Wednesday, October 30, 2019

चर्चा प्लस …प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लाभ भाई पटेल का व्यक्तित्व - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस …
 प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लाभ भाई पटेल का व्यक्तित्व
     - डाॅ. शरद सिंह                                                                            
       ‘लौह पुरुष’ के नाम से विख्यात सरदार वल्लभ भाई पटेल एक सच्चे देशभक्त थे। आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में उन्होंने भारतीय गणराज्य में रियासतों के एकीकरण का दुरूह कार्य जिस कुशलता से कर दिखाया, वह सदैव स्मरणीय रहेगा। स्वभाव से वे निर्भीक थे। अद्भुत अनुशासनप्रियता, अपूर्व संगठन-शक्ति, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता उनके चरित्र के अनुकरणीय गुण थे। कर्म उनके जीवन का साधन था तथा देश सेवा उनकी साधना थी। उनका राजनैतिक योगदान देश के व्यापक हित से जुड़ा हुआ होने के कारण ही उन्हें ‘भारतीय बिस्मार्क’ भी कहा जाता है।
Charcha plus a column of Dr (Miss)Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily, चर्चा प्लस …प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लाभ भाई पटेल का व्यक्तित्व - डाॅ. शरद सिंह
       वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उन्होंने रियासतों के एकीकरण जैसे असम्भव दिखने वाले कार्य को उस समय अन्जाम दिया जब विंस्टन चर्चिल इस उपमहाद्वीप को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और छोेटे-छोटे रजवाड़ों के समूह के रूप में बांटना चाहते थे। अगर सरदार पटेल निरन्तर प्रयास न करते तो आज भारत की जगह बहुत सारे देश होेते जो एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बने रहते।
       सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। करमसाड गांव के आस-पास दो उपजातियों का निवास था- लेवा और कहवा। इन दोनों उपजातियों की उत्पत्ति भगवान रामचन्द्र के पुत्रों लव और कुश से मानी जाती है। वल्लभ भाई पटेल का परिवार लव से उत्पन्न लेवा उपजाति का था जो पटेल उपनाम का प्रयोग करते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। उत्तर भारत तथा महाराष्ट्र से नाडियाड आने वाले व्यापारियों के माध्यम से इस सम्बन्ध में छिटपुट समाचार झावेर भाई को मिलते रहते थे। वे भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय कृषकों के साथ किए जाने वाले भेद-भाव से अप्रसन्न थे। एक दिन उन्हें पता चला कि उनके कुछ मित्रा नाना साहब की सेना में भर्ती होने जा रहे हैं। झावेर भाई ने भी तय किया कि वे भी सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ेंगे। वे जानते थे कि उनके परिवारजन इसके लिए उन्हें अनुमति नहीं देंगे। अतः एक दिन वे बिना किसी को बताए घर से निकल पड़े। नाना साहब की सेना में भर्ती होने के उपरांत उन्होंने सैन्य कौशल प्राप्त किया। उस समय तक झांसी की रानी ने ‘अपनी झांसी नहीं दूंगी’ का उद्घोष कर दिया था। सन् 1857 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता करने के लिए नाना साहब अपनी सेना लेकर झांसी की ओर चल दिए। उनकी सेना में झावेर भाई भी थे।
        बचपन से ही संषर्घमय जीवन व्यतीत करने के कारण सरदार वल्लभ भाई पटेल के स्वभाव में कठोरता तो आई ही थी, साथ ही साथ कठिन से कठिन समस्याओं को सहज ढंग से सुलझाने की क्षमता का भी विकास उनमें हुआ था। उनके स्वभाव में गम्भीरता थी और इच्छाशक्ति में लोहे जैसी मजबूती। वल्लभ भाई बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे किन्तु उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इंग्लैंड जा सकें। उन्होंने वकालत करके धन जोड़ा और जब इंग्लैंड जाने का समय आया तो उनके बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें पहले इंग्लैंड जाने दें। अनुपम त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वल्लभ भाई ने अपने बड़े भाई को अपने बदले इंग्लैंड जाने दिया और स्वयं उनके लौटने के कुछ समय बाद इंग्लैंड गये।
         इंग्लैंड जा कर उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई अच्छे अंकों से पूरी की। भारत वापस आ कर एक बार फिर वकालत आरम्भ की और वकालत के क्षेत्र में ख्याति एवं प्रतिष्ठा अर्जित की। आरम्भ में वल्लभ भाई महात्मा गांधी के विचारों से सहमत नहीं थे किन्तु जब वे गांधी जी के निकट सम्पर्क में आए तो इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने न केवल अहिंसा एवं सत्याग्रह को अपनाया अपितु पाश्चात्य वस्त्रों को सदा के लिए त्याग कर धोती-कुर्ता की विशुद्ध भारतीय वेश-भूषा अपना ली।
         स्वतंत्राता आन्दोलन में वल्लभ भाई का सबसे पहला और बड़ा योगदान खेड़ा आन्दोलन में था। गुजरात का खेड़ा जिला उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से लगान में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो वल्लभ भाई ने महात्मा गांधी के साथ पहुंच कर किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिए प्रेरित किया। अंततः सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी और लगान में छूट दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। इसके बाद उन्होंने बोरसद और बारडोली में सत्याग्रह का आह्वान किया। बारडोली कस्बे में सत्याग्रह करने के लिए ही उन्हंे पहले ‘बारडोली का सरदार’ और बाद में केवल ‘सरदार’ कहा जाने लगा। यह एक कुशलतापूर्वक संगठित आन्दोलन था जिसमें समाचारपत्रों, इश्तिहारों एवं पर्चों से जनसमर्थन प्राप्त किया गया था तथा सरकार  का विरोध किया गया था। इस संगठित आन्दोलन की संरचना एवं संचालन वल्लभ भाई ने किया था। उनके इस आन्दोलन के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा था।
        महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन के दौरान सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार करने आह्वान करते हुए स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वल्लभ भाई ने सदा के लिए वकालत का त्याग कर दिया। इस प्रकार का कर्मठताभरा त्याग वल्लभ भाई ही कर सकते थे।
      वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उन्होंने रियासतों के एकीकरण जैसे असम्भव दिखने वाले कार्य को उस समय अन्जाम दिया जब विंस्टन चर्चिल इस उपमहाद्वीप को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और छोेटे-छोटे रजवाड़ों के समूह के रूप में बांटना चाहते थे। अगर सरदार पटेल निरन्तर प्रयास न करते तो आज भारत की जगह बहुत सारे देश होेते जो एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बने रहते। दुर्भाग्यवश, कश्मीर की रियासत का मामला जवाहरलाल नेहरू ने अपने लिए रख लिया था, जो आज तक नहीं सुलझ सका जबकि डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि राष्ट्रवादी नेता चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के प्रश्न को हल करने का दायित्व सरदार वल्लभ भाई पटेल को सौंपा जाना चाहिए किन्तु जवाहरलाल नेहरू इस पक्ष में नहीं थे। जवाहरलाल नेहरू ने जम्मू-कश्मीर का मामला अपने हाथ में ही रखा। यदि जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर की रियासत को भी वल्लभ भाई के हवाले कर दिया होता तो कश्मीर की समस्या 21वीं सदी का मुंह कभी नहीं देख पाती। वस्तुतः वल्लभ भाई पटेल के जीवन के बारे में पढ़ना भारतीय संस्कृति एवं भारतीय मूल्यों को पढ़ने के समान है।  
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 30.10.2019)
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Thursday, October 24, 2019

