Tuesday, May 31, 2022
पुस्तक समीक्षा | समाज के परिष्कार का आग्रह करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
Sunday, May 29, 2022
पुस्तक समीक्षा | स्त्री स्वाभिमान की अद्भुत गाथा | समीक्षक देवेंद्र सोनी | उपन्यास - शरद सिंह
भूमिका | दर्जी की सुई की भांति कविताएं | काव्य संग्रह | डाॅ. (सुश्री) शरद सिह
संस्मरण | सिद्दीकी साहब की मुर्गियां, सेवइयां और सहजन की फलियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत
Friday, May 27, 2022
बतकाव बिन्ना की | सबई खों डर के रओ चाइए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात
Wednesday, May 25, 2022
चर्चा प्लस | काश ! कभी न मनाना पड़े - मिसिंग चिल्ड्रेन डे (25 मई) | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
काश ! कभी न मनाना पड़े - मिसिंग चिल्ड्रेन डे (25 मई)
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
दुनिया के सारे बच्चे अपनी मांओं की गोद और पिता की बांहों में सुरक्षित रहे! हमें कभी न मनाना पड़े खोए हुए बच्चों का दिवस। इसी प्रार्थना के लिए प्रेरित करता है ‘‘मिसिंग चिल्ड्रेन डे’’ यानी गुमशुदा बच्चों का दिवस। यह दिवस इस बात का भी आग्रह करता है कि हम उन बच्चों को न भुलाएं जो अपराधियों द्वारा हमारे समाज में ही कहीं छुपा दिए गए हैं। साथ ही कोशिश करते रहें कि खोए हुए बच्चे अपने घर लौट सकें, अपने माता-पिता के पास, जिनकी आंखें प्रतीक्षा करते हुए पथराई जा रही हैं।
बच्चों का खो जाना इस दुनिया की सबसे बड़ी हृदयविदारक त्रासदी है। यह कल्पना से परे है कि उन माता-पिता पर क्या गुज़रती होगी जिसका बच्चा अचानक गुमशुदा हो जाता है। यदि कुछ अरसे बाद किसी अनहोनी के तहत उस बच्चे के मारे जाने की सूचना मिलती है तो एक ज़बर्दस्त झटका लगता है किन्तु इसी के साथ बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा समाप्त हो जाती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि बच्चे के संबंध में किसी भी प्रकार की सूचना कभी नहीं मिल पाती है तो माता-पिता को जीवन भर उस बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा रहती है। जबकि वे नहीं जान पाते हैं कि उनके बच्चे के साथ क्या हुआ? वह कहां है? किन हालातों में है? जीवित है भी या नहीं? कभी लौट सकेगा या नहीं? इतने सारे प्रश्नचिन्हों के साथ प्रतिदिन अपने बच्चे के लौटने की की आशा के साथ जीना कितना कठिन है, यह वे माता-पिता ही बता सकते हैं जिन्होंने अपने बच्चे को खोया है।
हर साल 25 मई को विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन उन गुमशुदा बच्चों के लिए मनाया जाता है जो किसी तरह अपने घर पहुंच चुके है, उन लोगों को याद रखने के लिए जो अपराध के शिकार हैं, और उन लोगों की तलाश करने के प्रयास जारी रखने के लिए जो अभी भी लापता हैं। मिसिंग चिल्ड्रन्स डे का प्रतीक है ‘‘फाॅरगेट मी नाॅट’’ नामक फूल।
इस दिवस को मनाने की शुरुआत हुई सन् 1979 की घटना से। 25 मई, 1979 को छह वर्षीय एटन पैट्ज बस से स्कूल जाते समय अचानक गायब हो गया। इसके पहले तक लापता बच्चों के मामलों ने शायद ही कभी राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया हो। पहली बार एटन के लापता होने के मामले ने इस समस्या से जूझ रही देश-दुनिया का ध्यान खींचा और मीडिया का सहारा लिया। एटन के पिता, जो एक पेशेवर फोटोग्राफर थे, ने बच्चे को खोजने के लिए उसकी ब्लैक-व्हाइट तस्वीरें हर जगह वितरित कीं। जिससे मीडिया का भी इस ओर ध्यान गया। सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने लापता बच्चों की याद में इस दिवस मनाना शुरू किया। धीरे-धीरे दुनिया भर के अन्य देशों में भी इसकी शुरुआत की गई। औपचारिक रूप से 25 मई, 2001 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस को मान्यता दी गई थी। यह सब कुछ मिसिंग चिल्ड्रन यूरोप और यूरोपीय आयोग के संयुक्त प्रयास से संभव हो पाया। आज यह दिवस अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
बहुत पहले टेलीविजन पर हाॅलीवुड की एक फिल्म देखी थी जिसका नाम तो अब याद नहीं है किन्तु उसकी कहानी जो वास्तविक घटना पर आधारित थी, वह आज भी दिल-दिमाग़ में बसी हुई है। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि एक युवा पिता अपने बच्चे को अपनी कार में लेकर घर से निकलता है और वह किसी काम से कुछ मिनटों के लिए एक माॅल में जाता है। अपने दुधमुंहे बच्चे को जल्दी लौटने का कहते हुए वह कार की खिड़की खुली छोड़ देता है ताकि उसे हवा मिलती रहे। कुछ मिनट बाद जब वह वापस आता है तो उसे बच्चा कार में नहीं मिलता है। वह पागलों की तरह अपने बच्चे को ढूंढता है किन्तु बच्चा उसे नहीं मिलता है। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती है कि वह अपनी पत्नी के सामने बच्चे के बिना कैसे जाए। वह घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है और बच्चे के खोने के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है। वह अपनी नौकरी, बिजनेस सब छोड़ कर बच्चे की खोज में भटकता रहता है और भिखारियों के बीच सारा जीवन बिता देता है। एक पिता की मनःस्थिति जो उस पल के लिए स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाता है कि वह अपने बच्चे को कार में छोड़ कर क्यों गया, रोंगटे खड़े कर देती है।
