Thursday, June 29, 2023

बतकाव बिन्ना की - घोर-घोर रानी, कित्ता-कित्ता पानी? - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

"घोर-घोर रानी, कित्ता-कित्ता पानी?" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
घोर-घोर रानी, कित्ता-कित्ता पानी?          
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
  .        ‘‘आपके इते पाहुने आए हैं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। काए से के जो आज सुभै भैयाजी के दुआरे से निकरी, सो मोए उनके घरे-भीतरे से दो-तीन जने की आवाजें सुनाईं परी हतीं। अब सात बजे सुभै कौनऊं मिलबे, बैठबे खों सो आओ ने हुइए।
‘‘पाहुने सो नईं, मनों पप्पू आएं हैं अपनी घरवारी औ बच्चों के संगे।’’ भैयाजी ने बताओ।
‘‘तो आप ओरें कौनेऊ पूजा-पाठ करा रए का?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ, जो पूजा-पाठ करा रए होते तो तुमाई भौजी काल संझा को ई तुमें न्योता न दे देतीं?’’ भैयाजी बोले।
बात सो ठीक कै रए हते भैयाजी। बाकी अब मोसो जे ने पूछी जा रई हती के जो पूजा-पाठ नोंई हो रओ, सो पप्पू भैया काए के लाने आए इते, वा बी विथ फैमिली?
मनो भैयाजी मोरे मन की बात ताड़ गए औ बोले,‘‘का आए के काल दुफारी औ संझा खों जो जम के पानी बरसो, सो उनके मोहल्ला में घूंटा-घूंटा लों पानी भर गओ। अब पप्पू अपनी गाड़ी संगे अपने घरे ने जा पा रए हते। रात ग्यारा बजे पप्पू ने मोय फोन करी के बाल-बच्चा औ गाड़ी खों बा हमाए इते छोड़ों चात आए। सो हमसे ऊसे कई के अकल पैदल, तुम का उते रात खों नरवा बनाहो? तुम सोई इतई आ जाओ औ जब लौं तुमाए मोहल्ला से पानी नईं उतरत, तब लौं इते हमाएं घरे रओ। नईं-नईं करत-करत बारा बजे लौं इतई आ गऔ। अब संकारे से अपने पड़ोसियन खों मोबाईल लगा-लगा के अपडेट ले रओ आए, के पानी उतरो के नईं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे आपने अच्छो करो के उन ओरन को इतई अपने घरे बुला लओ। बाकी पार की साल सोई उते पानी भर गओ रओ। पर मैंने सुनी रई के उते अच्छी नारी-मारी बना दई गई रई। मनो, ई दारी फेर के पानी भर गओ? मनो नारी अच्छी बनी ने कहाई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘नारी सो अच्छी बनाई गईं, मनो उते रैहबे वारे ऊको अच्छी रैन दें तब न!’’ पप्पू भैया सोई उतई आ गए औ बोल परे।
‘‘राम-राम पप्पू भैया!’’ मैंने पप्पू भैया से नमस्ते करी।
‘‘राम-राम दीदी जी! कैसी हो आप?’’ पप्पू भैया ने मोसे पूछी।
‘‘मेरी छोड़ो औ आप बताओ के आप अपने मोहल्ला के बारे में का कै रए?’’ मैंने पप्पू भैया से पूछी।
‘‘अरे, का कओ जाए दीदी जी, हर मोहल्ला में दो-चार उत्पाती रैत आएं। बो का कओ जात आए ने, के एक मछरिया पूरौ तला मचा देत आए। सो उते सोई दो-चार जने आएं, जो नारी को घरवारी घांईं अपनी प्राॅपर्टी समझत आएं।’’ पप्पू भैया बोले।
‘‘जो का अल्ल-गल्ल बोल रए?’’ भैयाजी ने पप्पू भैया खों टोंकों।
‘‘सई सो कै रए हम! बे उते पटवारी साब के भनेंज रैत आएं, उन्ने दो मईना पैले अपने घर को दूसरो तल्ला बनाओ, औ संगे घर के आगे की तीन फुट जमीन घेर लई, बगीचा लगाबे के बहाने। ऊसे का भओ के उतई से नारी बहत्ती, सो नारी पे फर्शी गड़ा दई। अब आपई बोलो के जो मोहल्ला को पानी बड़े नाला लौं ने पौंच पाहे, सो मोहल्ला में तो भरहे ई।’’ पप्पू भैया ने बताओ।
‘‘जे सो उन्ने गलत करो। उने ऐसो नईं करने चाइए रओ। आप ओंरन ने ऊ समै उने टोंकों नई?’’ मैंने पप्पू भैया से पूछी।
‘‘अरे बे? दीदी जी आप जानत नईयंा उनके लाने! बे सो लड़बे खों सींग तानत फिरत आएं। भैया भए पटवारी, सो डर काए को? बे सबई खों ऐंड़ देत फिरत आएं। ऐसो नईंयां के कोनऊं ने उनसे कई ने होय, हम दो-चार जने उनको बोलबे खों पौंचे बी, मनों जोन ने अपने कानन में अकड़ की उंगरिया डाल रखी होय बा कोनऊं की का सुनहे? बे थाना-माना की धमकी देन लगे। औ उत्तई नईं, उनकी घरवारी औरई बबूल घांई आएं। बे निकर आईं औं अपने घरवारे खों समझाने की जांगा हम ओरन से कैन लगीं के तु ओरें इते से तुरतईं फूटो, नई तो हम अबई महिला थाना फोन करत आएं, तुम सबरे लुगवा बंधे-बंधे फिरहो!’’ पप्पू भैया बोले।
‘‘हैं? उन्ने ऐसी कई आप ओरन से?’’ मोय जे सुन के बड़ो अचरज भओ।
‘‘औ का? हम ओरन के संगे बे हार्ट वारे डाक्टर साब सोई पोंचे रए, सो उनको जे सुन के तनक मुंडा फिर गओ। औ बे बोल परे के तुमें जोन थाने लगाने, सो लगाओ फोन! हम ओरें नईं डरा रए।’’ पप्पू भैया बतान लगे।
‘‘फेर?’’
‘‘फेर का! बे चिचियान लगीं और अपनी चुन्नी फाड़त भईं बोलीं के तुम ओरें हमसे गलत करबो चात हो? टिंकू के पापा तनक फोन तो मिलाइयो महिला थाने के लाने! बस, इत्तो सुन के सो हम ओरें घबड़ा गए। बे हार्ट वारे डाक्टर साब को खुदई हार्टफेल होत-होत बचो। हम ओरे भगे उते से। तब से उन ओरन से उते कोनऊं बात लौं नई करत आए।’’ पप्पू भैया बोले।
‘‘जे सो गजबई की हो गई। बे सो देखबे वारी चीज कहानी! भला कोनऊं लुगाई कऊं ऐसो करत आए? वा बी तनक-सी नारी की जमीन घेरबे के लाने? मोय सो सुन के यकीन नई हो रओ!’’ मैंने पप्पू भैया से गई।
‘‘अब आप खों यकीन होय, चाए ने होए, बाकी सत्त जोई आए!’’ पप्पू भैया बोले।
‘‘औ तुम बता रए हते के बा दूसरी वारी रोड पे एक ने नारी में पन्नी ठूंस दओ आए!’’ भैयाजी ने पप्पू भैया से पूछी।
‘‘हऔ, जो हमाए घर के बाद वाली जो रोड आए, उतई काॅलोनी में, ऊ तरफी की नारी में एक जने ने पन्नियां भर दई आएं। के उनके घरे के आगूं संे पानी ने बहे, चाए रोड पे गिलावो मचो रए।’’ पप्पू भैया ने बताओ।
‘‘जे कैसे-कैसे सेम्पल रय रए उते? कोनऊं नारी पे कब्जा कर रओ, सो कोनऊं नारी में पन्नियां ठूंस रओ, उन ओरन खों इत्ती समझ नई पर रई के, जो नारी बंद रैहे, सो मोहल्ला में पानी भरहे। औ उनके घरे सोई घुसहे।’’ मैंने सो अपनो माथा पीट लओ जे सब सुन के।
‘‘अब का करो जाए दीदी जी! बरसात को मईना सो ऐसई काटने परहे।’’ पप्पू भैया बोले।
‘‘अब का दसा आए उते की?’’ भैयाजी ने पप्पू भैया से पूछी।
‘‘घंटा भर पैले सो पानी नईं उतरो रओ, अब फेर के लगा रए फोन!’’ पप्पू भैया बोले औ तनक मईं को सरक के अपने पड़ोस वारे खों फोन लगाउन लगे। जो लों भैयाजी कैन लगे के,‘‘बे मानुस इते होते, सो हम तो एक मिनट में उने ठीक कर देते।’’
‘‘औ उनकी घरवारी को का करते?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बा, ऊके लाने तुमाई भौजी कुल्ल रैतीं। बे तो ऊके बाल पटा देंती औ संगे कैतीं के तुम का चुन्नी फाड़ रईं, लाओ हम तुमाओ कुर्ता पटा देत आएं। फेर चलो थाने अपनो बदन दिखाबे के लाने। तुरतईं सुधर जाती बा लुगाई।’’ भैयाजी मूंछन पे ताव देत भए बोले।
‘‘जोई सई रैतो भैयाजी! जो जैसो होय, ऊको ओई की भाषा में समझाने परत आए। बाकी बा कित्ती अच्छी काॅलोनी आए।’’ मैंने भैयाजी से कई। इत्ते में पप्पू भैया अपने पड़ोसी से बात कर के हम ओरन के लिंगे आ गए।
‘‘का पतो परो भैया? अब उते कित्तो-कित्तो पानी आए?’’ मैंने पप्पू भैया से पूछी।
‘‘अब उतर गओ आए। औ सब ओरन ने तय करी है, के तीनेक बजे सब जने नगरनिगम जांहें, शिकायत करबे के लाने। औ जो बात ने बनीं सो एफआईआर कराहें।’’ पप्पू भैया ने बताओ।
‘‘हऔ, इत्ते पे तो बात बन जानी चाइए, ने तो तुम ओरें काॅलोनी वारे बा खेल खेलियो औ टेम पास करियो के- घोर-घोर रानी, किततो-कित्तो पानी?’’ मैंने हंस के कई।
मोरी बात सुन के बे दोई भैया सोई हंसन लगे।
बाकी, आप ओरन के इते सोई जो पानी भर रओ होय तो जा के शिकायत करो, ने तो घोर-घोर रानी खेलत रओ। बस, जे ने मनाइयो के पानी बरसबो बंद हो जाए। बरिया बर के पानी बरसबे पे आओ आए।
     मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, June 28, 2023

चर्चा प्लस | हिन्दी साहित्य बनाम लुगदी साहित्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
हिन्दी साहित्य बनाम लुगदी साहित्य
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         जब टीवी और इंटरनेट का बूम नहीं था तब मनोरंजन के लिए पाॅकेटबुक्स पढ़ी जाती थीं। वे पाॅकेटबुक्स जिन्हें ‘पल्प फिक्शन’ या ‘लुगदी साहित्य’ आदि कहा गया। लुगदी साहित्य का अपना विस्तृत साम्राज्य था। अपनी रुचि के अनुरुप सामाजिक और जासूसी उपन्यास बड़े पैमाने पर पढ़े जाते रहे। कुछ लोग खरीद के पढ़ते थे, तो कुछ किराए पर ले कर। कुछ खुल कर पढ़ते थे, तो कुछ छिपा कर। अनेक छात्र कक्षा में बैठ कर भी अपनी कोर्स की किताबों के बीच पाॅकेटबुक्स दबा कर पढ़ते थे ताकि शिक्षक को भनक न लगे। इनकी लोकप्रियता को देखते हुए ही लेखिका शिवानी के साहित्यिक उपन्यासों को पाॅकेटबुक्स के रूप में भी छापा गया। फिर भी लुगदी साहित्य और हिन्दी साहित्य में मेल नहीं हो सका।
आजकल टेलीविज़न में सनसनी फैलाने वाले ऐसे अनेक कार्यक्रम प्राइम टाईम और प्राईम टाईम के बाद देर रात तक धड़ाके से चलते रहते हैं। लेकिन ये कार्यक्रम वैसी लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाए जैसी कभी जासूसी उपन्यासों ने हासिल की थी। हर पाठक के लिए अपनी पसंद का जासूस मौजूद रहता था। किसी को युवा, बिंदास सुनील पसंद था, किसी को जासूस विनोद पसंद आता था तो किसी को, मेजर बलवंत। ये उपन्यास आर्थिक दृष्टि से पाठकों के लिए ‘बटुआ फ्रेण्डली’ होते थे। ये किराए पर उपलब्ध रहते थे, आधे और चौथाई मूल्य में भी खरीदे-बेचे जाते थे। कम मूल्य में अधिक पृष्ठों वाली यह रोचक पुस्तकें पाठकों को सहज आकर्षित करती थीं। रेल्वे व्हीलर्स और बस स्टेन्ड्स की दूकानों से ले कर फुटपाथों तक राज करने वाली हिन्दी साहित्य की इन पुस्तकों को समीक्षकों द्वारा कभी गंभीर समीक्षा के दायरे में नहीं रखा गया। मोटे, दरदरे, भूरे-पीले से सफेद कागज पर छपने वाला यह साहित्य, उपन्यासों के रूप में पाठकों के दिल-दिमाग पर छाया रहता था। माता-पिता द्वारा रोके जाने पर भी स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी अपनी पाठ्य पुस्तकों में छिपा कर इन्हें पढ़ते थे। दूसरी ओर इनमें से कई लेखक ऐसे थे जिनके उपन्यास स्वयं माता-पिता की पहली पसन्द होते थे। अस्सी के दशक तक पूरे उठान के साथ ऐसे उपन्यासों की उपस्थिति रही है। यह साहित्य लुगदी साहित्य के नाम से जाना जाता था। जिसे अंग्रेजी में पल्प फिक्शन कहा जाता है।

