Thursday, September 26, 2019

बुंदेलखंड की काव्यात्मक कहावतों में जीवन की सच्चाई - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की काव्यात्मक कहावतों में जीवन की सच्चाई
  - डॉ. शरद सिंह

(नवभारत में प्रकाशित)
कहावतें जीवन का सबसे रोचक पक्ष होता है। कहावतों के माध्यम से वह सब कुछ संक्षेप में कह दिया जाता है जो शिक्षाप्रद होता है लेकिन सुनने वाले को यह झुंझलाहट नहीं होती है कि उसे कोई सीख दी जा रही है। कहावतें अनुभव से उपजती हैं। उनका कोई रचयिता अथवा लेखक नहीं होता है। प्रत्ये क्षेत्र, प्रत्येक भाषा और प्रत्येक बोली की अपनी कहावतें होती हैं। बुंदेलखंड में भी अनेक कहावतें प्रचलित हैं। जिनमें कुछ गद्यात्मक कहावतें हैं तो कुछ काव्यात्मक। तुकबंदी में कही गई कहावतें और अधिक रोचक एवं असरदार हैं तथा इनमें जीवन के यथार्थ को बड़े ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया गया है। ये कहावतें  वाचिक परम्परा के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं। ये सामाजिक जगत में व्यवहारिक ज्ञान के रूप में भी हमारे बीच उपस्थित रहती हैं। कहावतों का चुटीलापन उन्हें समसामयिक एवं कालजयी बनाता है।
Bundelkhand Ki Kavyatmak Kahavton Me Jeevan Ki Sachchai  - Dr Sharad Singh, Navbharat, 26.09.2019
      बुंदेलखंड की काव्यात्मक कहावतों में लोकनीतियां और व्यावहारिक ज्ञान के तत्व एक साथ मिलते हैं। इनमें स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान से ले कर लोक दर्शन तक, मौसम संबंधी ज्ञान से ले कर कृषि संबंधी ज्ञान तक इन कहावतों में मौजूद है। लोकविश्वास, इतिहास, परम्परा और सामाजिकता भी इन कहावतों में निहित है। इन काव्यात्मक कहावतों में भले ही साहित्यगत शास्त्रीयता देखने को नहीं मिलती हो किन्तु इनकी लयात्मकता और काव्यात्मकता देखते ही बनती है।
कहावतें मूलतः घटनाओं से जन्मती हैं। जब कोई घटना घटित होती है तो उस पर की गई टीका-टिप्पणी में से ही वे कथन जिनमें घटना का सार और शिक्षा रहती है, कहावत के रूप में स्थापित हो जाते हैं। जैसे बुंदेलखंड में प्रचलित यह काव्यात्मक कहावत है-
        कंडा बीने लक्ष्मी,
        हर जोतें धनपाल
             अमर हते ते मर गए 
        नोने ठनठन गोपाल
इस कहावत के पीछे एक किस्सा प्रचलित है कि एक गांव में एक व्यक्ति था जिसका नाम था ठनठन। वह अपने नाम से असंतुष्ट था। एक दिन उसने अपने पिता से कहा कि मेरा नाम बदल दो। उसके पिता ने उससे कहा कि ठीक है जो नाम तुम्हें अच्छा लगे, मुझे बताओ। मैं तुम्हारा वही नाम रख दूंगा। ठनठन अपने लिए अच्छा नाम ढूंढने निकल पड़ा। उसे एक औरत मिली जो कंडा बीन रही थी। ठनठन ने उससे उसका नाम पूछा तो पता चला कि उसका नाम लक्ष्मी है। ठनठन चकित रह गया कि धन की देवी लक्ष्मी के नाम वाली गोबर का कंडा बीन रही है। कुछ दूर पर एक हलवाहा मिला उसने बताया कि उसका नाम धनपाल है और वह खेतिहर मजदूर है। कुछ दूर पर एक शवयात्रा मिली। पूछने पर पता चला कि मृतक का नाम अमर था। ठनठन समझ गया कि नाम अच्छा या बुरा नहीं अपितु कर्म अच्छे या बुरे होते हैं और वह नाम बदलने का इरादा त्याग कर वापस अपने पिता के पास लौट आया।
मौसम के परिवर्तन की सूचना देने वाली काव्यात्मक कहावतें भी बुंदेलखंड में प्रचलित हैं। जैसे यदि घड़े का पानी ठंडा न हो, चिड़ियां को धूल में नहाती दिखाई दें, चीटियां अपने अंडे एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाती दिखाई दें तो समझना चाहिए कि बारिश जम कर होगी। इस पर यह कहावत है-
कलसा पानी को तचौ, चिरई नहाए धूर
चिंटिया लै अण्डा चलैं, तौ बरसे भरपूर
बुंदेलखंड में घाघ और भड्डरी की कहावतों के अतिरिक्त लोकव्यवहार से उपजी अनेक कहावते हैं जिनमें स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों का एक अलग संसार है। ये कहावतें सरल शब्दों में स्वस्थ रहने के बुनियादी नुस्खे याद करा देती हैं। जैसे यह कहावत है-
दोऊ बेरा घूमै जो, तीन बेर जो खाय
बनौ निरोगी वो रहे, जो रोजई भोर नहाय
कहा जाता है कि वही ज्ञान उचित है जो सब के समझ में आए और जिससे सबका भला हो सके। कई बार ज्ञान का अनावश्क प्रदर्शन अथवा आडंबर में लिप्त अनावश्यक प्रयोग आतमघाती साबित होता है। इस संबंध में बुंदेलखंड में एक सटीक कहावत प्रचलित है। कहावत की कथा इस प्रकार है कि गांव का एक आदमी एक बार फारस देश गया। वहां उसने फारसी के चंद शब्द बोलने सीख लिए। जब वह वापस गांव आया तो वह उन्हीं शब्दों को बोल-बोल कर झूठी शान दिखानी शुरु कर दी। गांव के लोग चूंकि फारसी नहीं जानते थे अतः मुंह बाए उसे देखते रह जाते और वह अकड़ में फिरता रहता। एक दिन उसकी तबीयत खराब हो गई। उसे जोर का बुखार आ गया। बुखार में वह पानी-पानी के बदले ‘आब-आब’ कहले लगा। लोगों को समझ में नहीं आया कि वह क्या मांग रहा है? किसी ने उसे पानी नहीं दिया और वह प्यास से मर गया। कहावत देखिए-
फारस गये फारसी पढ़ आये, बोले वा की बानी
आब आब कह मर गए, धरो रै गओ पानी
जब दो ज्ञानवान व्यक्ति मिलते हैं तो उनके बीच ज्ञानभरी बातें होती हैं लेकिन जब दो मूर्ख मिलते हैं तो उनके बीच मूर्खता की बातें होती हैं। इस सत्य पर आधारित बड़ी ही रोचक कहावत है कि-
ज्ञानी से ज्ञानी मिलैं, करैं ज्ञान की बातें,
गदहे से गदहा मिलैं, होवै लातई लातें।
बुंदेलखंड में कहावतों का प्रचलन आज भी मौजूद है। भले ही नई पीढ़ी इन कहावतों का मर्म नहीं समझ पाती है क्योंकि उसका जीवन अनुभव इन कहावतों से अलग हैं फिर भी बुंदेली काव्यात्मक कहावतें जीवन की नई सच्चाइयों को आत्मसात करते हुए चलती रहेंगी।
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(नवभारत, 20.09.2019)
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चर्चा प्लस ...25 सितम्बर जन्मतिथि पर विशेष : धर्म-संस्कृति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे पं.दीनदयाल उपाध्याय - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
25 सितम्बर जन्मतिथि पर विशेष :
धर्म-संस्कृति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे पं.दीनदयाल उपाध्याय