इसी तरह अभिनेता स्टीवेन सीगल की एक फिल्म आई थी जिसमें वह अपनी गुमशुदा नाबालिग बेटी को ढूंढता हुआ एशिया के उन इलाकों में जा पहुंचता है जहां कम उम्र की लड़कियों को दुनिया भर से अपहृत कर के लाया जाता है और उनकी पोर्न फिल्म बना कर दुनिया भर में बेचा जाता है। स्टीवेन ऐसे ही एक अड्डे पर अपनी बेटी को बुरी अवस्था में पाता है और यह देख कर उसका खून खैल उठता है। चूंकि वह एक्शन फिल्म थी अतः हीरो अकेले ही बच्चों की तस्करी के माफिया से भिड़ कर अपनी बेटी को बचा लेता है। जबकि वास्तविक जीवन में ऐसा संभव नहीं होता है। यद्यपि एक बात इस फिल्म के अंत में सार्थकता के साथ रखी गई कि अपराध का शिकार हुई बेटी को हीरो गले लगा कर कहता है कि ‘‘इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं! तुम्हें एक सामान्य जीवन जीने का अधिकार है और हमेशा रहेगा।’’
लापता और शोषित बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय केंद्र इंटरनेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड एक्सप्लॉइटेड चिल्ड्रन एक 501 (ब) (3) गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी संगठन है जो बाल अपहरण, यौन शोषण और शोषण को समाप्त करके बच्चों के लिए इस दुनिया को एक सुरक्षित स्थान बनाने के लिए काम कर रहा है। सन् 1998 में अपनी स्थापना के बाद से आईसीएमईसी ने 117 देशों के 10,000 से अधिक कानून प्रवर्तन अधिकारियों को प्रशिक्षित किया है.बाल पोर्नोग्राफी के विरुद्ध कानूनों को लागू करने के लिए 100 से अधिक देशों की सरकारों के साथ काम किया.अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस 2001 से 6 महाद्वीपों के 20 से अधिक देशों में मनाया जा रहा है और इसके तहत 23 सदस्यीय ग्लोबल मिसिंग चिल्ड्रेन नेटवर्क बनाया गया। आईसीएमईसी का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका में है, जिसका क्षेत्रीय ऑफिस ब्राजील और सिंगापुर में है।
अब बात भारत की करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में भारत में कुल 73,138 बच्चे लापता हुए। देश में हर दिन सैकड़ों बच्चे लापता हो जाते हैं। वर्ष 2016 के दौरान कुल 63,407 बच्चे, 2017 के दौरान 63,349 बच्चे और 2018 के दौरान कुल 67,134 बच्चे लापता बताए गए हैं। (एनसीआरबी 2019) राज्य की बात करें, तो मध्य प्रदेश वर्ष 2016, 2017 और 2018 में क्रमशः 8,503, 10,110 और 10,038 लापता बच्चों का रिकाॅर्ड रहा। वहीं पश्चिम बंगाल दूसरे स्थान पर है। यहां 2016 में 8,335, 2017 में 8,178 और 2018 में 8,205 बच्चे लापता हुए। एनसीआरबी 2019 के अनुसार लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और बिहार में है। मध्य प्रदेश में लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक इंदौर जिले से रही है। पश्चिम बंगाल में कोलकाता जिले में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है। वहीं बिहार में पटना जिले में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है।
यदि बुंदेलखंड पर दृष्टिपात करें तो यहां भी कोई अच्छी दशा नहीं है। इस विषय पर मैंने अपने इसी ‘‘चर्चा प्लस’’ काॅलम में 31.01.2019 में ‘‘गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेखबर हम’’ शीर्षक से लिखा था।
देश में प्रतिदिन औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से अधिकांश का कभी पता नहीं चलता। हर साल घर से गायब होने वाले बच्चों में से 30 फीसदी वापस लौटकर नहीं आते। नाबालिगों की गुमशुदगी का आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है। बच्चों के गुम होने के आंकड़े बुंदेलखंड में भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सागर के अलावा टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से भी कई बच्चे गुम हो चुके हैं। चंद माह पहले सागर जिले की खुरई तहसील में एक किशोरी को उसके रिश्तेदार द्वारा उसे उत्तर प्रदेश में बेचे जाने का प्रयास किया गया। वहीं बण्डा, सुरखी, देवरी, बीना क्षेत्र से लापता किशोरियों का महीनों बाद भी अब तक कोई पता नहीं है। इन मामलों में ह्यूमेन ट्रेफिकिंग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