बुंदेलखंड की कील और मछली वाली दीपावाली - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की कील और मछली वाली दीपावाली 
 - डॉ. शरद सिंह

(नवभारत में प्रकाशित)
 
दीपावली का त्यौहार भारतीय संस्कृति का वह प्रकाशपर्व है जो बुराई पर अच्छाई की विजय पर जीवन के प्रकाशित होने का संदेश देता है। बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की
चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। आज भी वे दीपावली पर पूछती हैं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।
Navbharat -  Bundelkh Ki Keel Aur Machhaliwali Dipawali  - Dr Sharad Singh
      दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।


आज भी गांवों में बुजुर्ग बताते हैं कि बुंदेलखंड में दीपावली धर्म से अधिक सामाज और पर्यावरण से जुड़ा त्यौहार रहा है। बांदा के 75 वर्षीय लखन सिंह ठाकुर के अनुसार पहले दीपावली के दिन सुबह होते ही गांव का जुलाहा गांव के हर घर में दीपक जलाने के लिए रूई पहुंचाता था, चाहे किसी भी धर्म का हो। कुम्हार दीपक दे जाता और शाम के समय लुहार घर-घर जा कर और घर की चैखट पर कील ठोंकता था। ये लोग इस काम के बदले पैसे नहीं लेते थे अतः उन्हें अनाज दिया जाता था। शाम को सबसे पहले गाय की पूजा की जाती जिसमें गाय के सींगों को हल्दी और घी से रंग कर उसे नमक की डली चटाया जाता। यह पूजा घर में पशुधन के लिए की जाती थी। इसके बाद रात होने पर लक्ष्मी पूजन किया जाता। इसके बाद दीपकों को हर कमरे में, यहां तक कि जहां कूड़ा फेंका जाता था वहां, कुआं, तालाब पर रखा जाता। यहां तक कि अपने पूर्वजों के क्रिंयाकर्म स्थल पर भी दीप रखने की परंपरा रही है। दीप सज्जा के बाद खील-बताशे का प्रसाद वितरण और पटाखे-फुलझड़ी चलाने की परंपरा रही है।


कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाज़ों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले चौक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
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(नवभारत, 24.10.2019 में प्रकाशित)
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चर्चा प्लस ... बुंदेली-दिवाली की संकटग्रस्त परंपराएं - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

बुंदेली-दिवाली की संकटग्रस्त परंपराएं
- डाॅ. शरद सिंह 


कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाज़ों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।

Charcha Plus - Bundeli Diwali Ki Sankatgrast Paramparayen  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
    दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चौक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। एरसे त्यौहारों विशेषकर होली और दीपावली पर बनाये जाते हैं। ये मूसल से कूटे गए चावलों के आटे से बनते हैं। आटे में गुड़ मिला कर, माढ़ कर इन्हें पूड़ियों की तरह घी में पकाते हैं। घी के एरसे ही अधिक स्वादिष्ट होते है। इसी तरह अद्रैनी प्रायः त्यौहारों पर बनाई जाती है। आधा गेहूं का आटा एवं आधा बेसन मिलाकर बनाई गई पूड़ी अद्रैनी कहलाती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। इन सारी तैयारियों के साथ आगमन होता है बुंदेली-दिवाली का।

बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की
चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। आज भी वे दीपावली पर पूछती हैं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।

दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।

कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाज़ों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले चौक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 23.10.2019)
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डाॅ शरद सिंह का पात्र के रूप में उल्लेख डाॅ धर्मपाल साहिल के उपन्यास ‘आर्त्तनाद’ में

Dr (Miss) Sharad Singh with Novel Artnaad written by Dharmpal Sahil
    किसी उपन्यास में अपने मौलिक रूप में मुझे उल्लेखित किया जाना, वह भी अहिन्दी भाषी लेखक द्वारा... अनूठी व सुखद अनुभूति आज पांच साल बाद भी रोमांचित करती है...जी हां, पंजाबी के सुपरिचित लेखक धर्मपाल साहिल (जो हिन्दी में भी लिखते हैं) ने अपने उपन्यास "आर्त्तनाद" में अपने पात्रों के साथ संवाद करते हुए मेरा उल्लेख किया है... यह उपन्यास 2014 में प्रकाशित हुआ था।
#ABigHonourForMe 😊
Dr (Miss) Sharad Singh in Novel Artnaad written by Dharmpal Sahil, Page 165

Dr (Miss) Sharad Singh in Novel Artnaad written by Dharmpal Sahil, Page 171


Dr (Miss) Sharad Singh with Novel Artnaad written by Dharmpal Sahil

Wednesday, October 23, 2019

त्रिलोचन शास्त्री जी को मैं 'अंकल' कह कर पुकारती थी - डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh with Renound Poet Trilochan Shastri at Sagar University

अमूल्य स्मृति... 
 
कवि त्रिलोचन शास्त्री से अपने नवगीतों पर राय लेती मैं...त्रिलोचन जी को मैं 'अंकल' कह कर पुकारती थी, उन्हें मेरा यह संबोधन प्रिय था। यह तस्वीर डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर कैम्पस में उनके निवास की है। इसे खींचा था त्रिलोचन अंकल के निज सहायक निगम जी ने। 

🖋️उल्लेखनीय है कि मेरे नवगीत संग्रह "आंसू बूंद चुए" का फ्लैप त्रिलोचन जी ने ही लिखा था।

"भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं" लेखिका डाॅ शरद सिंह

Bharat Ke Adivasi Kshetron Ki Lokkathayen - Book of Dr (Miss) Sharad Singh

"Tribal Stories Are Our Real Literary Heritage." - Dr #Sharad_Singh
"आदिवासी कहानियां हमारी वास्तविक साहित्यिक धरोहर हैं।" - डॉ #शरद_सिंह

प्रिय मित्रो, ... National Book Trust से प्रकाशित मेरी यह पुस्तक "भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं" flipkart, Amazon और Snapdeal पर उपलब्ध हैं 🙏

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http://library.azimpremjiuniversity.edu.in/cgi-bin/koha/opac-detail.pl?biblionumber=62589&shelfbrowse_itemnumber=84182

"दैनिक हिन्दुस्तान" में पुस्तक "थर्ड जेंडर विमर्श" पर समीक्षात्मक टिप्पणी - डॉ. शरद सिंह

Dainik Hindustan, 20.10.2019 on Third Gender Vimarsh - Book - Dr Sharad Singh

आज "दैनिक हिन्दुस्तान" के सभी संस्करणों में मेरी पुस्तक "थर्ड जेंडर विमर्श" (सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित) पर समीक्षात्मक टिप्पणी प्रकाशित हुई है...आप भी पढ़ें... इसे भी, पुस्तक भी...
हार्दिक आभार #दैनिक_हिन्दुस्तान 🙏
हार्दिक धन्यवाद #सामयिक_प्रकाशन 🙏

बुंदेलखंड का भी महत्वपूर्ण त्यौहार है करवाचौथ - डॉ. शरद सिंह (नवभारत में प्रकाशित)


Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड का भी महत्वपूर्ण त्यौहार है करवाचौथ
- डॉ. शरद सिंह
(नवभारत में प्रकाशित)
बुंदेलखंड में कार्तिक मास त्यौहारों का माह माना जाता है। इस माह में छोटे-बड़े अनेक त्यौहार मनाए जाते हैं। उन सभी की अपनी अलग-अलग महत्ता है। कुछ त्यौहार ऐसे हैं जो बुंदेली माटी में कब रच-बस गए यह जान पाना कठिन है। जैसे एक त्यौहार है करवा चौथ। आज यह त्यौहार गांवों से ले कर शहरों ओर महानगरों तक पूरे धूम-धाम से मनाया जाता है। निसंदेह इसमें आडंबर जुड़ते गए हैं किन्तु इस त्यौहार की मूल भावना आज भी शाश्वत है कि अपने जीवन साथी की दीर्घायु की कामना किया जाना।
Navbharat -  Bundelkh Me Karva Chauth  - Dr Sharad Singh
   बुंदेलखंड में भी विवाहित स्त्रियां साल भर इस त्योहार की प्रतीक्षा करती हैं। करवा चौथ का त्योहार पति-पत्नी के अटूट बंधन का प्रतीक है। कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मनाए जाने वाले इस त्यौहार के संबंध में रोचक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार जब देवताओं और दानवों के मध्य युद्ध आरम्भ हुआ तो ब्रह्मा ने देवपत्नियों से कहा कि वे अपने पतियों की जीवनरक्षा हेतु व्रत रखें। जब देवताओं की विजय हुई तो चंद्रमा ने उदित हो कर यह शुभ समाचार दिया। तब देवपत्नियों से अपना व्रत समाप्त किया। एक अन्य कथा के अनुसार देवी पार्वती ने कठिन तपस्या के उपरांत भगवान शंकर को कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्थी को पति रूप में प्राप्त किया था और देवताओं ने उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान दिया था। जिस तरह पार्वती जी को अखंड सौभाग्य का वरदान मिला था ठीक उसी तरह का सौभाग्य पाने के लिए सभी महिलाएं उपवास रखती है। अन्न जल का त्याग कर व्रत रखकर, रात्रि समय में चांद को अर्ध्य देकर यह व्रत पूर्ण होता है।
करवा चौथ व्रत में बांचे जाने वाली कथा के अनुसार बहुत समय पहले एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन थी। बहन का नाम था करवा। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्रेम करते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्ध्य देकर ही खा सकती है। चूंकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है। सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं गई और उसने दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख दिया। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चांद उदित हो रहा हो। इसके बाद भाई अपनी बहन को बताया कि चांद निकल आया है, तुम उसे अर्ध्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन ने भाई की बात पर विश्वास किया और दीपक को चांद समझ कर अपना व्रत समाप्त कर दिया। किन्तु इसके बाद भोजन के हर निवाले के साथ अपशकुन के संकेत मिलने लगते हैं और अंत में उसे पति की मृत्यु का समाचार मिलता है। वह बिलख उठती है तब उसकी भाभियां उसे सच्चाई से अवगत कराती हैं। सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियां करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियां उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से ’यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो’ ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है। इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूंकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह कर वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। अंत में उसकी तपस्या देख कर भाभी करवा के पति को जीवित कर देती है। इस कथा को सुन कर सभी विवाहिताएं प्रार्थना करती हैं कि जैसे करवा के पति को जीवन मिला वैसे ही हमारे पति के जीवन की रक्षा होती रहे।
बुंदेलखंड के अजयगढ़ क्षेत्र में कुछ वर्ष पूर्व करवा चौथ का यह गीत ढोलक की थाप के साथ महिलाओं को गाते हुए मैंने सुना था -
करवा माई तोए बिजना झलूं
दीजो-दीजो पिया जी को
चंदा औ सूरज की लम्बी उम्मर
करवा माई तोए देऊं गुड़ की डली
दीजो-दीजो पिया जी को मोरी उम्मर
वर्तमान इलेक्ट्रॉनिक युग में ऐसी कथाएं पुरातनपंथी लग सकती हैं। चलनी से चन्द्रमा को देख कर व्रत तोड़ने की बात बेमानी लग सकती है जबकि हम चन्द्र अभियान चला रहे हैं। किन्तु यह त्यौहार मुख्य रूप से आस्था और विश्वास का है, दाम्पत्य जीवन में प्रेम और स्थायित्व का है। अतः इसके मानवीय संवेदनात्मक पक्ष को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। संभवतः यही कारण है कि आज दुनिया में फैले समूचे भारतीय हिन्दू समुदाय की भांति बुंदेलखण्ड में भी करवाचौथ का त्यौहार धूम-धाम से मनाया जाता है। बस, आवश्यकता है तो इस बात की कि इस त्यौहार में अंधविश्वास की हद तक महिलाएं अपनी सेहत को दांव पर न लगाएं और बाज़ारवाद की अंधी दौड़ में शामिल न हों। यह त्यौहार भी अन्य त्यौहारों की भांति सुंदर और मानवमूल्यों से परिपूर्ण है।
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चर्चा प्लस ... (16 अक्टूबर) विश्व खाद्य दिवस पर विशेष : खड़े होना होगा हमें भूख और कुपोषण के विरुद्ध - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... (16 अक्टूबर) विश्व खाद्य दिवस पर विशेष :
खड़े होना होगा हमें भूख और कुपोषण के विरुद्ध
- डॉ. शरद सिंह
विश्व खाद्य दिवस की वर्ष 2019 की थीम रखी गई है-‘‘अवर एक्शन आर अवर फ्यूचर’’। इसके अंतर्गत जो लक्ष्य रखा गया है वह है -‘‘हेल्दी डाईट्स फॉर जीरो हंगर वर्ल्ड’’। अर्थात् खाद्य उपलब्धता की ओर उठाया गया ‘‘हमारा कदम ही हमारा भविष्य है’’ और ‘‘भूख विहीन दुनिया हो जिसमें सबको पौष्टिक आहार मिले’’। विश्व खाद्य दिवस 2019 की थीम और लक्ष्य दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आज जब भूख के कारण गांवों से शहर, शहरों से दूसरे देश पलायन की विवशता दिखाई देने लगी है तब इस प्रकार के लक्ष्य तय करना जरूरी भी है। मगर इससे भी जरूरी है इस प्रकार के लक्ष्य को पूरा करने की दृढ़ इच्छाशक्ति का होना।