- डॉ. शरद सिंह
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था कि ‘हम स्वतंत्र हो गए हैं तो संस्कृति का यह प्रवाह फिर से बह निकलना चाहिए।’ दीनदयाल जी के लिए धर्म का व्यापक अर्थ रखता था। वे धर्म को व्यवहारिक दृष्टि से देखते थे तथा उसी आधार पर धर्म की व्याख्या करते थे। धर्म के नाम पर विभाजन अथवा शत्रुता उन्हें उचित नहीं लगती थी क्यों उनका मानना था कि धर्म जिस समाज में रखता है और समाज की भलाई के लिए जिन बातों को धारण करता है, वही धर्म है। दरअसल, पं. दीनदयाल के विचारों को समझने के लिए राजनीति के चश्में को उतारना जरूरी है। 
Charcha Plus - 25 सितम्बर जन्मतिथि पर विशेष... धर्म-संस्कृति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे पं.दीनदयाल उपाध्याय  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     पं. दीनदयाल उपाध्याय ने मनुष्य एवं राष्ट्र के समुचित विकास के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अति आवश्यक माना। इस संबंध में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि ‘‘15 अगस्त 1947 को हमने एक लड़ाई जीती है। अपने विकास के मार्ग के रोड़ों को दूर करने के लिए हमें स्वतंत्रता की आवश्यकता थी। अब हमारी आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब मानव की प्रगति के लिए हमें इसकी सहायता करनी है। हमारी आत्मा अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर उठी, केवल इसलिए नहीं कि वे अंग्रेज थे बल्कि इसलिए कि हमारे दैनिक जीवन में अंग्रेजी रीत-रिवाज़ तथा विदेशी दृष्टिकोण स्थिर होता जा रहा था। उसके कारण सारा वातावरण दूषित होने लगा था। अब अंग्रेजों के जाने के बाद उनके स्थान पर हमारे अपने रक्त-मांस के लोगों का राज्य आ गया है, इसका हमें हर्ष है। किन्तु अब हमारी अपेक्षा है कि जिस समाज ने उन लोगों को बनाया है उसकी भावनाओं की धड़कनें उनके हृदय में उठनी चाहिए। ऐसा नहीं होता है तो यह कहना होगा कि अब भी स्वतंत्रता की यह लड़ाई पूरी होनी है।’’
सांस्कृतिक स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए दीनदयाल जी ने इसी तारतम्य में आगे लिखा था कि ‘‘हमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक स्वतंत्रता चाहिए। स्वतंत्रता में आत्मानुभूति का होना महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि संस्कृति शरीर में प्राण की भांति राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुभव की जा सकती है। प्रकृति पर विजय प्राप्त करते समय मानव अपनी जीवनदृष्टि से जो रचना करता है उसमें उसकी संस्कृति दिखाई देती है। संस्कृति कभी भी गतिशून्य नहीं होती। नदी के प्रवाह की भांति वह गतिमान रहती हैं उस प्रवाह के साथ ही उसके कतिपय गुण-विशेषों का भी निर्माण होता है। यह सांस्कृतिक दृष्टिकोण उसके साहित्य, कला, दर्शन, स्मृतिशास्त्र तथा सामाजिक इतिहास सब में व्यक्त होता रहता है। हम स्वतंत्र हो गए हैं तो संस्कृति का यह प्रवाह फिर से बह निकलना चाहिए। राष्ट्रभक्ति की भावना भी इसी संस्कृति से उत्पन्न होती है और यही संस्कृति राष्ट्र की सीमाओं को लांघ कर मानवजाति के साथ उस राष्ट्र की एकात्मकता का नाता जोड़ती है। इसीलिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता परमावश्यक है। उसके बिना स्वतंत्रता व्यर्थ होगी और वह टिकेगी भी नहीं।’’
दीनदयाल जी का मानना था कि सांस्कृतिक मौलिकता सांस्कृतिक स्वतंत्रता में निहित होती है और सांस्कृतिक मौलिकता ही किसी भी राष्ट्र, किसी भी समुदाय की वास्तविक पहचान होती है। ओढ़ी हुई संस्कृति ठीक उसी प्रकार होती है जैसे सिर पर से ओढ़ा हुआ कंबल जो प्रत्येक पग के साथ सिर पर से सरकता जाता है और उसे बार-बार सम्हालने का यत्न करना पड़ता है जबकि मौलिक संस्कृति उस ऊर्जा के समान होती है जो शरीर के भीतर उपस्थित रह कर गर्मी प्रदान करती है तथा शारीरिक दृढ़ता को प्रकट करती है। समाज और संस्कृति शरीर और ऊर्जा की भांति हैं, एक दूसरे के पूरक। इसीलिए समाज के उत्थान के लिए संस्कृति की मौलिकता अतिआवश्यक है।
दीनदयाल जी के धर्म का व्यापक अर्थ था। वे धर्म को व्यवहारिक दृष्टि से देखते थे तथा उसी आधार पर धर्म की व्याख्या करते थे। धर्म के नाम पर विभाजन अथवा शत्रुता उन्हें उचित नहीं लगती थी क्यों उनका मानना था कि धर्म जिस समाज में रखता है और समाज की भलाई के लिए जिन बातों को धारण करता है, वही धर्म है। ‘पांचजन्य’ में प्रकाशित अपने एक लेख में दीनदयाल जी ने धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा था- ‘‘धर्म वही है जो सब के लिए लाभकारी होता है और जो मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करता है। ‘धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः’ - यह हमारे यहां धर्म की व्याख्या है। अर्थात् जिन बातों, शक्तियों, भावनाओं, व्वस्थाओं तथा नियमों के कारण समाज की धारणा होती है, वही धर्म है। मनुष्य की धारणा जिन बातों से होती है वह मनुष्य धर्म, शरीर जिसकी धारणा करे वह शरीर धर्म, इसी प्रकार सारी प्रजा की एवं उसके भी परे जा कर समस्त जड़-चेतन संसार की धारणा जिसके कारण होती है उसके भी अपने निश्चित नियम होते हैं। धर्म ही सबकी धारणा करता रहता है। धर्म के बिना कोई बात टिक नहीं सकेगी। प्रत्येक वस्तु नष्ट हो जएगी। शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से युक्त मानव की धारणा जो कर सकेगा, उसे ही धर्म कहा जाएगा। धर्म धारणा के साथ-साथ सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है। इसीलिए आचरण के नियम बनते हैं। ये नियम देश, काल, स्थिति एवं वस्तु के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। कुछ नियम ऐसे होते हैं जो सभी पर लागू किए जा सकते हैं।’’
दीनदयाल जी मानते थे कि जो सच्चा धार्मिक व्यक्ति है वह परपीड़ा की बात सोच ही नहीं सकता है। कोई भी धर्म दूसरे को पीड़ा देकर प्रसन्न रहने की शिक्षा नहीं देता है। धार्मिक अनुष्ठानों में प्रसाद वितरण का बड़ा महत्व रहता है। ‘प्रसाद’ को मानव-आचरण से जोड़ते हुए दीनदयाल जी ने व्याख्या की थी कि ‘‘इदं न मम - अर्थात् यह मेरा नहीं है। यज्ञ पूरा होने के बाद जो शेष रहता है, हम प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। पहले प्रसाद, बाद में यज्ञ ऐसा कभी नहीं होता। हमें यह सिखाया गया है कि हम जितना उत्पादन करते हैं, सारा का सारा अपने अकेले के लिए नहीं होता। एक कमाता है किन्तु उसका भोग परिवार के सारे लोग करते हैं। अन्न भी हम केवल अपने लिए ही ग्रहण नहीं करते। परमात्मा की कृपा से मिले मानव शरीर का संरक्षण हो और वह परमात्मा के ही काम आ सके इस हेतु हम अन्न ग्रहण करते हैं। इसमें भावना यह है कि - मैं केवल मेरा अपना ही नहीं, अपितु दूसरों का भी विचार करूंगा।- यह विचार हमारे रोम-रोम में समा गया तो हम कह सकेंगे कि हमारा जीवन धर्माधिष्ठित है। इसी में से त्याग-भावना उत्पन्न होती है और उस त्याग भावना के बल पर जीवन की सभी समस्याओं का समाधान भी होता है।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने धर्म को समाज के लिए उपकारी तत्व निरूपित किया। वे सदा धर्म को विद्वेष की वस्तु नहीं अपितु व्यक्ति एवं समाज का उत्थानकारक मानते रहे।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 25.09.2019)
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Friday, September 20, 2019

बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां आज नहीं जानतीं मामुलिया - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां आज नहीं जानतीं मामुलिया
    - डॉ. शरद सिंह
      (नवभारत में प्रकाशित)
     बुंदेलखंड में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हें बड़े-बूढ़े, औरत, बच्चे सभी मिलकर मनाते हैं। लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ बेटियां ही मनाती हैं, विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं। ऐसा ही एक त्यौहार है मामुलिया। बड़ा ही रोचक, बड़ा ही लुभावना है यह त्यौहार। यह जहां एक और बुंदेली संस्कृति को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर भोली भाली कन्याओं के मन के उत्साह को प्रकट करता है। दरअसल मामुलिया बुंदेली संस्कृति का एक उत्सवी-प्रतीक है। आज के दौड़-धूप के जीवन में जब बेटियां पढ़ाई और अपने भविष्य को संवारने के प्रति पूर्ण रूप से जुटी रहती है उनसे कहीं सांस्कृतिक लोक परंपराएं छूटती जा रही है मामुलिया का भी चलन घटना स्वाभाविक है। आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया। यूं तो मामुलिया मुख्य रूप से क्वांर मास में मनाया जाता है।
बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां आज नहीं जानतीं मामुलिया - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित)
       इस त्यौहार में अलग-अलग दिन किसी एक के घर मामुलिया सजाई जाती है। जिसके घर मामुलिया सजाई जाने होती है, वह बालिका अन्य बालिकाओं को अपने घर निमंत्रण देती है। सभी बालिकाओं के इकट्ठे हो जाने के बाद वे मिलकर गोबर से आंगन लीपती हैं। आंगन लीपने के बाद आंगन के बीच एक सुंदर चौक पूरा जाता है। इस चौक के बीचो-बीच बेर की हरी शाखा को खड़ा किया जाता है। बेर न मिलने पर बबूल की शाखा भी काम में लाई जाती है या फिर नींबू संतरा आदि कांटेदार पेड़ की शाखा। वैसे बेर की शाखा को सबसे अच्छा माना जाता है। चौक में खड़ी की गई बेर की शाखा को पहले हल्दी चावल से पूजा जाता है। फिर उसके ऊपर लहंगा और चुनरी डालकर उस पर महावर लगाया जाता है। इसके बाद बेर के कांटों में रंग-बिरंगे फूल लगा कर उसे सजाया जाता है। यही सजी हुई शाख मामुलिया कहलाती है। चावल की लाई, मखाने आदि भी कांटों पर लगाए जाते हैं जिससे मामुलिया का सौंदर्य बढ़ जाता है। मामुलिया को सजाने के बाद भुने चने, ज्वार की लाई, केला, खीरा आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके बाद बालिकाएं हाथों में हाथ डालकर मामुलिया के चारों ओर घूमती हुई गाती है-                                 
मामुलिया के आए लिवौआ
झमक चली मोरी मामुलिया......

