप में मनाते हुए बचाया जा सकता है। जैसे दिसम्बर 2012 में झांसी महोत्सव में भी मामुलिया सजाने की प्रतियोगिता करा कर बेटियों को मामुलिया के बारे में जानकारी दी गई थी। इसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को हमीरपुर आदिवासी डेरा में ‘बेटी क्लब’ द्वारा लोक परंपरा का खेल मामुलिया और सुअटा खेला गया।  इसका संरक्षण आवश्यक है। क्योंकि यह परंपरा बेटियों के सम्मान के लिए बनाई गई है। ग्राम बसारी, हटा आदि लोकोसत्वों में भी मामुलिया जैसी परम्पराओं पर ध्यान दिया जाता है किन्तु जरूरी है शहरी जीवन को इन रोचक परम्पराओं से जोड़ना।

दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चौक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। आज भी वे दीपावली पर पूछती हैं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।

दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के  चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।  (क्रमशः)
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(दैनिक सागर दिनकर 07.04 .2021 को प्रकाशित)
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Thursday, April 1, 2021

चर्चा प्लस | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : सिमटते खेल | डाॅ. शरद सिंह

चर्चा प्लस        
   बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : सिमटते खेल                
           - डाॅ. शरद सिंह
    बुंदेलखंड की संस्कृति परंपराओं की धनी है लेकिन जीवन की आधुनिक शैली ने इसकी स्वस्थ परंपराओं को भी ग्रहण लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कई बुंदेली परंपराएं आज अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। खेल, त्योहार, व्यंजन, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकनाट्य आदि की परंपराएं प्रत्येक क्षेत्र के लोकाचार को दर्शाती हैं। बुंदेलखंड में परंपराओं पर छाए संकट पर ‘‘चर्चा प्लस’’ में क्रमशः चर्चा करूंगी। तो इस बार के चर्चाप्लस में कर रही हूं संकटग्रस्त खेलों की चर्चा।
बुंदेलखंड में भी ऐसी अनेक परंपराएं हैं जो इस क्षेत्र की विशेषताओं को दर्शाती हैं। लेकिन आधुनिक जीवन शैली में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ने इन परंपराओं का समय छीन लिया है। अब परिवार के सदस्य काना-दुआ, सोलह गोटी खेलने अथवा लोकनाट्य देखने के बजाए सोशल मीडिया पर समय बिताना अधिक पसंद करते हैं। बेशक सोशल मीडिया का अपना अलग महत्व है लेकिन अपनी स्वस्थ परंपराओं को जीवित रखना भी ज़रूरी है, भले ही यह एक अनुष्ठान की तरह ही क्यों न हो।     
 
