Saturday, November 23, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | जे जज़्बा जारी राखने जौं लौं ‘भारत रत्न’ ने मिले | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
जे जज़्बा जारी राखने जौं लौं ‘भारत रत्न’ ने मिले
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        हमाए बड़े जब हमाए लाने कछू करत हैं, सो बे जे नई सोचत के ऊके बदले उनको कछू मिले। बे तो बस जेई चात आएं के उनके परिवार वारन खों सबकछू मिले औ बे अच्छी जिनगी जिएं। अपने गौर बब्बा मने डॉ हरीसिंह गौर जू ने बी जेई सोची औ इते विश्वविद्यालय खुलवा दओ। बे चात्ते के जोन बिचारे बाहरे जा के आगे की पढ़ाई नईं पढ़ सकत, उन सबई खों इतई सागर मे औ ऊंची पढ़ाई पढ़बे खों मिले। उन्ने नओ-नओ बिषय इते लाओ। एक बिषय रओ एप्लाइड जियोलॉजी, जोन के लाने बे प्रो. डब्ल्यू डी. वेस्ट खों लंदन से इते ल्याये। उन्ने विशवविद्यालय अपने नांव नहीं करो बल्कि अपनी जायदाद विश्वविद्यालय बनाबे के लाने दे दई। आज के जमाना में कोऊ के लाने इत्तो को आ सोच रओ? उन्ने जो करो बिना स्वारथ के करो। जो कछू स्वारथ हतो तो मनो इत्तो सो के इते के लोग कछू अच्छे से पढ़-जाएं।
      मनो इते अपन ओरन ने का करो के अबे लौं उने “भारत रत्न” ने दिला पाए। जबके उन्ने अपन ओरन के लाने अपनो सब कछू दे दओ। औ अपन ओरें “भारत रत्न” के नांव पे बर्रयात रये। चलो, जो अलाली भई, सो भई! मनो अबकी बेर जो अपन ओरें मांग कर रये, बा तब लौं ने रुके जब लौं अपने गौर बब्बा के लाने “भारत रत्न” की घोषणा ने कर दई जाए। जे नईं होए कि जनम को उत्सव खतम भओ औ सो गए पल्ली ओढ़ के। मने का समझे, के जे जज़्बा जारी राखने जौं लौं ‘भारत रत्न’ ने मिले, अपन खों चुप नईं बैठने औ अपने गौर बब्बा के लाने ‘भारत रत्न’ ले के रैने।
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सच तो ये है कि फोटोग्राफी कैमरे से किसी दृश्य को कैप्चर करना मात्र नहीं होता है - डॉ. शरद सिंह

हार्दिक आभार #नयादौर  🙏
"सच तो ये है कि फोटोग्राफी कैमरे से किसी दृश्य को कैप्चर करना मात्र नहीं होता है": डॉ. शरद सिंह

        आमतौर पर यही माना जाता है कि फोटोग्राफी आज कोई बड़ी बात नहीं रह गई, जब से हर हाथ में एंडरॉयड मोबाईल फोन आ गया है, लेकिन सच तो ये है कि फोटोग्राफी कैमरे से किसी दृश्य को कैप्बर करना मात्र नहीं होता है। इसके पीछे एक विशेष दृष्टिकोण होना जरूरी है। जिसे अकसर हम अंग्रेजी शब्द 'विजन' के रूप में स्वीकार करते हैं। सागर के फोटोग्राफी के इतिहास में पुरुष और महिला फोटोग्राफर्स के नाम आते हैं लेकिन पहली महिला फोटोग्राफर एकल प्रदर्शनी हाल ही में हुई जिसने इस शहर में कला प्रदर्शन का एक नया द्वार खोल दिया। मेरे शहर में यानी मध्यप्रदेश के सागर शहर में पहली बार एक महिला फोटोग्राफर द्वारा खींचे गए छाया चित्रों की एकल प्रदर्शनी का आयोजन हुआ। उनका नाम है सुश्री संध्या सर्वटे। उन्होंने अपने जिन छाया चित्रों को प्रदर्शनी के लिए चुना उनमें नेचर फोटोग्राफ्स थे। चूंकि मैं भी फोटोग्राफी में दिलचस्पी रखती हूं। मेरा खुद का फोटांग्राफी ब्लॉग है जिसका नाम है "क्लिक जिक" और एक फेसबुक पेज भी है "शरद क्लिक टॉक"। नेचर औ लाईफ फोटोग्राफी मेरे शौक से जुड़ी हुई है
       संध्या सरवटे जी की फोटाग्राफी की
एकल प्रदर्शनी मेरे लिए विशेष महत्व रखती थी। वैसे वे मेरी परिचित हैं और उन्होंने समय-समय पर मुझे अपने खींचे कुछ फोटाग्राफ्स भेजे भी हैं जो मुझे बहुत अच्छे लगे थे। लेकिन वे फोटोग्राफी में इतनी अधिक दिलचस्पी रखती हैं इसका अहसास मुझे तब हुआ जब उनकी फोटोग्राफी की एकल प्रदर्शनी की सूचना मुझे मिली। अच्छा लगा यह सोच कर एक महिला ने अपने शौक को प्रदर्शनी के द्वारा दूसरों के लिए एक मार्ग प्रशस्त करने जा रही है। देखा जाए तो आज अमैच्योर फोटोग्राफर सभी हैं लेकिन उसे सार्वजनिक प्रदर्शित करने के बारे में विचार नहीं करते हैं। वैसे एक बात और ध्यान देने की है कि सागर शहर में श्यामलम नामक संस्था एक ऐसी संस्था है जो साहित्य, भाषा, कला और संस्कृक्ति के लिए निरंतर प्लेटफार्म उपलब्ध करा रही है। मूल रूप से इसी संस्था ने संध्या सरवटे को भी प्लेटफार्म दिया, प्रोत्साहन दिया और परिणामस्वरूप उनकी फोटोग्राफी की एकल प्रदर्शनी साकार हुई। फोटोग्राफी के लिए क्या चाहिए? सिर्फ एक अदद कैमरा। नहीं, कुछ समय पहले यह सब कुछ इतना आसान नहीं था। पहले एक कैमरे के साथ एक फोटोग्राफर के स्टूडियो की भी आवश्यकता होती थी जहां से पहले फिल्म रोल खरीदना पड़ता था और फोटो खींचने के बाद उस रोल को ले कर फिर किसी फोटोग्राफर के स्टूडियो पर जाना पड़ता था ताकि उसे धुलवाया और प्रिंट कराया जा सके। कई बार उससे निवेदन करना पड़ता था कि ग्लॉसी पेपर पर प्रिंट करे। शार्प प्रिंट करे। इसके बाद भी कई बार प्रिंट मिलते फूजी कलर में। इससे पहले ब्लैक एंड व्हाईट फोटोग्राफी की दुनिया थी। पहले हर घर में कैमरे भी नहीं होते थे। कैमरा एक विलासिता की वस्तु समझा जाता था। यह स्थिति तब तक रही जब तक डिजिटल कैमरों का अवतरण नहीं हुआ। डिजिटल कैमरों ने फोटोग्राफी की जिंदगी को एक हद तक आसान कर दिया। अपने कैमरों को आप अपने लैपटॉप या कम्प्यूटर से जोड़ कर फोटोज सीधे अपने डिवाइस में स्थानांतरित कर सकते थे। फिर सारी फोटो प्रिंट करना जरूरी नहीं होता थां जो तस्वीर अच्छी लगे, उसे प्रिंट कराइए और बाकी या तो डिलीट करिए या फिर अपने जमा खाते में रखिए। फिर भी कैमरा हर घर में जगह नहीं बना पाया था। फोटोग्राफी को हर घर ही नहीं अपितु हर हाथ में पहुंचा दिया एंडरायड मोबाईल फोन ने। जी हां, फोटोग्राफी की जिंदगी को और आसान कर दिया एंडरायड मोबाईल फोन के कैमरा एप्लीकेशन्स ने। अब छोटे से मोबाईल फोन के कैमरे से हाई रेज्यूलेशंस की फोटो खींची जा सकती है। इन मोबाईल्स के सौजन्य से पैनोरमा और नाईटविजन फोटोग्राफी आसान हो गई है। दृश्य के गति की तीव्रता भी अब कोई बड़ा मसला नहीं रह गई है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि हर व्यक्ति हर घड़ी अपनी मनचाहे दृश्य को अपने कैमरे में कैद करने के योग्य हो गया है। अब बात आती है अमैच्योर और प्रोफेशनल फोटोग्राफी की। अमैच्योर यानी जिन्होंने फोटोग्राफी की विधिवत शिक्षा नहीं ली, जो धन कमाने के दृष्टिकोण से फोटोग्राफी नहीं करते हैं और जिन्हें शौकिया फोटोग्राफर कहा जा सकता है। वहीं, प्रोफेशनल फोटोग्राफर वे हैं जो फोटोग्राफी का कोर्स करते हैं, धन कमाने के लिए फोटोग्राफी करते हैं एवं जिन्हें फोटोग्राफी की बारीकियां बहुत अच्छे से पता होती हैं। वैसे, यह बात अलग है कि कई बार अमैच्योर फोटोग्राफर भी प्रोफेशनल्स को पीछे छोड़ देते हैं। फोटोग्राफी की वास्तविक दुनिया बहुत विस्तृत है। इसमें नेचर फोटोग्राफी, वाईल्ड फोटोग्राफी, मरीन फोटोग्राफी, अंडर वाटर फोटोग्राफी, फैशन फोटोग्राफी, न्यूज फोटोग्राफी, फीचर फोटोग्राफी आदि-आदि बहुत से प्रकार हैं। संध्या सरवटे ने फिलहाल नेचर फोटोग्राफी को चुना है। उनकी खूबी ये है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। वे मराठी में सुंदर कविताएं रचती हैं, पेंटिंग्स करती हैं, रांगोली बनाती हैं, रंगमंच से संबद्ध हैं और गुलाबों की बागवानी करती हैं। उनके ये सारे शौक उनके घर के परिसर तक सिमटे हुए नहीं हैं, वरन वे पेंटिग और रांगोली प्रदर्शनी में सहभागिता कर चुकी हैं, अपनी फोटोग्राफी को भी प्रदर्शनी में शामिल कर चुकी हैं। एक महिला का अपने गुणों को निरंतर निखारना और उसे विविध माध्यमों के द्वारा प्रदर्शकारी कलाओं के द्वारा जनसामान्य के बीच लाना एक सुखद प्रसंग है। संध्या सर्वटे द्वारा लगाई गई फोटो प्रदर्शनी में प्रदर्शित उनके छायाचित्रों में सबसे विशेष बात थी उन छायाचित्रों का कवित्व तत्त्व। जब एक फोटोग्राफर प्रकृति और साहित्य दोनों से समान रूप से जुड़ा हुआ हो तो उसकी फोटोग्राफी में एक पोएटिक सेंस स्वतः आ जाएगा। ढलती हुई शाम का धुंधलका, पौधों पर पड़ती हुई नर्म धूप, एकांत में खड़े घर को घेरता कोहरे का हल्का घूसरपन यह सब देखना कविताओं के पढ़ने की भांति था। हर फोटोग्राफ एक कविता की तरह प्रकृति के सौंदर्य को मुखर कर रहा था। संध्या सरवटे जी ने बातचीत के दौरान बताया था कि वे अपने मोबाईल फोन से ही फोटोग्राफी करती हैं। वैसे उन्हें बचपन में कैमरे से फोटोग्राफ्स लेने का अवसर भी मिला था। वे इस संबंध में अपनी आई एवं बाबा अर्थात माता-पिता की प्रशंसा करती हैं कि उन्होंने कभी कोई रोक-टोक नहीं की और उन्हें अपना शौक विकसित करने करने का भरपूर अवसर दिया।
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Friday, November 22, 2024

शून्यकाल | बुंदेलखंड की कुरैया सिखाती है अन्न का सम्मान और सामाजिकता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 