मामुलिया के पूजन के बाद मामुलिया को लेकर जुलूस के रूप में बालिकाएं घर से निकल पड़ती हैं। साथ ही वे गीत गाती चलती हैं कि -
ले आओ आओ चंपा चमेली के फूल
सजाओ मोरी मामुलिया
ले आओ आओ गेंदा हजारी के फूल
सजाओ मेरी मामुलिया.....
   
    इस प्रकार गांव भर में घूमती हुई बालिकाएं नदी अथवा तालाब के किनारे पहुंचती हैं। वे मामुलिया को नदी या तालाब में सिरा देती हैं। मामुलिया सिरा कर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखने से भूत लग जाता है। घर लौटने पर वह बालिका जिसके घर मामुलिया सजाई गई थी, शेष बालिकाओं को भीगे चने का न्योता देती है।
मामुलिया के इस त्योहार से एक रोचक कथा जुड़ी है।   एक गांव में मामू लिया नाम की एक लड़की रहती थी वह बेहद गरीब थी लेकिन उतनी ही सुंदर थी एक बार एक राजकुमार मामूली आके गांव से गुजरा तो उसने मां मूल्य को देखा और उसे देखते ही मुक्त हो गया राजकुमार नेमा मूल्य से विवाह करने की इच्छा प्रकट की मां मूल्य की सहेलियों को जब यह पता चला तो वह बहुत खुश हुए सभी लड़कियां मामू लिया और राजकुमार को गांव की सीमा पर स्थित नदी तक पहुंचाने गई मां मूल्य को विदा करके लौटते समय उन्होंने यह सोचकर पीछे मुड़कर नहीं देखा कि इससे उनके बीच का मुंह जाग उठेगा फिर ना तो मामूली अपना गांव छोड़कर जा सकेगी और ना उसकी सहेलियां उसे जाता हुआ देख सकेंगे इस कथा के अनुसार मामू लिया के प्रतीक स्वरूप वेज की शाखा को सजाया जाता है और पूजा अनुष्ठान तथा गाना बजाना करके उसे विदा कर दिया जाता है ।
आज जब समय तेजी से बदलता जा रहा है और ग्रामीण क्षेत्रों की बेटियां भी पढ़-लिख कर अपना कैरियर बनाने में जुटी रहती है, वे लोक परंपराओं से दूर होती जा रही हैं। मामुलिया जैसे पर्व त्योहार कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं जबकि यह त्यौहार बेटियों को प्रकृति से जोड़ने और उनमें सौंदर्यबोध को बढाने का त्योहार है। लेकिन आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया के बारे में। जीवन में प्रगति भी आवश्यक है किन्तु उतनी ही आवश्यक है लोकपरंपराओं से खुद को जोड़े रखना। लोक परंपराएं अतीत और भविष्य, नवीनता और पुरातन, आधुनिकता और संस्कार को परस्पर जोड़े रखने का काम करती हैं। ये जातीय गौरव से जोड़ कर व्यक्ति में आत्मगौरव की भावना बढ़ाती हैं। बुंदेली लोक-संस्कृति की गहरी समझ रखनेवाले विद्वान डॉ. श्यामसुंदर दुबे  लोक की परंपरा प्रवाह एवं पहचान पर चिंता जताते हुए आधुनिकता के बढ़ते दबावों से उत्पन्न खतरों की ओर ध्यानाकर्षण करते रहे है। उनके अनुसार ‘हमें अपनी परंपराओं से खुद को जोड़े रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।’

     मामुलिया बेटियों के पारस्परिक बहनापे का भी त्यौहार है। इस त्यौहार में बड़ों का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है अतः इससे बेटियों में सब कुछ खुद करने का आत्मविश्वास और कौशल बढ़ता है। इस प्रकार के त्यौहारों को उत्सवी आयोजन के रूप में मनाते हुए बचाया जा सकता है। जैसे दिसम्बर 2012 में झांसी महोत्सव में भी मामुलिया सजाने की प्रतियोगिता करा कर बेटियों को मामुलिया के बारे में जानकारी दी गई थी। इसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को हमीरपुर आदिवासी डेरा में ‘बेटी क्लब’ द्वारा लोक परंपरा का खेल मामुलिया और सुअटा खेला गया।  इसका संरक्षण आवश्यक है। क्योंकि यह परंपरा बेटियों के सम्मान के लिए बनाई गई है। ग्राम बसारी, हटा आदि लोकोसत्वों में भी मामुलिया जैसी परम्पराओं पर ध्यान दिया जाता है किन्तु जरूरी है शहरी जीवन को इन रोचक परम्पराओं से जोड़ना।
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(नवभारत, 20.09.2019)
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Wednesday, September 18, 2019

चर्चा प्लस ... इंसानी आबादी में क्यों प्रवेश कर रहे हैं वन्यपशु ? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
 इंसानी आबादी में क्यों प्रवेश कर रहे हैं वन्यपशु ?
     - डॉ. शरद सिंह                   
        इंसानी बस्तियों में शेर, तेंदुआ, हाथी या लकड़बग्घे के प्रवेश करने की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह मनुष्य और वन्यपशुओं के बीच का अघोषित संघर्ष है। जिसमें दुर्भाग्यवश सबसे अधिक नुकसान झेल रहे है वह पक्ष जो मांसाहारी और हिंसक कहलाता है। मनुष्यों की भीड़ वन्यपशुओं पर भारी पड़ रही है। यदि वन्यपशु बस्तियों की ओर कदम बढ़ा रहे हैं तो इसका अर्थ है कि उनसे उनका आवास, भोजन, पानी छीना जा रहा है और भूख-प्यास से लाचार हो कर वे मानव-आबादी वाली बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं, जहां मनुष्य आत्मरक्षा के लिए उन्हें मौत के घाट उतरने को तत्पर रहता है। यह संघर्ष रुकना जरूरी है, बिना किसी नुकसान के।     
चर्चा प्लस ...  इंसानी आबादी में क्यों प्रवेश कर रहे हैं वन्यपशु ? - डॉ. शरद सिंह  , Charcha Plus, Sagar Dinkar, Dr Sharad Singh, wild animals in urban areas
         मुंबई की नगरीय आबादी में शेर या तेंदुए के प्रवेश करने के बारे में कल्पना करना भी कठिन है लेकिन नेशनल जियोग्राफी चैनल ने एक वीडियो शूट किया जिसमें शेर को पुल पार कर नगरीय बस्ती में घूमते दिखा था। यह सौ प्रतिशत सच्चा किन्तु चौंका देने वाला वीडियो था। आज छोटे-बड़े शहरों में जिस तरह गाड़ियों के हॉर्न, लाउडस्पीकरों का शोर-शराबा रहता है, वैसे माहौल में शांति पसंद वन्यपशु क्यों आना पसंद करेंगे? लेकिन उनका आना लगातार बढ़ रहा है। 09 सितम्बर 2019 को दमोह शहर के मुख्य बाजार क्षेत्र घंटाघर के समीप नगर पालिका टाउन हॉल परिसर में एक तेंदुआ के घुसे होने की जानकारी के बाद हड़कंप मच गया। सका। जिस पुलिस की डायल हंड्रेड टीम के सदस्य द्वारा रात में करीब 1ः30 बजे नगर पालिका टाउनहॉल में तेंदुआ को देखा था और उसका एक वीडियो भी बनाया था.जिसमें किसी जानवर की पूंछ दिखाई दी। रात करीब 1ः30 बजे आई तेंदुआ होने की खबर के बाद पुलिस और वन विभाग की टीम मौके पर अलर्ट हो गई।