लुगदी साहित्य के रूप में जो उपन्यास लिखे गए वे निःसंदेह बेस्ट सेलर रहे लेकिन साहित्य समीक्षकों ने उन्हें आकलन परिधि से ही बाहर रखा। अंग्रेजी की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी ने इब्ने सफी को भारतीय उपमहाद्वीप का अकेला मौलिक जासूसी लेखक करार दिया था। लेकिन जब सामाजिक मूल्यों से सराबोर लुगदी उपन्यासों को समीक्षकों की कृपादृष्टि नहीं मिली तो जासूसी उपन्यासों पर तो ध्यान दिए जाने का प्रश्न ही नहीं था। कहा जाता है कि गुलशन नंदा एक बार अपना एक उपन्यास ले कर रामधारी सिंह दिनकर को भेंट करने उनके पास पहुंचे। दिनकर ने उस उपन्यास को देखा, उल्टा-पुल्टा और ‘घटिया साहित्य’ कहते हुए एक ओर फेंक दिया। उनके इस व्यवहार से गुलशन नंदा को बड़ा धक्का पहुंचा। मगर वे चुपचाप लौट आए।

इस प्रकार के साहित्य को लुगदी साहित्य इसलिए कहा गया क्योंकि ये रचनाएं जिस कागज पर छपा करती थीं, वह कागज अखबारी कचरे और किताबों के कबाड़ की लुगदी बनाकर दोबारा तैयार किया जाता था अर्थात ‘‘रीसाइकल्ड पेपर’’ के रूप में। लुगदी साहित्य वह साहित्य बन कर रह गया जिसकी ओर समीक्षकों ने देखना भी पसंद नहीं किया। लुगदी साहित्य के दौर में हिन्दी के जो लेखक सामने आए उनमें प्रमुख थे- दत्त भारती, प्रेमशंकर बाजपेयी, कुशवाहा कांत, राजवंश, रानू आदि। लेकिन इनमें सबसे प्रसिद्ध थे गुलशन नंदा। हिन्दी साहित्य की प्रबुद्ध लेखिका शिवानी के उपन्यास भी लुगदी काग़ज़ों पर उपलब्ध रहते थे। वैसे गोपालराम गहमरी को हिन्दी में जासूसी उपन्यास का जन्मदाता माना जाता है।

जासूसी उपन्यासों से इतर गुलशन नंदा हिन्दी में लुगदी साहित्य के सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक रहे। गुलशन नंदा के अनेक बहुचर्चित उपन्यास थे- जलती चट्टान, नीलकंठ, घाट का पत्थर, गेलार्ड, झील के उस पार, पालेखां आदि। ‘झील के उस पार’ वह उपन्यास था जिसका हिन्दी पुस्तक प्रकाशन के इतिहास में शायद ही इससे पहले इतना जबर्दस्त प्रोमोशन हुआ हो। प्रचार में इस बात को रेखांकित किया गया था कि पहली बार हिन्दी में किसी पुस्तक का पहला एडीशन ही पांच लाख कापी का छापा गया है। गुलशन नंदा को प्रकाशक अग्रिम रॉयल्टी देते थे जिससे वे आगामी उपन्यास लिख कर देने के लिए अनुबंधित रहें। लुगदी साहित्यकारों के लेखन की सफलता की यह गारंटी गंभीर किस्म के साहित्य के रचयिता कभी हासिल नहीं कर सके। दरअसल गंभीर किस्म का साहित्य पढ़ने वाला एक विशेष पाठक वर्ग होता है जबकि लुगदी साहित्य की सरलता और रोचकता हर तरह के पाठकों को लुभाती रही। ऐसे उपन्यासों ने न केवल पुस्तक के रूप में बल्कि सिनेमाघरों में सिनेमा के रूप में भी धूम मचाई। गुलशन नंदा के अनेक उपन्यासों पर फिल्में बनीं और बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं जैसे- सावन की घटा, जोशीला, जुगनू, झील के उस पार, नया जमाना, अजनबी, कटी पतंग, नीलकमल, शर्मीली, नजराना, दाग, खिलौना, पालेखां आदि। सिनेमा की पटकथा में ढालते समय लुगदी साहित्यकारों ने अपने लेखन को ‘फ्लेसिबल’ रखा। जैसे गुलशन नंदा के उपन्यास ‘अजनबी’ पर जब राजेश खन्ना और ज़ीनत अमान को ले कर फिल्म बनाई गई तो उसका अंत उपन्यास में दिए गए अंत से एकदम विपरीत कर दिया गया। फिल्म प्रदर्शित होने के बाद ‘अजनबी’ की जो पटकथा पाॅकेटबुक के रूप में छपी, उसमें फिल्म वाला अंत ही प्रकाशित किया गया।  

बुक स्टॉल्स पर गंभीर साहित्य की तुलना में इब्ने सफी, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, रानू, राजवंश, वेदप्रकाश कम्बोज, कर्नल रंजीत, सुरेंद्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लुगदी साहित्यकार ज्यादा बिकते रहे। इन रचनाकारों के उपन्यासों को बस, ट्रेन की यात्रा के दौरान बहुत पढ़ा जाता था।  प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि ‘‘रेल यात्राओं का एक बड़ा फायदा उनकी जिंदगी में यह रहा है कि इसी दौरान उन्होंने कई अहम किताबें पढ़ लीं। रेल यात्रियों के मनोरंजन में किताबों की जो भूमिका रही है, उसमें एक बड़ा हाथ ए.एच. ह्वीलर बुक कंपनी और सर्वोदय पुस्तक भंडार जैसे स्टॉल का भी रहा।’’

दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो जिस लुगदी साहित्य ने पाठकों में पढ़ने का रुझान पैदा किया तथा जिस लुगदी साहित्य ने पाठकों को गंभीर अर्थात् समीक्षकों एवं आलोचकों द्वारा जांचे-परखे गए साहित्य की ओर प्रेरित किया उस लुगदी साहित्य को कभी भी समीक्षकों एवं आलोचकों ने नहीं स्वीकारा। इसके विपरीत उसे तुच्छ हेय और घटिया साहित्य माना गया। हिन्दी साहित्य के किसी भी मानक साहित्यकार की पुस्तकों की तुलना में लुगदी कागज पर छपने वाले वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास लाखों की संख्या में छपते रहे हैं। उनका उपन्यास ‘‘वर्दी वाला गुंडा’’ रिकार्डतोड़ बिका। पहले ही दिन उसकी 15 लाख कॉपी बिकी थी। लगभग सन् 1971 से हिंदी में फिक्शन लिख रहे वेद प्रकाश शर्मा का नाम देश के बड़े बेस्टसेलर्स में शामिल है। उनके पाठकों की संख्या लाखों में रही है। वेद प्रकाश ने कहा था कि ‘‘मेरे पाठकों की सही-सही संख्या मुझे मालूम ही नहीं है, लेकिन हाई क्लास साहित्यकार मुझे अंग्रेजी में पल्प राइटर और हिंदी में लुगदी साहित्यकार कहते हैं, लुगदी का अर्थ होता है, हल्के दर्जे का कागज। हालांकि मुझे लुगदी साहित्यकार कहे जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे संतोष है कि मेरे पाठक लाखों में है और मैं जनता का मनोरंजन करता हूं। वहीं हिंदी साहित्य वालों की दुनिया में जिसे साहित्य कहा जाता है, उसके पाठक ही नहीं है।’’

लुगदी साहित्यकारों के इस आत्मसंतोष ने ही उन्हें पाठकों के दिलों पर राज करना सिखाया।   ओमप्रकाश शर्मा के उपन्यासों ने भी पाठकों को वर्षों तक अपने आकर्षण में बांधे रखा। एस सी बेदी के उपन्यास समाज में घटित होने वाले अपराधों का बेहतरीन विश्लेषण करते थे। इनमें अपराध के दुष्परिणामों की भी व्याख्या विस्तृत रूप से की जाती थी। जब बात आती है जासूसी उपन्यासों की तो सबसे पहला नाम आता है इब्ने सफी का। लेकिन यदि मैं अपनी पीढ़ी के पाठकों की बात करूं तो अंग्रेजी में जेम्स हेडली चेज़ और हिन्दी में सुरेन्द्र मोहन पाठक का दबदबा रहा। हार्पर कॉलिन्स मूलतः अंग्रेजी का प्रकाशन संस्थान है लेकिन इसने लुगदी के पहले जासूसी उपन्यास लेखक इब्ने सफी के उपन्यासों को फिर से छापा। हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन से सुरेंद्र मोहन पाठक के दो उपन्यास ‘कोलाबा कॉन्सपिरेसी’ और ‘जो लड़े दीन के हेत’ भी छापे। सुरेंद्र मोहन पाठक के दोनों उपन्यासों के आरम्भिक प्रिंट ऑर्डर 30 हजार आए और इन दोनों उपन्यासों का पाठकों द्वारा जोरदार स्वागत किया गया था। ऑनलाइन रिटेल स्टोर्स पर भी सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों ने अपनी मांग बनाई। लेकिन सुरेन्द्र मोहन पाठक के ये दोनों उपन्यास लुगदी काग़ज़ पर नहीं बल्कि उम्दा किस्म के काग़ज़ पर छपे। इससे एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्या लुगदी साहित्य अपने उस स्वरूप में अब कभी नहीं दिखेगा जो उसने कभी मेरठ में पाया था?

पल्प फिक्शन के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया गया और उसकी टीस लुगदी साहित्यकारों को किस तरह पीड़ा देती है, इसका उत्तर सुरेन्द्र मोहन पाठक के इस कथन में महसूस किया जा सकता है जो उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था- ‘‘इस बारे में एक भ्रम बना दिया गया है। ऐसा लगता है मानो हिंदी साहित्य लेखक बहुत कुलीन हैं और उनके मुकाबले लोकप्रिय साहित्य लेखक का दर्जा बाजारू औरत का है। ये हाउसवाइफ और हारलोट (वेश्या) जैसी तुलना है। इसके जरिये साहित्यिक लेखक अपने ईगो की तुष्टि करते हैं। जब राजकपूर बतौर फिल्म निर्माता अपनी मकबूलियत के शिखर पर थे तब किसी ने कहा था कि वो सत्यजीत रे जैसी फिल्में कभी नहीं बना सकते। इसका माकूल जवाब राजकपूर के बड़े बेटे ने दिया था कि क्या सत्यजीत रे राजकपूर जैसी फिल्में बना सकते थे? एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के काम को हिकारत की निगाह से देखना गलत है, नाजायज है, गैरजरूरी है! क्या जासूसी उपन्यास लिखने में मेहनत नहीं लगती! ऊर्जा खर्च नहीं होती ! क्या इस काम को बिना कमिटमेंट के, लापरवाही से अंजाम दिया जा सकता है! आप ऐसा कैसे मान सकते हैं कि लोकप्रिय साहित्य पढ़ने वाले पाठक के सामने कुछ भी परोसा जा सकता है, ऐसा नहीं है। पाठक घोड़े और गधे में फर्क कर लेता है। लोकप्रिय साहित्य का पाठक कल था, आज है और आगे भी रहेगा लेकिन ‘साहित्य’ का पाठक हमेशा नहीं रहता क्योंकि पाठक है ही नहीं। इसमें दोष पाठकों का नहीं है। गंभीर साहित्य लेखकों की तरफ से, प्रकाशकों की तरफ से ऐसी कोशिशें ही नहीं होती कि पाठक तक साहित्य आसानी से पहुंच जाए। जो लेखक और प्रकाशक पाठकों की कमी का रोना रोते हैं वही अपनी 100 पन्ने की किताब की कीमत 100 रुपये रखकर एक तरह से पाठक को धकियाते हैं, नतीजा ये होता है कि साहित्यिक किताबें आपस में पढ़ी-पढ़वाई जाती हैं। एक सीमित, स्थापित जमात में उसकी चर्चा होती है बल्कि सप्रयास कराई जाती है और वाहवाही बटोरी जाती है। लोकप्रिय साहित्य का सिलसिला ठीक है, जिसमें पाठक का अपने प्रिय लेखक से निरंतर जुड़ाव बना रहता है। लोकप्रिय साहित्य का पाठक अपने लेखक की हैसियत बनाता है। जबकि खालिस साहित्यकार इस हैसियत से वंचित है क्योंकि पाठक उन्हें नसीब ही नहीं होता।’’

