Saturday, April 30, 2022

श्रीसीताराम रसोई में भोजन सेवा, 30.04.2022 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

30.04.2022 ...आज एक बार फिर श्रीसीताराम रसोई पहुंच कर वृद्धों की भोजन सेवा करने का अवसर मिला। एक आत्मिक सुख। इस बार उन सेवाकारी महिलाओं के साथ तस्वीरें लीं जो वहां रसोई का कार्यभार संभालती हैं। वे सभी इतनी मिलनसार और इतनी अच्छी हैं कि उनसे एक आत्मीय नाता-सा जुड़ गया है। संस्था से आरंभिक वर्षों से ही जुड़ी हुई श्रीमती पांडे से भी मेरी सुखद भेंट हुई। आज के इस सेवा-अवसर के लिए श्री सीताराम रसोई के सेवादार जनसेवक भाई विनोद तिवारी, बहन मेघना गुप्ता और श्री शर्मा जी की आभारी हूं।

Thursday, April 28, 2022

बतकाव बिन्ना की | कोनऊ पथरा मैंकै चाए कंकरा मैंकै | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात

"कोनऊ पथरा मैंकै चाए कंकरा मैंकै" ये है मेरा बुंदेली कॉलम लेख "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में।
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बतकाव बिन्ना की
कोनऊ पथरा मैंकै चाए कंकरा मैंकै
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
            बाहरे आंगन में निकरई हती के भैयाजी दिखा गए। मैंने उनखों आवाज लगाई, काए से के मैंने सुनी रही के भैयाजी खों पुलीस पकर के ले गई रई।
‘‘राम-राम बिन्ना! का हो रओ?’’ भैयाजी चहकते भए बोले।
‘‘हो का रओ जे तो आप बताओ भैयाजी!’’ मैंने कही।
‘‘बताबी, पैलऊं पानी तो पिलाओ बिन्ना। गलो सूको जा रओ। जे ससुरी गर्मी अभई से इत्ती तेज परन लगी के प्रान से निकरे जा रए। सुनो बिन्ना, घड़े को लाइयो, फ्रिज-मिज्र खों नई चाउने। हमें नई पोसात फ्रिज को पानी।’’ भैयाजी पसीना पोंछत भए बोले औ उतई धरो मोढ़ा खेंचो औ बैठ गए सुस्ताबे के लाने।
‘‘धूप गर्मी से आ के फ्रिज को पानी पीबो बी नई चाइए।’’ कहत भई मैंने भैयाजी खों पानी को गिलास पकराओ। मनो गर्मी सो गजबई कर रई। सुभै के आठ बजे कहाने, पर लग रओ हतो के बारा-एक बज गए होंए।
‘‘सो भैयाजी, अब बताओ के कोन सो कांड करो के तुमे पुलीस पकर ले गई?’’ भैयाजी ने पानी पी लओ, सो मैंने तुरतईं उनसे पूछी। मोरे पेट में सो मनो गुड़गुड़ी मची हती जानबे के लाने। 
‘‘अरे कछु ऐसा-वैसो नई करो हमने।’’
‘‘फेर बी! अब बता बी डारो।’’ मोए मन में जित्ती उतावली मची हती, भैयाजी जानबूझ के उत्तई हिलगा रए हते।
‘‘जे सड़क चौड़ी करबे वारन ने पचासेक साल पुराने पेड़ काट के नास कर दए। जेई से तो इत्ती जल्दी इत्ती गरमी परन लगी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे, कटन देओ पेड़, ऊकी फिकर बाद में करबी। आप तो बो बताओ जो अबई बताने की है।’’ रामधई, मोए अब सबर नई हो रओ हतो। 
‘‘का जानने?’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले। मोए समझ में आ गई के भैयाजी मोए जान के हैरान कर रए ।
‘‘मोए कछु नई जानने। अब आप जाओ! मोए भौत सो है। अब आप अपनी दूकान बढ़ा लेओ। औ भगवान करे के आपखों फेर के पूलीस पकर के ले जाए। उतई रइयो।’’ मोरो गुस्सा फूटई परो। 
‘‘जे भई ने बात! जेई तो हमें देखने हतो के तुमाई नाक पे कब लों गुस्सा आ रओ!’’ भैयाजी हंसन लगे। फेर बोले,‘‘अच्छा, दिमाक ठंडो राखो, हम बता रए।’’
फेर भैयाजी बतान लगे-‘‘ऐसो भओ के हम जा रए हते सब्जी लेबे के लाने के उतई से एक मोड़ी गुजर रई हती। लोहरी-सी। स्कूल में पढ़त हूहे। हमने देखी के ऊको देख के एक लफरा-सा मोड़ा सीटी बजान लगो। मोड़ी ने ऊकी तरफा हेरी लो नई। सो वो लफंदर ऊ मोड़ी के पांछू चलत भओ, कछु अल्ल-गल्ल कहन लगो। जे देख के हमें आई गुस्सा। हमाए आगूं कोनऊ मोड़ी खों छेड़े जे हमसे बरदास्त नई हो सकत। हमने ऊ लफंदर मोड़ा को कंधा से पकरो औ दए खेंच के दो लपाड़ा। बो मोड़ा अपनो कंधा छुड़ा के ऐसो भागो के पांछू मुड़ के ऊने ने देखो।’’
‘‘जे सो आपने नोनो काम करो! ईमें पुलीस ने काए पकर लओ आपको?’’ मैंने भैयाजी खों टोंक के पूछी।
‘‘अरे ईके लाने नई पकरो! तनक गम्म सो खाओ। पूरी बात सुन लेओ पैले।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हौ सुनाओ।’’ मैंने कही।
भैयाजी फेर बतान लगे-‘‘बा लफंदर मोड़ा सो भगतई भगो, मनो उते बे अपने खरे साब ठाड़े हते। उन्ने चींन लओ हतो बा मोड़ा खों। सो, उन्ने बताओ के जे तो अपने बल्लू को मोड़ा आए। हमें बल्लू को घर पतो आए, सो हम ऊके घरे पोंचे। बल्लू को हमने घरे से बाहरे बुलाओ और ऊकी दारी-मतारी करी। पर बो बल्लू सोई अड़ गओ। कहन लगो के हमाओ मोड़ा ऐसो करई नई सकत। सो हमने कही के का हम झूठ बोल रए तुमसे? हमने अपनी जेई दोई सगी अंखियन से देखी हैं तुमाए मोड़ा की करतूतें। कैसे बा वो मोड़ी खों छेड़ रओ हतो। सुधार लेओ अपने मोड़ा खों नई तो शिवराज मम्मा घाईं हम सोई तुमाए घर पे बुलडोजर चलवा देहें।’’
‘‘हैं, आपने बल्लू से ऐसी कह दई?’’ मैंने कहीं।
‘‘हऔ तो! खाली कह नई दई, ऊने हमसे कही के बड़े आए बुलडोजर चलाबे वारे। एक पथरा तो मार के दिखाओ तुमाई टंगड़ियां ने तोड़ देहें। ऊको इत्तो कैने तो के हमने आव देखी ने ताव, उतई परो एक पथरा उठाओ औ दे मारो.....’’
‘‘अई!! ऊके मूंढ पे??’’ मोरे मों से कह आई।
‘‘अरे नईं, ऊके मूंड पे नई, ऊके घर की खिड़किया पे। खनखना के कांच फूट गओ। जे देख के बल्लू हतो सो हमसे झूमा-झटकी करन लगो। अब तुमने सो देखो है बल्लू खों। डेढ़ पसुरिया को इंसा आए। हमने ऊकी कमीज की कालर पकडी औ ऊसे कही के देख बल्लू जे जो तुम हमें अपना रंगदारी दिखा रए जेई अगर अपने मोड़ा खों दिखाओ तो बा सुधर जाए। हम ओरन में झूमा-झअकी चलई रई हती के कोनऊ ने पुलीस को खबर कर दई। ऐसे तो कभऊं टेम पे नई आउत आए पर ऊ बखत बड़ी टेम पे आ गई। बल्लू औ हमें दोई को पकरो औ थाने लेवा ले गई। वां पौंच के हमने थानेदार साब खों सब कछु बताओ के कैसो का भओ रओ। थानेदार साब ने बल्लू को भौतई डांटो औ कही के तुमाए मोड़ा को बुला के सोई बत्ती देहें। बड़ो आओ मोड़ियन को छेड़बे वारो। बल्लू को मों सो चूहा घांई सुट्ट हो गओ रओ।’’
‘‘औ आपसे का बोली थानेदार साब ने? आपको सो शाबाशी दई हूंहे।’’ मैंने बीच में टोकत भई पूछी।
‘‘हऔ शाबाशी तो दई, मनो संगे जे बी कहन लगे के आपको ऐसो नई करो चाइए तों बल्लू के घरे पथरा मारबे की का जरूरत हती। अरे, हमें आ के बताते। इते थाने में रपट लिखाते। अब हमें आप बी केस बनाने पड़हे अगर जो बल्लू ने एफआरआई लिखा दई। हमने थानेदार साब से कही के सुनो साब, जब हमाए शिवराज मम्मा बलवाइयों औ चोर-उचक्कन के घर पे बुलडोजर चलवा सकत हैं सो हम काए नईं कोनऊं लफंदर के घर की खिड़किया पे पथरा मार सकत आएं? जे कोन सी बात भई। जे ऐसई दबाए से तो जे ओंरे सुधरहें। मम्ाि सही करत हैं। पर, जे बताओ के अबे लों मम्मा के पे कोनऊ एफआरआई लिखी गई का? सो आप हम पे कैसे लिख सकत हो एफआरआई? जे ने चलहे।’’
‘‘आपने सूदी ऐसई कह दई थानेदार साब से?’’ मोए अचरज भओ।
‘‘हऔ, कह दई। बाकी हमाई बात सुनके थानेदार साब अपनो माथा ठोंकत भए बोले। भैयाजी, आप कोनऊ सीएम नईयां। आप अपने हाथन में कानून नई ले सकत हो। उनके जैसा खुद को ने समझो औ हमाए लाने मुसकिल पैदा ने करो। काए से के काम तो आपने ठीक करो, बाकी आप कोनऊ के घरे पथरा का, कंकरा बी नईं मार सकत हो। समझ गए? थानेदार साब ने हमें समझाई। औ हमने कहीं के हऔ समझ गए। फेर उन्ने बल्लू से पूंछी के भैयाजी के खिलाफ रपट लिखाने है का? तबलों बल्लू खों सोई अकल आ गई हती सो वा बोलो के नईं हमें कोनऊ रपट-वपट नई लिखाने है, हमें तो अपने मोड़ा खों लपरयाने है जोन के कारण जा सल्ल बिधी। सो, बिन्ना जे भओ रओ।’’ भैयाजी लम्बी सांस लेत भए बोले। 
‘‘चलो हम जा रए। कुल्ल देर हो गई। तुमाई भौजी खों सो तुम जानत हों।’’कहत भए भैयाजी उठ खड़े भए।
मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। पथरा फिकें चाए कंकरा फिकें, कल्ला पे गंकरा सिंके। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(28.04.2022)
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Wednesday, April 27, 2022