Charcha Plus - Vishwa Khadya Diwas - (16 अक्टूबर) विश्व खाद्य दिवस पर विशेष - खड़े होना होगा हमें भूख और कुपोषण के विरुद्ध  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
 जब उत्पादन और जनसंख्या का संतुलन बिगड़ने लगे तब खाद्य संकट गहराएगा ही। दूसरे शब्दों में कहें तो कृषिभूमि लगातार कम होती जा रही है और जनसंख्या बढ़ती जा रही है। विश्व खाद्यान्न कार्यक्रम के अनुसार खाद्यान्नों का बढ़ता हुआ अभाव एक महासंकट का संकेत दे रहा है। विश्व बैंक के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में करीब 800 मिलियन लोग भूखमरी से प्रभावित है। जब खाद्य सामग्री पर ही संकट छाया हो तो कुपोषण की दर तो बढ़ेगी ही। इसीलिए विश्व खाद्य दिवस की वर्ष 2019 की थीम रखी गई है-‘‘अवर एक्शन आर अवर फ्यूचर’’। इसके अंतर्गत जो लक्ष्य रखा गया है वह है -‘‘हेल्दी डाईट्स फॉर जीरो हंगर वर्ल्ड’’। अर्थात् खाद्य उपलब्धता की ओर उठाया गया ‘‘हमारा कदम ही हमारा भविष्य है’’ और ‘‘भूख विहीन दुनिया हो जिसमें सबको पौष्टिक आहार मिले’’।
विश्व खाद्य दिवस 2019 की थीम और लक्ष्य दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आज जब भूख के कारण गांवों से शहर, शहरों से दूसरे देश पलायन की विवशता दिखाई देने लगी है तब इस प्रकार के लक्ष्य तय करना जरूरी भी है। मगर इससे भी जरूरी है इस प्रकार के लक्ष्य को पूरा करने की दृढ़ इच्छाशक्ति का होना। यदि हमारा पेट भरा है तो हम किसी भूखे के बारे में न सोचें तो विश्व खाद्य दिवस मनाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। वहीं यह भी जरूरी है कि जो खाद्य उपलब्ध है वह मिलावट से ज़हरीला न हो यह सुनिश्चित हो सके। खाद्य सामग्री में जिस तरह और जितनी बड़ी मात्रा में मिलावट की जा रही है वह हत्या के अपराध से कम नहीं है। यह धीरे-धीरे विष दे कर मारने के समान है और इसीलिए ऐसे मिलावटखोरों पर हत्या के अपराध की धरा ही लगाई जानी चाहिए। दुर्भाग्य से अथवा सरकारीतं की शिथिलता से भारत जैसे विकासशील देशों में दोनों तरह के संकट मौजूद हैं- खाद्य की कमी के भी और मिलावटखोरी के भी। मात्र सेमिनारों अथवा आयोजनों में भाषण देने या वाद-विवाद करने से ये दोनों संकट दूर नहीं हो सकते हैं।
विश्व खाद्य दिवस (वर्ल्ड फ़ूड डे) हर साल 16 अक्टूबर को दुनिया भर में मनाया जाता है। विश्व खाद्य दिवस की घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन के 20वें जनरल सम्मेलन में नवंबर 1979 में सदस्य देशों द्वारा की गई थी। तब से प्रति वर्ष विश्व खाद्य दिवस 150 से अधिक देशों में मनाया जाता है और भूख तथा गरीबी के पीछे समस्याओं और कारणों का आकलन एवं निवारण दिशा में जागरूकता का प्रयास किया जाता है। यह दुनिया भर में सरकारों द्वारा लागू प्रभावी कृषि और खाद्य नीतियों की महत्वपूर्ण आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाने में भी मदद करता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि दुनिया भर में हर किसी के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो। इस दिवस के तारतम्य में खाद्य इंजीनियरिंग पर भी जोर दिया जाता है जिससे कम लागत और कम भूमि में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने का कौशल विकसित किया जा सके।
हम भारतीय एक ऐसे देश के निवासी है जहां बड़ी संख्या में लोग भूख और कुपोषण के शिकार हैं। यह सच है कि हमारा देश वैश्विक महाशक्ति और वैश्विक गुरु बनने की दिशा में बढ़ रहा है किन्तु यह भी कटु सत्य है कि हमारे किसान आत्महत्या का कदम उठाने को विवश हो उठते हैं और ग्रामीण अंचल से लोग भुखमरी के कारण पलायन कर रहे हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भूखे लोगों में से लगभग 23 प्रतिशत लोग भारत में रहते हैं।
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) की ओर से वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर जारी 2018 की रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया के 119 विकासशील देशों में भूख के मामले में भारत 100वें स्थान पर है। इससे पहले 2016 की रिपोर्ट में भारत 97वें स्थान पर था। यानी इस मामले में साल भर के दौरान देश की हालत और बिगड़ी और भारत को ‘गंभीर श्रेणी’ में रखा गया।

