Friday, May 10, 2024

शून्यकाल | जो हुआ, श्यामा प्रसाद मुखर्जी वह कभी नहीं चाहते थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम "शून्यकाल"

जो हुआ, श्यामा प्रसाद मुखर्जी वह कभी नहीं चाहते थे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह                                                                              
        हमारे देश की स्वतंत्रता उस आग के दरिया से गुज़र का पार लगी है जिसे हम विभाजन की विभीषिका के रूप में जानते हैं। उस दौरान लगभग 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की कठिनाइयों के कारण। इस जानहानि की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विभाजन के पूर्व ही जो भयावह संकेत मिलने लगे थे उसे श्यामाप्रसाद मुखर्जी भांप गए थे। वे मुस्लिम लीग की गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहते थे। वे भारत को अखण्ड देखना चाहते थे। वे शांति चाहते थे। उन्होंने प्रयास भी किए लेकिन....
सही-सही आंकड़े आज भी किसी को पता नहीं हैं। लेकिन जो अनुमान लगाए जाते हैं और तत्कालीन छायाचित्रों में शरणार्थियों की बाढ़ का जो दृश्य दिखाई देता है, वह अपने आंकड़े खुद ही बयान कर देता है।  यह माना जाता है कि देश के विभाजन दौरान पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान आने-जाने वाले शरणार्थियों में लगभग 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की कठिनाइयां न झेल पाने के कारण। विभाजन के बाद के महीनों में दोनों नए देशों के बीच विशाल जन स्थानांतरण दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा जनस्थानांतरण माना जाता है। भारत की जनगणना 1951 के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। लेकिन इन सबसे परे अनुमानित मौतों के आंकड़े आज तक पीड़ा देते हैं। सुदृढ़ भारत के स्वप्नद्रष्टा डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को इस दुरास्वप्न के संकेत मिलने लगे थे। दुर्भाग्यवश उनके विचारों को उस समय गंभीरता से नहीं लिया गया। जिसका दंश कश्मीर की अशांति के रूप में अकसर हमें कष्ट पहुंचाता रहता है। 
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी  ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊंचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। जिस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है, उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देश भर में विप्लव, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक सौहाद्र्य बिगाड़ने के लिये भाषाई एवं दलीय आधार पर खूनी संघर्ष की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था किन्तु इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर ‘एकला चलो’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे।
डाॅ. मुखर्जी ने यह अनुमान लगा लिया था कि यदि मुस्लिम लीग को निरंकुश रहने दिया गया तो उससे बंगाल और हिन्दू हितों को भयंकर क्षति पहुंचेगी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार का तख्ता पलटने का निश्चय किया और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। इसी समय वे वीर सावरकर के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मलित हुए। 
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धान्तों के साथ प्रारम्भ की थी। तत्कालीन शासन व्यवस्था में सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विशद जानकार के रूप में उन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया था। एक राजनीतिक दल की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण जब बंगाल की सत्ता मुस्लिम लीग की झोली में डाल दी गई और सन् 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश-विरोधी नीति अपनायी गयी तब डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया और राष्ट्रप्रेम का सन्देश जन-जन में फैलाने की अपनी पावन यात्रा का श्रीगणेश किया। 
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहां साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से विफल कर दिया। उनके प्रयत्नों से हिन्दुओं के हितों की रक्षा हुई। सन् 1942 में जब ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया और देश नेतृत्वहीन और दिशाहीन दिखाई देने लगा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के पक्ष मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर भारत को नयी दिशा दी।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। वहीं मोहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को एक अलग राष्ट्र के लिए मुस्लिम समुदाय के समर्थन के प्रदर्शन के रूप में प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस के रूप में घोषित किया। कलकत्ता और बॉम्बे के शहरों में दंगे फैल गए जिसके परिणामस्वरूप लगभग 5000-10,000 लोग मारे गए और 15,000 घायल हो गए। 9 दिसंबर 1946 को मुस्लिम लीग ने, जिसने पहले कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया था, अब इस आधार पर अपना समर्थन वापस ले लिया कि विधानसभा में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों की उचित सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं थी। ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षडयंत्र को कुछ नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खण्डित भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए। राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था। 
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का मुख्यमन्त्री वजीरे-आजम अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डाॅ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। वे जानते थे कि यदि आज एक राज्य पृथक्करण का रास्ता थाम लेगा तो अन्य प्रांतों में भी अलगाव की आग धधक उठेगी और देश का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि ‘‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’’ 
उन्होंने तात्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ़्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार देश की एकता और अखण्डता के लिए समर्पित डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूप में एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व सदा के लिए सो गया किन्तु उनके द्वारा जलाई गई देशप्रेम की अलख आज भी सतत् रूप से जल रही है। 
उल्लेखनीय है कि मैंने अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: श्यामा प्रसाद मुखर्जी’’ में उनके जीवन और विचारों पर विस्तृत शोधात्मक तथ्य प्रस्तुत किए हैं। यह पुस्तक दिल्ली के सामयिक प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तकालयों, पुस्तक की दुकानों तथा ऑनलाईन भी उपलब्ध है। दरअसल, मुझे लगता है कि युवा पीढ़ी को अतीत के उन तथ्यों से परिचित होना चाहिए जिन पर वर्तमान की स्थितियां टिकी हुई हैं। साथ ही इन तथ्यों को बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी राजनीतिक चश्में के पढ़ा जाना चाहिए तभी हम अपने अतीत की भूलों को भी पहचान कर उन्हें वर्तमान में सुधार सकेंगे।   
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Thursday, May 9, 2024

बतकाव बिन्ना की | रामधई ! कित्तो सूनो सो लग रओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम


बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
रामधई ! कित्तो सूनो सो लग रओ 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       मैं भैयाजी के इते पौंची तो भैयाजी औ भौजी दोई उदासे से दिखाने।
‘‘का हो गओ आप ओरन खों? ऐसे उदासे काय बैठे?’’ मैंने दोई से पूछी।
‘‘कछू नईं।’’ दोई ने एक संगे कई।
‘‘कछू कैसे नईं? आप ओरन को उतरो भओ मों बता रओ के कछू तो बात आए। अब मोय नई बताने होय सो बात दूसरी।’’ मैंने दोई से कई।
‘‘अरे, ऐसो कछू सीक्रेट नईयां!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो बता देओ।’’ मैंने कई।
‘‘तनक सूनो-सूनो सो लग रओ!’’ अब के भौजी ने कई।
‘‘हऔ भौजी! ऐसो कभऊं-कभऊं होत आए। ई बात मोसे ज्यादा औ कोन समझ सकत आए? मैं आप ओरन को गम्म समझ सकत हौं।’’ मैंने उने सहूरी बंधाते हुए कई।
‘‘हऔ बिन्ना! अब का बताएं के कैसो लग रओ?’’ भैयाजी लम्बी सांस भरत भए बोले।
‘‘हऔ, ऐसो लग रओ मनो, अभई बिटिया को ब्याओ कर के बिदा करी होय। जी सो फट रओ।’’ भौजी सोई बिसुरत भईं बोलीं।
‘‘ऐसो जी छोटो ने करो! कछू कऊं से कोनऊं खबर आई का?’’ मोय लगो के कऊं कोनऊं परेसानी वारी खबर तो ने आई? काय से भैयाजी को बेटा और बिटिया दोई बाहरे रैत आएं। सो मैंने पूछई लई,‘‘उते बच्चा हरें तो सब मजे में आएं न?’’
‘‘हऔ, बे ओरे तो मजे में आएं। बे अपनी-अपनी जिनगी में मगन आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘तो फेर काय को गम मना रए। जो बे ओरें ठीक आएं, तो आप ओरे बी ठीक रओ।’’ मैंने दोई खों समझाई।
‘‘अरे, हम ओरें उन ओरन खों ले के दुखी नोईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो फेर का भओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘होने का आए? अब तो ऊं दिना लों कछू नई होने, जोन दिना चुनाव को रिजल्ट ने आ जाए।’’ भौजी फेर के बिसुरत सी बोलीं।
‘‘का मतलब?’’ अब मोरी मुंडी चकरानी। जे ओरें कोन बात को ले के दुखी दिखा रए? चुनाव के रिजल्ट से इनको का लेने-देने? जे तो ठाड़े नई भए। रई उम्मींदवार की तो बात, सो बा जीतहे तो जे ओरें खुशी मना लेहें, ने तो ऊको तनक कोस लेहें। मगर आज काय के लाने गमी मना रए? मोय कछू समझ में ने आई।
‘‘ज्यादा ने सोचो बिन्ना! हम ओरन खों देख के तुमाओ मों सोई उतरो जा रओ।’’ भैयाजी ने मोय समझाओ। मोय सोचत भओ देख के बे तनक सम्हरे।
‘‘अब का करो जाए? आप ओरें कछू साफ-साफ बताई नईं रए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘साफ का बताने ईमें? सबई तो खुलो डरो। देख नईं रईं, के जब लौं अपने इते वोटिंग ने भई रई तब लौं कित्ती चहल-पहल रई। बई-बई चर्चा चलत्ती। सबरे दल वारे एक-दूसरे पे कछू ने कछू उल्टो-सुल्टो बोल रए हते। टीवी खोलो सो, औ अखबार खोलो सो, सबई में जोई रैत्तो के उन्ने उनके लाने भौतई बुरौ कओ औ फेर माफी सोई मांग लई। एक कैत्ते के बे तुमसे बा छीन लैंहें औ जा कैत्ते के बा तुमसे जा छीन लैंहे। खूबई मजो आउत्तो। अब वोटिंग हो गई, सो सन्नाटो सो खिंच गओ। सबई ऊ डेट खों परखे बैठे, जोन दिनां रिजल्ट को पतो परहे। तब लौं ऐसोई सूनो रैने।’’ भैयाजी ने मोय समझाई।
‘‘हऔ बिन्ना! जेई से तो भौतई सूनो लग रओ। अब तो अगले चुनाव लौं कोनऊं पूछहे ई नईं।’’ भौजी उदास होत भईं बोलीं।
‘‘इत्तो गम ने करो भौजी! जे तो हमेसई को हाल रओ। चुनाव के पैले हो-हल्ला औ चुनाव के बाद झार दओ पल्ला। सो, अपनो जी छोटो ने करो।’’ मैंने भौजी खों समझाओ।
‘‘हऔ, मनो सूनो तो लगई रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘कल ने लगे सूनो।’’ मैंने कई।
‘‘काय? कल का हो रओ?’’ अब के भैयाजी ने पूछी।
‘‘कल अक्ती आए। पुतरा-पुतरियन को ब्याओ होने। आप ओरें भूलई गए?’’ मैंने दोई खों याद कराई।
‘‘अरे हऔ तो, काल तो अक्ती आए। बा मऊरानीपुर वारी की नातिन ने मोसे कई रई के ऊकी पुतरिया के लाने घांघरों बना दइयो। मोय तो बिसरई गओ। अच्छी याद करा दई। आजई बना दैहों, ने तो बा मोड़ी बुरौ मान जैहे।’’ भौजी तुरतईं चहक परीं।
‘‘बा कैसे मनान लगी अक्ती? ऊकी मताई तो बड़ी मार्डन ठैरी, औ बा मोड़ी खुदई अंग्रेजी स्कूल में पढ़त आए।’’ भैयाजी अचरज करत भए भौजी से पूछन लगे।
‘‘हऔ, जब ऊने हमसे कई रई, सो हमें सोई अचरज भओ रओ। मनो, फेर मोड़ी ने बताओ की ऊकी दादी ने कई आए के बे बताहें के पुतरा-पुतरिया को ब्याओ कैसे कराओ जात आए। सो स्कूल से लौट के बा अक्ती मनाहे।’’ भौजी ने बताई।
‘‘ऊकी मताई ने ऊको टोंको नईं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे बा तो टोंकती, मनो ऊकी सास बाई, मने मऊरानीपुर वारी ने ऊको उल्लू बना दओ।’’ भौजी हंसत भई बोलीं।
‘‘उल्लू बना दओ? का मतलब?’’ मोए औ भैयाजी दोई को अचरज भओ।
‘‘औ का! मऊरानीपुर वारी ने अपनी बहू से कई के जो तुम बालिका वधू घांई सीरियल देखत्तीं, औ ई टाईप के और सीरियल देखत आओ, सो तुमें तो समझ में आ जात आएं। मनो तुमाई बिटिया जा सब कैसे समझ पैहे, जो ऊको जेई ने पतो हुइए के पुतरा-पुतरिया को ब्याओ कैसे होत आए? तुमने तो ऊके हाथ में मोबाईल फोन पकरा दओ। जो पुतरा-पुतरियों को ब्याओ करन देओ तो बा कछू अपने रीत-रिवाज समझे। बस, फेर का हती, ऊकी बहू मान गई। मगर कैन लगी के जो कछू करने होय ऊके स्कूल से लौटबे के बाद करियो। हम ऊको छुट्टी ने करन दैंहे। सो मामलो पट गओ। अब ऊ दिनां से बा मोड़ी बड़ी खुश आए के ऊको पुतरा-पुतरिया को ब्याओ करबे खों मिलहे। ऊने तो गूगल पे अक्ती के बारे में सर्च कर के पढ़ बी डारो।’’ भौजी ने बताई।
‘‘गूगल पे सर्च कर के? गजब! जे आजकाल के बच्चा बी कम नोंईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे, आप जे सोचो के बाप-मताई अपने रीत-रिवाज से भगे फिर रए औ उनके मोड़ा-मोड़ी जानबो चात आएं। ने तो आपई सोचो के बा मोड़ी गूगल पे काय ढूंढती के अक्ती कैसे मनाई जाती आए?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कई बिन्ना! जे हमाए ज्यादई सयाने ज्वान मताई-बाप बिदेश की नकल कर-कर के मरे जा रए, जबके उनके बच्चा हरें अपने इते के रिवाज जानबो चात आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसोई होत आए भैयाजी! जोन चीज नई सी होय सो अच्छी सी लगत आए। बा मोड़ी के लाने अक्ती नई सी चीज आए। आप ओरें सोई चुनाव को पुरानो मामलो समझ के एक तरफी धरो औ अक्ती खों इंज्वाय करो। औ भौजी, जो पुतरा-पुतरिया की ब्याओ की पंगत करियो, सो मोय सोई न्योतियो!’’ मैंने हंस के कई।    
‘‘हऔ, जरूर!’’ भौजी हंसत भईं बोलीं।
मैंने देखी के दोई के मों पे हंसी खेलन लगी हती। चुनाव गुजरबे की उदासी दूर हो गई रई। सो मैं उते से चल परी, मनो उते से बढ़तई साथ मोय सूनो लगन लगो। काय से के मोरी नजर ऊ बैनर औ झंडा पे पर गई जो वोटिंग के पैले तने धरे हते औ अब मरे चोखरवा से लटक रए हते। मगर अब करो का जा सकत आए? बारों मईना तो चुनाव हुइएं नईं। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Wednesday, May 8, 2024