             15 सितम्बर 2019 को सागर जिले की रहली तहसील के धार्मिक महत्व के क्षेत्र टिकीटोरिया से लगे हुए जंगल में ग्रामीणों ने तेंदुआ देखा। उन्होंने इसकी सूचना सुबह वन विभाग को दी। वन आरक्षक ने मौके पर जाकर वन्य प्राणी के पद चिन्ह लिए हैं। इस संबंध में रेंजर का कथन था कि यह पुष्टी के साथ नहीं कहा जा सकता कि पग चिन्ह तेंदुए के ही हैं, यह पग चिन्ह लकड़बग्घा के भी हो सकते हैं। जबकि चश्मदीद व्यक्ति ने दावा किया कि वह तेंदुआ ही था। रात 11 बजे के करीब तीखी गांव के संजय पटेल अपने गांव जा रहे थे। तभी उन्होंने तेंदुए को देखा। संजय पटेल का कहना है कि चांदनी रात होने की वजह से उन्हें तेंदुआ स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। टिकीटोरिया के पास तेंदुए ने उनका रास्ता काटा। वह बड़े आराम से जा रहा था। दौड़ नहीं रहा था। अपने इतने करीब तेंदुए को देख कर संजय पटेल को पसीना आ गया। वे घबराए हुए अपने घर पहुंचे और सुबह वन विभाग को इसकी सूचना दी। रहली में पदस्थ वनरक्षक सुबह संजय पटेल को लेकर टिकीटोरिया के उस स्थान पर गए जहां संजय पटेल ने तेंदुए को देखा था। उन्होंने उस वन्यपशु के पग चिन्ह और वीडियोग्राफी भी कराई गई। इसकी जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को दी। गांववालों का कहना था कि यह तेंदुआ के ही पग चिन्ह हैं। वन विभाग ने आसपास के लोगों को सावधान रहने की चेतावनी दी तथा खेतों में रहने वालों को रात में रोशनी किए रहने की सलाह दी।

              अभी तक यही सुनने में आता था कि अभ्यारण्य अथवा राष्ट्रीय पार्क की सीमा से सटे हुए गांवों में यदाकदा शेर, तेंदुआ आदि प्रवेश कर जाते हैं किन्तु शहरी आबादी में ख़तरनाक वन्यपशुओं के प्रवेश करने का कोई को विशेष कारण होगा। वन्यपशुओं के लिए यह वि,यात है कि वे अकारण किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। यहां तक कि यदि शेर का पेट भरा हुआ हो तो, वह भी शिकार नहीं करता है। जंगलों के शांत वातावरण में रहने वाले वन्यपशु शोर और प्रदूषण से भरी बस्तियों की ओर क्यों रुख करेंगे? अप्रैल 2014 में एक तेंदुआ भटककर लखनऊ की आबादी में घुस आया था। तेंदुए की आमद से क्षेत्र में दहशत फैल गई थी। वन विभाग की टीम तेंदुए को पकडऩे की तैयारी ही कर रही थी कि इस बीच रेस्क्यू आपरेशन में पुलिस की गोली से तेंदुए की मौत हो गई। इस घटना से ऐसा प्रतीत हुआ मानो अपने निवास क्षेत्र को ले कर मनुष्यों और वन्यपशुओं के बीच कोई युद्ध छिड़ा हुआ हो।
           
          आखिरकर जंगली जानवर मानव बस्तियों का रूख क्यों कर रहे हैं। क्यों मनुष्य और जंगली जीवों में संघर्ष बढ़ रहा है? इसका सबसे बड़ा और प्रमुख कारण है बस्तियों का फैलना और जंगलों का सिकुड़ते जाना। असंतुलित एवं अनियंत्रित विकास से जंगल नष्ट हो रहे हैं। जिससे जंगलों में रहने वाले वन्यपशुओं के लिए उनका रिहाइशी क्षेत्र छोटा पड़ने लगा है।  दूसरा सबसे बड़ा कारण है पानी का अनियंत्रित और असंतुलित दोहन। नदियों के किनारे के खेतों के लिए अवैध तरीके से असीमित मात्रा में बिजली की मोटरों से पानी खींच लिया जाता है। कहीं-कहीं तो नदी के बहाव में अवैध बांध बना कर नदी के पानी का असंतुलित बंटवारा कर दिया जाता है। इन सबके बीच इस बात का कोई ध्यान नहीं रखता है कि वन क्षेत्र में आवश्यक जलआपूर्ति हो पा रही है या नहीं। पानी की कमी में घास के मैदान घटने लगते हैं जिससे पेट भरने के लिए हिरण, चिंकारा, नीलगाय आदि को गांवों अथवा बस्तियों का रुख करना पड़ता है। इन पशुओं को खा कर अपना पेट भरने वाले मांसाहारी पशु इनके पीछे-पीछे बस्तियों की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं। एक बार बस्तियों में पहुंचने के बाद पालतू पशु के रूप में आसान शिकार भी उन्हें बार-बार घुसपैंठ करने का लालच देते हैं।  ऐसे में इंसान और जगली जानवरों के बीच मुडभेड़ की घटनाएं होना स्वाभाविक है। किन्तु जब मुडभेड़ की संख्या चिंताजनक स्थिति में पहुंच जाए तो इस पर विचार करना जरूरी है।
               देश भर में जंगली जानवरों के हमलों में हर साल सैंकड़ों लोग अपनी प्राणों से हाथ धोते हैं। अनेक लोग गंभीर रूप से घायल भी होते हैं। इंसान और वन्यपशुओं के बीच इस संघर्ष में दोनों पक्ष मारे जा रहे हैं। भारत में हाथी और बाघ जैसे जानवर औसतन प्रतिदिन एक व्यक्ति को मार रहे हैं जबकि इंसान भी लगभग प्रतिदिन औसतन एक वन्यपशु को मार रहा है। आहारचक्र में असंतुलन पैदा होने का यह एक घातक परिणाम है। घास प्रबन्ध अर्थात शाकाहारी जानवरों के लिए भोजन प्रबन्ध बिगड़ गया है। जब इनका भोजन अर्थात चारा जंगलों में नहीं होगा तो ये शहर-गांवों की तरफ क्यों नहीं आएंगे? बाघ, तेंदुआ आदि जंगल छोड़कर आबादी की तरफ आने लगें तो इसे उनके संघर्ष की गंभीरता को स्वीकार कर ही लेना चाहिए और समय रहते आवश्यक कदम उठाने चाहिए। वनपरिक्षेत्र और वन्यपशुओं के धनी बुंदेलखंड में समय रहते इस प्रकार की घटनाओं को रोकने का गंभीरता से प्रयास करना होगा। 
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 18.09.2019) #शरदसिंह

Friday, September 13, 2019

बुंदेलखंड की कटक गाथाएं - डॉ. शरद सिंह .. नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की कटक गाथाएं 
- डॉ. शरद सिंह
 
(नवभारत में प्रकाशित )