सुरेन्द्र मोहन पाठक की बातों में दम है। आखिर यह सोचना ही पड़ता है कि भारत में साहित्य के अनगिनत पुरस्कारों में पल्प फिक्शन के लिए कोई श्रेणी कभी क्यों नहीं तय की गई? क्या वे लेखक नहीं थे अथवा उनका लिखा हुआ साहित्य किसी भी साहित्यिक श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता था। क्या लुगदी साहित्य की अलग श्रेणी नहीं बनाई जा सकती थी? लुगदी साहित्य को हिन्दी साहित्य से अलग अथवा उपेक्षित रखा जाता रहा जबकि इस साहित्य की भी सदा अपनी विशिष्ट उपादेयता रही है और इस विशिष्ट उपादेयता को भुलाया नहीं किया जा सकता है।  
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Tuesday, June 27, 2023

पुस्तक समीक्षा | मन की उड़ान भरतीं समाज सरोकारित कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 27.06.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ के काव्य संग्रह "मेरी उड़ान" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
मन की उड़ान भरतीं समाज सरोकारित कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - मेरी उड़ान
कवि       - बद्रीलाल ‘दिव्य’
प्रकाशक - चम्बल साहित्य संगम कोटा प्रधान कार्यालय, 12बी-लक्ष्मण विहार (प्रथम) कुन्हाड़ी, कोटा-8 (राज.)
मूल्य       - 250/-
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काव्य में शब्दों की वह शक्ति होती है जो अपने छोटे आकार में एक साथ नौ रस समेटने की क्षमता रखती है। जहां गद्य विस्तार मांगता है, वहीं काव्य संक्षिप्तता को प्रथमिकता देता है। इसीलिए काव्य में अर्थ के साथ-साथ भावार्थ भी निहित होता है। हिन्दी काव्य ने अब तक अपनी एक दीर्घ यात्रा तय कर ली है। छंदबद्धता से छंदमुक्तता तक की दीर्घ यात्रा। छंदमुक्त कविताएं देखने में बहुत सरल और सहज लगती हैं किन्तु वस्तुतः जितना श्रम छंदबद्ध कविताओं को सृजित करने में लगता है, उतना ही श्रम छंदमुक्त कविताएं भी चाहती हैं। अब यह कवि पर निर्भर होता है कि वह छंदमुक्त कविता शैली को कहां तक साध पाता है। छंदमुक्त कविता शैली में प्रकाशित एक ताज़ा काव्य संग्रह ‘‘मेरी उड़ान’’ आज की समीक्ष्य कृति है। यह काव्य संग्रह कोटा (राज.) निवासी कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ का है। इस संग्रह में कुल 53 कविताएं हैं। कविताओं के कथ्य की विविधता इस संग्रह का मूल आकर्षण है, साथ ही शैली की दृष्टि से ये सधी हुई कविताएं हैं।
संग्रह के आरम्भ में कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ की कविताओं पर तीन साहित्यकारों के विचार दिए गए हैं। कवि, समीक्षक एवं साहित्यकार प्रो. कृष्ण बिहारी भारतीय ने संग्रह की कविताओं पर सांगोपांग दृष्टि डालते हुए अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया है जिनमें से एक विशेषता है कि-‘‘शब्द संयोजन, गुण, अलंकार, रस, भाव, रीति, प्रकृति वर्णन के साथ छन्द प्रयोग आदि काव्य तत्वों पर दृष्टिपात करने पर प्रस्तुत कविता संग्रह अनायास सहृदय पाठकों को आह्लाहदित करता है। कवि दिव्य ने शब्द संयोजन में बिल्कुल भी बनावटीपन का सहारा नहीं लिया है।’’ वहीं, वरिष्ठ साहित्यकार रामकरण साहू ‘सजल’ ने संग्रह पर अपने विचार इन शब्दों में रखे हैं-‘‘ कविता संग्रह के पूर्ण अध्ययन उपरान्त पाया कि कविता संग्रह ‘मेरी उड़ान’ पूरी तरह से व्यवस्थित एवं दोष रहित है। पुस्तक में कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ का जो अनुपम शब्दकोष देखने को मिला वह अपने आप में अद्वितीय है। कविता संग्रह अपने सभी मानकों में खरा एवं अनोखा है जो समाज को एक दिशा प्रदान करने सक्षम है।’’

हिन्दी के सहायक आचार्य डाॅ. रामावतार सागर ने कवि ‘दिव्य’ के जीवन की विशेषताओं को भी रेखांकित किया है-‘‘राजस्थान के शिक्षा विभाग से सेवानिवृत वरिष्ठ कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ की यह तीसरी कृति है। हिन्दी और राजस्थानी (हाड़ौती) में समानाधिकार से अपनी लेखनी चलाने वाले कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ कोटा ही नहीं वरन राजस्थान की सीमाओं को पार कर देशभर में अपनी पहचान रखते है।’’
तीनों साहित्यकारों के विस्तृत आलेखों के साथ ही उनके विचार टिप्पणियों के रूप में ब्लर्ब पर भी दिए गए हैं। इसके साथ ही कवि ‘दिव्य’ ने प्राक्कथन में काव्य के प्रति अपने रुझान के बारे में चर्चा की है कि -‘‘मुझे विद्यार्थी जीवन से ही कविता लिखने और पढ़ने का शौक था। फिर धीरे-धीरे लिखने की प्रवृति और बढ़ती गई। मुझे विद्यार्थी जीवन से ही कविता संबल प्रदान करती आयी है। काव्य-रस का अतुलित आनन्द ही मानव को काव्य-लेखन की ओर प्रेरित करता है और काव्य-रस ने ही मुझे कविता लिखने की और प्रेरित किया है।’’
‘‘मेरी उड़ान’’ संग्रह की कविताएं कवि बद्रीलाल ‘दिव्य’ की रचनाधर्मिता का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये कविताएं कवि के मन की उड़ान से परिचित कराती हैं किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि इनमें कोरी कल्पना या फंतासी मात्र है। इन कविताओं में विषय की विविधता है क्योंकि यह खालिस उड़ान नहीं है वरन इसमें समाज में घटित हो रही उचित-अनुचित घटनाओं एवं परिदृश्यों का आकलन है। यह उल्लेखनीय है कि कवि ने अपने संग्रह की पहली कविता उसे बनाया है जिसमें जीवन के प्रति भरपूर आश्वस्ति है और लौटकर आने की उत्कट अभिलाषा है। यह कविता वर्तमान के निराशा उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में आशा जगाने वाली कविता है। ‘‘फिर लौटूंगा’’ शीर्षक की इस कविता की पंक्तियां देखिए-
देखो !/मैं फिर लौटूंगा
सिर्फ/तुम्हारे लिए
इस संसार में।
जो स्मृतियां
रह गई है शेष
उन्हें समेटने।
तुम अनछुए
पहलुओं को/छू लेना ।
फिर मत कहना
तुम नहीं लौटे
मैं फिर/लौटूंगा ।

अर्थात् अपने संग्रह की पहली कविता से ही कवि ने यह जता दिया है कि वह किसी भी दशा में पलायनवादी नहीं है। वह सांसारिक उलझनों से घबराया हुआ नहीं है। इस प्रकार सकारात्मक कविता से आरम्भित हो कर संग्रह की रचनात्मक यात्रा आगे बढ़ती है। जैसे-जैसे रचनाओं का क्रम बढ़ता है, वैसे-वैसे कवि के सामाजिक सरोकार मुखरित होते जाते हैं। कवि ‘दिव्य’ को विचलित करता है लड़कियों पर अनावश्यक प्रतिबंध लगाया जाना। अतिप्रतिबंधों के बीच लड़कियों की ज़िन्दगी किस प्रकार की है, इसे उन्होंने अपनी कविता ‘‘जिन्दगी लड़कियों की’’ में बखूबी व्यक्त किया है-
तवे में झुलसती हुई
रोटियों की तरह
निकल जाती है लड़कियों की जिन्दगी।
वाह रे ! क्या खेल है तेरा भी विधाता।
देखते रहते है घिनौना खेल
उनके ही जन्मदाता।
आज लड़कियां क्यों पाती है
अपने आप को कैद ?
घर में। समाज में। तो कभी प्रवास में ।
कभी-कभी उन्हें अहसास कराती है।
लड़कियों की जिन्दगी
न होने का ।
  कवि ने जितनी गंभीरता से लड़कियों की दशा पर काव्य सृजन किया है, उतनी की पीड़ा और क्षोभ के साथ गायों की दशा पर कलम चलाई है। ‘‘संताप गायों का’’ शीर्षक कविता इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि हम जिस प्राणी को अपनी माता का स्थान देते हैं, उसी के प्रति कितनी अवहेलना बरतते हैं, इस ओर लक्षित है यह कविता। प्रायः कवियों की कलम दुखी मनुष्यों तक चल कर ठहर जाती है किन्तु कवि ‘दिव्य’ ने भारतीय संस्कृति की प्राणीमात्र के प्रति चिंता के भाव को आत्मसात करते हुए यह कविता लिखी है जो कि आज के समय में एक जरूरी कविता कही जा सकती है। कुछ पंक्तियां देखिए इस कविता की-
मैं देख रहा हूं
लड़खड़ाती असहाय गायों को
जिनके मुख पर
भीषण गर्मी से आ रहे/पंसूगड़े।
मुझे देखा नहीं जाता
कामधेनु का संताप ।

ऐसा नहीं है कि कवि जीवन के कठोर पक्ष को ही देख रहा हो, कवि की दृष्टि प्रकृति की सुंदरता और उसके कोमल पक्ष पर भी है। ‘‘लो! आ गया मधुमास’’ कहते हुए कवि ‘दिव्य’ मधुमास के प्रभावों को अपनी कविता में बड़ी सुंदरता से पिरोते हैं-
देखो/लो! आ गया मधुमास ।
जो होता ऋतुओं में सबसे खास।
शनैः शनैः
हर उपवन में छा रहा है।
अब तो भ्रमर भी छन्दों में
गीत गुनगुना रहा है।

कवि ने संग्रह के नाम में ही स्पष्ट कर दिया है कि यह ‘‘मेरी उड़ान’’ है, फिर भी एक-दो प्रयोग तनिक खटकते हैं। जैसे एक कविता है ‘‘सिर्फ दो रोटी के लिए’’। इस कविता में लाचार स्त्री की व्यथाकथा है। मार्मिक भी है। किन्तु कविता का आरम्भ इन पंक्तियों से होता है-
वीरांगना करती है
कुपेशा।
अपनी देह
को नीलाम
सिर्फ दो रोटी के लिए।
- यहां ‘‘वीरांगना’’ शब्द उचित नहीं प्रतीत होता है। पेट की खातिर देह बेचने को विवश स्त्री लाचार हो सकती है, वीरांगना नहीं। यदि वह देह बेचने का समझौता न करके मजदूरी करती तो उसे वीरांगना कहना सटीक होता।
इसी प्रकार एक और कविता है ‘‘हे गांधारी तुम’’। इस कविता की पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं- ‘‘हे गांधारी तुम/क्यों पगला गई/आंखों के पट्टी बांधकर।/धृतराष्ट तो नेत्रहीन होकर भी/देख रहे थे सब कुछ/अनहोनी घटानाओं को/संजय तो केवल माध्यम था बिचारा।’’
इसी कविता में कवि ने आगे यह भी लिखा है कि -‘‘यदि तुम न पगलाती तो/सम्पूर्ण भारतवर्ष की लाज बच जाती/और दुर्योधन की/अहंकारी पट्टी हट जाती।’’ इस कविता में सारा दोष गांधारी द्वारा अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिए जाने पर मढ़ दिया गया है जबकि स्वयं गांधारी की इच्छा के विरुद्ध नेत्रहीन धृतराष्ट्र से उसका विवाह कराया गया था। इसी पीड़ा भरे प्रतिशोध में गांधारी ने अपनी आंखों में पट्टी बांधी थी। महाभारत काल में भी सामाजिक प्रभुत्व पुरुषों के हाथों में था। तत्कालीन दोषपूर्ण परिपाटियों के कारण ही धृतराष्ट्र को जन्मांधता मिली थी। अतः ऐसे प्रसंगों पर समग्र पक्षों के प्रस्तुतिकरण की आवश्यकता होती है।  

संग्रह की शेष सभी कविताएं उम्दा हैं और चिंतन, मनन तथा अनुभूति को जगाने वाली हैं। कवि की भाषाई पकड़ और शैली प्रभावी है। ‘‘भीख मांगने वाला’’,‘‘पेड़ क्या है’’, मैं आदमी हूं’’, ‘‘हे किसान तू हार नहीं सकता’’ जैसी कविताएं इस संग्रह की महत्वपूर्ण कविताएं हैं जिनका पढ़ा जाना जरूरी है। इनमें समाज के प्रति गहरा सरोकार निहित है।
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#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #BookReviewer #DrMissSharadSingh

Monday, June 26, 2023

कोरोना की आपदा के बाद हम इतिहास में दर्ज़ आपदाओं की भयावहता समझ सकते हैं। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्य वक्ता

कल शाम मुख्य वक्ता के रूप में एक उपन्यास के लोकार्पण समारोह में शामिल हुई। उपन्यास का नाम है "लॉकडाउन", जिसकी लेखिका हैं डॉ.लक्ष्मी पाण्डेय। 
श्रीसरस्वती पुस्तकालय के सभागार में पाठकमंच एवं श्यामलम संस्था का गरिमामय संयुक्त आयोजन था यह। 
समारोह की कुछ तस्वीरें....
(25.06.2023)
#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #BookLaunch #keynotespeaker

Sunday, June 25, 2023

Article | It's Time To Make Greenery Your Companion | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
It's Time To Make Greenery Your Companion
       -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

No matter you have or not big space for gardening, the matter is that you have how related with greenery? If greenery touches your heart and you feel affection with the, you will wish to increase it. Rainy season is the season when a carpet of greenery is spread on the earth. Tender green grass sprouts on the hard surface of the earth. This scene is very pleasing to our eyes. Then why don't we make greenery our companion this rainy season? Remember that greenery gives us both health and wealth. So let's make greenery our own.