बुंदेलखंड में आज से पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक विद्यालयों में ग्रीष्मावकाश होना बच्चों के लिए किसी महा-उत्सव से कम नहीं होता था। वार्षिक परीक्षा के दौरान भी एक उत्साह मन में कुलबुलाता रहता था कि इस बार छुट्टियों में कहां जाना है और कितना खेलना है। एक मई से 30 जून तक होेने वाले ग्रीष्मावकाश में खेलों की बाढ़ आ जाती थी। जिनको घर से बाहर निकल कर खेलने की अनुमति रहती वे गिल्ली-डंडा, पिट्टू जैसे खेल खेलते। जिन्हें घर के भीतर रह कर खेलने को मिल पाता वे चपेटा, काना दुआ, सोलह गोटी, बग्गा, लंगड़ी धप्पा जैसे खेल खेलते। इन खेलों को खेलने के लिए उन्हें कहीं जा कर प्रशिक्षण प्राप्त नहीं करना पड़ता था। वे सहज प्रवृति से इन खेलों को खेलते। इन खेलों के दौरान बच्चों के बीच परस्पर प्रेम भी बढ़ता और कभी-कभी छोटे-मोटे झगड़े भी होते जो दूसरे दिन तक स्वयं ही समाप्त हो जाते। अब स्थितियां बदल चुकी हैं। अब बच्चों के परीक्षा परिणाम मेरिट के ‘कटआॅफ’ पर टिके होते हैं। गरमी की छुट्टियां बाद में होती हैं, अगली कक्षा में दाखिला पहले हो जाता है। जिससे उनकी छुट्टियां पढ़ाई के बोझ से मुक्त नहीं हो पाती हैं। उस पर ‘समर कैम्प’ और ‘स्किल डेव्हलपमेंट क्लासेस’, ‘ग्रूमिंग क्लासेस’ ‘काम्पिटीशन क्रैश कोर्स’ आदि नाना प्रकार के शैक्षणिक कैम्प तथा कोर्स रहते हैं जिनमें शिक्षा ग्रहण करते हुए बच्चा ‘क्लासरूम इफैक्ट’ से मुक्त नहीं हो पाते हैं। वे पाश्चात्य ज्ञान भले ही अर्जित कर लें किन्तु अपनी परम्पराओं का ज्ञान उन्हें नहीं मिल पाता है और न ही स्वतः करने की उनकी स्किल  का विकास हो पाता है। जबकि पारंपरिक खेल बच्चों द्वारा ही ईजाद किए जाते रहे हैं और उनमें संशोधन, परिवर्द्धन भी बच्चों द्वारा ही किया जाता रहा ।

बुन्देली लोकसंस्कृति भी जीवन के अनुरुप मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने में सक्षम रही है। इस तथ्य का एक उदाहरण उन खेलों को के रूप में देखा जा सकता है जिन्हें बालिकाएं सहज भाव से बड़ी रूचि के साथ खेलती बुन्देली बालिकाएं जिन खेलों को खेलती हैं उन पर बारीकी से ध्यान दिया जाए तो उन खेलों की उपादेयता का पता चलता है। ये खेल अंतः क्रीड़ा (इनडोर गेम) तथा बर्हिक्रीड़ा (आउटडोर गेम) दोनों तरह के होते थे। जिन खेलों को कमरे, आन्तरिक आंगन, छज्जे, अटारी अथवा छत पर खेला जा सकता है वे इनडोर गेम की श्रेणी में आते थे। इसके विपरीत जिन खेलों को बाहरी आंगन, मैदानों, खलिहान के परिसर में खेला जाता था वे आउटडोर गेम कहलाते। 
बुन्देलखण्ड बालिकाओं में जो खेल अधिक लोकप्रिय हैं तथा परम्परागत रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रवाहित होते आ रहे हैं, वे हैं- चपेटा, काना दुआ, सोलह गोटी, बग्गा, लंगड़ी धप्पा अथवा गपई समुद्र, गुंइयां बट्ट, घोर-घोर रानी, घोड़ा पादाम साईं, रस्सी-कूद, अंगुल-बित्ता, रोटी-पन्ना, पुतरा-पुतरियां, छिल-छिलाव, आंख-मिंचउव्वल, लंगड़ी छुआउल, छुक-छुक दाना आदि। देश की स्वतंत्रता के पूर्व सुरक्षा की दृष्टि से बुंदेलखंड में बालिकाओं को घर से बाहर कम ही जाने दिया जाता था तथा देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी बुन्देलखण्ड में विकास की दर अपेक्षाकृत धीमी रही। ऐसी स्थिति में स्वप्रेरित खेलों ने उनके जीवन को मनोरंजन के साथ-साथ सुदृढ़ता प्रदान की। 

