Wednesday, June 30, 2021

चर्चा प्लस | बड़े और छोटे पर्दे के बेताज बादशाह सईद मिर्जा | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
बड़े और छोटे पर्दे के बेताज बादशाह सईद मिर्जा
               - डाॅ शरद सिंह             
30 जून को जन्मे थे सईद अख़्तर मिर्जा। एक ऐसा निर्देशक और पटकथा लेखक जिसने भारतीय दर्शकों समानांतर सिनेमा के साथ ही समानांतर धारावाहिक भी दिखाया और अपार सफलता प्राप्त की। फिल्म निर्देशन में उन्होंने अपने अलग मायने गढ़े। धारावाहिक ‘‘नुक्कड़’’ का निर्देशन चुनौती भरा था लेकिन ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ जैसी फिल्म दे चुके सईद मिर्जा के लिए कोई भी चुनौती बड़ी नहीं थी।
 
धारावाहिक ‘‘नुक्कड़’’ ने भारतीय टेलीविजन को समानांतर धारावाहिक की सौगात दी थी। वर्ष िि और 1987 में टेलीविजन पर इस धरावाहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। कुंदन शाह और सईद मिर्जा द्वारा निर्देशित इस धारावाहिक की कहानी प्रबोध जोशी द्वारा लिखी गई थी। कहा जाता है कि नुक्कड़ के निर्देशन के समय कुंदन शाह थोड़े घबराए हुए थे। वे इस धारावाहिक की सफलता को ले कर भी सशंकित थे। लेकिन सईद मिर्जा को पूरा भरोसा था अपने काम पर और वे आश्वस्त थे कि ‘‘नुक्कड़’’ दर्शकों को पसंद आएगा। ऐसा हुआ भी। दिलीप धवन, रमा विज, पवन मल्होत्रा, संगीता नाईक और अवतार गिल की इसके अहम भूमिकाएं थी। अपने प्रदर्शन के दिनों में इसकी लोकप्रियता चरम पर थी। इसके कुछ पात्र जैसे खोपड़ी, कादिर भाई और घंशु भिखारी घर-घर में पहचाने जाने लगे। नुक्कड़ ने 80 के दशक में प्रसारित किए जाने वाले तीन सबसे अधिक लोकप्रिय धारावाहिकों में अपनी जगह बना ली थी। धारावाहिक का पहला सीजन 40 एपीसोड का था। इसके हर अंक में कम कमाने वाले लोगों की दैनिक समस्याओं को मुख्य पात्रों की जिंदगी के द्वारा दिखाया गया था। शहरों में बढ़ती हुई कठिन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के कारण कम आय वाले लोगों के टूटते सपनों को इसके प्रत्येक एपीसोड्स में प्रस्तुत किया गया। जीवन की कटु सच्चाई पर आधारित इस धारावाहिक को दर्शकों ने बड़े चाव से देखा। उन्हें इसकी हर घटना अपने जीवन की घटना लगती।
गुरु उर्फ रघुनाथ (दिलीप धवन) बिजली सुधारता है और नुक्कड़ समूह का सर्वसम्मति से चयनित मुखिया है। मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहने वाले गुरु में किसी का पक्ष न लेने का गुण हैं और यह अक्सर नुक्कड़ में रहने वाले लोगों के बीच के छोटे झगड़े सुलझाता है। कादर भाई उर्फ कुट्टी (अवतार गिल) - कादर भाई एक छोटा सा रेस्टेरोंट चलाते हैं जहां नुक्कड़ के सदस्य अक्सर मिलते हैं। कादर  भाई दयालु स्वभाव के हैं और नुक्कड़ के गरीब सदस्यों को मुफ्त में चाय और नाश्ता देते हैं। हरी (पवन मल्होत्रा) - हरी की साइकिल सुधारने की दुकान है और एक अमीर लड़की मधु से उसे प्यार है। गुप्ता सेठ, मधु के पिता, इससे चिढ़ते हैं और हमेशा दोनों पर नजर रखते हैं। खोपड़ी (समीर खख्खर) - खोपड़ी उर्फ गोपाल एक शराबी है जिसे नुक्कड़ के सभी सदस्य बेहद पसंद करते हैं। गणपत हवलदार (अजय वाडकर) - गणपत हवलदार नुक्कड़ में कोई भी समस्या आने पर तुरंत आ जाता है। ये सभी धारावाहिक के ऐसे पात्र थे जो बेहद लोकप्रिय हुए और दर्शकों में अपनी अनूठी छाप छोड़ने में सफल हुए।
अवतार गिल और पवन मल्होत्रा जैसे कलाकारों को इस धारावाहिक से पहचान मिली और आगे चल कर उन्हें बड़े पर्दे पर भी काम मिलता रहा। ‘‘नुक्कड़’’ और इसके सभी कलाकारों की सफलता का श्रेय अगर किसी को दिया जाना चाहिए तो वह नाम है सईद अख़्तर मिर्जा उर्फ़ सईद मिर्जा।
30 जून 1943 को मुंबई, महाराष्ट्र में अख्तर मिर्जा के घर जन्मे पटकथा लेखक और हिंदी फिल्मों और टेलीविजन के निर्देशक सईद मिर्जा के पिता स्वयं एक प्रसिद्ध पटकथा लेखक थे। ‘‘नया दौर’’ और ‘‘वक्त’’ जैसी फिल्मों में उन्होंने निर्देशन का काम किया था। सईद मिर्जा के भाई अजीज मिर्जा ने सन् 1989 के टेलीविजन धारावाहिक ‘‘सर्कस’’ के निर्देशन के के साथ ही शाहरुख खान को लांच किया। सईद मिर्जा ने भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए बड़े और छोटे दोनों पर्दें पर अपनी धाक जमाई और सिद्ध कर दिया कि टेलीविजन पर सच्चाई पर आधारित धारावाहिक दिखाया जा सकता है और दर्शक उसे पसंद भी करते हैं। कुछ समय के लिए विज्ञापन में काम करने के बाद सईद मिर्जा ने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया पूना में दाखिला लिया। जहां से उन्होंने 1976 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। सईद अख्तर मिर्जा ने 1976 में एक वृत्तचित्र फिल्म निर्माता के रूप में अपना करियर शुरू किया, एक सामंती धन संस्कृति के जाल में फंसे एक आदर्शवादी युवा की कुंठाओं के बारे में प्रशंसित अरविंद देसाई की अजीब दास्तान (1978) के साथ फिल्मों में स्नातक किया। इसने वर्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड जीता। इसके बाद अल्बर्ट पिंटो को गुसा क्यूं आता है (1980), एक गुस्से में युवा के बारे में, अपने वर्ग और जातीय पहचान की तलाश में था। इसने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड भी जीता। इसके बाद सन् 1984 में सईद मिर्जा ने न्यायव्यवस्था की बिगड़ी दशा पर कटाक्ष करती फिल्म निर्देशित की जिसका नाम था- ‘‘मोहन जोशी हाजिर हो!’’ इस फिल्म में एक अधेड़ आयु दम्पति जो रियल-एस्टेट डेवलपर के साथ न्यायालय में संघर्ष करता रहता है ताकि वह अपने कानूनी अधिकार पा सके। इस फिल्म में न्यायव्यवस्था और भ्रष्टाचार के गठजोड़ को बखूबी दिखाया गया। इसके अलावा सईद मिर्जा ने सन् 1980 में ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’, 1989 में ‘‘सलीम लंगदे पे मत रो’’ और 1995 में ‘‘नसीम’’ बनाई। फिल्म ‘‘सलीम लंगड़े पे मत रो’’ में एक कट्टर मुस्लिम युवक की कहानी थी जो परिस्थितिवश अपराध के शिकंजे में फंस जाता है और उससे निकलने के लिए हरसंभव प्रयास करता है। इस फिल्म में पवन मलहोत्रा ने कट्टर मुस्लिम युवक की भूमिका अदा की थी। यह एक अत्यंत संवेदनशील फिल्म थी जिसने दर्शकों को झकझोर दिया। उन्होंने 1996 में दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। सईद मिर्जा को 2020 में इंटरनेशनल कल्चरल आर्टिफैक्ट फिल्म फेस्टिवल में ‘‘लाईफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’’ से सम्मानित किया गया।
बड़े पर्दे पर उनकी आखिरी फिल्म थी ‘‘नसीम’’ (1995) जो बाबरी मस्जिद ढहने के बाद के माहौल पर आधारित थी। इस फिल्म को अविजीत घोष की किताब ‘‘40 रीटेक, बॉलीवुड क्लासिक्स यू मे हैव मिस्ड’’ में भी शामिल किया गया। इसके बाद उन्होंने बड़े पर्दे को छोड़ कर अपना समय यात्रा, लेखन और वृत्तचित्र बनाने में लगा दिया। साथ ही उन्होंने आत्मकथात्मक काम आरम्भ किया।  सईद मिर्जा ने उपन्यास भी लिखे। सन् 2008 में उनका पहला उपन्यास आया जिसका नाम था -‘‘अम्मी: लेटर टू ए डेमोक्रेटिक मदर’’। इस उपन्यास में उन्होंने सूफी कथाओं के साथ ही अपनी मां की यादों को भी संजोया। उनकी मां की मृत्यु सन् 1990 में हो गई थी। वे अपनी मां को बहुत चाहते थे और उनकी मृत्यु पर सईद को बहुत सदमा पहुंचा था। इसके बाद उन्होंने एक और उपन्यास लिखा ‘‘द मोंक, द मूर एंड मोसेस बेन जालौन’’ यह सन् 2012 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास जानबूझ कर भुला दिए गए इतिहास के बारे में है।

सईद मिर्जा ने जिन कला फिल्मों, धरावाहिकों एवं वृत्तचित्रों का निर्माण तथा निर्देशन किया उनमें प्रमुख हैं-स्लम एविक्शन (1976), हत्या (1976), घासीराम कोतवाल (1976), एक अभिनेता तैयार करता है (1976), शहरी आवास (1977), अरविंद देसाई की अजीब दास्तान (1978), अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है (1980), पिपरसोद (1982), मोहन जोशी हाजीर हो! (1984), जबलपुर के रिक्शा खींचने वाले (1984), नुक्कड़ (1986), कोई सुन रहा है? (1987), वी शेल ओवरकम (1988), इंतज़ार (1988), सलीम लंगड़े पे मत रो (1989), अजंता और एलोरा (1992), नसीम (1995), कर्मा कैफे (2018), छू लेंगे आकाश (2001)।
सईद मिर्जा को अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया। फिल्म ‘‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’’ (1978) के लिए उन्हें सन् 1979 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड दिया गया। सन् 1981 सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ (1980), सन् 1984 परिवार कल्याण पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ‘‘मोहन जोशी हाजिर हो!’’ (1984), सन् 1996 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ‘‘नसीम’’ को दिया गया।
सईद अख्तर मिर्जा एशियन एकेडमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन के इंटरनेशनल फिल्म एंड टेलीविजन क्लब के आजीवन सदस्य हैं। वह अपनी पत्नी जेनिफर के साथ मुंबई में रहते हैं। गोवा में भी उनका एक घर है। उनके बेटे सफदर और जहीर क्रमशः न्यूयॉर्क और दुबई में रहते हैं। आज भी जब समानांतर फिल्मों और धारावाहिकों की चर्चा आती है तो सईद मिर्जा का नाम पहली पंक्ति में आता है।
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(सागर दिनकर, 30.06.2021)
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Tuesday, June 29, 2021

पुस्तक समीक्षा | खेल पत्रकारिता को समझने के लिए जरूरी है यह पुस्तक पढ़ना | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