शून्यकाल  
बुंदेलखंड की कुरैया सिखाती है अन्न का सम्मान और सामाजिकता
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                   
  बुंदेलखंड की संस्कृति अनूठी है। यहां कदम-कदम पर जीवन की शिक्षा रची-बसी है। बस, आवश्यकता है तो उसे ध्यान से जानने और समझने की। क्या कोई सोच सकता है कि एक निर्जीव बरतन भी कोई शिक्षा दे सकता है? तो यह सोचना भी अजीब  लगेगा। लेकिन बुंदेलखंड में सबकुछ संभव है। यहां जीवन से जुड़ी निर्जीव वस्तुएं भी समाज शिक्षा के बड़े-बड़े पाठ पढ़ाने की क्षमता रखती हैं। जी हां, ऐसा ही एक बरतन है कुरैया!
      आधुनिकता के इस दौर में पारम्परिक बरतनों का चलन धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। गड़ई अर्थात लोटा का स्थान जग और बोतल ने ले लिया है। परिवारों के विखंडन ने आटा गूंथने के पीतल के बड़े-बड़े कोपरों के बदले छोटे आटा-नीडर ने ले लिया है। जो बिजली से चलते हैं और महज दस फुलको का आटा गूंथ देते हैं। लेकिन ग्रामीण अंचल में अभी भी पारम्परिक बरतनों का चलन बचा हुआ है। वहां खेत हैं, खलिहान हैं संयुक्त परिवार हैं और पारंपराओं का खांटी सच्चा रूप अभी बचा हुआ है। यह कब तक बचा रहेगा, यह कहना कठिन है क्योंकि खेती का सिमटना और रोजगार की समस्या ग्रामीण परिवारों को भी तोड़ने लगी है। मोबाईल, टीवी, इंटरनेट ने आधुनिकता के सातिए गांवों के आंगन में भी काढ़ने शुरू कर दिए हैं। आधुनिक होना कोई बुरी बात नहीं है, यह तो विकास की सतत प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है। गांव के लोगों को भी विकास करने और आधुनिक होने का पूरा अधिकार है। लेकिन इन सबमें परंपराओं का गुम होते जाना दुखद प्रसंग होता है। यदि आधुनिकता और परंपराएं साझा हो कर चलें तो जीवन अधिक रोचक हो जाता है। वस्तुतः स्वस्थ परंपराएं सही ढंग से जीवन जीना सिखाती हैं और बुंदेलखंड में तो निर्जीव बरतन भी जीवन का सलीका सिखा देते हैं। 

बुन्देलखण्ड में प्रचलित कुरैया, कहने को तो महज एक बरतन है। यह पीतल की बनाई जाती है जो कि पारम्परिक बरतन विक्रेताओं की दूकानों पर उपलब्ध रहती है। दरअसल यह एक मापक बरतन है। कुरैया से छोटा भी एक माप होता है जिसे चैथिया कहते हैं जो एक किलो माप का होता है। यह पीतल के अलावा लकड़ी का भी बनाया जाता है। किन्तु कुरैया सिर्फ पीतल का ही बनाई जाती है। कुरैया का आकार-प्रकार विशिष्ट होता है। अर्द्धगोलाकार आकृति के ऊपरी भाग में चैड़ा पाट बिठा कर इसे आकार दिया जाता है। यह चैड़ा पाट दोहरे पट्टे का होता है जिससे पकड़ते समय असुविधा न हो। यह एक ऐसा बरतन है जो प्रत्येक किसान के जीवन से जुड़ा रहता है। कुरैया अनाज मापने का एक बरतन होता है जिसके द्वारा अनाज को माप कर यह पता लगाया जाता है कि खेत में कुल कितनी फसल हुई। कुरैया से मापे जाने के बाद ही अनाज के बोरों को तराजू पर तौला जाता है। इस तरह माप का पहला विश्वास भी कुरैया ही होता है।

 कुरैया को प्रयोग में लाने के भी कुछ नियम होते हैं। आमतौर पर खेत पर पुरुष ही इसका उपयोग करते हैं। यह अथक श्रम से जुड़ा हुआ बरतन है। कुरैया को कभी भी जूता या चप्पल पहन कर उपयोग में नहीं लाया जाता है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि जिस स्थान पर इसे काम में लाते हैं वहां अनाज का ढेर अर्थात् अन्नदेव उपस्थित रहते हैं। जूते और चप्पल को उस स्थान से दूर उतार दिया जाता है। कुरैया से माप करने वाला व्यक्ति कभी नंगे सिर इससे माप नहीं करता है। सिर पर गमछा, साफा या किसी भी प्रकार का कपड़ा बांध कर ही कुरैया को उपयोग में लाया जाता है। इसके पीछे यह विचार निहित रहता है कि कुरैया पवित्रा बरतन है जो अन्नदेव की सेवा में संलग्न है। कुरैया को अनाज मापने के अतिरिक्त किसी अन्य काम में नहीं लाया जाता है। कुरैया की मापक क्षमता पांच किलो अर्थात् एक पसेरी रहती है। अन्न का माप करते समय कुरैया को ऊपर तक पूरी तरह भरा जाता है। अन्न की यह ऊपर तक भरी हुई मात्रा पांच किलो मानी जाती है। कुरैया द्वारा मापा हुआ अन्न तराजू द्वारा तौल करने पर पांच किलो ही निकलता है। बीस कुरैया का एक बोरा होता है अर्थात् सौ किलो माप का। अनाज को कुरैया से मापते समय अन्न के खेप की गिनती भी विशेष प्रकार से की जाती है। पहली माप को ‘एक’ न कह कर ‘राम’ कहा जाता है। दूसरी माप करते समय, जब तक कुरैया ऊपर तक भर नहीं जाती तब तक ‘राम-राम-राम’ का ही उच्चारण किया जाता है। कुरैया ऊपर तक भरने के पश्चात दूसरी माप से ‘दो-दो-दो’ का उच्चारण किया जाता है। इसके बाद इसी क्रम में तीन-तीन-तीन, चार-चार-चार, पांच-पांच-पांच आदि सामान्यतौर पर माप की जाने वाली गिनती बोली जाती है। इस प्रकार अनाज की पहली माप ‘राम’ नाम से आरम्भ होती है जो शुभ-लाभ का पर्याय है।

कुरैया के प्रति जुड़ा हुआ यह सम्मान भाव उस लोक विश्वास का परिचायक है जो अन्न की महत्ता को स्थापित करता है। कुरैया अनाज का सम्मान करना सिखता है। इस सम्मान की भावना को बलवती बनाने के लिए उन सभी वस्तुओं को सम्मान दिया जाता है जो अन्नदेव से जुड़ी होती हैं। कुरैया भी उनमें प्रमुख वस्तु है। कुरैया का एक दूसरा पक्ष भी है जो पारस्परिक सौहार्य को सुदृढ़ता प्रदान करता है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक फसल उत्पादक के पास अपना कुरैया हो। यदि उसके पास कुरैया नहीं है तो वह दूसरे व्यक्ति से कुरैया मांग लेता है। एक कुरैया को एक से अधिक किसान उपयोग में लाते हैं। कई बार एक गांव के लोग दूसरे गांव से कुरैया मांग कर लाते हैं। माप का काम हो जाने के बाद पूरी ईमानदारी के साथ कुरैया उसके वास्तविक स्वामी के पास पहुंचा दिया जाता है। कई बार कुरैया को लौटाए जाने में देर होने पर उसके स्वामी के घर की महिलाएं इस प्रकार उसका स्मरण करती हैं जैसे उनकी छोटी बहन या बेटी ससुराल गई हो और बहुत अरसे से मायके न आई हो। इसी भाव को व्यक्ति करता यह लोकगीत कुरैया के प्रति आत्मीयता को दर्शाता है-
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई
कोऊ जाओ तो ले आओ, लेवउआ बन के
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई....
गहूं के लाने गई ती,
चना के लाने गई ती
कोऊ जाओ तो ले आओ, लेवउआ बन के
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई....
चच्चा के इते गई ती
मम्मा के इते गई ती
कोऊ जाओ तो ले आओ, लेवउआ बन के
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई....
कुरैया मानो परिवार का सदस्य हो, कुरैया मानो अन्नदेव तक संदेश पहुंचाने वाला देवदूत हो। किसान कुरैया से अनुनय-विनय करता है कि उसका संदेश अन्नदेव तक पहुंचा दे-
कहियो, कहियो कुरैया! जा के नाजदेव से
अगले बरस सोई भर-भर आइयो
हमरी खबर मालिक ना बिसरइयो
कुइयां न सूकें, सूकें न नदियां
कहियो, कहियो कुरैया! जा के नाजदेव से.....
इस तरह धातु से बना मूक बरतन किसी सजीव व्यक्ति की भांति संदेशवाहक बन जाता है। यही तो जीवन्त विश्वास और मान्यता है जो प्रत्येक जड़-चेतन के महत्व को स्थापित करती है। कुरैया आपसी सौहार्य एवं भाईचारे का माध्यम बनता ही है किन्तु इससे से भी बढ़ कर महत्वपूर्ण तथ्य है कि प्रायः ग्राम्य अंचलों में जातीय भेद-भाव प्रभावी रहता है किन्तु कुरैया का उपयोग इसका अपवाद है। यह प्रत्येक जाति-धर्म के लोगों के बीच परस्पर आदान-प्रदान के रूप में काम में लाया जाता है। कुरैया मानव विश्वास और सामाजिकता का प्रतीक है। 
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Thursday, November 21, 2024