सागर, टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से जनवरी 2018 से अगस्त 2018 के बीच 513 किशोर-किशोरी लापता हुए हैं। इनमें से करीब 362 बच्चे या तो स्वयं लौट आए या पुलिस द्वारा उन्हें विभिन्न स्थानों से दस्तयाब किया गया। लेकिन अब भी 151 से ज्यादा बच्चों को कोई पता ही नहीं चला है। वर्ष 2018 में जिले में किशोर-किशोरियों की गुमशुदगी के आंकड़ों में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है। कुल 178 गुमशुदगी दर्ज हुए मामलों में किशोरों की संख्या लगभग 55 थी और किशोरियों 123 थी। वर्ष 2015 में गुमशुदगी का आंकड़ा 136 था जो 2016 में 167 और पिछले साल 2017 में 215 तक पहुंच गया था। इन आंकड़ों को देखते हुए इस वर्ष 2018 के दिसम्बर तक यह संख्या ढाई सौ के आसपास पहुंच गई थी। लापता होने वालों में सबसे ज्यादा 14 से 17 आयु वर्ग के किशोर-किशोरी होते हैं। इनमें भी अधिकांश कक्षा 9 से 12 की कक्षाओं में पढ़ने वाले स्कूली बच्चे हैं।
आखिर महानगरों के चैराहों पर ट्रैफिक रेड लाइट होने के दौरान सामान बेचने या भीख मांगने वाले बच्चे कहां से आते हैं? इन बच्चों की पहचान क्या है? अलायंस फॉर पीपुल्स राइट्स (एपीआर) और गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) द्वारा जब पड़ताल की गई तो पाया गया कि उनमें से अनेक बच्चे ऐसे थे जो भीख मंगवाने वाले गिरोह के सदस्य थे। माता-पिता विहीन उन बच्चों को यह भी याद नहीं था कि वे किस राज्य या किस शहर से महानगर पहुंचे हैं। जिन्हें माता-पिता की याद थी, वे भी अपने शहर के बारे में नहीं बता सके। पता नहीं उनमें से कितने बचचे बुंदेलखंड के हों। बचपन में यही कह कर डराया जाता है कि कहना नहीं मानोगे तो बाबा पकड़ ले जाएगा। बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नजर से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है।
मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले दशक में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं। 2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से अधिक बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर जिलों में 90 फीसदी से ज्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को जबरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि उत्तर भारत की लड़कियों को अगवा कर उन्हें खाड़ी देशों में बेच दिया जाता है। इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
सच तो यह है कि बच्चे सिर्फ पुलिस, कानून या शासन के ही नहीं प्रत्येक नागरिक का दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो। बहरहाल, हम मिसिंग चिल्ड्रेन डे यानी गुमशुदा बच्चों का दिवस मनाते हुए यह प्रार्थना करें कि किसी बच्चे को अपने माता-पिता से न बिछड़ना पड़े।
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(25.05.2022)
#शरदसिंह #DrSharadSingh #चर्चाप्लस #दैनिक #सागर_दिनकर
#डॉसुश्रीशरदस #मिसिंगचिल्ड्रेनडे #missingchildrenday
Tuesday, May 24, 2022
पुस्तक समीक्षा | समाज के दोहरे चरित्र को आईना दिखाती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 24.05.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि, कथाकार "महेश कटारे सुगम" के कहानी संग्रह "फसल" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
समाज के दोहरे चरित्र को आईना दिखाती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - फसल
लेखक - महेश कटारे ‘सुगम’
प्रकाशक - लोकोदय प्रकाशन, प्रालि., 65/44 शंकरपुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ (उप्र)
मूल्य - 150 /-
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आज जिस कहानी संग्रह की समीक्षा मैं कर रही हूं वह बुंदेलखंड के कहानीकार महेश कटारे सुगम का कहानी संग्रह ‘‘फसल’’ है। इस संग्रह में मौजूद कहानियों में ग्रामीण परिवेश की समसामयिक समस्याओं, जिन पर शहरी समस्याओं की छाप है, को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। इन कहानियों में आंचलिकता का पुट रचा बसा है। संग्रह की पहली कहानी का नाम है - ‘‘फसल’’। यह कहानी बुंदेलखंड में व्याप्त दस्यु समस्या पर आधारित है। इसका कथानक उस समय का है जब बुंदेलखंड में डाकुओं का आतंक व्याप्त था और सरकार हर संभव प्रयास कर रही थी कि इस समस्या पर लगाम लगाई जा सके।