पुस्तक समीक्षा
खेल पत्रकारिता को समझने के लिए जरूरी है यह पुस्तक पढ़ना  

समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - खेल पत्रकारिता के आयाम
लेखक  - डाॅ. आशीष द्विवेदी
प्रकाशक - हिन्दी बुक सेंटर, 4/5-बी, आसफअली रोड, नई दिल्ली
मूल्य    - 230/-
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आज पत्रकारिता शब्द से ही समाचारों से सनसनी फैलाने वाली पत्रकारिता का विचार आता है। जबकि खेल पत्रकारिता से हमारा पुराना नाता है। लगभग हर समाचारपत्र का एक पन्ना खेलजगत की ख़बरों के लिए तय रहता है। एक समय वह भी था जब खेल कमेंट्री सुनने के लिए कानों से ट्रांजिस्टर चिपकाए लोग नज़र आते थे। मैच के ठीक दूसरे दिन अखबार में खेल का विश्लेषण पढ़ने की आतुरता रहती थी। यह आतुरता अभी भी पाई जाती है। यद्यपि आज अधिकांश लोग टेलीविजन या मोबाईल पर खेल देख लेते हैं और विशेषज्ञों की राय भी सुन लेते हैं लेकिन इससे खेल पत्रकारिता सिमटी नहीं है अपितु इसका विस्तार हुआ है क्योंकि मीडिया में खेल और खेल समाचारों की प्रस्तुति खेल  पत्रकारिता पर ही निर्भर रहती है। विगत दिनों खेल पत्रकारिता पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसका नाम है-‘‘खेल पत्रकारिता के विविध आयाम’’। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही अनुमान हो जाता है कि इस पुस्तक में खेल पत्रकारिता पर समग्रता से प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं डाॅ. आशीष द्विवेदी।
लेखक डाॅ. आशीष द्विवेदी लगभग बीस वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उन्होंने डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर से सन् 1999 में संचार एवं पत्रकारिता में प्रावीण्य सूची में मास्टर डिग्री हासिल की और सन् 2008 में ‘‘राष्ट्रीय दायित्व एवं हिन्दी पत्रकारिता’’ विषय में पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की। विगत 12 वर्ष से वे सागर में इंक मीडिया इंस्टीट्यूट आॅफ माॅस कम्यूनिकेशन एंड आई टी के निदेशक हैं। पत्रकारिता का इस दीर्घ अनुभव ने डाॅ. आशीष द्विवेदी की इस पुस्तक को प्रमाणिकतौर पर उद्देश्यपूर्ण बना दिया है। हिन्दी में खेल पत्रकारिता पर कम ही पुस्तकें लिखी गई हैं। जो हैं भी उनमें समग्रता कम ही देखने को मिलती है। अपनी पुस्तक ‘‘खेल पत्रकारिता के विविध आयाम’’ में डाॅ. आशीष द्विवेदी ने खेल पत्रकारिता के विविध पक्षों को बारीकी से प्रस्तुत किया है।
 
पुस्तक की कुल सामग्री पांच खण्डों में विभक्त है। प्रत्येक खण्ड में विभिन्न अध्यायों में जानकारी सहेजी गई है। प्रथम खंड में प्रथम खंड में ‘‘भारत में खेलों की स्थिति का अवलोकन’’ विषय के अंतर्गत भारत में खेल, हॉकी में भारत, फुटबॉल में भारत, खेल अनुवांशिकी और भारत, भारतीय शिक्षा व्यवस्था में खेल, खेलो इंडिया कार्यक्रम और इसके उद्देश्य, खेलों में राजनीति, खेलों में लैंगिक भेदभाव, खेल में सामाजिक बदलाव, खेल में नस्लवाद, खेल मनोविज्ञान, खेल भावना का लोप, खेल से सन्यास और भारतीय खिलाड़ी, राष्ट्रीय खेल नीति और उसका यथार्थ, राष्ट्रीय खेल संहिता, अखिल भारतीय खेल परिषद, खेल संबंधी अवार्ड और उनसे जुड़े विवाद, खेलों के स्याह पहलू, भारत के खेल परिवार, भारत के ब्रांड खिलाड़ी, भारत की प्रमुख खेल अकादमी, खिलाड़ियों की आत्मकथा और जीवनियां, खेलों से व्यक्तित्व विकास, खेल अर्थव्यवस्था व कैरियर, भारत में खेल उत्पाद उद्योग, खेल केंद्रित सिनेमा, खेलों में लीग संस्कृति, कैसे सुधरेंगे खेलों के हालात, ऑनलाइन गेम्स का खेलों पर दुष्प्रभाव जैसे 29 अध्याय इस प्रथम खंड में विवेचन सहित सामने रखे गए हैं।

दूसरे खंड में ‘‘खेल पत्रकारिता: प्रायोगिक पहलू’’ इस विषय के अंतर्गत जो अध्याय रखे गए हैं वे हैं- खेल पत्रकारिता का विकासक्रम, खेल पत्रकारिता का अर्थ, खेल के लिए कैसे लिखें, मैगजीन के लिए  खेल लेखन, खेल फीचर लेखन, खेल साक्षात्कार का महत्व, खेल प्रेस वार्ता, खेल संपादकीय, खेल स्तंभ लेखन, रेडियो में खेल संबंधी लेखन, टेलीविजन में खेल संबंधी लेखन, खेल संबंधी अनुवाद, खेल फोटोग्राफी, खेल संबंधी कार्टून, खेल पेज और उसका लेआउट, खेल पत्रकार की योग्यताएं, प्रेरक खेल पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता दूसरा पहलू, खेल के रोचक समाचार, देश के प्रमुख खेल पत्रकार, खेल आधारित चैनल, खेल संबंधी मैगजीन और ब्लॉग खेल पत्रकारिता में कैरियर।

तीसरे खंड में ‘‘प्रमुख खेल संस्थाएं व उनका संक्षिप्त परिचय’’ शीर्षक के अंतर्गत जिन बिंदुओं पर चर्चाएं की गई हैं, वह हैं- प्रमुख खेल संबंधी आयोजन व संस्थाएं, भारतीय खेल प्राधिकरण, भारत के खेल आधारित विश्वविद्यालय/महाविद्यालय, भारत के प्रमुख खेल संघों का परिचय, भारत के प्रमुख खेल स्टेडियम।

चौथे खंड में खेल पत्रकारों से संवाद को संजोया गया है जिसके अंतर्गत जी. राजारमन, चंद्रशेखर लूथरा, प्रवीणचंद्र, विक्रांत गुप्ता, राजेश राय, राजेंद्र सजवान, विमल कुमार, माला तातरवे, हेमंत रस्तोगी, अभिषेक त्रिपाठी, उमेश राजपूत, राजकिशोर, रोशन झा, विजय कुमार, इंद्रजीत मौर्य, मुकेश विश्वकर्मा, ललित कटारिया, बी.पी. श्रीवास्तव, डॉ. प्रेम प्रकाश पंत और संजीव पंगोत्रा के संवाद हैं।

पांचवा और अंतिम खंड परिशिष्ट का है जिसमें कुछ और महत्वपूर्ण तथ्य एवं सामग्रियां प्रस्तुत की गई हैं। जैसे प्रधानमंत्री के ‘‘खेलो इंडिया’’ और ‘‘खेल दिवस’’ पर दिए गए उद्बोधन प्रभाष जोशी का लेख शारदा उगरा का लेख, सानिया मिर्जा का इंटरव्यू, रानी रामपाल का साक्षात्कार तथा सचिन तेंदुलकर के विचार आदि शामिल किए गए हैं।

इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें ग्रामीण स्कूलों के हाल और ग्रामीण स्कूलों में खेल की स्थिति पर भी दृष्टि डाली गई है। जहां अफ्रीका महाद्वीप के देशों में गांव से खिलाड़ी ओलंपिक तक पहुंचते हैं, वहीं भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर तक बड़ी मुश्किल से पहुंच पाते हैं। इसके लिए कौन-सी दशा और दिशा जिम्मेदार है, इस पर भी इस पुस्तक में विचार किया है।

खेल से जुड़ी खबरें भी कभी-कभी सनसनी फैला देती हैं जब उनमें ड्रेसिंग रूम की खबरें भी शामिल हो। इस प्रसंग पर लेखक डॉ आशीष द्विवेदी ने रोचक ढंग से उदाहरण देते हुए लिखा है- ‘‘ड्रेसिंग रूम की खबरें भी कई बार चर्चा का विषय बनती है। हालांकि इनकी रिपोर्टिंग में सतर्कता की जरूरत होती है, कारण कई बार यह महज अफवाहें ही निकलती है। अब तो कवरेज का दायरा खिलाड़ियों की पत्नी, बच्चों उनकी फैशन और स्टाइल तक जा पहुंचा है। धोनी की बेटी जीवा का जन्मदिन हो या विराट अनुष्का का हनीमून यह सभी कवरेज का हिस्सा बनते हैं। मैच समाप्त होने के बाद खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों की प्रतिक्रिया, मैन ऑफ द मैच की घोषणा ट्रॉफी के साथ शैंपेन की बोतल खोलते हुए टीम का फोटो भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आप उस पल को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।’’

जब खेल पत्रकारिता की बात हो तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर खेल पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है? क्या यह सिर्फ खेल संबंधी मनोरंजक तथ्य या आंकड़े प्रस्तुत करने का माध्यम है अथवा इसका कोई और भी उद्देश्य है? इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए लेखक ने खेल पत्रकारिता के उद्देश्य निरूपित किए हैं। इसमें जो प्रमुख बिंदु होने रखे हैं, वे हैं- खेलों के प्रति समाज की मानसिकता में बदलाव लाना, खेलों के लिए एक स्वस्थ माहौल का निर्माण करना, ग्रामीण वह आदिवासी अंचलों से प्रतिभाओं की तलाश करना, परंपरागत खेलों को प्रोत्साहित करना, खेलों में मौजूद राजनीति क्षेत्रवाद और जातिवाद पर प्रहार करना, लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाना, खेलों में एकाधिकार जमाने वाले खेल और खिलाड़ियों के प्रभाव से खेल को मुक्त करने की दिशा में पहल करना, खेल नीति और खेल बजट पर चर्चा करना, बौद्धिक स्तर पर खेलों में भारत की स्थिति और कारणों का पड़ताल करना जैसे अनेक उद्देश्य लेखक ने प्रस्तुत किए हैं।

खेलों में लैंगिक भेदभाव विषय पर लेखक ने बेबाकी से अपनी बात सामने रखी है वह लिखते हैं - ‘‘खेलों में आधी दुनिया को लगभग हाशिए पर रखा गया है दुनिया के कई देशों में महिलाओं को लेकर दोहरे मापदंड है भारत में भी स्थिति विकट है कई सारे खेल ऐसे हैं जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है जिन खेलों में महिलाएं हैं थी उनमें वे पुरुष या वर्चस्व के आगे कहीं नहीं ठहरती खेल के मैदान की पारंपरिक छवि मर्दानगी की रही है और भारतीय समाज पर काबिज सदियों की पितृसत्ता नहीं से दरकने नहीं दिया ।’’
लेखक को खेल पत्रकारिता पर पुस्तक लिखने का विचार क्यों आया इस बात को उनके इस विचार से भलीभांति समझा जा सकता है - ‘‘वस्तुतः खेल पत्रकारिता में हम उस की रिपोर्टिंग संपादन लेखन फोटोग्राफी और साक्षात्कार की बात करते-करते अपनी बात समाप्त कर देते हैं जबकि मैंने यह पाया कि इसके हाय हम इतने विविध पूर्ण हैं कि अगर उन पर संपूर्णता से बात हो तो एक ग्रंथ कम पड़ सकता है इन सब में भी मुझे जो हम बात नजर आती है वह खेलों के प्रति मानस बदलने की जो एक पुरानी कहावत है ‘खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब’ ‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब’ इस कहावत ने खेलों के प्रति लोगों के रुझान को घटाने में महती भूमिका निभाई है। खेल पत्रकार सिर्फ इसी कहावत के विरुद्ध अगर अपना मिशन चलाएं तो मुझे लगता है खेलों के प्रति एक स्वस्थ माहौल पैदा किया जा सकता है। इसके अलावा खेलों में हावी राजनीति क्षेत्रवाद, लैंगिक असमानता, खेल नीति, बजट, प्रोत्साहन ऐसे अनेक मुद्दे हैं जिन पर भी खेल पत्रकार बहुत ज्यादा कलम चलाते नहीं दिखते।’’ वे आगे लिखते हैं- ‘‘मैं इस बात को लेकर भी चिंतित हूं कि खेलों के प्रति एक उदासीन और कमोवेश उपेक्षा पूर्ण माहौल होने के कारणों की पड़ताल करने में खेल पत्रकारों की ज्यादा दिलचस्पी क्यों नहीं है। गुमनाम खेल प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने खेलों में व्याप्त आला दर्जे की पक्षपात पर खेल पत्रकारिता मौन क्यों है? राष्ट्रीय खेल के मायने बदलते जा रहे हैं। एक खेल विशेष की मोनोपोली ने बाकी खेलों को लगभग उपेक्षित जा कर रखा है तो ओलंपिक में हमें एक पदक के लाले पड़ जाते हैं। मीडिया के कवरेज में भी सौतेलापन है और सरकार के नजरिए में भी। हम आज तक फुटबॉल की एक विश्व कप लायव थीम नहीं दे पाए। इन सब वज़हों की खोजबीन करना कितना जरूरी है यह कौन समझाए।’’

