Thursday, December 29, 2016

चर्चा प्लस ... भावावेश से कैशलेस तक 2016 का सफ़र ... - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
वक़्त आएगा, वक़्त जाएगा, कुछ निशानात छोड़ जाएगा।
हर नए साल से उमीदें हों, जाने वाला यही सिखाएगा।


" भावावेश से #कैशलेस तक 2016 का सफ़र" - मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 29.12. 2016) .....My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 

चर्चा प्लस
भावावेश से कैशलेस तक 2016 का सफ़र
- डॉ. शरद सिंह
यूं तो कलेण्डर के पन्ने बदलते हैं और तारीखें बदल जाती हैं लेकिन कभी-कभी यही तारीखें इतिहास बना जाती हैं। सन् 2016 में कई ऐसी तारीखें आईं जिन्होंने इतिहास रच दिया। इस वर्ष ने भावनाओं से उफनते ऐसे पल देखे जब आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े लेकिन वहीं कुछ पल ऐसे भी आए जब माथे पर चिन्ता की गहरी लकीरें खि्ांच गईं। सिंहस्थ से ओलम्पिक तक और सर्जिकल स्ट्राईक से 500-1000 के पुराने नोटों की विदाई तक। इसी वर्ष में आर्थिक जगत में एक लम्बी छलांग लगाते हुए कैशलेस इकॉनॉमी की ओर देखने लगे हैं। याद रहेगा भावावेश से कैशलेस तक वर्ष 2016 का सफ़र। 

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
 सन् 2016 अनेक उल्लेखनीय घटनाओं से भरा रहा। मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक तीर्थस्थल उज्जैन में 22 अप्रैल से 21 मई 2016 तक सिंहस्थ का आयोजन किया गया। जिसने सिद्ध कर दिया कि भारतीय सभ्यता व संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हें समाप्त करना दुनिया के किसी भी राजनीतिक संगठन, धार्मिक कट्टरपंथियों अथवा आतंकियों के बस की बात नहीं है। वर्ष 2016 में ही रियो ओलम्पिक का आयोजन हुआ जिसमें भारत की ओर से 119 खिलाड़ियों का दल भेजा गया। जिसमें भारत को सिर्फ 2 मेडल मिले। पी.वी. सिंधू (सिल्वर) और साक्षी मलिक (ब्रांज) ही मेडल जीत पाईं। इन दोनों खिलाड़ियों ने साबित कर दिया कि भारत की बेटियां खेल में किसी से कम नहीं हैं। इस साल किसी भी भारतीय पुरुष खिलाड़ी को मेडल नहीं मिला। दो मेडल के साथ भारत को ओलंपिक की मेडल लिस्ट में 67वां स्थान मिला। निश्चित रूप से ये दोनों घटनाएं न केवल ऐतिहासिक थीं बल्कि भावनात्मक भी थीं। इन दोनों घटनाओं ने भारतीय संस्कृति एवं देशप्रेम की अनूठी तस्वीरें पेश कीं। पैरा आलम्पिक में भी भारत की ओर से एक बेटी ने इतिहास रचा। महिलाओं की शॉट पुट स्पर्धा में दीपा मलिक ने भारत को सिल्वर मेडल जीत कर सबको दिखा दिया कि शारीरिक विकलांगता भारतीय बेटी को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती है।
एक और ऐसी घटना जिसने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत का सिर ऊंचा कर दिया और मानवसेवा के प्रति समर्पण को सम्मान दिलाया। भारत को अपना जीवन समर्पित करने वाली सिस्टर टेरेसा को वैटिकन में पोप फ्रांसिस ने संत घोषित किया और वे कैथोलिक ईसाइयों के लिए सारी दुनिया में आदरणीय बन गईं। यद्यपि भारत तो उन्हें पहले से ही ‘‘भारतरत्न’’ घोषित कर चुका था लेकिन 6 सितंबर 2016 को ईसाई परंपराओं के अनुसार विश्व के प्रमुख लोगों की मौजूदगी में वैटिकन ने मदर टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित किया। इस समारोह में 13 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के अलावा भारतीय प्रतिनिधि भी मौजूद थे।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यू ंतो बहुत सी घटनाएं घटीं जिनमें क्यूबा के महान नेता फीदेल कास्त्रो के निधन से ले कर अलप्पो में नरसंहार तक है लेकिन एक सुखद घटना यह रही कि बोको हराम ने अप्रैल 2014 में जिन लड़कियों को चिबॉक शहर स्थित उनके स्कूल से अगवा कर लिया था उन्हें स्विट्ज़रलैंड और अंतरराष्ट्रीय रेडक्रॉस समिति के बीच इसी साल अक्तूबर में हुए एक समझौते के बाद रिहा कर दिया गया। जिन 20 से ज़्यादा नाइजीरियाई चिबॉक लड़कियों को इस्लामी गुट बोको हराम ने अक्तूबर, 2016 में छोड़ा था, उन्हें अपने परिवारों के साथ क्रिसमस मनाने का अवसर मिला और इसके साथ उनके जीवन का एक दुःस्वप्न समाप्त हुआ।
आतंक और देश की सीमाओं पर किए जाने वाले अतिक्रमण के विरुद्ध भारतीय सेना ने एक बड़ा एवं कठोर कदम उठाया और भारत तथा पाकिस्तान की सीमा पर घुसपैंठ एवं गोलीबारी के जवाब में सशस्त्र सर्जिकल स्ट्राई कर दी। भारतीय सेना के इस कदम ने दुनिया को जता दिया कि भारत अपनी सीमाओं की रक्षा करना जानता है। यह भी देशवासियों को भावुक कर देने वाली घटना थी। इस घटना ने देशवासियों के हृदय में अपने देश के प्रति प्रेम को और गहरा कर दिया। सोशल मीडिया पर भारतीय सेना के इस कदम के समर्थन की बाढ़ आ गई।