बुंदेलखंड में शौर्य गाथाओं की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितने शौर्य के कार्य। बुंदेलखंड में शौर्य गाथाओं की एक लंबी परंपरा पाई जाती है 12वीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक अनेक शौर्य गाथाएं लिखी गई जिनमें प्रमुख हैं- रासो, कटक और  राछरे।  क्योंकि गाथाओं की परंपरा मुख्य रूप से  वाचिक रही है अतः  जिनको संग्रहीत कर  लेखबद्ध कर लिया गया  वे उपलब्ध हैं  और उनका गायन किया जाता है। बुंदेली शौर्य गाथाओं में सबसे अधिक ख्याति नाम गाथा है-‘आल्हाखंड’ जिसे लोक गायक ढोलक की थाप पर आज भी गाते हैं। ‘आल्हाखंड’ के रचयिता थे कवि जगनिक।  इसी प्रकार ’विजयपाल रासो’ भी जगनिक के द्वारा लिखा गया। जिसमें राजा विजयपाल राठौर के शिकार खेलने जाने वर्णन है। जहां अचानक राजा पृथ्वीराज के सैनिकों से मुठभेड़ हो जाती है। इस मुठभेड़ में विजयपाल राठौर पृथ्वीराज के सैनिकों को पराजित करने में सफल हो जाते हैं। जिसके बाद पृथ्वीराज कन्नौज पर आक्रमण कर देते हैं और कवि जगनिक दोनों पक्ष में सुलह कराने का प्रयास करते हैं। एक अन्य  शौर्य गाथा है ‘वीर सहदेव चरित’, जिसे कवि केशवदास ने लिखा था। रासो परंपरा में जोगीदास भांडेरी द्वारा रचित ‘दलपत राव रासो’, लाल कवि रचित ‘छत्र प्रकाश’, कवि सबसुख द्वारा रचित भगवंत सिंह रासो, कभी गुलाब चतुर्वेदी का ‘करहिया का रासो’, कवि श्रीधर का ‘पारीछत रासो’, कवि आनंद सिंह कुड़रा का  ‘बाघाट रासो’ आदि शौर्य गाथा के अतिरिक्त कुछ गाथाएं कटक गाथाओं के अंतर्गत आती हैं। 
 Bundelkhand Ki Katak Gathayen  - Dr Sharad Singh - Published in Navbharat
कटक गाथाएं रासो एवं राछरे  गाथाओं से विषय के आधार पर भिन्न नहीं हैं। इनमें भी राजाओं की शौर्य कथाएं निबद्ध हैं। पन्ना नरेश महाराज छत्रसाल के समकालीन कवि दान में उनकी शौर्य की स्तुति करते हुए जो कटक बंध लिखा उसका नाम है ‘छत्रसाल जू  देव कौ  कटक बंध’। इस कटक गाथा में महाराज छत्रसाल और मोहम्मद खान के मध्य हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन है जिसमें महाराजा छत्रसाल एवं बुंदेली सैनिकों की वीरता का वर्णन किया गया है दतिया के प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय बाबू लाल गोस्वामी ने ‘छत्रसाल जूदेव कटक बंध’ का संपादन किया तथा सन 1992 में भानु प्रिंटर्स दतिया से इसे प्रकाशित कराया।
भग्गी दाऊजू श्याम द्वारा रचित ‘झांसी कौ कटक’ सन उन्नीस सौ ईसवी की रचना मानी जाती है इसे स्वर्गीय डॉ. भगवान दास महौर ने ‘लक्ष्मी बाई रासो’ के साथ संयुक्त रूप से सन 1969 में प्रकाशित कराया। झांसी के जनकवि भग्गी दाऊजू श्याम सन 1857 की क्रांति के सहभागी थे। ‘झांसी कौ कटक’ में गीतों के माध्यम से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का वर्णन किया गया है। बुंदेलखंड में 1857 से पहले भी बुंदेलों ने अंग्रेजों का सशस्त्र विरोध किया था। जिसका प्रमाण ‘पारीछत कौ कटक’ में मिलता है। इस शौर्य गाथा में जैतपुर के महाराज पारीछत और अंग्रेजों के मध्य युद्ध का वर्णन है। यह युद्ध सन 1841 में हुआ था। अंग्रेजों की राजनीतिक लिप्सा को चुनौती देते हुए बेरमा नदी के किनारे बिलगांव में महाराज पारीछत ने अंग्रेजों से युद्ध किया जिसमें पुरैना, बिलगांव आदि के रहवासियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया। यद्यपि महाराज पारीछत विजयी नहीं हुए और उन्हें बंदी बना कर कानपुर जेल में रखा गया जहां सन 1853 में उन्हें फांसी दे दी गई। ‘पारीछत कौ कटक’ के रचयिता कवि बृजकिशोर माने जाते हैं। वीर रस की इस रचना ने लोक काव्य के रूप में प्रसिद्धि पाई।
भैरोंलाल रचित ‘भिलसांय कौ कटक’ में बघेल राजा ठाकुर रणमत सिंह और अंग्रेजों के मध्य पुटरा नामक स्थान में सन 1857 में हुए युद्ध का वर्णन है। सन् 1857 में रणमत सिंह की रीवा जागीर पन्ना रियासत के अंतर्गत आती थी। रणमत सिंह मूलतः बघेल क्षत्रिय थे। किसी कारण पन्ना और रीवा रियासतों के बीच मन मुटाव हो गया। सन् 1850 में दोनों रियासतों ने युद्ध की तैयारियां होने लगीं। किन्तु अंग्रेजों की मध्यस्थता के कारण युद्ध टल गया।  इसके बाद रणमत सिंह जागीर छोड़कर अपने कुछ साथियों के साथ सागर आ गए। जहां वे अंग्रेजी सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। कुछ दिनों बाद उन्हें पदोन्नति देकर नौगांव भेज दिया गया। जहां उन्होंने केप्टन के रूप में पदभार संभाल लिया। तभी 1857 का दौर शुरू हुआ। अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति फूट पड़ी।  कैप्टन रणमत सिंह की पलटन को आदेश मिला कि वे क्रांतिकारी बख्तबली और मर्दन सिंह को पकड़ने का अभियान चलाएं। रणमत सिंह ने यह अभियान नहीं चलाया, बल्कि वे दिखावे के लिए यहां-वहां डोलते रहे। यह बात अंग्रेजों को पता चल गई। उन्होंने रणमत सिंह और उनके साथियों को बर्खास्त कर दिया और गिरफ्तारी आदेश जारी कर दिए। अंग्रेज फौज में रहते हुए रणमत सिंह लगभग 300 लोगों की एक टुकड़ी बना ली थी। बर्खास्त होने के बाद यह टोली खुलकर क्रांति में शामिल हो गई। लेकिन उन्हें धोखे से बंदी बना कर बांदा जेल भेज दिया गया।  बांदा में 1 अगस्त 1859 को उन्हें फांसी दे दी गई। इस घटनाक्रम का रोचक विवरण ‘भिलसांय कौ कटक’ में मिलता है।
बुंदेलखंड की कटक शौर्यगाथा परंपरा को आधुनिक मंच देने के लिए सन् 2013 में बॉलीवुड के चर्चित फिल्म अभिनेता एवं नाट्य निदेशक गोविंद नामदेव ने एनएसडी, अथग और सागर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में एक वर्कशॅप संचालित किया था। वर्कशॉप के समापन पर गोविंद नामदेव के निर्देशन में 30 दिसंबर 2013 को तीन दिवसीय नाटक की श्रृंखला ‘मधुकर कौ कटक’ का मंचन किया गया था। इस गाथा में बुंदेला वीर मधुकर शाह बुंदेला की गौरवगाथा है। ललितपुर जिले के नाराहट में जन्मे बुंदेला वीर मधुकर शाह ने ‘बुन्देला विद्रोह’ की अलख जगाते हुए स्वयं आगे बढ़ कर अंग्रेजो से लोहा लिया था।  मधुकर शाह को छल द्वारा बंदी बना कर सागर जेल में रखा गया और उसी जेल के प्रांगण में उन्हें फांसी दे दी गई। उस समय उनकी आयु मात्र 21 वर्ष थी। ‘मधुकर कौ कटक’ का इसके बाद अनेक बार मंचन किया जा चुका है। अभिनेता एवं निदेशक गोविंद नामदेव ने बुंदेलखंड की गाथा परंपरा को नाट्य-मंचन का प्लेटफार्म दे कर जिस प्रकार एक बार फिर लोकप्रिय बनाने का कदम उठाया वह सराहनीय है। इसी तरह के और भी कई प्रयास किए जाने की आवश्यकता है जिसमें इस प्रकार की गाथाओं का पुनर्मुद्रण एवं डिज़िटलाईजेशन भी जरूरी है जिससे ये गाथाएं संरक्षित हो सकें।
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(नवभारत, 13.09.2019) 

Wednesday, September 11, 2019

बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों पर गहराता संकट - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों पर गहराता संकट
(नवभारत में प्रकाशित )
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
 
पिछले दिनों पन्ना जिले के ग्राम नचना जाने का अवसर मिला। वहां साप्ताहिक हाट में में आई वे महिलाएं दिखीं जो बुंदेलखंड के और अधिकर भीतरी अंचल से आई थीं। उनके पैरों में डेढ़-डेढ़ किलो वज़नी चांदी के गेंदाफूल वाले तोड़े देख कर ऐसा लगा मानों बचपन का वह समय लौट आया हो जब नानी और दादी इस प्रकार के तोड़े अपने पैरों में पहना करती थीं। मैंने उन महिलाओं से उनके तोड़ों के बारे में पूछा कि क्या ये उन्हें भारी नहीं लगते है? तो उनमें से एक ने हंस कर बताया कि ये चांदी के नहीं हैं, गिलट के हैं जो उसकी सास उसे शादी में दिए थे। साथ ही उसने दुखी होते हुए यह भी कहा कि अब गिलट के तोड़े नहीं मिलते हैं। मुझे लगा कि यह ठीक कह रही है, मैंने भी बरसों से गिलट के जेवर नहीं देखे हैं। मिश्रधातु वाला गिलट चांदी के सामान दिखता है और इसके गहने कभी काले नहीं पड़ते हैं। वज़न में हल्का और टिकाऊ। बहरहाल, फिर मेरा ध्यान गया नचना और उसके आस-पास की ग्रामीण महिलाओं के गहनों की ओर। उन पर शहरी छाप स्पष्ट देखी जा सकती थी। वैसे यह स्वाभाविक है। अेलीविजन के युग में फैशन तेजी से गंाव-गंाव तक पहुंच रहे हैं और परम्पराओं पर कब्जत्रा करते जा रहे हैं। फिर परिवर्तन भी एक स्वतःस्फूत्र्त प्रक्रिया है। लेकिन जब कलात्मक परंपराओं का क्षरण होने लगता है तो दुख अवश्य होता है। 