पुस्तक की प्रस्तावना लिखते हुए प्रो. संजीव भानावत ने बहुत सही लिखा है कि ‘‘पत्रकारिता के विद्यार्थियों को यह पुस्तक खेल पत्रकारिता के अनेकानेक पक्षों को समझने की दिशा में सहायक साबित होगी डॉ द्विवेदी ने श्रम और निष्ठा के साथ काम करते हुए इस पुस्तक का लेखन किया है। इस अछूते विषय पर उनका यह ग्रंथ खेल पत्रकारिता को रोचक बनाने की दिशा में भी मील का पत्थर साबित होगा ऐसा विश्वास है।’’
 
डाॅ आशीष द्विवेदी ने यह पुस्तक लिख कर अपने पत्रकारिता के दायित्व को पूरी ईमानदारी से निभाया है। यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यह पुस्तक खेल-प्रेमियों एवं खेल-पत्रकारों के साथ-साथ इस विषय के विद्यार्थियों का भरपूर ज्ञानवर्द्धन करेगी क्योंकि यदि कोई व्यक्ति खेल पत्रकारिता को सम्पूर्णता से समझना चाहता है तो उसके लिए ‘‘खेल पत्रकारिता के विविध आयाम’’ पुस्तक को पढ़ना ज़रूरी है।
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Wednesday, June 23, 2021

चर्चा प्लस | कबीर की सहज समाधि जीवनपद्धति | डाॅ शरद सिंह


चर्चा प्लस
कबीर की सहज समाधि जीवनपद्धति
      - डाॅ शरद सिंह
               कबीर की प्रासंगिकता कोई नकार नहीं सकता है। कबीर की वाणी कालजयी वाणी है। उन्होंने जिस मानव स्वाभिमान और निडरता का साथ देते हुए, धार्मिक आडंबर ओढ़ने वालों को ललकारा, वैसा साहस आज भी दिखाई नहीं देता है। कबीर ने सहजसमाधि के रूप में जीने का आसान तरीका बताया जो आज भी प्रासंगिक है।


कबीर का जन्म लहरतारा के पास जुलाहा परिवार में सन 1398 में जेष्ठ पूर्णिमा को माना जाता है। वे संत रामानंद के शिष्य बने और ज्ञान का अलख जगाया। कबीर ने साधुक्कड़ी भाषा में किसी भी संप्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किए बिना खरी बात कही। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्तिपूजा आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर ने हिंदू मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर के विचार और उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावनअक्षरी और उलटबांसी  में मिलते हैं।
  कबीर ने समाज के साथ-साथ आत्म-उत्थान पर भी बल दिया। आत्म-उत्थान के लिए उन्होंने समाधि के उस चरण को उत्तम ठहराया जिसमें मनुष्य अपने अंतर्मन में झांक सके और अपने अंतर्मन को भलीभांति समझा सके। कबीर ने सहजयान की बहुत प्रशंसा की और इसे सबसे उत्तम कहा। कबीर के अनुसार सहज समाधि की अवस्था दुख-सुख से परे परम सुखदायक अवस्था है। जो इस समाधि में रम जाता है वह अपने नेत्रों से अलख को देख लेता है। जो गुरु इस सहज समाधि की शिक्षा देता है वह सर्वोत्तम गुरु होता है-
     संतो, सहज समाधि भली
     सुख-दुख के इक परे परम,
    सुख तेहि में रहा समाई ।।

कबीर ने सहज समाधि की विशेषताओं को विस्तार से समझाते हुए कहा है कि इस समाधि को प्राप्त करने के लिए न तो शरीर को तप की आग में तपाने की आवश्यकता होती है और कामवासना में लिप्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होने की। यह समाधि अवस्था उस मधुर अनुभव की भांति है जो इसे प्राप्त करता है, तो वहीं इसकी मधुरता को जान पाता है -
      मीठा सो जो सहेजैं पावा।
     अति कलेस थैं करूं कहावा।।

      कबीर इस तथ्य को स्पष्ट किया कि वस्तुतः सहजसमाधि का नाम तो सभी लेते हैं किंतु उसके बारे में जानते कम ही लोग हैं अथवा सहज समाधि को लेकर भ्रमित रहते हैं। यह तो सामाजिक व्यवस्था है जिसमें हरि की सहज प्राप्ति हो जाती है। कबीर सहज समाधि को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह कोई आडंबर युक्त क्रिया नहीं है अपितु सहज भाव से जीवनयापन करते हुए राम अथवा हरि में लीन हो जाना ही सहज समाधि है।
   सहज-सहज सब ही कहैं,
   सहज न चीन्हैं कोई ।
   जिन सहजै हरिजी मिलैं
   सहज कहीजैं सोई ।।

   सहज समाधि के लिए न तो ग्रंथों की आवश्यकता है और न किसी पूजा पाठ की। इसके लिए बस इतना करना पर्याप्त है कि विषय-वासना का त्याग, संतान, धन, पत्नी और आसक्ति से मन को हटा कर ष्रामष् के प्रति समर्पित कर दिया जाए। जो भी ऐसा कर लेता है वह सहजसमाधि में प्रविष्ट हो जाता है। कबीर कहते हैं कि यह तो बहुत सरल है-
     आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं
     तनिक कष्ट नहीं धारों ।
    .खुले नैनी पहिचानौं हंसि हंसि
     सुंदर रूप निहारौं ।।

इस सहज समाधि की अवस्था को पाकर साधक सहज सुख पा लेता है तथा सांसारिक दुखों के सामने अविचल खड़ा रह सकता है। वह न तो स्वयं किसी से डरता है और न किसी को डराता है। यह तो ब्रह्मज्ञान है जो मनुष्य के भीतर विवेक को स्थापित करता है, धैर्य धारण करना सिखाता है और युगों युगों के विश्राम का सुख देता है -
   अब मैं पाईबो रे, पाइबौ ब्रह्मगियान ।
   सहज समाधें सुख मैं रहिबौ
   कोटि कलप विश्राम ।।

कबीर कहते हैं कि जब मन ष्रामष् में लीन हो जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है, चित्त एकाग्र हो जाता है - उस समय मन स्वयं ही भोग की ओर से हटकर योग में प्रवृत्त होने लगता है। यह साधक की साधना की चरम स्थिति ही तो है जिसमें उसे दोनों लोकों का सुख प्राप्त होने लगता है -
एक जुगति एक मिलै, किंवा जोग का भोग ।
इन दून्यूं फल पाइए, राम नाम सिद्ध जोग ।।

सहज समाधि के बारे में कबीर के विचार सिद्धों के सहजयान संबंधी विचार के बहुत समीप हैं। सिद्धों के समय सहज भावना उत्तम और सरल मानी जाती थी। सिद्ध भी यही मानते थे कि घर बार को त्याग कर साधु होना व्यर्थ है यदि त्याग करना है तो सभी प्रकार के आडंबरों का त्याग करना चाहिए। सिद्ध संत गोरखनाथ ने भी सहज जीवन के बारे में यही कहा है कि  ष्हंसना, खेलना और मस्त रहना चाहिए किंतु काम और क्रोध का साथ नहीं करना चाहिए। ऐसा ही हंसना, खेलना और गीत गाना चाहिए किंतु अपने चित्त की दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिए। साथ ही सदा ध्यान लगाना और ब्रह्म ज्ञान की चर्चा करनी चाहिए।ष्
    हंसीबा खेलिबा रहिबा रंग,
    काम क्रोध न करिबा संग ।
    हंसिबा खेलिबा गइबा गीत
    दिढ करि राखि अपना चीत ।।
    हंसीबा खेलिबा धरिबा ध्यान
    अहनिस कथिबा ब्रह्म गियान ।
    हंसै खेलै न करै मन भंग
    ते निहचल सदा नाथ के संग।।

सिद्धों और नाथों की सहज ज्ञान परंपरा की जो प्रवृत्ति कबीर  तक पहुंची उसे कबीर ने आत्मसात किया और उसे सहज समाधि के रूप में और अधिक सरलीकृत किया। जिससे लोग सुगमता पूर्वक उसे अपना सकें। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन का यह कथन समीचीन है कि ष्यद्यपि कबीर के समय तक एक भी सहजयानी नहीं रह गया था फिर भी इन्हीं (पूर्ववर्ती) से कबीर तक सहज शब्द पहुंचा था। जिस प्रकार सिद्ध सहज ध्यान और प्रवज्या से रहित गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए सहज जीवन की प्रशंसा करते हैं वैसे ही कबीर साधु वेश से रहित घर में रहकर जीवन साधना में लीन थे।ष्
संसार में रहकर सांसारिकता के अवगुणों में न डूबना ही सहजसमाधि का मूलमंत्र कहा जा सकता है। सिद्धों के इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कबीर ने कहा है -
साधु ! सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी
दिन-दिन अधिक चली
जंह-जंह डोलों सो परिकरमा
जो कछु करौं सो सेवा
जब सोवौं तब करो दंडवत
पूजौं और न देवा
कहौं तो नाम सुनौं सो सुमिरन
खावौं पियौं सो पूजा
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं
भाव मिटावौं दूजा

कबीर ने अपने जीवन में संयम, चिंतन, मनन एवं साधना को अपनाया। उन्होंने सदैव भक्ति का सहज मार्ग ही सुझाया। यह वही सहज मार्ग था जो सिद्धों-नाथों के बाद आडम्बरों की भीड़ में लगभग खो गया था किंतु कबीर ने उसे पुनर्स्थापित किया तथा शांति एवं धैर्यवान जीवन जीने का रास्ता दिखाया।
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(सागर दिनकर, 23.06.2021)
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Tuesday, June 22, 2021

पुस्तक समीक्षा | स्त्री-अतीत की गौरव गाथा: ब्रह्मवादिनी | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

मित्रो, प्रस्तुत है आज 22.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री डॉ. सरोज गुप्ता के काव्य संग्रह "ब्रह्मवादिनी" की  पुस्तक समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्री-अतीत की गौरव गाथा: ब्रह्मवादिनी 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - ब्रह्मवादिनी
कवयित्री - डाॅ. सरोज गुप्ता
प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, वी-508, गली नं. 17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य - रुपए 595/-
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प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को समाज में जो उच्चस्थान दिया गया था उसका वर्तमान संदर्भ में अनुमान लगाना कठिन है। विशेष रूप से भारतीय इतिहास में जो आक्रांताओं का युग आया उसने स्त्रियों की गौरवशाली स्थिति को पददलित कर दिया। वेदों में नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान किया गया है। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का! सुन्दर वर्णन पाया जाता है। वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय, वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख, समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा आदि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं। वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। उसे सदा विजयिनी कहा गया है। उनके हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। वैदिक काल में नारी पठन-पाठन से लेकर युद्धक्षेत्र में भी जाती थी। जैसे रानी कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार था। अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा थीं- अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति-दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि। अतीत की इसी गौरवशाली परम्परा को काव्य रूप में प्रस्तुत किया है कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने अपने काव्य संग्रह ‘‘ब्रह्मवादिनी’’ के रूप में। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें उन स्त्रियों के बारे में काव्यात्मक जानकारी दी गई है जो अपने ज्ञान एवं कौशल के कारण ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं कहलाईं।


‘‘ब्रह्मवादिनी’’ काव्य संग्रह में इस संग्रह के अवतरण की भी एक समृद्ध परम्परा देखी जा सकती है। संग्रह की ‘‘पुरोचना’’ में आचार्य पं. दुर्गाचरण शुक्ल ने इस काव्य संग्रह की मूल कथाओं के संदर्भ को स्पष्ट करते हुए मानो गुरु-शिष्य परम्परा की एक नई प्रस्तावना लिखी है। वे लिखते हैं कि ‘‘ब्रह्मवादिनी दृष्टमंत्रभाष्य के प्रणयन के समय मन में यह प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हुई थी कि इस ग्रंथ को आज की प्रगतिशील नई पीढ़ी की महिलाएं पढ़ें, समझें, तो ही मैं अपने को कृत कार्य मानूंगा। ग्रंथ लेखन की ये चाह आज पूरी हो रही है। मेरी कनिष्ठा शिष्या डाॅ. सरोज ने मेरे इस ग्रंथ को पढ़ा है, गुना है। यही नहीं ब्रह्मवादिनियों के दिव्य विचारों ने चित्त पर जो प्रभाव डाला है, उसे मुक्त रूप से कविता में अभिव्यंजित किया है।’’ अर्थात् इस काव्य संग्रह में गुरु के ज्ञान को आधार बना कर उनकी गुणी शिष्या ने काव्यात्मक संरचना बुनी है। वर्तमान समय में यह अपने आप में एक सुंदर अनूठा उदाहरण है कि गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार भी निभाई जा सकती है। इसीलिए संस्कृतिविद डाॅ. श्याम सुंदर दुबे ने इसे ‘‘एक महनीय कृति’’ कहा है।