चर्चा प्लस | ज़रूरी है निरंतर जाप करना ‘प्रशासन चालीसा’ का | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस 
ज़रूरी है निरंतर जाप करना ‘प्रशासन चालीसा’ का
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                                                                                 
          हम वक़्तीतौर पर जागते हैं, मांगे करते हैं और मांगे पूरी करवाने की ज़िद करने के पहले ही चादर ओढ़ कर सो जाते हैं। गोया भूल जाते हैं कि हमारी कुछ ज़रूरतें थीं कि जिनकी हमने मांग की थी कि जो पूरी नहीं हुई हैं। हम नेताओं को कोसते हैं कि उन्हें हमारी पांच साल बाद याद आती है लेकिन हमें खुद भी तो अपनी मांगों की ऐन चुनावों के ठीक पहले याद आती हैं। इसी चर्चा पर चलिए, कुछ मेमोरी-रीकाॅल कर ली जाए।


आने वाली नस्लें ख़ुद हल तलाश कर लेंगी
आज के मसाइल को ख़ुश-गुमान रहने दो
           - अजरा नकवी का ये शेर चाहे जिन समस्याओं पर कहा गया हो लेकिन हम सागर वासियों पर एकदम फिट बैठता है। हमारी बहुत-सी मांगे हैं जिनके बारे में हम समय-समय पर जागते हैं और फिर चादर ओढ़ कर, घोड़े बेंच कर सो जाते हैं या फिर झपकियां लेते रहते हैं। शायद यह सोच कर कि आने वाली पीढ़ी अपने लिए इंतेजाम खुद ही कर लेगी। तब तक हम लम्बी झपकियां ले लेंगे। अगर जागे भी तो एक-दूसरे की कमियां गिनाते हुए, बगलें झांकते हुए काम चला लेंगे।
अभी हाल ही में एक मजेदार घटना घटी। हुआ यूं कि रेलवे स्टेशन पर चौबीस घंटे, सातों दिन पेयजल सेवा का शुभारंभ था जिसके संचालक श्रीराम सेवा समिति के श्री विनोद तिवारी हैं। उस शुभारंभ कार्यक्रम में मैं भी शामिल हुई। मैंने भी रेल यात्रियों को पानी पिला कर जलसेवा की। जब वहां से प्रस्थान का समय आया और हम कुछ लोग प्लेटफाॅर्म से बाहर आए तो एक सज्जन ने सागर रेलवे स्टेशन की नाम पट्टिका की ओर इशारा करते हुए मुझे उलाहना दिया-‘‘मैडम, आप तो कह रही थीं कि स्टेशन के नाम की स्पेलिंग बदल दी गई है और अब सोगर के बदले सागर ही लिखा जाएगा। मगर यहां तो अभी भी सागोर स्पेलिंग लिखी हुई है।’’ वे तंज़ करना चाह रहे थे कि यानी या तो मैंने झूठ बोला है या फिर मेरा प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हुआ है। मैंने उन सज्जन से कहा,‘‘भैया, रेल मंत्रालय के तरफ से मंजूरी का समाचार तो अखबारों में भी छपा था, अब ये पट्टिका जल्दी बदलवाने का प्रयास आप लोग कर डालिए। आपका भी कुछ योगदान हो जाएगा।’’
‘‘नहीं-नहीं, वो तो समाचार मैंने भी पढ़ा था और ये पट्टिका बदली भी जाएगी। मैं तो ऐसे ही कह रहा था।’’ इतना कहते हुए वे वहां से खिसकने के लिए अपने एक संगी-साथी को आवाज़ देने लगे। जुमला उछालना और कुछ कर गुज़रने की इच्छा रखना, इन दोनों में बहुत अंतर होता है। पिछले चुनावों के पहले जोरदार तरीके से एक मांग उभर कर सामने आई थी- सागर में आईटी पार्क बनाए जाने कीै। मांग में दम थी। आईटी पार्क को इस तरह से डिज़ाइन किया जाता हैं कि जिससे प्रत्येक आर्थिक इकाई पर अर्थव्यवस्थाओं का लाभ मिले। भारत के सभी प्रमुख शहरों में अब कम से कम एक आई टी पार्क है जिसमें परिसर में सभी आवश्यक सुविधाएं हैं। जैसे राजीव गांधी चंडीगढ़ प्रौद्योगिकी पार्क चंडीगढ़, क्रिस्टल आईटी पार्क इंदौर, वेंकटदात्री आईटी पार्क बैंगलोर, ईन पार्क और डीएलएफ आईटी सेज हैदराबाद है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां है। उनमें से प्रमुख हैं - इंफोसिस, टी.सी.एस. , विप्रो, सत्यम, इंटेल, माइक्रोसॉफ़्ट, टी.आई., गूगल, याहू ,सैप लैब्स इंडिया, ऑरेकल आदि।
यदि अतीत में झांकें तो भारत में आई टी उद्योग को सन् 2004 में करीब पचीस बिलियन अमेरिकी डालर से अधिक का राजस्व मिला जिसमें करीब सत्रह से बीस बिलियन डालर की आय अकेले निर्यात से प्राप्त हुई। भारत में इस उद्योग में एक मिलियन से भी अधिक लोग सीधे रोजगार पा रहे हैं जबकि 2.5 मिलियन से ज्यादा लोग अप्रत्यक्ष रूप से इससे जुड़ चुके हैं। आईटी पार्क के अंतर्गत विभिन्न देशों में उत्पाद इकाइयां बनाना, हर देश में उपलब्ध श्रेष्ठ संसाधन का उपयोग करना, विभिन्न देशों से काम करते हुए पूरे 24 घंटे अपने ग्राहक के लिए उपलब्ध रहना और ऐसे डेटा सेंटर बनाना जो कहीं से भी इस्तेमाल किए जा सकें, ये कुछ ऐसे कार्य हैं जिनसे देश की अर्थव्यवस्था के साथ ही बेरोजगारों को भी रोजगार का बहुत बड़ा क्षेत्र प्राप्त हुआ है।
भारत की वर्तमान प्रगति में आईटी पार्क का बहुत बड़ा योगदान है। भारतीय आईटी उद्योग देश का पहला वैश्विक व्यवसाय सिद्ध हो रहा है। भारत की टाटा कंसलटेंसी ने ब्रिटेन में प्रमुख कंप्यूटर प्रदाता कंपनी के रूप में वैश्विक बाजार में अपनी जगह बनाई है। सूचना प्रौद्योगिकी के लचीले व्यवसायिक नियमों के कारण आज कई कंपनियां ज्यादा कुशलतापूर्वक अपना काम कर रही हैं। भारतीय साफ्टवेयर और आईटीईएस उद्योग का पिछले छह वर्ष के दौरान करीब 30 प्रतिशत के सीएजीआर की दर से विकास सामने आया है।
