Wednesday, November 13, 2024

चर्चा प्लस | हाशिए की औरतों का आर्थिक योगदान | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
हाशिए की औरतों का आर्थिक योगदान
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

     अपने पारिवारिक दायित्वों से समय बचा कर, घर में ही काम करते हुए चार पैसे कमाने का रास्ता इन औरतों का सहारा बनता है। इन महिलाओं को भले ही कामकाजी न कहा जाए अथवा इनके आर्थिक योगदान को रेखांकित नहीं किया जाए फिर भी दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुएं इन्हीं के श्रम और कौशल से निर्मित होती हैं। दरअसल, चाहे सफाई के काम में आने वाली झाडू हो, ड्राइंगरूम को सजाने वाली वस्तुएं अथवा फैशन की दुनिया में रैम्प पर जगमगाते वस्त्रों का रंग और पैटर्न हो, ये सब आर्थिक जगत के हाशिए पर मौजूद इन औरतों का महत्वपूर्ण किन्तु मौन योगदान होता है। 
    कामकाजी औरतों की चर्चा होते ही प्रायः उन स्त्रियों की छवि आंखों के आगे तैर जाती है जो किसी स्कूल, कार्यालय अथवा अन्य कार्यस्थलों में काम करती हैं और बदले में निश्चित वेतन पाती हैं। इसी तरह आर्थिक जगत का नाम आते ही कुछ नामचीन महिलाओं का स्मरण जाग उठना स्वाभाविक है। लेकिन उन औरतों पर प्रायः ध्यान नहीं जाता है जो कामकाजी की श्रेणी में प्रत्यक्षतः नहीं आती हैं किन्तु परिवार, समाज और देश के लिए उनका आर्थिक योगदान बहुत मायने रखता है। इनका कौशल इनकी व्यक्तिगत पहचान का दायरा भले ही सीमित क्षेत्र में सिमटा रहता है किन्तु इसके कौशल का लोहा सभी मानते हैं। ये औरतें उस हाशिए की औरतें हैं जहां उनकी मुख्य पहचान खंाटी घरेलू औरत की होती है। उद्यमिता के दृष्टिकोण से इस प्रकार की महिलाओं में से कुछ को कुटीर उद्योग तो कुछ को लघुउद्योग से जुड़ा हुआ देखा जा सकता है किन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो किसी भी श्रेणी में दिखाई न देती हुई भी अर्थोपार्जन करती रहती हैं।
‘घर का काम तुम्हारा और बाहर का हमारा’ वाले श्रम के लैंगिक विभाजन का एक बड़ा प्रचलित हिस्सा एक फरेब है क्योंकि जब हम अर्थव्यवस्था से जुड़े आँकड़ें जुटाते हैं तो बड़ी संख्या में घर पर काम करके कमाने वाली महिलाओं की बड़ी संख्या अदृश्य होती है। पुरुष श्रम करता दिखाई देता है लेकिन उसके घंधे के लिए तैयारी करने वाली स्त्री पर्दे के पीछे छिप जाती है। खेतों में श्रम करना और गाय-बैल की पानी-सानी करना और बाकी बेहुनर काम सब स्त्रियाँ करती आई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में 83 फीसद औरतें हैं जबकि जिन जमीनों पर उनका श्रम लगता है उनका मालिकाना हक पुरुषों के पास है। पहाड़ों पर अक्सर औरतें घर देखने के साथ-साथ खेती, बुनाई जैसे काम तो करती ही हैं। वही बड़ी संख्या न सिर्फ घर के काम करती है बल्कि अचार दृपापड़ बनाकर, ऊनी कपड़े बुनकर, कढाई वगैरह करके पति की कमाई में अपना हिस्सा जोड़ती है ताकि घर को ठीक से चलाया जा सके, बच्चों को कुछ और सुविधाएँ मिल सकें। बीड़ी, अगरबत्ती, टोकरियाँ, कारपेट आदि बनाने के लघु उद्योग औरतों के श्रम से चलते हैं। 