इसके बाद एक और सर्जिकल स्ट्राईक की गई जिसने समूचे भारतीय अर्थतंत्र को हिला कर रख दिया। नवम्बर माह की आठ तारीख को प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 कें पुराने नोट बंद किए जाने की घोषणा की। उस रात देशवासियों की आंखों से नींद उड़ गई। पुराने नोटों को बैंकों में जमा कराने, बदलने और नई करेंसी निकालने का संघर्ष आरम्भ हो गया। कालेधन के विरुद्ध की गई इस सर्जिकल स्ट्राईक को जनसमर्थन मिला। इसके बाद अर्थजगत को एक और भविष्य का रास्ता दिखाया गया। यह रास्ता था कैशलेस इकॉनॉमी का। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारतीय आर्थिक जगत कैशलेस इकॉनॉमी के साथ किस सीमा तक तालमेल बिठा पाता है। लेकिन इतना तो तय है कि अब प्रत्येक नागरिक साईबर दुनिया के नजदीक होता जा रहा है चाहे स्वेच्छा से या फिर मजबूर हो कर। देश की जनता ही नहीं, वैश्विक जगत ने भी नहीं सोचा था कि एक रात अचानक लगभग साढ़े तीन घंटे की अवधि में भारतीय मुद्रा की दो महत्वपूर्ण इकाइयां रद्दी के टुकड़े में बदल जाएंगी। यह एक इतना बड़ा निर्णय था जिसने सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया। भारत विपुल जनसंख्या का देश है और यहां वास्तविक साक्षरता का प्रतिशत भी विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है। ऐसे में ‘लिक्विड मनी’ की ओर तेजी से क़दम बढ़ाना किसी जोखिम से कम नहीं है। दफ़्तर के झगड़े, घरेलू पचड़े इन सब को भूल कर आमजन बैंकों के, एटीएम के दरवाज़ों पर कतारबद्ध हो गए। हज़ार और पांच सौ के पुराने नोट जमा करा देने के बाद पचास, बीस और दस के नोट इतनी संख्या में किसी के पास भी नहीं बचे कि वह दो-तीन महीने के लिए आश्वस्त हो सके। कालाधन बाहर आने के उत्साह के बीच घबराहट और तनाव का माहौल।
पर्यावरण परिवर्तन की चिन्ता में डालने वाली आहटें वर्ष 2016 में भी सुनाई दीं। देश की राजधानी दिल्ली को अपनी चपेट में ले लेने वाले स्मोग ने प्रदूषण के प्रति सचेत करने की कोशिश की।
स्टीफन हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि पृथ्वी का भविष्य संकट में है और मानवजाति का जीवन लगभग एक हज़ार साल का बचा है। सुनने-पढ़ने में यह किसी साई-फाई फिक्शन जैसा लगता है। इसमें कोई शक़ नहीं कि मनुष्य ने कुछ सार्थक परिवर्तन किए और प्रागैतिहासिक जीवन से आगे बढ़ कर सभ्यताओं के सोपान पा लिए। लेकिन कुछ घातक परिवर्तन भी किए जैसे खनिज संपदा का अधैर्यपूर्ण दोहन, जंगलों की कटाई और वायु में ज़हरीली गैसों का निरंतर निष्पादन। किसने सोचा था कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर मापने की क्षमता से भी कहीं अधिक पाया जाएगा। शाम होते-होते धुंधलका छा जाना कई वर्षोंं से दिल्ली के लिए आम बात रही है। सभी ने इसे लगभग अनदेखा किया। देश की राजधानी दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में छाई धुंध ने जता दिया कि हम अपनी सांसों के प्रति कितने लापरवाह हैं। मगर इस स्थिति को बदला अथवा कुछ आगे भी बढ़ाया जा सकता है यदि हम अभी भी चेत जाएं और पर्यावरण के प्रति खुद की लापरवाहियों के विरुद्ध कुछ कठोर क़दम उठाएं।
वर्ष 2016 में साहित्य और कलाजगत के महत्वपूर्ण दिग्गजों को हमने खोया। जिनमें से 28 अगस्त को पुष्पपाल सिंह, 14 सितम्बर को जगदीश चतुर्वेदी, 25 सितम्बर को गोपाल राय और 28 सितम्बर को कवि वीरेन डंगवाल हमसे सहसा बिछुड़े। कालजयी कृति ‘हज़ार चौरासी की मां’ की लेखिका महाश्वेता देवी का देहावसान साहित्यजगत को स्तब्ध कर गया। जनजातीय समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उन्हीं के शब्दों में ‘‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी।’’ उनके उपन्यास गहन शोध पर आधारित रहे। 1956 में प्रकाशित अपने पहले उपन्यास ‘झांसीर रानी’ की तथ्यात्मक सामग्री जुटाने के लिए उन्होंने सन् 1857 की जनक्रांति से संबद्ध क्षेत्रों झांसी, जबलपुर, ग्वालियर, ललितपुर, कालपी आदि की यात्रा की थी। वे अपने विशिष्ट लेखन के लिए सदा स्मरणीय रहेंगी।
जिस रास्ते से भी जाऊं/ मारा जाता हूं / मैंने सीधा रास्ता लिया/ मारा गया/ मैंने लम्बा रास्ता लिया/ मारा गया.... ये पंक्तियां हैं नीलाभ अश्क़ की, जिन्हें हमने खो दिया है। प्रसिद्ध साहित्यकार उपेंद्रनाथ अश्क के पुत्र एवं जाने माने कवि, पत्रकार, नाटककार, अनुवादक, आलोचक और जुझारू साथी नीलाभ अश्क। भारत के तीन सर्वोच्च सम्मान पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री से सम्मानित विश्वविख्यात चित्राकार सैयद हैदर रज़ा का निधन कलाजगत के लिए एक अपूर्णीर्य क्षति रही। ‘कभी तनहाइयों में हमारी याद आएगी...’ जिस आवाज़ में यह मशहूर गाना गाया गया था वो आवाज़ मुबारक़ बेगम की थी जिन्हें इस वर्ष हमने खो दिया।
यूं तो कलेण्डर के पन्ने बदलते हैं और तारीखें बदल जाती हैं लेकिन कभी-कभी यही तारीखें इतिहास बना जाती हैं। सन् 2016 में कई ऐसी तारीखें आईं जिन्होंने इतिहास रच दिया। इस वर्ष ने भावनाओं से उफनते ऐसे पल देखे जब आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े लेकिन वहीं कुछ पल ऐसे भी आए जब माथे पर चिन्ता की गहरी लकीरें खि्ांच गईं। सिंहस्थ से ओलम्पिक तक और सर्जिकल स्ट्राईक से 500-1000 के पुराने नोटों की विदाई तक। इसी वर्ष में आर्थिक जगत में एक लम्बी छलांग लगाते हुए कैशलेस इकॉनॉमी की ओर देखने लगे हैं। याद रहेगा भावावेश से कैशलेस तक वर्ष 2016 का सफ़र।
जाते हुए साल को विदा देते और आने वाले साल का स्वागत करते हुए मेरी ये पंक्तियां -
वक़्त आएगा, वक़्त जाएगा, कुछ निशानात छोड़ जाएगा।
हर नए साल से उमीदें हों, जाने वाला यही सिखाएगा।