माइक्रोसाफ्ट, ओरेकल, एसएपी जैसे साफ्टवेयर उत्पादों की बड़ी कंपनियों ने अपने विकास केंद्र भारत में स्थापित किए हैं। मध्यप्रदेश का ही उदाहरण लें तो मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास केन्द्र निगम (एमपीएवीकेएन) की भविष्य संबंधी परियोजना, आईटी पार्क (सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क) को इंदौर में एक उच्च तकनीकी औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। यह उच्च तकनीकी क्षेत्र, सभी विकासशील सूचना प्रौद्योगिकी संस्थारपना (सेटअप) में विश्व स्तर के उत्पादों और समाधानों को प्रस्तुीत करने में आईटी कंपनियों को सक्षम बनायेगा। व्यापार नीतियों में कुशल समर्थन के साथ, तेजी से विकास कर रहे सभी क्षेत्रों में इस परियोजना को प्रगतिशील बनाने का एक सुनहरा अवसर है। आईएसडीएन लाइनों, उपग्रह सेटअप, ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क, और अन्य बुनियादी जरूरतों के साथ, आईटी पार्क भविष्य के लिए एक कॉस्मो सॉफ्टवेयर शहर के रूप में विकसित किया जा रहा है। भोपाल आईटी पार्क में एलईडी बल्ब का उत्पादन शुरू हो चुका है। ग्रीन सर्फर नामक यह कंपनी यहां बने ऊर्जा बचत करने वाले ये बल्ब पंजाब, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और गुजरात सहित पांच राज्यों को सप्लाय करने लगी है। एमपी ऑनलाइन, सोलर प्लांट बनाने वाली कंपनी डाउसन, एक्सट्रा नेट, सर्विन बीपीओ, पी नेट और स्मार्ट चिप जैसी कंपनियां यहां आ चुकी हैं। अब सागर जिले को भी प्रतीक्षा है एक आई टी पार्क की जिससे स्थानीय युवाओं को उनकी योग्यता के अनुरुप रोजगार उपलब्ध करा सके और उन्हें वैश्विक विकास से सीधा जोड़ सके।
ये सितम्बर 2018 की बात है जब मध्यप्रदेश में इन्दौर, भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर के बाद सागर में भी आई पार्क बनाए जाने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन चलाया गया था। प्रदेश शासन द्वारा स्वीकृति के बाद जिला प्रशासन द्वारा पार्क के लिए ज़मीन भी तय की गईं। मध्यप्रदेश राज्य इलेक्ट्राॅनिक्स विकास निगम पहले ही इसे हरी झंडी दे दी थी। सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री के रूप में गृहमंत्री भूपेन्द्र सिंह पहले ही यह कह चुके थे कि आई टी माध्यम से प्रदेश में कौशल विकास कार्यक्रम भी संचालित होने चाहिए जिससे युवाओं को रोजगार मिलेगा, वहीं दूसरी ओर आई टी कम्पनियों को प्रशिक्षित मानवक्षमता का लाभ मिल सकेगा। विडम्बना यह है कि सागर में आई टी पार्क की प्रतीक्षा कुछ अधिक ही लम्बी हो गई जिससे अब नागरिकों के धैर्य का बांध टूटने लगा और वे जुलूस निकाल कर, ज्ञापन सौंप कर अपनी मांग के पक्ष में आवाज उठाने लगे। स्थानीय गैरराजनीतिक संस्था ‘‘गतिविधि’’ ने इस दिशा में हस्ताक्षर अभियान चलाया, पोस्टकार्ड अभियान चलाया, जनजागृति अभियान चलाया और जिला कलेक्टर को ज्ञापन भी सौंपा। संस्था के सचिव शिवा पुरोहित कहा कि ‘‘यह हमारे युवाओं के रोजगार का रास्ता खोल देगा, इसलिए हम तब तक आंदोलन जारी रखेंगे जब तक कि सागर में आई टी पार्क स्थापित करने की दिशा में काम शुरू नहीं हो जाता है।’’
दुर्भाग्य से 2019 में कोरोनाकाल आ गया। दो साल के इसे बड़े व्यवधान ने येाजनाओं और मांगों को भारी चोट पहुंचाई लेकिन अब जब माहौल सामान्य हो चुका है तब इस मांग के अपडेट के बारे में चर्चा होना चाहिए। मगर लगता है मानो आईटी पार्क की मांग आने वाले चुनावी माहौल की प्रतीक्षा में कहीं किसी इमारत छांव में झपकियां ले रही है। पेड़ की छांव तो वैसे भी कम बची है शहर में। सड़कों के चैड़ीकरण की स्मार्टनेस ने कई दशकों पुराने वृक्षों का सफ़ाया कर दिया।
दरअसल, आईटी पार्क, नाम पट्टिका या भारत रत्न जैसी मांगों के मामले में प्रशासन को ‘‘प्रशासन चालीसा’’ का पाठ सुनाने जरूरत होती है। प्रशासन हर मामले को निपटाने में सक्षम होता है बस, उसे उसकी शक्तियां याद दिलाना भी जरूरी होता है। यदि मह मांग करने वाले अपटेड ही न मांगे तो प्रशासन के पास बहुत से ठंडे बस्ते होते हैं जिनमें मांगों को तहा कर रख दिया जाता है।
हम आज गर्व करते हैं कि राई नर्तक एवं मृदंगवादक राम सहाय पांडे  जी  को भारत सरकार ने ‘‘पद्मश्री’’ से सम्मनित किया। लेकिन हम यदि अपनी गतिविधियों को खंगाल कर देखें तो इसमें हमें अपनी कोई मांग, कोई योगदान दिखाई नहीं देगा। यह सम्मान उन्हें मिला है तो इसलिए कि हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि जिनकी पहुंच से ये सम्मान दूर हैं किन्तु वे इस तरह के सम्मान के योग्य हैं तो उन्हें ऐसे सम्मान अवश्य मिलने चाहिए। सारांशतः यह कि इसका श्रेय प्रधानमंत्री जी को है न कि हम मांगकर्ताओं को। यह बात कहने, सुनने, पढ़ने में कठोर अवश्य लगेगी लेकिन सच से हम कब तक मुंह मोड़ कर बैठे रहेंगे।
आईटी पार्क तथा आवागमन की सुविधा से जुड़ी हुई एक और मांग थी -हवाईयात्रा सेवाओं की। यह मांग भी सो रही है आने वाले चुनाव की सरगर्मियों की प्रतीक्षा में। सागर से भोपाल अथवा जबलपुर जा कर हवाई जहाज पकड़ना समय और पैसे दोनों के हिसाब से मंहगा और असुविधाजनक पड़ता है। यदि छोटे विमानों की सेवा द्वारा सागर को देश के प्रमुख नगरों से जोड़ दिया जाए तो भोपाल, जबलपुर जा कर हवाई जहाज पकड़ने वालों की जिन्दगी आसान हो जाएगी। टैक्सी का खर्चा बचेगा। समय बचेगा और बाहरी निवेशक भी यहां आने में सुविधा महसूस करेंगे। लेकिन यह  सब तभी जल्दी संभव है जब हम अपनी नींद से जाग कर, आलस को त्याग कर ‘‘प्रशासन चालीसा’’ और ‘‘जनप्रतिनिधि चालीसा’’ का निरंतर शांतिपूर्वक पाठ करते रहेंगे। यानी हमारी जागरूकता में ही हमारी प्रगति है।
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(27.04.2022)
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Tuesday, April 26, 2022