 Navbharat - बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों पर गहराता संकट - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह .. नवभारत में प्रकाशित
 आभूषण लोकसंस्कृति के लोकमान्य अंग हैं। देह को भांति-भांति के आभूषणों से सजाना मानवीय प्रकृति का एक अभिन्न अंग है। आभूषण उपलब्ध न हों तो उनकी पूर्ति के लिए गोदना (टैटू) बनवाने का चलन आज भी है। बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति में भी आभूषणों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। चूंकि लगभग मध्यकाल से ही राजनीतिक अस्थिरिता के कारण बुंदेलखंड में आर्थिक विपन्नता का प्रतिशत अधिक रहा लेकिन सोने-चांदी के मंहगें आभूषणों की जगह गिलट के आभूषणों ने ले ली। यद्यपि यह बात भी महत्वपूर्ण है कि बुंदेलखंड के सागर सराफा में निर्मित होने वाले चांदी के गहनों की मांग आज भी दूर-दूर तक है। किंतु ग्रामीण अंचलों में चांदी के आभूषण खरीदने की क्षमता न रखने वाले लोगों में चांदी जैसे सुंदर गिलट के जेवर बहुत लोकप्रिय रहे हैं।
बुंदेलखंड के आभूषणों की एक लंबी परम्परा रही है, जो प्रागौतिहासिक युग से लेकर वर्तमान काल तक जीवित रहकर सौंदर्य-बोध का इतिहास लिखती आ रही है। यहां का पुरातत्त्व, मूर्तिशिल्प, चित्रकला और साहित्य इसके साक्ष्य देते हैं। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कवि बोधा के इस छंद में बुंदेलखंड में पहने जाने वाले आभूषणों का विवरण मिलता है-
बेनी सीसफूल बिजबेनिया में सिरमौर,
बेसर तरौना केसपास अँधियारी-सी।
कंठी कंठमाला भुजबंद बरा बाजूबंद,
ककना पटेला चूरी रत्नचैक जारी-सी।
चोटीबंद डोरी क्षुद्रघंटिका नयी निहार,
बिछिया अनौटा बांक सुखमा की बारी-सी।
राजा कामसैन के अखाड़े कंदला कों पाय,
माधो चकचैंध रहो चाहिकै दिवारी-सी।

इस छंद में बिजबेनिया, बरा, पटेला, पछेला और बेनीपान जैसे आभूषणों का जिक्र किया है। बार बाजू में, पटेला चूड़ियों के बीच कौंचा में और पछेला कौंचा में ही सबसे पीछे पहने जाते थे। वेणीपान वेणी को बांधने वाला पान केर आकार का आभूषण तथा कण्ठिका एक लड़ी का हार होता था। कवि पद्माकर ने भी अपने दंदों में कलंगी, गोपेंच और सिरपेंच का उल्लेख किया है। उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण से लेकर बीसवीं शती के प्रथम चरण तक के आभूषणों का विवरण कवि ईसुरी की फागों में मिलता है। जैसे -
चलतन परत पैजना छनके, पांवन गोरी धन के
सुनतन रोम-रोम उठ आउत, धीरज रहत न तन के ।

ईसुरी का फागों में पैर में पैजना, पैजनियांय कटि में करघौनी, हाथ में ककना, गजरा, चुरीयाँ, बाजूबंद, बजुल्ला, छापें, छला, गुलूबंद, कंठा, कठलाय कान में कर्णफूल, लोलकय नाक में पुंगरिया, दुरय माथे में बेंदा, बेंदी, बूंदा, दावनी टिकुली आदि का अनेक बार उल्लेख है। वैसे समूचे बुंदेलखंड में जो आभूषण प्रचलन में रहे, वे थे- सिर में सीसफूल, बीजय वेणी में झाबिया, माथे में बेंदी, दावनी, टीकाय कानों में कर्णफूल, सांकर, लोलक, ढारें, बारी, खुटियाय नाक में बेसर, पुंगरियाय गले में सरमाला, चंद्रहार, सुतिया, पँचलड़ीं, बिचैली, चैकी, लल्लरीय हाथ की अंगुलियों में मुंदरी, छल्ला, छापेंय बाजू में बरा, बजुल्ला, बगवांय कौंचा में ककना, दौरी, चूरा हरैयां बंगलियां चूड़ी, नौघरई, चुल्ला, बाकें, घुमरी, पायजेब, पैजनियां, पैजनाय पैर की अंगुलियों में बिछिया, गेंदें, चुटकी, गुटिया और अनवट आदि।
आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में भी आभूषण पहनने का चलन रहा है जिनमें टोड़र, पैजना, करधौनी, बहुंटा, चंदौली, कंटीला गजरा, मुंदरी, छला, कन्नफूल, पुंगारिया, खंगौंरिया और टकार प्रमुख आभूषण थे। आज ये आभूषण धीरे-धीरे चलन से बाहर होते जा रहे हैं। इसके प्रत्यक्षतः तीन कारण दिखाई देते हैं- एक तो बुंदेलखंड प्राकृतिक आपदाओं के चलते कृषि को हानि होने से गिरती आर्थिक स्थिति, दूसरा कारण बुंदेलखंड में महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध जिसके कारण सोने या चांदी जैसे दिखने वाले नकली आभूषणों को भी पहन कर निकलने में महिलाएं डरती हैं और तीसरा कारण हैं वे चाईनीज़ आभूषण जो भारतीय आभूषणों की अपेक्षा अधिक सस्ते और अधिक आकर्षक दिखते हैं। भेल ही इन चाईनीज आभूषणों को ‘मेड इन चाइना’ के रूप में नहीं बेंचा जाता है किन्तु आम बोलचाल में यह चाईनीज़ आभूषण ही कहलाते हैं। इन तीनों कारणों ने बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों को बहुत क्षति पहुंचाई है। बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों की कला को बचाने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालना जरूरी है।
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(नवभारत, 23.08.2019)
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चर्चा प्लस ... दिवस, सप्ताह या मास से आगे भी रहे हिन्दी की चिंता - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...

दिवस, सप्ताह या मास से आगे भी रहे हिन्दी की चिंता
- डॉ. शरद सिंह 


पं. मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, महात्मा गांधी से ले कर अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राज्यों के बीच संपर्क की भाषा बनाने का अथक प्रयास किया। यहां तक कि थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’ लेकिन आज अंग्रेजी-भक्ति के आगे हिन्दी की उपेक्षा यथावत है। हिन्दी की चिंता दिवस, सप्ताह, पखवाड़े और मास में सिमट कर रह जाती है। क्या इतने सीमित समय का प्रयास पर्याप्त है हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए? सोचना होगा इस पर भी। 

Charcha Plus - दिवस, सप्ताह या मास से आगे भी रहे हिन्दी की चिंता - Hindi Diwas 2019   -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी। बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
22 फरवरी 1965 को राज्यसभा में राजभाषा नीति पर परिचर्चा के दौरान उन्हांने दिया था, इसमें हिन्दी की उपेक्षा के प्रति उनकी पीड़ा को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है-‘‘सभापति जी! मेरा दुर्भाग्य है, मेरी मातृभाषा हिन्दी है। अच्छा होता यदि मैं किसी अहिन्दी प्रांत में पैदा हुआ होता क्योंकि तब अगर हिन्दी के पक्ष में कुछ कहता तो मेरी बात का ज्यादा वजन होता। हिन्दी को अपनाने का फैसला केवल हिन्दी वालों ने ही नहीं किया। हिन्दी की आवाज पहले अहिन्दी प्रांतों से उठी। स्वामी दयानंद जी, महात्मा गांधी या बंगाल के नेता हिन्दीभाषी नहीं थे। हिन्दी हमारी आजादी के आंदोलन का एक कार्यक्रम बनी और चौदह सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत उसका समावेश किया गया। हमारे संविधान का जो पहला मसविदा बना, उसमें अंग्रेजी के लिए पांच साल देना तय किया गया था, लेकिन श्री गोपालास्वामी अयंगार, श्री अल्लादि कृष्णास्वामी और श्री टी.टी. कृष्णमाचारी के आग्रह पर वह पांच साल की अवधि बढ़ाकर पन्द्रह साल की गयी। हिन्दी अंकों को अंतर्राष्ट्रीय अंकों का रूप नहीं दिया गया। राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी को राजभाषा कहा गया। उस समय अहिन्दी प्रान्तों से हिन्दी का विरोध नहीं हुआ था। संविधान में जो बातें थीं, उनका विरोध या तो राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने किया, जो अंग्रेजी नहीं चाहते थे या स्वर्गीय मौलाना आजाद ने किया, जो हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी चाहते थे, मगर दक्षिण में हिन्दी के विरोध में आवाज नहीं उठी थी, लेकिन पंद्रह साल में हमने क्या किया?’’
हिन्दी के संदर्भ में क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है। विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे। इससे भी पहले हमें छोड़ना होगा अपने उस दोहरेपन जिसके चलते हिन्दी की भलाई दिवस, सप्ताह और मास में सिमट कर रह जाती है और शेष दिनों में हम अंग्रेजी की सेवा करते रह जाते हैं ।
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सागर दिनकर, 11.09.2019

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बुंदेलखंड की मूर्तिकला में गजानन गणेश - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