      ‘‘ब्रह्मवादिनी’’ में लोपामुद्रा, रोमशा, विश्ववारा आत्रेयी, अपाला अत्रिसुता, शश्वती, नद्यः ऋषिका, यमी वैवश्वती, वसुक्रपत्नी, काक्षीवती घोषा, अगस्त्यस्वसा, दाक्षयणी अदितिः, सूर्या सावित्री, उर्वशी, दक्षिणा प्राजापत्या, सरमा देवशुनी, जुहूः ब्रह्मजाया, वाग आम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, गोधा, इंद्राणी, श्रद्धा कामायनी, देवजामयःइंद्रमातरः, पौलोमी शची, सार्पराज्ञी, निषद उपनिषद, लाक्षा, मेधा तथा श्री नामक ऋषिकाओं का सुंदर विवरण दिया गया है। वस्तुतः काव्य संग्रह में संग्रहीत प्रत्येक कविता ब्रह्मवादिनियों  से साक्षात्कार कराती है। ऋषिका लोपामुद्रा के व्यक्तित्व वैभव को लक्षित करते हुए कवयित्री भावपूर्ण शब्दों में लिखती है-
यज्ञ पूजन करते-करते मन की आंखों ने
अगस्त्य प्रिया लोपामुद्रा का दर्शन किया।
हम सबकी आराध्या, पूजनीया, प्रातः स्मरणीय
भारतीय वैदिक नारी की अलौकिक छवि लिए
असाधारण व्यक्तित्व की धनी, तेजस्वी मनस्वी
निजत्व का लोप करने वाली अनुपम सृजन शक्ति
आलापन में गुरु महर्षि दुर्वासा से दीक्षित
श्रीविद्या को साधने वाली, पराशक्ति स्वयंसिद्धा
विश्वासमयी ऋषिका लोपामुद्रा का दर्शन किया।

‘‘नद्यः ऋषिका’’ कविता में इस तथ्य का पता चलता है कि जलप्रवाहिनी नदियों को भी ऋषिका स्वरूप माना जाता था तथा ज्ञान का प्रवाह बनाए रखने वाली ऋषिका को नदी की भांति प्रवाहमान माना जाता था। इस कविता की यह पंक्तियां देखिए जिनमें नद्यः ऋषिका उद्घोष करती है -
मैं नदी हूं
द्युलोक अंतरिक्ष से धरती तक
प्राणशिराओं को अपने में समेटे
लहरों, धाराओं से वत्सलता छलकाती
अनन्त करुणा सहेजे, अहर्निश बह रही हूं
मैं नदी हूं।

इसी संग्रह में ऋषिका सरमा देवशुनी का काव्यात्म विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसमें ऋषिका सरमा देवशुनी के अस्तित्व की विशेषताएं बड़े सुंदर ढंग से बताई गई हैं। ये पंक्तियां परिचयात्मक होते हुए भी प्रवाहपूर्ण एवं लयात्मक हैं-
सरमा देवशुनी साक्षात् वाक रूपा दिव्यप्रकायामयी
सूर्यरश्मि, ज्ञान शक्ति खोजती अमरत्व की देवी।
पणि मेघों ने असुर रूप में, प्रकाश किया आच्छादित
वाक् सरस्वती वृहस्पति की गौएं, मेघपणियों ने कर ली लुप्त
इन्द्र लोक में अंधकार से मच गई खलबली
अंधकार ही अंधकार से सर्वत्र आसुरी वृत्ति बढ़ी
श्यामल मेघों के पीछे बाधाएं हरती
सरमा देवशुनी दिवयप्रकाशमयी।

कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता की संस्कृतनिष्ठ भाषाई पकड़ ने इस संग्रह की कविताओं को अर्थवान बना दिया है। भाषाई सौष्ठव का आनंद लेने वाले पाठकों के लिए यह काव्य संग्रह पूर्ण उपादेय है। संग्रह की कविता ‘‘ऋषिका रात्रि भारद्वाजी’’ में शब्दों का चयन विशेष आकर्षित करता है-
देदीप्यमान, प्रकाशवती विश्वाःश्रियाः
सृष्टि के मूल की रात्रिरूप महाबीज
विशिष्ट नक्षत्र, रूपनेत्रों से सब ओर झांकती
तमरूप ओजस्वी ओढ़ती सारी चमक
जीवरात्रि, ईशरात्रि, महाप्रलयकालरात्रि
सृष्टि की अव्यक्तशक्ति
ब्रह्ममयी एकार्णव चितशक्ति
ऋषिका रात्रि भारद्वाजी।

यह काव्य संग्रह स्त्री-अतीत की गौरवमयी गाथा कहता हुआ भारतीय संस्कृति और उसमें स्त्री के स्थान को समझने का प्रबल आग्रह करता है। गहरे सामाजिक सरोकारों के साथ ऋषिकाओं के जीवन को बड़े प्रभावी ढंग से और सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है। इसीलिए इस संग्रह की कविताओं में भी प्राचीन वैदिक काव्य की ध्वन्यांत्मकता स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने अपने मन के भावों को कागज पर उकेरते हुए जो अंतः सलिला प्रवाहित की है वह पठनीय एवं संग्रहणीय है। यह काव्यसंग्रह स्वतः ही पाठकों की बुकशेल्फ में जगह बनाने सक्षम है। भारतीय स्त्री के गौरवमयी अतीत में रुचि रखने वाले पाठकों द्वारा इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। 
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Saturday, June 19, 2021

श्री माधवराव सप्रे जन्मदिवस 2021

 आज 19.06.2021 को श्री माधव राव सप्रे जी की जन्मभूमि पथरिया में कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए सप्रे जी की जयंती मनाई गई। समारोह में अतिथि के रूप में मैं भी शामिल हुई। इस अवसर पर केंद्रीय संस्कृति पर्यटन राज्य मंत्री श्री प्रहलाद सिंह पटेल, माधव राव सप्रे संग्रहालय भोपाल के संस्थापक- संयोजक श्री विजयदत्त श्रीधर, हिन्दी के विद्वान श्री श्याम सुंदर दुबे, वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल, व्यंग्यकार डॉ सुरेश आचार्य तथा इतिहासविद डॉ श्याम मनोहर पचौरी सहित अनेक विद्वान उपस्थित रहे। 
पल भर को मास्क बिना एक तस्वीर ले ली... कहीं अपना चेहरा ही न भूल जाऊं ...उस दौरान मेरे आस-पास कोई नहीं था, यक़ीन रखें!

Wednesday, June 16, 2021

चर्चा प्लस | एक गंभीर कार्य है स्त्री-अध्ययन | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
एक गंभीर कार्य है स्त्री-अध्ययन
 - डाॅ शरद सिंह
            सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत स्त्री-अध्ययन अर्थात् वीमेन स्टडीज़ सबसे रोचक विषय माना जाता है। अनेक विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन केन्द्र संचालित हैं। इन केन्द्रों में स्त्री जीवन से जुड़ी समस्याओं एवं संभावनाओं का विश्लेषण तथा आकलन किया जाता है। इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि ऐसा महत्वपूर्ण कार्य पुराने कार्यों की ‘‘काॅपी-पेस्ट’’ बन कर न रह जाए जैसा कि अन्य मानविकी विषयों में देखने को मिलता है। इस विषय की गंभीरता एक ईमानदार और गंभीर शोध की मांग करती है।
 