चर्चा प्लस | पाॅक्सो एक्ट की जानकारी दे सकती है बच्चों को सुरक्षित माहौल | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
पाॅक्सो एक्ट की जानकारी दे सकती है बच्चों को सुरक्षित माहौल
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      चाणक्य ने कहा था कि ‘‘दण्ड के भय के बिना कोई समाज सुरक्षित नहीं रह सकता है।’’ आजकल आए दिन नाबालिगों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं घटित हो रही हैं। इन घटनाओं के संबंध में पाॅक्सो एक्ट के अंतर्गत अपराध पंजीबद्ध किए जाते हैं। किन्तु कानून संबंधी आवश्यक ज्ञान की कमी के कारण अधिकांश लोग नहीं जानते हैं कि पाॅक्सो एक्ट क्या है और इसके अंतर्गत क्या प्रावधान रखे गए हैं? वर्तमान में बच्चियों के विरुद्ध बढ़ती आपराधिक गतिविधियों के चलते प्रत्येक व्यक्ति को पाक्सो एक्ट जैसे कानून के बारे में जानकारी होनी चाहिए। इससे अपराधियों को भी सोचना होगा कि वे अपराध कर के बच नहीं सकेंगे।
बच्चों के साथ आए दिन यौन अपराधों के समाचार समाज को लज्जित करते रहते हैं। बच्चे न घर में सुरक्षित हैं और न ही खुले आसमान के नीचे। विकास के दावों के बीच भारत के अनुभव और ज़मीनी सच्चाई बच्चों की असुरक्षा की अलग कहानी कहती है। स्कूल से घर लौटती बच्ची को फुसला कर ले जाना और उसे अपनी हवस का शिकार बनाना, घर के आंगन में माता-पिता के बीच सो रही बच्ची को चुपचाप अगुवा कर लेना और उसके साथ गलत काम करना, ये वे घटनाएं हैं जो आजकल अकसर समाचार पत्रों के किसी न किसी पन्ने पर आए दिन देखने को मिल जाती हैं। मात्र बच्चियां ही नहीं, छोटो मासूम बच्चे भी ऐसे अपराधियों के शिकार बनने लगे हैं। यदि इस बात का अधिक से अधिक प्रचार किया जाए कि पाक्सो एक्ट की धाराएं कितनी कठोर हैं तो शायद अपराधी अपराध करने से एक बार हिचकेगा। चाणक्य ने सही कहा था कि ‘‘दण्ड के भय के बिना कोई समाज सुरक्षित नहीं रह सकता है।’’  
छोटे बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराध की बढ़ती संख्या देखकर ही सरकार ने वर्ष 2012 में एक विशेष कानून बनाया था। जो बच्चों को छेड़खानी, बलात्कार और कुकर्म जैसे मामलों से सुरक्षा प्रदान करता है। उस कानून का नाम पॉक्सो एक्ट। इस पाॅक्सो एक्ट का पूरा नाम है - ‘‘प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट’’। महिला और बाल विकास मंत्रालय ने पाॅक्सो एक्ट-2012 को बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न और यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए बनाया था। वर्ष 2012 में बनाए गए इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा तय की गई है। जिसका कड़ाई से पालन किया जाना भी सुनिश्चित किया गया है। इस अधिनियम की धारा 4 के तहत वो मामले शामिल किए जाते हैं जिनमें बच्चे के साथ दुष्कर्म या कुकर्म किया गया हो. इसमें सात साल सजा से लेकर उम्रकैद और अर्थदंड भी लगाया जा सकता है।
पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के अधीन वे मामले लाए जाते हैं जिनमें बच्चों को दुष्कर्म या कुकर्म के बाद गम्भीर चोट पहुंचाई गई हो। इसमें दस साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है और साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है। पॉक्सो अधिनियम की धारा 7 और 8 के तहत वो मामले पंजीकृत किए जाते हैं जिनमें बच्चों के प्राईवेटपार्ट से छेडछाड़ की गई हो। इस धारा के आरोपियों पर दोष सिद्ध हो जाने पर पांच से सात साल तक की सजा और जुर्माना हो सकता है।
पॉक्सो एक्ट की धारा 3 के तहत पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट को भी परिभाषित किया गया है। जिसमें बच्चे के शरीर के साथ किसी भी तरह की हरकत करने वाले शख्स को कड़ी सजा का प्रावधान है। दरअसल, 18 साल से कम उम्र के बच्चों से किसी भी तरह का यौन व्यवहार इस कानून के दायरे में आ जाता है। यह कानून लड़के और लड़की को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करता है। इस कानून के तहत पंजीकृत होने वाले मामलों की सुनवाई विशेष अदालत में होती है।
पाॅक्सो एक्ट लागू किए जाने के बाद बारह वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म में फांसी की सजा का प्रावधान रखा गया था,  किन्तु बाद में अनुभव किया गया कि बालकों को भी इस एक्ट के तहत न्याय दिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसीलिए एक्ट में संशोधन किया गया और  बालकों को भी यौन शोषण से बचाने और उनके साथ दुराचार करने वालों को फांसी की सजा का प्रावधान तय किया गया। इसके अंतर्गत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने लड़की-लड़कों दोनों यानी बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाने के बाल यौन अपराध संरक्षण कानून (पाॅस्को) 2012 में संशोधन को मंजूरी दे दी। संशोधित कानून में 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ दुष्कर्म करने पर मौत की सजा तक का प्रावधान है। इसके अलावा बाल यौन उत्पीड़न के अन्य अपराधों की भी सजा कड़ी करने का प्रस्ताव है।
बच्चों के हित संरक्षित करने और बाल यौन अपराध को रोकने के उद्देश्य से लाया जा रहा पोस्को संशोधन विधेयक  के संबंध में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने स्पष्ट कहा था कि सभी बच्चों को इससे बचाने के लिए जेन्डर न्यूट्रल कानून पोस्को में संशोधन किया जाएगा। संशोधित कानून में पोस्को कानून की धारा 4, 5, 6, 9, 14, 15 और 42 में संशोधन करने का प्रस्ताव है। धारा 6 एग्रीवेटेड पेनीट्रेटिव सैक्सुअल असाल्ट पर सजा का प्रावधान करती है। अभी इसमें न्यूनतम 10 वर्ष की कैद है जो कि बढ़कर उम्रकैद व जुर्माना तक हो सकती है। प्रस्तावित संशोधन में न्यूनतम 20 वर्ष की कैद जो बढ़ कर जीवन पर्यन्त कैद और जुर्माने के अलावा मृत्युदंड तक का प्रावधान किया गया है। धारा 5 में संशोधन करके जोड़ा जाएगा कि अगर यौन उत्पीड़न के दौरान बच्चे की मृत्यु हो जाती है तो उसे एग्रीवेटेड पेनीट्रेटिव सैक्सुअल असाल्ट माना जाएगा। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा के शिकार बच्चे का यौन उत्पीड़न भी इसी श्रेणी का अपराध माना जाएगा।
धारा चार में संशोधन करके 16 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ पेनीट्रेटिव सैक्सुअल असाल्ट में न्यूनतम सात साल की सजा को बढ़ा कर न्यूनतम 20 साल कैद करने का प्रस्ताव है जो कि बढ़ कर उम्रकैद तक हो सकती है। पैसे के बदले यौन शोषण और बच्चे को जल्दी बड़ा यानी वयस्क करने के लिए हार्मोन या रसायन देना भी एग्रीवेटेड सैक्सुअल असाल्ट माना जाएगा। धारा 15 में संशोधन होगा जिसमें व्यवसायिक उद्देश्य से बच्चों की पोर्नोग्राफी से संबंधित सामग्री एकत्रित करने पर न्यूनतम तीन साल की सजा का प्रावधान किया जा रहा है इससे ये धारा गैर जमानती अपराध की श्रेणी में आ जाएगी।
भारतीय दंड संहिता में धारा 376 में बलात्कार के अपराधी को सजा दी जाती है। लेकिन अगर बलात्कार पीड़िता कोई नाबालिग हो, तो उसके साथ एक और धारा बढ़ जाती है। उसे बलात्कार के अलावा पाक्सो एक्ट के तहत भी सजा दी जाती है. 27 दिसंबर, 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली कैबिनेट ने इसी पॉक्सो ऐक्ट को और भी कड़ा कर दिया। जिसके बाद इस ऐक्ट के तहत दोषी लोगों को फांसी तक की सजा हो सकती है। इस ऐक्ट को बच्चों को यौन अपराधों से बचाने, यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से बचाने के लिए लागू किया गया था. 2012 में ये ऐक्ट इसलिए बनाया गया था, ताकि बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों का ट्रायल आसान हो सके और अपराधियों को जल्द सजा मिल सके. इस ऐक्ट में 18 साल से कम उम्र वाले को बच्चे की कैटेगरी में रखा जाता है। 2012 से पहले बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों को लेकर कोई खास नियम-कानून नहीं था।
यदि पीड़ित बच्चा अथवा बच्ची मानसिक रूप से बीमार है या बच्चे से यौन अपराध करने वाला सैनिक, सरकारी अधिकारी या कोई ऐसा व्यक्ति है, जिस पर बच्चा भरोसा करता है, जैसे रिश्तेदार, पुलिस अफसर, टीचर या डॉक्टर, तो इसे और संगीन अपराध माना जाएगा। अगर कोई किसी नाबालिग लड़की को हॉर्मोन्स के इंजेक्शन देता है, ताकि वक्त के पहले उनके शरीर में बदलाव किया जा सके, तो ऐसे भी लोगों के खिलाफ पॉक्सो ऐक्ट के तहत केस दर्ज किया जाता है।
इस ऐक्ट ने यौन अपराध को रिपोर्ट करना अनिवार्य कर दिया है। यानी अगर आपको किसी बालिका के साथ होने वाले यौन अपराध की जानकारी है, तो ये आपकी कानूनी ज़िम्मेदारी है कि उस संबंध में रिपोर्ट की जाए। ऐसा न करने पर अपराध की जानकारी छिपाने के अपराध में 6 महीने की जेल और जुर्माना हो सकता है। ऐक्ट के अनुसार किसी केस के स्पेशल कोर्ट के संज्ञान में आने के 30 दिनों के अंदर क्राइम के सबूत इकट्ठे कर लिए जाने चाहिए और स्पेशल कोर्ट को ज़्यादा से ज़्यादा से एक साल के अंदर ट्रायल पूरा कर लिया जाना चाहिए। बालिका का मेडिकल 24 घंटे के भीतर हो जाना चाहिए। ऐक्ट के तहत स्पेशल कोर्ट को सुनवाई कैमरे के सामने करने की कोशिश करनी चाहिए। साथ ही, कोर्ट में बालिका के माता-पिता या कोई ऐसा व्यक्ति उपस्थित होना चाहिए, जिस पर पीड़ित बालिका भरोसा करती हो।
पाॅक्सो ऐक्ट अनुसार केस जितना गंभीर हो, सज़ा उतनी ही कड़ी होनी चाहिए। बाकी कम से कम 10 साल जेल की सज़ा तो होगी ही, जो उम्रकैद तक बढ़ सकती है और जुर्माना भी लग सकता है. बच्चों के पॉर्नॉग्राफिक मटीरियल रखने पर तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अप्रैल 2018 में  केंद्र सरकार ने पॉक्सो में एक अहम बदलाव किया। जिसके तहत प्रावधान रखा गया कि 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार करने पर मौत की सज़ा दी जाएगी अर्थात् इस ऐक्ट की कुछ धाराओं में दोषी पाए जाने पर मौत की सजा तक का प्रावधान कर दिया गया है। इस ऐक्ट में कहा गया है कि अगर कोई आदमी चाइल्ड पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देता है, तो उसके खिलाफ भी पॉक्सो ऐक्ट के तहत कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। इस ऐक्ट की धारा 4, धारा 5, धारा 6, धारा 9, धारा 14, धारा 15 और धारा 42 में संशोधन किया गया है। धारा 4, धारा 5 और धारा 6 में संशोधन के बाद अब अपराधी को इस ऐक्ट के तहत मौत की सजा दी जा सकती है।
बच्चों को नृशंस अपराधों से बचाने के लिए तथा उन्हें न्याय दिलाने के लिए सभी को यह जानकारी होनी चाहिए कि पाक्सो एक्ट क्या है और उसके तहत कौन से प्रावधान हैं क्योंकि कानून की जानकारी अपराध का विरोध करने की शक्ति देती है। जैसे हर व्यक्ति को पता है कि हत्या के अपराध की सजा आजीवन कारावास से ले कर मृत्युदण्ड तक होती है तो व्यक्ति अपराध करने से पहले सौ बार सोचता है। इसी तरह यदि सभी को पाक्सो एक्ट के अंतर्गत निर्धारित कड़ी सजाओं का पता हो तो व्यक्ति छोटे बच्चों पर कृदुष्टि डालने से पहले एक बार ठिठकेगा जरूर। इसीलिए इस एक्ट का भरपूर प्रचार, प्रसार जरूरी है, ताकि बच्चे सुरक्षित माहौल पा सकें।   
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Tuesday, May 7, 2024