पुस्तक समीक्षा | हिन्दी कथासाहित्य के भविष्य को आश्वस्त करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 26.04.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्या कटारे के कहानी  संग्रह "काली लड़की" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
हिन्दी कथासाहित्य के भविष्य को आश्वस्त करती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - काली लड़की
लेखिका     - काव्या कटारे
प्रकाशक     - बुक्स क्लीनिक पब्लिशिंग, बी डी काॅम्प्लेक्स, तिफ्रा ओव्हर ब्रिज के निकट,बिलासपुर (छग)
मूल्य       -  130 रुपए 
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हिन्दी साहित्य के समक्ष बार-बार एक यक्ष प्रश्न आ खड़ा होता है कि उसका भविष्य क्या है? किसी न किसी चिंतन गोष्ठी या डिबेट में यह आकुलता चिंता बनकर उछलती है कि हिन्दी साहित्य के पाठक कम होते जा रहे हैं। लम्बे-चैड़े मंथन के बाद यही निष्कर्ष निकाला जाता है कि हिन्दी साहित्य को पाठक कम मिलने का सबसे बड़ा कारण है कि नई पीढ़ी हिन्दी के बजाए अंग्रेजी के अधिक निकट है। हिन्दी का सारगर्भित गंभीर साहित्य पढ़ने के स्थान पर अंग्रेजी चिकलेट्स पढ़ना और समझना उनके लिए आसान होता है। इस विषय पर मैंने अपनी बात कई संगोष्ठियों में रखी है कि हम जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे। हमने अपनी नई पीढ़ी को अगर अंग्रेजी के खारे समुद्र में फेंक दिया है तो वे हिन्दी के मीठे पानी के प्राणी भला कैसे बन सकते हैं? यदि हम नई पीढ़ी को भाषा के रूप में अंग्रेजी दें किन्तु साहित्यिक संस्कार हिन्दी के दें तो कोई कारण नहीं है कि वे हिन्दी साहित्य से विमुख होंगे। मुझे अपनी बात सौ प्रतिशत खरी उतरती मिली जब मैंने युवा कथाकार काव्या कटारे की कहानियां पढ़ीं। काव्या कटारे का कथालेखन ही अपने आप में एक नया विमर्श रचता है। 
काव्या कटारे का कहानी संग्रह है ‘‘काली लड़की’’। इस संग्रह की कहानियों के कलेवर पर अथवा लेखिका पर मैं कोई विचार प्रकट करूं इसके पूर्व संग्रह की कहानियों में निहित भाषाई सौंदर्य की चर्चा करना आवश्यक समझती हूं। एक कहानी है ‘‘वृत्त’’। इस कहानी में एक संवाद है जिसे उाहरण के रूप में यहां दे रही हूं-‘‘बेटा, पूरा चांद तो महीने में एक बार आता है। और ईद का चांद वह तो पूरे साल में एक बार आता है। पर तारे रोज चादर बन कर पूरे आसमान को ढंक लेते हैं। ऐसा ही हमारी ज़िन्दगी में होता है। ये बड़ी-बड़ी खुशियां ईद के चांद की तरह होती हैं और छोटी-छोटी खुशियां इन तारों की तरह। बड़ी खुशियां हमारी ज़िन्दगी में चांद की तरह एक-दो बार ही आती हैं, पर छोटी-छोटी खुशियां रोज हमारी पूरी ज़िदगी ढंक लेती हैं। चांद तो महीने में बस एक बार दिखाई देता है। तारे रोज निकलते हैं। यही जीवन का वृत्त है।’’
एक वाक्य का एक उदाहरण और कहानी ‘‘चाय की प्याली’’ से-‘‘आसपास की सभी दूकानें आंखें बंद कर गहरी नींद में जा चुकी थीं।’’
इन दो उदाहरणों के बाद यह तथ्य सामने रखना चैंकाने से कम नहीं है इन्हें लिखने वाली लेखिका काव्या कटारे ने इन्हें मात्र 13-14 वर्ष की आयु में लिखा है। एक ऐसी किशोरी जिसकी सहेलियों का सरोकार खेल, मोबाईल और पढ़ाई के अलावा और किसी चीज से नहीं होगा, वह स्वयं हिन्दी में कथासाहित्य रच रही है। क्योंकि उसे अंग्रेजी मात्र एक भाषा के रूप में सौंपी गई है किन्तु संस्कार हिन्दी साहित्य के दिए गए है। संग्रह की भूमिका में काव्या ने इस बात को स्वयं स्वीकार किया है कि उसे साहित्य के संस्कार अपने दादा जी सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार महेश कटारे ‘सुगम’ से मिले हैं। किन्तु किसी साहित्यिक परिवार में जन्म लेना ही सबकुछ नहीं होता है, जब तक कि स्वयं के भीतर साहित्य के प्रति रुचि और समझ न हो। काव्या की कहानियां पढ़ कर यह दावे से कहा जा सकता है कि साहित्य सृजन की क्षमता काव्या के डीएनए में एक जिनोम की तरह है जिसमें सभी विधाओं के जींस विद्यमान हैं। फिलहाल काव्या ने अपनी प्रतिभा को एक कथाकार के रूप में प्रस्तुत करते हुए हिन्दी कथासाहित्य के भविष्य को भी चिंतामुक्त करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। काव्या के कथालेखन को देखते हुए इस बात से आश्वस्त हुआ जा सकता है कि हिन्दी कथासाहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। यदि नौंवी कक्षा में पढ़ने वाली 14 वर्षीया छात्रा हिन्दी में इतनी परिपक्व कहानियां लिख सकती है तो हिन्दी कथासाहित्य को लेखन या पठन संबंधी किसी भी प्रकार का संकट नहीं है।
‘‘काली लड़की’’ कहानी संग्रह में कुल दस कहानियां हैं। संग्रह में कहानियों से पूर्व इन कहानियों एवं काव्या के कथालेखन पर हिन्दी साहित्य जगत के दिग्गजों की टिप्पणियां हैं। कथाकार आशुतोष लिखते हैं कि ‘‘मैं उस काव्या को जानता हूं जो कहानियां लिखती है’’। भालचंद्र जोशी टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि ‘‘काव्या की कहानियां लोकहित की संकल्पना और निर्णय में यथार्थ’’। राजनारायण बोहरे के अनुसार ‘‘काव्या एक प्रतिभाशाली कथा लेखिका’’ है। कथाकार मनीष वैद्य मानते हैं कि काव्या की कहानियां ‘‘साधारण से असाधारण खोजने की कहानियां’’ हैं। डाॅ. पद्मा शर्मा कहती हैं कि ‘‘काव्या की कहानियां हमें आश्वस्त करती हैं।’’ बात जिज्ञासा की है कि जब इतने सारे साहित्य मनीषी काव्या की कहानियों के प्रति विश्वास प्रकट कर रहे हैं तो ऐसा क्या है इन कहानियों में? यही रेखांकित करने योग्य मूल प्रश्न है जिसका उत्तर काव्य के कथालेखन को स्थापना दिलाता है। वस्तुतः लेखिका में अपनी आयु से आगे बढ़ कर समाज के मनोविज्ञान एवं व्यवस्था-अव्यवस्था को समझने की क्षमता है। न केवल समझने की अपितु उसे अपने दृष्टिकोण से विश्लेषित कर के सामने रखने की निपुणता भी है। जैसे कहानी ‘‘काली लड़की’’ में एक ऐसी लड़की की पीड़ा और झुंझलाहट को अभिव्यक्ति दी गई है जिसकी त्वचा की रंगत गहरी सांवली है। यह कहानी लड़की के रंग को ले कर भारतीय समाज की मानसिकता पर गहरी चोट करती है। इसका कथानक लीक से हट कर है किंतु पीड़ा परंपरागत है। विशेषता यह है कि इस कहानी में लेखिका काली लड़की की व्यथा को उस शिखर तक पहुंचा देती है जहां उसकी व्यथा उसका आत्मविश्वास बन कर उसके सामने आ खड़ी होती है। 
कोरोना काल के भयावह दौर ने सभी के अंतर्मन को छुआ है। उस ‘ब्लैक फेज़’ में हम में से बहुतों ने अपनों को खोया है। इस ब्लैेक फेज़ को ले कर अनेक कहानियां लिखी गईं। लेकिन कुछेक कहानियां ही ऐसी हैं जो उस समय की पीड़ा को समुचित अभिव्यक्ति दे सकी हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि काव्या की कहानी ‘‘चीखें’’ उनमें से एक है जो संज़ीदगी से लिखी गई है। दुर्भाग्यवश समाज में आज भी ऐसे लोग हैं जो कन्या के जन्म को अभिशाप मानते हैं। यदि वे गर्भ में कन्याभ्रूण को नहीं मरवा पाते हैं तो सद्यःजात कन्याशिशु को मार कर, कूड़े में फेंक कर अथवा नदी, नाले में बहा कर उस से पीछा छुड़ा लेते हैं। इसी अमानवीय कृत्य पर केन्द्रित है कहानी ‘‘कन्यादान’’। इस कहानी का ट्रीटमेंट नया है क्योंकि इसमें मां अथवा कन्याशिशु की ओर से नहीं बल्कि उस नदी की ओर से नरेशन है जिसमें सद्यःजात कन्याशिशु को जीते जी बहा दिया जाता है। 
सन् 2018 में दक्षिण कोरियाई लड़कों के एक म्यूजिक बैंड ‘‘बीटीएस’’ ने एक संगीतमय अभियान चलाया था जिसका मोटो का ‘‘लव माईसेल्फ’’। बैंड के सदस्य सूगा ने इस अभियान को स्पष्ट करते हुए कहा था कि ‘‘अपनी तुलना दूसरों से मत करो।’’ दूसरे सदस्य जे-होप ने कहा था कि ‘‘खुद को पहचानो कि तुम क्या चाहते हो और क्या कर सकते हो।’’ इसी बैंड के सदस्य आर एम का कहना था कि ‘‘खुद से कहो कि मैं अच्छा कर सकता हूं और खुद से प्यार करो।’’ सात सदस्यों का यह कोरियाई पाॅप बैंड उस समय किशोर आयु के युवकों का बैंड था जिसने अपने इस संदेश से पूरी दुनिया पर अपनी छाप छोड़ी और आज भी लोकप्रिय है। दरअसल जब युवा पीढ़ी निरंतर प्रतिस्पद्र्धाओं से जूझ रही हो तो उसमें हीन भावना और अवसाद जागना स्वाभाविक है। ऐसे दौर में युवाओं में आत्मविश्वास जगाना भी जरूरी है।  काव्या की कहानी ‘‘किस की तरह’’ इसी विषय पर एक सार्थक विमर्श खड़ा करती है। ‘‘तुम किसकी तरह बनना चाहती हो?’’ प्रश्न से कहानी आरम्भ होती है, फिर वहां से आगे बढ़ती हुई दिलचस्प मोड़ लेने लगती है और कहानी का अंत एक सुखद निर्णय पर पहुंचता है जिससे कहानी अत्यंत रोचक बन पड़ी है। 
‘‘गोद’’ एक मार्मिक कहानी है। यह कहानी इस बात की चर्चा करती है कि जब हमारे माता-पिता अथवा संबंधी हमारे साथ होते हैं तो हमें उनका महत्व समझ में नहीं आता है किन्तु उनके न होने पर हर पल उनकी कमी महसूस होती है। दोनों कहानियां- ‘‘वो’’ और ‘‘चाय की प्याली’’ यदि किसी बड़ी आयु के लेखक ने लिखी होती तो ये सामान्य कहानियां मानी जातीं क्योंकि इनमें कार्यालयीन जीवन में खटने, जूझने और असंतुष्ट होने का कथानक है। किन्तु ये दोनों कहानियां उस समय विशेष हो उठती हैं जब यह ध्यान रखा जाए कि इन्हें चैदह वर्षीया छात्रा ने लिखी है। कामकाजी व्यक्तियों के जीवन का लेखिका का आॅबजर्वेशन चकित कर देने वाला है। दोनों कहानियां प्रभावी हैं। विशेष रूप से ‘‘चाय की प्याली’’ तो बेहद सशक्त कहानी है। ‘‘वृत्त’’,‘‘अपना दुख-सुख’’ घटनाओं एवं मनःस्थितियों का बेहतरीन तानाबाना बुनती हैं। वहीं कहानी ‘‘हक़’’ लेखिका की संवेदनाओं के विस्तार को दर्शाती है जिसमें अचानक लाईट चले जाने पर कुछ ही देर में महसूस होने वाली असुविधा से कथानायिका बालिका के मन में यह विचार उठता है कि ‘‘जब थोड़ी देर के लिए लाईट जाने पर हम इतने बेचैन हो गए तो सोचिए, गांवों में लोग कैसे रहते होंगे। वहां तो लाईट होती ही नहीं। क्या सुख-सुविधाओं पर हमारा हक है, उन गांव वालों का कोई हक़ नहीं?’’ 
काव्या कटारे का एक बालकविता संग्रह ‘‘धमाचौकड़ी’’ प्रकाशित हो चुका है। ‘‘काली लड़की’’ उनकी दूसरी पुस्तक है। उनकी कहानियां देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। काव्या के कथालेखन में परिपक्वता दिखाई देती है। उनका यह प्रथम कहानी संग्रह स्वागतेय है, पठनीय है और उन कथालेखकों के लिए एक लाईटहाउस की तरह है जो आयु में भले ही बड़े हों किंतु लेखन में जिन्हें गहरी दृष्टि की जरूरत है। यदि एक वाक्य में इस संग्रह की समीक्षा की जाए तो बेझिझक कहा जा सकता है कि यह एक नन्हीं लेखिका का गहन-गंभीर कथासंग्रह है।
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Monday, April 25, 2022