बतकाव बिन्ना की | इन्ने सबरे टीचरन की नाक कटा दई | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
इन्ने सबरे टीचरन की नाक कटा दई
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     ‘‘जो शिक्षा विभाग बी गजबई आए!’’ भैयाजी अखबार एक तरफी पटकत भए बोले।।
‘‘अब का हो गओ भैयाजी?’’मैंने पूछी। 
‘‘होने का, देखो तनक, कैबे खों स्कूल टीचर, औ करम भड़यां घांईं। इन्ने सबरे टीचरन की नाक कटा दई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कऊं आप ऊ सेरोगेट टीचरन के बारे में तो नईं कै रए?’’ मैंने कई।
‘‘सेरोगेट टीचरों? बे को आं? हम तो उन ओरन के बारे में कै रए जोन अपनी जांगा भाड़े टीचर रखत रए। बताओ तो कभऊं सोची ने हती के जा दिन बी देखने परहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘उनई के लाने तो मैं कै रई के बे सेरोगेट टीचर आएं।’’ मैंने कई।
‘‘हमें र्नइं आई तुमाई बात समझ में। का कैबो चा रईं? जे सेरोगेट को का मतलब भओ?’’ भैयाजी झुंझलात भए पूछन लगे।
‘‘देखो भैयाजी, आप जानत आओ के जोन लुगाई अपनी कोख से बच्चा नईं जन सकत आए ऊके लाने किराए की कोख ले लई जात आए। जोन को सेरोगेसी कई जात आए। औ जोन लुगाई अपनी कोख किराए पे देत आए ऊको सेरोगेट मदर कओ जात आए। मनो बा अपनी कोख से बच्चा जन के बा लुगाई खों दे देत आए जोन को बा बच्चा रैत आए औ बदले में खर्चा-पानी लेत आए।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘हऔ हमें पतो। मनो ई से उन ओरन को का मेल जोन अपनी जांगा भाड़े पे टीचर रखत आएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘दोई में मेल जो आए के बे आएं तो टीचर मनो उनसे पढ़ाओ नईं जा रओ सो बे अपनी जांगा दूसरो मानुस रख लेत आएं, किराए पे। सो बे किराए पे रखे जाबे वारे सेरोगेट ने कहाए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बात तो तुमने सई कई, बिन्ना! मनो देखो तो का जमानो आ गओ। एक तो नौकरियन की ऊंसई सल्ल परी। अपने ज्वान मारे-मारे फिर रए। औ जोन खों ऊपर वारे की किरपा से नौकरी मिल गई, बा ऊकी इज्जत नईं कर रओ। अपनो काम करे में ऊके प्रान कढ़ रए। साठ-सत्तर हजार रुपैया महीना पीट रए औ स्कूल जा के पढाबे में पांव घिसे जा रए।’’ भैयाजी गुस्सा में बोले।
‘‘सई आए भैयाजी! तनक उनकी सोचो जोन साठ हजार पाबे वारे की छः हजार में गुलामी कर रओ। ऊकी नौकरी अपनी कोख में पाल रओ। चाए इंक्रीमेंट को लल्ला होए, चाए परमोशन को लल्ला होए, ऊको बाप-मताई सो पक्को वारो ई कहो जैहे। कच्चे वारे की का,  रिजल्ट अच्छो ने दओ तो लातें मार के निकार दओ जैहे। ऊकी जांगा दूसरो किराए पे ले लओ जैहे। अपने इते बेरोजगारन की कोनऊं कमी नईंयां। जेई से बा पांच-सात हजार में अच्छो रिजल्ट दैहे औ असली वारे टीचर को नाम रोशन करहे। रामधई बड़ी जे बड़ी नाइंसाफी आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, मनो तुमें नाइंसाफी दिखा रई औ हमें पूरी भड़याई दिखा रई। बो का कओ जात आए... पूरो घोटालो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! जे घोटालो तो आए। का ऐसो हो सकत आए के असली की जांगा नकली पढ़ा रओ होय औ पइसा जाए असली के खाता में और नकली कछू पइसा ले के पढ़ात रए औ कोनऊं खों पतो ने परे? मोय तो नईं लगत।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘तरे-ऊपरे सबई मिले डरे। का ऊ प्रिंसीपल सोत रैत्तो जोन को पता ने परी? ने तो ऊकी मिली-भगत से जे सब चल पा रई ती? अरे, सबरे मिले धरे। दस-पांच हजार उने मिलत रैत हुइएं। जेई से सबरे धृतराष्ट्र घांई अंधरा बने बैठे रए। घरे बैठे-बैठे मनो साठ के चालीस बी परे तो का कम आएं? हर्रा लगो ने फिटकरी, रंग चोखो के चोखो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘भैयाजी, तनक जे सोचो के जोन लोग जे ऐसो काम कर सकत आएं बे औ को जाने का-का गुल खिला रए हुइएं? काय से के बे तो चार सौ बीसी वारे कहाने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कई बिन्ना। इनकी सो पूरी बखिया उधेड़ी जानी चाइए तभई पता परहे के जे औ का-का नासमिटा रए?’’ भैयाजी गुस्सा में भर के गिरयान लगे।
बाकी बात गरियाबे वारी आए। हो सकत के सट्ट-पट्ट कर के नौकरी पाई होय, तभईं तो नौकरी की इज्जत नईं कर रए। सरकार से धोखो कर रए, बच्चा से धोखो कर रए औ समाज में खुद खों टीचर कै के समाज से धोखो कर रए। 
‘‘औ बिन्ना, जे ओंरे जो स्कूले पढ़ाबे नईं जा रए सो ठलुआ तो बैठे ने हुइए? कऊं राजनीति कर रए हुइएं, तो कऊं कोनऊं औ काम कर रए हुइएं। मनो बे ओरें एक टिकट पे दो फिलम देख रए कहाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘इने छूट देबे वारों खों बी कटघरा में खड़ो करो जाने चाइए। बिगर छूट के जे ओरें इत्ती हिम्मत कैसे कर पाते? आपई बताओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जेई तो हम कै रए बिन्ना के ईकी तो नैंचे से ऊपर तक की जांच करी जाने चाइए। जो अच्छे से जांच करी जाए तो मुतकी जांगा जेई घोटालो निकरहे। एक तो जा शिक्षा विभाग ऊंसई प्रयोगशाला बनो रैत आए। कभऊं जा योजना चलाई, सो कभऊं बा योजना चलाई। मध्यांन्ह भोजन दए जाबे को चलन भओ तो ओई में बच्चा हरों को दलिया भड़या खान लगे। डिरेस को नियम बनत आए तो ओई में स्कूल वारन की दूकानदारी होन लगत आए। कैबे को पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी, मनो सारी बुद्धि लगा देत आएं भड़यागिरी में। तुमई सोचो बिन्ना कि तुम पिरीन्सपल की कै रईं औ उन स्कूलन को सगरो स्टाफ को का? का उन ओरन को पतो नई रओ के उनके संगे कोनऊं भाड़े को टीचर पढा रओ?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘काए ने पतो हुइए भैयाजी! कओ बे ओरें सोई जे जुगत में रए होंए के उनके लाने बी कोनऊं मिल जाए औ बे अपनी टीचरी भाड़े पे दे के घरे पल्ली ओढ़ के सोएं।’’ मैंने कई।
‘‘जेई से तो अपने गांवन के सरकारी स्कूलन के बच्चा हरों के भाग नईं खुल पात। बे जबे दूसरे स्कूल वारों के आगूं ठाड़े होत आएं तो ऊदबिलाव घांई दिखात आएं। बिचारे अपनी जिनगी में का कर पाहें? चोर-चकार के इते पड़हें सो भड़याई तो सीखहें, कलेक्टर थोड़े बनहें।’’ भैयाजी भौतई दुखी दिखान लगे। 
मनो जे मामलो ई ऐसो आए के भैयाजी को दुख मिटाबे को मोए कोनऊं बतकाव ने सूझी। उनको दुख तो तभई दूर हुइए जबे मछरियन के संगे मगरमच्छ सोई पकरे जाएं। मने तरे से ऊपरे लौं के अपराधी। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के स्कूल वारे शिक्षा विभाग में खुल्लम-खुल्ला ऐसो कैसे होत रओ? 
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Wednesday, November 20, 2024

चर्चा प्लस | ‘‘सेरोगेट’’ शिक्षकों का चलन और शिक्षा विभाग का पालना | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
‘‘सेरोगेट’’ शिक्षकों का चलन और शिक्षा विभाग का पालना
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘सेरोगेसी’’ एक ऐसा पवित्र और जिम्मेदारी का काम है जिसमें एक निःसंतान दंपति  को संतान सुख देने के लिए एक स्त्री अपनी कोख में उनके गर्भ को धारण करती है और शिशु को जन्म देते ही वह शिशु आधिकारिक माता-पिता को सौंप दिया जाता है। अपनी कोख को किराए में देने वाली मां ‘‘सेरोगेट मदर’’ कहलाती है। ऐसी मां चंद पैसों के लिए विवश होती है इसीलिए बच्चा जन कर भी मां नहीं बन पाती है। लेकिन क्या आपने कभी ‘‘सेरोगेट शिक्षक’’ के बारे में सुना है? नहीं न! क्योंकि यह नाम मैं दे रही हूं। मुझे यही नाम सूझा जब मैंने शिक्षा जगत के कारनामों के बारे में पढ़ा और सुना।  
‘‘सेरोगेट मदर’’ बन कर एक स्त्री दूसरी स्त्री को अपनी कोख उधार देती है ताकि वह दूसरी स्त्री संतान का सुख प्राप्त कर सके। कुछ मामलों में दूसरी स्त्री के पति के साथ शारीरिक संबंध भी बनाना पड़ता है और कई बार कुशल चिकित्सक अण्डाणुओं और शुक्राणुओं को अलग निषेचित कर सेरोगेट स्त्री की कोख में स्थापित कर देते हैं ताकि एक स्त्री की कोख में गर्भ विकसित हो सके। जो स्त्री स्वेच्छा से सेरोगेट बनती दिखाई देती है, वस्तुतः उसके पीछे मौजूद होती है उसकी आर्थिक लाचारी जो उसे अपनी कोख किराए पर देने को विवश करती है। अन्यथा कौन मां होगी जो नौ महीने अपनी कोख में गर्भ धारण करके, उसे अपने रक्त से सींच कर विकसित करने के बाद उसकी मां कहलाने का अधिकार छोड़ दे। दूसरा पक्ष उसकी लाचारी का लाभ उठाते हुए उसे अपने लिए मातृत्व धारण करने के लिए राजी कर लेता है। सेरोगेट मदर ‘स्वेच्छा’ शब्द पर हस्ताक्षर करती है जबकि इस हस्ताक्षर के पीछे उसके परिवार के पेट भरने की जरूरतें जुड़ी होती हैं। इस मुद्दे को मैं यहां इस लिए बता रही हूं क्यों कि विगत दिनों सागर जिले में ही कई स्कूलों में वे चेहरे सामने आए जिनके कारनामें सेरोगेसी से कम नहीं थे।

राष्ट्रीय स्तर के कुछ समाचारपत्रों में बाकायदा नाम और छायाचित्र सहित उन शिक्षक-शिक्षिकाओं के के बारे में पूरी रिपोर्ट प्रकाशित की गई जो नियमित शिक्षकों के बदले कुछ हजार रुपयों में उनके स्थान पर पढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। वह रिपोर्ट पढ़ कर विश्वास करना कठिन था क्योंकि यह कोई निजी संस्था का मामला नहीं था अपितु सरकारी स्कूलों का मामला था जो ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। एक शिक्षिका सागर शहर में निवास करती है और वह अपने पदस्थ स्कूल में जाने की ज़हमत उठाने के बजाए अपने बदले किराए के शिक्षक को भेजती है। प्राचार्य भी ऐसे कि शिक्षिका द्वारा की गई व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हैं। प्राचार्य से ऊपर बैठे अधिकारी इस दुरावस्था पर कितना ध्यान देते हैं, यह तो इसी बात से पता चलता है कि कई स्कूलों में दो-दो, तीन-तीन साल से ‘‘सेरोगेट शिक्षक’’ शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे सेरोगेट शिक्षकों की मजबूरी है कि योग्य होते हुए भी उन्हें नौकरी नहीं मिली है और वे चालीस-पचास हजार मासिक वेतन पाने वाले शिक्षिकों के स्थानापन्न बन कर चार-पांच हजार रुपए में शिक्षण कार्य कर रहे हैं। जाहिर है कि ये वे शिक्षक नहीं हैं जिनका नाम सरकारी रिकाॅर्ड में है। ये वे शिक्षक हैं जो कोई काम न मिलने पर अपनी मेहनत की कोख में शिक्षकीय भ्रूण पालने और विकसित करने के लिए विवश हैं।  जो शिक्षक अपने बदले गैरशिक्षकों को शिक्षक बना कर काम करवा रहे हैं उनको पालने का काम शिक्षा विभाग बखूबी कर रहा है। अन्यथा यह गोरखधंधा कई-कई वर्ष तक कैसे चलता?

पहले यही सुनने में, देखने में आता था कि ग्रामीण अंचल के सरकारी स्कूलों में कई शिक्षक अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाते हैं। वे कई दिन तक स्कूल नहीं जाते हैं। यदि स्कूल जाते हैं तो वहां वे बच्चों से निजी काम कराते हैं। एक ओर सरकार स्कूली शिक्षा को ले कर संवेदनशील है तो दूसरी ओर ग्रामीण स्कूलों में इस प्रकार की असंवेदनशीलता के उदाहरण सामने आ रहे हैं। अपने बदले शिक्षक रखने वाले शिक्षकों के पास बहाने हैं। कोई बीमारी का बहाना बताता है तो कोई पारिवारिक जिम्मेदारियों का। एक शिक्षिका ने कहा कि वे एक दिन छोड़ कर स्कूल पहुंचती हैं। क्या शिक्षाविभाग इसकी अनुमति देता है कि कोई भी शिक्षक अपनी मर्जी से एक दिन छोड़ कर स्कूल जाए? यदि ऐसा है तो फिर यह स्वतंत्रता सबको मिलनी चाहिए। संभागीय मुख्यालय में स्थित स्कूलों के शिक्षकों को भी यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे जब मन करें तब स्कूल जाएं और जब मन न करें या जितने दिन मन न करे अपने बदले औने-पौने किराए पर किसी भी युवा को शिक्षण कार्य के लिए भेज दें।  

हम अभी व्यापम घोटाला भूले नहीं हैं। उस घोटाले की जड़ भी यही थी कि कुछ शक्तिसम्पन्न लोगों ने बेरोजगार युवाओं की विवशता से खेला। इसी तरह कुछ शक्ति सम्पन्न शिक्षक बेरोजगार युवाओं की लाचारी से खेल रहे हैं। यदि ये सेरोगेट शिक्षक शिक्षण कार्य करने में दक्ष हैं तो उन्हें कार्य न करने वालों के बदले नियमित अवसर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? खैर यह शिक्षा विभाग पर निर्भर है कि वह नियमित और सेरोगेट शिक्षकों के साथ क्या व्यवहार करता है।