Summer season
After dusty drought and heat
Rain feels good,
That green color looks good,
Who wipes away the dust and
Takes its place,
And tender green grass sprouts.
By the grass we can touch
With our eyes
To every color,
This symbolizes of continuous flow of life.
Only greenery enhances the life of nature.

This poetry I was written in last rainy season, when I caught the lots of greenery by my sight. In those days I was deeply depressed by my personal reason. During the heavy rain I was jailed in my own room. That was terribly detaching me from normal condition. When the rain was slow down, I went out of my room and then go out from my house. As soon as I came out of the house, it was as if someone had cast a spell on me. I looked mesmerized at the greenery that was spread far and wide. There were green leaves on the trees, green grass on the ground and a thin layer of greenery was visible on an old wall. Suddenly my mind became calm. It felt as if someone had made my inner sadness disappear with a magic wand. The cool greenery was very pleasant. Right then I realized that life is not what I was experiencing being confined in the room and getting depressed, the real life is what is in front of my eyes in the form of greenery. Just at the same time, forgetting my sorrow, I got filled with enthusiasm and started walking towards my plant pots with a tiny shovel. I had not taken care of those plants for several weeks. That day I spent about two hours with my plants and I found myself full of new energy.

There is a saying that good scenery calms the mind. There can be no better scenery than greenery. But nowadays, living in apartments and houses without courtyards, it has become difficult to have greenery near us. A park is made in big colonies of big cities, but there is lack of park in small colonies of small cities. Then, where there is private residence without planning, there is no space left for greenery. In such a situation, how can we find greenery around us? It's very simple. For this it is most important to understand the importance of greenery for yourself. It is important to know how much greenery benefits us personally. It is human nature that we get attracted towards the things which are beneficial for us and want to have them. According to scientists, nature and greenery have a restorative and healing tendency, leading to happier moods and reduced risk of depression, lesser stress levels, and increased cognitive function. It is boost up our better emotions. It is naturally that when we have in good mood, we do better and something new.

Greenery gives us healthy and pure breath. A healthy tree releases about 230 liters of oxygen every day, which provides oxygen to seven people. Peepal or Ficus religiosa is the most oxygen giving tree. Not many people know that the Areca Palm is a very important indoor ornamental plant. Besides it being a wonderful humidifier, the areca palm also produces more oxygen than other indoor plants. The areca palm is known for its ability to purify the air while removing harmful substances from the environment. Apart from this Money Plant, Snake Plant, Spider Plant. Gerbera Daisy, Bamboo etc are also more oxygen generating plants. Oxygen is also available by the balcony plants.

In our busy life, we are rarely able to go for outings, due to which we are not able to enjoy the greenery from close quarters. Whereas greenery is a constantly changing scene. That is, the leaves which we see on trees or plants today, their color may have changed a bit yesterday. Some yellow leaves have fallen and some new leaves have grown. Similarly, there is continuous change in flowers too. First a small bud, then the bud develops and then the bud becomes a flower, the flower blossoms and then gradually it turns into a fruit. This whole process gives us an interview with the life cycle and teaches us the nuances of living. Due to which we get the courage to face many calamities and difficulties. But the thing is that we do not take the time to go close to nature, learn from it and appreciate it. That's why, if we want, we can bring nature closer to us by planting some plants in pots in our small terrace or small balcony. If we do not have a balcony or terrace then there is nothing to worry about. Window gardening is trending these days. By going to any nursery, you can get window pots and window plants after taking advice from the gardener there. Some of the more creative people also grow onions, coriander, mint, fennel, lettuce, etc. in window gardening. In this way, they also enjoy the kitchen garden from their window garden. While such works give happiness and energy on one hand, they bring nature closer to you. This rainy season, you can choose your gardening space according to the space available in your home and have greenery at home which can be admired by sitting on a swing or a lounger.
Rainy season is the season of greenery in true sense, so whether it is outdoor or indoor, bring greenery with you and make it your companion. Then see that apart from giving you healing in physical and mental health, it will also make you environment and climate friend.
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(25.06.2023)
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Friday, June 23, 2023

सुश्री शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा - घनीभूत पीड़ा से उपजा प्रतिरोधी स्वर - वीरेंद्र प्रधान

मित्रो, मैं अभीभूत हूं संवेदनशील वरिष्ठ कवि श्री वीरेंद्र प्रधान जी द्वारा मेरे काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की बेहतरीन समीक्षा "आचरण" में पढ़कर... आप भी पढ़िए... पठन सुविधा के लिए आदरणीय वीरेंद्र प्रधान जी द्वारा प्रेषित टेक्स्ट यहां दे रही हूं.....
    मैं अत्यंत आभारी हूं आदरणीय वीरेंद्र प्रधान जी की इस महत्वपूर्ण समीक्षा के लिए 🙏
   बुक्स क्लीनिक से प्रकाशित मेरा यह का संग्रह अमेजॉन तथा किंडल पर उपलब्ध है...
Teen Parton Me Devta https://amzn.eu/d/biUeNKD

मूल्य (प्रिंट एडीशन) रु.200/-
किंडल एडीशन रु.50/-
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समीक्षा
कवयित्री सुश्री शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा
घनीभूत पीड़ा से उपजा प्रतिरोधी स्वर
        -वीरेंद्र प्रधान (कवि,लघुकथाकार)
                                            
       एक के बाद एक चार उपन्यासों के माध्यम से बहुचर्चित रही सुश्री शरद सिंह देश भर में एक जाना-पहचाना नाम हैं। विभिन्न विधाओं में विभिन्न विषयों पर लेखन कर उन्होंने साहित्य में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है। स्त्री-विमर्श,थर्ड-जेंडर विमर्श , पर्यावरण- संरक्षण जैसे ज्वलंत विषयों पर उन्होंने चिंतन परक पुस्तकों की रचना की है।अपनी विदुषी मां श्रीमती विद्यावती मालविका एवं गजलकारा अग्रजा वर्षा सिंह से मिले साहित्यिक संस्कार उनमें भरपूर समाहित हैं। स्थानीय जनपदीय बोली बुंदेली, हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्न अखबारों में  लिखे जा रहे उनके स्तम्भों की लोगों को सदैव तीव्र प्रतीक्षा रहती है।किसी एक पुस्तक पर प्रति मंगलवार उनकी लिखी समीक्षा लोकप्रिय हिंदी दैनिक आचरण में प्रकाशित होती है। इतिहास,विज्ञान और साहित्य की गहरी समझ के कारण उनका लेखन पठनीय और प्रभावी बन जाता है।
            बचपन से ही अध्ययनशील सुश्री शरद सिंह एक मेधावी व प्रतिभावान विद्यार्थी रही हैं। पढ़ाई-लिखाई में सदैव अव्वल रहने वाली शरद सिंह जी ने शोध कार्य को भी बड़ी गंभीरता से लेते हुए खजुराहो की मूर्ति कला पर एक उत्कृष्ट शोध‌ प्रबंध प्रस्तुत किया है।उनके स्वयं के लिखे उपन्यासों और कहानियों पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधार्थी शोध कर रहे हैं। मूलतः इतिहास व साहित्य की विद्यार्थी रही सुश्री शरद सिंह की ख्याति एक उपन्यासकार, कथाकार,समीक्षक और स्तम्भकार के रूप में अधिक है।मगर एक अत्यन्त संवेदनशील रचनाकार होने के नाते वे स्वभाव से ही कवि हैं। अपने प्रथम काव्य-संकलन "आंसू बूंद चुए" (नवगीत संग्रह) के प्रकाशन के साथ उनका कवि रूप सार्वजनिक हुआ। फिर एक खंड काव्य और एक ग़ज़ल संकलन के प्रकाशन के साथ उनका कविता के क्षेत्र में प्रवेश गहराता गया जिसे हिंदी जगत में सहर्ष और सादर स्वीकार किया गया। "तीन पर्तों में देवता" उनका बुक्स क्लीनिक पब्लिशिंग प्रकाशन से प्रकाशित नवीनतम काव्य संकलन है जिसमें तिरेपन छंदमुक्त कविताएं हैं।इस संग्रह की भूमिका कवि प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने लिखी है।अपनी भूमिका में प्रोफेसर त्रिपाठी ने उनसे बेहतर दुनिया के लिए और भी महत्वपूर्ण लिखते ‌रहने की उम्मीद की है।
        रचनाकार का अपना एक खुशहाल परिवार था जिसमें उनकी मां और वे दो‌ बहनें थीं ।काल के क्रूर हाथों ने दो साल पूर्व तेरह दिन के अंदर उनकी मां और बड़ी बहिन दोनों को उनसे छीन लिया।इस प्रकार कोई भी निकटस्थ रक्त संबंधी के अभाव में वे निपट अकेली रह गई।इस अप्रत्याशित एकांत की पीड़ा उनके मन में इतनी घर कर गई कि उससे उबरने में उन्हें महीनों लगे। उन्होंने परिवार की तुलना उस छायादार पेड़ से की है जिसके सभी पत्ते झड़ गये हैं और उसकी छाया से सभी लाभार्थी वंचित हो गये हैं।गौर करें इन पंक्तियों पर-
   "पथरा रही हैं आंखें मोची की
    सूख चली हैं नसें पत्ते की
    दोनों टूटकर भी 
    नहीं टूटे हैं
    पर क्यों?
   वे भी नहीं जानते उत्तर
   सिवा बचे रह जाने की पीड़ा के।"
   ( कविता' बचे रह जाना ' से)

हर कवि प्रेम करता है मानवीय मूल्यों से, प्रकृति से और हर हसीं चीज से ।हर कविता प्रेम कविता ही तो है जो वैयक्तिक अनुभूतियों का व्यापकीकरण कर सर्वजन हिताय लिखी जाती है। कवि के किसी अक्षर,पद या मात्रा में नफ़रत या द्वेष का कोई स्थान नहीं होता। कवयित्री ने प्रेम को एक सड़क के किनारे-किनारे चल रहे दो प्रेमियों के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है-
 "चाहती हूं तुम्हारी यात्रा
  हर दफा सड़क की लम्बाई को
  जरा और बढ़ाती जाए
  और हम अपनी धुरी में घूमते हुए
   एक दूसरे के अस्तित्व को महसूस कर
   होते रहें ऊर्जावान
   अपने अलौकिक अहसास के साथ
   बहुत छोटा है प्रेम शब्द
   जिसके आगे।"

हमारी संस्कृति में आशीषों में लम्बी उम्र की दुआ की जाती है।यह जानते हुए भी कि परलोकवासी होने पर सब लौकिक इसी लोक में छूट जाता है तमाम लौकिक सुख-समृद्धि से सम्पन्न होने की कामना की जाती है। किसी त्रासदी के बाद बचे हुए लोग लम्बी उम्र के बारे में सोचकर भी सिहर उठते हैं।यह भयभीत हो जाना बड़े ही मार्मिक ढंग  से प्रस्तुत किया गया है एक कविता के इस अंश में-
    "अब कहो
     लहुलुहान आत्मा के साथ
     क्या करूंगी
     लम्बी उम्र का
     अपनी लाचारी के बीच
     यूं भी चुभती है तन्हाई
     हीरोशिमा विध्वंस के बाद के
     सन्नाटे-सी ।"

सभ्यता के विकास में स्त्री की भूमिका सदैव बराबर की रही है मगर इक्कीसवीं सदी में भी उसको समुचित स्थान नहीं मिल पाया है।विमर्श में स्त्री को शामिल तो किया जाता है मगर उसकी दशा में लगातार सुधार की आवश्यकता है। भारतीय सन्दर्भों में समाजवाद के प्रतिपादक डॉ राम मनोहर लोहिया के नर-नारी समता के सूत्र से सहमत शरद जी स्त्री के अस्तित्व व सम्मान के प्रति लगातार चिंतित रहती हैं अपने रचना कर्म में।उनकी चिंता स्पष्ट देखी जा सकती है उन्हीं की कविता के इस अंश में-
   "कवि की कविता में मौजूद
    स्त्रियों-सी
    क्या पत्नी भी एक स्त्री नहीं होती ?"