पुस्तक समीक्षा | ये नवगीत विगत धारा से आगे का आयाम रचते हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 07.05.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यामसुंदर दुबे जी के नवगीत संग्रह  "ठौर-कुठौर" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
ये नवगीत विगत धारा से आगे का आयाम रचते हैं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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नवगीत संग्रह - ठौर-कुठौर
कवि         - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक     - बिम्ब-प्रतिबिम्ब पब्लिेकेशंस, शाॅप नं.4, ट्रेकऑन कोरियर, फगवाड़ा, पंजाब-01
मूल्य        - 350/-
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हिन्दी साहित्य जगत में डाॅ. श्यामसुंदर दुबे एक स्थापित नाम हैं। वे संस्कृतिविद हैं, प्रकृति के संवादी हैं और गद्य-पद्य दोनों विधा में समान अधिकार से सृजन करते हैं। वे अपने ललित निबंधों के लिए भी जाने जाते हैं। डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने नवगीत भी लिखे हैं। एक श्रेष्ठ नवगीतकार के रूप में भी उनकी पहचान है। ‘‘ठौर-कुठौर’’ उनका पांचवां नवगीत संग्रह है। इसमें वे नवगीत भी हैं जो कोरोनाकाल के बाद लिखे गए, इसलिए उनकी भावभूमि मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी है। नवगीत के उद्भव का उद्देश्य भी यही रहा है कि उसमें यथार्थ का अधिक समावेश हो किन्तु सम्पूर्ण कोमलता के साथ।
नवगीत को आधुनिक युग की काव्य धारा कहा जाता है। सन 1948 में अज्ञेय के संपादन में ‘‘प्रतीक’’ का ‘‘शरद अंक’’ आया, जिसमें अघोषित रूप से नवगीत विद्यमान थे। उस समय जो नए गीत आ रहे थे, वे पारम्परिक गीतों के मानक को तोड़ रहे थे और अपना अलग विधान रच रहे थे। सन 1958 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के संपादन में ‘‘गीतांगिनी’’ का प्रकाशन हुआ। ‘‘गीतांगिनी’’ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने गीत की इस नूतन विधा को ‘‘नवगीत’’ का नाम दिया। इसी के साथ इस विधा का तात्विक विवेचन भी किया गया। राजेद्र प्रसाद सिंह की ‘आईना’ पत्रिका ने नवगीत को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। नवगीत अपने विकास के साथ-साथ अपनी कहन के विषय स्वयं निर्धारित करता गया। इसमें जहां ग्राम्य जीवन की विषमताओं का आरेखन था वहीं नगरीय यांत्रिकता भरी विडम्बनाओं का विवरण था। शंभुनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, देवेद्र शर्मा इंद्र, कुंवर बेचैन, अनुप अशेष, वीरेद्र मिश्र, जहीर कुरेशी, महेश्वर तिवारी, ठाकुरप्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, बुद्धिनाथ मिश्र, श्रीरामसिंह शलभ, नचिकेता, राजेन्द्र गौतम, नईम आदि वे नवगीतकार रहे जिन्होंने इस विधा को शिखर पर पहुंचा दिया। वीरेन्द्र आस्तिक के शब्दों में -‘‘अर्थात्मक दृष्टि से आज नवगीत गद्य कविता से किसी मायने में कम नहीं है।’’
डाॅ. श्यामसुंदर दुबे के नवगीतों में जीवन की विषमताओं एवं कठोरता का चित्रण है, किन्तु लालित्य भी है। वे अपनी बात सहजता से कहते हैं। उनके गीतों में आंतरिक तथा बाह्य प्रति संवेदनाओं का एक संतुलित स्वरूप दिखाई देता है। ‘‘ठौर-कुठौर’’ में श्यामसुंदर दुबे के संग्रहीत 77 नवगीतों में से कुछ की चर्चा बानगी के रूप में की जा सकती है। जैसे संग्रह का पहला नवगीत है ‘‘इस सुरंग में’’। इस नवगीत में कर्ज़, मंहगाई और लाचारी का वह दृश्य है जो सेाचने को विवश कर देता है कि हम किस वातावरण में जी रहे हैं, जहां भूख है, संत्रास है और छल-कपट है-
दिन भारी है
आरी के भीतर आरी है
कैसी ये पहरेदारी है
रातों लूटे चोर, दिनों में जेब कतराता
मिठबोला बेपारी है!
पुरखिन पूंजी
हाटों बिक गई
सूने घर की भूख बड़ी है
यह कैसी इमदाद
ऊंट के मुंह में जीरा जैसी
इजलासों में भीड़ खड़ी है!

गरीबी किसी जाति, धर्म अथवा समाज को नहीं चुनती है अपितु वह सिर्फ़ उस घर में कब्ज़ा किए रहती है जहां विपन्नता हो। फिर भी घोर विपन्नता में भी पास्परिक संबंधों की उष्मा उम्मीद की किरण और खुशी का एक कण संजोने की ताकत रखती है। ‘‘घर हिलता है’’ में इसी भाव को देखिए-
रिश्तों के पर्दों को
अब्बू की सुई जैसे सिल रही
घर की दीवार
इधर वर्षों से हिल रही
नींव का पत्थर क्या खिसका है
छप्पर की छाती कर्कश आवाजों की
छैनी से छिल रही !
पौर के कोने तक
कुछ धूप अभी बाकी है,
तमाम कालिखों के बीच
झिलमिल-सी बिटिया, दिया बाती है!

डाॅ. श्यामसुंदर दुबे अपने नवगीतों में उन नबीन बिम्बों को चुनते हैं जो हमारे बीच, हमारे समाज में मौजूद हैं और हम कहीं न कहीं उन्हीं की तरह अपने आप को जी कर खुद को पहचान सकते हैं। ‘‘धुनिया’’ शीर्षक नवगीत में कवि ने एक धुनिया यानी रुई धुनने वाले की तरह जीवन जीने का आह्वान करते हैं ताकि विषमताओं के कारण मन में जमते जा रहे नैराश्य को धुन कर अलग किया जा सके। नवगीत का एक अंश देखिए-
तुम ही कुछ कहो
और केवल हम सुने
धुनिया बन
अपने ही भीतर की रूई को धुनें
रूई जो/प्रवादों के फाहों में
लिपट-लिपट गर्द और गुबार हुई,
अपनी ही आबरू
विचारों की पींजन में
चिन्दी-चिन्दी उडी और तार-तार हुई!
कौन सी/दिशा में मुड़ें
कब किससे हम जुड़ें
दोगले समय में आओ हम राह चुनें!

जब बुंदेलखंड के आधुनिक साहित्य की बात आती है तो बांदा निवासी चर्चित कवि केदारनाथ अग्रवाल के स्मरण के बिना चर्चा अधूरी रहती है। वहीं बुंदेलखंड की चर्चा आते ही इस भू-भाग से किसानों और श्रमिकों के पलायन का ज्वलंत बिन्दु भी जाग उठता है। श्यामसुंदर दुबे ने केदारनाथ का स्मरण करते हुए किसानों और श्रमिकों के पलायन की समस्या को बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है। ‘‘सूना है बुंदेलखंड’’ शीर्षक का यह पूरा नवगीत अपने-आप में अद्भुत है, जिसका एक अंश है -  
अब होते जो
अगर कवि जी
तो किससे कहते
करबी काटो/पत्थर तोड़ो
भरी भुजाओं से/मजदूरों
अड़ियल पथ के रूख को मोड़ो ।
सूना है बुंदेलखंड
मजदूर-किसानों से
हुआ पलायन इतना भारी
इक्के-दुक्के यहां गांव में अब वे दिखते।
श्यामसुंदर दुबे के नवगीतों में विषय की विविधता एवं संवेदनाओं का विस्तार है। वे समष्टि से व्यष्टि और व्यष्टि से समष्टि तक विचरण करते हैं। गोया वे भावनाओं के रेशे-रेशे को अपने नवगीत में बुन देना चाहते हैं। ‘‘आसक्तियों का अपरंपार’’ इसका एक अच्छा उदाहरण है- ‘‘समय की धार ने/कुछ चिह्न छोड़े/जीवन-नदी के इन पठारी तटों पर/अब बचा है-रेत का विस्तार!/बांचता हूं/इन्हें चश्मा चढ़ाकर/आंख पर/किसी पक्षी की कथा के/चित्र उभरे/एक टूटी पांख पर/नापता आकाश था जो/पेड़ जिसको न्यौतते थे/व्याघ का शर चुभा था जिसे/वह क्रौंच में ही था/सिमट आया चिलाचिलाती रेत पर/जिसका ब्यथा संसार।’’
वस्तुतः ‘‘ठौर-कुठौर’’ नवगीत संग्रह में डाॅ श्यामसुंदर दुबे के नवगीत एक ऐसा संसार रचते हैं जहां भावनाओं की गहराई है और जीवन का सच है। इसमें भाषाई सौम्यता है, निर्झरणी के प्रवाह-सी शैली है तथा वैचारिक गाम्भीर्य है। ये नवगीत भावनाप्रधान होते हुए भी बौद्धिक चेतना से ओतप्रोत हैं। ये नवगीत विगत धारा से आगे का आयाम रचते हैं। निःसंदेह यह नवगीत संग्रह हिन्दी काव्य को समृद्ध करने वाली कृति है।                    -------------------------
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Monday, May 6, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | कछू करियो, ने करियो, मतदान जरूर करियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
कछू करियो, ने करियो, मतदान जरूर करियो
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
      जे सई के अपने इते भौत कमी आए। मुतके काम ऐसे डरे के कभऊं-कभऊं लगत आएं के जे अपन की जिनगी में तो कभऊं पूरे ने हुइयें। कछू काम चल रए, सो उनकी स्पीड देख के चिटियां सोई शरमां जाएं। उत्तई नईं, गजब की बात तो जे आए के बनी-बनाई सड़क खोदबे को काम में कोनऊं अलाली नईयां। अभईं रजाखेड़ी रोड पे गई रई, सो देखी के रोड खुदी डरी। पूछबे पे पतो परो के उते पाईप लाईन डरने। सो, का प्लानिंग वारे भैया हरें साजी रोड बनबे खों तके बैठे हते, जो पैले पाईप लाईन ने डार पाए। जे सोई सांची आए के अपने इते अच्छे औ सस्ते इलाज के लाने बाहरे भगने परत आए। जे सोई सई आए के अपने इते रेलगाड़ियां कम आएं। चीलगाड़ी मने हवाई जहाज की तो बातई छोड़ो। अपने इते के तला की का कएं, ऊपे बनो कारीडोर फटो जा रओ। ऊपे दरारें दिखन लगीं। सो, इते समस्याएं तो मनो कुल्ल आएं, इत्ती के गिनाबे बैठो सो उंगरियां दुखन लगें।
     मनो, ईको मतलब जे नोईं के अपन मतदान करबे खों ने जाएं। एक भैया मिले सो कैन लगें के कोनऊं कछू नईं करत, हम काए जाएं मतदान करबे? अब जे का बात भई? अरे, अपन ओरन खों गुस्सा है अधिकारियन पे, अपने नेता हरों पे सो तब तो मतदान करबे और पौंचो चाइए। अपनों मतदान को पावर दिखा दओ चाइए। जोन उम्मीदवार ठीक लगे, उनको जिताओ औ अपनों पावर दिखाओ। घरे बैठ के गरियाबे से कछू ने हुइए। जेई तो टेम आए बताबे को के आप का चात हो? सो, हमाई मानो तो कछू करियो, चाए ने करियो, मनो मतदान जरूर करियो। ईसे सबको भलो हुइए।
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Friday, May 3, 2024