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Wednesday, December 21, 2016

चर्चा प्लस ... अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे - डॉ.शरद सिंह

A tribute to Environmentalist Anupam Mishra ....
Dr (Miss) Sharad Singh
" अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे " - मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 20.12. 2016) .....My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 


चर्चा प्लस ..
अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे
-डॉ.शरद सिंह
हर शहर, हर कस्बे, हर गांव में पानी के ऐतिहासिक स्रोत यानी तालाब और बावड़ियां जब एक-एक कर के दम तोड़ रही थीं और लोग पेयजल संकट के आसन्न खतरे की ओर डरी हुई दृष्टि से देख रहे थे, उस समय पर्यावरणविद् #अनुपम_मिश्र ने लोगों का ध्यान जलस्रोतों के पुनर्जीवन की ओर खींचा। उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘‘ #आज_भी_खरे_हैं_तालाब ’’। इस पुस्तक ने मानो क्रांति ला दी। सबका ध्यान मरते हुए तालाबों और बावड़ियों की ओर गया और उन्हें बचाने के लिए लोग सक्रिय हो उठे। पर्यावरण के प्रति अनुपम मिश्र का यह जादुई योगदान सदा याद रखा जाएगा।


अनुपम मिश्र जाने माने गांधीवादी पर्यावरणविद् एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए उन्होंने उस समय अपने प्रयास आरम्भ कर दिए थे जब देश में पर्यावरण का कोई विभाग नहीं खुला था। बिना किसी ठोस आर्थिक आधार के अनुपम मिश्र ने पर्यावरण के संरक्षण की दिशा में आकलन करते हुए जिस तरह संरक्षण के उपाय सुझाए वह करोड़ों रुपए बजट वाले विभाग और परियोजनाओं द्वारा भी संभव नहीं हो सका था। वे पर्यावरण के प्रति सजगता का विस्तार करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने अथक प्रयास के के गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। उल्लेखनीय है कि वे गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘‘गांधी मार्ग’’ के संस्थापक और संपादक भी रहे। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्वपूर्ण काम किया। वे 2001 में दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के ‘‘चिपको आंदोलन’’ में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था। इनके पिता कवि भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के सुप्रसिद्ध रहे हैं। अनुपम मिश्र को बाल्यावस्था से ही साहित्य से जुड़ाव था किन्तु साहित्य से अधिक उन्हें प्रकृति लुभाती थी। उनके बचपन की एक घटना जो उन्होंने स्वयं एक बार गांधी शांति प्रतिष्टान में बालते समय सुनाई थी कि जब वे पांच वर्ष की आयु के थे तो एक दिन वे प्रतिदिन की भांति पिता के साथ मंदिर गए। मंदिर के पास चम्पा के एक पेड़ लगा था। पेड़ के नीचे फूल गिरे रहते थे। वे खेल-खेल में फूल उठा लिया करते थे। उस दिन भी उन्होंने फूल उठाया और अपने घर ले आए। उस दिन उनका ध्यान गया कि शाम तक फूल मुरझा गए हैं। उन्होंने अपने पिता से इसका कारण पूछा। पिता ने बालक की आयु के अनुसार सरल शब्दों में समझाया कि इस फूल को खाना-पानी नहीं मिला इसलिए यह मुरझा गया है। पिता की यह बात बालक अनुपम के दिल-दिमाग पर अपना छाप छोड़ गई। उसने सोचा कि जब पानी न मिलने से फूल का यह हाल हो गया तो यदि उसे स्वयं को भी पानी नहीं मिलेगा तो वह मर जाएगा। अनुपम मिश्र की आयु बढ़ी किन्तु यह विचार उनके मन में किसी भित्तिचित्र की भांति छपा रहा। समय और समझ के विकास के साथ-साथ अनुपम मिश्र ने पानी की महत्ता को और अधिक बारीकी से समझा। वे राजेन्द्र सिंह के बनाये तरूण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। सन् 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च ‘इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। सन् 2007-2008 में उन्हें मध्यप्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें 2009 में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित सम्मेलन को संबोधित किया। 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विकास की अंधी दौड़ में दौड़ते समाज को प्रकृति की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए।
अनुपम मिश्र ने पर्यावरण पर महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं-‘‘राजस्थान की रजत बूंदें’’, ‘‘हमारा पर्यावरण’’ ‘साफ माथे का समाज’ और आज भी खरे हैं तालाब। इनमें से ‘‘आज भी खारे हैं तालाब’’ सबसे अधिक चर्चित एवं प्रभावकारी रही।
देश के जल स्रोतों के मर्म को दर्शाती इस पुस्तक ने भी देश को हज़ारों कर्मठ कार्यकर्ता दिए। अनुपम मिश्र द्वारा लिखित तथा गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक का पहला संस्करण 1993 में छपा था। सन् 2004 में प्रकाशित पांचवे संस्करण की कुल 23000 प्रतियां प्रकाशित हुई थीं। इस पुस्तक की ब्रेल सहित 13 भाषाओं में प्रकाशित हुई जिसकी अब तक लगभग दो लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। पुस्तक के पहले संस्करण के बाद देशभर में पहली बार अपने प्राचीन जल स्रोतों को बचाने की बहस चली, लोगों ने जगह-जगह स्थित तालाबों की सुध लेनी शुरू की। मैगासेसे पुरस्कार से सम्मानित राणा राजेंद्र सिंह बताते हैं कि राजस्थान की उनकी संस्था तरुण भारत संघ के पानी बचाने के बड़े काम को सफल बनाने में इस पुस्तक का बहुत बड़ा हाथ है। मध्यप्रदेश के सागर जिले के कलेक्टर बी. आर. नायडू इस पुस्तक पढ़ने के बाद इतना प्रभावित हुए कि जगह-जगह लोगों का आह्वान किया कि ’अपने तालाब बचाओ, तालाब बचाओ, प्रशासन आज नहीं तो कल अवश्य चेतेगा।’ उन पर इस पुस्तक का अत्यंत प्रभाव पड़ा जबकि वे अहिन्दी भाषी थे। कलेक्टर नायडू की ये मामूली अलख मध्यप्रदेश के सागर जिले के 1000 तालाबों का उद्धार कर गई। ऐसी ही एक और अलख के कारण शिवपुरी जिले के लगभग 340 तालाबों की सुध ली गई। मध्यप्रदेश के ही सीधी और दमोह के कलेक्टरों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में इस पुस्तक की सौ-सौ प्रतियां बांटी।
पानी के लिए तरसते गुजरात के भुज के हीरा व्यापारियों ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण की मुहिम चलाई। पुस्तक से प्रेरणा पाकर पूरे सौराष्ट्र में ऐसी अनेक यात्राएं निकाली गईं। पानी बचाने के लिए सबसे दक्ष माने गए राजस्थान के समाज को भी इस पुस्तक ने नवजीवन दिया। राजस्थान के प्रत्येक कोने में पुस्तक के प्रभाव के कारण सैकड़ों जल-यात्राओं के साथ-साथ हज़ारों पुरातन जल-स्रोत पुनर्जीवित किए गए।
जयपुर जिले के ही सालों से अकालग्रस्त लापोड़िया गांव ने इस पुस्तक से प्रेरणा ली और अपने जलस्रोतों के साथ ही चारागाहों को भी बचाया। लापोड़िया के सामूहिक प्रयासों का नतीजा यह रहा कि आज लगभग 300 घरों का लापोड़िया, जयपुर डेयरी को लगभग चालीस लाख वार्षिक का दूध दे रहा है। पुस्तक का प्रभाव उत्तरांचल में भी हुआ। यहां पौड़ी-गढ़वाल के उफरेखाल क्षेत्र के दूधातोली लोक विकास संस्थान के श्री सच्चिदानंद भारती ने पुस्तक से प्रेरणा पाकर पहाड़ी क्षेत्रों की विस्तृत चालों (पानी बचाने के लिए पहाड़ी तलाई) को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया। इस दौरान पिछले 13 सालों में उन्होंने 13 हज़ार चालों को जीवन प्रदान किया। गैर हिंदी भाषी राज्य कर्नाटक में इस पुस्तक का सीधा प्रभाव राज्य सरकार पर पड़ा। कर्नाटक सरकार ने तालाब बचाने का काम सीधे अपने ही हाथ में ले लिया और वहाँ एक जलसंवर्धन योजना संघ’ बनाया गया तथा विश्व बैंक की मदद से पूरे राज्य के तालाब बचाने की योजना तैयार की गई है। इसी राज्य की ही इंफोसिस कंपनी के मालिक श्री नारायणमूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने इस पुस्तक का कन्नड़ में अनुवाद किया और 50 हज़ार प्रतियां छपवाकर कर्नाटक की प्रत्येक पंचायत में भिजवाईं।
पंजाबी में इस पुस्तक का अनुवाद मालेरकोटला से प्रकाशित ’तरकश’ नामक पत्रिका में शुरू हुआ। फिर इसका एक संक्षिप्त पंजाबी संस्करण छपा जो मुफ्त में बांटा गया। कुछ वर्षों बाद इसके अनुवाद के साथ पंजाब के सुख-दुख जोड़कर एक पुस्तक बनाई गई। इस नए अनुवाद का व्यापक प्रभाव रहा। पंजाब के साहित्यकारों, आलोचकों, लोकगायकों, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं के साथ-साथ प्रमुख संतों, यहां तक कि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों पर भी इसका खासा प्रभाव पड़ा। पंजाब के लोकगायकों ने इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अपने तरीके से जलस्रोतों को बचाने की मुहिम शुरू की है।
जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण की अलख जगाने वाले 68 वर्षीय अनुपम मिश्र ने नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 19 दिसम्बर 2016 को अंतिम सांस ली। वे कई वर्ष से प्रोटेस्ट कैंसर से जूझ रहे थे फिर भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनके प्रयासों में कोई कमी नहीं आई थी। अनुपम मिश्र के व्यक्तित्व को वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के इन शब्दों के द्वारा बेहतर समझा जा सकता है कि “हमारे समय का अनुपम आदमी। ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे। सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हंसमुख, कोर-कोर मानवीय। इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक। दो जोड़ी कुर्ते-पायजामे और झोले वाले इंसान। गांधी मार्ग के पथिक. ’गांधी मार्ग’ के सम्पादक। पर्यावरण के चिंतक। ’राजस्थान की रजत बूंदें’ और ’आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक।“
हर शहर, हर कस्बे, हर गांव में पानी के ऐतिहासिक स्रोत यानी तालाब और बावड़ियां जब एक-एक कर के दम तोड़ रही थीं और लोग पेयजल संकट के आसन्न खतरे की ओर डरी हुई दृष्टि से देख रहे थे, उस समय पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने लोगों का ध्यान जलस्रोतों के पुनर्जीवन की ओर खींचा, उन्हें उनकी गलतियों के प्रति सचेत किया, उन्हें रास्ता भी सुझाया। पर्यावरण के प्रति अनुपम मिश्र का यह जादुई योगदान सदा याद रखा जाएगा। निःसंदेह अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे।
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Wednesday, December 14, 2016