पिछले वर्षों कोरोना काल बहुत विकराल रहा जिसमें लाखों लोग असमय काल-कवलित हो गये। शुरूआत में संक्रमण जनित इस बीमारी का न तो कोई इलाज था और न ही कोई टीका-वेक्सीन। संक्रमितों को अस्पताल में दाखिल कर सिर्फ उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के प्रयास ही चिकित्सकों के हाथों में थे।सौ साल पहिले फैली एक महामारी की तरह ही इस बीमारी ने भी बहुत कहर बरपाया। परिजनों के वश में पीड़ित के उत्तम स्वास्थ्य लाभ हेतु प्रार्थनाओं के अलावा कुछ न था। ऐसी अनगिनत प्रार्थनाओं के बावजूद अनेकों कोरोना प्रभावितों के देहांत से लोग बहुत आहत हुए।उनका प्रार्थनाओं और पूजा-पाठ से विश्वास डिग गया।ईश्वर की सत्ता से उनका मोहभंग हो गया।सत्ता से मोहभंग का समय रहा है कोरोना-काल।मैंने भी इस बीमारी से हुई क्षति से दुखी होकर "तुम तो निष्ठुर हो नारायण "शीर्षक कविता लिखी थी।शरद सिंह जी ने ईश्वरीय अस्तित्व के प्रति अपने असंतोष का प्रकटीकरण अपनी" तीन‌ पर्तों में देवता" कविता के माध्यम से कुछ इस प्रकार किया है-
     "आस्था की टूटी                                                              
      किरचों से
      लहुलुहान मन 
      अब नहीं बनेगा 
      याचक
      जो स्वयं भी 
      कैद हो गया था 
      मन्दिरों में
      मोटे-मोटे कपाटों के भीतर
      अब नहीं देखना है मुझे
      उसकी ओर
      हां, मैंने लपेट दिया है
      तीन पर्त्तों में
      देवता को भी।"

कल,आज और कल में समुचित समन्वय बनाकर सफर तय करना अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में बहुत सहायक होता है ।अतीत की सुखद स्मृतियां जहां किताबों में रखे सूखे फूलों की भांति सुकून देती हैं वहीं दुखद स्मृतियां हृदय में शूल की तरह चुभ और आपकर पीड़ा पहुंचाती हैं। कवयित्री अपने भाव कविता "सूखे हुए फूल के साथ" के माध्यम से कुछ इस प्रकार  प्रकट करती है-
   "कितना  मुश्किल है 
    अतीत से बचाना
    वर्तमान को
    और तय करना 
    भविष्य की यात्रा
    किसी सूखे हुए फूल के साथ।"
"कलम की नोंक पर ठहरी कविता " के माध्यम से उन्होंने कविता के समस्त गुण धर्मों की सुंदर व्याख्या की है।अवलोकन करें इस कविता के साथ तत्व को इन पंक्तियों के माध्यम से-
    "यह कविता जाति,धर्म,रंग से परे
     संवाद है 
     मनुष्य से मनुष्य का
     यह कविता दिखा सकती है 
     व्यवस्था की खामियां
     शासन-प्रशासन की लापरवाहियां।"

युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं वरन अपने आप में बहुत सी समस्याओं का जनक होता है।युद्ध की विभीषिका को बड़े सरल शब्दों में व्याख्यायित किया है कवयित्री ने अपनी एक कविता के माध्यम से।' टोहता है गिद्ध 'शीर्षक कविता में वे कहती हैं-
   "युद्ध एक आकांक्षा है
     कपट राजनीतिज्ञों के लिए
     युद्ध एक उन्माद है
     शक्ति सम्पन्नता के लिए।'

षटरस व्यंजनों से भरपूर भोजन की थाली की तरह है सुश्री शरद सिंह जी  का यह काव्य संकलन जिसमेें कुछ भी छोड़े जाने की गुंजाइश नहीं है।इस संकलन की हर कविता महत्वपूर्ण और पठनीय है। सुश्री शरद सिंह एक पूर्णकालिक रचनाकार हैं । साहित्य-जगत को उनसे अपेक्षाएं हरदम बनी रहेंगी ।वे इसी प्रकार नये-नये काव्य संकलन पाठकों को देती रहें।उन पर सिर्फ अपने सपनों को मूर्तरूप करने की जबाबदारी नहीं है वरन‌ अपनी कवि अग्रजा डॉ वर्षा सिंह के अधूरे सपने भी पूरे करना है।अशेष शुभकामनाएं।
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आचरण, 23.06.2023
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Thursday, June 22, 2023

बतकाव बिन्ना की | एक दिना नईं, रोजीना किया करे | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"एक दिना नईं, रोजीना किया करे" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
एक दिना नईं, रोजीना किया करे          
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
  ‘‘भैयाजी, का हो गओ? जे कम्मर पे हाथ धरे काय कूल्ह रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
भओ का के, मैं जो भैयाजी के इते पहुंचीं, सो भौजी ने दरवाजा खोलो। इत्ते में उनके पांछू भैयाजी दिखाने। बे अपने कम्मर पे हाथ धरे सरकत-सरकत से चले आ रए हते।
‘‘काय, अब तुम सोई इते लों चले आए? बिन्ना खों हम उतई तुमाए कमरा मे लिवाए लाते, तुम काए पलकां से उठे। फेर के दरद होन लगे सो समझ मे आ जेहे।’’ भौजी ने भैयाजी खों फटकारो।
‘‘हऔ, भौजी सई कै रईं, आपको उठो नईं चाइए, बाकी हो का गओ आपको? काए भौजी, जे भैयाजी खों का हो गओ?’’ मैंने भैयाजी और भौजी दोई से पूछी।
‘‘अब इन्हईं से पूछो! गए हते नेता हरों के आंगू-पीछूं घूमबे के लाने।’’ भौजी बोलीं। फेर भैयाजी से कैन लगीं,‘‘हो गई चिनारी? लग गई ठंडक? अब परे रओ पलकां पे, हमई तुमाई कम्मर सेंकबी। बे नई आ रए कोनऊं, तुमाए चिनारी वारे!’’
‘‘अरे हऔ, हम समझ गए तुमाई बात, धना! काल संझा से हमाएं हड़काएं फिर रईं। दूबरे औ दो असाढ़। एक तो हमाई ऊंसई कम्मर पिरा रई औ ऊपे तुम हो के हमें सहूरी बंधाबे की जांगा लुघरिया छुबाए फिर रईं।’’ भैयाजी कूल्हत भए भौजी से बोले।
‘‘हऔ! हमने अबे लुघरिया छुबाई कां? जोन दिनां छुआबी, सो समझ में आ जेहे।’’ भौजी भैयाजी पे तिनक के बोलीं। फेर मोसे कैन लगीं,‘‘अब बिन्ना तुमई इनके लाने समझाओ के जोस में होस नईं गंवाओ जात! खींसा में नईयां धेला, औ बऊ चलीं मेला! तुम इने समझाओ जो लों हम इनके लाने हल्दी वारो दूध उबाल लाएं। औ संगे अपन ओरों के लाने चाय बना लेंवे। इनकी कूल्हा-काखी के मारे हम सो अब लों चाय नई पी पाए। अब तुम इनके लिंगे बैठो, जो लो हम दूध, चाय ले आएं।’’
भौजी रसोई मंे चली गईं सो मैंने भैयाजी से पूछी,‘‘जे का हो गओ? औ कैसे हो गओ? काल संकारे सो आप ठीक हते। जल्दी में कहूं जा रए हते।’’ मैंने भैया खों याद करात भए, उनकी पीरा पूछी।
‘‘अब का कओ जाए बिन्ना! काल संकारे जब तुमने हमें जात भए देखो रओ, तक लों सब ठीक हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर बाद में का हो गओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बादई में सो सब कछू भओ। हाय!’’ भैयाजी बोलत भए कराह उठे।
‘‘अच्छे से बैठ लेओ आप औ फेर पूरी बात बताओ मोए, के कल का भओ?’’ मैंने कई।
‘‘तुम गई रईं कहूं योगा करबे के लाने। कल विश्व योग दिवस रओ।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नईं! मैं कहूं नईं गई। काय से आप सो जानत आओ के मोय वायरल हो गओ रओ सो, अबे लौं कमजोरी गई नईंयां। सो मोरी हिम्मत ने परी।’’ मैंने भैयाजी खों बताई। फेर मैंने भैयाजी से पूछी,‘‘ सो कल आप योग करबे के लाने जा रए हते का?’’
‘‘हऔ! उते सबरे नेता हरों खों आने रओ, सो हमने सोची के उनके संगे योगा करबे पौंचबे से उन ओरन से मिलबो सोई हो जेहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर?’’ मैंने पूछी।
‘‘फेर का? उते तो मुतके लुगवा-लुगाई हते। अच्छो इंतजाम करो गओ रओ। अच्छी फट्टी बिछाई गई रई। लेन से सब ओंरो खों ठाड़ो कराओ जा रओ हतो। हम सोई उन ओरन के बीच में जा के ठंस गए। ऐसी जांगा हमने चुनी के जां पे नेता हरन की नजर हम पे पर जाए। उते बड़े सयाने से, बड़े अच्छे से योगाचार्य हते। जब सब ओरें जुड़ गए, मनो वीआईपी हरें आ गए सो योगा श्ुारू कराओ गओ। बे योगाचार्य जी आसनों को नांव सोई बतात जा रए हते। बाकी हमें सो कछू पल्ले पड़ नई रओ हतो। हम तो उने देखत जा रए हते औ करत जा रए हते। बे अपनी जान में सरल वारे आसन करा रए हते। मनो हमाए लाने सो सबई कठिन हते। उन्ने एक आसन कराओ जीमें धनुष घंाईं कमर से मुड़ने हतो। उन्ने कई बी, के जोन से ने बने, बा न करे। मगर हमें सो चढ़ो रओ जोस। सो हमने सोई धनुष घांईं कमर मोड़ी औ तुमाई कसम बिन्ना! हम तो घबड़ा गए। काए से के हमाई कम्मर सो ऊंसई के ऊंसई रै गई। हम धनुषई बन के रै गए। हमसे सीधे होत नहीं बन रओ हतो। हमें लगो के अब तो गई हमाई कम्मर! औ अब निकरे हमाए प्रान!’’ भैयाजी जे बतात बतात कंपा से गए। मनो उने फुरूरी हो आई।
‘‘फेर का भओ? आपकी कम्मर कैसे सीधी भई? का बा खुदई सीधी हो गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘काए को खुद से सीधी होती? बा तो धनुष घांई मुड़ी, सो मुड़ई के रै गई। फेर योगाचार्य खुदई मंच से उतर के हमाए लिंगे आए औ बे नेता हरें सोई उनके संगे चले आए। सबने मिलके हमें सीधे करो। तब कऊं जा के हमाई कम्मर सीधी भई। मनो तभई से ऐसो दरद उठो के तुमें का बताएं। बाकी ऊ टेम पे सो हमें दरद कम और शरम ज्यादा आ रई हती। काए से के जोन नेता हरों की नजर में आने के लाने हम उते गए रए, बेई ओरें हमाई ओर देख देख के मुस्क्या रए हते। हमाई तो पूरी बेइज्जती खराब हो गई।’’ भैयाजी को गलो भर आओ।
‘‘अरे, आप ई सब दिल पे ने लेओ! जे सब सो चलत रैत आए। आप तनक सोचो के आप जोन काम के लाने गए हते, बा तो चकाचक हो गओ।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘मनें?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मने जे के आप उन ओरन से ऊंसई मिलते, दुआ-सलाम होती औ बे अपने रस्ते, आप अपने रस्ते। को कोऊ खों याद रखतो का? बाकी अब जे घटना के मारे आपको बे ओरें कभऊं ने भूलहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘अरे जे ने कओ बिन्ना, जे नेता हरों की याददाश्त बड़ी कच्ची रैत आए। उने कोन याद रैने?’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो आप उनके लाने याद दिला सकत हो के हम बोई आएं, जोन की कम्मर विश्व योग दिवस पे धनुष बन गई रई और आपने धनुष भंग कर के हमें सीधो करो रओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘तुम दिल से कै रईं के हमाओ मजाक बना रईं?’’ भैयाजी ने मोपे शक करत भए पूछी।
‘‘हम काए के लाने आपको मजाक बनाहें? ऐसई सो याद कराओ जात आए। कोनऊं कोऊ से रेलगाड़ी में मिलत आए सो बाद में जेई कैत आए के आपसे हम रेल में मिले हते। कोऊ हवाई जहाज में मिलत आए सो बो कैत आए हमाई आपसे हवाई जहाज में भेंट भई रई। ऐसई आप याद कराइयो के हमाई आपसे विश्व योग दिवस पे भेंट भई रई, जब हम धनुष बन गए रए। अब कोनऊं रोजीन तो धनुष बनत नईयां, सो उनको तुरतईं याद आ जेहे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, कै तो तुम ठीक रईं! तुमाई बात सुन के मनो हमाई कम्मर को दरद सोई कम सो लगन लगो।’’ भैयाजी कछु सोचत भए बोले।
‘‘ऐसो का? अबे लौं मैंने सुनी रई के कोनऊं-कोनऊं को दिमाग घुंटना में रैत आए, बाकी आपको तो कम्मर में कहानो।’’ कैत-कैत मोय हंसी आ गई।
‘‘माने तुम हमाओ मजाक बना रईं?’’ भैयाजी फेर के दुखी होत भए बोले।
‘‘अरे नईं! मैं सो आपकी कम्मर की तारीफ आ कर रई। बाकी एक बात जरूर मोय आपसे कैने,  के जे योग वगैरा रोजीना किया करे, जो जे एक दिना दिवस देख के करहो, सो ऐसई हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाईश देई दई।
‘‘जेई सो हम तुमाए भैया जी खों ऊ बेरा से समझा रए हते जोन बेरा इन्ने हमें बताओ रओ के जे योग करबे के लाने जेहें। अरे, लुटिया सो पकरबे आई नईं, औ चले कुंइयां से पानी भरबे।’’ भौजी बोलीं। फेर उन्ने भैयाजी खों हल्दी वारो दूध को मग्गा पकराओ औ मोय चाय को मग्गा। तीनों जने चाय-दूध सुड़कन लगे।
आप ओरें सोई रोजीना योग किया करे। ईसे सेहत अच्छी रैहे। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह #बुंदेली #बुंदेलखंड #बतकाव #BatkavBinnaKi #Bundeli #DrMissSharadSingh #Batkav #Bundelkhand #बुंदेलीव्यंग्य