डॉ वर्षा सिंह की तृतीय पुण्यतिथि पर डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा संजीवनी बालाश्रम में भोजन कराया गया

आज तीसरे वर्ष ... वर्षा दीदी की स्मृति में आज संजीवनी बालाश्रम में बच्चों को भोजन कराया... दीदी को बच्चों से बहुत प्रेम था.... 
  इस बालाश्रम को निराश्रित बच्चों को आश्रय देने के लिए स्व.श्रीमती सत्यभामा अरजरिया जी ने आरम्भ किया था। उनके बाद से उनकी बहू श्रीमती प्रतिमा अरजरिया उनके दायित्व का बखूबी निर्वहन कर रही हैं।
       मुझे यह देखकर सुखद लगा कि वहां रहने वाली कई बच्चियां मुझे पहचानने लगी है और मेरे पहुंचने पर वे बहुत खुश हुईं ... दरअसल, व्यर्थ आडंबर में पढ़ने के बजाय बच्चों को दो पल कघ खुशी देना मुझे ज्यादा अच्छा लगता है क्योंकि मुझे पता है कि यदि दीदी होती तो वे भी यही करतीं।
 🚩 हार्दिक आभार प्रिय बहन प्रतिमा जी 🙏
  🚩हार्दिक आभार दीदी के प्रति सम्मान एवं स्नेह रखने वाले श्री पंकज शर्मा जी, जो  निःस्वार्थ भाव से सदा सहयोग करते हैं 🙏

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मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह की तृतीय पुण्यतिथि

03 मई 2021... कोरोना का वह भयानक दौर... 5 दिनों का जीवन संघर्ष... उस दौर का अकेलापन मेरी जिंदगी का अकेलापन बन गया ... यही वह तारीख़ है जिसने मुझसे मेरी वर्षा दीदी को छीन लिया... बस, हर पल यही लगता है कि मुझे उनकी जगह होना चाहिये था... और मेरे बदले उन्हें यहां होना चाहिए था... दुनिया के लिए वे डॉ Varsha Singh थीं... कवयित्री थ़ी... ग़ज़लकार थीं... लेकिन मेरे लिए तो मेरी वह "दीदू" थीं जिनकी उंगली पकड़ कर मैंने चलना सीखा था... जिनसे हंसना, मुस्कुराना सीखा था... आज दीदी के बिना ज़िंदगी... ज़िंदगी नहीं लगती है...
 😢 दीदी! तुम्हारा साक्षात मेरे साथ न होना मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी कमी है... बस, तुम्हारे साथ होने के अहसास के सहारे ज़िंदा हूं...अपनी इस अभागी "बेटू" को याद रखना😞😢🥺
Love you Didu ❤️ 
& Miss you lot 💔
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Thursday, May 2, 2024

बतकाव बिन्ना की | मनो, मतदान करबे के लाने जाइयो जरूर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
मनो, मतदान करबे के लाने जाइयो जरूर 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘राम-राम बतोले दाऊ! भौत दिनां बाद दिखाने।’’ मैं भैयाजी के इते बैठी बतकाव कर रई हती के इत्ते में उतई बतोले दाऊ आ गए। बतोले दाऊ बी एक अनोखई चीज आएं। उनकी नैया अलगई चलत आए। सबरे दाएं खों जा रए हुइएं, सो बे बाएं खों चल परहें। बाकी बे भौत दिनां बाद मिले।
‘‘हऔ बिन्ना! तनक अपने सासरें चले गए रए। उते हमाए ससुर साब की तबीयत बिगड़ गई रई।’’ बतोले दाऊ ने बताई।
‘‘अब कैसे आएं बे?’’ मैं औ भैयाजी दोई एक संगे पूछ बैठे।
‘‘अब तो ठीक आए। उने नागपुर ले गए रए। उते एक छोटो सो ऑपरेशन भओ औ बे ठीक हो गए।’’ बतोले दाऊ बोले।
‘‘काय को ऑपरेशन?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे कछू नईं, तनक पेट में तकलीफ रई। कछू पथरी-मथरी-सी हो गई रई।’’ बतोले दाऊ ने लापरवाई से कई। मनो, बे ऊ बारे में बतकाव नई करो चात्ते।
‘‘वैसे तुम ठीक टेम पे लौट आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काय? ठीक टेम को मतलब?’’ बतोले दाऊ ने पूछी।
‘‘ठीक टेम को मतलब जे के अबे मतदान होने, सो तुमाओ नांव तो इतई की वोटर लिस्ट में हुइए। सो तुमें तो इतई वोट देने रैहे। जो उते रैते तो वोट कैसे डार पाते?’’ भैयाजी बोले।
‘‘वोट कां डारने? उते तो बटन दबाने।’’ बतोले दाऊ मों बना के बोले।
‘‘सो ईमें का दाऊ? वोट तो वोट होत आए, चाय कागज की पर्ची डार के देओ, चाय बटन दबा के।’’मैंने बतोले दाऊ से कई।
‘‘औ का।’’ भैयाजी ने मोरो समर्थन करो।
‘‘पर हमें नईं पोसात जो बटन वारो सिस्टम।’’ बतोले दाऊ ने फिर मों बनाओ।
‘‘अरे तुम सोई बेई के बेई रए। अरे, आजकाल सब कछू इलेक्ट्राॅनिक हो गओ, सो तुमें ईवी मशीन से का परेशानी हो रई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हमने कई न, के हमें नईं पोसात।’’ बतोले दाऊ ऊंसई बोले।
‘‘पर दाऊ, आप जे सोचो के जे जो आप मोबाईल ले के घूमत आओ बा तो आप खों खूब पोसात आए। मुतके ग्रुपों में भुनसारे से ब्यालू लौं अपनी पोस्टें पेलत रैत हो, सो इते का परेशानी हो रई?’’ मैंने सोई भैयाजी की बात खों आगे बढ़ाओ।
‘‘तुम ओरें हमाए पीछे काए पर गए? हमें नईं पोसात, सो नईं पोसात! बस्स!’’ बोले दाऊ खिजियात भए बोले।
‘‘चलो, मान लओ के तुमें नईं पोसात, तो का मतदान करबे खों ने जैहो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नईं, हम कऊं नई जा रए।’’ बतोले दाऊ तनक अकड़ के बोले।
‘‘जे का बात भई? तुमें बा वोटिंग मशीन पसंद नइयां, सो ईको मतलब जे थोड़ी होने चाइए के तुम मतदान करबे खों ई ने जाओ? तुमाई जे बात अब हमें नईं पोसा रई।’’ भैयाजी खों बतोले दाऊ के विचार जान के भारी अचरज भओ।
‘‘हऔ, जेई समझो।’’ बतोले दाऊ बोले।
‘‘समझो से का मतलब? का कोनऊं और बात बी आए?’’ अबकी बतोले दाऊ से मैंने पूछी।
‘‘अब का बताएं बिन्ना! कए में शरम आउत आए।’’ बतोले दाऊ बोले। उनकी जे बात सुन के अब मोय अचरज भओ के ऐसी कोन सी बात आए जोन को कैबे में दाऊ खों शरम आ रई, औ वो बी मतदान खों ले के?
‘‘अब बताई दो दाऊ! का मोरे सुनबे जोग नइयां? का मैं बाहरे चली जाऊं?’’ मैंने बतोले दाऊ से पूछी।
‘‘अरे नईं-नईं! ऐसी-वेसी वारी बात बी नोंई।’’ बतोले दाऊ हड़बड़ा के बोले।
‘‘सो का बात आए? अब बक बी देओ।’’ भैयाजी तनक फटकारत भए बोले।
‘‘बो का आए के अबे लौं कोनऊं पार्टी को उम्मींदवार हमाए घरे नईं पौंचो, वोट मांगबे। सो हमई काय वोट डारबे जाएं?’’ बतोले दाऊ ने अब असल बात बोली।
‘‘अरे, दाऊ! आप सोई! देख नईं रए के टेम कम आए और एरिया बड़ो आए। अब उम्मींदवार दोरे-दोरे नईं पौंच पा रए तो ईमें बुरौ नई मानो चाइए।’’ मैंने बतोले दाऊ खों समझाई।
‘‘काय बुरौ ने मानें? पांच साल में एक बेरा तो उनकी मों दिखाई को टेम आत आए, औ ई टेम पे बी बे अपनो मों ने दिखाएं तो हमई काएं उनके लाने जाएं, उते लेन से लगें?’’ बतोले दाऊ बमकत भए बोले। उनकी बात में दम दिखानी, सो मैंने कछू ने कई, बाकी भैयाजी काय चुप रैते?
‘‘अरे, उनकी पार्टी वारे सो आहें, तनक गम्म खाओ!’’ भैयाजी ने कई।
‘‘उम्मींदारवार बे आएं, के उनकी पार्टी वारे? संसद में बे जाहें, के उनकी पार्टी वारे? सांसद को भत्ता और पावर उने मिलहे, के उनकी पार्टी वारन खों?’’ बतोले दाऊ ने अपने मन की बात बोलनी शुरू कर दई।
‘‘इत्तो ने सोचो! बे पार्टी के औ अपन ओरन के प्रतिनिधि होत आएं। अब सबरे संसद में तो नईं पौंच सकत। इत्ती निगेटिव बातें ने सोचो।’’ भैयाजी ने बतोले दाऊ खों समझाई।
‘‘काय ने सोचो? ईसे अच्छो तो पार्षद को चुनाव, के ऊमें सबरे उम्मींदवार दोरे पे आ के हाथ जोड़त आएं, पांव परत आएं।’’ बतोले दाऊ बोले।
‘‘हऔ, औ बाद में अपन ओरें उनके दोरे हाथ जोड़त आएं।’’ मैंने हंस के कई। काय से के मोय लगो के बातकाव कछू ज्यादई गंभीर होत जा रई।
‘‘तुम तो मोहल्ला मेंई डरे रओ। अरे, कछू देश-दुनिया की बी सोच लओ करे। जेई चुनाव से तो अपने प्रधानमंत्री लौं तै होत आएं।’’ भैयाजी ने बतोले दाऊ खों फेर के समझाई।
‘‘हऔ! जा तो तुमने सई कई।’’ बतोले दाऊ बोले। अब बे सोच में पर गए।
‘‘सो अब मतदान करने जाहो के नईं?’’ उने सोचत भओ देख के भैयाजी ने पूछी।
‘‘अबे पक्को नइयां! अबे सोचबी।’’ बतोले दाऊ डगमग होत भए बोले।
‘‘अब ईमें सोचने का? जा के बटन दबा आइयो।’’ भैयाजी उने उत्साहित करत भए बोले।
‘‘कोन को बटन दबा आएं? हमने कई ने के अबे लौं कोनऊं हमाए इते नईं आओ।’’ बतोले दाऊ झुंझलात भए बोले।
‘‘जो कोनऊं ठीक समझ में ने आए, सो ‘नोटा’ को बटन दबा आइयो। तुमाए टाईप के कनफुजियाएं लोगन के लाने बा बटन रखो गओ आए।’’ भैयाजी ने सुझाओ दओ।
‘‘अरे दाऊ, अबई से नोटा-मोटा की ने सोचो। जो तुमाए इते कोनऊं ने आए तो जा सोचियो के कोन की पार्टी खों तुम देश को शासन चलाऊत देखो चात आओ। बस, बोई पार्टी खों बटन दबा आइयो।’’ मैंने बतोले दाऊ खों तुरतईं समझाओ। ताकि बे और ने कनफुजियाएं।
‘‘हऔ जे तुमने ठीक कई बिन्ना!’’ बतोले दाऊ अपनी मुंडी हिलात भए बोले। उने मोरी बात जम गई।
‘‘चलो तुमें कछू समझ में तो आई।’’ भैयाजी ने सोई चैन की सांस लई।
सो भैया औ बैन हरों, अपने क्षेत्र के उम्मींदवारों के अपने दोरे आबे औ ने आबे खों ले के संकोच ने करियो। मनो, मतदान करबे के लाने जरूर जाइयो। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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शून्यकाल | बचपन-विहीन इन बच्चों का क्या दोष है? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
बचपन-विहीन इन बच्चों का क्या दोष है?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह                                                                              
        एक बच्चे की पहचान क्या होती है? यही न, कि वह छोटी अवयस्क आयु का होता है और बड़ों के संरक्षण की उसे आवश्यकता होती है। लेकिन उन बच्चों को क्या माना जाए जो माता-पिता के साथ चौराहों पर भीख मांगते हैं, जो चौराहों पर कंघी, बालपेन जैसी छोटी-छोटी वस्तुएं बेचते हैं, जो भिखारी नहीं हैं किन्तु भिखारियों की तरह धार्मिक स्थलों के आस-पास भीख मांगते हैं या फिर वे जो ढाबों और छोटे होटलों में बरतन धोने का काम करते हैं। कई बार उनकी असली उम्र का नकली प्रमाणपत्र उन्हें कानूनी सहायता के दायरे से बाहर कर देता है। क्या वे बच्चे, बच्चे नहीं हैं?* 
       सन् 1993 में ‘‘न्यूयार्क टाईम्स’’ में न्यूज फोटोग्राफर केविन कार्टर द्वारा खींची गई एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जो सूडान की थी। उस तस्वीर में हृदयविदारक दृश्य था। एक गिद्ध एक कुपोषित मरणासन्न बच्ची को टोह रहा था। गिद्ध उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। यह तस्वीर सूडान में भुखमरी की भयावह स्थिति बताने के लिए अपने आप में पर्याप्त सबूत थी। इस तस्वीर के लिए फोटोग्राफर केविन कार्टर को पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन वहीं दूसरी ओर लोगों ने उसकी इस बात के लिए कटु निंदा की कि उसने फोटोग्राफी तो की लेकिन इंसानीयत नहीं निभाई। उसने उस बच्ची को गिद्ध से बचाने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि उसे तो जल्दी थी अपना वापसी का हवाईजहाज पकड़ने की। केविन को भी अपनी इस भूल का गहरा अपराधबोध हुआ। लोगों को इस बात का अहसास तब हुआ जब पुरस्कार मिलने के तीन माह बाद केविन ने अपराधबोध न सहन कर पाने की स्थिति में आत्महत्या कर ली। उसे भी लगता रहा कि वह बच्ची को बचाने का प्रयास कर सकता था, जो उसने नहीं किया था और एक निर्मम मौत के हवाले कर दिया था।