चर्चा प्लस ... कबीर के स्त्री-विरोधी दोहों का सच - डॉ.शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
"कबीर के स्त्री विरोधी दोहों का सच" - मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 14.12. 2016) .....
My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper

 


चर्चा प्लस ..
कबीर के स्त्री-विरोधी दोहों का सच
-डॉ.शरदसिंह
कबीर ने समाज को आईना दिखाने वाले और मानव-प्रेम के दोहे रचे। वह भी उस काल में जब बोधन जैसे कवि को मात्र इसलिए मृत्युदण्ड दे दिया गया था कि उसका कहना था कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म में कोई अंतर नहीं है। ऐसे दुरूह समय में पाखण्डियों को स्पष्ट शब्दों में ललकारने वाले कबीर क्या स्त्री-विरोधी दोहे लिख सकते हैं? यह एक चौंकाने वाला तथ्य है। यह एक शोध का विषय भी हो सकता है लेकिन इसके लिए पूर्वाग्रह से उठ कर बारीकी से तथ्यों को परखना होगा। इस संभावना पर भी गौर करना होगा कि कबीर को लांछित करने के लिए उनके नाम से स्त्री-विरोधी दोहे रच दिए गए हों।
कुछ समय पहले लखनऊ की एक शोध छात्रा ने मुझसे प्रश्न किया था कि ‘‘क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?’’ यह प्रश्न चेतना को आंदोलित करने वाला था। मैंने उससे पूछा कि आप किस आधार पर कबीर के बारे में यह प्रश्न कर रही हैं? इस पर उस छात्रा ने मुझे कबीर के दो दोहे सुनाए। निश्चितरूप से वे दोनों दोहे स्त्री-विरोधी थे। मैंने उस छात्रा से यही कहा कि मैं तत्काल इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगी दो दिन बाद उत्तर दूंगी। दो दिन में मैंने कबीर का लगभग तमाम साहित्य खंगाल डाला और साथ ही उस परिदृश्य पर भी ध्यान दिया जो कबीर के समय मौजूद था। दो दिन बाद उस शोध छात्रा ने फिर अपना प्रश्न दोहराया कि ‘‘क्या कबीर स़्त्री-विरोधी थे?’’ मैंने पूर्ण आश्वस्ति के साथ उसे उत्तर दिया कि मेरे विचार से कबीर स़्त्री-विरोधी नहीं थे। उसने प्रतिप्रश्न किया कि लेकिन वे दोहे जिनमें कबीर ने स्त्री को सर्प से अधिक विषधारी बताया है? उसने जो दो दोहे मुझे उदाहरण स्वरूप सुनाए वे इस प्रकार थे -
(1) नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग।
‘कबिरा’ तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।
तथा,
(2) नारी तो हमहूं करी, तब न किया विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।
इस पर मैंने उससे पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि वे स्त्री-विरोधी दोहे कबीर ने ही रचे हैं। कबीर वाचिक परम्परा के कवि थे। उन्होंने स्वयं कहा है कि -“मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।“ अतः जब विरोधीजन प्रकाशित, प्रमाणित रचनाओं में भी हेरफेर कर देते हैं तो क्या यह संभव नहीं है कि कबीर की स्पष्टवादिता से खीझे हुए विरोधियों ने उन्हें अपने खेमे का दिखाने के लिए कुछ स्त्री-विरोधी दोहे उनके नाम से प्रचारित कर दिए हों। इस पर गंभीरता से शोध होना चाहिए। मेरे विचार से तो शोध के उपरांत ऐसे भ्रामक दोहे कबीर-साहित्य से खारिज़ किए जाने चाहिए।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