 बहरहाल, जब सेरोगेट शिक्षकों के बारे में समाचारपत्रों में सुर्खियां बनीं तो प्रशासन की नींद खुली। कलेक्टर ने बताया कि निलंबित शिक्षक खुद बच्चों को नहीं पढ़ाते थे बल्कि अपनी जगह किराए के टीचर्स को रखा था। कलेक्टर को इसे लेकर शिकायत मिली थी। जांच में आरोप सही मिले, जिसके बाद यह कार्रवाई की गई। एक्शन लेते हुए जिला कलेक्टर ने जिला शिक्षा अधिकारी, जिला परियोजना अधिकारी, विकासखंड शिक्षा अधिकारी और संकुल प्राचार्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया। इसके अलावा तीन जन शिक्षक और पांच शिक्षकों समेत कुल आठ शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया तथा पुलिस के पास प्राथमिकी भी दर्ज कराने की भी बात उठी। अब जो भी कार्यवाही की जाए वह शासन, प्रशासन और स्कूल अधिकारियों पर निर्भर है। बहरहाल, नाक के नीचे कई साल से चल रहे इस खेल की शिक्षाधिकारियों को भनक क्यों नहीं लगी, यह विचारणीय प्रश्न है। या फिर पूरा मामला संज्ञान में होते हुए भी मौन की चादर ओढ़ी गई? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर तभी मिल सकता है जब पूरे मामले की गहराई से पड़ताल की जाए।  

इससे पहले यह मामला भी सामने आया था कि प्रदेश में बच्चे बड़ी संख्या में स्कूल छोड़ रहे हैं। कारण का पता लगाया गया तो सामने आया कि गंदगी, फर्नीचर की कमी और शिक्षकों की कमी इसके सबसे बड़े कारण थे। सुदूर ग्रामीण अंचलों में शिक्षकों की कमी का सीधा असर शिक्षण पर पड़ता है। जब स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं होंगे तो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे ही क्यों? उस दौरान आंकड़ों से पता चला था कि प्रदेश में शिक्षकों के लगभग 70000 पद खाली थे, 1200 स्कूलों में शिक्षक ही नहीं थे और 6000 स्कूल में एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे थे। इस ओर न तो शिक्षा विभाग का ध्यान गया और न प्रशासन का। इसी तरह स्कूल प्रशासन की लापरवाही के चलते एक अजीबोगरीब मामला भी घटित हुआ। सागर जिले के ही गिरवर ग्राम में एक सरकारी स्कूल के मैदान में कुछ लोग मृतक को दफनाने के लिए कब्र खोदते मिले। कुछ स्थानीय लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोका। मामला बढ़ा तो पता चला कि कुछ माह पहले वहां एक और कब्र खोद कर कफन दफन किया गया था। उसके बाद वहां बाकायदा कब्र का पत्थर भी लगाया गया था। क्या तब स्कूल प्रशासन को इस बात की ख़बर नहीं लगी? या फिर ख़बर होते हुए भी वह ख़ामोश रहा। स्कूल प्रशासन की इस तरह की ख़ामोशियां अनियमितताओं एवं अपराधों को पालने का काम कर रही है। यदि किसी भी अनियमितता की सूचना मिलते ही स्थानीय स्कूल प्रशासन अपने उच्चाधिकारियों को सूचित करे तथा उच्चाधिकारी मामले को जिला या संभाग प्रशासन के संज्ञान में लाएं तो कोई भी अपराध अपने पांव नहीं फैला सकता है। ‘‘सेरोगेट टीचर्स’’ के बारे में भी यह बात दावे से कही जा सकती है कि यदि ऐसे शिक्षकों को पहले ही चेतावनी दी जाती जो अपने बदले किराए के शिक्षक भेज रहे थे, तो यह अपराध आगे नहीं बढ़ पाता। बेरोजगारों को जब ऐसे किसी अवसर का पता चलता है तो वे डरते, झिझकते हुए भी अपनी मजबूरी के कारण ऐसे अपराध में लिप्त हो जाते हैं। एक मजबूर का फायदा उठाने वालों की कमी नहीं रहती है। लेकिन यह नौबत आए ही क्यों यदि कार्यप्रणाली में पारदर्शिता हो। स्कूल प्रशासन एवं शिक्षा विभाग के इस ताजा मामले को तो देखते हुए यही सोचा जा सकता है कि कहीं खाने के दांत और, दिखाने के दांत और तो नहीं हैं?
अब देखना यह है कि इस किराए के शिक्षकों यानी ‘‘सेरोगेट टीचर्स’’ के मामले की सारी पर्तें खुलेंगी या अभी किसी और बड़े घोटाले की प्रतीक्षा की जाएगी।
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Tuesday, November 19, 2024

पुस्तक समीक्षा | भजनों की भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 19.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्रीमती शशि दीक्षित (मृगांक)  जी के भजन संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा 
भजनों की भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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भजन संग्रह  - भावना
कवयित्री - श्रीमती शशि दीक्षित (मृगांक)
प्रकाशक  - जे.टी.एस. पब्लिकेशंस, वी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य        - 100/- 
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   दुख और सुख दोनों ही वे स्थितियां हैं जब मनुष्य ईश्वर का स्मरण करता है। दुख के समय ईश्वर से सहायता की पुकार करता है तो सुख के समय मांगलिक कार्यों में ईश्वर की उपस्थिति का आग्रह करता है- ‘‘निर्विघनं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा!’’ अर्थात् ईश्वर सभी कार्यों को बिना बाधा के पूर्ण करें। यदि बात साहित्य की हो तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक पूरा कालखण्ड ही भक्ति काल के नाम से जाना जाता है। अधिकांश विद्वान इसकी समयावधि 1375 वि.स.से 1700 वि.स. तक मानते हैं। इसे हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग भी कहा गया है। इस काल खण्ड को जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘‘स्वर्णकाल’’, श्यामसुन्दर दास ने ‘‘स्वर्णयुग’’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘‘भक्ति काल’’ एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘लोक जागरण’’ काल कहा। क्या विशेषता थी इस कालखण्ड की? सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि इस कालखण्ड में सर्वाधिक भक्ति रचनाएं लिखी गईं। इसी कालखण्ड में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएं समानांतर चलीं। निर्गुणमत के दो उपविभाग हुए - ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी। निर्गुण मत के प्रतिनिधि कवि कबीर और जायसी हुए। वहीं सगुणमत दो उपधाराओं में विकसित हुआ - रामभक्ति और कृष्णभक्ति। रारमभक्ति के कवियों में प्रथम नाम आता है तुलसीदास का तथा कृष्णभक्ति में प्रथम नाम सूरदास का लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सूफी, नाथ, सहज आदि अनेक संप्रदायों के अनुरूप भक्तिकाव्य का सृजन हुआ। यदि मोटेतौर पर देखा जाए तो वह मुगलों के शासन का काल था। पारंपरिक मूल्यों पर आक्रमणकारियों की कुचेष्टाएं प्रहार कर रही थीं। ऐसे वातावरण में ईश्वर का स्मरण ही आत्मबल दे सकता था। इसीलिए उस काल में सर्वाधिक भक्ति रचनाएं लिखी गईं। 

आज कोई सैन्य आक्रमणकारी नहीं है किन्तु वैश्विक होते वातावरण में सभ्यता, संस्कृति एवं विचारों के लिए संकट पैदा हो गया है। या तो भक्ति का आडंबर रूप है अथवा लोग भक्ति की परंपरा से विमुख हैं। ये दोनों ही स्थितियां पाश्चात्य के अंधानुकरण से उत्पन्न हुई हैं। ऐसे संक्रमणकाल में किसी भजन संग्रह का प्रकाशित होना बहुत मायने रखता है। मध्यप्रदेश के सागर शहर की साहित्य के लिए उर्वर भूमि में निवासरत शशि दीक्षित मृगांक का भजन संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है। मिर्जापुर (उ.प्र.) में जन्मीं शशि दीक्षित मृगांक डबल एम.ए., बी.एड, हैं तथा कुछ समय अध्यापन कार्य भी कर चुकी हैं। विवाह के बाद से सागर (म.प्र.) में निवासरत हैं। उन्होंने सुगम संगीत में डिप्लोमा किया है तथा भजन गायकी में रुचि रखती हैं। स्वाभाविक है कि उनकी इस अभिरुचि ने उन्हें भजन लिखने के लिए प्रेरित किया। ‘‘भावना’’ के नाम से प्रकाशित उनके भजन संग्रह में कुल 31 भजन हैं जिन्हें कवयित्री ने अलग-अलग अध्यायों में विभक्त किया है। यथा- गणपति वंदना, देवी गीत, राम भजन, कृष्ण भजन, शिव भजन तथा अन्य भजन।

संग्रह का पुरोवाक प्रो. डॉ सरोज गुप्ता ने लिखा है। उन्होंने शशि दीक्षित के भजनों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘‘इन भजन गीतों में हृदय से प्रवाहित सुख-दुख के स्वर नर्तन करते हुए जब झरते हैं तो हृदय वीणा स्पन्दित होने लगती है। भक्ति में तल्लीन लोग जिनके हृदय में भगवान पर अटूट विश्वास है। सरलता और भक्ति के स्वरों के भाव मन को मोह लेते हैं। इन भजनों में स्वाभाविकता, सरलता, स्वच्छंदता स्पष्ट दिखाई देती है।’’
इसी प्रकार सेवानिवृत व्याख्याता सुनीला चैरसिया ने भजनों एवं कवयित्री की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है कि ‘‘शब्दों में जब भाव आते हैं, तभी भजन लेखनी में उतरते हैं, इनके भजन सुर लयबद्ध और गेय हैं स्वयं भी बहुत अच्छी गायिका हैं, जिसका इनको बचपन से ही शौक रहा है। जैसे बीज से अंकुरण, पौधे से पुष्पन और पल्लवन, फूलों से महकन की प्रक्रिया होती है वैसे ही इनके अंतस में, गायन, लेखन वाकपटुता की आग है, जो अब दावानल बनने जा रही है। लेखनी के प्रति समर्पण संगीत के प्रति राग आध्यात्म में रुचि इनकी विशेषता है। विदुषी कवयित्री से मेरा परिचय पिछले 20 वर्षों से रहा है, इनकी लेखनी सशक्त, मौलिक और नई चेतना के प्रति दिनों दिन प्रगति की ओर उन्मुख है। इनका भजन संग्रह दिव्य है, उसमें आध्यात्मिक महक है और रागिनी से संबंध है और भावों से कूट-कूट कर भरी है।’’

निःसंदेह, किसी भी भजन की पहली शर्त होती है उसकी गेयता। यह गेयता तभी सहज हो पाती है जब उसमें सरल और आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया हो। भजन प्रायः गुनगुनाते हुए स्वरों के साथ स्वतः आकार लेते हैं। शशि दीक्षित मृगांक के भजन भी स्वतः जन्मे हैं जैसा कि उन भजनों की प्रकृति से पहचाना जा सकता है। सप्रयास गढ़े गए काव्य में वह मौलिकता एवं लालित्य नहीं रहता है जो स्वतः निर्मित काव्य में होता है। शशि दीक्षित मृगांक के भजनों में सरलता एवं स्वाभाविकता है। उन्होंने गोया ईश्वर से संवाद के रूप में भजन लिखे हैं। जैसीकि परंपरा है कि नूतनकार्यों का आरंभ श्रीगणेश के स्मरण तथा आह्वान से होती है, उसी प्रकार संग्रह के भजनों का प्रथम अध्याय श्रीगणेश की वंदना से आरम्भ हुआ है। बानगी देखिए जिसमें ‘‘हे! प्रथम पूज्य’’ शीर्षक से कवयित्री ने प्रथम पूज्य श्रीगणेश की वंदना की है-
हे! प्रथम पूज्य गणपति देवा 
हो विनती अब स्वीकार मेरी 
मैं जनम जनम से प्यासी हूँ 
प्रभु दर्शन देकर तार मुझे
हे! एकदंत गज बदन प्रभु 
तुम सब देवों में श्रेष्ठ हुए 
कोई काज तेरे बिन होता नहीं 
हम प्रथम नमन तुम्हें करते हैं
हे! रिद्धि सिद्धि के स्वामी 
शुभ लाभ का दो वरदान मुझे।

     कवयित्री ने श्रीगणेश के प्रथमपूज्य रूप को ही नहीं वरन देवी पार्वती के पुत्र अर्थात ‘‘गौरा के लाल’’ के रूप में भी स्मरण किया है। वे लिखती हैं-
हे! गौरा के लाल गजानन 
तेरी शरण में आया हूँ 
विघ्न हरण मंगल मूर्ति प्रभु 
मन की मुरादें लाया हूँ....
बिगड़े काज संवारो मेरे हे! 
शंकर सुत हृदयेश्वर
दूर करो सब बाधाएं प्रभु 
राह दिखा दो लंबोदर......