70-80 के दशक में मध्य प्रदेश के भिंड जिले की चंबल घाटी में डाकू मलखान सिंह एक दुर्दांत नाम था। उन दिनों मलखान सिंह के सिर पर 70 हजार रुपये ( आज के हिसाब से लगभग 6 लाख रुपये) का इनाम रखा गया था। दस्यु उन्मूलन के प्रयास करने पर मलखान सिंह, पूजा बाबा जैसे अनेक कुख्यात डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया था। आत्मसमर्पण की योजना बनाना सरकार के लिए इसलिए भी जरूरी हो गया था क्योंकि इन दस्युओं की ग्रामीण जनता में बहुत प्रतिष्ठा थी। वे गरीबों की आर्थिक मदद करते थे तथा कभी किसी परिवार की बहू-बेटी से अभद्रता नहीं करते थे। इसका सकारात्मक असर जनता के दिलों-दिमाग पर था। इसीलिए ग्रामीण जनता उन्हें पुलिस से बचने में मदद किया करती थी। अतः यह जरूरी हो गया था कि उन्हें सम्मानजनक तरीके से आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया जाए। मलखान सिंह का आत्मसमर्पण सशत्र्त था। उसने सरकार से यह मांग रखी थी कि उसके किसी भी साथी को मृत्युदंड की सजा न दी जाए जिसे सरकार ने मान लिया था। मलखान सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने अपने हथियार रख कर आत्मसमर्पण की घोषणा की थी। इस आत्मसमर्पण में पुलिस अधीक्षक और उनकी पत्नी की अहम भूमिका चर्चित रही थी जिसमें कहा जाता था कि भिंड के पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने डाकू मलखान सिंह को राखी बांधकर आत्मसमर्पण के लिए राजी किर था। आत्मसमर्पण के बाद डाकुओं को खुली जेल में रखा गया था। जहां रहते हुए वे अपनी सजा भी काट रहे थे किंतु आम जनजीवन से भी जुड़े हुए थे।
यद्यपि जैसी की आशा थी इस आत्मसमर्पण से समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई अपितु कुछ अपराधी मनोवृति के ग्रामीणों को रास्ता मिल गया लूटपाट करने का और अपने प्रतिशोध लेने का वे लोगों को लूटते डकैती डालते हत्याएं करते और बीहड़ में कूद जाते। उनको अपने आप को ‘डाकू सरदार’ या ‘दस्यु सुंदरी’ कहलाने में गर्व महसूस होता। यह समस्या आगे भी कई दशकों तक चलती रही। अजयगढ़, बांदा क्षेत्र के कुख्यात डाकू चार्ली राजा के आत्मसमर्पण के अवसर पर पत्रकार के रूप में मैं भी उस घटना के साक्षी रही हूं। चार्ली राजा को देख कर ही यह अंदाजा लगता था कि यह मलखान सिंह की परंपरा दस्यु नहीं है। चार्ली शब्द का अर्थ ही उद्दंड या चलता -पुर्जा होता है। कई डाकू सामान्य जिंदगी में लौट कर भी असामान्य बने रहे। ऐसा ही एक पात्र महेश कटारे ने अपनी कहानी ‘‘फसल’’ में रखा है। किंतु कहानी में एक नया मोड़ तब आता है जब उस दुर्दांत डाकू की घर वापसी के बाद उसकी दुर्दांता बनी रहती है और उसे समूल नष्ट करने के लिए उस से पीड़ित परिवार का युवक अपने हाथों में बंदूक उठा लेता है लेकिन वह तय करता है कि उस डाकू को मारने के बाद वह बीहड़ की ओर नहीं कानून की ओर जाएगा। बुंदेलखंड की दस्यु समस्या से परिचित कराती यह एक अच्छी कहानी है।
‘‘साठ मिनट का सफर’’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है एक यात्रा वृतांत है। इसमें 60 मिनट की रेल यात्रा का रोचक विवरण है। एक कंपार्टमेंट में अनाधिकृत रूप से छात्राओं का प्रवेश करना और अपनी चुलबुली हरकतों से कंपार्टमेंट को गुंजायमान किए रखना इस कहानी की रोचकता का सबसे बड़ा पक्ष है।
‘‘रोज़-रोज़’’ कहानी का शीर्षक पढ़कर सहसा अज्ञेय की कहानी ‘‘रोज़’’ याद आ गई। यूं तो अज्ञेय की ‘‘रोज’’ पहले ‘‘गैंग्रीन’’ नाम से छपी थी लेकिन बाद में इसका शीर्षक बदलकर अज्ञेय ने ‘‘रोज’’ कर दिया था। यद्यपि अज्ञेय की ‘‘रोज’’ और महेश कटारे कि ‘‘रोज’’ में कोई साम्य नहीं है। दोनों विपरीत ध्रुवीय कहानी हैं। अज्ञेय की ‘‘रोज’’ जहां एक ऐसी स्त्री की कथा है जो अपने पारिवारिक जीवन में एक घर में कैदी सा जीवन बिता रही है, जिसकी रोज ही एक सी दिनचर्या है। वही महेश कटारे की ‘‘रोज़-रोज़’’ उन स्त्रियों की संघर्ष गाथा है जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए पैसेंजर ट्रेन पर सवार होकर, एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक की यात्रा करती हैं। वहां से उतरकर वे जंगल जाती हैं। वहां से लकड़ियां बटोरती हैं और फिर उन लकड़ियों के गठ्ठों को अपने सिर पर ढोकर स्टेशन तक लाती हैं और फिर वही यात्रा ट्रेन की अपने घर वापसी तक। इन लकड़ियों को बेचकर ही परिवार का जीवन यापन होता है। किंतु इस प्रतिदिन की यात्रा में अनेक संकट हैं- ट्रेन की भीड़ का संकट, टिकट कलेक्टर का संकट, जंगल में पहुंचकर वनरक्षक का संकट, अर्थात अनेक स्तरों पर इन स्त्रियों को रोज-रोज जूझना पड़ता है। यह स्त्री विमर्श की एक सशक्त कहानी मानी जा सकती है।