बतकाव बिन्ना की | अपन ओरें तो फटे ढोल ठैरे | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात

"अपन ओरें तो फटे ढोल ठैरे" यै है मेरा बुंदेली कॉलम लेख "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में।
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बतकाव बिन्ना की
अपन ओरें तो फटे ढोल ठैरे
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काए शरद बिन्ना, जे अपनो मूंड पकर के काए बैठीं?’’ भुनसारे से भैयाजी आन टपके।
‘‘कछु नईं। ऊंसई।’’ मैंने कहीं।
‘‘जे ऊंसई का कहात आए? अरे कछु तो हूहे। कोनऊ बुरौ सपनों देख लौ का? काए से के इत्ते भुनसारे और तो कछु सल्ल नई हो सकत आए।’’
‘‘कहीं ना, कछु नइयां। कछु खास बात नोई।’’ मैंने भैयाजी खों टालबो चाओ।
‘‘मनो ने बताने होए सो ने बताओ। हम को लगत तुमाए।’’ भैयाजी तो ठैरे भैयाजी, रिसाबे को स्वांग भरत भए बोले।
‘‘अरे, कछु नईं भैयाजी, ऊंसई मूंड पिरा रओ।’’ मोए बताने पड़ी।
‘‘हें! तबीयत तो ठीक आए ने तुमाई? कछु दवा-सवा तो नईं चायने? काए से के तुमाई भौजी को तो आए दिना मूंड पिरात रैत आए।’’ भैयाजी फिकर करत भए बोले।
‘‘नईं-नईं भैयाजी, दवा की कोनऊ जरूरत नईयां। अपनोई आप ठीक हो जेहे।’’ मैंने कही।
‘‘चलो ठीक है, फेर बी कछु जरूरत परे सो बता दइयो। खुद को अकेलो ने समझियो।’’ भैयाजी लाड़ करत भए बोले।
‘‘आपकी किरपा भैयाजी, बाकी जे अपनो आप ठीक हो जेहे। आप फिकर ने करो।’’ भैयाजी की बात सुन के मोरो दिल भर आओ। कोनऊ दो बोल मिसरी घाईं बोल दे तो अंसुआं से आन लगत आएं। 
‘‘मनो बिन्ना, हमें पतो है के तुमाओ मूंड काए पिरा रओ आए।’’ भैयाजी तनक सोंचत भए बोले।
‘‘सो, कल संझा के बारे में आपको साई पतो पर गओ? कोन ने बताई?’’ मोए अचरज भओ के भैयाजी को कोन ने बता दओ?‘‘
‘‘ईमें कोऊ का बतेहे? ई दिना जो कछु हो रओ ई दुनिया में बा सब कछु युक्रेन औ रूस की लड़ाई के कारन सो हो रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोरे मूंड के दरद को रूस-युक्रेन की लड़ाई से का लेबो-देबो? जे तो कल संझा की गोष्ठी के कारन पिरा रओ आए।’’ मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘का हो गओ कल गोष्ठी में?’’ भैयाजी अनमने से हो के बोले। 
‘‘होने का हतो। एक भैया को कल्ल 12 मिनट देओ गओ रओ अपनी बात बोलबे के लाने। पर उन्ने तो बारह के बयालीस कर दए। बे भैया माईक से ऐसे चिपके के हटबे को नांव ई नई ले रए हते। कहने थी आम की, बोल गए नीम की। तभई से मोरो मूंड़ सो पिरान लगो।’’ मैंने बताई। 
‘‘हैं? तो जे बात आए। हमने तो सोची के यूक्रेन की लड़ाई के कारन तुमाओ मूंड़ पीरा रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ये लेओ, अब जे यूक्रेन की लड़ाई से हमाओ मूंड को का लेबो-देबो?’’ मोए हैरत भई।
‘‘अरे, जे ने कहो बिन्ना! आजकाल जो कछू हो रओ, जो अब कछू ससुरो यूक्रेन की लड़ाई के कारन हो रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का मतलब?’’
‘‘मतलब जे के पेट्रोल के दाम बढ़ गए सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, पिसी मैंगी हो गई सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, साग-भाजी मैंगी हो गई सो की लड़ाई के कारन, पाईपें मैंगी हो गईं सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, निंबुआ मैंगे हो गए सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन। मोए तो लगत आए के कोनऊ को तलाक बी हूहे सो वो बी यूक्रेन की लड़ाई के कारन।’’ भैयाजी बोलत-बोलत तैस खान लगे। सो, मैंने बात बदलबे की सोची।
‘‘अरे सुनो भैयाजी, निंबुआ से खयाल आओ के बे तो वाकई मैंगे हो गए हैं। कल बो ठिलिया वारो आओ रहो, मैंने उसे पूंछी के निंबुआ कैसे दे रए? सो वा बोलो के दस रुपइया को एक, बाकी दीदी, आपके लाने बीस के तीन लग जेहें। सो, मैंने ऊसे कही के इत्ती मेहरबानी करबे की जरूरत नैंया। मोए नहीं चाहने निंबुआ-विबुआ। बढ़ा लेओ ठिलिया अपनी।’’ मैंने भैयाजी को ध्यान निंबुआ पे अटकानो चाओ।
‘‘जे ई तो हम कै रए के निंबुआ दस के एक हो गए सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन।’’ भैयाजी फेर उतई पोंच गए।
‘‘अरे सुनो तो भैयाजी! अभी परों के रोज व्हाट्सअप्प पे एक चुटकुला पढ़ो मैंने, के एक मोड़ी अपने ब्वायफ्रेंड से बोली के हमाओ तुमाओ पेंचअप भए चार मईना बीत गए पर तुमने हमाए लाने कछु गिफ्ट-शिफ्ट नई लाओ। कहूं प्रेम ऐसो करो जात आए? जे सुन के ब्वायफ्रेंड बोलो के अरे, तुम बताओ तो, हम तुमाए लाने ताजमहल बनवा दें, चांद-तारे तोड़ लाएं, एक बार कह के तो देखो। ई पे वा मोड़ी बोली, हमें ताजमहल के नांव पे अपनो मुकरबां नई बनवाने, औ ने हमें चांद-तारे चाने, तुम तो हमाए लाने दो दर्जन निंबुआ ला देओे, ने तो हमाओ तुमाओ ब्रेकअप हो जेहे। समझ लेओ! जे सुन के ब्वायफ्रेंड बोलो, ब्रेकअपई हो जान देओ। इत्तो मैंगो निंबुआ लाने से नोनो आए के ब्रेकअपई हो जाए। जे कह के ब्वायफ्रेंड ब्रेकअप कर के उते से चलो गओ।’’ मैंने भैयाजी को चुटकुलो सुना डारो ताकि भैयाजी यूक्रेन की लड़ाई खों भूल जाएं।
‘‘हऔ बिन्ना, ई समै तो ई बात पे कोनऊ खों ब्रेेकअप हो जाए। मनो, ई के पांछू बी यूक्रेन की लड़ाई को हाथ कहानों। ने लड़ाई होती औ ने निबुआ मैंगो होतो....।’’ भैया जी बोले। 
‘‘भैयाजी, मोरी तो सुनो....’’ मैंने भैयाजी को टोंको, पर बे कहां सुनबे वारे। 
‘‘हमाई जिनगी में ई समै जो कछु बी हो रओ सबई में जेई तो कहो जा रओ के अलां यूक्रेन की लड़ाई के कारन - फलां यूक्रेन की लड़ाई के कारन। रामधई, ऐसो लगत है के हमाओ सबरो ब्यापार यूक्रेन और रूस के संगे होत रओ आए। लड़ाई छिड़ गई, सो, ब्यापार बढ़ा गओ। मोए तो लगत आए के कोनऊ खों कब्जीयत बी हूंहे सो ऊको जेई लगहे के यूक्रेन की लड़ाई के कारन पेट अटां गओ। कोनऊ की मोड़ी घरे से भाग जेहे, सो कहो जेहे के यूक्रेन की लड़ाई के कारन भाग गई। कोनऊ चलत-चलत रपट पड़हे सो कहो जेहे के यूक्रेन की लड़ाई के कारन रपट गओ। मैंगाई मनो रोकत नई बन रई, सो कोऊ के मूंड पे ठीकरा फोड़ई जैहे, सो फोड़ो जा रओ।’’ भैयाजी मों बनात भए बोले। 
‘‘कह तो तुम सांची रै भैयाजी! पर करो का जा सकत आए। इनखों लड़ने- उनखों लड़ने, सगरी मुसीबतें सो अपन ओरन के मूंड़े पड़ने। भैयाजी, अपन ओरें तो फटे ढोल ठैरे, चाये इते से लपड़याओ, चाये उते से लपड़याओ चूं ने बोलहें। निंबुआ चाये पचास को एक बिके पर अपन ओरें कछु ने बोलहें।’’ मोए सोई तैस आन लगी। सो, अब भैयाजी बात बदलबे खों ठाड़े हो गए।
‘‘अब तुमाओ मूंड को दरद कैसो है?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘अब तो ठीक लग रओ।’’ मैंने कही।
‘‘जे ई तो! एक से ध्यान बिलोरबे के लाने दूसरी अड़ी बिधो देओ, फेर देखो, फेर वोई-वोई दिखान लगत आए।’’ भैयाजी हंसत भए बोले,‘‘अब मोए चलन देओ बिन्ना! पंद्रा मिनट में दूध ले के मोए लौटने रओ, ओ अब हो गए घंटा खांड़। तुमाई भौजाई बमकत भई मिलहें।’’
‘‘सो, कह दइयो ने भौजी से के भैंसिया दूध नई दे रई हती यूक्रेन की लड़ाई के कारन।’’ कहत भइ मोए सोई हंसी छूट परी।               
भैयाजी सो चले गए। मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी रूस जाने, फूस जाने, दफ्तर वारे घूस जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(21.04.2022)
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Sunday, April 24, 2022