   संग्रह के दूसरे अध्याय में देवी गीत हैं। इन भजनों में कवयित्री शशि दीक्षित ने ‘‘शैलपुत्री’’, ‘‘भवानी’’, ब्रह्मचारिणी’’ आदि विविध नामों से देवी का स्मरण करते हुए विनती के रूप में भजन लिखे हैं। जैसे यह भजन देखिए-
मेरी विनती सुनो हे! भवानी हे! 
मैया जग कल्याणी 
तेरे चरणों का दास है ये सारा संसार 
तेरी माया किसी ने न जानी ....
तू ही शैलपुत्री मैया! तू ही ब्रह्मचारिणी ! 
देती धन्न-धान मैया कोटि फलदायिनी 
तेरी महिमा है जग से निराली 
हम भक्तों पे करो मेहरबानी
तेरे चरणों का दास ।

  कवयित्री ने देवी के एक स्वरूप राधा रानी का भी स्मरण किया है। राधा पर लिखे गए भजन में सुंदर गेयता है। ‘‘ओ! राधे रानी’’ भजन की शब्दावली देखिए-
ओ! राधे रानी 
हम पर कृपा कीजिए 
हमें भी अपने चरणों में रख लीजिए।
मोहन के मुरली की तान 
राधे-राधे
वृंदावन की गलियों में गूंज
राधे-राधे .......।

‘‘आ गए आ गए मेरे राम’’ भजन द्वारा श्रीराम की स्तुति मनभावन है-‘‘आ गए आ गए मेरे राम आ गए /आज खुशियां बहुत हैं नहीं कोई गम’’। वहीं, श्रीकृष्ण भक्ति में लिखे गए भजन में अपने रंग में रंग लेने का कृष्ण से आग्रह है- ‘‘कन्हैया अपने रंग में ही रंग ले मुझे’’।
‘‘शिव शंकर तेरा ही सहारा’’ में भगवान शिव को याद किया है तो अंतिम अध्याय के भजनों में जीवन की निस्सारिता एवं भजन की महत्ता को प्रतिपादित किया है।
जीवन के दिन चार हैं 
रीत रहा संसार है 
जप ले हरि का नाम, जप ले।
 जब आज लोग वैचारिक भ्रम की अवस्था में जीवन से जूझ रहे हैं, ऐसे समय में शशि दीक्षित मृगांक के भजन कड़ी धूप में शीतल छांह और कड़ाके की ठंड में अलाव की गर्माहट के समान सुखदायक हैं। इन भजनों में भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह है। जिन पाठकों को भजनों में रुचि है, उनके लिए इस संग्रह की उपादेयता सर्वाधिक है क्योंकि संग्रह के सभी भजन सहज स्मरण रह जाने योग्य एवं गेयता से भरपूर हैं। 
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Monday, November 18, 2024

"सांची कै रए सुनो, रामधई !" डॉ ( सुश्री) शरद सिंह के बुंदेली गजल संग्रह की समीक्षा पत्रिका समाचार पत्र में

🚩हार्दिक आभार आदरणीय भाई प्रवेन्द्र सिंह तोमर जी एवं प्रिय रेशू जैन जी #पत्रिका समाचारपत्र में मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा प्रकाशित करने हेतु 🌹🙏🌹
🚩हार्दिक आभार आदरणीया डॉ. बिन्दुमती त्रिपाठी जी मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह की इतनी सारगर्भित समीक्षा करने के लिए 🌹🙏🌹
      🌹आप दोनों द्वारा किया गया यह उत्साहवर्द्धन मेरे भावी लेखन के लिए पथ प्रदर्शक रहेगा 🚩 पुनः आभार 🙏😊🙏
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Sunday, November 17, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा "दैनिक भास्कर" में

🚩हार्दिक आभार आदरणीय राजेन्द्र दुबे जी  #दैनिकभास्कर में मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा प्रकाशित करने हेतु 🌹🙏🌹
🚩हार्दिक आभार आदरणीय Pro. Anand Prakash Tripathi जी मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह की इतनी सुंदर समीक्षा करने के लिए 🌹🙏🌹
      🌹 आप दोनों द्वारा किया गया यह उत्साहवर्द्धन मेरे भावी लेखन के लिए पथ प्रदर्शक रहेगा 🚩 पुनः आभार 🙏😊🙏
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Saturday, November 16, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | दुरुपयोग करबे की कोऊ इनसे सीखे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
दुरुपयोग करबे की कोऊ इनसे सीखे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        लोग बिजली विभाग खों कोसत रैंत आएं के कऊं मोहल्ला की लाईट गुल रई तो कऊं रोड पर की लाईटें हफ्ताखांड़ से बंद आएं। मनो जिते रोड लाईट जल रई हती उते का भऔ? उते जा भऔ के सड़क बत्ती के नैंचे भैया हरें जुआ खेल रये हते। पुलिस ने देखो तो उन ओरन खों पकर लओ। अब बिजली विभाग वारे चाएं सो कै सकत आएं के देख लेओ सड़क बत्ती को कैसो दुरुपयोग करो जा रओ, जेई से तो हम कंटीन्यू बिजली नई देत आएं। जेई टाईप से कारीडोर को दुरुपयोग होत रैत आए। चलो मान लओ बा पूरो को पूरो सेल्फी प्वाइंट औ रील प्वाइंट बन गओ आए। संझा होत साथ उते मोड़ा शूटिंग करन लगत आएं। चलो कोई नईं, इत्तो कर दओ अनदेखो। बाकी चकराघाट की तरफी को कारीडोर कार पार्किंग बन गओ आए। को देख रओ? कोऊ नईं। मनो सबसे बड़ो दुरुपयोग तो जे आए के कछू जनन ने ऊको सुसाइड प्वाइंट बना लओ। आपई कओ के जे बड़ो वारो दुरुपयोग भओ के नईं?
     अपने ई सहर में सयानों की कमी नोंई। कछू सयाने रोड को अपनई जागीर समझत आएं। रोड की तरफी पैले दो गमला धरे, फेर गमला को घेरत भये बल्लियां ठोंक के रस्सियां बांधी औ लेओ हो गओ अतिक्रमन सुरू। मनो रोडें चलबे के लाने नोईं घेरबे के लाने बनाई गई होंए। औ कटरा बजार होए चाए निगम मार्केट के इते, फुटपाथ सो दिखतई नईयां। उते तो ठिलियां औ दुकानेईं दिखात आएं। कछू जने तो इत्ते सयाने के ट्रांसफार्मर के खंबा से डोरी बांध के, ऊपे हुन्ना कपड़ा लटका के बेंचत रैत आएं। उने खुदई की जान की परवा नईं। जेई से हम कै रये के  दुरुपयोग करबे की कोऊ इनसे सीखे।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, November 15, 2024

शून्यकाल | जलवायु परिवर्तन तेज़ है लेकिन हम बहुत धीमे हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम शून्यकाल -                                                                                 जलवायु परिवर्तन तेज़ है लेकिन हम बहुत धीमे हैं  
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                     
      मौसम और जलवायु में बदलाव एक ऐसा विषय है जिस पर हम राजनीति, सिनेमा, फैशन और टीवी सीरियल जितना भी विचार नहीं करते। जबकि ये सभी चीजें जलवायु और मौसम जितनी बुनियादी नहीं हैं। हमारे जीवन का हर पल जलवायु और मौसम से प्रभावित होता है। अगर मौसम अनियमित है तो इसका सीधा असर कृषि उपज पर पड़ता है। हमारे घर का बजट कृषि उपज के दाम पर निर्भर करता है। गांवों से लोगों का पलायन भी इस बात पर निर्भर करता है कि अच्छी उपज है या नहीं। यहां तक ​​कि पीने का पानी भी मौसम पर निर्भर करता है। तो क्या हमें जलवायु परिवर्तन के कारणों को अपनी प्राथमिकता सूची में नहीं रखना चाहिए?
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दुनिया भर में पहले से ही महसूस किए जा रहे हैं - लगातार और गंभीर तूफान, बाढ़, सूखा और जंगल की आग से - हमारे शहरों, समुदायों, फसलों, पानी और वन्य जीवन को खतरा है। जलवायु परिवर्तन प्रकृति, प्रजातियों और लोगों के लिए एक बुनियादी खतरा है - लेकिन सामूहिक कार्रवाई करने में बहुत देर नहीं हुई है। दुर्भाग्य से जलवायु परिवर्तन तेज़ है लेकिन हम धीमे हैं। हम अब जलवायु परिवर्तन के खतरे को समझने लगे हैं, फिर भी इसे धीमा करने या रोकने के हमारे प्रयास बहुत धीमे हैं। जबकि जलवायु परिवर्तन किसी एक जाति, धर्म, समुदाय या देश के लिए नहीं बल्कि पूरी धरती के लिए खतरा है जिस पर न केवल मनुष्य बल्कि सभी जीवित प्राणी रहते हैं।

यह सही है कि मैं जलवायु परिवर्तन के खतरों से वाकिफ हूं। मैं लगातार इन खतरों और जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करने के प्रयासों के बारे में लेख लिखती हूं और अपने भाषणों के माध्यम से जागरूकता लाने की कोशिश करती हूं, लेकिन हाल ही में मैंने सकल प्रयासों की धीमी गति को गहराई से महसूस किया। जीवाश्म ईंधन के जलने और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका गया तो लाखों लोग भुखमरी, जल संकट और बाढ़ जैसी आपदाओं का शिकार हो जाएंगे। यह संकट पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा। हालांकि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर पड़ेगा। इसके साथ ही, वे देश इसका सबसे ज्यादा असर झेलेंगे जो जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। पिछड़े और विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का ज्यादा खतरा होगा। जलवायु परिवर्तन का असर आर्कटिक क्षेत्र, अफ्रीका और छोटे द्वीपों पर ज्यादा पड़ रहा है। उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक) दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में दोगुनी दर से गर्म हो रहा है। उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने कहा है कि भारतीय समुद्र सालाना 2.5 मिमी की दर से बढ़ रहा है।  एक अध्ययन से अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि भारतीय सीमा के निकट समुद्र स्तर बढ़ने का यह रुझान जारी रहा तो वर्ष 2050 तक समुद्र स्तर 15 से 36 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है।

मैं चाहती हूं कि हम अपनी अगली पीढ़ी को एक स्वस्थ और सुरक्षित पृथ्वी सौंपें, ताकि पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता बनी रहे। भारतीय संस्कृति "वसुधैव कुटुम्बकम" की विचारधारा पर आधारित है अर्थात पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है। मैं हमेशा अपने प्राचीन ग्रंथों से उन सांस्कृतिक मूल्यों को चुनकर याद दिलाने की कोशिश करती हूं जिनमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु संरक्षण का उल्लेख है। हमारी भारतीय संस्कृति दुनिया की अन्य सभ्यताओं की तुलना में प्रकृति के प्रति अधिक विचारशील रही है। आज भी भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से आगाह करने में दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। लेकिन "उत्सुक होने" और "तैयार होने" में फर्क है। दूसरे शब्दों में, हम सब कुछ सही करना चाहते हैं लेकिन सही तरीके से नहीं कर पाते। इसका एक उदाहरण मैं आपको अपने एक फैसले के रूप में देती हूं। यह फैसला लेते समय मुझे दुख हुआ लेकिन मैं मजबूर थी।