इसके बाद दुनिया के सामने एक और तस्वीर आई। यह नाईजीरिया के उस बच्चे की तस्वीर थी जिसे उसके समुदाय ने ‘‘शापित’’ मान कर त्याग दिया था। हड्डी का ढंाचा मात्र रह कर वह नग्नावस्था में भूखा-प्यासा भटकता अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। तब डेनमार्क निवासी महिला अंजा रिंगरेन लोवेन ने उसे अपनी बाॅटल से पानी पिलाया जिससे उसकी थमती सांसों में गति आई। फिर वह उसे गोद में उठा कर ऐसे लोगों के पास ले गई जो उसका लालन-पालन कर सकें। आज वह बच्चा अच्छा स्वस्थ हो चुका और पढ़ने के लिए स्कूल जाता है। देखा जाए तो उस तस्वीर के बाद पूरी दुनिया ने उसे अपने संरक्षण में ले लिया। अंजा रिंगरेन लोवेन ने अपनी नौकरी छोड़ कर उन बच्चों के लिए जीवन समर्पित कर दिया जिन्हें अंधविश्वास के चलते शापित मान कर त्याग दिया जाता था और वे बच्चे भूख-प्यास से दम तोड़ देते थे। अंजा रिंगरेन लोवेन ने ऐसे बच्चों के लिए एक आश्रम खोला। जिस पहले बच्चे को अंजा ने बचाया था उसकी दशा की अपडेट के तौर पर एक वर्ष पहले उसकी हंसती-खेलती तस्वीर जारी की गई थी ताकि पूरी दुनिया जान सके कि मौत के मुंह में खड़ा वह बच्चा अब एक अच्छी जिन्दगी जी रहा है। सचमुच सभी को अच्छा लगा था उसी तन्दुरुस्ती भरी तस्वीर देख कर।

लेकिन कितने बच्चों की ज़िंदगी बदल पाती है? हम भी अकसर कई स्वयंसेवी संस्थाओं के विज्ञापन देखते हैं जिनमें कुपोषित, दयनीय अवस्था के बच्चों की तस्वीरें दिखा कर सहयोगराशि मांगी जाती है। इनमें कई विज्ञापन चार-पांच वर्ष तक एक ही बच्चे की तस्वीर या वीडियो के साथ चलते रहते हैं। हमें विज्ञापन के रूप में उनकी दशा का अपडेट नहीं दिखाया जाता है कि दी गई सहायताराशि से उस बच्चे की जान बची या नहीं अथवा अब वह किस स्थिति में है? ऐसे बच्चों को भला हम किस श्रेणी में रखेंगे? 

फरवरी 2022 में एनसीपीसीआर ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि राज्यों से प्राप्त जानकारी के अनुसार देश में 17,914 बच्चे सड़कों पर हैं। आयोग के उस आंकड़े के अनुसार इनमें से 9,530 बच्चे सड़कों पर अपने परिवारों के साथ रहते हैं और 834 बच्चे सड़कों पर अकेले रहते हैं। इनके अलावा 7,550 ऐसे बच्चे भी हैं जो दिन में सड़कों पर रहते हैं और रात में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले अपने परिवारों के पास लौट जाते हैं। धार्मिक स्थलों से ट्रैफिक सिग्नल तक इन बच्चों में सबसे ज्यादा (7,522) बच्चे 8-13 साल की उम्र के रहते हैं। इसके बाद 4-7 साल की उम्र के 3,954 बच्चे हैं। राज्यवार देखें तो सड़कों पर सबसे ज्यादा बच्चे (4,952) महाराष्ट्र में, इसके बाद गुजरात (1,990) में, तमिलनाडु (1,703), दिल्ली (1,653) और मध्य प्रदेश (1,492) में हैं। यद्यपि अदालत ने इस आंकड़े पर संदेह जताते हुए राज्यों से बेहतर जानकारी देने के लिए कहा था। अदालत ने इन आंकड़ों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था कि सड़क पर बच्चों की अनुमानित संख्या 15 से 20 लाख है और यह सीमित आंकड़े इसलिए सामने आ रहे हैं क्योंकि राज्य सरकारें राष्ट्रीय बाल आयोग के पोर्टल पर जानकारी डालने का काम ठीक से नहीं कर रही हैं। 

अनेक होटल, ढाबे ऐसे हैं जहां बच्चों से काम कराया जाता है। चूंकि यह कानूनी अपराध है अतः उन बच्चों के नकली आयु-सर्टीफिकेट बनवा लिए जाते हैं। इसमें बच्चों के परिजन भी भागीदार होते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी नहीं बल्कि बच्चों की कमाई से मतलब रहता है। बात कहने में कठोर है मगर यदि अपने बच्चे का पालन नहीं कर सकते हैं तो उन्हें पैदा कर के उनसे उनका बचपन छीनने का भी उन्हें कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। ऐसे बच्चे कभी समझ ही नहीं पाते हैं कि वे कब बच्चे थे और कब बड़े हो गए? इसके साथ ही मुझे याद आया कि यह क्षेत्र तो नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का है जिन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों के संरक्षण में लगा दिया। ‘‘बचपन बचाओ आन्दोलन’’ के तहत वे विश्व भर के 144 देशों के हजारों बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य कर चुके हैं। लेकिन यदि माता-पिता और मजदूर मालिक संगठित हो कर छल करें तो इसका हल नहीं निकाला जा सकता है। तमाम सरकारी योजनाओं के बाजजूद यह कड़वा सच आज भी हमारे बीच ऐसे बच्चे बहुसंख्यक मौजूद है।

धार्मिक स्थानों के आस-पास अनेक बच्चे भिखारियों की भांति मंडराते रहते हैं। उन्हें इस तरह ज़िद्दी बना दिया जाता है कि जब तक वे भीख में कुछ पा न जाएं तब तक आपका कपड़ा खींचना या बाजू पर हाथ से टोंहका लगाना बंद नहीं करते हैं। उनके माता-पिता जानते हैं कि छोटे बच्चों को कोई जोर से डांटेगा नहीं, मारेगा नहीं और थक-हार कर कुछ पैसे दे ही देगा। ये ज़िद्दी बच्चे अपनी जिद मनवाने के बाद विजेता की भांति अपने माता-पिता के पास पहुंच कर अपनी आमदनी दिखाते हैं। वे नहीं जानते हैं कि उनकी इस उम्र में उन्हें चौराहों पर जिद भरी विक्रेतागिरी करने के बजाए किसी स्कूल में पढ़ना चाहिए। भले ही सरकारी स्कूल हो। भले ही वहां बहुत अच्छी पढ़ाई न होती हो लेकिन चार अक्षर तो पढ़ ही सकेंगे। मगर उस छोटी-सी उम्र में वे अपने जीवन का अच्छा-बुरा तय नहीं कर सकते हैं और जिन्हें तय करना चाहिए, उन्हें तत्काल के चार पैसे अधिक सुखद लगते हैं। क्योंकि यदि वे कोई और रास्ता जानना चाहते होते तो बच्चों को उनका असली बचपन देने के लिए कुछ तो प्रयास करते। वहीं, उन चौराहों से गुज़रने वाले ‘हम समझदार लोग’ भी यह सब अनदेखा कर देते हैं। हम हमेशा खुद को अपनी ही मुसीबतों से घिरा हुआ पाते हैं। हमें लगता है कि हमारे पास इनके बारे में सोचने का भी समय नहीं है। ऐसे बच्चे इस बात से अनजान रहते हैं कि उनसे उनके बचपन की मासूमीयत छीनी जा रही है। उन्हें हठी बनाया जा रहा है। उन्हें हर तरह के हथकंडे अपना कर कुछ न कुछ हासिल कर लेने की कला में माहिर किया जा रहा है। यह ट्रेनिंग कभी-कभी आगे चल कर उन्हें अपराध जगत में पहुंचा देती है। पकड़े जाने पर मां-बाप भी उनसे पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसे बच्चे अपनों के द्वारा की गई भावनात्मक ठगी के शिकार रहते हैं। ऐसे बच्चों को हम भला किस श्रेणी में रखेंगे?

बच्चे समाज की धरोहर और जिम्मेदारी होते हैं। केवल सरकार, आयोग, स्वयंसेवी संगठन आदि ही इनके लिए उत्तरदायी नहीं है, हम भी इन बच्चों के लिए उत्तरदायी हैं और यह हमें समझना चाहिए। दरअसल हम अपने आप में इतने सिमट गए हैं कि हमें न तो केविन कार्टर की तरह अपराधबोध होता है और न अंजा रिंगरेन लोवेन की तरह हम मदद के लिए कटिबद्ध हो पाते हैं। ऐसे बच्चों की ओर देखने से बचने के लिए हम अपने मोबाईल की ओर देखते हुए खुद को आभासीय दुनिया में धकेल देते हैं। जब मैं अपने देश के कुपोषित और सहायता से दूर या अपने ही माता-पिता के हाथों अपना बचपन गंवाते बच्चों को देखती हूं तो मुझे यह समझ में नहीं आता है कि ऐसे बच्चों को किस श्रेणी में रखा जा सकता है- भिखारी, अनाथ, कुपोषित या फिर कोई और श्रेणी? जरूरी है इस पर विचार करना।    
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Wednesday, May 1, 2024

चर्चा प्लस | स्वजागृति से परे हम जी रहे हैं ब्रांडिंग के दौर में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
स्वजागृति से परे हम जी रहे हैं ब्रांडिंग के दौर में
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      हमारे चारो ओर बाज़ार का एक संजाल है और इस बाज़ारवाद ने हमें उस दौर में पहुंचा दिया है जहां राष्ट्रीय और मानवीय कर्तव्य भी ब्रांड बन गए हैं। बेटी बचाओ एक ब्रांड है, स्वच्छता मिशन एक ब्रांड है, शौचालय का उपयोग एक ब्रांड है, निर्मलजल एक ब्रांड है और अतुल्य भारत अभियान एक ब्रांड है, तो हम बाज़ारवाद से बाहर कैसे निकल सकते हैं? हर ब्रांड का एक एम्बेस्डर है। वह एम्बेस्डर क्या करता है? वह अपने ब्रांड का विज्ञापन करता है और पैसे कमाता है। क्या कभी सोचा है कि यह दौर हमें किस ओर ले जा रहा है?
      हम आज ब्रांडिग के दौर में जी रहे हैं। हमारे शौच की व्यवस्था से ले कर राज्य, कत्र्तव्य और संवेदनाओं की भी ब्रांंिडग होने लगी है। ब्रांड क्या है? अर्थशास्त्र के अनुसार ब्रांड उत्पाद वस्तु की बाजार में एक विशेष पहचान होती है जो उत्पाद की क्वालिटी को सुनिश्चित करती है, उसके प्रति उपभोक्ताओं में विश्वास पैदा करती है। क्यों कि उत्पाद की बिक्री की दशा ही उत्पादक कंपनी के नफे-नुकसान की निर्णायक बनती है। कंपनियां अपने ब्रांड को बेचने के लिए और अपने ब्रांड के प्रति ध्यान आकर्षित करने के लिए ‘ब्रांड एम्बेसडर’ अनुबंधित करती हैं। यह एक पूर्णरुपेण बाज़ारवादी आर्थिक प्रक्रिया है। यह उत्पाद की वस्तुओं की बिक्री के लिए होता है लेकिन आज हमारे नागरिक कर्तव्य और हमारी संवेदनाएं भी गोया बिक्री की वस्तु हो गई हैं। कमाल की बात यह है कि ब्रांडिग हमारे जीवन में गहराई तक जड़ें जमाता जा रहा है। इसीलिए नागरिक कर्तव्यों, संवेदनाओं एवं दायित्वों की भी ब्रांडिंग की जाने लगी है, गोया ये सब भी उत्पाद वस्तु हों।
    