Article | Climate Change VS Environmental Refugees | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


⛳ Today my article "Climate Change VS Environmental Refugees" has been published in the Sunday edition of #CentralChronicle. Please read it. 
🌷Hearty thanks Central Chronicle🙏
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Article | Climate Change VS Environmental Refugees

-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

A large number of people in India are still not aware of climate change. At the same time, according to the United Nations, there will be more than 250 million environmental refugees in the world by 2030 due to global warming. So if you don't wake up now, then maybe the dawn will never happen. Environment cannot be saved just by taking pictures and promoting in the media. We have to make sincere efforts if we don't want to be environmental refugees.

Many people in developing countries are suffering from droughts and windstorms on a scale never seen before, depriving them of daily food and basic needs.  The term "environmental refugees" or “climate refugees” was first coined to describe the increasing large-scale migration and cross-border mass movements of people that were partly caused by such weather-related disasters. The term “environmental refugees” is one of the many phrases that are used to describe people who move due to changes in the environment around them. The relationship between the environment and human movement is complex, and for that reason there are a number of different phrases and definitions. Earlier there were only war refugees but now there are environmental refugees. In African countries such as Sudan and Somalia, more people have been forced into refugee lives than civil wars due to natural disasters. The water sources in their villages dried up, their cattle died due to non-availability of water, and their own lives were in danger. Due to which he was forced to leave his village, home and take refuge in other countries. But this displacement of them is illegal because the law to give asylum to environmental refugees has not yet been made in any country. Such refugees, even though they are real refugees, are neither called refugees nor do they get any help. It is predicted that due to environmental change, by 2050, about 140 million people from Africa, Latin America and South Asia will leave their mainland and migrate to other lands as environmental refuges. Environmental refugees are also increasing in India. These refugees are leaving their villages due to unavailability of water and wandering in search of work in big cities and trying to survive as daily wage laborers. Let us see an example of this, that there are reports of farmers committing suicide every day. The government gives all possible help to the farmers. Then why this committed suicide? If seen by taking off the political glasses, then the reason will be understood. After all, with the help of money given by the government, neither crop can be grown nor can it be saved. Water is a basic requirement for growing crops. We are which almost going to lose.
The heat falling since the beginning of April has broken its previous records. Water sources are drying up fast or their water level is continuously falling. We cannot escape our obligations by keeping a handful of grains and a sack of water for the birds leading a free life in the trees and puddles. As long as we have enough water to quench our thirst, we will be able to give a little water to the birds, but our thirst is now in danger. We have created a serious crisis for the present generation by throwing an ax at our feet. Indiscriminate felling of trees, unlimited extraction of sand from rivers, limiting the number of vehicles emitting toxic gas, extreme pressure of population growth on the food supply are the major reasons today due to availability of water, clean air to breathe and temperature. They are disturbing the balance and the educated section of the country is ignoring it even after seeing all this.
When the United Nations Climate Convention was signed in Rio in 1992, the US opposed the imposition of any limits on greenhouse gases. In contrast, Washington always spoke of national sovereignty when it came to deciding which gas to reduce, how, how much and when. In 1997, the US, like most countries, agreed to accede to the Kyoto Treaty, which set binding emissions reduction targets only for wealthy countries, largely responsible for carbon pollution thought to be the source of global warming are held responsible. The US agreed to it after obtaining several concessions. Bill Clinton's Vice President Al Gore signed the treaty on behalf of the US in 1998, but the Democratic Administration never gathered the necessary two-thirds majority in the Senate for formal ratification of the treaty had got. And when George W. Bush became president after Bill Clinton, the whole situation changed. Like father George Bush, Junior Bush was also opposed to a treaty that in his view allowed developing countries to burn fossil fuels and grow their economy while the hands of wealthy countries were tied to emissions limits. The treaty began in 2005 without US involvement. With Russia's signature, 55 countries required to implement the treaty had signed it after ratification. Canada later withdrew from the treaty, while New Zealand, Japan and Russia did not participate in the second phase of carbon reduction. In 2009, countries around the world gathered for a new treaty to replace the Kyoto Protocol, in which all countries, including the US, China and India, were to take proactive steps to cut carbon. But the Copenhagen Conference failed amid differences over the sharing of burdens between rich and poor countries. With the support of some other countries, the US insisted that the deal should not be called a treaty. In the end, an informal agreement was reached at the meeting in which it was agreed to limit the average global warming to 2 degrees above pre-industrial levels, but no target of cutting emissions was set. The next goal was to have a global treaty by 2015 when US President Barack Obama, along with China's Xi Jinping, gathered 195 countries, including India, for a climate treaty. The emissions targets were said to be contributions rather than commitments, which enabled Obama to ratify the treaty. Now President Joe Biden is striving for this. According to a World Bank report released in September, more than 200 million people are likely to migrate over the next three decades because of extreme weather events or the slow degradation of their environments. Most are displaced within their home country.
India is getting hit by climate change. Due to the change in the nature of rain, many rivers in the Himalayan states have changed their course. Scientists are also agreeing that the weather has started behaving strangely. Several villages in Arunachal Pradesh and Assam have been washed away in the last few decades. According to experts, many rivers have changed their course due to climate change. Northeast India receives a lot of rain. According to experts, the nature of rain has changed in the last few decades. Now it is raining heavily and for a long time. Because of this the rivers are getting flooded. Analysis of geological data has shown that some rivers have changed their course up to 300 meters away, while elsewhere they have moved 1.8 kilometers away. According to the Center for Science and Environment (CSE) based in New Delhi, the rainfall is well distributed throughout the year under normal climatic conditions. But now its nature has changed due to climate change.
If the increasing rate of environmental refuge is to be stopped, then first of all we have to stop all those works which are harming the environment. Trees will have to be saved and new trees will have to be planted and that plant will have to be protected honestly. The environment cannot be saved just by taking pictures and promoting in the media, for this, sincere efforts have to be made, if we also do not want to become an environmental refuge.                               
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(24.04.2022)
#ClimateCahnge  #MyClimateDiary
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#KnowYourEnvironment
#unclimatechange
#ClimateChange  #EnvironmentalRefugees