07 दिसम्बर 2016 को बीना कॉलेज की प्राचार्या डॉ संध्या टिकेकर द्वारा ग्राम हिरनछिपा में जनजागरूकता अभियान के तहत एक अत्यंत सार्थक संगोष्ठी कराई गई। जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में अपने विचार रखते हुए मैंने इसी विषय की चर्चा करते हुए शोधार्थियों और विद्वानों से आग्रह किया कि संत कबीर के स्त्री-विषयक दोहों की पड़ताल करना आवश्यक है क्योंकि मुझे संदेह है कि स्त्री-विरोधी दोहे संत कबीर ने लिखे हैं। वे वाचिक परम्परा के कवि थे अतः यह संभव है कि उनके विरोधियों ने दुष्प्रचार के रूप में ऐसे दोहे उनके नाम के साथ प्रचारित कर दिए हों। इस पर उपस्थित विद्वानों मेरे मेरे विचार का समर्थन किया किन्तु एकाध विद्वान ने उस संदर्भ का घालमेल कर दिया जो तुलसीदास के स्त्री-विरोधी दोहे के रूप में जाना जाता है-‘ढोर, गंवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।’’ मैंने उनसे आग्रह किया कि कबीर और तुलसी के दोहों के संदर्भ परस्पर एकदम भिन्न हैं। तुलसी ने जो दोहा लिखा है वह रामकथा के अंतर्गत् विशिष्ट चरित्रों के संदर्भ मे लिखा है और इस पर अलग से स्वतंत्र विचार किया जाना चाहिए। जबकि कबीर के नाम वाले ये दोहे लिखित नहीं मौखिक परम्परा से आए हैं जिनमें नाम के दुरुपयोग की पूरी संभावना है। ये दोहे किसी कथा-संदर्भ के अंतर्गत भी नहीं हैं। अतः इन पर विचार करते हुए तुलसी के दोहे को परे रखना होगा।
कबीर ने जिस काल में दोहों की रचना की उस समय सिकन्दर लोदी का शासन था। सिकन्दर लोदी एक असहिष्णु शासक था। उसकी धार्मिक भेद-भाव की नीतियों के कारण समाज हिन्दू और मुस्लिम दो भागों में बंटा हुआ था। दोनों धार्मिक समाजों में एकता की बात करना अपराध की श्रेणी में गिना जाता था। इसका उदाहरण कवि बोधन के हश्र के रूप् में देखा जा सकता है। कवि बोधन ने यही कहा कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म एक समान है और परिणामस्वरूप उसे मुत्युदण्ड दे दिया गया। ऐसे दुरूह समय में कबीर दोनों धर्मों के पाखण्डियों को खुले शब्दों में ललकार रहे थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति, एक समाज का स्वरूप दिया। मूर्तिपूजा पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है -
पहान पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
या तो यह चाकी भली, पीस खाये संसार।।
इसी प्रकार खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर वे कटाक्ष करते हैं कि -
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय”
कबीर का नाम हिंदी भक्त कवियों में निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा में प्रमुखता से गिना जाता है। कबीर की रचनाओं को मुख्यतः निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता हैः रमैनी, सबद, साखी। ’रमैनी’ और ’सबद’ गाए जाने वाले ’गीत या भजन’ के रूप में प्रचलित हैं। ’साखी’ शब्द साक्षी शब्द का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है - “आंखों देखी अथवा भली प्रकार समझी हुई बात।“ कबीर की साखियां दोहों में लिखी गई हैं जिनमें भक्ति व ज्ञान उपदेशों को संग्रहित किया गया है। कबीर ने उलटबांसियां भी कही हैं। कबीर न तो मात्र सामाजिक सुधारवादी थे और न ही धर्म के नाम पर विभेदवादी। वह आध्यात्मिकता की सार्वभौम आधारभूमि पर सामाजिक क्रांति के नायक थे। कबीर मानववादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान थे। वह युग अमानवीयता का था, इसलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, सम्वेदनाओं तथा चेतना को जागृत करने का प्रयास किया। कबीर वर्गसंघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक दूसरे के समीप लाना चाहते थे। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडियों को संबोधित करके कहा कि -
जो तुम बाभन बाभनि जाया, आन घाट काहे नहि आया।
जो तुम तुरक तुरकानी जाया, तो भीतर खतना क्यूं न कराया।।
कबीर का समाज-दर्शन अथवा आदर्श समाज विषयक उनकी मान्यताएँ ठोस यथार्थ का आधार लेकर खडी हैं। अपने समय के सामन्ती समाज में जिस प्रकार का शोषण दमन और उत्पीडन उन्होंने देखा-सुना था, उनके मूल में उन्हें सामन्ती स्वार्थ एवम धार्मिक पाखण्डवाद दिखाई दिया जिसकी पुष्टि दार्शनिक सिद्धान्तों की भ्रामक व्यवस्था से की जाती थी और जिसका व्यक्त रूप बाह्याचार एवम कर्मकाण्ड थे। कबीर ने समाज व्यवस्था सत्यता, सहजता, समता और सदाचार पर आश्रित करना चाहा जिसके परिणाम स्वरूप कथनी और करनी के अन्तर को उन्होंने सामाजिक विकृतियों का मूलाधार माना और सत्याग्रह पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नीवं रखी। यहां विचारणीय है कि जो कवि, जो विचारक मानवप्रेम और मानव एकता की बात करता हो वह स्त्री-विरोधी दोहे कैसे रच सकता है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘जांत-पांत पूछे नहिं कोय। हरि को भजे सो हरि का होय।।
इसके बाद कबीर के उस पक्ष को भी ध्यान में रखना होगा जिसमें वे सूफी भावना को स्वीार करते हुए स्वयं को अर्थात् आतमा को स्त्री और परब्रह्म को पुरूष मानते हैं-
सुर तैंतीस कौतिक आए, मुनियर सहस अठासी।
कहैं ‘कबीर’ हम ब्याह चले हैं, पुरुष एक अविनासी।।
अतः कबीर ने तो स्वयं को भी स्त्री माना और अपने गुरु रामानंद का स्मरण करते हुए यही कहा कि - कहैं ‘कबीर’ मैं कछु न कीन्हा। सखि सुहाग राम मोहि दीन्हा।।
एक बिन्दु यह भी है कि कबीर का जीवन के प्रति सकारात्मक एवं तटस्थ दृष्टिकोण था। उन्होंने कहा कि - पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
इस भंगुर जीवन का अंत जब मृत्यु ही है तो उससे भयभीत क्यां होना? इसी सत्य के महत्व को समझते हुए वे स्पष्टवादी बने रहे। उन्हें शासक, शासन अथवा पाखण्डियों से कभी भय नहीं लगा। उन्होंने कहा कि - आए हैं तो जाएंगे, राजा, रंक, फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।।
कवि थे जिन्होंने प्रेम की महत्ता को ज्ञान से भी ऊंचा बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञान व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है किन्तु प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जो सच्चे अर्थों में मनुष्य बन गया शेष ज्ञान तो उसे स्वयं हो जाएगा-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।़।
अतः प्रेम को सर्वोपरि मानने वाले, पाखण्ड को ललकारते हुए स्पष्ट बोलने वाले, आत्मा को स्त्री और ब्रह्म को पुरुष मानने वाले कबीर स्त्री-विरोधी दोहे भला कैसे रच सकते थे? मुझे तो संदेह है इन दोहों पर। मेरा हमेशा यही आग्रह रहेगा कि कबीर के विचारों के प्रति भ्रम उत्पन्न करने वाले दोहों को जांचने और संदेहास्पद निकलने पर खारिज करने की जरूरत है।
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Friday, December 9, 2016

चर्चा प्लस ... संघर्षशील महिला नेत्री जयललिता - डॉ.शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
"संघर्षशील महिला नेत्री जयललिता" - मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 08.12. 2016) .....

My Column Charcha Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 
 चर्चा प्लस
संघर्षशील महिला नेत्री जयललिता
-डॉ.शरद सिंह
एक ऐसी अभिनेत्री जिसे घर का खर्च चलाने के लिए बचपन से ही फिल्मों में काम करना पड़ा। एक ऐसी स्त्री जो सिनेमा के देह उघारू जीवन में रह कर भी मर्यादा का महत्व समझती रही। एक ऐसी राजनीतिज्ञ जिसने जनता के हित में अपनी नीतियों को कठोरता से लागू किया किन्तु किसी भी पार्टी से कोई समझौता नहीं किया। लोग उन्हें प्यार से ‘अम्मा’ और गर्व से ‘पुरातची तलाईवी’ अर्थात् क्रांतिकारी नेता कह कर पुकारते रहे। दरअसल, जयललिता...एक स्त्री के सामान्य से विशिष्ट होने के जीवन संघर्ष का जीता-जागता उदाहरण रहीं।

5 दिसम्बर 2016 को एक संघर्षशील महिला नेत्री एवं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के अवसान का दुख देश को झेलना पड़ा। जयललिता का जन्म 24 फ़रवरी 1948 को एक ’अय्यर’ परिवार में, मैसूर राज्य (कर्नाटक) के मांडया जिले के पांडवपुरा तालुक के मेलुरकोट गांव में हुआ था। उनके दादा तत्कालीन मैसूर राज्य में एक सर्जन थे। दो साल की छोटी-सी उम्र में उन्हें अपने पिता जयराम की मृत्यु सहन करना पड़ा। उनकी मां संध्या उन्हें लेकर बंगलौर चली आयीं, जहां जयललिता के नाना-नानी रहते थे। बाद में उनकी मां ने तमिल सिनेमा में काम करना शुरू कर दिया और अपना फिल्मी नाम ’संध्या’ रख लिया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पहले बंगलौर और बाद में चेन्नई में हुई। चेन्नई के स्टेला मारिस कॉलेज में पढ़ने की बजाय उन्होंने सरकारी वजीफे से आगे पढ़ाई की।
जब वे स्कूल में ही पढ़ रही थीं तभी उनकी मां ने उन्हें जता दिया कि घर का खर्च चलाने के लिए उन्हें भी फिल्मों में काम करना पड़ेगा। विद्यालयीन शिक्षा के दौरान ही उन्होंने 1961 में ’एपिसल’ नाम की एक अंग्रेजी फिल्म में काम किया और मात्र 15 वर्ष की आयु में वे कन्नड़ फिल्मों में मुख्य अभिनेत्री की भूमिकाएं करने लगी। उसके बाद उन्होने तमिल फिल्मों की ओर रुख किया। उन्हें ‘बोल्ड’ अभिनेत्री माना गया क्योंकि वे पहली ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्होंने स्कर्ट पहनकर भूमिका निभाई थी। उन्होंने तमिल के अलावा तेलुगु, कन्नड़, अंग्रेजी और हिन्दी फिल्मों में भी काम किया है। उन्होंने धर्मेंद्र सहित कई अभिनेताओं के साथ काम किया, किन्तु उनकी ज्यादातर फिल्में शिवाजी गणेशन और एमजी रामचंद्रन के साथ ही आईं। वैसे वे अभिनेत्री नहीं बनना चाहती थीं। स्कूल के दिनों में उन्हें सर्वश्रेष्ठ छात्रा की शील्ड मिली थी और दसवीं कक्षा की परीक्षा में उन्हें पूरे तमिलनाडु में दूसरा स्थान मिला था।
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 एमजीआर के प्रति प्रतिबद्धता
 