     आजकल राज्यों के भी ब्रांड एम्बेसडर होते हैं। जबकि ‘‘राज्य एक ऐसा भू भाग होता है जहां भाषा एवं संस्कृति के आधार पर नागरिकों का समूह निवास करता है।’’ - यह एक अत्यंत सीधी-सादी  परिभाषा है। यूं तो राजनीति शास्त्रियों ने एवं समाजवेत्ताओं ने राज्य की अपने-अपने ढंग से अलग-अलग परिभाषाएं दी है। ये परिभाषाएं विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित हैं। राज्य उस संगठित इकाई को कहते हैं जो एक शासन के अधीन हो। राज्य संप्रभुता सम्पन्न हो सकते हैं। जैसे भारत के प्रदेशों को ’राज्य’ कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है। इसके अलावा युद्ध को राज्य की उत्पत्ति का कारण यह सिद्धांत मानता है जैसा कि वाल्टेयर ने कहा है प्रथम राजा एक भाग्यशाली योद्धा था। इस सिद्धांत के अनुसार शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र आधार है शक्ति का आशय भौतिक और सैनिक शक्ति से है। प्रभुत्व की लालसा और आक्रमकता मानव स्वभाव का अनिवार्य घटक है। प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक शक्तिशाली शासन करते हैं और बहुसंख्यक शक्तिहीन अनुकरण करते हैं। वर्तमान राज्यों का अस्तित्व शक्ति पर ही केंद्रित है।

    राज्य को परिभाषित करते सामाजिक समझौता सिद्धांत को मानने वालों में थाॅमस हाब्स, जॉन लॉक, जीन जैक, रूसो आदि का प्रमुख योगदान रहा। इन विचारकों के अनुसार आदिम अवस्था को छोड़कर नागरिकों ने विभिन्न समझौते किए और समझौतों के परिणाम स्वरुप राज्य की उत्पत्ति हुई। वहीं विकासवादी सिद्धांत मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय प्रमाणों पर आधारित है। इसके अनुसार राज्य न तो कृत्रिम संस्था है, न ही दैवीय संस्था है। यह सामाजिक जीवन का धीरे-धीरे किया गया विकास है इसके अनुसार राज्य के विकास में कई तत्व जैसे कि रक्त संबंध धर्म शक्ति राजनीतिक चेतना आर्थिक आधार का योगदान है पर आज सबके हित साधन के रूप में विकसित हुआ। ऐसा राज्य क्या कोई उत्पाद वस्तु हो सकता है? जिसके विकास के लिए ब्रांडिंग की जाए?

       शौचालय, और स्वच्छता की ब्राडिंग किया जाना और इसके लिए ब्रांड एम्बेसडर्स को अनुबंधित किया जाना बाजारवाद का ही एक आधुनिक रूप है। बाज़ारवाद वह मत या विचारधारा जिसमें जीवन से संबंधित हर वस्तु का मूल्यांकन केवल व्यक्तिगत लाभ या मुनाफ़े की दृष्टि से ही किया किया जाता है। मुनाफ़ा केंद्रित तंत्र को स्थापित करने वाली यह विचारधारा; हर वस्तु या विचार को उत्पाद समझकर बिकाऊ बना देने की विचारधारा है। बाजारवाद में व्यक्ति उपभोक्ता बनकर रह जाता है, पैसे के लिए पागल बन बैठता है, बाजारवाद समाज को भी नियंत्रण में कर लेता है, सामाजिक मूल्य टूट जाते हैं। बाजारवाद में संस्कृति भी एक सांस्कृतिक पैकेज होती है। इस पैकेज में उपभोक्ता टॉयलेट पेपर इस्तेमाल करता है, वह एयर कंडीशनर में ही सोना पसन्द करता है, एसी कोच में यात्रा करता है, बोतलबंद पानी साथ लेकर चलता है घर में आरो लगवाता है, एयर प्यूरीफायर लगवाता है। इस संस्कृति के चलते लौह उत्खनन से लेकर बिजली, कांच और ट्रांसपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यही सच है कि बाजारवाद परंपरागत सामाजिक मूल्यों को भी तोड़ता है।

    जीवनस्तर में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक सुखों के पीछे भागता है। उसकी इसी प्रवृत्ति को बाज़ार अपना हथियार बनाता है। यदि बाजार का स्वच्छता से नुकसान हो रहा है तो वह स्वच्छता को क्यों बढ़ने देगा? पीने का पानी गंदा मिलेगा तो इंसान वाटर प्यूरी फायर लेगा, हवा प्रदूषित मिलेगी तो वह एयर प्यूरी फायर लेगा। इस तरह प्यूरी फायर्स का बाज़ार फलेगा-फूलेगा। इस बाजार में बेशक नौकरियां भी मिलेंगी लेकिन नौकरियों के अनुपात में प्रदूषित वातावरण अधिक रहेगा और सेहत पर निरंतर चोट करता रहेगा। तो इसका खामियाजा भी तो हमें ही भुगतना होगा। स्वच्छता बनाए रखना एक नागरिक कत्र्तव्य है और एक इंसानी पहचान है। यदि इसके लिए भी ब्रांडिंग की जरूरत पड़े तो वह कत्र्तव्य या पहचान कहां रह जाता है? वह तो एक उत्पाद वस्तु है और जिसके पास धन है वह उसे प्राप्त कर सकता है, जिसके पास धन की कमी है वह स्वच्छता मिशन के बड़े-बड़े होर्डिंग्स के नीचे भी सोने-बैठने की जगह हासिल नहीं कर पाता है।

भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ का सीधा संबंध हमारी मानवीय भावना और संवेदनशीलता से है। यह भावना हमारे भीतर स्वतः जाग्रत चाहिए अथवा सरकार जो इन अभियानों की दिशा में प्रोत्साहनकारी कार्य करती है उन्हें संचालित होते रहना चाहिए। जब बात आती है इन विषयों के ब्रांड एम्बेसडर्स की तो फिर प्रश्न उठता है कि क्या बेटियां उपभोक्ता उत्पाद वस्तु हैं या फिर भ्रूण की सुरक्षा के प्रति हमारी संवेदनाएं महज विज्ञापन हैं। आज जो देश में महिलाओं के विरुद्ध आए दिन आपराधिक घटनाएं बढ़ रही हैं तथा संवेदना का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि जाने-अनजाने हमारी तमाम कोमल संवेदनाएं बाजार के हाथों गिरवी होती जा रही हैं।
      बात उत्पादन की बिक्री की हो तो उचित है किन्तु बाजार से हो कर गुजरने वाले कत्र्तव्यों में दिखावा अधिक होगा और सच्चाई कम। ब्रांड एम्बेसडर अनुबंधित करने के पीछे यही धारणा काम करती है कि जितना बड़ा अभिनेता या लोकप्रिय ब्रांड एम्बेसडर होगा उतना ही कम्पनी को आय कमाने में मदद मिलती है क्योंकि लोग वह सामान खरीदेंगे। अमूमन जितना बड़ा ब्रांड होता है उतना ही महंगा या उतना ही लोकप्रिय व्यक्ति ब्रांड एम्बेसडर बनाया जाता है क्योंकि बड़ा ब्रांड अधिक पैसे दे सकता है जबकि छोटा ब्रांड कम। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो ब्रांड का प्रतिनिधित्व करता है, उसकी फीस करोड़ों में होती है। एक तो अगर जनता उस व्यक्ति को अगर रोल मॉडल मानती है तो ऐसे में ब्रांड का लोगो के दिलों में जगह बनाना आसान हो जाता है।
      ब्रांडिंग की छोटी इकाईयां भी हैं। राष्ट्र स्तर पर ब्रांड एम्बेस्डर होते हैं। फिर राज्य स्तर पर ब्रांड एम्बेस्डर होते हैं। इसके बाद शहरों के भी अलग-अलग ब्रांड एम्बेस्डर होते हैं। आगे चल कर गली-मोहल्ले के स्तर पर भी ब्रांड एम्बेस्डर होने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि नागरिक हितों की सरकारी योजनाएं भी आज ब्रांड में ढल चुकी हैं। ऐसे ब्रांड में जिसका कोई खुला बाज़ार नहीं है और कोई प्रतिद्वंद्विता है। उदाहरण के लिए स्वच्छता मिशन को ही लें। अपने शहर को स्वच्छ रखना नागरिेक कर्तव्य है। इसके लिए नागरिकों को सफाई-मित्र उपलब्ध कराना, कचरा-कलेक्शन गाड़ियां चलाना, होर्डिंग्स लगवाना तथा दंड स्वरूप हर्जाना वसूलना पर्याप्त है। इसके लिए करोड़ों रुपये खर्च कर के किसी सेलीब्रटी को ब्रांड एम्बेस्डर बनाना क्यों जरूरी है? यदि देश का प्रधानमंत्री या राज्य का मुख्य मंत्री शहर में स्वच्छता बनाए रखने की अपील करता है तो क्या इतना पर्याप्त नहीं है? क्या स्वच्छता एक ब्रांड हो सकता है? क्या स्वच्छता को कोई ऐसा बाज़ार है जहां उसका कोई प्रतिद्वंद्वी ब्रांड मौजूद हो जिससे उसे टक्कर लेनी हो? बेशक, झाडू की ब्रांडिंग हो सकती है, डस्टपैन की ब्रांडिंग हो सकती है, फिनायल तथा अन्य स्वच्छता बनाने में उपयोगी वस्तुओं की ब्रांडिंग हो सकती है, मगर स्वच्छता मिशन की ब्रांडिंग? यही तो बाज़ारवाद है जिसके चलते हम निर्जीव वस्तुओं एवं भावनाओं में अंतर को भुलाते जा रहे हैं और इस पर आपत्ति नहीं करते हैं कि एक विख्यात अभिनेता या खिलाड़ी हमें सिखाता है कि हमें शौच के बाद हाथ धोना चाहिए। आखिर हम सभ्यता के किस चरण में विचरण कर रहे हैं कि जहां शौच के बाद हाथ धोने की प्रक्रिया भी एक ब्रांड है।      
 
     यदि राज्य एक ब्रांड है, बेटी बचाओ एक ब्रांड है, स्वच्छता मिशन एक ब्रांड है, शौचालय का उपयोग एक ब्रांड है, निर्मलजल एक ब्रांड है और अतुल्य भारत अभियान एक ब्रांड है तो हम अपने युवाओं से राष्ट्रप्रेम की आशा रखें अथवा बाज़ारवाद की? यदि राष्ट्र और मानवता के प्रति भावनाएं एवं कर्तव्य भी ब्रांड बन कर प्रचारित होने का समय हमने ओढ़ लिया है जो भारतीय विचार संस्कृति के मानक पर यह ब्रांडिंग कहां सही बैठती है, यह भी विचारणीय है। हमारी भारतीय संस्कृति स्वजागृति पर आधारित है लेकिन हम वहां पहुच गए हैं जहां जागते हुए भी जगाए जाने की प्रतीक्षा करने लगे हैं।    
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Tuesday, April 30, 2024

पुस्तक समीक्षा | बेगम समरू का सच : इतिहास की रोचक औपन्यासिक प्रस्तुति | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 30.04.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई राजगोपाल सिंह वर्मा जी के उपन्यास  "बेगम समरू का सच" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा       
बेगम समरू का सच : इतिहास की रोचक औपन्यासिक प्रस्तुति
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - बेगम समरू का सच
लेखक - राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक - संवाद प्रकाशन, आई-499, शास्त्री नगर, मेरठ - 250004 (उप्र)
मूल्य  - 300/-
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‘‘बेगम समरू का सच’’ पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार से सम्मानित लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा द्वारा लिखी गई औपन्यासिक जीवनी है। एक ऐसी बेगम की जीवनी जिसे इतिहास ने लगभग भुला दिया। जबकि वह एक नाटकीय जीवन जीती हुई सबसे ताकतवर बेगम साबित हुई थी। यूं तो वह सरधना की रानी थी लेकिन उसने अपनी सियासी चतुराई से सन 1778 से 1836 तक मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना से अलीगढ़ के टप्पल तक राज किया। इस शक्तिसम्पन्न बेगम का नाम था बेगम समरू। पुरानी दिल्ली के भगीरथ पैलेस में जहां आज स्टेट बैंक की की शाखा है, कभी वह भगीरथ पैलेस बेगम समरू का महल हुआ करता था। बेगम समरू की अपनी सेना थी और अपना साम्राज्य था। बेगम समरू किसी शाही खानदान से नहीं थी। वह एक ऐसे परिवार में जन्मी थी जहां उसका पिता उसकी मां की सौत ले आया और पिता की मृत्यु के बाद सौतेले भाई ने मां-बेटी दोनों को धक्के मार कर घर से निकाल दिया। निराश्रित मां-बेटी ठोंकरें खाती दिल्ली पहुंचीं। वहां उन्हें जिसने सहारा दिया वह उस समय दिल्ली की सबसे बड़ी तवायफ हुआ करती थी। बेगम समरू जिसका मूल नाम फरजाना था, परिस्थितिवश एक तवायफ बन गई। एक तवायफ बेगम के सम्मानित ओहदे तक कैसे पहुंची और कैसे उसने एक ताकतवर बेगम बन कर अपना जीवन जिया, यह सब कुछ लेखबद्ध किया है लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने अपने इस औपन्यासिक जीवनी पुस्तक ‘‘बेगम समरू का सच’’ में।