उल्लेखनीय है कि वैश्विक भूख सूचकांक चार स्थितियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाता- आबादी में कुपोषणग्रस्त लोगों की संख्या, बाल मृत्युदर, अविकसित बच्चों की संख्या और अपनी उम्र की तुलना में छोटे कद और कम वजन वाले बच्चों की संख्या। आईएफपीआरआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पांच साल तक की उम्र के बच्चों की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा अपने कद के मुकाबले बहुत कमजोर है। इसके साथ ही एक-तिहाई से भी ज्यादा बच्चों की लंबाई अपेक्षित रूप से कम है। भारतीय महिलाओं का हाल भी बहुत बुरा है। युवा उम्र की 51 फीसदी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं यानी उनमें खून की कमी है। अमतोर पर सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों में पर्याप्त अंतर मिलता है किन्तु इस विषय पर सरकारी आंकड़े भी इन आंकड़ों से अलग नहीं हैं। 2016-2017 में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री रहे फग्गन सिंह कुलस्ते ने संसद को बताया था कि देश में 93 लाख से ज़्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं।
भारत जैसे देशों में खाद्य सामग्री का असमान वितरण तथा कृषिभूमि का असमान वितरण भी बड़ा कारण है खाद्य संकट का। वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि दर खाद्य पदार्थ उत्पादन में वृद्धि की दर से कहीं अधिक है। यह वृद्धि अल्पविकसित देशों में और भी अधिक है परिणामस्वरूप इस समस्या का प्रभाव भी उन देशों में अधिक है। विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2030 तक खाद्यान्नों की वैश्विक मांग दुगनी होने की संभावना है। खाद्य संकट को दूर करने के लिए हमें स्वयं ही प्रयास करने होंगे, इस संकट को दूर करने के लिए कोई परग्रहवासी नहीं आएगा। यदि हम कृषि भूमि को बचा सकें, जनसंख्या पर नियंत्रण रख सकें, कुपोषित बच्चों को पौष्टिक खाद्य उपलब्ध करा सकें तभी विश्व खाद्य दिवस के लक्ष्य को पूरा कर सकेंगे और एक स्वस्थ देश का निर्माण कर सकेंगे। यह लक्ष्य कठिन है, किन्तु असंभव नहीं। बस जरूरत है तो एक पत्थर को उछाल कर आकाश में सुराख करने का हौसले की। वरना यह भी सच है कि संकट किसी लरपरवाह को दूसरा अवसर नहीं देता है।
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"स्त्रियों का संघर्ष कभी ख़त्म नहीं होता" - डॉ शरद सिंह

Pichhale Panne Ki Auraten - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh on Bediya Women Life
Women who were pushed in the back pages of life, one day they will be exposed on front page of life.- Dr (Miss) Sharad Singh, Novelist and Activist

Wednesday, October 2, 2019

बुंदेलखंड में महात्मा गांधी की यात्राओं का लोक पर प्रभाव - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

बुंदेलखंड में महात्मा गांधी की यात्राओं का लोक पर प्रभाव
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
 
(नवभारत में प्रकाशित)
   