एमजी रामचंद्रन जो संक्षेम में एमजीआर के नाम से विख्यात थे, उन्हें श्रेय जाता है जयललिता को राजनीति में लाने का। एमजीआर जयललिता से शुरू से प्रभावित थे। दूसरी अभिनेत्रियों और उनमें बहुत अंतर था। जयललिता बहुत अच्छी अंग्रेज़ी बोलती थीं। शूटिंग के समय वो एक कोने में बैठ कर अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ा करती थीं और किसी से कोई बातचीत नहीं करती थीं। देखने में बहुत सुंदर थी। जयललिता ने स्वयं ‘कुमुदन’ नामक पत्रिका में राजस्थान की एक घटना का उल्लेख किया था कि ‘‘कार पार्किंग थोड़ी दूर पर थी। पैरों में कोई चप्पल और जूते नहीं थे। एक कदम भी नहीं चल पा रही थी। मेरे पैर लाल हो गए थे। मैं कुछ कह नहीं पा रही थी लेकिन एमजीआर मेरी परेशानी को समझ गए और उन्होंने मुझे अपनी गोद में उठा लिया।“
एमजीआर और जयललिता के संबंधों में भी बहुत उतार चढ़ाव आए। उन्होंने उन्हें पार्टी के प्रोपेगेंडा सचिव के साथ साथ राज्यसभा का सदस्य भी बनाया। लेकिन पार्टी में जयललिता का इतना विरोध हुआ कि एमजीआर को उन्हें प्रोपेगेंडा सचिव के पद से हटाना पड़ा। इस बीच एमजीआर गंभीर रूप से बीमार हो गए। जब उनका देहांत हुआ तो उनके परिवार वालों ने जयललिता को उनके घर में प्रवेश नहीं करने दिया। तब वे हथेलियों को ज़ोर-ज़ोर से दरवाजे पर मारने लगीं। जब गेट खुला तो किसी ने उनसे नहीं बताया कि एमजीआर के शव को कहां रखा गया है। वो गेट से पीछे की सीढ़ियों तक कई बार दौड़ कर गईं लेकिन एमजीआर के घर का हर दरवाज़ा उनके लिए बंद कर दिया गया। कुछ देर बाद उन्हें पता चला कि एमजीआर के पार्थिव शरीर को पिछले दरवाज़े से राजाजी हॉल ले जाया गया है। जयललिता तुरंत अपनी कार में बैठीं और ड्राइवर से राजाजी हॉल चलने के लिए कहा। वहां वो किसी तरह अपने आप को एमजीआर के सिरहाने पहुंचाने में सफ़ल हो गईं। वे दो दिनों तक एमजीआर के पार्थिव शरीर के सिरहाने खड़ी रहीं। एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन की कुछ महिला समर्थकों ने उनके पैरों को अपनी चप्पलों से कुचलने की कोशिश की। लेकिन जयललिता सारा अपमान सहते हुए वहां से हिली नहीं। जब एमजीआर के पार्थिव शरीर को अंतिम यात्रा के लिए गन कैरेज पर ले जाया गया तो जयललिता भी उसके पीछे पीछे दौड़ीं। उस पर खड़े एक सैनिक ने अपने हाथों का सहारा देकर उन्हें ऊपर आने में मदद की। तभी अचानक जानकी के भतीजे दीपन ने उन पर हमला किया और उन्हें गन कैरेज से नीचे गिरा दिया। जयललिता ने तय किया कि वो एमजीआर की शव यात्रा में आगे नहीं भाग लेंगीं। वो अपनी कंटेसा कार में बैठीं और अपने घर वापस आ गईं। उन्होंने तय किया कि वे एमजीआर की शवयात्रा के पीछे भागने के बदले उनके काम को आगे बढ़ाएंगी और उन्हें इस ढंग से श्रद्धांजलि देंगी।

स्त्रीत्व के अपमान के विरुद्ध शपथ

25 मार्च 1989 का दिन था। तमिलनाडु विधानसभा में बजट पेश किया जा रहा था। जैसे ही मुख्यमंत्री करुणानिधि ने बजट भाषण पढ़ना शुरू किया तभी कांग्रेस के एक सदस्य ने ‘‘प्वाएंट ऑफ़ ऑर्डर’’ उठाया कि पुलिस ने विपक्ष की नेता जयललिता के विरुद्ध अप्रजातांत्रिक ढ़ंग से काम किया है। जयललिता ने भी उठ कर शिकायत की कि मुख्यमंत्री के उकसाने पर पुलिस ने उनके विरुद्ध कार्यवाही की है और उनके फ़ोन को टैप किया जा रहा है। स्पीकर ने कहा कि वो इस मुद्दे पर बहस की अनुमति नहीं दे सकते क्योंकि बजट पेश किया जा रहा है। यह सुनना था कि विधानसभा सदस्य बेकाबू हो गए। एआईडीएमके के सदस्य चिल्लाते हुए सदन के मध्य में पहुंच गए। एक सदस्य ने ग़ुस्से में करुणानिधि को धक्का देने की कोशिश की जिससे उनका संतुलन बिगड़ गया और उनका चश्मा ज़मीन पर गिर कर टूट गया। एक एआईडीएमके सदस्य ने बजट के पन्नों को फाड़ दिया। विधानसभा के अध्यक्ष ने सदन को स्थगित कर दिया। जैसे ही जयललिता सदन से निकलने के लिए तैयार हुईं, एक डीएमके सदस्य ने उन्हें रोकने की कोशिश की। उसने उनकी साड़ी इस तरह से खींची कि उनका पल्लू गिर गया और जयललिता भी ज़मीन पर गिर गईं। एआईडीएमके के एक सदस्य ने डीएमके सदस्य की कलाई पर ज़ोर से वार कर जयललिता को उनके चंगुल से छुड़वाया। अपमानित जयललिता ने पांचाली की तरह प्रतिज्ञा ली की कि वो उस सदन में तभी फिर कदम रखेंगी जब वो महिलाओं के लिए सुरक्षित हो जाएगा। 