‘‘केट्टी’’ कहानी एक ऐसी युवती की है जो केरल की रहने वाली है। पारिवारिक आर्थिक विपन्नता के कारण वह अपनी बचपन की सहेली के पास ग्वालियर आ जाती है और वही नर्सिंग का कोर्स करके नर्स के रूप में एक गांव में नियुक्ति पा जाती है। यहां से शुरू होती है उसकी विडंबनाओं की कहानी। अस्पताल पहुंचते ही वहां का स्टाफ उसे इस प्रकार देखता है जैसे वह कोई मनोरंजन की वस्तु हो। थक-हार कर वह विवाह का रास्ता अपनाती है। वह एक ऐसे पुरुष से विवाह करती है जो पहले से ही विवाहित है किंतु उसके प्रति आकर्षित है। वह पुरुष अर्थात कंपाउंडर मिश्रा समाज में साख रखता है। अतः उस से विवाह करके केट्टी स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। केट्टी ने एक सुखद सुरक्षित जीवन की कल्पना करते हुए कंपाउंडर मिश्रा से शादी की थी वह कल्पना शीघ्र ही चूर-चूर हो गई। विवाह के बाद कंपाउंडर मिश्रा का वास्तविक रूप उसके सामने आया। वह जितना ऊपर से सज्जन दिखाई देता था, भीतर से उतना ही दुर्जन साबित हुआ। हर रात वैवाहिक-बलात्कार का सामना करती हुई केट्टी इस नतीजे पर पहुंचती है कि कानूनी अधिकार प्राप्त भेड़िए से मुक्त हो जाना ही श्रेयस्कर है। यह कहानी एक साथ गई मुद्दों पर चर्चा करती है जैसे स्त्री का अकेले रहते हुए अपने पैरों पर खड़े होने का संघर्ष, समाज में मौजूद भेड़िएनुमा लोगों की देह लोलुप चेष्टाएं और विवाह के उपरांत शराबी तथा पत्नी को उपभोग की वस्तु समझने वाला पति मिलने से उत्पन्न जीवन संकट। यह कहानी समाज में स्त्री की दशा पर पुनर्विचार करने का तीव्र आग्रह करती है।
‘‘प्यास’’ कहानी उस ग्रामीण परिवेश और समाज की कहानी है जहां मनुष्य की प्यास को भी उनकी जाति से आंका जाता है। कहानी का नायक गणपत नाई बड़ेजू की पोती का टीका चढ़ाने जाता है जहां उससे अपमान का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि रास्ते में वह सभी को कुएं से पानी लाकर पिलाता है किंतु जब उसे प्यास लगती है तो उसे डपट दिया जाता है कि इसे बड़ी प्यास लगी हुई है। उतार दो इसे गाड़ी से जब कई किलोमीटर यह पैदल चल कर आएगा, तभी से समझ में आएगा। इस तरह का दोहरे व्यवहार की यह कहानी समाज के चाल, चरित्र और चेहरे को बेनकाब करती है।
‘‘फिर का भऔ’’ कहानी गांव के एक रसूखदार के बिगड़ैल बेटे को एक लड़की द्वारा दंडित किए जाने की रोचक कहानी है। ‘‘इस तरह’’ एक हंसमुख जिंदादिल कंडक्टर की कहानी है जिसकी जाति का पता लगाने के लिए सूत्रधार परेशान रहता है। गोया कंडक्टर की जाति उसके अस्तित्व से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो किंतु अंततः सूत्रधार को एहसास होता है कि वह गलत रास्ते पर जा रहा है।
‘‘घर’’ सर्पग्रस्त घर की कहानी है। मकान मालिक सर्पोंें के हाथों बहुत व्यक्तिगत क्षति झेलता है। अंततः उसका धैर्य जवाब दे जाता है। वह सांपों को कुचलने के लिए कटिबद्ध हो उठता है। ‘‘अपना बोझ’’ एक खेतिहर श्रमिक दंपति के संघर्ष की कहानी है। पति तपेदिक से बीमार पड़ जाने पर पत्नी घर का खर्च उठाने के लिए बैलगाड़ी से सामान ढोने का काम करने लगती है। समाज के ठेकेदार उसके इस कार्य पर उंगली उठाते हैं किंतु मदद के लिए कोई नहीं आता है। अनेक हृदय विदारक संकटों से गुजरने के बाद जब लोग मदद के लिए आते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कथा की नायिका मदद लेने से इनकार कर देती है। वह कहती है कि जब जीवन भर दूसरों का बोझ उठाया तो आज अपना बोझ खुद उठाने में उससे कोई परेशानी नहीं है।
‘‘मुक्ति’’ उच्च शिक्षा प्राप्त कर बेरोजगार घूम रहे युवाओं के टूटते सपनों की कहानी है। कहानी का नायक चाय की दुकान वाले का बेटा है। उसने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और वह भी नौकरी पाने के सपने देखता है। परंतु वह ‘‘ओव्हरऐज़’’ हो जाता है लेकिन उसके सपने पूरे नहीं हो पाते हैं। अंततः वह अपनी डिग्रियों को भट्टी के हवाले करके अपने टूटे सपनों से मुक्ति पा जाता है। ‘‘चींटे’’ तथा ‘‘दृश्य-अदृश्य’’ समाज-विमर्श की कहानियां हैं।
पुस्तक की भूमिका कुंदन सिंह परिहार ने लिखी है। ‘‘कहानी लेखन पर दो टूक’’ - इस शीर्षक से कहानीकार ने आत्मकथन लिखा है। जिसमें उन्होंने अपनी साहित्य की यात्रा के आरंभ होने के कारण बताए हैं। महेश कटारे सुगम की यह विशेषता है कि वे अपने लेखन में साफ़गोई का परिचय देते हैं। बिना किसी लाग लपेट के। वे सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं और कथा को विस्तार देते जाते हैं। सरल सहज हिंदी में बुंदेली बोली की छौंक जहां कहानियों की सरसता बढ़ा देती है, वही उन कहानियों का जमीन से जुड़ाव भी स्थापित करती है। ‘‘फसल’’ कहानीकार महेश कटारे सुगम का वह कहानी संग्रह है जो समाज चिंतन का एक मौलिक धरातल प्रस्तुत करता है। निश्चित रूप से यह एक पठनीय कहानी संग्रह है।
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Sunday, May 22, 2022
सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है : शिखंडी स्त्री देह से परे - समीक्षक डॉ देवेंद्र सोनी
भोपाल से प्रकाशित "दैनिक चित्रकूट ज्योति" के रविवारीय परिशिष्ट में आज मेरे उपन्यास 'शिखण्डी' की समीक्षा समीक्षक देवेंद्र सोनी जी द्वारा की गई है।
मूल टेक्स्ट साभार देवेंद्र सोनी जी की फेसबुक वॉल से.....
राजधानी भोपाल से प्रकाशित दैनिक चित्रकूट ज्योति के रविवारीय परिशिष्ट में पढ़िए -
डॉ.सुश्री शरद सिंह के उपन्यास 'शिखण्डी:स्त्री देह से परे' पर मेरी यह समीक्षा .