देश में अनेक ऐसे लघु और कुटीर उद्योग हैं जिनकी बुनियाद घरेलू औरतों के श्रम पर टिकी हुई है। ये औरतें कामकाजी श्रेणी के खंाचे में नहीं आती हैं। ये अपना परिवार सम्हालती हैं, बच्चे पालती हैं, सभी नाते-रिश्ते, धार्मिक परम्पराएं तथा सामाजिक नियमों का सावधानीपूर्वक पालन करती हैं। यहां तक कि घरेलू हिंसा का शिकार भी होती रहती हैं फिर भी अपने परिवार के लिए चंद रुपये जुटाने के लिए अपने आराम के दो पल भी भेंट चढ़ा देती हैं। भले ही इनके श्रम को कोई महत्व नहीं मिलता, परिवार की ओर से भी इनके अर्थोपार्जन को महत्व नहीं दिया जाता, फिर भी ये काम करती हैं और पैसे कमाती हैं और वह भी सम्मानजनक तथा वैधानिक ढंग से। 
भारत में घरेलू उद्योगों का दयारा गांवों व शहरों दोनों क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसमें विभिन्न तरह के उत्पादन, कृषि, गैर कृषि आदि शामिल हैं। घरेलू उद्योग पुराना उद्योग है लेकिन नई आर्थिक नीतियों ने इसे प्रोत्साहित किया है। कृषि क्षेत्र में बढ़ रही अरुचि और गांवों में रोजगार के सीमित साधनों ने भी इस उद्योग को बढ़ावा दिया है। घरेलू कामगार अधिकतर महिलाएं व लड़कियां ही होती हैं। समाज में एक महिला की भूमिका उसके घरेलू कार्यों से ही आंकी जाती है। उस पर बच्चों की देखभाल और घर परिवार की सेवा का दायित्व होता है। इसलिए भी घरेलू उद्योग उसके अनुकूल रहता है। क्योंकि घर में रहते हुए आर्थिक गतिविधियों से जुड़ने पर उसके घरेलू, सामाजिक दायित्व ज्यादा प्रभावित नहीं होते। जैसे एक बीड़ी लपेटने का काम करने वाली महिला अपना यह काम करते हुए छोटे बच्चे को स्तनपान भी करा सकती है। सामाजिक प्रचलन भी महिला को घर बैठ कर काम करने को बढ़ावा देते हैं। 
बीड़ी बनाने का कार्य दो स्तरों पर होता है। पहले स्तर पर बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता जुटाना होता है जिससे बीड़ी को आकार दिया जाता है। दूसरे स्तर पर बीड़ी लपेटने और उन पर ‘झिल्ली’ लगाने का काम होता है। बीड़ी निर्माण की सकल प्रक्रिया दो भागों में बंटी होती है- तेंदूपत्ता संग्रहण तथा बीड़ी लपेटना। इन दोनों कार्यों में पैंसठ से पचहत्तर प्रतिशत स्त्रियां कार्य करती हैं। ये स्त्रियां जिन जीवन-दशाओं में रह कर कार्य करती हैं उन्हें निकट से देखने, जानने और अनुभव करने के बाद एक बात साक्ष्यांकित हो जाती है कि स्त्रियों में असीमित सहनशक्ति एवं परिवार के प्रति समर्पण की भावना होती है। देश में कई ऐसी निजी संस्थाएं हैं जो तेंदूपत्ता संग्रहण में लगे श्रमिकों के पक्ष में संघर्षरत हैं। जैसे आस्था नामक संस्था सन् 1986 से संघर्ष कर रही है। इस संस्था के प्रयासों से सन् 1990 में कोटरा, राजस्थान में तेंदूपत्ता संघर्ष समिति का गठन किया गया था जिसने तेंदूपत्ता संग्रहण करने वाले श्रमिकों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक में बढ़ोत्तरी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अहमदाबाद की सेवा संस्था भी एक ऐसी निजी संस्था है जिसकी शाखाएं देश भर में फैली हुई हैं। सेवा तेंदू पत्ता संग्रहकर्ता औरतों के हितों के लिए भी समय-समय पर संघर्ष करती रहती है। विभिन्न राज्यों में स्थानीय स्तर पर विभिन्न श्रम संगठन भी इन औरतों के अधिकार के लिए आवाज उठाते रहते हैं। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार अकेले मध्यप्रदेश की कुल मुख्य कार्यशील जनसंख्या में महिलाओं का प्रतिशत लगभग 26.3 प्रतिशत था। तेंदू पत्ता संग्रहण तथा बीड़ी बनाने के अतिरिक्त अगरबत्ती उद्योग में भी महिलाओं की बड़ी संख्या कार्यरत है। 