 आज देश भर में लगभग 150 से अधिक स्त्री अध्ययन केंद्र संचालित हैं। 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के समय यूजीसी के द्वारा बहुत से महिला अध्ययन केंद्र खोले गए थे। भारत में महिला-विमर्श 19वीं सदी से शुरू हुआ, जब धर्मिक-सामाजिक सुधर आंदोलनों में दलितों, पिछड़ों और महिला उत्थान को केंद्रित किया गया। भारत में  औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल के महिला आंदोलनों से स्त्री-विमर्श बाहर आया। और स्त्री की असमानता, असुरक्षा, यौन उत्पीड़न, पिछड़ापन, अशिक्षा, सामाजिक विभेद इत्यादि पर अध्ययन होने लगे। 1970 के दशक में महिला अध्ययन एक बौद्धिक खोज और संस्थागत कार्य के तौर पर उभरा। इस प्रक्रिया के दौरान इस विषय की पूर्व अवधारणाओं, उपकरण (टूल), तकनीक और पद्धतियों पर सवाल खड़े किए गए, नयी दृष्टि से शोध् किए गए। सन् 1974 में सरकार द्वारा गठित सीएसडब्ल्यूआइ (कमेटी आॅन स्टेटस आॅफ वीमेन इन इंडिया) की रिपोर्ट ‘‘टुवर्ड्स इक्वेलिटी’’ प्रकाशित हुई तो स्त्रियों की बदहाली-अशिक्षा, कुपोषण, भू्रण हत्या, बाल विवाह, बेरोजगारी, यौन शोषण, असमान मजदूरी, गरीबी जैसे सवाल पूरे देश में गूंजने लगे। सरकार ने भी यह महसूस किया कि गरीब ग्रामीण महिलाओं को इस स्थिति से उबारना चाहिए। इसका परिणाम 1974 में महिला अध्ययन शोध् इकाइयों की स्थापना के रूप में आया। पहला महिला अध्ययन केंद्र मुंबई के एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में खुला जिसकी डायरेक्टर नीरा देसाई थीं। इस प्रकार स्त्रियाँ ‘शिक्षा प्राप्त करने की पात्र’ से ‘शोध एवं अध्ययन’ की नयी विषयवस्तु बनीं। महिला अध्ययन केंद्र इस प्रकार रूपांतरण के माध्यम बने जो न केवल राज्यनीति बल्कि महिलाओं के अपने विषय में सोच को भी परिवर्तित करें। सन् 1987 से महिला अध्ययन केंद्रों की स्थापना 9 चुनिंदा विश्वविद्यालयों में शिक्षण, शोध और प्रसार की दृष्टि से की जाने लगी। 1986 की नयी शिक्षा नीति में यूजीसी ने भारतीय विश्वविद्यालयों में स्त्री अध्ययन केंद्रों के विकास की गाइडलाइन्स दी थी।
   जहंा तक स्त्री विमर्श का प्रश्न है तो स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि - इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को लेकर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है।
सदियों से भारत में सती प्रथा, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, अधिकार विहीनिता, रूढ़िवादिता को समाज का अंग पाया गया। परन्तु 19वीं शताब्दी में पश्चिमी शिक्षा के आगमन से संस्कृतियों में टकराव हुआ। फलस्वरूप महिला अधिकारों की बात की जाने लगी। लोग परम्परागत ढांचे से बाहर निकलकर सोचने लगे, महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया जाने लगा। 1917, 1926 और 1927 में क्रमशः भारतीय महिला संघ, भारतीय महिला परिषद व अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना हुई तथा स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मुद्दों पर विचार किया गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों को लागू करने के लिए 1950 में संवैधानिक उपाय किये गए। इससे पूर्व सन् 1930 तथा 1944 में स्त्रियों को समाज में समान अधिकार दिए जाने की मांग की गई थी। सन् 1944 में इस संबंध में एक मसौदा भी तैयार किया गया था।
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा व भारतीय स्त्री अध्यंयन संघ के संयुक्त तत्वावधान में स्त्री अध्ययन के 13 वें राष्ट्रीय सम्मे्लन के अंतर्गत पांच दिवसीय सम्मेलन में ‘‘हाशिएकरण का प्रतिरोध, वर्चस्व को चुनौती: जेंडर राजनीति की पुनर्दृष्टि’’ पर गंभीर विमर्श करने के लिए गांधीजी की कर्मभूमि वर्धा में देशभर के 650 स्त्री अध्ययन अध्येताओं का सम्मेलन हुआ था। इससे पहले 11वां अधिवेशन गोवा में और 12 वां लखनऊ में आयोजित किया गया था। इस पांच दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में अधिवेशन पूर्व कार्यशाला में देशभर के 60 से अधिक विश्वमविद्यालयों के लगभग 250 विद्यार्थियों ने भाग लिया था। स्त्री अध्ययन के विद्यार्थियों ने पहले सत्र के दौरान ‘‘स्त्री अध्ययन: शिक्षा शास्त्र और पाठ्यक्रम’’ पर विमर्श करते हुए कहा था कि - ‘‘स्त्री अध्ययन महिला मुक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप निकला हुआ एक विषय है, जबकि स्त्री अध्ययन को लेकर केंद्रों, विभागों और स्नातकोत्तर व उच्च  शिक्षा के स्तर पर बहुत सारे संघर्ष हुए हैं और किए जाने हैं।’’ विद्यार्थियों ने स्त्री अध्ययन के मुख्य अनुशासन के अभ्यासों और उससे पड़ने वाले प्रभावों के अनुभवों को साझा किया। शोधार्थियों ने विशेषकर इस विषय को पढ़ते समय परिवार द्वारा मिलनेवाली चुनौतियों को भी बताया कि किस तरह जब वह अपने विषय के तत्वों पर परिवार और समाज में बात करते हैं तो लोग उनका विरोध करते हैं। कुछ विद्यार्थियों ने यह अनुभव किया है कि यह मात्र समानता का सवाल नहीं है परंतु यह मानव की तरह व्यवहार किए जाने का सवाल है। द्वितीय सत्र के दौरान ‘‘स्त्री अध्युयन: अनुभव और सरोकार’’ विषय पर चर्चा की गई थी।
अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल ने भी महिलाओें के उत्थान एवं जागरूकता की दृष्टि से जाबाला महिला अध्ययन केन्द्र की स्थापना हेतु कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित किए। जैसे - परिवार व्यवस्था में महिला की भूमिका का अध्ययन करना, व्यापक सामाजिक जीवन में महिला की स्थिति एवं भूमिका का आकलन करना, भारतीय संस्कृति के संदर्भ में स्त्रीपुरुष सहअस्तित्व की संकल्पना को पुनस्र्थापित करना, समतामूलक समाज की पुनस्र्थापना के मध्य स्त्री की एक मानव के रूप में पहचान करना, स्त्री अपराध-मुक्त समाज की संकल्पना पर शोध करना, स्त्री सशक्तीकरण के मार्ग में आने वाले अवरोधों की पहचान कर उनके समाधानमूलक उपायों पर विचार करना, स्त्री क्रियाशीलता के प्रस्थान बिंदुओं की पहचान के साथ, राष्ट्र निर्माण में स्त्री की भूमिका को सुनिश्चित करना, महिला संबंधी भारतीय दृष्टिकोण या अवधारणा का अध्ययन तथा वैश्विक दृष्टिकोण की समीक्षा करना, वर्तमान समय में युवा महिलाओं के समक्ष आने वाली विभिन्न चुनौतियों (पारिवारिक, व्यावसायिक, सामाजिक) एवं समाधानों का अध्ययन करना तथा लिंगीय (जेण्डर) संवेदनशीलता पर अध्ययन एवं शोध आयोजित करना। इस केन्द्र का लक्ष्य भारत से बाहर गए सभी भाषा-भाषी समूहों का व्यावसायिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षणिक अन्तर-अनुशासनिक अध्ययन है।
अकसर यह देखने में आता है कि विश्वविद्यालयीन शोधकर्ता ज़मीनीतौर पर परिश्रम करने के बजाए सरकारी और गैरसरकारी अंाकड़ों को आधार बना लेते हैं। जबकि कई बार ज़मीनी सच्चाई आंकड़ों से परे होती है। स्त्री-अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है। यह विषय समाज की आधी आबादी की दशा और दिशा को तय करता है। आंकड़ों को खंगालने में कोई बुराई नहीं है किन्तु यह भी देखा जाना चाहिए कि किसी एक मुद्दे पर किसी एनजिओ और सरकारी आंकड़ों में अन्तर तो नहीं है? यदि अंतर है तो क्यों है? और यदि अंतर नहीं है तो क्यों नहीं है? इन दोनों पक्षों का स्वयं सत्यापन करना बेेहद जरूरी होता है। स्त्री-अध्ययन के समय यदि ज़मीनी सच्चाई को ध्यान में रख कर शोध कार्य किया जाए तो एक ऐसी यथार्थपरक तस्वीर सामने आएगी जो भारतीय स्त्रियों के अधिकारों एवं सुखद भविष्य को सुनिश्चित कर सकती है। आखिर एक गंभीर कार्य है स्त्री अध्ययन।    
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(सागर दिनकर,16.06.2021)
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Tuesday, June 15, 2021

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की सुंदर प्रस्तुति है ‘‘शब्दों की निर्झरिणी’’ में | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

साथियों, प्रस्तुत है आज 15.06.2021 को "आचरण" में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई युवा कवयित्री जयंती सिंह लोधी के काव्य संग्रह "शब्दों की निर्झरिणी’’ की पुस्तक समीक्षा ... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
भावनाओं की सुंदर प्रस्तुति है ‘‘शब्दों की निर्झरिणी’’ में
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - शब्दों की निर्झरिणी (काव्य संग्रह)
कवयित्री - जयंती सिंह लोधी
प्रकाशक - रंगमंच प्रकाशन
मूल्य    - 250/-
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कहा जाता है कि जहां शब्द ठहरते हैं वहीं से काव्य गतिमान हो जाता है। वस्तुतः शब्द भावानाओं का आधार बना कर काव्य को अभिव्यक्त करते हैं। जहां शब्द किसी निर्झरणी के समान प्रवाहमान हों वहां भावनाओं की अनेकानेक लहरें उठना स्वाभाविक हैं। सागर शहर की युवा कवयित्री जयंती सिंह लोधी एक संभावनाशील कवयित्री हैं। वे अपने शब्दों से काव्य में वह सब कुछ पिरो देने को कटिबद्ध दिखाई देती हैं जो उनके अनुभव से गुज़रता है, चाहे वह अनुभव प्रकृति के सौंदर्य, सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक अव्यवस्था, अथवा अंतर्मन की भावनाएं हों। उनका काव्य संग्रह ‘‘शब्दों की निर्झरणी’’ भावनाओं की गतिशीलता और गहराई को एक साथ प्रस्तुत करता है। संग्रह की भूमिका में टिप्पणी करते हुए प्रो. आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने लिखा है कि ‘‘काव्य की संप्रेषणीयता, भावों की कुशल अभिव्यक्ति, भाषा की सहजता, सरलता और सौंदर्य, छंदों का वैविध्य, विचारों का खुलापन, नए जमाने की सोच, गलत का विरोध आदि सब कुछ है, इस संग्रह की कविताओं में।’’
जयंती लोधी की प्रकृति संबंधी कविताओं में छायावादी प्रकृति वर्णन की आभा दिखाई देती है। वे प्रकृति का मानवीकरण करती हुई मनोभाव व्यक्त करती हैं। जैसे ‘‘निर्झरिणी’’ शीर्षक उनकी कविता की पंक्तियां देखिए-
उन्मुक्त धार नदी की
सुंदर मन भावनी
धवल धार बहती कल कल
निर्झरिणी पथ गामिनी

डगर डगर पर है मुश्किल
पर हार नहीं यह मानती
दृढ़ संकल्प और श्रम से
पर्वत को भी लांघती

कवियत्री जहां एक और प्रकृति की कोमलता एवं  सजीवता से  तादात्म्य  में स्थापित करती है, वही मां के प्रति उनकी काव्य दृष्टि बड़े ही समर्पित भाव से ममत्व की सुंदर व्याख्या करती है। वह मां की गोद में जन्नत मानती हैं तथा मां का सुख सागर के समान कहती हैं। मां का आशीष उन्हें प्रकाश के समान देदीप्यमान प्रतीत होता है। उनकी मां शीर्षक यह रचना देखिए-
 मां की गोद में जन्नत है
 मां सुख का सागर है
 मां ममता की शीतल छांव
 मां से रोशन सारा घर है
 जीवन दात्रि और निर्मात्री
 बच्चों पर न्योछावर है
 त्याग पूर्ण है मां का जीवन
 मां ईश्वर से बढ़कर है

मां का वर्णन करते समय पिता के अस्तित्व को भूलती नहीं है। एक उत्तम पारिवारिक जीवन में पिता की उपस्थिति एक अलग ही सुख का बोध कराती है। ‘‘पिता’’ शीर्षक से उनकी यह काव्य पंक्तियां विचारणीय है-
 पिता हमारे जीवन दाता
 पिता से अपनी है पहचान
 पिता के उत्तम कर्तव्यों से
सुख पाती है हर संतान
 उनकी त्याग तपस्या देखो
 सख्त नारियल का व्यवहार
बच्चों को जीत दिलाने हेतु
 स्वयं हार करते स्वीकार

 माता-पिता के साथ ही परिवार एवं समाज में बेटियों का विशेष महत्व होता है। यह बात और है कि वर्तमान स्थितियां बेटियों के अनुकूल नहीं हैं। आज भी देश के अनेक परिवारों में बेटियों को जन्म लेने से पूर्व ही मार दिया जाता है। जबकि बेटियां घर परिवार में खुशी लेकर आती है वह अन्नपूर्णा के समान घर को संपन्नता से पूर्ण करती हैं तथा दो परिवारों, दो कुल का मान बढाती हैं। जयंती सिंह लोधी ने अपनी कविता ‘‘बेटी’’ में बेटी की महत्ता को प्रस्तुत किया है-
        जीवन में खुशियां लेकर आ जाती है बेटियां
        चंपा जूही चमेली जैसी खिल जाती हैं बेटियां
        बेटी बनकर सुख देती बहु बन वंश  बढ़ाती है
        अन्नपूर्णा घर की लक्ष्मी दो  कुल का मान कहाती  है      
        कोख में बेटी मत मारो इसको जीवनदान दो
        इनकी पूजा बहके करो न, पर जीने का अनुदान दो

बेटियों के अस्तित्व को संकट में देखते हुए जयंती सिंह लोधी तटस्थ नहीं रह पाती हैं और वे बेटियों को बचाने और उन्हें सम्मान देने का आह्वान करती हैं -
       कहीं राधा, कहीं गीता, कहीं मुस्कान ख़तरे में
       किसी की कोख ख़तरे में, किसी की जान ख़तरे में
       हमारी बेटियां देखो, वतन की शान होती हैं
       मगर इनका जमाने में रहा सम्मान ख़तरे में

“मैं नारी हूं” शीर्षक कविता स्त्री के अस्तित्व और समाज में स्त्री की स्थिति को बखूबी वर्णित करती है। कवयित्री स्वयं एक स्त्री होने के नाते इस मर्म को गहराई से समझती है, विश्लेषित करती है और तब अपने काव्य में पिरोती है, यह तथ्य कविता की प्रत्येक पंक्ति में मुखर होता है। कविता की पंक्तियां देखिए-
 मैं विधाता की
 सर्वश्रेष्ठ कृति हूं
 सृजना हूं, प्रकृति हूं
 मुझ में समाया है संसार
 मुझ से रोशन है घर द्वार
 हिम्मत कभी न हारी हूं
 हां मैं नारी हूं।
 हजारों बंदिशें  मुझ पर
 हैवान भेड़ियों की पैनी नजर
 मेरा वजूद मिटाने को आतुर
 फिर भी जीने की अधिकारी हूं
 हां मैं नारी हूं

भारतीय संस्कृति में कृष्ण कथा का स्थान सर्वोच्च है अधिकांश कवि राधा और कृष्ण के चरित्र को, उनके  वर्णन को  अपनी कविताओं में रोते हैं और राधा कृष्ण के शाश्वत प्रेम का उदाहरण देते हैं।  राधा कृष्ण का प्रेम वस्तुतः प्रेम भावना का सौंदर्यत्मक रूप प्रस्तुत करता है।  एक ऐसा सौंदर्य जिसमें परस्पर समर्पण की भावना है विश्वास है और भक्ति भी है जयंती लोधी अपनी  रचना में ”राधिका” शीर्षक  रचना में राधा और कृष्ण की परस्पर पूरक था को बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत करती है। यह पंक्तियां देखिए-
 राधिका बिना श्याम आधे अधूरे हैं
 दोनों संग संग हैं प्रीत पुरजोर है