बुंदेली खेलों में चपेटा, काना दुआ, सोलह गोटी, बग्गा जैसे खेल संकटों को दूर कर के उन पर विजय पाने का साहस और कौशल बढ़ाते तो वहीं लंगड़ी धप्पा अथवा गपई समुद्र,  घोड़ा पादाम साईं, रस्सी-कूद, अंगुल-बित्ता, छिल-छिलाव, आंख-मिंचउव्वल, लंगड़ी छुआउल जैसे खेल शारीरिक संतुलन के साथ-साथ व्यायाम और आपसी सामंजस्य की शिक्षा देते। घोर-घोर रानी जैसे खेल अन्याय का विरोध करना सिखाते। वहीं छुक-छुक दाना जैसे खेल छल-कपट के प्रति सचेत रहने की चेतना जगाते। रोटी-पन्ना, पुतरा-पुतरियां जैसे खेल गृहस्थ जीवन, पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के प्रति सम्वेदनशील बनाते। इस प्रकार बुन्देली बालिकाओं के जीवन में पारम्परिक खेल जीवन के पाठ की भूमिका निभाते हैं।

बालकों में गिल्ली-डंडा, कबड्डी, कुश्ती लोकप्रिय रही। लेकिन आज बालक-बालिकाओं दोनों के हाथों में मनोरंजन के इलेक्ट्राॅनिक उपकरण आ जाने से उन पारंपरिक खेलों से वे दूर होते जा रहे हैं जो उनमें शारीरिक क्षमता का विकास करते तथा आपसी सहयोग भावना को बढ़ाते। अब तो हाथों में झेंगाबाॅक्स का रिमोट अथवा मोबाईल का स्क्रीन होता है और होता है अकेले रहने का जुनून। इस जुनून को पबजी जैसे खेल बढ़ावा दे कर मौत के मुंह तक पहुंचा देते हैं। बुंदेलखंड के बच्चे तो अब अपने पारम्परिक खेलों को ठीक से जानते ही नहीं हैं। यह दशा शहरों में ही नहीं गंावों में भी हो चली है। गिल्ली-डंडा की जगह क्रिकेट ने ले रखा है। अब पढ़ने वाले लड़के कंचे नहीं खेलते। लड़कियां भी चपेटा खेलने के बदले चैटिंग करने में रमी रहती हैं। यही कारण है कि जहंा एक ओर पारंपरिक खेल दम तोड़ रहे हैं वहीं बच्चों की स्वाभाविकता, मासूमियत और खिलंदड़ापन गुम होता जा रहा है। फिज़िकल फिटनेस के लिए पैसे दे कर जुंबा और जिम में भर्ती होने में शान समझा जाता है।   
   
फिर भी कुछ लोग हैं जो बुंदेलखंड के पारम्परिक खेलों को बचाने का उल्लेखनीय प्रयास कर रहे हैं। छतरपुर जिले के ग्राम बसारी में डाॅ. बहादुर सिंह परमार के अथक प्रयासों से विगत 22 वर्ष से लगातार बुंदेली उत्सव का आयोजन किया रहा है। खजुराहो के निकट होने के कारण इस उत्सव का आनंद लेने न केवल स्वदेशी अपितु विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं। बुंदेली खेलों को सहेजने की दिशा में इस उत्सव में बुंदेली खेल प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं। ऐसा ही एक बुंदेली उत्सव दमोह जिले की हटा तहसील में भी होता है। इस उत्सव में भी बुंदेली खेलकूद प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं। झांसी, हटा आदि स्थानों में भी बुंदेली उत्सव मनाया जाता है। डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय में आयोजित गौर गौरव उत्सव में भी बुंदेली खेल आयोजित किए गए थे। ये खेल थे-गिल्ली-डंडा, पिट्टू, काना-दुआ, कुश्ती, कबड्डी, गिप्पी आदि। इस तरह के प्रयास देख कर अवश्य लगता है कि अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं जो विलुप्त होते बुंदेली खेलों के आत्र्तनाद को सुन रहे हैं और उसके अस्तित्व को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। किन्तु खेलों का सीधा संबंध बच्चों से होता है और जब तक बच्चों को इन खेलों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इन खेलों की दीर्घजीविता खतरे में रहेगी। (क्रमशः)
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(दैनिक सागर दिनकर 01.04 .2021 को प्रकाशित)
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