Wednesday, June 21, 2023

Happy World Yoga Day - Dr (Ms) Sharad Singh

Happy World Yoga Day - Dr (Ms) Sharad Singh
Health is Wealth !
Do Yoga Stay Fit 👍
विश्व योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🧘
#happyworldyogaday 
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#डॉसुश्रीशरदसिंह
#विश्वयोगदिवस

चर्चा प्लस | योग, स्वास्थ्य और स्लम बस्तियां | विश्व योग दिवस | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
योग, स्वास्थ्य और स्लम बस्तियां
(विश्व योग दिवस पर विशेष)
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         संयुक्त राष्ट्र महासभा में ‘‘विश्व योग दिवस’’ घोषित करा कर प्रधानमंत्री ने विश्वस्तर पर योग को स्थापना दिलाई। ताकि दुनिया के हर व्यक्ति तक योग पहुंच सके। अफ़सोस कि हमारे देश में ही स्लम बस्तियों तक  योग की हज़ारों साल पुरानी पद्धति आज तक नहीं पहुंच सकी है। यूं भी, श्रेष्ठ मार्गदर्शक के बिना योगासनों को करना जोखि़म भरा होता है। इसीलिए हर व्यक्ति उससे नहीं जुड़ सका, और न जुड़ सकता है। उच्चवर्ग से मध्यमवर्ग तक तो योग पहुंच गया है किन्तु बीपीएल कार्डधारी एक बड़ा वर्ग आज भी योग और उसके लाभों से बहुत दूर है। इस दूरी को मिटाने की दिशा में राज्य सरकारों को विचार करना चाहिए। मुफ़्त सामान, रुपया आदि देने के साथ मुफ़्त में योग रूपी स्वस्थ जीवनशैली भी उपलब्ध कराएं, तो इससे उनका अधिक हित होगा।
21 जून 2023, योग दिवस। निःसंदेह भारतीय योग शास्त्र का लोहा समूचा विश्व मानता है। वर्तमान में विश्व के अनेक देशों में योग संस्थाएं मौजूद हैं। लोग समझ चुके हैं कि योग, दवाओं पर निर्भरता को कम करता है और एक स्वस्थ जीवन देता है। वस्तुतः योग अपने आप में एक स्वस्थ जीवन शैली है और एक स्वस्थ जीवन शैली को जीने वाला व्यक्ति बीमार कैसे पड़ सकता है? यदि वातावरण भी प्रदूषित न हो कर शुद्ध रहता तो योग के बल पर बीमारियों हम स्वयं से कोसों दूर रख सकते थे। किन्तु विश्व योग दिवस पर मुझे अपना वह प्रश्न और प्रस्ताव याद आ रहा है जो मैंने मई 2016 में उज्जैन के सिंहस्थ महाकुंभ के दौरान उज्जैन के पास ही निनौरा नामक स्थान में हुए अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ के योग सत्र में योगाचार्यों के सम्मुख रखा था। उस सत्र में परमानंद इंस्ट्यूट आॅफ योगा साईंस, इंडिया के योगाचार्यों के साथ ही तिब्बतीमूल के एक योगगुरु (अफ़सोस कि मुझे अब उनका नाम याद नहीं है) भी आए थे।
 
सत्र में चर्चा चल रही थी कि समाज के प्रत्येक स्तर तक योग की पहुंच कैसे बनाई जाए? एक योगाचार्य ने बताया कि उनके पास उच्चवर्ग एवं मध्यवर्ग के ऐसे लोग भी आए जिन्हें शराब, भांग, अफीम आदि की लत थी। वे भी योग के विभिन्न आसनों एवं ध्यान साधना के द्वारा नशे की लत से मुक्त हो गए। अतः योग समाज में अच्छे संस्कार एवं व्यवहार को बढ़ाने में मदद कर सकता है। उन सभी योगाचार्यों की बातें सुनने के बाद मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उनसे प्रश्न किया कि आप लोगों ने योग और जनजीवन के पारस्परिक संबंध की जितनी भी जानकारियां यहां दीं, उसमें झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले मजदूर वर्ग की चर्चा तो आई ही नहीं। जबकि सबसे अधिक नशा करने वाले स्लम बस्तियों में मिलते हैं, सबसे अधिक बीमारियों का प्रकोप स्लम बस्तियों पर होता है और स्लम बस्तियों के रहवासी भी गहरे मानसिक तनाव से गुज़रते हैं। फिर मैंने प्रस्ताव रखा कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के लिए भी दैनिक नहीं तो कम से कम साप्ताहिक योग प्रशिक्षण का कोई अभियान चलाया जा सकता है। इस पर एक योगाचार्य ने बताया कि उनके शिष्यों द्वारा मुंबई में यह प्रयास किया गया किन्तु बहुत अधिक प्रभावी नहीं रहा। उन लोगों को राजी करना कठिन होता है। वे सोचते हैं कि इसमें पैसे तो मिलने नहीं है तो हम अपना समय क्यों खराब करें?

उन योगाचार्य की बात में दम थी। जिसके पास पैसों की तंगी हो वह हर अवसर में पैसे पाने की ही चाह रखेगा। यह स्वाभाविक है। लेकिन यदि हम उन्हें सही ढंग से यह समझा सकें कि यदि वे योग और ध्यान को अपनाते हैं तो कम बीमार पड़ेगे और अधिक काम कर के अधिक पैसे कमा सकेंगे, तो शायद वे एक बार योग की दुनिया में कदम रख कर देखेंगे। आखिर स्लम बस्तियों में स्कूल चलाना और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के बच्चों को पढ़ाना भी किसी चुनौती से कम नहीं रहा है। लेकिन समाजसेवी शिक्षकों ने हार नहीं मानी। हर स्थिति में टिके रहे। यहां तक कि प्रौढ़ शिक्षा की कक्षाएं भी कई इलाकों में सफलतापूर्वक चलाई गईं और प्रौढ़ों को शिक्षित किया गया। तो फिर योग का रास्ता स्लम बस्तियों की ओर क्यों नहीं मुड़ सकता है? प्रश्न उठाया था मैंने 2016 में लेकिन 2023 में भी वह अनुत्तरित है।      

वैश्विक स्तर पर योग को लोकप्रिय बनाने की दिशा में उस समय एक बड़ा कदम माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उठाया गया जब उन्होंने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में कहा था कि -‘‘योग दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है। मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है। विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला है तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवनशैली में यह चेतना बनकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है।’’

प्रधानमंत्री ने अपील की कि योग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान दिया जाए। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अपील के बाद 27 सितंबर 2014 को ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को अमेरिका द्वारा मंजूरी दी गई। 21 जून को ‘‘अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस’’ घोषित किए जाने के बाद 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र के 177 सदस्यों द्वारा 21 जून को ‘‘ अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’’ को मनाने के प्रस्ताव को अंतिम मंजूरी मिली। जिसके बाद सर्वप्रथम इसे 21 जून 2015 को पूरे विश्व में ‘‘विश्व योग दिवस’’ के नाम से मनाया गया। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अन्दर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय है।

इसके पूर्व ‘‘योग: विश्व शान्ति के लिए एक विज्ञान’’ नामक सम्मेलन 4 से 5 दिसम्बर 2011 के बीच आयोजित किया गया था। यह संयुक्त रूप से लिस्बन, पुर्तगाल के योग संघ, आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन और एस.वी.वाई.ए.एस, योग विश्वविद्यालय, बेंगलुरु के द्वारा आयोजित किया गया। उस सम्मेलन में सदस्य के रूप में उपस्थित थे- श्री श्रीरवि शंकर, संस्थापक, आर्ट ऑफ लिविंग, आदि गिरि मठ के श्री स्वामी बाल गंगाधरनाथ, स्वामी परमात्मानंद, हिन्दू धर्म आचार्य सभा के महासचिव बीकेएस अयंगर, राममणि आयंगर मेमोरियल योग संस्थान, पुणेय स्वामी रामदेव, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार, डॉ. नागेन्द्र, विवेकानन्द योग विश्वविद्यालय, बंगलुरू, जगत गुरु अमृत सूर्यानन्द महाराज, पुर्तगाली योग परिसंघ के अध्यक्षय अवधूत गुरु दिलीपजी महाराज, विश्व योग समुदाय, सुबोध तिवारी, कैवल्यधाम योग संस्थान के अध्यक्षय  डॉ.   डी.आर कार्तिकेयन, कानून-मानव जिम्मेदारियों व कारपोरेट मामलों के सलाहकार और डॉ॰ रमेश बिजलानी, श्री अरबिन्दो आश्रम, नई दिल्ली।

ऐसा माना जाता है कि जब से सभ्यता शुरू हुई है तभी से योग किया जा रहा है। योग के विज्ञान की उत्पत्ति हजारों साल पहले हुई थी, पहले धर्मों या आस्था के जन्म लेने से काफी पहले हुई थी। योग विद्या में शिव को पहले योगी या आदि योगी तथा पहले गुरु या आदि गुरु के रूप में माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि कई हजार वर्ष पहले, हिमालय में आदि योगी ने अपने प्रबुद्ध ज्ञान को अपने प्रसिद्ध सप्तऋषि को प्रदान किया था।  सप्तऋषियों ने योग के इस विज्ञान को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका सहित विश्व के भिन्न - भिन्न भागों में पहुंचाया। सूर्य नमस्कारपूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में एवं इसके बाद पतंजलि काल तक योग किए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। वेदों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों, बौद्ध ग्रंथों, जैन ग्रंथों एवं महाकाव्यों में योग की वृहद चर्चा है।

योग मनुष्य के जीवन में काफी महत्वपूर्ण होता है। योग मनुष्य को स्वस्थ बनाए रखने का कार्य करता है। जो लोग योग करते है, वें मानसिक व शारीरिक दोनों रूप से स्वस्थ रहते है। योग से मन को शांति मिलती है। वर्तमान समय में जिस स्तर से रोग बढ़ रहे है, उसमें योग और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। योग करने से व्यक्ति इन सभी बीमारियों से आसानी से लड़ सकता है। योग करने से कईं बीमारियाँ, जैसे- हृदय रोग, रक्तचाप की समस्या, अर्थराईटिस आदि से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। योग करने से मोटापा भी नहीं आता है और शरीर जल्दी से थकता भी नहीं है। भारत में हजारों वर्षों से योग किया जाता रहा है। यह एक प्रकार का व्यायाम है जिसमे कई प्रकार के आसन शामिल है। योग हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाता है तथा हमे शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रखता है एवं शरीर के अंगो को लाभ पहुचता है। पुराने समय से योग को एक स्वस्थ जीवनशैली के लिए उपयोग किया जाता आ रहा है। हर किसी को योग करना चाहिए यह हमारी मानसिक क्षमता को भी बढ़ाता है। नियमित योग करने से अनेक लाभ मिलते है। यह हमारे मस्तिष्क को मजबूत करता है और हमारे शरीर की मांसपेशियों के लिए भी लाभकारी है। अब तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि प्रतिदिन योग करने से हमे कई लाभ मिलते हैं।
 
योग को किसी धर्म, जाति या समुदाय विशेष से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक स्वस्थ जीवन जीने की शैली है। यूं भी प्रत्येक धर्म के संतों एवं महापुरुषों ने किसी न किसी रूप में योग को अपनी जीवनचर्या बनाया था। तप, ध्यान, साधना आदि योग के ही तो अंग हैं। योग के मार्ग पर चल कर ही उन्होंने अपने जीवन को अपनी इच्छानुसार दिशा दी अतः हमें भी योग को अपनाना चाहिए, बल्कि अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनाना चाहिए।