इस समीक्षा को आप हिन्दी प्रतिलिपि एप पर भी पढ़ सकते हैं।
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मूल लेखन भी प्रस्तुत है -
स्त्री-अस्तित्व,स्वाभिमान और गरिमा के सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है उपन्यास - 'शिखण्डी : स्त्री देह से परे'
उपन्यास - शिखण्डी : स्त्री देह से परे
लेखिका - शरद सिंह
प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली
मूल्य - 300₹
समीक्षक - देवेन्द्र सोनी ,इटारसी
अपने उपन्यासों के लिए चर्चित देश की ख्यातिप्राप्त साहित्यकार डॉ सुश्री शरद सिंह का उपन्यास "शिखण्डी - स्त्री देह से परे" पढ़ने का अवसर मिला। अब तक पचास से अधिक प्रकाशित पुस्तकों का लेखन करने वालीं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ शरद सिंह का यह उपन्यास जनमानस में रचे - बसे महाकाव्य 'महाभारत' के एक शक्तिपुंज पात्र 'शिखंडी' पर आधारित है जिसमें लेखिका ने अपनी गहन विचार शक्ति से प्राण फूंक कर पाठकों के मन मस्तिष्क में हमेशा के लिए जीवंत कर दिया है।
पौराणिक कथानक पर लिखा गया यह उपन्यास स्त्री-अस्तित्व,स्वाभिमान और गरिमा को संरक्षित करने के लिए सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है जिसे लेखिका ने अपने संवाद कौशल से साहित्य की चिरकालिक स्मरणीय कृति बना दिया है।
यह उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे जाने के बाबजूद भी युगों - युगों तक अन्याय के विरुद्ध नारी - प्रतिशोध का वह जीवंत दस्तावेज है जो वर्तमान और भविष्य में स्त्री-विमर्श को नए आयाम देगा तथा उत्पीड़न/शोषण का प्रतिकार कर प्रतिशोध की प्रबलता को प्रवाहित करेगा।
स्त्री विमर्श की विख्यात लेखिका शरद सिंह के इस उपन्यास-' शिखण्डी : स्त्री देह से परे ' में हमारी इसी ललक की पिपासा को संतुष्टि और समाधान मिलता है । यहां पाठकों को 'महाभारत' के बारे में सारगर्भित जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही आदिकाल से चले आ रहे स्त्री - उत्पीड़न और उसके प्रतिकार स्वरूप सशक्त प्रतिशोध की संकल्पित ज्वाला भी धधकती हुई दिखाई देती है जो जन्म-जन्मान्तरों की कठिन तपस्या और शिवजी के वरदान से फलीभूत होती है।
इस कथात्मक महाकाव्य 'महाभारत' के बारे में लेखिका 'अपनी बात' में लिखती हैं - "महाभारत' में इतिहास एवं युद्ध कथाएं तो हैं ही इसके अतिरिक्त मनोविज्ञान एवं विज्ञान का चमत्कृत कर देने वाला ज्ञान मौजूद है। प्रक्षेपास्त्र,परखनली शिशु तथा शल्य चिकित्सा द्वारा लिंग परिवर्तन का विवरण भी मिलता है। इस वैज्ञानिक ज्ञान ने 'महाभारत' की महत्ता को विश्वव्यापी बना दिया है।' महाभारत' के जितने भी प्राचीनतम लेखबद्ध - स्वरूप उपलब्ध हैं, उनका अध्ययन अमेरिका की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी 'नासा' द्वारा भी किया गया है तथा निरंतर किया जा रहा है। यहां तक कि दुनियाभर के एनशिएंट एलियन रिसर्चर भी 'महाभारत' काल में एलियंस की उपस्थिति की संभावना को जानने के लिए 'महाभारत' ग्रंथ का अध्ययन कर रहे हैं । यह माना जाता है कि 'महाभारत' के श्लोकों में अभी भी बहुत कुछ 'कोडीफाई' है और इसे 'डिकोड' करके प्राचीन काल के सुविकसित ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान के संदर्भ में 'महाभारत' में लौकिक, अलौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान का प्रचुर भंडार है। 'श्रीमद्भागवतगीता' जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है। इस आदि ग्रंथ के अभिन्न अंग 'श्रीमद्भागवतगीता' में जीवन मूल्यों को समझने के लिए अकाट्य सूत्र मौजूद हैं ।आधुनिक बाजार वादी युग के मैनेजमेंट गुरु भी अपने मैनेजमेंट की सफलता के लिए 'श्रीमद्भागवतगीता' के श्लोकों का सहारा लेते हैं।"
उपन्यास 'शिखण्डी : स्त्री देह से परे' के सारांश पर आएं तो हस्तिनापुर राज्य के महाबली भीष्म द्वारा अपने राजा विचित्रवीर्य के परिणय हेतु काशी नरेश की राजकुमारी अम्बा और उसकी दो बहन अम्बिका तथा अम्बालिका को बल पूर्वक स्वयंवर स्थल से अपह्रत कर हस्तिनापुर ले जाया जाता है । यहां राजदरबार में महाराज शाल्वराज की प्रेयसी 'अम्बा' राजा विचित्रवीर्य की रानी बनने से साफ इंकार कर देती है जबकि उसकी दोनों बहनें अम्बिका और अम्बालिका इस हेतु अपनी सहमति दे देती हैं।
राजकुमारी 'अम्बा' के प्रतिकार का कारण जानकर जब 'भीष्म' उसे शाल्वराज के पास वापस भेज देते हैं तो 'कापुरुष शाल्वराज' राजकुमारी 'अम्बा' को किसी और की 'जूठन' कह अस्वीकार कर देता है। अपने इस अपमान से आहत राजकुमारी 'अम्बा' बिफरकर पुनः हस्तिनापुर के दरबार में लौटती हैं और भीष्म को अपनी जिंदगी बर्बाद करने का दोषी करार देते हुए कहती है - ' धिक्कार है कुरुवंशियों पर! तुम सभी स्त्री को वस्तु समझते हो। धिक्कार है, तुम्हारी ऐसी सोच पर! ऐ भीष्म, तुमने मेरा जीवन नष्ट किया! तुमने मेरे सपनों को निर्ममता पूर्वक पददलित किया, तुमने मुझे सकल विश्व के समक्ष कलंकिनी घोषित करा दिया! ऐ भीष्म! तुमने मात्र मेरा नहीं अपितु समस्त स्त्रीजाति का अनादर किया है।' अम्बा बोले जा रही थी और उसके स्वर की भीषणता से वहां उपस्थित सभी के हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से कम्पित हो उठे।
' ऐ देवव्रत भीष्म! एक भीष्म प्रतिज्ञा करके तुम भीष्म कहलाए, तो सुनो, आज मैं भी एक भीष्म प्रतिज्ञा कर रही हूं कि तुम्हारी मृत्यु का कारण मैं ही बनूंगी ! मैं अम्बा! में भीष्मा ! आज इस कुरु राजसभा में प्रतिज्ञा लेती हुई घोषणा करती हूं कि जब तक मैं तुम्हें दण्डित नहीं कर दूंगी तब तक मेरी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा !' यह गर्जना करती हुई अम्बा जो भीष्म प्रतिज्ञा कर 'भीष्मा' बन चुकी थी, राज्यसभा से इस प्रकार चलती हुई चली गई, जैसे कोई सिंहनी हिरणों के झुंड को अपनी गर्जना से प्रकंपित कर प्रस्थानित होती है।