जनहित और जनप्रेम

जयललिता ने 1984 से 1989 के दौरान तमिलनाडु से राज्यसभा के लिए राज्य का प्रतिनिधित्व भी किया। वर्ष 1987 में रामचंद्रन का निधन के बाद उन्होने खुद को रामचंद्रन की विरासत का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। वे 24 जून 1991 से 12 मई 1996 तक राज्य की पहली निर्वाचित मुख्यदमंत्री और राज्य की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री रहीं। अप्रैल 2011 में जब 11 दलों के गठबंधन ने 14वीं राज्य विधानसभा में बहुमत हासिल किया तो वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं। उन्होंने 16 मई 2011 को मुख्ययमंत्री पद की शपथ लीं और तब से वे राज्य की मुख्यमंत्री रहीं। जयललिता ने अपने कार्यकाल के दौरान राजनीति के साथ-साथ केंद्र और राज्य के संबंधों पर भी गहरा असर डाला। उन्होंने न केवल जनकल्याण की योजनाएं बनाईं बल्कि उन पर अमल भी सुनिश्चित किया। वर्ष 1992 में उनकी सरकार ने बालिकाओं की रक्षा के लिए ’क्रैडल बेबी स्कीम’ शुरू की ताकि अनाथ और बेसहारा बच्चियों को खुशहाल जीवन मिल सके। इसी वर्ष राज्य में ऐसे पुलिस थाने खोले गए जहां केवल महिलाएं ही तैनात होती थीं।
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार रोकने के लिए उन्होंने हर पुलिस वाले के मन में एक तरह से ’भगवान का डर’ पैदा किया। पार्टी पर उनका मज़बूत नियंत्रण था। उनकी पार्टी के लो उन्हें जितना पसंद करते थे, उतना लोग उनसे डरते भी थे। लोगों में मुफ़्त चीज़े बांटने की नीति ने भी उन्हें बहुत लोकप्रिय बनाया। मुफ़्त ग्राइंडर, मुफ़्त मिक्सी, बीस किलो चावल देने पर अर्थशास्त्रियों ने बहुत टीका-टिप्पणी की, लेकिन इसने महिलाओं के जीवनस्तर को उठा दिया और आम जनता के बीच उनकी जगह बनती चली गई। यही कारण है कि भ्रष्टाचार के मामलों और कोर्ट से सजा होने के बावजूद वे अपनी पार्टी को चुनावों में जिताने में सफल रहीं। उन्होंने अपने राज्य के हितों से कभी समझौता नहीं किया.
अपने मुद्दों को ले कर वे प्रधानमंत्रियों से टकराईं। उन्होंने मौजूदा प्रधानमंत्र नरेंद्र मोदी को भी नहीं बख़्शा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में उन्होंने कड़ी भाषा का इस्तेमाल किया। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके इससे पिछले दो पत्रों का पीएम की ओर जवाब नहीं मिला था। क्रांतिकारी नेत्री ’अम्मा’ के जाने के बाद एआईएडीएमके किस तरह आगे बढ़ेगी या बिखर जाएगी, यह भविष्य ही बताएगा। पर इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जयललिता के साथ दक्षिण भारत की राजनीति में एक युग का अवसान हो गया।
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Thursday, December 1, 2016

हिन्दी साहित्य, स्त्री और आत्मकथा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
" #हिन्दी_साहित्य, #स्त्री और #आत्मकथा " - मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 30.11. 2016) .....
My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper


 

हिन्दी साहित्य, स्त्री और आत्मकथा
 
- डॉ. शरद सिंह


हिन्दी में लेखिकाओं द्वारा आत्मकथा लिखने की परम्परा पुरानी नहीं है। यदि यह विधा लेखिकाओं की कलम से अधिकतर दूर रही तो इसका सबसे बड़ा कारण है सामाजिक दबाव। किसी भी स्त्री के लिए अपने जीवन का सच उजागर करना कोई आसान काम नहीं है। जब स्त्री आत्मकथा लिखती है तो उसे धमाके के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से लेखन के क्षेत्र से जुड़ी स्त्रियों की आत्मकथा। लेखिकाओं की आत्मकथा उंगलियों पर गिनी जा सकती है। पर अब स्त्री और उसकी आत्मकथा के अस्तित्व को एक साथ स्वीकार करने का वातावरण जन्म ले चुका है, एक बौद्धिक सकारात्मक बोध की तरह।

लेखिकाओं की आत्मकथा लेखकों की आत्मकथा की अपेक्षा अधिक चौंकाती है। इन्हें पढ़ने वाले स्तब्ध रह जाते हैं कि ‘क्या ऐसा भी हुआ है?’ चाहे अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’ हो, कमला दास की ‘मेरी कहानी’, तस्लीमा नसरीन की ‘अमार मेयीबेला’, ‘उताल हवा’, ‘क’,‘सेई सोब अंधोकार’, ‘अमी भालो नेई-तुमी भालो थेको प्रियो देश’, प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’, कृष्णा अग्निहोत्री की दो खण्डों की आत्मकथा ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘और......और औरत’। इनके अलावा मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथात्मक पुस्तकें ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ झूलानट’ तथा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ ने भी सभी को चौंकाया।
‘स्त्री’ और ‘मुक्ति’- ये दोनों शब्द सदियों से परस्पर एक-दूसरे का पूरक बनने के लिए छटपटाते रहे हैं किन्तु ऐसे अनेक कारण हैं जिन्होंने इस पूरकता की राह में सदैव रोड़े अटकाए। स्त्री के संदर्भ में मुक्ति का विषय कठिन भी है और सरल भी। सैद्धांतिक रूप में यह सदैव सरल जान पड़ा है किन्तु प्रायोगिक रूप में अत्यंत कठिन। किसी हद तक प्रतिबन्धित। हिन्दी लेखन के आरम्भिक समय में पुरुष वर्चस्व साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है। एक कारण यह भी था कि हिन्दी कहानियों में स्त्री का वही स्वरूप उभर कर आया जो पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों द्वारा सोचा, समझा और रचा जाता है। इसीलिए उस दौर की कहानियों के स्त्रीपात्र अतिवादी आदर्श की चादर ओढ़ कर खड़े दिखाई देते हैं। 