अगरबत्ती की मांग लगभग हर घर में होती है। घर को सुगंधित करना हो या फिर पूजा करने के लिए अगरबत्ती की आवश्यकता पड़ती है। घर बैठी महिलाओं के लिए यह स्वरोजगार के रूप में कमाई का महत्वपूर्ण साधन बन चुका है। अगरबत्ती के प्रति पैकेट उत्तमता के अनुसार एक रूपये से लेकर 100-150 रूप्ये तक बिकते हैं। इस काम के लिए किसी विशेष शिक्षा अथवा दक्षता की आवश्यकता नहीं होती है। काम करने की ललक ही सबसे बड़े कौशल के रूप में दक्षता दिलाता है। कम पढ़ी लिखी अथवा अशिक्षित महिलाएं भी अगरबत्ती बनाने के काम में निपुण साबित होती हैं। 
अचार, पापड़ और चिप्स आदि बनाने के कार्य में 95 प्रतिशत महिलाएं संलग्न होती हैं। ये महिलाएं अपने घरेलू दायित्वों के साथ बड़ी कुशलता के साथ इन कार्यों को करती हैं। उदाहरण के लिए पापड़ उद्योग को ही ले लिया जाए। महिलाओं को पापड़ के लिए सामग्री दी जाती है। उन्हें घर जाकर सिर्फ बेलने का काम करना पड़ता है। इस काम में प्रत्येक महिला एक हजार से तीन हजार रूपए प्रतिमाह तक कमा लेती है। मसालों को साफ कर, पीसकर तथा पैक करने में जो महिलाएं अपना योगदान करती हैं, वे भी अप्रत्यक्ष रूप से देश के कुटीर एवं लघु उद्योग को सुदृढ़ता प्रदान करती हैं। 
केन्द्र एवं राज्य सरकारों की ओर से विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत स्वसहायता समितियों के गठन को प्रोत्साहन तथा आर्थिक सहायता भी दी जाती है। इनके अंतर्गत उन औरतों को एक समूह के रूप में संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जो अकेली घर से निकलने, किसी पराए पुरुष से बात करने तथा घरेलू कार्यों से इतर काम करने से झिझकती हैं। ऐसी औरतें आपस में मिल कर परस्पर एक-दूसरे का सहारा बनती हैं तथा एक-दूसरे के लिए प्रेरक का काम करती हैं। ये वही औरतें हैं जो घरेलू स्तर पर मसाला बनाने के व्यवसाय में कामगार की भूमिका निभाती हैं, ये वही औरतें हैं जो अचार और बड़ियां बनाती हैं, ये वही औरतें हैं जो लखनऊ के चिकन का कशीदा, वाराणसी का जरी उद्योग, जयपुर की रजाइयां और बंधनी में अपना योगदान देती हैं। यूं भी सलवार, कमीज, लहंगे-चुन्नी, रेडीमेड कपड़ों इत्यादि सभी पर कढ़ाई का प्रचलन हमेशा ही रहा है। मोमबत्ती और टेराकोटा की सजावटी वस्तुएं बनाने के कार्य में भी घरेलू औरतों का पुरुषों से अधिक प्रतिशत रहता है। बांस, नारियल के रेशे, जूट आदि से उपयोगी सामान बनाने का कार्य महिलाएं घर बैठे करती हैं तथा अपने परिवार को आर्थिक मदद करती हैं। 
बढ़ती हुई महंगाई के इस जमाने में जितना भी धन कमाया जाए वह परिवार के गुजारे के लिए अपर्याप्त है । यदि बच्चों को उचित शिक्षा दिलानी है या अपने परिवार का सामाजिक व आर्थिक स्तर ऊंचा उठाना है तो महिलाओं को आगे आना ही पड़ता है। देश में सामाजिक, पारिवारिक ढांचा तथा शैक्षिक स्तर  अभी भी प्रत्येक महिला को पूर्णरूप से कामकाजी बनने का वातावरण मुहैया नहीं कराता है। ऐसी स्थिति में अपने पारिवारिक दायित्वों से समय बचा कर, घर में ही काम करते हुए चार पैसे कमाने