 वह स्वतंत्रता आंदोलन का दौर था। प्रत्येक भारतीय स्वतंत्रता पाना चाहता था और एक ऐसे नेता के पीछे चलने को आतुर था जो आडंबर रहित और अहिंसावादी विचारों का था। वह नेता थे महात्मा गांधी। उन्होंने स्वयं को कभी नेता नहीं माना किन्तु सारी दुनिया ने उन्हें भारत का सर्वोच्च नेता माना। 
Navbharat -  Bundelkh Me Mahatma Gandhi Ki Yatrayen Aur Lok pr Prabhav  - Dr Sharad Singh
        राष्ट्रीयस्तर पर जिस मुद्दे को गंभीरता से किसी ने नहीं लिया उस ओर गांधी जी ने दृढ़तापूर्वक कदम उठाया। महात्मा गांधी ने 12 मार्च, 1930 को वायसराय को सूचित किया कि वे अपने 78 अनुयाइयों के साथ ‘दांडी मार्च’ (दांडी यात्रा) करने जा रहे हैं। ‘दांडी मार्च’ से अभिप्राय उस पैदल यात्रा से है, जो महात्मा गांधी और उनके स्वयंसेवकों द्वारा 12 मार्च, 1930 ई. को प्रारम्भ की गयी। इसका मुख्य उद्देश्य था, अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ‘नमक कानून’ को तोड़ना। आश्रम के कई सदस्य, पुरुष और महिलाएं 24 दिन की ऐतिहासिक यात्रा पर रवाना हुए। गरीब किसान ब्रिटिश कानून के कारण अपनी ‘नमक की खेती’ नहीं कर पा रहे थे। गांधी जी ने वेब मिलर सहित अपने 78 स्वयंसेवकों के साथ साबरमती आश्रम से 358 कि.मी. दूर स्थित दांडी नामक स्थान के लिए 12 मार्च, 1930 ई. को प्रस्थान किया। लगभग 24 दिन बाद 6 अप्रैल, 1930 को दांडी पहुंचकर उन्होंने समुद्रतट पर नमक कानून को तोड़ा। महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा के दौरान सूरत, डिंडौरी, वांज, धमन के बाद नवसारी को यात्रा के आखिरी दिनों में अपना पड़ाव बनाया था। यहां से कराडी और दांडी की यात्रा पूरी की थी। नवसारी से दांडी का फासला लगभग 13 मील का है।
11 मार्च, 1930 को गांधी जी ने इच्छा प्रकट की कि आंदोलन लगातार चलता रहे, इसके लिए सत्याग्रह की अखंड धारा बहती रहनी चाहिए, कानून भले ही भंग हो पर शांति रहे। लोग अहिंसा और धैर्य का रास्ता अपनाएं। 11 मार्च की संध्या की प्रार्थना नदी किनारे रेत पर हुई, उस समय गांधी जी ने कहा, ‘‘मेरा जन्म ब्रिटिश साम्राज्य का नाश करने के लिए ही हुआ है। मैं कौवे की मौत मरूं या कुत्ते की मौत, पर स्वराज्य लिए बिना आश्रम में पैर नहीं रखूंगा।’’
12 मार्च को प्रातः वह ऐतिहासिक दिन आरम्भ हुआ जब 61 वर्षीय महात्मा गांधी के नेतृत्व में 78 सत्याग्रहियों ने यात्रा आरम्भ की। उस समय किसने सोचा था कि सुदूर बुंदेलखंड में भी इसका गहरा प्रभाव पड़ रहा होगा। महात्मा गांधी के तेजस्वी और स्फूर्तिमय व्यक्तित्व ने देश की जनता के मन में ऊर्जा का संचार किया। बुंदेलखंड में भी इस आंदोलन के विचार पहुंचे और देखते ही देखते अनेक स्वतंत्रता प्रेमी महात्मा गांधी के समर्थन में आ खड़े हुए। उस समय यह बुंदेली गीत जोर-शोर से गाया जाता था-
हमें सोई नमक तोड़बे के लाने जाने है
गांधी को साथ निभाने है,
अंग्रेजन खों मार भगाने हैं....
लगभग दस वर्ष पहले पन्ना (म.प्र.) के 75 वर्षीय ठाकुर लच्छे दाऊ ने अपना संस्मरण सुनाते हुए मुझे यह गीत सुनाया था और साथ ही एक घटना भी बताई थी कि उनकी दादी और मां इस गीत को गाती हुई चक्की चलाया करती थीं। पन्ना में नियुक्त अंग्रेजों के नुमाइंदे अधिकारी को किसी ने इस बात की शिक़ायत कर दी कि ठाकुर परिवार के घर की महिलाएं अंग्रेज विरोधी कार्यक्रम में संलिप्त हैं। इसके बाद घर पर दो सिपाही आ धमके। मां और दादी ने पर्दे के भीतर से ही बात की और गीत को बदल कर सुनाते हुए फटकार लगा दी। बेचारे सिपाही अपना-सा मुंह ले कर लौट गए। लेकिन इस घटना ने महिलाओं के बीच दांडी यात्रा की चर्चा को और हवा दे दी।
महात्मा गांधी की दांडी यात्रा के संबंध में एक और गीत प्रचलित था-
मैंहगो नमक हमें नई खाने
अंग्रेजन को सबक सिखाने
आए हमाए ऐंगर गांधी
जेई बात हमखों समझाने
बुजुर्ग बताते हैं कि महात्मा गांधी सागर भी आए थे। यहां उनकी यात्रा से संबधित पोस्टर छापे गए थे। वे अनंतपुरा से 2 दिसंबर की शाम 4 बजे सागर आए थे। स्टेशन के पास उनकी आमसभा हुई थी, जो शाम 7 बजे तक चली। आज़ादी के दौर में हर तरफ गांधी का नाम गूंज रहा था। वक्ता के तौर पर उनको सुनने काफी लोगों की भीड़ जमा हुआ करती थी।
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चर्चा प्लस .. (2 अक्टूबर) जन्मतिथि पर विशेष : सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस .. (2 अक्टूबर) जन्मतिथि पर विशेष :
 

सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार
- डॉ. शरद सिंह
        

अपने जीवन को कष्टों के सांचे में ढालकर दूसरों के लिए सुखों की खोज करने वाले महात्मा गांधी बीसवीं सदी के महानायकों में से एक थे। उनके विचारों, उनके कार्यों एवं उनके जीवन-दर्शन ने समूची मानवता को नये आदर्श प्रदान किए। उनका कहना था, ‘‘स्त्रियों को अबला पुकारना उनकी आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है।’’ स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’
Charcha Plus - (2 अक्टूबर) जन्मतिथि पर विशेष... सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
    वैश्विक स्तर पर महात्मा गांधी के विचारों को सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि 15 जून, 2007 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 2 अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित करने के लिए मतदान हुआ, तदुपरान्त संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2 अक्टूबर के दिन को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित किया। महात्मा गांधी के विचारों को ‘गांधीवाद’ के नाम से पुकारा जाता है। गांधीवाद को अपनाने के लिए उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विचारों को अपनाना आवश्यक है।
महात्मा गांधी राजनीति का परिष्कृत रूप स्थापित करना चाहते थे। उनका मानना था कि राजनीति के परिष्कार के लिए राजनीति में सत्य, अहिंसा, नैतिकता, परोपकार, सादगी एवं सदाचार का अधिक से अधिक प्रतिशत होना चाहिए तभी राजनीति दूषित होने से बची रहती है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में राजनीति में जो हिंसा, बाहुबल, बेईमानी, भाई-भतीजावाद एवं आर्थिक घोटालों का बोलबाला दिखाई देता है, उसमें महात्मा गांधी के ‘राजनीति के परिष्कार’ का मूलमंत्र प्रासंगिक एवं व्यावहारिक ठहरता है। यदि राजनेताओं में संयम रहे अथवा संयमित व्यक्ति राजनीति में प्रवेश करें तो राजनीति का परिष्कार सम्भव है। एक स्वस्थ राजनीतिक परिवेश देश के प्रत्येक तबके को उसके अधिकारों से जोड़ सकता है और राजनीतिक संस्थाओं के प्रति नागरिकों के मन में विश्वास पैदा कर सकता है।
महिलाओं को सशक्त बनाने का स्वप्न ही महात्मा गांधी के स्त्री-आंदोलन की बुनियाद था। महात्मा गांधी मानते थे कि स्त्रियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष सशक्त होना चाहिए। वे राजनीति में महिलाओं की सहभागिता के पक्षधर थे। वस्तुतः महात्मा गांधी का अहिंसावादी आंदोलन स्त्रियों की उपस्थिति के कारण अधिक सार्थक परिणाम दे सका। इस तथ्य को महात्मा गांधी ने स्वीकार करते हुए एक बार कहा था कि स्त्रियां प्रकृति से ही अहिंसावादी होती हैं। स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील और सहृदय होती हैं, अतः स्त्रियों की उपस्थिति से अहिंसावादी आंदोलन एवं सत्याग्रह अधिक कारगर हो सकते हैं।
महात्मा गांधी स्त्रियों को अबला कहने के विरोधी थे। वे मानते थे कि स्त्री पुरुषों की भांति सबल और शक्ति सम्पन्न है। जिस प्रकार एक सशस्त्र पुरुष के सामने निःशस्त्र पुरुष कमजोर प्रतीत होता है, ठीक उसी तरह सर्वअधिकार प्राप्त पुरुषों के सामने स्त्री अबला प्रतीत होती है जो कि वस्तुतः अबला नहीं है। उनका कहना था, ‘‘स्त्रियों को अबला पुकारना उनकी आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें उनकी वीरता की कई मिसालें मिलेंगी। यदि महिलाएं देश की गरिमा बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के बल पर देश का रूप बदल सकती हैं।’’
गांधी जी मानते थे कि स्त्रियों की उपस्थिति पुरुषों को भी आचरण की सीमाओं में बांधे रखती है। यही कारण है कि उन्होंने कांग्रेस में महिलाओं को नेतृत्व का पूरा अवसर दिया। विभिन्न आंदोलनों में स्त्रियों को शामिल होने दिया। उन्होंने कांग्रेस के अंतर्गत स्त्रियों के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के कार्यक्रम भी चलाए। वे स्त्रियों को एक स्त्री के रूप में न देखकर एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में देखते थे। वे पारिवारिक सम्पत्ति पर पुरुषों के बराबर स्त्रियों को स्वामित्व दिए जाने के भी पक्षधर थे।
महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘कोई भी राष्ट्र अपनी आधी आबादी (अर्थात् स्त्रियों) की अनदेखी करके विकास नहीं कर सकता है।’’ वे कहते थे कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कमजोर नहीं समझना चाहिए। वे स्त्रियों के आर्थिक स्वावलम्बन एवं शिक्षा के पक्षधर थे। शुचिता एवं सतीत्व के नाम पर स्त्रियों को बन्धन में रखना वे पसन्द नहीं करते थे। महात्मा गांधी का यह विचार हर युग में खरा उतरता है।
महात्मा गांधी ने स्वच्छता पर विशेष बल दिया। जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्हें अनुभव हुआ कि वहां बसे भारतीय स्वच्छता पर ध्यान नहीं देते हैं जिसके कारण अंग्रेज उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इस पर महात्मा गांधी ने वहां स्वच्छता आंदोलन चलाया। इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि अफ्रीका में बसे भारतीय समाज में घर-बार साफ रखने के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया।
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी का सामना असीम गन्दगी से हुआ। कई बार उन्होंने स्वयं झाड़ू लेकर दूसरों का भी पाखाना साफ किया। अपनी भारत-यात्रा के दौरान भी रेल के तृतीय श्रेणी के डिब्बे में व्याप्त गन्दगी का साम्राज्य तथा काशी की गलियों में फैली हुई गन्दगी ने उनके मन को आहत किया। स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’
यदि महात्मा गांधी के विचारों को अपनाकर स्वच्छता को जीवन का अंग बना लिया जाए तो नागरिकों को स्वस्थ तन-मन की सम्पदा मिल सकती है। वस्तुतः महात्मा गांधी का प्रत्येक विचार हर युग में हर परिस्थिति में प्रासंगिक है और रहेगा। यदि उनके मर्म को भली-भांति समझकर उसे आत्मसात किया जाए।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 02.10.2019)
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