हुआ यूं कि मैंने स्कूटर खरीदने का फैसला किया। मैं इलेक्ट्रिक स्कूटर खरीदना चाहती था। इस तरह मैं जीवाश्म ईंधन की बर्बादी से बचा सकती थी और पर्यावरण को भी जीवाश्म ईंधन प्रदूषण से बचा सकती थी। जब मैंने इलेक्ट्रिक स्कूटी के बारे में पूछताछ शुरू की तो पता चला कि पेट्रोल से चलने वाली स्कूटी जहां एक लाख रुपये तक में मिल जाती है, वहीं इलेक्ट्रिक स्कूटी डेढ़ लाख रुपये से शुरू होती है। अगर किसी अच्छी कंपनी के इलेक्ट्रिक स्कूटर में इस्तेमाल की गई बैटरी को पांच साल बाद बदलना पड़े तो 25-30 हजार रुपये खर्च होंगे। अच्छी बात यह थी कि बिजली का खर्च पेट्रोल के खर्च से कम होने वाला था। लेकिन मेरे शहर में चार्जिंग स्टेशन नहीं हैं। अगर मैं घर पर स्कूटर चार्ज करना भूल गई और बीच रास्ते में चार्जिंग कम होने का सिग्नल मिला तो मैं कहां जाऊंगी और कैसे चार्ज करूंगी? क्या मुझे किसी के दरवाजे पर जाकर स्कूटर चार्ज करने के लिए कहना पड़ेगा? या फिर मुझे वहां से गाड़ी को दूसरे वाहन पर लादकर घर ले जाने का इंतजाम करना पड़ेगा। यह बहुत व्यावहारिक चिंता थी। ईवी विक्रेता इस बारे में बात करना कभी पसंद नहीं करते।  अगर आज भी हम उनसे इस बारे में बात करते हैं तो वो हंसते हुए कहते हैं कि ये छोटा शहर है, यहां दूरी ही कितनी है। ऐसी कोई दिक्कत कभी नहीं आएगी। अगर घर से निकलने से पहले गाड़ी को फुल चार्ज करके छोड़ा जाए तो बेशक ये दिक्कत नहीं आएगी। हर वक्त इतना अलर्ट नहीं रहा जा सकता है। यहां मैं किसी ईवी निर्माता, किसी ईवी एजेंसी या उसके सेल्सपर्सन को दोष नहीं देना चाहती। उनका कोई दोष नहीं है। वो भी ईवी के पक्ष में हैं ताकि प्रदूषण मुक्त गाड़ियां सड़कों पर दौड़ें। अगर कोई दोष है तो वो है हमारे सिस्टम की धीमी गति। जिस तेजी से ईवी गाड़ियां बाजार में उतारी गई हैं, उस तेजी से चार्जिंग स्टेशन नहीं बनाए गए हैं। मेरे शहर जैसे छोटे शहरों में चार्जिंग स्टेशन नहीं हैं। गांवों में चार्जिंग स्टेशन बनने में अभी काफी समय है।

मैंने व्यावहारिक रूप से सोचा और अपने लिए एक पेट्रोल से चलने वाला स्कूटर खरीदा। इसे खरीदते समय मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपने सिद्धांतों को तोड़ रही हूँ। जैसे मैं कोई अपराध कर रही हूँ। लेकिन मेरे पास कोई और विकल्प भी नहीं था। वाहन कोई भी हो, दिन हो या रात कभी भी उसकी जरूरत पड़ सकती है। जब कोई अकेली महिला या लड़की शाम के बाद किसी काम से घर से निकलती है और वह जल्दी में चेक नहीं कर पाई कि चार्जिंग कितनी है? फिर अगर रास्ते में उसका चार्ज चुक जाए तो वह क्या करेगी? अगर शहर में एक निश्चित दूरी पर चार्जिंग पॉइंट हों तो उसे कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन अगर चार्जिंग पॉइंट या चार्जिंग स्टेशन ही नहीं होंगे तो वह क्या करेगी? जब पेट्रोल वाहन में अचानक पेट्रोल खत्म हो जाता है, तो रास्ते से गुजरने वाला कोई वाहन चालक मानवता के नाते इतना पेट्रोल दे देता है कि मुसीबत में फंसा व्यक्ति पेट्रोल पंप तक पहुँच सकता है। लेकिन ईवी वाहन में रास्ते में कोई चाहकर भी मदद नहीं कर सकता।

इन सबका मतलब यह है कि जिस गति से जलवायु परिवर्तन हो रहा है और जिस उत्सुकता से हम जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करना चाहते हैं, उसके साथ हम अपने प्रयासों को जारी रखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। इसलिए, जलवायु परिवर्तन के जोखिमों को कम करने के लिए व्यावहारिक रूप से हमारे प्रयासों में तेजी लाने की आवश्यकता है। 
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Thursday, November 14, 2024

बतकाव बिन्ना की | स्कूल-काॅलेज के लिंगे गुटखा ने बिकहे, औे दारू...? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
स्कूल-काॅलेज के लिंगे गुटखा ने बिकहे, औे दारू...?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘जो बड़ो अच्छो करो के स्कूल- काॅलेज के लिंगे गुटखा घांई चीजें ने बिकहे।’’ भौजी खुस होत भईं बोलीं।
‘‘औ का, तनक-तनक से बच्चा गुटखा खाबे से होन वारे नुकसान तो जानत नइयां, बाकी बड़ों खो देख के उनको सोई गुटखा खाबे की लत लग जात आए। औ फेर होत जे आए के जेब खर्च के लाने दए गए पइसा से बे गुटखा खरीदन लगत आएं। अब स्कूल-कालेज के लिंगे गुटखा ने मिलहें सो बे ने खरीद पैहें।’’मैंने कई। मोए जा खबर भौतई नोनी लगी हती।
‘‘हऔ, उन ओरन खों देखो जो मजूरी करत आंए। उनको तो काम ई नईं चलत गुटखा खाए बिना। मनो बे गुटखा नोईं कोनऊं इनर्जी को चूरन फांक रए होंए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘जेई से तो सई करो के गुटखा स्कूल-कालेज के लिंगे ने बिकहे।’’ मैंने कई।
‘‘औ दारू के अहातन को का हुइए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘दारू के अहातन को? उनके लाने तो अबे कछू नई कहो गओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘जेई तो! गुटखा के लाने जा कदम उठाओ गओ, भली करी। मनो दारू के ठेका के लाने सोई कछू सोचो होतो। देखत नइयां के कऊं स्कूल के लिंगे, तो कऊं कालेज के लिंगे, तो कऊं मंदिर के लिंगे अहातो खुलो धरो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कई आपने! उते तो देखो के ऊके आंगू एक बैंक आए औ बाजू में खेल परिसर आए। का बा जांगा दारू के अहातो के लाने ठीक आए?’’ भौजी बोलीं।
‘‘अरे भौजी, जे कओ के उते के दारूखोर हरें ईमानदार आएं। जो बे अहातों की तरफी छोड़ औ कोनऊं तरफी नईं हेरत आएं।’’ मैंने हंस के कई।
मोरी बात सुन के भैयाजी औ भौजी सोई हंसन लगीं। 
‘‘ईमानदार दारूखोर!’’ भौजी को मोरी बात भौत पोसाई। बे दोहरात भईं हंसन लगीं।
‘‘औ का भौजी! बाकी मोय जे नईं पतो के उते बाजू में खेलबे खों जाबे वारे मोड़ा-मोड़ी कित्ते ईमानदार आएं? बे अहाते में ढूंकत आएं के नईं?’’ मैंने ऊंसई हंस के कई।
‘‘सई कई भूसा के ऐंगर लुघरिया धरी उते तो। अब भूसा उड़ के लुघरिया पे ने गिरे तो अच्छो! ने तो जै राम जी की!’’ भौजी बोलीं।
‘‘बिन्ना! मोय तो जे लगत आए के प्रसासन को जे सब नईं दिखात आए का?’’ भैयाजी बोले।
‘‘को जाने, बे ओरें धृतराष्ट्र घांईं अंधरा होंए? औ ने तो गांधारी घांई आंखन में पट्टी बांध रखी होए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! जो अपन सबई खों दिखात रैत आए, बस जे प्रसासन वारे काए नईं देख पात आएं?’’ मैंने सोई अचरज प्रकट करी।
‘‘अरे कछू नईं, दारू से अच्छो रेवेन्यू मिलत आए। जे ई से।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अपन ओरन पे टैक्स सो ऊंसई मुतके लगा रखे आएं, सो दारू को रेवेन्यू तनक छोड़ो नईं जा सकत का? चलो, नईं छोड़ो जा सकत, मान लओ! सो, का अहातो इत्ते दूर नईं करो जा सकत आए का के उते मोड़ा हरें ने पौंच सकें। औ ने उनसे कोऊ रैवासी डिस्टर्ब हो सके।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘डिस्टर्ब की ने कओ! एक दार की किसां हम तुमें सुना रए। जे कोनऊं पांचेक साल पैले की बात आए। का भओ रओ के हम ओरें कटरा से बजारे कर के लौट रए हते। जेई कोऊं रात के नौ बजे हुइएं। बा रास्ते में अहातो परत आए न, उते एक मानुस रोड के बाजू में डरो हतो। तुमाई भौजी ने देखो तो मोसे कैन लगीं के गाड़ी रोको। मैंने पूछी काए? तो कैन लगीं के उते कोनऊं घायल डरो। मैंने अपनी फटफटिया रोकी औ मुंडी घुमा के तनक गौर से देखो सो मोए हंसी आ गई। जै बिगर परीं के उते कोऊं मरो जा रओ औ तुमें हंसी आ रई? तब मैंने इने समझाओ के बा कोनऊं घायल नोईं, बा दारूखोर आए जो टुन्न हो के उते डरो। बा चलती-फिरती 302 आए। इन्ने सुनीं सो जे तुरतईं बोलीं के चलो इते से। काए के लाने ठाड़े हो? मने पैले जेई बोलीं के ठैरो और फेर खुदई ठेन करन लगीं के काए ठैरे हो? तुमाई भौजी बी गज़बई की आएं।’’ भैयाजी ने कई औ हंसन लगे।
‘‘सो, हमें का पतो रओ के बा टुन्न डरो, के कोनऊं घायल आएं?’’ भौजी सोई हंसत भई बोलीं। फेर खुदई तनक सीरियस होत भईं कैन लगीं के,‘‘अच्छो है बिन्ना के तुमाए भैयाजी खों जे लत नोंईं। तनक सोचो के जोन के घरे के लुगवा इत्तो पियत आएं उनके घरे का होत हुइए? उते घरवारी औ मोड़ा-मोड़ी बाट हेरत हुइएं औ जे इते पी-पा के सड़क पे लुढ़के डरे। औ कोऊ-कोऊ तो घरे पौंच के मार-पीट सोई करत आएं। कित्तो बुरौ लगत हुइए न उन ओरन को?’’
‘‘औ का भौजी! दारू-मारू कोनऊं अच्छी चीज थोड़े आए।’’ मैंने कई।
‘‘मनो जो हमें दारू की आदत होती तो तुम का कर लेतीं?’’ भैयाजी ने भौजी से पूछी। उने तनक ठिठोली सूझी।
‘‘हम आपके लाने अच्छो लट्ठ घुमा के देते। एकई दिनां में दारू-मारू सबई छूट जाती।’’ भौजी हाथ घुमा के एक्टिंग करत भई बोलीं।
उने देख के मोय तो हंसी फूट परी औ भैयाजी सोई हंसन लगे। 
‘‘जेई से तो हमने कभऊं दारू खों छियो नईं। हमें पतो रओ के तुम तो हमाए प्रानई ले लैहो।’’ कैत भए भैया डरबे की एक्टिंग करन लगे।
‘‘मनो, जे तो सई आए भैयाजी कि जोन टाईप से गुटखा के लाने कओ गओ आए के बा स्कूल-कालेज के लिंगे ने बिके, ऊसई दारू के लाने बी भओ चाइए के ऊको अहातो शहर से बाहरे होए। जोन खों लगे सो शहर के बाहरे जाए। सिटी में पी के ने डरो रए। अरे, लुगाइयां, मोड़ियां सबई निकरत आएं उते से। जे ठीक नोंई।’’ मैंने भैयाजी से कई।         
‘‘सई कई बिन्ना! मनो एक तो कोऊ विरोध नईं करत, औ जो कोनऊं बिरोध करे तो प्रसासन कांन में उंगरिया डार लेत आए। अपन ओरन के चिंचिंयाए से का हो रओ?’’ भैयाजी तनक निरास होत भए बोले।
‘‘अरे जी छोटो ने करो भैयाजी, हो सकत के कोनऊं दिनां ई तरफी सोई ध्यान दओ जाए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘हऔ, सई कई।’’ भौजी ने मोरी बात पे हामी भरी।
 बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के गुटखा के लाने जैसो नियम बनाओ ऊंसई कोऊ दिनां दारू के लाने सोई नियम बने। जै राम जी की! 
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Wednesday, November 13, 2024

चर्चा प्लस | हाशिए की औरतों का आर्थिक योगदान | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
हाशिए की औरतों का आर्थिक योगदान
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