इतिहास पर आधारित किसी भी विधा की पुस्तक लिखना अपने आप में एक चुनौती भरा काम होता है। इस प्रकार का लेखन अथक श्रम और अटूट धैर्य मांगता है। यूं भी सच की गहराइयों की थाह लेने वही व्यक्ति अतीत के सागर में उतर सकता है जिसमें मेहनत का माद्दा हो और जो तब तक डुबकियां लगाता रहे जब तक कि पूरी सच्चाई उसे हासिल न हो जाए। यही कारण है कि इतिहास आधारित लेखन के क्षेत्र में कम ही लोग प्रवृ्त्त होते हैं। इस प्रकार के लेखन में गहन शोध आवश्यक होता है। हर प्रकार के साक्ष्य ढूंढने और परखने पड़ते हैं। फिर उन्हें लिपिबद्ध करते समय सावधानी बरतनी पड़ती है कि उसमें कल्पना का उतना ही समावेश हो जितने में यथार्थ पर आंच न आए। जिन्होंने भी इतिहास को आधार बना कर साहित्य सृजन किया और उसमें कोताही बरती है, उन्हें कभी न कभी समय के कटघरे में स्वयं भी खड़े होना पड़ा है। इतिहास और समय दोनों ही कठोर होते हैं।
‘‘बेगम समरू का सच’’ की प्रस्तावना ‘‘अमर उजाला’’ और ‘‘जनसत्ता’’ के पूर्व संपादक शंभुनाथ शुक्ल ने लिखी है। उन्होंने बड़े ही तार्किक ढंग से वृंदावन लाल वर्मा और अमृत लाल नागर को कटघरे में खड़ा किया है। उन्होंने लिखा है कि -‘‘बाबू वृंदावनलाल वर्मा और पंडित अमृतलाल नागर ने तमाम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यास लिखे हैं, लेकिन उनमें इतिहास कम उनकी लेखनी का कमाल ज्यादा दिखता है। यहां तक, कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर आधारित उपन्यास लिखते हुए भी वे बहक गए प्रतीत होते हैं। जबकि जब उन्होंने वह उपन्यास लिखा था, तब तक रानी को रू-ब-रू देखने वाले लोग भी मौजूद थे पर उन्होंने सच्चाई को नहीं, अपनी श्रद्धा को ही अपने उपन्यास का आधार बनाया। नतीजा यह निकला, कि उनका रानी लक्ष्मीबाई पर लिखा उपन्यास महज एक फिक्शन साबित हुआ। उसकी ऐतिहासिकता को कोई नहीं मानता। वे अगर विष्णु भट्ट गोडसे का ‘माझा प्रवास’ ही पढ़ लेते तो भी रानी के बारे में एक अधिकृत उपन्यास लिख सकते थे। उन्हें सागर छावनी के खरीते पढने थे। लेविस और ह्यूरोज के बयान भी, पर ऐसा कुछ उन्होंने नहीं किया। इसी तरह पंडित अमृतलाल नागर ने भी ऐतिहासिक उपन्यासों पर अपनी कल्पना को ज्यादा ऊपर रखा है। ‘गदर के फूल’ में इसकी बानगी देखने को मिलती है।’’ वहीं वे महाश्वेता देवी की प्रशंसा भी करते हैं कि ‘‘जबकि इनके विपरीत बांग्ला की कथा लेखिका महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में रानी के साथ ज्यादा न्याय करती दिखती हैं। वे इतिहास को तथ्यों के साथ लिखती हैं। बस वह साहित्य की शैली में लिखा जाता है, ताकि पाठक खुद को भी उपन्यास से बांधे रखे।’’

यहां पुस्तक की विषयवस्तु के साथ पाठक को ‘‘बांधे रखना’’ भी एक चुनौती है। यदि पुस्तक में इतिहास लेखन की सपाट बयानी होगी तो साहित्य पढ़ने के विचार से पुस्तक खोलने वाला व्यक्ति दो पृष्ठ पढ़ कर ही उसे एक ओर रख देगा। वहीं यदि इतिहास के तथ्यों को दबा कर कल्पना को प्रभावी कर दिया जाएगा तो पुस्तक की विषयवस्तु रोचक तो लगेगी लेकिन एक मामूली फिक्शन की भांति शीघ्र विस्मृत होने लगेगी। पाठक के लिए इस पर भरोसा करना कठिन हो जाएगा कि ऐसा व्यक्ति वस्तुतः था भी या नहीं? अतः आवश्यक हो जाता है कि इतिहास के तथ्यों एवं कल्पना के प्रतिशत में ऐसा संतुलन रखा जाए कि पढ़ने वाला उस सच को तन्मय हो कर पढ़े और जब आंख मूंदें तो अपने कल्पनालोक में पुस्तक के पात्रों को विचरण करता हुआ पाए, बिलकुल खांटी यथार्थ की भांति। लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू के जीवन के सच को लिखते हुए इस संतुलन को बखूबी बनाए रखा है। इस औपन्यासिक जीवनी का आरम्भ चावड़ी बाज़ार के कोठे के दृश्य से होता है। लेखक ने कल्पना की है कि उस समय वहां का दृश्य कैसा रहा होगा। यह कल्पना तत्कालीन यथार्थ से जोड़ने के लिए आवश्यक तत्व है जिसे ‘‘हुकअप’’ करना कहते हैं। जब कोई पाठक पढ़ना प्रारम्भ करेगा तो उसकी पुस्तक की विषयवस्तु के प्रति दिलचस्पी शुरू के चंद पन्नों से ही जागेगी। फिर जब एक बार वह रुचि ले कर, जिज्ञासु हो कर पढ़ना आरम्भ कर देगा तो, पूरी पुस्तक पढ़ कर ही थमेगा। यह लेखन कौशल अपना कर राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू की जीवनी को रोचक एवं पठनीय ढंग से प्रस्तुत किया है। सम्पूर्ण कथानक को कुल 33 अध्यायों में रखा है। जैसे- 1.रंगमंच सारीखा परिदृश्य, 2.काल, समय और उद्भव, 3.तत्कालीन इलाके की सामाजिक और भौगोलिक स्थितियां 4.सफर फरजाना का 5.कौन था रेन्हार्ट सोंब्रे उर्फ समरू साहब 6.रेन्हार्ट सोंब्रे की यह कैसी थी मोहब्बत 7.एक नया उजाला था वह आदि। यहां अध्यायों का नामकरण करने में लेखक से एक छोटी-सी चूक हुई है। अर्थात् जिस तरह उन्होंने प्रथम अध्याय ही पूरी रोचकता के साथ आरम्भ किया है वहीं, प्रथम अध्याय से पूर्व दिए गए अध्यायों के अनुक्रम में ‘‘काल, समय और उद्भव’’ तथा ‘‘तत्कालीन इलाके की सामाजिक और भौगोलिक स्थितियां’’ जैसे शीर्षक दे कर किसी शोधग्रंथ के होने का आभास करा दिया है। यद्यपि शेष शीर्षक रोचक एवं जिज्ञासा जगाने वाले हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक ने अथक श्रम करके वे एक-एक दस्तावेज और तथ्य जुटाए जिससे बेगम समरू के जीवन की सही एवं सटीक तस्वीर सामने आ सके। उनका यह श्रम प्रशंसनीय है। यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि लेखन ने इतिहास के पन्नों से जिस वास्तविक पात्र को उठाया, उसके साथ पूरा न्याय किया। इस पुस्तक को लिखने के लिए राजगोपाल सिंह वर्मा ने भारतीय, ब्रिटिश, फ्रेंच के दस्तावेजों से उन सभी सामग्रियों को जुटाया जिनमें बेगम समरू के बारे में जानकारी थी। फिर भारतीय अनुवादकों, लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा बेगम समरू के बारे में लिखी गई तमाम सामग्रियों का तुलनात्मक अध्ययन किया। वे किसी एक सोर्स (स्रोत) पर नहीं रुके, अपितु उन्होंने बेगम समरू के नाम से ले कर सरधना के नाम तक के लिए अनेक सोर्स खंगाल डाले। जैसा कि उन्होंने पुस्तक के अंतिम पृष्ठों में दिए गए परिशिष्ट में लिखा है- ‘‘माइकल नारन्युल को एक अच्छा फ्रेंच लेखक माना जाता है। अगर वह बेगम को एक वेश्या कहते हैं, तो उनके लेखन को नाच-गर्ल और एक वेश्या में अंतर न समझने की भूल मात्र नहीं माना जा सकती है। अतिरिक्त रूप से, जब रणजीत सिन्हा जैसा विद्वान उसका हुबहू अनुवाद कर, यह भूल सुधार कर प्रस्तुत करने की कोशिश न करे, तो कष्ट होता है। यह वह रणजीत सिन्हा हैं जिन्होंने ‘द देल्ही ऑफ सुलतान’, ‘लोदी गार्डन’ के अलावा तमाम यात्रा-वृत्तांत लिखे हैं। वह फ्रेंच में पीएच डी हैं और भाषा तथा शब्दों की पेचीदगियों से अच्छे से वाकिफ हैं। पर, दोष उनका इतना नहीं है, जितना मूल लेखक का है। अभिलेखागारों में जब हम इतिहास के पन्नों को पलटते हैं, तो फरजाना, उर्फ जेबुन्निसा उर्फ बेगम समरू उर्फ जोहाना नोबिलिस को कहीं भी एक वेश्या के रूप में नहीं बताया गया है। नृत्य कर महफिल सजाना, और उसके लिए पैसे वसूलना, ‘नाच-गर्ल’ के रूप में तब भी जायज था। आज भी है। वह कोई देह व्यापार नहीं था। उस कला का सम्मान तब भी किया जाता था और आज भी। ऐसे में उस कला में रत महिला को नर्तकी के स्थान पर श्वेश्याश् कहना अनुचित और अन्यायपूर्ण है। ऐसा लिखने की जरूरत क्यूं आ पड़ी, समझ से परे भी है! सरधना और फरजाना के इतिहास में यह तथ्य भली-भांति परिभाषित है कि फरजाना को ‘नाच-गर्ल’ किस मजबूरी में बनना पडा।’’
यह एक ऐसी औपन्यासिक जीवनी है जिसे पढ़ कर उस महिला के व्यक्तित्व के बारे में जाना जा सकता है जो अंग्रेजों के समय निडरता से अपनी सत्ता चलाती रही। मुगल बादशाह शाहआलम भी जिसकी योग्यता को स्वीकार करता था। उसका जीवन तवायफ के रूप में शुरू हुआ किन्तु वह मृत्यु को प्राप्त हुई एक ताकतवर रानी के रूप में। जिसे इतिहासकारों ने भी उपेक्षित रखा, ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के जीवन के सच को सामने ला कर लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने सचमुच एक उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण कार्य किया है। लेखक ने इसे ‘उपन्यास’ कहा है, वहीं प्रकाशक ने इसे ‘जीवनी’ के अंतर्गत प्रकाशित किया है। यूं भी इस उपन्यास में एक बेगम की जीवनी ही है अतः इसे औपन्यासिक जीवनी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। यदि इस पुस्तक की लेखन शैली की बात की जाए तो इसे उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो ऐतिहासिक व्यक्तियों, तथ्यों एवं प्रसंगों पर उपन्यास अथवा जीवनी लिखना चाहते हैं। यह पुस्तक हर पाठक को इतिहास से जोड़ने में सक्षम है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।           
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Saturday, April 27, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | सबरी बिटियन की बरहमेस जै हो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
सबरी बिटियन की बरहमेस जै हो !
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    जोन दिनां दसमीं औ बारमीं बोर्ड परिच्छा को रिजल्ट आओ, ऊ दिनां से सबरे बिटयन की जयकारे कर रये। औ करो बी चाइए। ई साल दसमीं औ बारमीं को रिजल्ट ने फेर के दिखा दओ के बिटियां पढ़बे में सबसे आगे रैत आएं। ऊमें भौत सी बिटियां तो अपनी मताई के संगे घर के काम में हाथ सोई बंटाऊत आएं। अच्छे नंबरन से पास होबे वारी सबरी बिटियां ऐसी नोईं के उने पढ़बे की भौत सुविदा मिलत हो। मेरिट में आबे वारी एक मोड़ी तो छोटे से गांव की आए। उते तो ज्यादा सुविदा बी नईं, फेर बी ऊने जम के मेहनत करी औ ऊने दिखा दओ के कोनऊं परेसानी ऊको मेरिट में आबे से ने रोक पाई।
   आज के जमाने में जो कोनऊं बिटिया पैदा होबे पे अंसुआ ढारत आए, तो ऊ टेम पे जोई जी करत आए के ऊको जम के लपरया दओ जाए। औ ऊसे कओ जाए के अरे मूरख, बेटा औ बिटिया दोई बरोबर होत आएं। मोय तो आज लौं जे समझ ने आई के बिटियन खों बेटों से कम काय मान लओ जात आए? बिटियां कोनऊं से कम नईं होत। आजकाल तो सबई फील्ड में बिटियां अपनी काबीलियत के झंडे गाड़ रईं। चाए फौज होय, चाए पुलिस होय, चाए इंजीनियर, डॉक्टर हों, चाए राजनीति होय, चाए पत्रकारिता होय, बे कऊं पीछे नोईं। सो, अब तो जे भरम उतार फेंको चाइए के बिटियां कमजोर होत आएं। जो मताई-बाप बिटयन को साथ देत रैहें, सो बे ऐसई सबसे आंगू रैहें। सो, सबरी बिटयन की बरहमेस जै हो!   
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Friday, April 26, 2024