राधा-कृष्ण की भावभूमि पर एक अन्य कविता का अंश देखिए जिसमें कवयित्री ने राधा की मनोदशा का सुंदर चित्रण किया है-
यह मैं हिलोर है पंछियों का शोर है
हाथों में हाथ लिए मेरा चितचोर है
मुरली बाज रही कंगना भी बाज रहे
मेरा मन मोहना नंदकिशोर है

अपनी लेखनी के प्रति कवयित्री जयंती लोधी के भीतर एक सहज भाव है जिसे उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है। अपने काव्य सृजन के बारे में वे कहती हैं-
अनोखी है, अलबेली है
ये लेखनी मेरी सहेली है
मेरे मन के मधुमन में
जब खुशियों के फूल खिले
तब तब महकी मेरी लेखनी
अरमानों के पंख मिले

जयंती सिंह लोधी के काव्य का एक सुखद पक्ष यह भी है कि वे अपने आशावादी विचारों को प्रभावी ढंग से सामने रखती हैं और सुखद, उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशान्वित दिखाई देती हैं-
निराशा के कुहासें में, उजाला हम भी लाएंगे
चलो अब बादलों के पार नया सूरज उगाएंगे
हिमालय की ऊंचाई से  हमारे  हौसले देखों
सुनहरे ख़्वाब की कूची से नई किरणें बनाएंगे
खुशी का रंग ले कर संग, सपनों को उकेरेंगे
इरादों की  उड़ानों से  सफर  आसां बनाएंगे

कवयित्री जयंती सिंह लोधी के इस काव्य संग्रह ‘‘शब्दों की निर्झरणी’’ में संग्रहीत कविताओं, गीतों, ग़ज़लों, दोहों एवं छंदमुक्त रचनाओं का भावपक्ष प्रबल है, यद्यपि उन्हें अपने काव्य के कलापक्ष को निखारने की अभी और आवश्यकता है। भावनाओं के उद्घाटन पर नियंत्रण रखते हुए काव्यशिल्प को साधना सतत सजगता और अभ्यास की मांग करता है जोकि इस संग्रह की कविताओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि कवयित्री में काव्यशिल्प को साधने की भी क्षमता है, बस, जरूरत है काव्यविधान को ध्यान में रखने की। सारांशतः कहा जाए तो, ‘‘शब्दों की निर्झरणी’’ भावसिक्त कर देने वाला एक पठनीय संग्रह है और यह कवयित्री की काव्य साधना के प्रति आश्वस्त करता है।
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Sunday, June 13, 2021

व्यंग्य | चलो ‘चिन्ता दिवस’ मनाएं | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित

प्रिय साथियों, आज 13 जून 2021 को "नवभारत" के .रविवारीय परिशिष्ट में मेरा व्यंग्य लेख "चलो ‘चिन्ता दिवस’ मनाएं " प्रकाशित हुआ है...आप भी पढ़िए और आनंद लीजिए....

व्यंग्य 
चलो ‘चिन्ता दिवस’ मनाएं
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        कहते हैं  चिंता चिता समान। अब भला, चिंता और चिता में क्या समानता हो सकती है? चिता पर चढ़ने से पहले ही इंसान एक स्थिर मुद्रा में आ जाता है लेकिन चिंता तो कहीं भी बैठकर, लेट कर, या खड़े हो कर की जा सकती है। चिंता के लिए चाहे आप उकडूं बैठें या लंगडी दौड़ें, चाहे दो पल चिंता करें या दो साल, इसमें कोई बंदिश नहीं है। फिर आजकल फास्टफूडी जीवन में इतना समय ही कहा कि अधिक चिंता की जाए। फिर भी यदि चिंता किए बगैर गुज़ारा नहीं हो रहा है तो हफ्तों चिंता करने के बजाए एकदिवसीय क्रिकेट मैच के समान मात्र एक दिन चिंता कर ली जाए। जी हां, एक दिन चिंता करो और दूसरे दिन पॉपकॉर्न खाओ मस्त हो जाओ!
यूं भी एक दिवसीय चिन्ताओं का हमारा अद्भुत रिकॉर्ड पाया जाता है। अब देखिए न, हम हिन्दी की चिंता सिर्फ एक दिन करते हैं। उस एक दिन हम हिंदी के उद्भव, विकास, अवसान आदि सब के बारे में चिंता कर डालते हैं। यह ठीक भी है क्योंकि शेष दिनों में अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चलता। यदि इंग्लिश-विंग्लिश नहीं बनती तो हिंग्लिश से काम चला लेते हैं। लेकिन कम से कम हिन्दी से तो दूर रहने की कोशिश करते हैं। आखिर हिंदी हमारी आजकल की तड़क-भड़क लाइफ से बेमेल है। इसलिए कई दिन तक हिंदी की चिंता में अपना खून जलाते रहने से क्या फायदा? इसीलिए हम सिर्फ एक दिन पूर्ण समर्पित भाव से हिन्दी के पाले में जा खड़े होते हैं और सुबह से देर रात तक हिंदी की वाह-वाही करते रहते हैं। वैसे हमारी एकदिवसीय चिंताओं की कोई कमी नहीं है। एकदिवसीय चिंताओं की लंबी सूची के अंतर्गत् हम साल में एक दिन बच्चों की भी चिंता करते हैं। उसे एक दिन बाल मजदूरी का जमकर विरोध करते हैं। उस दिन हम घर या होटलों में बच्चों से नौकरों की तरह काम कराए जाने का खुलकर विरोध करते हैं। यही हमारा उस दिन का विशेष कर्तव्य होता है, वरना प्रतिदिन बाल मजदूरों की तरफदारी करने से क्या फायदा? सोचने की बात है यदि हम बाकी दिन भी बाल मजदूरी का विरोध करने लगेंगे तो जूता पालिश करने वाले छोकरों का भाव हो जाएगा। फिर हमारे जूताधारी जैंटलमैन गंदे जूतों में घूमते नजर आएंगे। कूड़ा बीनने वाले बच्चों का भाव हो जाएगा तो शहर के कूड़ेदान उसे काम की वस्तुओं की छटनी नहीं हो पाएगी। और तो और, होटलों में काम करने वाले लड़कों का अभाव हो जाएगा। फिर जूठे बर्तनों का ढेर लग जाएगा। झूठे बर्तनों के ढेर लगने से मक्खियां भिन्न-भिन्न आएंगी और मक्खियां भिन्न-भिन्न आने से बीमारियां फैलेंगी। इसीलिए इन बाल मजदूरों की चिंता के लिए एक दिन ही पर्याप्त है।
हिंदी और बच्चों की भांति हम शिक्षकों के लिए भी सिर्फ एक दिन चिंता करते हैं। जी हां, ‘शिक्षक दिवस’ को ही हमें शिक्षकों की दीनदशा अथवा गरिमा की चिंता होती है, शेष दिन में शिक्षक समुदाय से यही आशा की जाती है कि वह पढ़ाई-लिखाई कराए, मनुष्यों से लेकर ढोर-डांगर तक गिने। चाहे तो ट्यूशन-व्यूशन कोचिंग-वोचिंग भी कर लिया करे। शिक्षक वैसे ही बुद्धिजीवी प्राणी होता है। उसकी हर दिन क्या चिंता करना।
एक दिवसीय चिन्ताओं के क्रम में अब हम एक दिन पिता का मनाते हैं तो एक दिन मां का। एक दिन मलेरिया का एक दिन फाइलेरिया का, एक दिन पर्यावरण का एक दिन ऊर्जा संरक्षण का, एक दिन पुरातात्विक धरोहरों का, एक दिन जनसंख्या का। मेरे विचार से तो सभी चिंताओं की चिंता करने के लिए भी एक दिन तय किया जाए। तो आइए इसके लिए हम आवाज़ उठाएं और एक दिन ‘चिन्ता दिवस’ भी मनाएं।
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Friday, June 11, 2021

बुंदेली व्यंग्य | ब्याओ की दावतें | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका समाचारपत्र में प्रकाशित

साथियों, आज #पत्रिका समाचार पत्र में मेरा बुंदेली व्यंग्य "ब्याओ की दावतें " प्रकाशित हुआ है... आप भी पढ़ें...आंनद लें....
हार्दिक धन्यवाद "पत्रिका" 🙏
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बुंदेली व्यंग्य
ब्याओ की दावतें 
      - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘रामधई! अब कछू नई हो सकत। बे ओरें मोरी काय सुनहें? उने तो अपनी परी है। बस, कहत भर के लाने हैं नोने भैया, बाकी नोने भैया की परवा कोनऊ को नईयां।’’ नोने भैया बड़बड़ात भए मोरे दरवाजे के आगूं ठाड़े हते। बड़बड़ा काए मनो चिचियां रये हते। तभई तो उनकी आवाज मोरे कान लों पोंच गई। मों पे दो ठइयां मास्क हतो, फेर भी उनको चिचियानो मोये समझ में आ गओ। मोसे न रही गई सो मैंने तो पूछई लई, ‘‘काय नोने भैया, का हो गए? काय के लाने बमकत फिर रए?’’
‘‘अरे हम काय बमकें बिन्ना? बमके हमारे दुस्मन।’’ नोने भैया ठसक के बोले।
‘‘सो फेर काए चिचियां रये?’’ मैंने पूछी।
‘‘हम कहां चिचिया रये?’’ नोने भैया फेर के मुकर गये।
‘‘सो, जे को आ बोल रओ के अब कछू नई हो सकत? अब कछु बता दो भैया! मन की मन में नईं रखी जात। मोरे लाने कछु काम होय तो बताओ।’’ मैंने नोने भैया से कही।
‘‘अब का बताऊं बिन्ना! बड़े बुरै दिन आ गए। हमाई तो कोऊ सुनतई नईयां।’’ नोने भैया बोले।
‘‘ऐं? ऐसो का हो गओ? तुमाई तो सबई सुनत आएं? जे ऐसई काय कै रै?’’ नोने भैया बुझउव्वल-सी बुझा रए हते, सो मोए झुंझलाहट हो लगी, ‘‘अब कछु तो बोलो नोने भैया, जे ऐसई पहेलियां न बुझाओ। बाकी न बताना होय सो, न बताओ, मोय सोई टेम नइयां तुमई फालतू की बातें सुनबे के लाने।’’ मैने सोई नोने भैया खों तनक हड़काओ।
‘‘जे का बात भई बिन्ना? पैले तो पूछ रई हतीं, ओ अब कै रईं के तुमाये लाने टेम नइयां। जे तो गल्त बात है।’’
‘‘अब तुमई तो मों नई खोल रये। कछु बताओ तो सुनी जाये।’’ मैंने कही।
‘‘अरे, सुनाबे के लाने का है बिन्ना, भौतई बुरै दिन आ गए हैं। सोच-सोच के कलेजो फटत आए। जी तो करत आये के उन सबई जने को मार-मार के मुर्गा बना दओ जाए। चले हैं ब्याओ करने।’’ नोने भैया बोले।
‘‘कोन को मारबे को जी रओ तुमाओ? और कोन को ब्याओ करा रये?’’ मोए नोने भैया की बातें कछु समझ ने आईं।
‘‘हम काये करा रये ब्याओ? बे ओरे करा रये। हमाओ बस चले तो कोनऊ को ब्याओ न होन देवे।’’ नोने भैया बोले।
‘‘कोन के ब्याओ की कै रये, भैया? कछु साफ तो बोलो।’’
‘‘अरे, बे रहली वारी फुआ की बिटिया को ब्याओ होने वारो है।’’ नोने भैया कसमसात भए बोले।
‘‘काय, बोई वारी बिटिया, जोन के लाने तुमने फुआ की खूब सेवा करी हती?’’ मोये हंसी आ गई।
‘‘हओ तो, बोई वारी। बाकी हमें अब ऊसे कोनऊ लेबो-देबो नइयां। ऊने जब लों हमाए लाने मना कर दओ, तभई से हमने ऊके घरे ढूंको लो नइयां।’’ नोने भैया बोले।
‘‘सो, अब परेसानी का आए?’’ मैंने पूछी।
‘‘परेसानी तो भौतई बड़ी कहानी। मोये तो जे नई समझ में आ रओ के मोय ठुकरा दओ, कोनऊं गिला नइयां। पर कोन ने कही के अभई ब्याओ रचाओ, ऊपे जे कोरोना काल में।’’ नोने भैया चिढ़त भये बोले।
‘‘महूरत हुइये।’’ मैंने कहीं।
‘‘जेई महूरत मिलो हतो। तुमे पता नई बिन्ना, बे ओरे मोये नई बुला रये ब्याओ में। काय से के बीस से ज्यादा जने शामिल नई हो सकत ब्याओ में।’’ नोने भैया उदासे से बोले। 
‘‘ठीकई तो आए भैया, कोरोना के कारण भीड़ नई जुड़ सकत। ओ, फेर तुमें सोई दुख हुइये ऊको दुल्हन बनी देख के।’’ मैंने नोने भैया को समझाओ।
‘‘बा दुल्हन बने, चाये कछू बने, मोये दुख नई होने। जी तो जे लाने मसक रओ के का जमाना आ गओ? एक जमाना हतो जब दस दिनां में बीस ब्याओ जीम लेत ते। ओ अब जे जमाना आ गओ के ब्याओ में बीसई जने जुड़ सकत आएं, जोन में मोरे लानें कोनऊं जागां नइयां। मोरो जी तो तरस गओ ब्याओ की दावतें खाबे के लाने। काय सब ओरें ई समै ब्याओ कर रये, तनक ठैर जाते। जे ससुरो कोरोना काल निकर जातो फेर करते ब्याओ। मोये काये तरसा रये?’’
‘‘ऐं? सो भैया तुम ब्याओ की दावत के लाने रो रये? ओ हमने सोसी के ऊ फुआ की बिटिया के लाने...।’’
‘‘अरे, तुमने सोई भली चलाई। ऐसी तो बिटियां मुदकी फिरत मोरे आंगू-पीछूं पर ब्याओ की दावतें ने मिलीं साल भर से। सो हम तो कै आए फूफा से के अभई काय करा रये ब्याओ! बस, जेई सुन के फूफा ने जूता फेंक के मारो मोए, वो तो लगो नइयां। बाकी ई समै बयाओ करा के बे गल्त कर रये।’’ कहत भये नोने भैया सो आगे बढ़ गये और मैं सोसत रै गई के वाह रे नोने भैैया, इने प्रेमिका को ब्याओ को गम नइयां, गम आये सो ब्याओ की दावतों का। बाकी नोने भैया की बात में दम तो मोये सोई दिखा रओ। नुसकान तो मोरो सोई भओ जा रओ।
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#बुंदेलीव्यंग #पत्रिका #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #शरदसिंह #ब्याव #दावतें