बुंदेलखंड की मूर्तिकला में गजानन गणेश
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 

 

(नवभारत, 05.09.2019 अंक में प्रकाशित) 

ऊं वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभः।
निर्विघ्नम् कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।
कार्य बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो जाए इसी प्रार्थना के साथ गजानन गणेश की अन्य देवी-देवताओं से भी पहले आराधना की जाती है। ऐसे श्रीगणेश को बुंदेलखंड की मूर्तिकला में विशेष स्थान दिया गया है। बुंदेलखंड क्षेत्र जहां तुलसीदास की जन्म भूमि राजापुर और साधना स्थली चित्रकूट, श्रीकृष्ण द्वैपायन वेद व्यास की जन्मभूमि कालपी है, वही आल्हा-ऊदल जैसे महान वीरों की कर्मभूमि महोबा और वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की रंगभूमि रही झांसी है। इस भूमि में कला और संस्कृति का निरंतर विकास हुआ जिसका सबसे बड़ा उदाहरण खजुराहो की मूर्तिकला है। बुंदेलखंड के विभिन्न पुरातात्विक स्थलों में गणेश की मूर्तियां गुप्तकाल प्रतिहार और चंदेल ओं के समय छठवीं से बारहवीं शताब्दी से लेकर बुंदेली और मराठों के समय 17 वीं शताब्दी तक निर्मित की गईं। श्रीगणेशपूजा का चलन प्राचीनकाल से चला आ रहा है। वैदिक देव गणेश की मूर्ति कला के रूप में ईशा के पश्चात पांचवी शताब्दी से गणेश पूजा के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं। 
बुंदेलखंड की मूर्तिकला में गजानन गणेश - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित
       बुंदेलखंड में गजानन गणेश की मूर्तियां विविध शैलियों में प्राप्त हुई हैं। प्रतिहार कालीन और चंदेल कालीन इन दोनों कालों की मूर्तियां 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच निर्मित की गई। कुछ गणपति मूर्तियां गुप्त काल और पूर्व प्रतिहार काल की भी मिली हैं, जिनमें झांसी जिले के देवगढ़ के प्रसिद्ध दशावतार मंदिर में स्थापित गणपति मूर्तियां प्रमुख है। साथ ही मध्ययुगीन प्रतिहार काल यानी आठवीं शताब्दी की गणपति प्रतिमाएं ग्वालियर संग्रहालय और भारत कला भवन वाराणसी में संग्रहित है। इनमें गणपति की नृत्य मुद्रा प्रदर्शित की गई है। चंदेल कालीन मूर्तियों की यह विशेषता रही है कि उन्हें सप्तमातृका और वीरभद्र के साथ भी बनाया गया है। प्रतिहार कालीन गणेश प्रतिमाएं ललितपुर जनपद से भी पाई गई है। इसके अलावा 10वीं शताब्दी की प्रतिहार प्रतिमाओं को भूमरा संग्रहालय, भारतीय संग्रहालय कोलकाता एवं राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में संग्रहित किया गया हैं। वहीं चंदेल कालीन गणपति मूर्तियां खजुराहो में संग्रहित हैं। यहां गणेश की अष्टभुजी प्रतिमाओं कोे साथ ही स्थानक, आसन एवं शक्ति सहित नृत्य मुद्रा तथा सप्तमातृका एवं वीरभद्र के साथ उकेरा गया है। बुंदेलखंड क्षेत्र में मंदिरों के मुख्य द्वार के किनारे यह चैखट तथा चैखट के मध्य भाग पर भी गणेश प्रतिमाओं का अंकन मिलता है। पुराणों में श्रीगणेश के कुछ विशेष नाम मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- एकदंत, गजानन, शुभकरण, लम्बोदर, विघ्नेश्वर आदि। इनसे संबंधित कथाएं भी पुराणों में मौजूद हैं, जिनके आधार पर बुंदेलखंड में प्रतिमाएं बनाई गई हैं। बुंदेलखंड में गणपति की स्थानक और नृत्य मुद्रा दोनों प्रतिमाएं मिलती हैं। जिनमें झांसी जिले के देवगढ़ ललितपुर से उत्तर गुप्तकालीन स्थानक प्रतिमा प्राप्त होती है। वैसे तो उत्तर गुप्त काल यानी पांचवी-छठी शताब्दी की प्रतिमाओं में गणेश के दो के स्थान पर चार भुजाएं बनाई जाने लगी थीं किंतु देवगढ़ की तीन घाटी क्षेत्र में गुप्तकालीन त्रिभुज गणेश की स्थानक प्रतिमाएं ही बनाई गई हैं। यहां की मूर्ति शिल्प में गुप्त काल की विशेषताओं को अपनाया गया है। देवगढ़ की नाहर घाटी और राज घाटी में अंकित यह प्रतिमाएं सप्तमातृका ओं के साथ हैं। इसके अतिरिक्त एक घाटी में गणेश की स्वतंत्र मूर्ति भी उकेरी गई है जो कि लगभग छठी शताब्दी की है। इसी समयावधि की स्थानक प्रतिमाएं उदयगिरि (विदिशा) राजघाट (वाराणसी) अहिछात्र (बरेली) तथा भीतरगांव (कानपुर) से भी मिली हैं। देवगढ़ के दशावतार मंदिर में भी गणेश की मूर्ति स्थापित है। खजुराहो के पुरातत्व संग्रहालय में भी स्थानक गणेश की मूर्ति संग्रहित है। ललितपुर जनपद में सागर-ललितपुर मार्ग पर स्थित पटोराकला गांव में तालाब के निकट हनुमान मंदिर में गणेश की त्रिभुजी प्रतिमा स्थापित है। इसी जनपद के सिरोनकला गांव में सप्तफनों के छत्र वाली देवी प्रतिमा के दाई ओर त्रिभुजी गणेश बनाए गए हैं। झांसी जनपद में जितनी भी गणपति गजानन की प्राचीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, उनमें से अधिकांश राजकीय संग्रहालय झांसी और रानी महल संग्रहालय में संग्रहित हैं। जोकि अधिकांश चांदपुर, दुधाई और सिरोनखुर्द से प्राप्त हुई थीं।
पन्ना जिले के अजयगढ़ दुर्ग के उत्तरी प्रवेश द्वार पर भी गणेश की आसन प्रतिमाएं विद्यमान है। यहां गणेश के चतुर्भुजी मूर्तियों के अतिरिक्त षष्ठ भुजी और अष्टभुजी मूर्तियां भी हैं। अजयगढ़ दुर्ग की अष्टभुजी नृत्य प्रतिमा में लेख भी अंकित है। यह प्रतिमा कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर है।
खजुराहो और चांदपुर से प्राप्त 10 भुजी गणेश मूर्ति के समान ही 10 भुजी प्रतिमा बिरला संग्रहालय भोपाल में भी मौजूद है, जिसकी शिल्प कला अत्यंत लुभावनी है। श्रीगणेश के चतुर्भुजी नृत्य मूर्ति राजकीय संग्रहालय झांसी में है, जिसमें वे नृत्य मुद्रा में दाहिना पैर उठाए हुए हैं जबकि बायां पैर भूमि पर है। इसमें उनका पहला दाहिना हाथ नृत्य मुद्रा में है जबकि शेष हाथ खंडित अवस्था में हैं। इसमें गणेश को आभूषणों से अलंकृत दिखाया गया है। उनके छोटे नेत्र और बड़ा पेट जिसके कारण में लंबोदर कहलाते हैं, भी अंकित है। उनके दोनों ओर दो-दो वादक प्रदर्शित हैं। जिनमें एक मृदंग बजाता हुआ, दूसरा झांझ, तीसरा मंजीरा और चैथा बांसुरी बजाता हुआ प्रदर्शित है। यह दृश्य श्रीगणेश की नृत्य मुद्रा में संगीत देता हुआ प्रतीत होता है।
बुंदेलखंड के मध्यप्रदेशीय क्षेत्र के टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और सागर में गजानन गणेश की अनेक प्रतिमाएं उपलब्ध है। जिनमें कुछ आज भी मंदिरों में मौजूद है तो कुछ संग्रहालय में संरक्षित कर दी गई हैं। जैसे- धुबेला राजकीय संग्रहालय, डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय का पुरातत्व संग्रहालय एवं प्रत्येक जिलों के जिला संग्रहालय में संग्रहीत मूर्तियों में गणेश प्रतिमाएं भी मौजूद हैं। इन प्रतिमाओं से पता चलता है कि बुंदेलखंड में प्राचीन काल से ही गजानन गणेश पूजन की परंपरा रही है और यह आज भी अनवरत जारी है।
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(नवभारत, 05.09.2019)
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चर्चा प्लस ... वर्ल्ड रिकाॅर्ड बनाने वाले अक्षर गणेश कलाकार राज कांदालगांवकर - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...