राज दरबार से निकल कर दृढ़-प्रतिज्ञ अम्बा अपने पिता काशी नरेश के यहां न जाकर वन-प्रांतरों में अनेक मानसिक एवं शारीरिक यातनाओं को सहते हुए कठिन तपस्या करती है तथा अपने तपोबल से भगवान शिव से महाप्रतापी भीष्म की मृत्य का कारण बनने का वरदान प्राप्त करती है किन्तु अम्बा की यह प्रतिज्ञा पुरुष देह में ही पूर्ण हो सकती थी। अतः अम्बा अगले जन्म के लिए नदी में अपनी इहलीला समाप्त कर लेती है। यही नदी बाद में अम्बा नदी के रूप में जानी गई।
दूसरे जन्म में वह अल्पकाल के लिए शिविका के रूप में जन्म लेती है और अपनी पूर्व जन्म की स्मृति को बरकरार रखते हुए भीष्म से प्रतिशोध की कामना लिए भगवान शिव के कहने पर अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर देती है।
...फिर अपने तीसरे जन्म में भी 'अम्बा ' पांचाल नरेश राजा द्रुपद के यहां कन्या रूप में ही जन्म लेती है जिसे राजप्रासाद में बालक के रूप में पाला-पोषा जाता है किन्तु विवाहोपरांत मधुयामिनी की रात्रि को 'शिखण्डी' का भेद खुल जाता है और अचेत अवस्था में उसे शिवजी का वरदान और अपना प्रतिशोध याद आता है। तब वह गुप्त मार्ग द्वारा महल छोड़कर पुनःअपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए निकल पड़ती है, मगर यह स्त्री देह में संभव कहाँ था ?
शिवजी के वरदान के बावजूद सशंकित मन से वह पुनः कठिन तपस्या करती है और क्षीण अवस्था में यक्ष चिकित्सक द्वारा शल्य क्रिया के माध्यम से पुरुष देह धारण कर वापस अपने राज्य में शिखण्डी के रूप में प्रवेश कर युद्धस्थल के लिए प्रस्थित होता है।
अम्बा के शिखण्डी बनने तक की तीन जन्मों की इस प्रतिशोध यात्रा को लेखिका ने अपनी कल्पनाशक्ति से मानो जीवंत कर दिया है । यहां संवाद-कौशल की जितनी तारीफ की जाए कम है। शिखण्डी के रूप में सहज जिज्ञासा को शांत करते हुए डॉ. शरद सिंह कहती हैं -
"उसका अस्तित्व कैसा था ?
वह स्त्री था, पुरुष था अथवा तृतीय लिंगी? एक व्यक्ति से जुड़े अनेक प्रश्न... क्योंकि उसका अस्तित्व सामान्य नहीं था। वह शक्तिपुंज पात्र 'महाभारत' महाकाव्य का सबसे दृढ़ निश्चयी चरित्र है, जो अपने जीवन की प्रत्येक परत के साथ न केवल चौंकाता है वरन अपनी ओर चुम्बकीय ढंग से आकर्षित भी करता है । वह पात्र है शिखण्डी जिसका अस्तित्व भ्रान्तियों के संजाल में उलझा हुआ है। वहीं वह इतना प्रभावशाली पात्र है कि महर्षि वेदव्यास ने 'महाभारत' के सबसे इस्पाती पात्र भीष्म से 'अम्बोपख्यान' कहलाया है ,जो शिखण्डी की ही कथा है, जबकि भीष्म और शिखण्डी के मध्य वैमनस्यता का नाता रहा । इस अत्यंत रोचक पात्र की जीवन गाथा अंतस को झकझोरने में सक्षम है। अतः शिखण्डी के संपूर्ण जीवन को नवीन दृष्टिकोण से जांचने ,परखने और प्रस्तुत करने की आवश्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जब शिखण्डी के जीवन की परतें खुलती हैं तो हमारे प्राचीन भारत में सुविकसित ज्ञान के उस पक्ष की भी परतें खुलकर सामने आने लगती है जहाँ शल्य चिकित्सा द्वारा लिंग परिवर्तन किए जाने के तथ्य उजागर होते हैं । इन तथ्यों का ही प्रतिफलन है यह उपन्यास-'शिखण्डी : स्त्री देह से परे'।"
लेखिका ने इस उपन्यास में समाहित अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों में कल्पना का रंग भरते हुए उन्हें अपनी विशिष्ट शैली में रोचक बना दिया है । संवाद कौशल ने इन प्रसंगों को यादगार बना दिया है जो पाठकों के मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ते हुए उन्हें प्रभावित करते हैं।
'महाभारत' के 18 दिन चले युद्ध में शिखण्डी अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने हेतु भीष्म पितामह की मृत्यु का कारक बनने के लिए अधीर नजर आता है ।
उसे यह अवसर मिलता है जब - शिखण्डी ने अर्जुन के आगे आकर भीष्म पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उसका एक भी बाण भीष्म को आहत नहीं कर पा रहा था क्योंकि शिखण्डी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं था। भीष्म को तो किसी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के बाण ही चोट पहुंचा सकते थे जबकि शिखण्डी के सामने आते ही भीष्म ने अपना धनुष झुका दिया था। वे अंबा की स्त्री - आत्माधारी स्त्री योनि -जन्मा शिखण्डी पर शर-संधान नहीं करने हेतु विवश थे। कृष्ण ने इस उचित अवसर को पहचाना और अर्जुन को संकेत किया।अर्जुन ने शिखण्डी की ओट से भीष्म पितामह पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी । बाणों का प्रहार इतना तीव्र था कि अर्जुन के बाण भीष्म के कवच को भेदते हुए उसके शरीर को छलनी करने लगे। देखते ही देखते पचासों बाण भीष्म की देह के आर- पार हो गए। दम्भी भीष्म शरशैय्या पर शिथिल पड़ा था,शिखण्डी के ठीक सामने।
लेखिका ने यहां भीष्म और शिखण्डी की मनो-वार्ता का जो वृहद संवाद लेखन किया है वह अद्भुत है। संक्षिप्त में इसे आप भी देखिये - "शिखण्डी के नेत्रों में विजय भाव थे तो भीष्म के नेत्रों में पश्चाताप के भाव।
' अब हम दोनों मुक्त हो जाएंगे, इस जन्म- जन्मांतर के बंधन से। मात्र उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा है ,मुझे भी, तुम्हें भी!' भीष्म ने अति मद्धम स्वर में शिखंडी से कहा, जिसे मात्र शिखण्डी ने ही सुना।
'मरणासन्न को क्षमा नहीं करोगी, अंबा?'