Wednesday, June 9, 2021

चर्चा प्लस | महात्मा गांधी की दृष्टि में कला और सौंदर्य | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
   महात्मा गांधी की दृष्टि में कला और सौंदर्य
       - डाॅ शरद सिंह
जब महात्मा गांधी के विचारों की चर्चा हो रही हो तो कला और सौंदर्य पर उनके चैंकाने वाले विचार सामने आते हैं। जहां तक विचारों का संदर्भ है तो महात्मा गांधी एक ऐसे व्यक्तित्व थे जो अपने विचारों में स्पष्टता रखने के हिमायती थे। जीवन का चाहे कोई भी विषय हो, उन्होंने बेझिझक उसकी व्याख्या की। इसीलिए माना जाता है कि यदि महात्मा गांधी के विचारों को समझना है तो उनके समग्र विचारों को जानना जरूरी है जैसे कला और सौंदर्य के संबंध में भी उनके विचार स्पष्ट थे।
 सादा जीवन जीने वाले महात्मा गांधी को कला और सौंदर्य की अद्भुत समझ थी। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक ‘एक्सपेरिमेंट्उ विथ ट्रू’ में कला के बारे में लिखा है- ‘‘मैं जानता हूं कि बहुत-से व्यक्ति अपने को कलाकार कहते हैं और उन्हें इस रूप में मान्यता भी प्राप्त है लेकिन उनकी कृतियों में आत्मा के उदग्र आवेग और आकुलता का लेश भी नहीं होता जबकि प्रत्येक सच्ची कला आत्मा के आंतरिक स्वरूप की सिद्धि में सहायक होनी चाहिए। जहां तक मेरा ताल्लुक है, मुझे अपनी आत्मसिद्धि में बाह्य रूपों की सहायता की कतई जरूरत नहीं है। इसलिए मैं कोई कलाकृतियां प्रस्तुत नहीं कर सकता।’’
महात्मा गांधी कला में प्राकृतिक तत्वों को असीमित मानते थे। उनके अनुसार मानवीय कला प्राकृतिक कला के सामने कुछ भी नहीं है। वे कला की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि -‘‘‘हो सकता है कि मेरे कमरे की दीवारें नंगी हों, मुझे तो शायद सिर पर छत की भी जरूरत नहीं है क्योंकि तब मैं असीम विस्तार वाले तारों भरे आकाश को निहार सकता हूं। जब मैं चमकते तारों से भरे आकाश को निहारता हूं तो मेरे सामने ऐसा अद्भुत परिदृश्य होता है जिसकी बराबरी मनुष्य की कला कभी नहीं कर सकती।’’
कला के महत्व के साथ ही महात्मा गांधी  ने कला के उद्देश्य को भी स्पष्ट किया। वे मानते थे कि कला का कोई न कोई उद्देश्य होता है और यह उद्देश्य ही कला की गुणवत्ता को सिद्ध करता है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं सामान्यतः मानी गई कला-वस्तुओं के मूल्य को स्वीकार करने से इन्कार करता हूं बल्कि सिर्फ यह है कि मैं व्यक्तिगत रूप से यह अनुभव करता हूं कि यह प्राकृतिक सौन्दर्य के शाश्वत प्रतीकों की तुलना में कितनी अपूर्ण है। इन कला-वस्तुओं का मूल्य वहीं तक है जहां तक कि वे आत्मा को सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने में सहायक होती हैं। ’’
महात्मा गांधी कला में सत्य को ढूंढते थे। यदि कला में सत्यता है तो वह सभी के लिए उपयोगी हो सकती है। उनके अनुसार ‘‘सत्य का शोध पहली चीज है, सौन्दर्य और शुभत्व उसमें अपने आप जुड़ जाएंगे। मैं समझता हूं कि ईसा मसीह सर्वोत्कृष्ट कलाकार थे, चूंकि  उन्होंने सत्य के दर्शन किए थे और उसे अभिव्यक्त किया था। ऐसे ही मोहम्मद साहब भी थे जिनकी ‘कुरान’ सम्पूर्ण अरबी साहित्य की सबसे श्रेष्ठ कृति है, कम-से-कम विद्वानों का मत यही है। कारण यह है कि दोनों ने पहले सत्य को पाने का प्रयास किया था, इसलिए उनकी वाणी में अभिव्यक्ति का सौन्दर्य सहज ही आ गया, हालांकि उन्होंने कोई कला-रचना नहीं की थी। मुझे इसी सत्य और सौन्दर्य की चाह है, मैं इसी के लिए जीऊंगा और इसी के लिए मरूंगा।’’
महात्मा गांधी मानते थे कि कला को जनोपयोगी होना चाहिए। उनके अनुसार कला सिर्फ कला के लिए नहीं वरन आमजन के लिए होनी चाहिए। उन्होंने साफ शब्दों में लिखा है कि ‘‘मैं उस कला और साहित्य का पक्षधर हूं जो जनता से जुड़ा हो। वही कला कला है जो सुखकर हो। सच्ची कला केवल आकार पर नहीं बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में जो है, उस पर भी ध्यान केन्द्रित करती है। एक कला वह है जो मारती है और एक कला वह है जो जीवन देती है। सच्ची कला अपने रचनाकार की सुख-शांति, संतोष और शुचिता का प्रमाण होनी चाहिए। मैं संगीत और अन्य सभी कलाओं का प्रेमी हूं लेकिन मैं उनको उतना महत्त्व नहीं देता जितना कि आम तौर पर दिया जाता है। मिसाल के तौर पर मैं उन कार्यकलापों के महत्त्व को स्वीकार नहीं कर सकता जिन्हें समझने के लिए तकनीकी ज्ञान की जरूरत होती है। जीवन सब कलाओं से बढ़कर है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि जिसने जीवन में प्रायः पूर्णता को प्राप्त कर लिया है, वह सबसे बड़ा कलाकार है, कारण कि उदात्त जीवन के निश्चित आधार और संरचना के बिना कला है भी क्या?’’
सत्य महात्मा गांधी का प्रिय विषय था। वे निरंतर सत्य की खोज में लगे रहते थे। वे कहते थे कि -‘‘मैं सत्य में अथवा सत्य के द्वारा सौन्दर्य को खोजता और पाता हूं। सत्य के सभी रूप-केवल सच्चे विचार ही नहीं बल्कि सच्ची तस्वीरें या गीत भी अत्यंत सुंदर होते हैं। लोग प्रायः सत्य में सौन्दर्य के दर्शन नहीं कर पाते, आम आदमी उससे दूर भागता है और उसमें सौन्दर्य के दर्शन की क्षमता ही खो बैठता है। जब लोग सत्य में सौन्दर्य के दर्शन करने लगेंगे, तब सच्ची कला का उदय होगा।’’
वे कला, सौंदर्य और सत्य को परस्पर पूरक मानते थे। महात्मा गांधी के अनुसार -‘‘‘सच्चे कलाकार की दृष्टि में वही मुख सुंदर है जो अपने बाह्य रूप से भिन्न, आत्मा के भीतर प्रतिष्ठित सत्य से आलोकित है। सत्य से भिन्न कोई सौन्दर्य नहीं है। इसके विपरीत, सत्य अपने आपको ऐसे रूपों में प्रकट कर सकता है जो बाहर से तनिक भी सुंदर न हों। कहा जाता है कि सुकरात अपने जमाने का सबसे सत्यनिष्ठ व्यक्ति था लेकिन कहते हैं कि उसकी मुखाकृति ग्रीस में सबसे कुरूप थी। मेरी दृष्टि में सुकरात सुंदर था क्योंकि उसने आजीवन सत्य के लिए संघर्ष किया और आपको याद होगा कि सुकरात की बाह्याकृति के कारण फिडिएस को उसके अन्दर के सत्य की सुंदरता को सराहने में कोई बाधा नहीं आई, हालांकि कलाकार के नाते वह बाह्याकृतियों में भी सौन्दर्य के दर्शन का अभ्यस्त था।’’
महात्मा गांधी ने वास्तविक सुंदर कृति की बड़े सरल शब्दों में व्याख्या की है। वे इस बारे में भी प्रकाश डालते हैं कि सुंदर कृति कब जन्म लेती है-‘‘सत्य और असत्य प्रायः साथ-साथ मौजूद रहते हैं, उसी तरह अच्छाई और बुराई का भी साथ है। कलाकार में भी अनेक बार वस्तुओं की सच्ची और झूठी धारणाओं का सह-अस्तित्व रहता है। सच्ची सुंदर कृति तब जन्म लेती है जब कलाकार सच्ची धारणा से प्रेरित होता है। यदि इसके उदाहरण जीवन में विरल हैं तो कला के क्षेत्र में भी विरल ही हैं।’’ वे आगे कहते हैं कि ‘तुम सब्जियों के रंग में सुंदरता क्यों नहीं देख पाते? और निरभ्र आकाश भी तो सुंदर है, लेकिन नहीं, तुम तो इंद्रधनुष के रंगों से आकर्षित होते हो, जो केवल एक दृष्टिभ्रम है। हमें यह मानने की शिक्षा दी गई है कि जो सुंदर है, उसका उपयोगी होना आवश्यक नहीं है और जो उपयोगी है, वह सुंदर नहीं हो सकता। मैं यह दिखाना चाहता हूं कि जो उपयोगी है, वह सुंदर भी हो सकता है।’’
इसमें कोई संदेह नहीं है कि महात्मा गांधी ने न केवल राजनीतिक मसलों का हल निकाला बल्कि कला और सौंदर्य का भी गहराई आकलन किया और इन दोनों तत्वों को जनोपयोगी तथा मानसिक विकास के लिए आवश्यक माना।
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Tuesday, June 8, 2021

पुस्तक समीक्षा | ‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’: अनुभव से उपजा सृजन समीक्षक | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