वर्ल्ड रिकाॅर्ड बनाने वाले अक्षर गणेश कलाकार राज कांदालगांवकर
- डाॅ. शरद सिंह


भारतीय परंपरा के अनुसार भगवान गणेश लेखन के विशेषज्ञ माने जाते हैं। पुराणों के अनुसार वे बुद्धि और कौशल के देवता हैं। उनकी आराधना कर अर्थ, विद्या, बुद्धि, विवेक, यश, प्रसिद्धि, सिद्धि सहजता से प्राप्त हो जाती हैं। श्रीगणेश मात्र भारत में ही नहीं पूजे जाते, बल्कि विश्व में कई अनेक देशों में उनकी पूजा होती है। ऐसे श्रीगणेश की आकृति को माध्यम बना कर नाम लिखने वाले विश्वविख्यात कलाकार का नाम है राज कांदालगांवकर। जो आज तक गणेश आकार में लगभग 25000 नामों का लेखन कर चुके हैं। नाम लेखन की यह शैली अपने आप में खूबसूरत और अद्भुत है।

Charcha Plus चर्चा प्लस ... वर्ल्ड रिकाॅर्ड बनाने वाले अक्षर गणेश कलाकार राज कांदालगांवकर - डाॅ. शरद सिंह

बुद्धि के स्वामी, विद्या सुखदाता भगवान गणपति के जीवन का हर अध्याय उनके अनुपम रूप की तरह ही अद्भुत है। विद्या और लेखनी के अधिपति माने जाने वाले गणपति जी को सभी देवों में सबसे अधिक धैर्यवान और स्थिर माना जाता है। उनकी लेखन की शक्ति भी अद्वितीय मानी गई है।
जब महर्षि वेदव्यास महाभारत नाम के महाकाव्य की रचना प्रारंभ करने जा रहे थे। अपने महाकाव्य के लिए वे एक ऐसा लेखक चाह रहे थे, जो उनके विचारों की गति को बीच में बाधित ना करे। इस क्रम में उन्हें भगवान गणेश की याद आई और उन्होंने आग्रह किया कि श्री गणेश उनके महाकाव्य के लेखक बनें। गणेश जी ने उनकी बात मान ली, लेकिन साथ ही एक शर्त रख दी। गणेश जी की शर्त थी कि महर्षि एक क्षण के लिए भी कथावाचन में विश्राम ना लेंगे। यदि वे एक क्षण भी रूके, तो गणेश जी वहीं लिखना छोड़ देंगे। महर्षि ने उनकी बात मान ली और साथ में अपनी भी एक शर्त रख दी कि गणेश जी बिना समझे कुछ ना लिखेंगे। हर पंक्ति लिखने से पहले उन्हें उसका मर्म समझना होगा। गणेश जी ने उनकी बात मान ली। इस तरह दोनों ही विद्वान जन एक साथ आमने-सामने बैठकर अपनी भूमिका निभाने में लग गए। महर्षि व्यास ने बहुत अधिक गति से बोलना शुरू किया और उसी गति से भगवान गणेश ने महाकाव्य को लिखना जारी रखा। इस गति के कारण एकदम से गणेश जी की कलम टूट गई, वे ऋषि की गति के साथ तालमेल बनाने में चूकने लगे। इस स्थिति में हार ना मानते हुए गणेश जी ने अपना एक दांत तोड़ लिया और उसे स्याही में डुबोकर लिखना जारी रखा। इस महाकाव्य को पूरा होने में तीन वर्ष का समय लगा। इन तीन वर्षों में गणेश जी ने एक बार भी ऋषि को एक क्षण के लिए भी नहीं रोका, वहीं महर्षि ने भी शर्त पूरी की। महाकाव्य के दौरान जब भी उन्हें तनिक विश्राम की आवश्यकता होती, वे कोई बहुत कठिन अंतरा बोल देते। शर्त के अनुसार गणेश जी बिना समझे कुछ लिख नहीं सकते थे। इसीलिए जितना समय गणेश जी उस अंतरे को समझने में लेते, उतनी देर में ऋषि विश्राम कर लेते।
ऐसे श्रीगणेश की आकृति को माध्यम बना कर नाम लिखने वाले विश्वविख्यात कलाकार का नाम है राज कांदालगांवकर। जो आज तक गणेश आकार में लगभग 25000 नामों का लेखन कर चुके हैं। नाम लेखन की यह शैली अपने आप में खूबसूरत और अद्भुत है।
यूं तो चित्रलिपि अर्थात् केलीग्राफ और हियरोग्लिफ का इतिहास बहुत प्राचीन है। चित्रलिपि ऐसी लिपि को कहा जाता है जिसमें ध्वनि प्रकट करने वाली अक्षरमाला की बजाए अर्थ प्रकट करने वाले भावचित्र (इडियोग्रैम) होते हैं। यह भावचित्र ऐसे चित्रालेख चिह्न होते हैं जो कोई विचार या अवधारणा (कॉन्सॅप्ट) व्यक्त करें। कुछ भावचित्र ऐसे होते हैं कि वह किसी चीज को ऐसे दर्शाते हैं कि उस भावचित्र से अपरिचित व्यक्ति भी उसका अर्थ पहचान सकता है। चीनी भाषा की लिपि और प्राचीन मिस्र की लिपि ऐसी चित्रलिपियों के उदाहरण हैं। वहीं हियरोग्लिफ मिस्री की उन चित्रलिपि को कहा जाता है जिसमें विभिन्न आकृतियों के द्वारा लेखनकार्य किया गया है। यह लगभग 4000 ईपू पुरानी मानी जाती है।
अक्षर गणेश कलाकार राज कांदालगांवकर की चित्रांकन शैली (मेरे विचार से) केलीग्राफी और हिरोग्लिफिक की मिश्रित शैली है जिसमें वे व्यक्तियों के नामों को गणेश की आकृति में चित्र के रूप में ढाल देते हैं। 06 अप्रैल 1974 को जन्मे मुंबई के डोंबीवली में रहने वाले अक्षर गणेश कलाकार राज बहुत ही सहज और सरल स्वभाव के हैं। एक आम युवा भारतीय की भांति उन्हें बाईक चलाना पसंद हैं। उन्हें प्रत्यक्ष प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है। वे अब तक लगभग 25000 चित्र बना चुके हैं। वे स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर, आशा भोंसले, महानायक अमिताभ बच्चन, राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे आदि के नामों के चित्र बना कर उन्हें भेंट कर चुके हैं। मेरे लिए यह प्रसन्नता का विषय रहा कि अक्षर गणेश कलाकार राज ने इन शब्दों के साथ ‘‘ जो मेरे कला को सन्मानित करता है .जो एक कलाकार को प्रोसाहित करता है उनका सम्मान करना कलाकार का धर्म है। धन्यवाद शरद जी ! आप हमारे मैत्री युग मंे गणेशरुपी स्वागत है खास 17 हजार 700 वे कला के रूप मे ... ’’ मेरे नाम को गणेश आकृति में चित्रित कर मुझे भेंट किया था। (वह चित्र यहां प्रस्तुत है।)
भारतीय चित्रकला शैली में अनेक विधाएं हैं जिनमें अक्षर गणेश चित्रकला के लिए राज कांदालगांवकर ‘‘ वर्ल्ड क्लास एंड वल्र्ड रिकाॅर्ड होल्डर इंडियन फस्र्ट नेम गणेश कलाकार’’ का खिताब उन्हें मिल चुका है। इसके अतिरिक्त वे अनेक सम्मानों से सम्मानित किए जा चुके हैं जिनमें कुछ प्रमुख सम्मान हैं- आदर्श कला रत्न पुरस्कार, महाराष्ट्र पत्रकार कला भूषण, अवाके इंडिया महाराष्ट्र गौरव, भास्कर भूषण कला भूषण पुरस्कार, महाराष्ट्र पोलीस मित्र अक्षररत्न पुरस्कार, भास्कर भूषण राष्ट्रीय आयकन अवार्ड, केसरी कलाश्रेष्ठ पुरस्कार आदि।
विदेशों में भी राज कांदालगांवकर की यह विशिष्ट चित्रकारी लोकप्रिय है। इंटरनेट पर उनकी कलाकृतियां बिक्री के लिए उपलब्ध रहती हैं। एक बड़े और ख्यातिनाम कलाकार होते हुए भी अभिमान से दूर राज कांदालगांवकर अत्यंत सहज और सरल स्वभाव के हैं। मित्रों के मित्र और कला के धनी राज कांदालगांवकर गणेशोत्सव के दौरान अत्यंत व्यस्त रहते हैं जब उनकी अनूठी कला के प्रदर्शन के लिए उन्हें अनेक आयोजनों में मुख्यअतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता हैं। वे अपनी इस प्रतिभा एवं प्रसिद्धि को श्रीगणेश की कृपा मानते हैं। भारतीय चित्रकला में राज कांदालगांवकर का विशेष स्थान है।
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संलग्न चित्र: लेखिका डाॅ. शरद सिंह नाम का लेखन अक्षर गणेश कलाकार राज कांदालगांवकर द्वारा।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 04.09.2019)
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