का रास्ता इन औरतों का सहारा बनता है। इन महिलाओं को भले ही कामकाजी न कहा जाए अथवा इनके आर्थिक योगदान को रेखांकित नहीं किया जाए फिर भी दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुएं इन्हीं के श्रम और कौशल से निर्मित होती हैं। दरअसल, चाहे सफाई के काम में आने वाली झाडू हो, ड्राइंगरूम को सजाने वाली वस्तुएं अथवा फैशन की दुनिया में रैम्प पर जगमगाते वस्त्रों का रंग और पैटर्न हो, ये सब आर्थिक जगत के हाशिए पर मौजूद इन औरतों का महत्वपूर्ण किन्तु मौन योगदान होता है। यही हैं वे औरतें जो किसी भी आर्थिक श्रेणी में नहीं रखी जाती हैं लेकिन परिवार और समाज की आर्थिक रीढ़ की भूमिका अदा करती हैं।
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Tuesday, November 12, 2024

पुस्तक समीक्षा | भावनाएं जब नदी बन कर बहती हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 12.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डाॅ. शिवा श्रीवास्तव  जी के काव्य संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भावनाएं जब नदी बन कर बहती हैं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - भावना के विविध रंग
कवयित्री     - डाॅ. शिवा श्रीवास्तव 
प्रकाशक     - वाची प्रकाशन, बी-59, गुलाब बाग, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
मूल्य        - 300/- 
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     एक बार पाब्लो नरुदा से उनके एक प्रशंसक ने पूछा कि ‘‘आप कविता क्यों लिखते हैं?’’ पाब्लो नरुदा ने तत्काल उत्तर दिया कि ‘‘मैं कविता नहीं लिखता, कविता मुझे लिखती है।’’ वस्तुतः एकदम सटीक उत्तर था पाब्लो नरुदा का। जब किसी सृजनकर्ता के जीवन में उसकी सृजनात्मकता उसका पर्याय बनने लगती है तो ठीक वहीं से वह सृजन करने का दावेदार नहीं रह जाता, अपितु उसका सृजन उसे रचने लगता है। कुछ इसी दिशा की ओर बढ़ रही हैं कवयित्री डाॅ. शिवा श्रीवास्तव। उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘‘भावना के विविध रंग’’ में संग्रहीत उनकी कविताएं इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि डाॅ. शिवा श्रीवास्तव की भावनाएं एक नदी की भांति प्रवाहित हो रही हैं और उन्हें उस दिशा की ओर ले जा रही हैं जहां उनका अस्तित्व काव्य को जीने लगेगा। संग्रह की भूमिका में समाजवादी चिंतक, कवि रघु ठाकुर ने शिवा श्रीवास्तव की कविताओं के बारे में लिखा है कि -‘‘उनकी कविताओं में पीड़ा, प्रेरणा व संकल्प तीनों हैं। मुझे खुशी होगी कि बौद्धिक जगत उनकी इस प्रतिभा को पहचाने, पीड़ित दुनिया, उनके विचारों से उद्वेलित हो, और समता के लक्ष्य को पाने की ओर विचार करे और आगे बढ़े। शिवा जी की कविताएं, भावनाओं की बाढ़ लाती है. फिर वे उन्हें बांधकर, नियंत्रित करती हैं और एक मार्ग रूपी नहर में छोड़कर जनहित का माध्यम बना देती है।’’ 
साहित्यकार मुकेश वर्मा ने अपने ‘‘प्राक्कथन’’ में इन कविताओं को ‘‘इस अराजक समय में एक कवि का जरूरी बयान यानी शिवा की कविताएं’’ कहा है। वहीं वरिष्ठ पत्रकार जयंत सिंह तोमर शिवा श्रीवास्तव की कविताओं को ‘‘नीराजना’’ कहा है। नीराजना का एक अर्थ होता है कर्पूर की भांति जल कर सुगंध और प्रकाश देना तथा दूसरा अर्थ कि शस्त्र को धारदार बनाना। देखा जाए तो यह एक शब्द ही डाॅ शिवा की कविताओं का सटीक अर्थांकन कर देता है। इन कविताओं में भावनाओं का कर्पूर भी है और सदाकांक्षाओं की धार भी। 