     अपने पारिवारिक दायित्वों से समय बचा कर, घर में ही काम करते हुए चार पैसे कमाने का रास्ता इन औरतों का सहारा बनता है। इन महिलाओं को भले ही कामकाजी न कहा जाए अथवा इनके आर्थिक योगदान को रेखांकित नहीं किया जाए फिर भी दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुएं इन्हीं के श्रम और कौशल से निर्मित होती हैं। दरअसल, चाहे सफाई के काम में आने वाली झाडू हो, ड्राइंगरूम को सजाने वाली वस्तुएं अथवा फैशन की दुनिया में रैम्प पर जगमगाते वस्त्रों का रंग और पैटर्न हो, ये सब आर्थिक जगत के हाशिए पर मौजूद इन औरतों का महत्वपूर्ण किन्तु मौन योगदान होता है। 
    कामकाजी औरतों की चर्चा होते ही प्रायः उन स्त्रियों की छवि आंखों के आगे तैर जाती है जो किसी स्कूल, कार्यालय अथवा अन्य कार्यस्थलों में काम करती हैं और बदले में निश्चित वेतन पाती हैं। इसी तरह आर्थिक जगत का नाम आते ही कुछ नामचीन महिलाओं का स्मरण जाग उठना स्वाभाविक है। लेकिन उन औरतों पर प्रायः ध्यान नहीं जाता है जो कामकाजी की श्रेणी में प्रत्यक्षतः नहीं आती हैं किन्तु परिवार, समाज और देश के लिए उनका आर्थिक योगदान बहुत मायने रखता है। इनका कौशल इनकी व्यक्तिगत पहचान का दायरा भले ही सीमित क्षेत्र में सिमटा रहता है किन्तु इसके कौशल का लोहा सभी मानते हैं। ये औरतें उस हाशिए की औरतें हैं जहां उनकी मुख्य पहचान खंाटी घरेलू औरत की होती है। उद्यमिता के दृष्टिकोण से इस प्रकार की महिलाओं में से कुछ को कुटीर उद्योग तो कुछ को लघुउद्योग से जुड़ा हुआ देखा जा सकता है किन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो किसी भी श्रेणी में दिखाई न देती हुई भी अर्थोपार्जन करती रहती हैं।
‘घर का काम तुम्हारा और बाहर का हमारा’ वाले श्रम के लैंगिक विभाजन का एक बड़ा प्रचलित हिस्सा एक फरेब है क्योंकि जब हम अर्थव्यवस्था से जुड़े आँकड़ें जुटाते हैं तो बड़ी संख्या में घर पर काम करके कमाने वाली महिलाओं की बड़ी संख्या अदृश्य होती है। पुरुष श्रम करता दिखाई देता है लेकिन उसके घंधे के लिए तैयारी करने वाली स्त्री पर्दे के पीछे छिप जाती है। खेतों में श्रम करना और गाय-बैल की पानी-सानी करना और बाकी बेहुनर काम सब स्त्रियाँ करती आई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में 83 फीसद औरतें हैं जबकि जिन जमीनों पर उनका श्रम लगता है उनका मालिकाना हक पुरुषों के पास है। पहाड़ों पर अक्सर औरतें घर देखने के साथ-साथ खेती, बुनाई जैसे काम तो करती ही हैं। वही बड़ी संख्या न सिर्फ घर के काम करती है बल्कि अचार दृपापड़ बनाकर, ऊनी कपड़े बुनकर, कढाई वगैरह करके पति की कमाई में अपना हिस्सा जोड़ती है ताकि घर को ठीक से चलाया जा सके, बच्चों को कुछ और सुविधाएँ मिल सकें। बीड़ी, अगरबत्ती, टोकरियाँ, कारपेट आदि बनाने के लघु उद्योग औरतों के श्रम से चलते हैं। 
देश में अनेक ऐसे लघु और कुटीर उद्योग हैं जिनकी बुनियाद घरेलू औरतों के श्रम पर टिकी हुई है। ये औरतें कामकाजी श्रेणी के खंाचे में नहीं आती हैं। ये अपना परिवार सम्हालती हैं, बच्चे पालती हैं, सभी नाते-रिश्ते, धार्मिक परम्पराएं तथा सामाजिक नियमों का सावधानीपूर्वक पालन करती हैं। यहां तक कि घरेलू हिंसा का शिकार भी होती रहती हैं फिर भी अपने परिवार के लिए चंद रुपये जुटाने के लिए अपने आराम के दो पल भी भेंट चढ़ा देती हैं। भले ही इनके श्रम को कोई महत्व नहीं मिलता, परिवार की ओर से भी इनके अर्थोपार्जन को महत्व नहीं दिया जाता, फिर भी ये काम करती हैं और पैसे कमाती हैं और वह भी सम्मानजनक तथा वैधानिक ढंग से। 
भारत में घरेलू उद्योगों का दयारा गांवों व शहरों दोनों क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसमें विभिन्न तरह के उत्पादन, कृषि, गैर कृषि आदि शामिल हैं। घरेलू उद्योग पुराना उद्योग है लेकिन नई आर्थिक नीतियों ने इसे प्रोत्साहित किया है। कृषि क्षेत्र में बढ़ रही अरुचि और गांवों में रोजगार के सीमित साधनों ने भी इस उद्योग को बढ़ावा दिया है। घरेलू कामगार अधिकतर महिलाएं व लड़कियां ही होती हैं। समाज में एक महिला की भूमिका उसके घरेलू कार्यों से ही आंकी जाती है। उस पर बच्चों की देखभाल और घर परिवार की सेवा का दायित्व होता है। इसलिए भी घरेलू उद्योग उसके अनुकूल रहता है। क्योंकि घर में रहते हुए आर्थिक गतिविधियों से जुड़ने पर उसके घरेलू, सामाजिक दायित्व ज्यादा प्रभावित नहीं होते। जैसे एक बीड़ी लपेटने का काम करने वाली महिला अपना यह काम करते हुए छोटे बच्चे को स्तनपान भी करा सकती है। सामाजिक प्रचलन भी महिला को घर बैठ कर काम करने को बढ़ावा देते हैं। 
बीड़ी बनाने का कार्य दो स्तरों पर होता है। पहले स्तर पर बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता जुटाना होता है जिससे बीड़ी को आकार दिया जाता है। दूसरे स्तर पर बीड़ी लपेटने और उन पर ‘झिल्ली’ लगाने का काम होता है। बीड़ी निर्माण की सकल प्रक्रिया दो भागों में बंटी होती है- तेंदूपत्ता संग्रहण तथा बीड़ी लपेटना। इन दोनों कार्यों में पैंसठ से पचहत्तर प्रतिशत स्त्रियां कार्य करती हैं। ये स्त्रियां जिन जीवन-दशाओं में रह कर कार्य करती हैं उन्हें निकट से देखने, जानने और अनुभव करने के बाद एक बात साक्ष्यांकित हो जाती है कि स्त्रियों में असीमित सहनशक्ति एवं परिवार के प्रति समर्पण की भावना होती है। देश में कई ऐसी निजी संस्थाएं हैं जो तेंदूपत्ता संग्रहण में लगे श्रमिकों के पक्ष में संघर्षरत हैं। जैसे आस्था नामक संस्था सन् 1986 से संघर्ष कर रही है। इस संस्था के प्रयासों से सन् 1990 में कोटरा, राजस्थान में तेंदूपत्ता संघर्ष समिति का गठन किया गया था जिसने तेंदूपत्ता संग्रहण करने वाले श्रमिकों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक में बढ़ोत्तरी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अहमदाबाद की सेवा संस्था भी एक ऐसी निजी संस्था है जिसकी शाखाएं देश भर में फैली हुई हैं। सेवा तेंदू पत्ता संग्रहकर्ता औरतों के हितों के लिए भी समय-समय पर संघर्ष करती रहती है। विभिन्न राज्यों में स्थानीय स्तर पर विभिन्न श्रम संगठन भी इन औरतों के अधिकार के लिए आवाज उठाते रहते हैं। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार अकेले मध्यप्रदेश की कुल मुख्य कार्यशील जनसंख्या में महिलाओं का प्रतिशत लगभग 26.3 प्रतिशत था। तेंदू पत्ता संग्रहण तथा बीड़ी बनाने के अतिरिक्त अगरबत्ती उद्योग में भी महिलाओं की बड़ी संख्या कार्यरत है। 
अगरबत्ती की मांग लगभग हर घर में होती है। घर को सुगंधित करना हो या फिर पूजा करने के लिए अगरबत्ती की आवश्यकता पड़ती है। घर बैठी महिलाओं के लिए यह स्वरोजगार के रूप में कमाई का महत्वपूर्ण साधन बन चुका है। अगरबत्ती के प्रति पैकेट उत्तमता के अनुसार एक रूपये से लेकर 100-150 रूप्ये तक बिकते हैं। इस काम के लिए किसी विशेष शिक्षा अथवा दक्षता की आवश्यकता नहीं होती है। काम करने की ललक ही सबसे बड़े कौशल के रूप में दक्षता दिलाता है। कम पढ़ी लिखी अथवा अशिक्षित महिलाएं भी अगरबत्ती बनाने के काम में निपुण साबित होती हैं। 
अचार, पापड़ और चिप्स आदि बनाने के कार्य में 95 प्रतिशत महिलाएं संलग्न होती हैं। ये महिलाएं अपने घरेलू दायित्वों के साथ बड़ी कुशलता के साथ इन कार्यों को करती हैं। उदाहरण के लिए पापड़ उद्योग को ही ले लिया जाए। महिलाओं को पापड़ के लिए सामग्री दी जाती है। उन्हें घर जाकर सिर्फ बेलने का काम करना पड़ता है। इस काम में प्रत्येक महिला एक हजार से तीन हजार रूपए प्रतिमाह तक कमा लेती है। मसालों को साफ कर, पीसकर तथा पैक करने में जो महिलाएं अपना योगदान करती हैं, वे भी अप्रत्यक्ष रूप से देश के कुटीर एवं लघु उद्योग को सुदृढ़ता प्रदान करती हैं। 
केन्द्र एवं राज्य सरकारों की ओर से विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत स्वसहायता समितियों के गठन को प्रोत्साहन तथा आर्थिक सहायता भी दी जाती है। इनके अंतर्गत उन औरतों को एक समूह के रूप में संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जो अकेली घर से निकलने, किसी पराए पुरुष से बात करने तथा घरेलू कार्यों से इतर काम करने से झिझकती हैं। ऐसी औरतें आपस में मिल कर परस्पर एक-दूसरे का सहारा बनती हैं तथा एक-दूसरे के लिए प्रेरक का काम करती हैं। ये वही औरतें हैं जो घरेलू स्तर पर मसाला बनाने के व्यवसाय में कामगार की भूमिका निभाती हैं, ये वही औरतें हैं जो अचार और बड़ियां बनाती हैं, ये वही औरतें हैं जो लखनऊ के चिकन का कशीदा, वाराणसी का जरी उद्योग, जयपुर की रजाइयां और बंधनी में अपना योगदान देती हैं। यूं भी सलवार, कमीज, लहंगे-चुन्नी, रेडीमेड कपड़ों इत्यादि सभी पर कढ़ाई का प्रचलन हमेशा ही रहा है। मोमबत्ती और टेराकोटा की सजावटी वस्तुएं बनाने के कार्य में भी घरेलू औरतों का पुरुषों से अधिक प्रतिशत रहता है। बांस, नारियल के रेशे, जूट आदि से उपयोगी सामान बनाने का कार्य महिलाएं घर बैठे करती हैं तथा अपने परिवार को आर्थिक मदद करती हैं। 
बढ़ती हुई महंगाई के इस जमाने में जितना भी धन कमाया जाए वह परिवार के गुजारे के लिए अपर्याप्त है । यदि बच्चों को उचित शिक्षा दिलानी है या अपने परिवार का सामाजिक व आर्थिक स्तर ऊंचा उठाना है तो महिलाओं को आगे आना ही पड़ता है। देश में सामाजिक, पारिवारिक ढांचा तथा शैक्षिक स्तर  अभी भी प्रत्येक महिला को पूर्णरूप से कामकाजी बनने का वातावरण मुहैया नहीं कराता है। ऐसी स्थिति में अपने पारिवारिक दायित्वों से समय बचा कर, घर में ही काम करते हुए चार पैसे कमाने का रास्ता इन औरतों का सहारा बनता है। इन महिलाओं को भले ही कामकाजी न कहा जाए अथवा इनके आर्थिक योगदान को रेखांकित नहीं किया जाए फिर भी दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुएं इन्हीं के श्रम और कौशल से निर्मित होती हैं। दरअसल, चाहे सफाई के काम में आने वाली झाडू हो, ड्राइंगरूम को सजाने वाली वस्तुएं अथवा फैशन की दुनिया में रैम्प पर जगमगाते वस्त्रों का रंग और पैटर्न हो, ये सब आर्थिक जगत के हाशिए पर मौजूद इन औरतों का महत्वपूर्ण किन्तु मौन योगदान होता है। यही हैं वे औरतें जो किसी भी आर्थिक श्रेणी में नहीं रखी जाती हैं लेकिन परिवार और समाज की आर्थिक रीढ़ की भूमिका अदा करती हैं।
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Tuesday, November 12, 2024