Saturday, April 23, 2022

विश्व पुस्तक दिवस 2022 की.हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#worldbookday2022 
बहुत खूबसूरत क़िताबों की दुनिया
सवालों में जैसे जवाबों की दुनिया
- डॉ शरद सिंह

#BookWorldDay 
#विश्वपुस्तकदिवस 
#डॉसुश्रीशरदसिंह 
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#drmssharadsingh

Thursday, April 21, 2022

डॉ (सुश्री) शरद सिंह महाविद्यालयीन वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह में विशिष्ट अतिथि

" जीवन में प्रतियोगिता का बहुत अधिक महत्व है प्रतियोगिता की भावना हमें काम करने की ऊर्जा और उत्साह प्रदान करती है। यहां जो छात्राएं उपस्थित हैं, उन्होंने प्रतियोगिता में विजेता बनकर अपना नाम रोशन किया है। मैं चाहती हूं कि वे अपने महाविद्यालय का ही नहीं वरन अपने शहर का, अपने प्रदेश का और अपने देश का नाम रोशन करें।" विशिष्ट अतिथि के रूप में यह मेरे उद्गार थे शासकीय स्वशासी कन्या स्नातकोत्तर उत्कृष्टता महाविद्यालय सागर में वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह में। इस समारोह में मुख्य अतिथि थे पद्मश्री राम सहाय पांडे तथा विशिष्ट अतिथि थी मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह। कल 20 अप्रैल 2022 की दोपहर।
  🚩महाविद्यालय की वर्तमान प्राचार्य डॉ इला तिवारी न केवल एक विदुषी महिला हैं वरन एक उच्चकोटि की प्रशासक भी हैं। उनके कार्यकाल में छात्राओं ने अनेक गतिविधियों में भाग लिया है। समारोह के दौरान छात्राओं का उत्साह हर किसी को प्रभावित करने में सक्षम था। यूं भी कोरोनाकाल के 2 साल के आतंक और बंधन के बाद एक बार फिर से स्वतंत्रता की सांस लेते हुए अपने क्लासमेट्स के साथ कॉलेज के जीवन का आनंद उठाने का अनुभव छात्राओं को प्रफुल्लित करेगा ही। उनकी प्रसन्नता देख मेरा भी मन प्रसन्नता से भर उठा। समारोह की संयोजक डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी जो एक प्रतिष्ठित कवयित्री हैं तथा कुशल प्राध्यापक हैं, इस समारोह के प्रति उनकाअसीम उत्साह उल्लेखनीय है। 
🙏मैं आभारी हूं डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी की तथा डॉ इला तिवारी की जिन्होंने मुझे छात्राओं के सानिध्य में  नवऊर्जा, उत्साह और उमंग को अनुभव करने का अवसर दिया 🙏 

🚩वस्तुतः छात्राओं को पुरस्कार देते समय ऐसा अनुभव हो रहा था कि हम सभी उनके साथ पुरस्कृत हो रहे हैं। यही इस समारोह की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
#शासकीय_स्वशासी_कन्या_स्नातकोत्तर_उत्कृष्टता_महाविद्यालय #सागर  #वार्षिक_पुरस्कार_वितरण_समारोह 
#डॉसुश्रीशरदसिंह  #विशिष्टअतिथि

मां डॉ विद्यावती मालविका जी की प्रथम पुण्यतिथि पर श्रीसीताराम रसोई में बुजुर्गों की भोजन-सेवा - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 

सीताराम रसोई के द्वार पर मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रिय मित्रों, कल अपनी मां डॉ विद्यावती मालविका जी की प्रथम पुण्यतिथि पर मैंने स्थानीय श्रीसीताराम रसोई संस्था में जाकर वृद्धों को खाना खिलाया। वे श्रीसीताराम रसोई संस्था की प्रशंसक थी और हमेशा कहा करती थीं कि "देखो यह संस्था उन बुजुर्गों के लिए कितना अच्छा काम करती है जिन्हें दो रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है, उनका पेट भरती है यह संस्था।" इसीलिए मुझे यही उचित लगा की मां की प्रथम पुण्यतिथि कि सुबह मैं श्रीसीताराम रसोई में अपना समय व्यतीत करूं और बुज़ुर्गों को खाना खिलाऊं। मैं जानती हूं की संस्था जितने लोगों का रोज पेट भर रही है उस अनुपात में मेरा सहयोग सागर में एक बूंद के समान था। मैं वास्तव में बहुत प्रभावित हुई वहां पहुंचकर स्वच्छता और साफ सफाई में अव्वल, सुस्वाद भोजन और आत्मीयता भरा वातावरण।