लेकिन मैं योग पर इस चर्चा को उसी बिन्दु पर ला कर रोकना चाहूंगी जिस बिन्दु पर इस चर्चा में स्लम बस्तियों के लिए योग का अभियान प्लस हो सके। जो गरीब योग संस्थानों तक चल कर नहीं जा सकते हैं क्या योग केन्द्र उनकी बस्तियों तक नहीं पहुंच सकते हैं? योग जनहित भी तो सिखाता है। अन्यथा यदि स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में विचार करें, तो कई बार लगता है कि उच्चस्तरीय और अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवाएं सिर्फ़ पैसे और कुर्सी वालों के लिए ही होती है, गरीब तबका आज भी सरकारी स्वास्थ्य कार्ड बनवा कर अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं हासिल नहीं कर पाता है। किसी मंत्री अथवा उच्चाधिकारी को छींक भी पड़ती है तो एक इशारे पर एम्बुलेंस उसके बंगले के दरवाज़े पर खड़ी दिखाई देती है, वहीं एक गरीब व्यक्ति को अपने बेटे का शव भी थैले में रख कर घर तक ले जाना पड़ता है। हम बोलें या न बोलें पर, सरकारी और गैरसरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के सच से हम सभी परिचित हैं। अतः कम से कम योग को जन-जन तक पहुंचना चाहिए। मंहगी दवाएं खरीदने की हैसियत न रखने वालों को योग की निःशुल्क सेवाएं मिलनी ही चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य पाना एक नागरिक की हैसियत से उनका भी तो अधिकार है। नीमहकीमों के हाथों खिलवाड़ बनने से वे बचेंगे। बाबा रामदेव के बारे में हम कितनी भी विपरीत सोच रखें, लेकिन यह तो मानना ही पड़ता है कि उन्होंने आयुर्वेदिक औषधियों को हर परिवार के बजट के अनुकूल बनाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। योग को भी उन्होंने लोकप्रिय बनाया। प्रधानमंत्री ने  विश्वस्तर को योग को स्थापना दिलाई। किन्तु श्रेष्ठ मार्गदर्शक के बिना योगासनों को करना जोखिम भरा होता है। इसीलिए हर व्यक्ति उससे नहीं जुड़ सका ओर न जुड़ सकता है। उच्चवर्ग से मध्यमवर्ग तक तो योग पहुंच गया है किन्तु बीपीएल कार्डधारी एक बड़ा वर्ग आज भी योग और उसके लाभों से बहुत दूर है। इस दूरी को मिटाने की दिशा में राज्य सरकारों को विचार करना चाहिए। मुफ्त सामान, रुपया आदि देने के साथ मुफ्त में स्वस्थ जीवनशैली भी उपलब्ध कराएं तो उनका अधिक हित होगा।  
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Tuesday, June 20, 2023

पुस्तक समीक्षा | मन के वातायन से मुखर होते मधुर गीत | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 20.06.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  कवि डॉ.श्याम मनोहर सीरोठिया के काव्य संग्रह "मन के वातायन" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
मन के वातायन से मुखर होते मधुर गीत
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - मन के वातायन
कवि       - डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक    - नवदीप प्रकाशन, 821-बी, गुरु रामदासनगर एक्सटेंशन, गुरुद्वारा रोड, लक्ष्मी नगर, दिल्ली-110092
मूल्य       - 400/-
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शब्दों में वह शक्ति होती है कि यदि मुखर हों तो पल भर में सारी मनोदशा व्यक्त कर सकते हैं। यही शब्द जब किसी विशेष काव्य शिल्प में निबद्ध हो जाते हैं तो वे अर्थ के साथ-साथ भावार्थ भी रचने लगते हैं। गीत काव्य साहित्य की अनन्य विधा है। यूं तो काव्य की हर विधा में प्रत्येक शब्द ईटों के समान परस्पर जुड़ कर एक सुंदर भावनात्मक इमारत की रचना करते हैं किन्तु गीत विधा में शब्दों के स्वरूप और जुड़ाव का विशेष महत्व होता है। इसे समझने के लिए यह स्मरण रखना आवश्यक है कि गीत की पहली शर्त है गेयता। यह गेयता तभी सध सकती हेै जब शब्दों का सही चयन हो और संप्रेषण की उत्तम क्षमता गीतकार में हो।
‘‘मन के वातायन’’ गीतकार डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया का नवीनतम गीत संग्रह है। डाॅ. सीरोठिया जिस प्रकार गीत विधा से तादात्म्य स्थापित कर चुके हैं, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने गीत विधा को साध लिया है। उनके अब तक कई गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पेशे से चिकित्सक रहे डाॅ. सीरोठिया जब चिकित्सकीय कार्य में संलग्न थे, उन दिनों भी वे गीत के कोमल पदों की सुंदर रचना किया करते थे। अब सेवानिवृत्ति के उपरांत और अधिक सक्रियता से गीत सृजन में आकंठ आप्लवित रहते हैं। ‘‘मन के वातायन’’ से गीतों का मुखर होना अपने-आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान शुष्क होते समय में संवेदनाएं मर रही हैं और भावनाएं सूखती जा रही हैं। जीवन आंकड़ों और डिजिटल बाइनरी में उलझ कर रह गया है। ऐसे कठोर समय में कोमलता से कोमलता का आह्वान करना मन के वातायनों को खोलने के सामन ही है। वातायन अर्थात् झरोखा, छोटी खिड़की या गवाक्ष। किन्तु जब बात गीत की हो तो वातायन का अर्थ इस शाब्दिकता से कहीं आगे घनीभूत रूप में प्रकट होता है। डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया अपने गीतों में अपने मन के गलियारों से गुज़रते हुए दूसरे के मन के कोने-कोने तक दस्तक देते हैं। वे अपने शब्दों से गीत का एक ऐसा स्वप्न बुनते हैं जो बहुत मधुर और रेशमी है। उनके इस संग्रह का पहला गीत ही मेरी इस बात को प्रमाणित करने में सक्षम है। इस प्रथम गीत ‘‘प्रणय कथाओं की पीड़ाएं’’ की कुछ पंक्तियां देखिए-
गाता रहा उमर भर यह मन,
मूक हृदय के संवेदन को,
प्रणय कथाओं की पीड़ाएँ ।
शब्द नहीं देते भाषाएँ ।।
मन के द्वारे तक आकर फिर,
मैंने सांसों के वृंदावन,
लौट गए मादकता के क्षण ।
का गाया मुरझाया मधुवन ।
अंतर की केसर-क्यारी पर,
संयम की पाषाण शिलाएं।।
पलकों के भीतर सावन में,
इन्द्रधनुष सुधियों के सपने।
रहे भीड़ में हम रिश्तों की,
मिले नहीं मन को पर अपने।
नेह सुधा के लिए तरसती,
रही प्रीति की अभिलाषाएं।।

आत्मकथ्य में डाॅ. सीरोठिया अपने इस संग्रह के गीतों के बारे में लिखते हैं कि -‘‘प्रेम का विश्वास, प्रेम का धैर्य एवं प्रेम का बल असीम होता है, मुझे मेरे गीतों से विश्वास, धैर्य एवं बल मिलता रहा है, क्योंकि मेरे गीतों को सदा प्रेम ने संवारा है। मुझे गीत लिखने के लिए किसी शब्द की तलाश में भटकना नहीं पड़ा, जैसे भाव मन में उठते गए वैसे शब्द मेरी कलम पर आते गए और शिल्प तो जैसे शब्द के आगे-आगे चलता रहा। मेरे प्रेम गीत मेरी दुर्बलताओं पर विजय के जैसे हस्ताक्षर मूल्यवान हैं। ‘मन के वातायन’ के गीतों में मेरी संवेदनाएं गुनगुनाती हैं, मेरी प्यास को तृप्ति का पनघट मिलता है, मेरी मूक कामनाएं मुखर होतीं हैं।’’
निःसंदेह काव्य का सौंदर्य तभी अपने सुसज्जित रूप में सामने आता है जब सृजन सप्रयास नहीं, वरन स्वाभाविक, स्वप्रवाहित, स्वस्फूर्त हो। संग्रह ‘‘मन के वातायन’’ की भूमिका में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के हिन्दी विभाग के अस्टिस्टेंट प्रोफेसर डाॅ. आशुतोष मिश्र ने लिखा है कि -‘‘ जब प्रेम काव्य कला के शिल्प में अभिव्यक्त हो तब विद्रोह का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया जी के प्रेम गीतों की तासीर में उक्त स्थापना के रचनात्मक दस्तावेज होने की पूरी संभावना है।’’
इसी प्रकार पं. एस. एन. शुक्ला विश्वविद्यालय, शहडोल की हिन्दी विभागाध्यक्ष डाॅ. नीलमणि दुबे लिखती हैं कि -‘‘प्रेम में हार कोटिशः जीत से श्रेयस्कर है। श्री श्याम मनोहर सीरोठिया जी की कृति ‘मन के वातायन’ इसी महत्तर प्रेम का महत्तर आख्यान और सुष्ठु गीतों की महत्वपूर्ण कड़ी है।’’
कुल 55 गीतों के इस संग्रह में मूल स्वर प्रेम का है। इस संग्रह के गीतों की एक और विशेषता है, वह है इसकी भाषाई निष्ठता। डाॅ. सीरोठिया ने अनेक ऐसे शब्दों को अपने गीतों में पिरोया है जो आज सपाटबयानी के चलते शनैः शनैः हाशिए के हवाले हो चले हैं। बहुत कम कवि आज संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दों का प्रयोग करते हैं। जबकि गीत विधा में ऐसे ही शब्द चमत्कार उपन्न कर के गीत का सौंदर्य द्विगुणित कर देते हैं। इसी संग्रह में एक गीत है ‘‘तुम जीवन आशा दिगंत हो’’। इस गीत में ‘‘पादप’’, ‘‘सरसवंत’’,‘‘ललित चंद्र’’ जैसे शब्दों का जिस सुंदरता से प्रयोग किया गया है, वह रेखांकित करने योग्य है। इस गीत की कुछ पंक्तियां देखिए-
मैं पादप सूखा हतभागी,
पारिजात तुम सरसवंत हो ।
मैं धरणी का अति सूक्ष्म कण,
तुम व्यापक नभ हो, अनंत हो ।
ललित चंद्र तुम जिसे देखने,
रात-रात भर मैं जागा हूं।
तुम पावस का मेह, पवन-सा-
तुमको छूने मैं भागा हूं।
मेरे साथ सदा कुण्ठाएं,
तुम जीवन आशा दिगंत हो।
बरसाने की व्यथा कथा में,
वृंदावन का महारास तुम।
मैं मीरा का छंद वियोगी,
रसिक बिहारी का विलास तुम।
शकुंतला का व्यथित हृदय मैं,
तुम पुरुवंशी उर-वसंत हो।

संग्रह के कुछ गीतों में भाव और शब्दों के संतुलित प्रयोग और लयबद्ध रसात्मकता इतनी सुंदरता से आई है कि अनायास ‘कामायनी’ के श्रद्धा सर्ग की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं-‘‘नील परिधान बीच सुकुमार/ खुल रहा मृदुल अधखुला अंग/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/ मेघ बन बीच गुलाबी रंग।’’ इसी तरह का एक मनोरम गीत है संग्रह में-‘‘मौन मन की बात’’। इस गीत में मानो जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की संयुक्त गीतात्मकता कवि के मन के वातायन से झांक कर संवाद रचती है-
हो सके तो तुम कभी इस
मौन मन की बात समझो
चांद को जिसने लुभाया
चांदनी की रात समझो।
जो नयन में बस रहा है
एक सपने की तरह है
जानता भी है नहीं वह
कौन अपने की तरह है
प्यास लिखती है अधर पर
नेह की बरसात समझो।

इसमें कोई संदेह नहीं कि संग्रह के अधिकांश गीतों का रंग प्रेममय है किन्तु एक संवेदनशील गीतकार प्रेम से इतर भी दृष्टि डालना जानता है। यदि वतावरण सौम्य हो, जीवन की दशाएं सहज हों तभी प्रेम भी पुष्पित-पल्लवित हो पाता है, अन्यथा ‘‘प्रेम बेलि’’ को सूखने में समय नहीं लगता है। जीवन में व्याप्त अव्यवस्थाएं कवि के मन को छीलती हैं और वह व्याकुल हो कर जो प्रश्न करता है, ‘‘कदम-कदम पर अंधियारे’’ शीर्षक गीत में उसे देखा जा सकता है -
वातावरण बहुत शंकित है,
पता नहीं कब क्या हो जाए।
भटक गया है समय सारथी,
मंजिल हमें कौन पहुंचाए।
मंदिर की चौखट से लौटी,
मूक हृदय की सजल प्रार्थना।
कभी नहीं फल सकी हमारे-
सपनों की साकार साधना ।
रहा मंगलाचरण अधूरा,
अनुष्ठान कैसे सध पाए।

 डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया एक सिद्धहस्त गीतकार हैं, यह तथ्य एक बार फिर उनके इस गीत संग्रह ‘‘मन के वातायन’’ से साबित हो जाती है। संग्रह के सभी गीत मधुर, अलंकारिक, रसमय, प्रवाहपूर्ण एवं भाषिक सौंदर्य से परिपूर्ण हैं। बस, एक बात खटकती है कि संग्रह हार्डबाउंड में होने के कारण अधिक मूल्य का है। कुल 140 पृष्ठों के गीत संग्रह का मूल्य 400 रुपए गीत प्रेमियों की जेब पर भारी पड़ सकता है। यदि कवि इस संग्रह का पेपर बैक संस्करण भी प्रकाशित कराएं तो यह अधिक हाथों तक पहुंच सकेगा, क्योंकि इस संग्रह के गीत हर पाठक की रुचि के गीत हैं।  
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Sunday, June 18, 2023

Article | Climate Is Changing fast And We? | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
Climate Is Changing fast And We?
      -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
 
 *Change is the law of nature. Seasons change. The shape of the moon changes in every day. The sun goes from Uttarayan to Dakshinayan and from Dakshinayan to Uttarayan. The types of crops and vegetation change with each season. These changes are good, we like these changes because these changes are positive. But now we are seeing negative changes. There is a change in the cycle of the seasons. Many species of insects and birds that used to appear in abundance are now disappearing. Where it used to not rain, it has started raining. Where it used to rain, there is drought now. That is, we have brought the climate to a point where it is changing at a rapid rate and is bringing dangerous consequences before us. But, are we changing ourselves to slow climate change?*
A huge lake which once provided drinking water to the entire city has been lying dry for the last four years as it is being beautified. Earlier this lake was even bigger. Gradually the lake was reduced by cutting it into pieces, drying those pieces. As much as it was left, it also struggled sometimes with water hyacinth and sometimes with the dirty water of sewage. During this time a dam was built and the drinking water problem of the city was solved. Now that dying lake, which is the identity of the city, has become a means of entertainment. A double-decker boat was launched in it, fish were brought from outside and thrown in that lake. The public became happy. But this happiness did not last long. Soon that lake came under the grip of a big plan. Crores of rupees were spent in four years but the plan was not completed. The lake is dry even today. If there is water in it, it is also in the form of mud. Once again the rainy season will come but the lake will not be able to fill this time also. Now it needs a massive cleaning. It looks like a field. It has lost its depth. When it is cleaned and deepened, then only water will be able to fill it. Now it will never get its old form, but it is difficult to say when it will get its new form. This is a sad story of a city and its deep lake.