पुस्तक समीक्षा | भावनाएं जब नदी बन कर बहती हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 12.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डाॅ. शिवा श्रीवास्तव  जी के काव्य संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भावनाएं जब नदी बन कर बहती हैं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - भावना के विविध रंग
कवयित्री     - डाॅ. शिवा श्रीवास्तव 
प्रकाशक     - वाची प्रकाशन, बी-59, गुलाब बाग, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
मूल्य        - 300/- 
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     एक बार पाब्लो नरुदा से उनके एक प्रशंसक ने पूछा कि ‘‘आप कविता क्यों लिखते हैं?’’ पाब्लो नरुदा ने तत्काल उत्तर दिया कि ‘‘मैं कविता नहीं लिखता, कविता मुझे लिखती है।’’ वस्तुतः एकदम सटीक उत्तर था पाब्लो नरुदा का। जब किसी सृजनकर्ता के जीवन में उसकी सृजनात्मकता उसका पर्याय बनने लगती है तो ठीक वहीं से वह सृजन करने का दावेदार नहीं रह जाता, अपितु उसका सृजन उसे रचने लगता है। कुछ इसी दिशा की ओर बढ़ रही हैं कवयित्री डाॅ. शिवा श्रीवास्तव। उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘‘भावना के विविध रंग’’ में संग्रहीत उनकी कविताएं इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि डाॅ. शिवा श्रीवास्तव की भावनाएं एक नदी की भांति प्रवाहित हो रही हैं और उन्हें उस दिशा की ओर ले जा रही हैं जहां उनका अस्तित्व काव्य को जीने लगेगा। संग्रह की भूमिका में समाजवादी चिंतक, कवि रघु ठाकुर ने शिवा श्रीवास्तव की कविताओं के बारे में लिखा है कि -‘‘उनकी कविताओं में पीड़ा, प्रेरणा व संकल्प तीनों हैं। मुझे खुशी होगी कि बौद्धिक जगत उनकी इस प्रतिभा को पहचाने, पीड़ित दुनिया, उनके विचारों से उद्वेलित हो, और समता के लक्ष्य को पाने की ओर विचार करे और आगे बढ़े। शिवा जी की कविताएं, भावनाओं की बाढ़ लाती है. फिर वे उन्हें बांधकर, नियंत्रित करती हैं और एक मार्ग रूपी नहर में छोड़कर जनहित का माध्यम बना देती है।’’ 
साहित्यकार मुकेश वर्मा ने अपने ‘‘प्राक्कथन’’ में इन कविताओं को ‘‘इस अराजक समय में एक कवि का जरूरी बयान यानी शिवा की कविताएं’’ कहा है। वहीं वरिष्ठ पत्रकार जयंत सिंह तोमर शिवा श्रीवास्तव की कविताओं को ‘‘नीराजना’’ कहा है। नीराजना का एक अर्थ होता है कर्पूर की भांति जल कर सुगंध और प्रकाश देना तथा दूसरा अर्थ कि शस्त्र को धारदार बनाना। देखा जाए तो यह एक शब्द ही डाॅ शिवा की कविताओं का सटीक अर्थांकन कर देता है। इन कविताओं में भावनाओं का कर्पूर भी है और सदाकांक्षाओं की धार भी। 
डाॅ. शिवा श्रीवास्तव की कविताओं से गुज़रते हुए मैंने अनुभव किया कि कवयित्री के भीतर एक छटपटाहट है सब कुछ ठीक कर देने की। तमाम विसंगतियों को दुरुस्त कर एक बेहतर संसार बसाने की। ऐसे ही निरापद संसार का स्वप्न अपने बच्चों के लिए एक मां देखती है। ‘‘मां’’ एक स्त्री का समग्र स्वरूप भी होती है। कवयित्री ने अपना यह प्रथम काव्य संग्रह अपनी मां को समर्पित किया है। 
संग्रह की सम्पूर्ण 106 कविताएं विषयानुसार पांच खंडों में विभक्त हैं- खंड 1 अनुभूतियां, खंड 2 प्रेम, खंड 3 स्त्रियां, खंड 4 प्रकृति और नदियां, खंड 5 छोटी कविताएं। 
प्रथम खंड-अनुभूतियां को एक भावनात्मक सरिता का उद्गम माना जा सकता है जिसमें कवयित्री मन की तथा जग की भावनाओं को कोमल शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं। इस प्रथम खंड की दूसरी कविता मन को गहरे तक छू लेने का माद्दा रखती है। इसका शीर्षक है- ‘‘अम्मां के पल्लू की गांठ’’। इस कविता में ‘पल्लू की गांठ’ मां के दायित्वों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। इसमें ‘हाईलाइटर’ का प्रयोग अनूठा एवं बेहद प्रभावी है। कविता का एक अंश देखिए-
वे गांठ का सहारा लेतीं थीं।
बाबा अपने दफ्तर के काम 
अम्मां से याद रखवाते 
या यूं कहें-पूरा घर ही उनसे 
अपने-अपने काम याद रखवाता था 
पल्लू में गांठ लगाना 
बिना भूले उन्हे, सबकुछ याद कराता था।
किसी डायरी में लिखे 
जरूरी कामों की सूची 
पर हाइलाइटर-सी वो गांठ 
बिना पन्ने पलटे ही दिख जाती थी।
दूसरे खंड प्रेम में प्रेमासिक्त वे रचनाएं हैं जो प्रेम को देह की नहीं वरन आत्मा की अनुभूति का विषय बनाती हैं। यूं भी एक स्त्री जब प्रेम की बात करती है अथवा प्रेम के बारे में सोचती है तो वह उसे देह से परे रख कर ही सोचती है। उसके लिए प्रेम प्रथम और देह दोयम होती है। उसके लिए एक अदद स्पर्श भी आत्मा को छूने के समान होता है। डाॅ. शिवा भी अपनी कविताओं में प्रेम के इसी निश्च्छल एवं निद्र्वंद्व स्वरूप को व्याख्यायित करती हैं। उनकी एक कविता है ‘‘वो क्षण’’। इस कविता को कवयित्री की प्रेम कविताओं के मर्म को जानने के लिए बानगी के रूप में चुना जा सकता है-
तुम्हारे स्पर्श मात्र से 
देर तक तपता रहा था मन... 
वो क्षण ठहरा कहां था 
ठहर सकता भी नहीं था 
उसे तो बीतना ही था 
सदा के लिए... 
स्मृति हो जाने को।
स्मृतियां इसे कभी नहीं मरने देंगी 
बार-बार जीवित करती रहेंगी..... 
डाॅ. शिवा श्रीवास्तव की कविताएं एक सुंदर शाब्दिक प्रवाह लिए हैं। इनमें प्रश्न हैं, उत्तर हैं, वर्णन हैं, व्याख्याएं हैं और अनुभूतियों का विपुल भंडार है। खंड 3 स्त्रियां की कविताएं उनके सृजन की इन्हीं विशेषताओं से परिचित कराती हैं। वे प्रकृति का मानवीकारण करती हैं किन्तु मानव के अस्तित्वबोध को उजागर करने के लिए। वे प्रश्न करती हैं नदियों के उद्गम पर किन्तु उसमें निहित है स्त्री का समूचा जीवन। जैसे उनकी कविता ‘‘नदियों के घर’’ की ये पंक्तियां देखिए -
क्या नदियों के उद्गम ही 
उनके घर होते हैं?
या/ बहते-बहते जिस 
अंतिम छोर पर 
विलीन हो जाती हैं,/वो?
या फिर पहाड़ की तलहटियों में 
कोई घर होता है उनका?/या
नदियों का कोई घर होता ही नहीं 
वे जन्म से विलीन होने की यात्रा को 
ही अपना घर मानती रहती हैं?
प्रकृति को भली-भांति पढ़ना जानती है कवयित्री। खंड 4 में उनकी कविताएं प्रकृति और नदियांे को समर्पित हैं। कवयित्री का तादात्म्य है प्रकृति के साथ इसीलिए प्रकृति के क्षरण पर उसे पार पीड़ा होती है। जो प्रकृति की आवाज़ सुन सकता है, वह एक पेड़ को बेरहमी से काटे जाने पर उसके रुदन का स्वर भी सुन सकता है। कोई भी चीत्कार, कोई भी मर्मांतक पीड़ा का स्वर एक संवेदनशील मन को दहला सकता है। फिर पेड़ कटने पर उसके रुदन का स्वर कवयित्री को सुनाई देना स्वाभाविक है। कविता ‘‘उस पेड़ के कट जाने पर’’ एक ऐसे ही रुदन से जन्मी है-
ये रुदन कैसा सुनाई दे रहा है 
कहां से ये आवाज आ रही है 
किसी पेड़ से डाली गिरी है चरमरा कर 
तने से टूटने पर, आंसूओं की धार है ये
तने से मजबूत डाली कैसे गिर गई? 
नहीं-नहीं कुल्हाड़ी चलाई है 
पत्ते चीखे चिल्लाए 
कुछ लड़ते हुए नीचे गिर आए... 
संग्रह के खंड 5 में छोटी-छोटी कुल बीस कविताएं हैं जो शब्दों की सीमितता के अनुसार भले ही छोटी हों किन्तु उनके भाव विस्तृत हैं। इस खंड की छठी कविता में कवयित्री की कोमल भावनाओं को तंरगायित होते हुए स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है-
यहां न आम्र बौर है 
न कोई पगडंडी 
मैं कनुप्रिया भी नहीं 
बस तुम्हारा भाव 
मुझे वो सब बना रहा है। 
‘‘भावना के विविध रंग’’ कविता संग्रह पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान विषय में डाॅक्टरेट की उपाधि प्राप्त सशक्त कवयित्री डाॅ शिवा श्रीवास्तव की उन तमाम भावनाओं की शाब्दिक प्रस्तुति है जो उद्गम का पता बताती हैं, प्रवाह के दौरान तटों से टकराती हैं, चरैवेति कहती हुई द्रुतगामी रहती हैं तथा तलछट को भी टटोलती चलती हैं। कवयित्री में भाषिक कौशल है, शिल्पविधान की पकड़ है जिससे संग्रह की कविताएं पाठक के मानस पर गहरा प्रभाव डालने में सक्षम हैं। डाॅ. शिवा श्रीवास्तव के इस संग्रह को अवश्य पढा जाना चाहिए।  
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Saturday, November 9, 2024

"जिस समाज में साहित्यकार और कलाकार होते हैं वह समाज निरंतर प्रगति करता है।" डॉ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्य अतिथि, पुस्तक लोकार्पण

"जिस समाज में साहित्यकार और कलाकार होते हैं वह समाज निरंतर प्रगति करता है।" बतौर मुख्य अतिथि मैंने अपने उद्बोधन में कहा। अवसर था 08.11.2024 को श्री रमेश चौकसे (से.नि. सहा. वन संरक्षक) के काव्य संग्रह  "गति ही जीवन है" के लोकार्पण का और आयोजन किया था हैहय क्षत्रिय कल्चुरी समाज, सागर ने।
   इस अवसर पर मेरे साथ थीं अतिथि डॉ. सुजाता मिश्र एवं श्री माधव चंद्र चंदेल।  श्रीमती क्लीं राय ने भी अपनी पुस्तकें हमें भेंट की। हैहय क्षत्रिय कल्चुरी समाज की उपस्थिति का एक विशेष गरिमामय अनुभव रहा।


सभी तस्वीरों के लिए प्रिय भाई माधव चंद्र चंदेल का हार्दिक आभार 🙏
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