चलिए, मैं शुरू से सब कुछ साझा करती हूं....
जिस दिन मेरे मन में यह विचार आया कि मैं श्रीसीताराम रसोई मैं बुजुर्गों को खाना खिलाऊंगी। उसी दिन मैंने अपने अनुज विनोद तिवारी को फोन करके अपनी मंशा बताएं। उन्होंने कहा "यह बहुत अच्छा विचार है दीदी!"
भाई विनोद तिवारी भी श्रीसीताराम रसोई से संबद्ध हैं और उन्होंने मेरी इच्छा के बारे में संस्था को सूचित कर दिया। इससे पूर्व मैं स्वयं श्रीसीताराम रसोई कभी नहीं गई थी अतः एक संकोच का अनुभव भी हो रहा था कि वहां क्या होगा? कैसा होगा? कहीं मुझसे कोई त्रुटि न हो जाए। तब मैंने विनोद भाई से आग्रह किया, साथ चलने का। किंतु दुर्भाग्यवश विनोद भाई के परिवार में ग़मी हो गई और 20 तारीख की सुबह उनका फोन आया कि "दीदी, मैं नहीं आ पाऊंगा लेकिन आपको वहां ऑफिस में जो महिला मिलेंगी, वे आपकी पूरी मदद करेंगी। आपको कोई असुविधा नहीं होगी। आप वहां दान-रसीद कटा लीजिएगा और सेवा कार्य कर लीजिएगा।
यह संस्था मेरे निवास से शहर के बिल्कुल दूसरे छोर पर स्थित है। उधर मेरा कम ही आना जाना हुआ है। मुझे ध्यान आया कि उसी क्षेत्र में बुंदेली के विख्यात गायक देवी सिंह राजपूत जी का निवास है। अतः मैंने उन्हें फोन किया कि विनोद भाई नहीं आ पा रहे हैं और मुझे एक संकोच का अनुभव हो रहा है। थोड़ी घबराहट सी भी महसूस हो रही है तो क्या आप आ सकते हैं? वे सहर्ष तैयार हो गए। मैंने किसी को भी आमंत्रित नहीं किया था और देवी सिंह राजपूत जी को भी आमंत्रित करते हुए संकोच हो रहा था क्योंकि जब पारा 42-44 डिग्री चल रहा हो तो उस समय किसी से भी यह कहना कि वह घर से बाहर निकल कर मेरे साथ कहीं चले, बड़ा अजीब और संकोच भरा लगता है। सहज स्वभाव के देवी सिंह राजपूत जी उस लू-लपट में भी उत्साह पूर्वक उपस्थित हो गए। श्री पंकज शर्मा का भी उल्लेखनीय सहयोग रहा । गर्मी की तीव्रता के कारण ही मैंने बड़े भाई उमाकांत मिश्र जी, अध्यक्ष श्यामलम संस्था से सिर्फ़ चर्चा की थी, उनसे आने का आग्रह नहीं किया था ताकि वे धूप गर्मी में वे परेशान न हों, किंतु उन्हें लगा कि मैं कहीं अकेली परेशानी का अनुभव न करूं अतः वे भोजन समाप्त होने के पूर्व ही श्री कपिल बैसाखिया जी एवं श्री मुकेश तिवारी जी के साथ वहां आ गए। मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य था। निश्चित रूप से उनका यह अपनत्व अमूल्य है मेरे लिए।
बाहरहाल, में श्रीसीताराम रसोई पहुंची। वहां जैसा कि विनोद भाई ने बताया था, ऑफिस में वह महिला मिली। बहुत ही मिलनसार, बहुत ही प्यारी सी महिला। उन्होंने मेरी दान-रसीद काटी और अपनी संस्था के बारे में बहुत सी जानकारी दी। तत्पश्चात, लगभग 11:15 पर हम लोग डाइनिंग हॉल पहुंचे। जहां वृद्धजन दरियों पर बैठे हुए थे, महिलाएं भी पुरुष भी। इसके पूर्व कि खाना परोसा जाता, वहां वृद्धजन बड़े उत्साह के साथ भजन गा रहे थे और उनका उत्साह देखते ही बन रहा था। उन्हें देखकर लगा कि इतनी ऊर्जा से भरे हुए व्यक्तियों की कैसे कोई अवहेलना कर सकता है? बहुत आश्चर्य हो रहा था मुझे और साथ ही दुख भी। ठीक 11:30 बजे भोजन परोसने का समय आया तो वहां की महिला कर्मचारी ने मुझसे पूछा कि "आप खाना परोसेंगी या हम लोग परोसना शुरू कर दें ?" तो मैंने उनसे निवेदन किया कि यह कार्य मुझे भी करने दे। ... और मैंने उनके साथ मिलकर बुजुर्गों को खाना परोसा। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपनी मां को खाना परोस रही हूं। उस समय एक अत्यंत आत्मिक सुख का अनुभव हो रहा था। मन था भावुकता से भर उठा था आंसू छलक पड़ने को तत्पर थे किंतु मैं उन बुजुर्गों के सामने रो कर उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी। अतः मैंने अपनी भावनाओं पर बामुश्क़िल नियंत्रण रखा। मुझे यह देख कर बड़ा अच्छा लग रहा था कि वहां का पूरा स्टाफ बहुत ही हंसमुख, उदारमना और मिलनसार था। उन्होंने हमसे भी आग्रह किया कि हम बुजुर्गों को खिलाया जाने वाला भोजन खा कर देखें ताकि संतुष्ट हो सके कि उन्हें उचित भोजन दिया जा रहा है या नहीं। उनके विशेष आग्रह पर हम सभी ने थोड़ा-थोड़ा-सा खाना चखा और वास्तव में वह खाना इतना सुस्वाद की उनकी प्रशंसा किए बिना हम लोग नहीं रह सके।
वहां मेरी मुलाकात हुई श्री ठाकुर साहब से, जो बहुत ही सादगी भरे लिबास में थे और उन कर्मचारियों के साथ ही हाथ बंटा रहे थे। मैं उन्हें नहीं पहचानती थी किंतु जब परिचय हुआ तो मैं चकित रह गई कि वे श्रीसीताराम रसोई के संचालनकर्ताओं में से एक हैं और साथ ही पेट्रोल पंप के मालिक भी हैं। यूं तो मुझे ज्ञात था कि इस संस्था को संचालित करने वालों में जो प्रमुख नाम हैं, वे वास्तव में समाजसेवी प्रवृत्ति के हैं जैसे इंजीनियर प्रकाश चौबे, डॉक्टर चउदा, पेट्रोल पंपवाले ठाकुर साहब। इनमें से इंजीनियर प्रकाश चौबे और डॉ चउदा से कई बार मुलाकात हो चुकी है किंतु ठाकुर साहब से मेरी मुलाकात पहली बार हुई। ये सभी लोग इतने मिलनसार, सरल और सहज स्वभाव के हैं कि इनसे मिलकर यह महसूस नहीं होता कि हम किसी धनाढ्य व्यक्ति से मिल रहे हैं। अपने ही जैसे एक आम आदमी से मुलाक़ात जैसा अनुभव होता है। इनकी इसी सज्जनता के फलस्वरुप ही एक इतनी अच्छी संस्था शहर में संचालित हो रही है।
दानदाताओं के सहयोग से इस संस्था में आटा गूंथने, रोटी सेंकने तथा सब्जियां छीलने की ऑटोमेटिक मशीनें लगी हुई हैं। साथ ही स्वच्छ पानी के लिए आरो फिल्टर की व्यवस्था है। संस्था की ओर से उन बुजुर्गों के लिए भी डिब्बे में खाना भेजा जाता है जो वहां तक चलकर आ पाने में असमर्थ हैं। साथ ही वहां मुझे ज्ञात हुआ यह संस्था उन बच्चों के लिए दलिया, खिचड़ी जैसे पौष्टिक भोजन उनके घरों में भेजती है जो बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और जिन्हें अच्छा भोजन नहीं मिल पाता है। ऐसे बच्चों के लिए संस्था की ओर से प्रतिदिन दलिया खिचड़ी जैसे खाद्य पदार्थ भेजे जाते हैं। यह सब देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा और सबसे बड़ी बात यह महसूस करके सुकून पहुंचा कि अभी मानवता इस धरती पर विद्यमान है। लोगों ने एक दूसरे का ख्याल रखना अभी पूरी तरह से भुलाया नहीं है। इस धरती पर ऐसे लोगों की अभी भी मौजूदग़ी है जो जरूरतमंदों का निस्वार्थ भाव से ध्यान रखते हैं। कल दोपहर तक जितनी देर में श्रीसीताराम रसोई में रही बहुत ही भावुक समय था मेरे लिए... और मुझे लगता है कि मेरी मां को भी मेरा यह कार्य निश्चित रूप से सुखद लगा होगा। उन्हीं ने तो सिखाया था दुखीजन की सेवा करना।
व्यक्तिगत रूप से भी मुझे लगता है कि कर्मकांड और आडंबरों के बजाएं दुखी, पीड़ितों, अभावग्रस्त लोगों की सेवा करना ही सबसे उत्तम कार्य है। यदि पुण्य की अवधारणा को माना जाए तो इससे बड़ा पुण्य और कोई नहीं है।
संत कबीर का यह दोहा अक्सर मुझे याद आता है..
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।।
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संस्था द्वारा व्हाइटबोर्ड पर प्रतिदिन दानदाताओं का उल्लेख किया जाता है ... यह उनके कार्य की पारदर्शिता है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बुजुर्गों को भोजन परोसती मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बुजुर्गों को भोजन परोसती मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बुजुर्गों को भोजन परोसती मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भोजन परोसने का आत्मिक सुख - डॉ शरद 

डॉ शरद सिंह रसोईघर का अवलोकन करते हुए

भजन गाते वृद्धजन

भोजन की प्रतीक्षा में सुस्ताते वृद्धजन

मैं डॉ शरद सिंह एवं बड़े भाई श्री उमाकांत मिश्र

लोकगीत गायक श्री देवी सिंह राजपूत मैं डॉ शरद सिंह एवं श्री उमाकांत मिश्र अध्यक्ष श्यामलम संस्था।

लोकगीत गायक श्री देवी सिंह राजपूत मैं डॉ शरद सिंह रसोईघर का अवलोकन करते हुए


लोकगीत गायक श्री देवी सिंह राजपूत मैं डॉ शरद सिंह रसोईघर का अवलोकन करते हुए

संस्था के रसोईघर महिला कर्मचारियों द्वारा विशेष आग्रह किए जाने पर भोजन का हम सभी ने स्वाद लिया। बाएं से- श्री पंकज शर्मा, श्री उमाकांत मिश्र, श्री ठाकुर साहब, डॉ सुश्री शरद सिंह एवं श्री देवी सिंह राजपूत।

संस्था के रसोईघर महिला कर्मचारियों द्वारा विशेष आग्रह किए जाने पर भोजन का हम सभी ने स्वाद लिया। बाएं से- श्री पंकज शर्मा, श्री उमाकांत मिश्र, श्री ठाकुर साहब, डॉ सुश्री शरद सिंह एवं श्री देवी सिंह राजपूत।

संस्था के रसोईघर महिला कर्मचारियों द्वारा विशेष आग्रह किए जाने पर भोजन का हम सभी ने स्वाद लिया। बाएं से- श्री पंकज शर्मा, श्री उमाकांत मिश्र, श्री ठाकुर साहब, डॉ सुश्री शरद सिंह एवं श्री देवी सिंह राजपूत।

बाएं से- श्री  देवी सिंह राजपूत, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, श्री उमाकांत मिश्र एवं श्री ठाकुर साहब

बाएं से - श्री देवी सिंह राजपूत, श्री पंकज शर्मा श्री कपिल बैसाखिया, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, श्री उमाकांत मिश्र एवं श्री ठाकुर साहब

बाएं से - श्री देवी सिंह राजपूत, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, श्री उमाकांत मिश्र

बाएं से - श्री देवी सिंह राजपूत, श्री पंकज शर्मा श्री कपिल बैसाखिया, डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 डॉ (सुश्री) शरद सिंह श्रीसीताराम रसोई के डाइनिंग हॉल में

 डॉ (सुश्री) शरद सिंह श्रीसीताराम रसोई के डाइनिंग हॉल में

श्रीसीताराम रसोई के द्वार पर  डॉ (सुश्री) शरदसिंह
 श्रीसीताराम रसोई के द्वार पर श्री देवी सिंह राजपूत, उमाकांत मिश्र, डॉ (सुश्री) शरदसिंह, श्री मुकेश तिवारी
श्रीसीताराम रसोई के द्वार पर श्री देवी सिंह राजपूत, उमाकांत मिश्र, डॉ (सुश्री) शरदसिंह, श्री मुकेश तिवारी