यह भीष्म का शिखण्डी से मानसिक वार्तालाप था ।
'तुमने भी तो नहीं किया था देवव्रत!' शिखण्डी ने भी उसी प्रकार मानस तरंगों से प्रत्युत्तर दिया।
' मैं प्रणबद्ध था।'
'मैं प्रणयबद्ध थी।'
'मैं अनभिज्ञ था।'
' कोई भी कर्म करने के पूर्व तत्सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना भी तो आवश्यक होता है, देवव्रत!' तुम्हें भी हम तीनों बहनों के बारे में ज्ञात करना था। नहीं कर सकते थे तो हम तीनों की इच्छा तो पूछते। क्या तुम्हारी दृष्टि में स्त्री की इच्छा का कोई मोल नहीं था?'
'था न ! महारानी सत्यवती और उनके पिता की इच्छा पर ही तो मैंने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी।'
..स्वयं को दोष मुक्त कराने के लिए कुतर्क मत करो ! तुम सुविज्ञ हो और सुविज्ञ थे ! ...उत्तम यही होगा कि तुम अब अपने अंतिम समय में अपने अपराध स्वीकार कर लो! यदि तुम ऐसा करोगे तो सम्भवतः मैं सूर्य के उत्तरायण होने तक तुम्हें क्षमादान दे दूं!' शिखण्डी ने कहा ।
' मैं यही करूंगा!' मैं क्षमा मांगूंगा... अपनी स्वयं की आत्मा से भी, मैंने उसका कहना कभी नहीं सुना ...पर अब सुनूंगा... जो भी समय शेष है ,उसमें सुनूंगा!' भीष्म के कथन में पश्चाताप का भाव था।
इस मानसिक संवाद के मध्य पितामह भीष्म के नेत्रों से अश्रुधाराएं बह निकलीं। इन अश्रुधाराओं को सभी ने देखा, किंतु उस मानसिक संवाद को कोई नहीं सुन सका। परिणामतः सभी को यही प्रतीत हुआ कि पितामह को शारीरिक पीड़ा हो रही है। इन अश्रुओं के मर्म को यदि कोई समझ रहा पा रहा था तो वह था शिखण्डी और कृष्ण ।
इस तरह अपने तीसरे जन्म में राजकुमारी अम्बा का प्रतिशोध एवं प्रतिज्ञा स्त्री देह से परे शिखण्डी के रूप में पूर्ण होती है।
लेखिका कहती हैं - वह अपने पहले जन्म में कन्या के रूप में जन्मीं और स्त्री के रूप में अपने प्रेम सम्बन्धों को जीना चाहती थी मगर ऐसा हो न सका। अपने दूसरे जन्म में वह एक सामान्य कन्या के रूप में जन्मी,किन्तु उसने अद्भुत जीवन जिया। तीसरे जन्म में भी कन्या के रूप में वह जन्मीं और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरुष बनी। यही पुरुष शिखण्डी था जिसने स्त्री देह से परे रहते हुए अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।
जब शिखण्डी का अंत हुआ तो वह अंत नहीं आरम्भ था जो युगों-युगों तक स्त्रियों के अपने स्वाभिमान,अपने अस्तित्व और अपनी गरिमा के संघर्ष के लिए मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। इस सत्य का स्वयं समय साक्षी बना कि अम्बा, शिखण्डी के रूप में जनम्बन्धन से मुक्त हुई और रच गई एक स्त्री की देह से परे एक अदभुत देहगाथा।
यह उपन्यास भाषाई संहिता और संवाद कौशल के साथ ही शिखण्डी से जुड़े एक नए दृष्टिकोण को सामने रखता है । सदियों से चली आ रही मान्यता की -' शिखण्डी' थर्ड जेंडर था ! इस उपन्यास को पढ़ने के बाद टूटती दिखाई पड़ती है और यह विदित होता है कि शिखण्डी तो कभी थर्ड जेंडर था ही नहीं। वह स्त्री के रूप में जन्मा और शल्य चिकित्सा द्वारा पुरुष के रूप में परिवर्तित होकर उसने अपना प्रतिशोध लिया। इस दृष्टि से यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह पुरातन ग्रंथों एवं महाकाव्यों के चरित्रों को एक नए दृष्टिकोण से देखने का आह्वान करता है। स्त्री विमर्श का एक नया आयाम रचने के लिए लेखिका को साधुवाद।
- देवेन्द्र सोनी
सम्पादक
युवा प्रवर्तक
इटारसी।
मो.9111460478
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