शून्यकाल | छोटे बजट की फिल्मों में होती हैं अकसर बड़ी गहरी बातें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
छोटे बजट की फिल्मों में होती हैं अकसर बड़ी गहरी बातें
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          यह जरूरी नहीं है कि बड़े बजट की बड़े और मशहूर कलाकारों वाली फिल्में अच्छी ही हों। अन्यथा ऐसी कई फिल्में तमाम प्रचार-प्रसार के बाद भी फ्लाॅप क्यों होतीं? वहीं छोटे बजट की, सामान्य-से दिखने वाले हीरो-हिरोईन वाली कई फिल्में बाॅक्स आॅफिस का मुंह भले ही ने देख पाएं तथा ज्यादा दर्शक भले ही हासिल न कर पाएं लेकिन अपने दर्शकों के दिलों पर छाप छोड़ जाती हैं क्योंकि इनमें गहरा सामाजिक सरोकार होता है। सामानांतर फिल्मों के दौर में ऐसी फिल्मों की सत्ता थी, पर आज ऐसी फिल्में हाशिए पर हैं।
  पिछले दिनों टीवी चैनल पर एक फिल्म देखी। उसका नाम था ‘‘पपी’’। फिल्म की शुरूआत में मुझे लगा कि यह फिल्म शायद पालतू कुत्तों को ले कर होगी और साथ में कोई सामान्य-सी प्रेम कहानी चलेगी। वस्तुतः यह तमिल फिल्म थी, हिन्दी में डब की हुई। फिल्म का निर्देशन किया था नट्टू देव ने और फिल्म का निर्माण ईशारी के. गणेश ने किया था। फिल्म पुरानी थी, 2019 की रिलीज़। वरुण कमल, संयुक्ता हेगड़े और योगी बाबू द्वारा अभिनीत इस फिल्म का पहले कभी नाम भी नहीं सुना था। यदि यही फिल्म बड़े निर्माता-निर्देशक की होती और इसमें नामचीन कलाकार होते तो तमिल फिल्म होते हुए भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी इसका भरपूर प्रचार किया गया होता। कहानी बिलकुल सामान्य ढंग से शुरू होती है। फिल्म का युवा हीरो प्रभु जो काॅलेज के अंतिम वर्ष में अध्ययनरत है, उसने एक डाॅगी पाल रखी है। वह अपनी उस डाॅगी का बहुत ख़्याल रखता है। इस बीच उसके घर एक किराएदार रहने आते हैं जिनकी बेटी रम्या के प्रति वह आकर्षित होता है। जल्दी ही दोनों की दोस्ती हो जाती है। यह दोस्ती प्रेम में परिवर्तित हो जाती है। एक समय ऐसा आता है जब प्रभु की जिद पर प्रभु और रम्या सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। परिणामस्वरूप रम्या गर्भवती हो जाती है। प्रभु अपने पिता से इतना अधिक डरता था कि वह उनसे रम्या के साथ अपने रिश्ते की बात करने का साहस ही नहीं कर पाता है। वह रम्या को गर्भपात कराने के लिए बाध्य करता है। रम्या नहीं चाहती है किन्तु प्रभु उससे कहता है कि यदि तुम गर्भपात नहीं कराओगी तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी और हमारा संबंध खत्म समझो। रम्या न चाहते हुए भी प्रभु की बात मान कर अस्पताल जाने को तैयार हो जाती है। इसी दौरान प्रभु की डाॅगी की तबीयत खराब हो जाती है। प्रभु घबरा जाता है और अपनी डाॅगी को गोद में उठा कर बदहवास-सा घर के बाहर निकलता है कि कोई वाहन मिल जाए तो वह डाॅगी को अस्पताल ले जाए। इतने में उसके माता-पिता कार से कहीं से लौटते हैं। वह अपने पिता को डाॅगी की दशा के बारे में बताता है और अपने माता-पिता के साथ अपनी डाॅगी को ले कर पशुअस्पताल पहुंचता है। जब तक डाॅक्टर नहीं आ जाते हैं तब तक वह उज्ञॅगी को अपनी बांहों में उठाए-उठाए अस्पताल में यहां से वहां बदहवास-सा भागता फिरता है। डाॅक्टर आ कर प्रभु की डाॅगी की जांच करता है और बताता है कि घबराने की बात नहीं है, वह गर्भवती है इसलिए उसकी तबीयत बिगड़ी थी। यह सुन कर प्रभु को जान में जान आती है। तभी उसे दो लोगों की आपस की बात सुनाई देती है कि आजकल पपी की कीमत आठ-दस हजार से कम नहीं रहती है। वह बहुत खुश हो जाता है। उसका एक दोस्त है जो उसके हर कदम पर उसका साथ दे रहा था। उस दोस्त से मिल कर वह पपी बेच कर पैसे कमाने की योजनाएं बनाने लगता है। जिस दिन डाॅगी की डिलेवरी होनी थी ठीक उसी दिन रम्या को गर्भपात कराने जाना था। डिलेवरी से पहले डाॅगी की तबीयत एक बार फिर बिगड़ जाती है तो प्रभु उसे ले कर फिर अस्पताल भागता है। उसे रम्या के साथ जाना जरूरी नहीं लगता। गोया रम्या गर्भवती हुई तो यह सिर्फ उसकी जिम्मेदारी थी। रम्या के दुख-कष्ट से प्रभु का मानो कोई सरोकार नहीं था। प्रभु जब अपनी डाॅगी को ले कर अस्पलात पहुंचता है तो डाॅक्टर बताता है कि कुछ काम्प्लीकेशन्स हैं। प्रभु को लगता है कि उसने अपनी डाॅगी को खो दिया और वह रोने लगता है। तभी नर्स उसे आॅपरेशन थियेटर ले जाती है जहां डाॅगी इस तरह पड़ी थी मानो मर चुकी हो। प्रभु के दुख का कोई ठिकाना नहीं रहता है। वह डाॅगी को गले लगाता है। तभी डाॅगी आंखें खोल देती है। फिर प्रभु का ध्यान जाता है उन नन्हें पपीज़ पर जो अपनी मां से चिपटे दूध पी रहे थे। यानी डाॅगी और पपीज़ सभी जिन्दा थे। उसी क्षण प्रभु को अहसास होता है अपने उस व्यवहार का, जो उसने रम्या के साथ किया था। वह रम्या से मिलने उस अस्पताल की ओर भागता है जहां रम्या को गर्भपात कराना था। वहां रम्या उसे बाहर मिलती है और बताती है कि वह गर्भवती नहीं थी बल्कि जंकफूड और फास्ट फूड खाने के कारण उसके पीरियड्स में कोई गड़बड़ी आ गई थी। अब सब ठीक है। लेकिन तब तक प्रभु की आंखें खुल चुकी थीं। वह रम्या से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगता है।

इस फिल्म की कहानी इतना गंभीर मोड़ लेगी, यह फिल्म की शुरूआत में नहीं लगता है। कहानी ने न केवल गंभीर मोड़ लिया बल्कि एक ऐसा संदेश भी दिया जो उन लोगों के लिए तमाचे के समान था जो प्रेम में दैहिक संबंधों तक बढ़ जाते हैं और फिर सब कुछ लड़की पर डाल कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसे संबंधों को ले कर ‘‘धूल का फूल’’, ‘‘आराधना’’ जैसी बड़े स्टारर की मशहूर फिल्में बन चुकी हैं। उनमें हीरो दोषी नहीं रहा किन्तु विवाहपूर्व दैहिक संबंधों के दुष्परिणाम जरूर दिखाए गए। देखा जाए तो उन सब में लड़कियों के लिए ही सबक था। ऐसी कई फिल्में रहीं जिनमें हीरो की बहन के साथ ज्यादती की गई और ‘‘मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रही’’ कह कर उसने आत्महत्या कर ली। खुद फिल्मवालों ने इस परम्परा को धीरे-धीरे खत्म किया और यह स्थापित किया कि प्रेम या बलात संबंधों के बाद लड़की द्वारा आत्महत्या करना कोई हल नहीं है। लेकिन ‘‘पपी’’ तरह की संवेदनशील फिल्म या कहना चाहिए कि अपने आप में अनूठी भारतीय फिल्म कम से कम मैंने तो इससे पहले नहीं देखी। जिसमें बड़े सलीके से इस बात को सामने रखा गया है कि प्रेम का दम भरने वाले युवा के लिए उसकी प्रेमिका उसकी डाॅगी से भी कम महत्व रखती है जबकि वह उसके कारण ही गर्भवती होने की स्थिति में पहुंची थी। यह बहुत बड़ा विचार बिन्दु है। यह इस बात से भी आगाह करता है कि अपनी डाॅगी के लिए एक लड़का अपने पिता से खुल कर सहायता मांग सकता है लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए नहीं, जबकि उसकी दशा के लिए वह बराबर का जिम्मेदार है। 
फिल्म ‘‘पपी’’ को देखते हुए मुझे लगा कि छोटे बजट की ये फिल्में कितनी गहराई लिए हुए होती हैं। ये सीधे सामाजिक मुद्दों और मानसिक समस्याओं पर दस्तक देती हैं। हिन्दी में ऐसी फिल्में समानान्तर फिल्मों के दौर में बना करती थीं और उनमें सबसे ऊपर नाम था बासु चटर्जी का। बासु चटर्जी ने ‘‘रजनीगंधा’’, ‘‘छोटी सी बात’’ ‘‘खट्टा-मीठा’’, ‘‘बातों बातों में’’, ‘‘शौकीन’’ जैसी छोटे बजट की बड़ी फिल्में बनाईं। आम जीवन को छूने वाली ये फिल्में बेहद सफल हुईं। जिन्होंने ‘‘रजनीगंधा’’ देखी होगी, वे समझ सकते हैं कि कितनी सुंदर और सहज फिल्म थी। प्रेम के वास्तविक स्वरूप को बखूबी परिभाषित करती थी। इसी तरह ‘‘छोटी-सी बात’’ हंसी-मजाक में वह बात समझा गई थी कि युवक का हीरो टाईप बना-ठना होना ही युवती के लिए प्रेम का आधार नहीं होता है बल्कि प्रेम का आधार होता है युवक की सच्चाई और युवती की भावनाओं का सम्मान करना। इस फिल्म में अमोल पालेकर एक ऐसे युवा के किरदार में था जो अपने सहकर्मी असरानी के हीरो टाईप एटीट्यूड के कारण हीनभावना का शिकार था। वह नायिका विद्या सिंन्हा से प्रेम करता है किन्तु हीनभावना के कारण अपना प्रेम प्रकट नहीं कर पाता। फिर वह एक विज्ञापन पढ़ कर पर्सनालिटी ग्रूमिंग के लिए अशोक कुमार के पास पहुंचता है। अशोक कुमार उसे अपनी किताब में लिखे कुछ नुुस्खे बताता है। अमोल पालेकर वहां से लौट कर वे घटिया टाईप के नुस्खे विद्या सिन्हा पर आजमाने का प्रयास करता है। असरानी के द्वारा विद्या सिन्हा को यह पहले ही पता चल चुका था। बात बिगड़ जाती इसके पहले ही अमोल पालेकर को अहसास हो जाता है कि वह कितनी बड़ी गलती करने जा रहा है। लिहाजा मामला बिगड़ते-बिगड़ते सम्हल जाता है। यानी जो बातें करोड़ों के बजट वाली फिल्में नहीं बताती हैं वह बातें इन छोटे बजट की छोटी-छोटी फिल्मों में बड़ी गंभीरता, सहजता, सादगी और खिलंदड़ेपन से कह दी जाती हैं। इन फिल्मों में न हिंसा होती है और न अश्लीलता, फिर भी ये फिल्में दर्शकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ती हैं। 
‘‘पपी’’ जैसी फिल्में बाॅलीवुड भी बना सकता है लेकिन उसे हाॅलीवुड की मार-धाड़ की काॅपी और रीमेक से फुर्सत नहीं है। कभी-कभार भूले-भटके कोई फिल्म आ भी जाती है तो न उस पर फिल्म समीक्षक ध्यान देते हैं और न वितरक। वह जिस ख़ामोशी से आती है उसी ख़मोशी से चली जाती है। यदि सौभाग्य रहा तो किसी विदेशी फिल्म फेस्टिवल तक पहुंच जाती है, तब उस पर लोगों का हल्का सा ध्यान जाता है। अन्यथा ऐसी फिल्में तमाम मूल्यवत्ता रखते हुए भी हाशिए में पड़ी दम तोड़ती रहती हैं, जबकि ऐसी फिल्मों की आज समाज को सबसे अधिक जरूरत है।
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