डाॅ. शिवा श्रीवास्तव की कविताओं से गुज़रते हुए मैंने अनुभव किया कि कवयित्री के भीतर एक छटपटाहट है सब कुछ ठीक कर देने की। तमाम विसंगतियों को दुरुस्त कर एक बेहतर संसार बसाने की। ऐसे ही निरापद संसार का स्वप्न अपने बच्चों के लिए एक मां देखती है। ‘‘मां’’ एक स्त्री का समग्र स्वरूप भी होती है। कवयित्री ने अपना यह प्रथम काव्य संग्रह अपनी मां को समर्पित किया है। 
संग्रह की सम्पूर्ण 106 कविताएं विषयानुसार पांच खंडों में विभक्त हैं- खंड 1 अनुभूतियां, खंड 2 प्रेम, खंड 3 स्त्रियां, खंड 4 प्रकृति और नदियां, खंड 5 छोटी कविताएं। 
प्रथम खंड-अनुभूतियां को एक भावनात्मक सरिता का उद्गम माना जा सकता है जिसमें कवयित्री मन की तथा जग की भावनाओं को कोमल शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं। इस प्रथम खंड की दूसरी कविता मन को गहरे तक छू लेने का माद्दा रखती है। इसका शीर्षक है- ‘‘अम्मां के पल्लू की गांठ’’। इस कविता में ‘पल्लू की गांठ’ मां के दायित्वों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। इसमें ‘हाईलाइटर’ का प्रयोग अनूठा एवं बेहद प्रभावी है। कविता का एक अंश देखिए-
वे गांठ का सहारा लेतीं थीं।
बाबा अपने दफ्तर के काम 
अम्मां से याद रखवाते 
या यूं कहें-पूरा घर ही उनसे 
अपने-अपने काम याद रखवाता था 
पल्लू में गांठ लगाना 
बिना भूले उन्हे, सबकुछ याद कराता था।
किसी डायरी में लिखे 
जरूरी कामों की सूची 
पर हाइलाइटर-सी वो गांठ 
बिना पन्ने पलटे ही दिख जाती थी।
दूसरे खंड प्रेम में प्रेमासिक्त वे रचनाएं हैं जो प्रेम को देह की नहीं वरन आत्मा की अनुभूति का विषय बनाती हैं। यूं भी एक स्त्री जब प्रेम की बात करती है अथवा प्रेम के बारे में सोचती है तो वह उसे देह से परे रख कर ही सोचती है। उसके लिए प्रेम प्रथम और देह दोयम होती है। उसके लिए एक अदद स्पर्श भी आत्मा को छूने के समान होता है। डाॅ. शिवा भी अपनी कविताओं में प्रेम के इसी निश्च्छल एवं निद्र्वंद्व स्वरूप को व्याख्यायित करती हैं। उनकी एक कविता है ‘‘वो क्षण’’। इस कविता को कवयित्री की प्रेम कविताओं के मर्म को जानने के लिए बानगी के रूप में चुना जा सकता है-
तुम्हारे स्पर्श मात्र से 
देर तक तपता रहा था मन... 
वो क्षण ठहरा कहां था 
ठहर सकता भी नहीं था 
उसे तो बीतना ही था 
सदा के लिए... 
स्मृति हो जाने को।
स्मृतियां इसे कभी नहीं मरने देंगी 
बार-बार जीवित करती रहेंगी..... 
डाॅ. शिवा श्रीवास्तव की कविताएं एक सुंदर शाब्दिक प्रवाह लिए हैं। इनमें प्रश्न हैं, उत्तर हैं, वर्णन हैं, व्याख्याएं हैं और अनुभूतियों का विपुल भंडार है। खंड 3 स्त्रियां की कविताएं उनके सृजन की इन्हीं विशेषताओं से परिचित कराती हैं। वे प्रकृति का मानवीकारण करती हैं किन्तु मानव के अस्तित्वबोध को उजागर करने के लिए। वे प्रश्न करती हैं नदियों के उद्गम पर किन्तु उसमें निहित है स्त्री का समूचा जीवन। जैसे उनकी कविता ‘‘नदियों के घर’’ की ये पंक्तियां देखिए -
क्या नदियों के उद्गम ही 
उनके घर होते हैं?