Yes, there is also an interesting story behind the formation of this lake. Long time ago when this city was facing water crisis, a Banjara group came to the city. He spent several seasons here. The name of the leader of that group was Lakha Banjara. When Lakha Banjara saw the scarcity of water in the city, he felt that something should be done for the city where his group had spent time. Thinking this, Lakha Banjara dug a pond along with the people of his group. Then made it deep and made it a lake as Jheel. But it did not rain enough to fill the lake. The problem remained the same. Then someone advised Lakh Banjara that if he sacrifices the lives of his son and daughter-in-law, this pond will be filled with water. Lakha hesitated hearing this but his son and daughter-in-law happily agreed. Finally Lakha Banjara sacrifices his son and daughter-in-law. Coincidentally the lake was filled to the brim with water. In this story, there is mention of superstition incident like 'Sacrifice' but it is true that the lake which was made by a Banjara by shedding his blood and sweat, that lake has spent four years of drought despite having all the modern resources. At the same time, when the climate change is having rapidly.
 
Today, when every drop of water is necessary to maintain moisture in the atmosphere, the big lake has remained dry for four years. That is, the pace of climate change is fast but the pace of recovery of the lake is slow, very slow. Unfortunately it is not a fiction, it is a true story.

There is another true story of this city that once upon a time there used to be big and years old shady trees. These trees used to provide shade to passers-by and gave oxygen and moisture to the atmosphere. The population increased, the city started expanding. The number of different types of vehicles increased in the city. The roads seemed narrow in comparison to the crowd of vehicles and people. The need was felt to widen the roads. This will improve the problem of traffic and the city will also look beautiful like a metropolis. Excellent plans were made for this and work was started on them. Years old shade trees were cut to widen the roads. Some trees were also shifted to other places. What is the condition of the shifted trees now? There is no follow up address for this. Well, after the sacrifice of the trees the roads were widened. The city started looking beautiful. All that was missing was the trees. That too in such a difficult time when the climate is changing rapidly and only a large number of trees can slow down this pace. I will not name any city in this true story because it can be applied to any city in our country and on our earth. 

Just think, whether the number of trees in the country's capital Delhi is more or that of roads and buildings? Which number is higher in New York, tall trees or skyscrapers? Settlements are being established by drying up the beaches. Now we cannot dry the entire ocean, but we are definitely polluting it by dumping plastic waste in it. At the same time, when the climate is changing rapidly and the harmful effects of this change are becoming visible. 

There are many ways to save water and increase greenery in our plans and our slogans. On special days, by taking out processions, lectures and debates and by taking oaths, talks are held to save the environment. Seeing the enthusiasm of the people on such special days, it seems that now everything will be fine, but on other normal days, that enthusiasm and awareness is not visible. As if we do not want to remember the serious problems of environment or climate for a long time. When scorching heat scorches us then we remember the reasons which are responsible for scorching heat. When it is bitterly cold, we curse the weather. We are shocked when the rivers are flooded or there is a huge fire in the forest, then when the flood and fire stop, we forget those incidents too. Have we lost our memory? No! We remember all the things of 'Ramayana', 'Mahabharata' 'Manusmriti' 'Bible', 'Quran' etc., which were written by centuries ago. We remember his every word and follow them with respect. That means our memory has not become weak. Yes, as far as following the things written in these scriptures is concerned, we do not follow everything mentioned in them. In these texts it has been said to protect all the living beings. All living beings i.e. trees, animals, humans etc. But we have destroyed the forests by cutting them down. We do not care for those animals which are of no use to us. We are also polluting the world of aquatics. That is, we remember the things of selfishness but do not remember the good things of nature and environment. At the same time, when the climate is changing rapidly and due to which the weather cycle has also started changing.

So it's time to think that the climate is changing fast and we?
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 (18.06.2023)
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Thursday, June 15, 2023

बतकाव बिन्ना की | परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया                          - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
  ‘‘भैयाजी, देखो तनक, कैसो पसीना चुचुवा रओ।’’ मैंने अपनों पसीना पोंछत संगे कई।
‘‘हऔ, जे जो सड़ई सी गरमी पड़ रई, जे न रोन न होन दे! संकारुं से जी घबड़ान लगत आए। हमने तो तुमाई भौजी से कई के, धना! तुम तो एक टेम खना पकाओ करे। ई गरमी में गरम कोन खों चाउने? औ तुमें दोई टेम चूला में तपने न परहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सच्ची, आपने भौतई अच्छी सोची! सबरे भैया हरें ऐसई सोचन लगें सो कोनऊं सल्ल ने रैहे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सल्ल की ने कओ बिन्ना! आजकाल जे जो कांड हो रए आएं, के कोनऊं अपने संगवारी खों काट रओ, मार रओ, उबाल रओ... सच्ची मुंडा भिन्ना जात आए जे सब पढ़-पढ़ के। जो का हो रओ अपने इते? अरे हमने सोई प्रेम करो तुमाई भौजी से, उने भगा के लाए, उनके संगे सात फेरे डारे औ आज लौं उनें आंखन के पलकां पे बिठाए राखत आएं। बेई कभऊं हमें हड़का देत आएं, बा में बी हमाई गलती रैत आए, बाकी हम दोई कित्ते अच्छे से रै रए।’’ भैयाजी कैन लगे।
‘‘सही कै रए भैयाजी, आप ओरन खों संगे देख के जी जुड़ा जात आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘मनो बिन्ना! एक बात हमें समझ में नईं आत के हमें आजाद भए कुल्ल टेम हो गओ कहानो, जो सांची कई जाए सो अपनी जे आजादी बुढ़ा गई कहानी, फेर बी अपन ओरें बेई जांत-पांत, धरम-वरम के गटा बिंधाएं फिर रए। पैले का रओ, के काम देख के जात धरी जात रई। मने जो जोन टाईप को काम करत्तो, ऊकी बोई जात कही जात्ती। मनो अब सबके, सबरे काम बदल गए, फेर बी दसा बोई की बोई धरी।’’ भैयाजी की आवाज में पीड़ा झलक रई हती।
‘‘हऔ भैयाजी! जे जो जांत-धरम को बैर होत आए, उसे कोनऊं को भलो नईं होत। औ जे सब ई लाने होत आए के धरम को असल मतलब तो कोनऊं समझोई नईं चात आए। औ आप आजादी पाए की बात कर रए, मोय सो लगत आए के अपन ओरें कबीर औ रैदास के जमाने से ऊंसई चल रए। हंा, बाकी तनक-मनक बदले आएं, मने पूरो नईं! अब आपई देख लेओ के कबीरदास जी ने ऊ समै का कओ रओ-
सन्तों देखहु जग बैराना।
हिन्दू कहे मौहि राम पियारा, तुरक  कहै रहिमाणा।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न काहू जाणा।।’’
- सो मैंने भैयाजी खों कबीरदास जी की वाणी सुना दई।
‘‘हऔ बिन्ना! दोई जने रार करत फिरत आएं। बाकी अपने इते सबई जांगा गड़बड़ चलत रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कैसी गड़बड़? कां की कै रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘उते देखो तनक अपने भोपाल के सतपुड़ा भवन में आग लग गई। औ लगी सो ऐसी लगी के सेना को बुलाने परो बा आग बुझाबे के लाने। मने कओ जाए, के ऊ भवन में आग से बचाबे के लाने कोन ऊं ठीक-ठिकाने को इंतजाम नई रओ। औ दूजे, जे के जब उते राजधानी में जे हाल आए सो अपन ओंरें के इते का हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप ने डरो, इते कछू ने हुइए! जां बड़ी-बड़ी फाइलें रैत आएं उते बड़ो वारो खतरो रैत आए। इते पड़ा की पूंछ में को आग लगा रओ?’’ मैंने कई।
‘‘तो का उते आग लगाई गई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अब मोय का पतो, मैंने सो एक कहनात कई। बाकी जोन दसा शहर औ गांवन की आए, बोई दसा बड़े शहर औ छोटे शहर की आए। कोऊ की पीरा कोऊ समझो नईं चात। बा बुंदेली में ग़ज़ल आए न के -
चींनत जानत नईयां सगे परोसी खों
गंावन की वे जातें, पातें का जानें
गांवन में हम जी रए कौन मुसीबत में
लंबरदारन की वे लातें का जानें
- मैंने भैयाजी से कई।
‘‘बड़ी नोनी गजल आए! कोन की आए? तुमाई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे नोंई मोरी नोंईं जे तो अपने बीना वारे महेश कटारे सुगम भैया की गजल के शेर आएं।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।    
‘‘अरे हऔ, हमने सोई दो-चार बेरा सुगम जी की शायरी पढ़ी। बे बुंदेली में अच्छी शायरी करते आएं औ संगे खूबई कटाई करत आएं।’’ भैयाजी महेश कटारे सुगम भैया की तारीफ करते बोले।
‘‘अब बातई ऐसी रैत आए के कटाई सो करो जेहे। चलो जेई बात पे उनकी एक ठईंयां गजल औ सुन लेओ -

बजा बजा सब गाल चले गए।
सुन सुन गोरे लाल चले गए।
करवे मालामाल आयते
होकें मालामाल चले गए।
विक्रम ठाढ़े सोचत रै गए
पूंछ पूंछ वेताल चले गए।
मलम लगावे की कै रयते
और खेंच कें खाल चले गए।
कंगाली जाँ की तां ठाढ़ी
मनौ कैउ कंगाल चले गए।
मिलवे खों तौ कछू नईं मिलौ
दै कें कैउ फदाल चले गए।
आँखें पितरा गईं आसा में
ऐसेइ मुतके साल चले गए।’’ - मैंने भैयाजी खों सुगम जी की एक ठो गजल औ सुना दई।

‘‘वाह! खूब कई के - मलम लगावे की कै रयते/और खेंच कें खाल चले गए। भौतई सही। ’’ भैयाजी शेर दोहरात भए बोले।
‘‘भैयाजी, मनो शेर-शायरी सोई हो गई, अब मोए बढ़न देओ ने तों धूप औ चढ़ जेहे। फेर मूंड़ तपहे, गोड़ तपहे!’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, ठीक कै रईं। मनो, कछू काम तो नई रओ हमसे या भौजी से? ने तो बतकाव में भूल जाओ औ घरे पौंच के याद आए।’’ भैयाजी ने मोंसे पूछी।
‘‘अरे नोईं, मोय कोनऊं काम नई रओ! बा तो ऊंसई बैठी हती, सो लगो के तनक बाहरे निकरो जाए। पंखा में बैठे रओ सो बोई गरम लगन लगत आए, सो मैंने सोची के तनक बाहरे फिर लओ जाए, सो लौट के पंखा की हवा ठंडी लगन लगहे।’’ मैंने मुस्कात भए कई।
‘‘जै हो तुमाई बिन्ना! रामधई, ई दुनिया में तुमाओ जैसो नमूना दूसरो ने मिलहे!’’ कैत भए भैया हंसन लगे।
‘‘चलो, जेई बात पे आप अब मोरो एक बुंदेली शेर सुन लेओ-
परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया।
करबे चौड़ी रोड खों, काट दई बा बरिया।।’’
जै राम जी की!’’ मैंने कई औ उते से घाम में मूंड़ चटकात भई अपने घरे खों चल परी।
मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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