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आज प्रतिमान बदलते जा रहे हैं। यह माना जाता है कि स्त्रियों का प्रथम बंधन देह से प्रारम्भ होता है। इसीलिए कहानियों में भी देहमुक्ति का विषय बनना स्वाभविक है। कई बार हिन्दी कथासंसार में लेखिकाओं के संदर्भ में देहमुक्ति को उनके लेखन की ‘बोल्डनेस’ ठहरा दिया जाता है जिससे विषय की गंभीरता की सरासर अवहेलना हो जाती है। प्रश्न यह उठता है कि स्त्री की देहमुक्ति का क्या आशय है? क्या हिन्दी में लेखिकाओं द्वारा जो दैहिक संदर्भ प्रस्तुत किए जा रहे हैं वे अनुपयोगी हैं? क्या वे अपरिष्कृत हैं? क्या इस प्रकार के संदर्भों से बच कर उन विषयों पर विस्तृत दृष्टि डाली जा सकती है जिनके जन्म में देह आधारभूत तत्व है? या फिर ऐसे विषयों को अछूता छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे विषयों पर लेखन से कुछ परम्परागत मानक टूटते हैं? ये बहुत सारे प्रश्न हैं जो महिला कथालेखन की चर्चा आते ही सिर उठाने लगते हैं। और जब प्रश्न हो आत्मकथा का तो प्रश्नों का अंबार लग जाता है।
साहित्य में अनेक विधाएं हैं जिनके द्वारा साहित्यकारों ने अपने जीवन के गोपन पक्षों को सार्वजनिक किया है। पाठकों को उन कक्षों में प्रवेश की अनुमति दी है जिनमें रह कर उन्होंने नितान्त अपने दुख, सुख और प्रेम को जिया है। प्रेमपत्रों का प्रकाशन इसी तारतम्य की एक कड़ी है। डायरी को प्रकाशित करा कर भी अपने निजी को सार्वजनिक किया गया है। आत्मकथा इसी प्रकार की एक विधा है जिसमें व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, अपने जीवन की, अपने अनुभवों की पर्तें खोलता है। इसकी शैली ‘जो जैसा है,वैसे ही’ की रहती है। इसीलिए लेखिकाओं द्वारा अपनी आत्मकथा का प्रकाशन कराए जाने पर अच्छा खासा बवाल मच जाता है। अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं कि क्या उन्हें ऐसा लिखना चाहिए था? क्या उन्हें फलां के साथ अपने अंतःसंबंधों को उजागर करना चाहिए था? क्या यह एक लेखिका के लिए सामाजिक दृष्टि से उचित है? क्यों कि अतंतः वह एक स्त्री है। स्त्री से उसके जीवन में यही अपेक्षा की जाती है कि वह देह और आत्मा को अलग-अलग दो खांचों में रख कर जिए। फिर भी कुछ लेखिकाओं ने सामाजिक दबाव की चिन्ता किए बिना अपने जीवन के उन पक्षों को आत्मकथा के रूप में सबके सामने लाने का साहस किया।
मैत्रेयी पुष्पा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में लिखती हैं कि ‘‘जिन्दगी जो थी तन मन से घिरी हुई। मेरे लिए उसको दो भागों में बांट कर देखना कठिन था। जब शरीर और मन को काट कर देखने की बात होती, मैं बहुत उदास और खिन्न हो जाती।’
प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या’ में डॉ. सर्राफ के साथ अपने संबंधों का बेहिचक विवरण दिया। पढ़ने वालों ने इसे प्रभा खेतान का साहस और दुस्साहस माना। कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा (दो खण्डों में) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘और......और औरत’ ने उस सुगबुगाहट की याद ताजा करा दी जो तसलीमा नसरीन की आत्मकथा ‘क’ के प्रकाशित होने पर साहित्य जगत में हुई थी। तसलीमा ने कई दिग्गज साहित्यकारों के साथ अपने अंतःसंबंधों का खुलासा किया था। जिस पर उन साहित्यकारों को ‘पीड़ा’ पंहुची थी। उनकी इस ‘पीड़ा’ के संबंध में तसलीमा ने अपने एक साक्षात्कार में उन्मुक्त भाव से कहा था कि जिन्होंने मेरा भावनात्मक दोहन किया उन्हें मेरी आत्मकथा में अपना नाम आने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
साहित्य में एक ओर ‘स्त्री साहित्य’ को अलग करके देखा ताजा है और उसमें स्त्री के जीवन को अक्षरशः पाने की आशा रखी जाती है वहीं दूसरी ओर यदि आत्मकथा के रूप में कोई स्त्री अपने जीवन के प्रत्येक पन्ने को अक्षरशः उतार देती है तो उस पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं। कुछ लोग चौंकते हैं , कुछ स्तब्ध रह जाते हैं, कुछ सच की स्वीकारेक्ति पर प्रसन्न होते हैं तो कुछ इस बात से नाराज हो उठते हैं कि आत्मकथा लेखिका ने उन से जुड़े संर्दभां को प्रकाश में क्यों लाया। अपेक्षाओं का यह दुहरा-तिहरा मापदण्ड साहित्यजगत में खलबली मचाता है। वैसे जब भी कोई स़्त्री चाहे वह किसी भी विधा से जुड़ी हो स्वयं को सार्वजनिक रूप से यथास्थिति सामने रखती है तो पुरुषप्रधान सोच सकते में आ जाती है जबकि कई सि़्त्रयां भी पुरुषवादी सोच के पक्ष में जा खड़ी होती हैं। वे भी ऐसी आत्मकथाओं पर किंचित असहज हो उठती हैं। सम्भवतः इसका कारण यह है कि वे जिए गए जीवन के यथास्थिति प्रकाशन को स्वीकार करने से इसलिए हिचकती हैं कि वे स्वयं को एक स़्त्री से पहले मां, बहन, बेटी के रूप में पाती हैं और अपने इन्हीं संबंधियों के रोष से भयभीत हो उठती हैं। यह स्वाभाविक है। क्योंकि स्त्री चाहे किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुकी हो, उसे उसकी पहचान से परे पहले एक स्त्री के रूप में ही देखा जाता है। सदियों की बेड़ियां आसानी से नहीं टूटती हैं। चित्रकार अमृता शेरगिल ने जब अपना आत्मचित्र (सेल्फ पोट्रट) बनाया तो लोग चौंके। पुरुष स्त्री देह को अनावृत करे तो कोई बात नहीं लेकिन यदि स्त्री स्वयं अपनी देह को अनावृत करे तो कलाजगत भी चौंकता है। यहां भी वही अपेक्षा के दोहरे-तिहरे मापदण्ड की बात आती है।
कमलादास ने अपने यौवनारम्भ की घटनाओं को बेझिझक लिख डाला। अपनी भावनात्मक और दैहिक इच्छा को भी छिपाया नहीं। लोग चौंके। इससे पूर्व अमृता प्रीतम ने इमरोज़ और साहिर लुधियावनी से अपने संबंधों को सबके सामने रख दिया। उनके इस साहस ने उन सभी लोगों के मुंह पर ताला लगा दिया जो इन बिन्दुओं पर चटखारे ले कर ‘गॉसिप’ करते थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आत्मकथात्मक पुस्तकों के माध्यम से अपने जीवन के उन पक्षों को सामने रखा जिसके बारे में आम पाठक सोच नहीं सकता था कि वे किस संघर्ष से गुज़र कर इस ऊंचाई तक पहुंची हैं। इन सबसे से परे, कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा है। यद्यपि उनके दुख-सुख तसलीमा से अलग हैं फिर भी वे अनुभव कहीं न कहीं एक जैसे हैं जो भावनात्क शोषण के हैं। इसमें स्वनामधन्य संपादकों द्वारा भावनात्मक- शोषण किए जाने का उल्लेख है। सुखद यह लगा कि इस पर उस ढंग से प्रतिक्रिया नहीं हुई जैसी कि तसलीमा नसरीन के ‘क’ पर हुई थी। जबकि शायद यह भारतीय साहित्यकारों, संपादकों के सोच में आए खुलेपन का प्रमाण है। धीरे-धीरे यह तथ्य स्वीकार किया जाने लगा है कि लेखिका एक स्त्री होने के साथ-साथ पुरुषों की भांति एक मनुष्य भी है जिसका अपना एक जीवन है, अपने दुख-सुख हैं और जिन्हें गोपन रखने अथवा उजागर करने का उसे पूरा-पूरा अधिकार है। उसके भीतर वे सभी संवेग होते हैं जो एक आम स्त्री में होते हैं, अन्तर मात्र यही होता है कि आम स्त्री उन संवेगों को व्यक्त करने का साहस नहीं संजो पाती है जबकि आत्मकथा लिखने वाली स्त्री साहस के साथ सब कुछ सामने रख देती है-जो जैसा है, वैसा ही। जैसा कि अपनी आत्मकथा के संबंध में कृष्णा अग्निहोत्री का कहना है कि, ‘‘मेरा बयान नंगा रहे...एकदम प्राकृतिक...साफ़! अहसासों की पर्तें कुछ इस तरह उघड़ती जाएं कि उनकी बारीक रेखाएं भी पढ़त से बाहर न रहें।’’
स्त्री और उसकी आत्मकथा के अस्तित्व को एक साथ स्वीकार करने का वातावरण बहुत पहले जन्म ले चुका है और उसमें हिन्दी की लेखिकाओं की आत्मकथाओं की कड़ियों का जुड़ते जाना स्त्री से उसके समूचे अस्तित्व के साथ स्वीकार किए जाने जैसा है। एक बौद्धिक सकारात्मक बोध की तरह।
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