या/ बहते-बहते जिस 
अंतिम छोर पर 
विलीन हो जाती हैं,/वो?
या फिर पहाड़ की तलहटियों में 
कोई घर होता है उनका?/या
नदियों का कोई घर होता ही नहीं 
वे जन्म से विलीन होने की यात्रा को 
ही अपना घर मानती रहती हैं?
प्रकृति को भली-भांति पढ़ना जानती है कवयित्री। खंड 4 में उनकी कविताएं प्रकृति और नदियांे को समर्पित हैं। कवयित्री का तादात्म्य है प्रकृति के साथ इसीलिए प्रकृति के क्षरण पर उसे पार पीड़ा होती है। जो प्रकृति की आवाज़ सुन सकता है, वह एक पेड़ को बेरहमी से काटे जाने पर उसके रुदन का स्वर भी सुन सकता है। कोई भी चीत्कार, कोई भी मर्मांतक पीड़ा का स्वर एक संवेदनशील मन को दहला सकता है। फिर पेड़ कटने पर उसके रुदन का स्वर कवयित्री को सुनाई देना स्वाभाविक है। कविता ‘‘उस पेड़ के कट जाने पर’’ एक ऐसे ही रुदन से जन्मी है-
ये रुदन कैसा सुनाई दे रहा है 
कहां से ये आवाज आ रही है 
किसी पेड़ से डाली गिरी है चरमरा कर 
तने से टूटने पर, आंसूओं की धार है ये
तने से मजबूत डाली कैसे गिर गई? 
नहीं-नहीं कुल्हाड़ी चलाई है 
पत्ते चीखे चिल्लाए 
कुछ लड़ते हुए नीचे गिर आए... 
संग्रह के खंड 5 में छोटी-छोटी कुल बीस कविताएं हैं जो शब्दों की सीमितता के अनुसार भले ही छोटी हों किन्तु उनके भाव विस्तृत हैं। इस खंड की छठी कविता में कवयित्री की कोमल भावनाओं को तंरगायित होते हुए स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है-
यहां न आम्र बौर है 
न कोई पगडंडी 
मैं कनुप्रिया भी नहीं 
बस तुम्हारा भाव 
मुझे वो सब बना रहा है। 
‘‘भावना के विविध रंग’’ कविता संग्रह पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान विषय में डाॅक्टरेट की उपाधि प्राप्त सशक्त कवयित्री डाॅ शिवा श्रीवास्तव की उन तमाम भावनाओं की शाब्दिक प्रस्तुति है जो उद्गम का पता बताती हैं, प्रवाह के दौरान तटों से टकराती हैं, चरैवेति कहती हुई द्रुतगामी रहती हैं तथा तलछट को भी टटोलती चलती हैं। कवयित्री में भाषिक कौशल है, शिल्पविधान की पकड़ है जिससे संग्रह की कविताएं पाठक के मानस पर गहरा प्रभाव डालने में सक्षम हैं। डाॅ. शिवा श्रीवास्तव के इस संग्रह को अवश्य पढा जाना चाहिए।  
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Saturday, November 9, 2024

"जिस समाज में साहित्यकार और कलाकार होते हैं वह समाज निरंतर प्रगति करता है।" डॉ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्य अतिथि, पुस्तक लोकार्पण

"जिस समाज में साहित्यकार और कलाकार होते हैं वह समाज निरंतर प्रगति करता है।" बतौर मुख्य अतिथि मैंने अपने उद्बोधन में कहा। अवसर था 08.11.2024 को श्री रमेश चौकसे (से.नि. सहा. वन संरक्षक) के काव्य संग्रह  "गति ही जीवन है" के लोकार्पण का और आयोजन किया था हैहय क्षत्रिय कल्चुरी समाज, सागर ने।
   इस अवसर पर मेरे साथ थीं अतिथि डॉ. सुजाता मिश्र एवं श्री माधव चंद्र चंदेल।  श्रीमती क्लीं राय ने भी अपनी पुस्तकें हमें भेंट की। हैहय क्षत्रिय कल्चुरी समाज की उपस्थिति का एक विशेष गरिमामय अनुभव रहा।


सभी तस्वीरों के लिए प्रिय भाई माधव चंद्र चंदेल का हार्दिक आभार 🙏
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