आज 08.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्य संग्रह "गीत तुम्हारे स्वर मेरा है" की  पुस्तक समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’: अनुभव से उपजा सृजन
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - गीत तुम्हारे स्वर मेरा है (गीत संग्रह)
कवि    - निर्मल चंद निर्मल
प्रकाशक - एन.डी. पब्लिकेशन नई दिल्ली
मूल्य    - रुपए 250/-
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दीर्घ जीवन का अनुभव और सृजन की निरंतरता कवि को शून्य से समग्र की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है। ‘‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’’ वरिष्ठ कवि निर्मल चंद निर्मल की काव्य कृति है इसमें संग्रहीत रचनाओं के बारे में स्वयं कवि निर्मल ने लिखा है-‘‘मेरी इन रचनाओं में सभी रसों और भाव-भंगिमाओं का समावेश है। मैं तो प्रकृति और सामाजिक संतुलन का पक्षधर हूं। जो अच्छा लगा रचनाओं के माध्यम से उसकी प्रशंसा की और जो न भाया उसकी ओर  असहमति का इशारा किया। समाज को कैसा चलना चाहिए सब के पास अपनी बुद्धि है। सब स्वतंत्र है। हां, दुराग्रह से मनुष्य को परहेज होना चाहिए अन्यथा सामाजिक तानाबाना बिखराव की ओर अग्रसर होने लगता है। जरा सोचिए हमें इस संसार में कितने दिन रहना है। शेष अवधि प्रकृति की गोद में विश्राम की है ।’’ जीवन के प्रति इस प्रकार का बोध कवि से वह सृजन करवा देता है जिसकी कालजयी महत्ता रहती है। कवि निर्मल चंद निर्मल के अभी तक 20 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस 21वें काव्य संग्रह में उन्होंने जिन रचनाओं को भी पिरोया है वे विशेष महत्व रखती हैं। अनेक सम्मान से सम्मानित कवि निर्मल अपनी बातों को काव्य के माध्यम से बहुत ही सादगी के साथ प्रस्तुत करते हैं। वे अपनी जन्मभूमि के प्रति आगाध प्रेम रखते हैं। उनकी एक गीत हैं -‘‘शरीर यह मेरा सागर की मिट्टी’’। पंक्तियां देखिए-  
सागर की मिट्टी में जन्मा
है शरीर यह मेरा  
चकराघाट मनोरम स्थल
खेल कूद कर बड़ा हो गया
पता चला ना कब उठ करके
अपने पैरों खड़ा हो गया
बोध नहीं था अपनेपन का
मित्र मंडली सहज मिल गई
जहां हवाओं ने बहलाया
जीवन बगिया पूर्ण खिल गई
बढ़े कदम तक जाना मैंने
क्या है मेरा तेरा।

मनुष्य ने जब सभ्यता को अपनाया तो उसने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में शब्दों का विकास किया इस प्रकार शब्द मानव मन की मानव के विचारों की और मानव के संविधान की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गए। ‘‘शब्द महत्ता’’ शीर्षक गीत में कभी निर्मल ने शब्दों के महत्व को बहुत ही सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया है। यह पूरी रचना शब्दों को समर्पित है। इस गीत का एक अंश देखें-

शब्द हुआ करते हैं दर्पण अंतर्मन के।

शब्दों ने ही उद्गारों का भार संभाला
आपस के संबंधों को भी देखा भाला
कठिन धार होती इनकी प्रस्तर कट जाते
बुद्धि व विवेक से सुदृढ़ इनके नाते
होती है पहचान शब्द से गहराई की
मनुज-मनुज के संस्कार की चतुराई की
बहुरूपिया यदि शब्द ध्वनि कुछ और बोलती
एक शब्द के जाने कितने अर्थ खोलती
सधता है संसार चाहिए शब्द जतन के
शब्द हुआ करते हैं दर्पण अंतर्मन के।


संग्रह की गीतों से स्पष्ट है कि ये जीवन, समाज और आसपास घट रहे के प्रति गहरी दृष्टि रखते हैं और गहरा सरोकार भी। मीडिया, बाजारवाद आदि सब के प्रति कवि की निगाह है। इनकी शैली शोर मचाने वाली न होकर गम्भीर और चिंतन-प्रशस्त करने वाली है। वे अव्यवस्थाओं पर कटाक्ष करने के बदले व्यवस्थाओं में सुधार की गति को इंगित करते हैं-
भ्रष्टाचार  कहो  अथवा  कोई आचार कहो
मानव मन की  कमजोरी  हटते-हटते हटती है।
आदत को भी  लग  जाता है  समय भुलाने में
कुपथ पंथ से  हट कर  कुछ  अच्छाई लाने में
अभ्यासों का  चलन  बहुत  धीरे-धीरे रुकता है
नूतन राह स्वीकृति को, मन मुश्क़िल से झुकता है।
शुचिता का आधार हमें मिल जाता लेकिन
पूर्व चलन  की  परिपाटी  घटते-घटते घटती है।

कवि निर्मल चंद ‘निर्मल’ के गीत छीजती मनुष्यता और दरकती संवेदनशीलता की पड़ताल करती गीत है। जैसे ‘‘निकलें कैसे बाहर’’ शीर्षक गीत की पंक्तियां देखिए-
खांचों में ही फंसे हुए हम
निकलें कैसे बाहर।
जग ने जैसा समझा हमको
वैसे ही दिखते हैं
अंतर्मन को कौन समझता
बाह्य मूल्य बिकते हैं
छद्मवेश ही सारे जग में
होता रहा उजागर।

कवि कर्म होता है कि वह जीवन की परिस्थितियों को कोमलता से सामने रखे और चिंतन का मार्ग प्रशस्त करे। कवि ‘निर्मल’ इस कवि कर्म को बड़ी सुघड़ता से निभाते दिखाई देते हैं। वे अपनी गीत के माध्यम से समझाते हैं कि ‘साहस से लें काम’। इसी शीर्षक की यह गीत है-
हर मुश्क़िल विरक्ति पाएगी
साहस से लें काम।
साहस है जागीर हमारी
दिल ओछा क्यों करना
वीर बनो या कायर बन लो
होगा आखिर मरना
संकल्पों के आभूषण हों
दृढ़ता का हो नाम।

कवि के भावों में एक अनूठी ऊर्जा का संचार दिखाई देता है। यदि व्यक्ति में वैचारिक ऊर्जा हो तो आयु का बढ़ता हुआ प्रभाव भी उसे विचलित नहीं कर पाता है। इसलिए कवि ‘निर्मल’ उद्घोष करते हुए कहते हैं-‘मैं वृद्ध नहीं हूं’’।
उम्र बड़ी है
वृद्ध नहीं हूं।
भावों में अब भी तड़पन है
जगह-जगह दिखती अड़चन है
जिनको लोग बुद्धि से नापें
उनमें भी लक्षित बचपन है
जाप किया पर
सिद्ध नहीं हूं।

‘‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’’ संग्रह की सभी गीतों में एक सुंदर प्रवाह है, जो काव्यपाठ-सा आनंद देता है। अपनी वरिष्ठता के अनुरूप कवि निर्मल चंद निर्मल का यह संग्रह परिपक्व गीतों से परिपूर्ण है, सतत पठनीय है।  
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Wednesday, June 2, 2021

चर्चा प्लस | मौत के आंकड़ों की सांप-सीढ़ी में सांपों का ख़तरा | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
मौत के आंकड़ों की सांप-सीढ़ी में सांपों का ख़तरा
  - डाॅ शरद सिंह
    एक इंसान की मौत सिर्फ़ एक इंसान को ख़त्म नहीं करती, बल्कि पूरे परिवार को तबाह कर देती है। इसकी पीड़ा वही समझ सकता है जिसने किसी अपने प्रिय व्यक्ति को 
कोरोना से खोया हो। अपनों की ़़ंं, अचानक मृत्यु जीवित बचे हुए परिजन के जीवन को भी ग्रहण लगा देती है। ये सदमा किसी पढ़ चुकी किताब की तरह समय के साथ नए अनुभवों की नई किताब के नीचे भले ही दब जाए लेकिन उसके पढ़े गए पृष्ठ कभी भूलते नहीं हैं। कोई अपने प्रिय व्यक्ति की असामयिक मौत को भला कैसे भुला सकता है? दुख तो तब होता है जब ऐसी ही मौतों पर आंकड़ों की सांप-सीढ़ी का खेल खेला जाने लगे।
इन दिनों सरकार और विदेशी मीडिया के बीच विवाद चल रहा है कि भारत में कोरोना से कितने लोगों की मौत हुई? विदेशी मीडिया के आंकड़ें बड़े हैं जबकि सरकार के आंकड़ें छोटे हैं। सच किसी से छिपा नहीं है। कोरोना की पहली लहर में जो जनहानि हुई थी उसकी तुलना में यह दूसरी लहर कहर बरपा गई। दूसरी लहर आने के बाद से ही कोरोना से मृत्यु के आंकड़ें आसमान छूने लगे। इस बार कोरोना वायरस ने अपना रूप बदल लिया था। एक छलावे की तरह वह ‘‘नोसिम्टोमेटिक’’ बन गया। हज़ारों कोरोना मरीजों को उनकी गंभीरता का पता तब चला जब उनके फेफड़े बेहद क्षतिग्रस्त हो चुके थे। फिर भी डाॅक्टर्स तैयार थे उन्हें बचाने के लिए। यदि नहीं था तो पर्याप्त संसाधन और पर्याप्त तैयारी। आॅक्सीजन की कमी, अस्पताल में बेड्स की कमी और स्टाफ की कमी से जूझ रहे थे सरकारी अस्पताल। निजी अस्पतालों की चांदी रही। उन्होंने ज़िन्दगी बचाने के नाम पर मनमाने पैसे वसूले। वैसे निजी अस्पतालों में सबको दाखिला भी नहीं मिला। जिन्हें मिला उनके लाखों रुपए पानी की तरह ईलाज में बह गए। यदि उनका मरीज बच गया तो उन्हें पैसे जाने का पछतावा नहीं हुआ। लेकिन जिसने अपना परिजन और पैसे दोनों गवां दिया, उसके लिए तो ठीक ऐसा ही था जैसे सांप-सीढ़ी के खेल में जीत वाले सौवें खाने के ठीक पहले निन्यान्वे पर मुंह बाया सांप एक झटके में निगल ले। विडम्बना तो ये कि इस भयावह दौर में भी आंकड़ों को ग़लत-सही साबित करने का खेल चल रहा है। यह खेल भी सांप-सीढ़ी के खेल की तरह ही है। छोटी-छोटी सीढ़ियां और बड़े-बड़े सांप।  
कोरोना से मरने वालों के आंकड़े बड़े हैं या छोटे, यह जानने का अहमदाबाद के एक समाचारपत्र ने। विगत 11 अप्रैल 2021 की शाम को एक अख़बार के दो रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर अहमदाबाद के 1200 बिस्तरों वाले कोविड हॉस्पिटल के मुर्दाघर पहुंचे। उनके संक्रिमत होने का ख़तरा था, लेकिन वे सच जानना चाहते थे। उन्होंने वहां 17 घंटे बिताया। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि मुर्दाघर से बाहर निकलने के एक मात्र दरवाजे से उन 17 घंटों में ऐंबुलेंस के ज़रिए 69 शवों को बाहर लाया गया। अगले दिन गुजरात की राज्य सरकार ने आधिकारिक रूप से पूरे राज्य में 55 लोगों की कोरोना से मौत का आंकड़ा जारी किया जिसमें अहमदाबाद में मात्र 20 लोगों के मरने का आंकड़ा था। जबकि यह आंकड़ा उस एक कोविड सेंटर के आंकड़े से ही कम था जहां पत्रकारों ने 17 घंटे बिताए थे। मामले की और छानबीन करने कि लिए 16 अप्रैल 2021 की रात ये पत्रकार 150 किलोमीटर गाड़ी चलाकर अहमदाबाद के आस-पास के 21 शवदाह स्थलों पर गए। वहां उन्होंने जलाने के लिए लाए गए शवों की संख्या देखी। यावदाह स्थल के रजिस्टर देखे। शवदाह स्थलों के कर्मचारियों से जानकारी ली। वहां उन्हें एक और खेल का पता चला। उन्होंने पाया कि अधिकतर मौतों का कारण ‘‘गंभीर बीमारी’’ लिखा गया था जबकि उन शवों को ‘‘कोरोना प्रोटोकाल’’ का पालन करते हुए लाया गया था। उस एक रात में रात पत्रकारों की टीम ने 200 शवों की गिनती की लेकिन अगले दिन सरकारी आंकड़ों ने बताया कि अहमदाबाद में केवल 25 लोगों की कोरोना से मृत्यु हुई थी।

दूसरा उदाहरण उत्तर प्रदेश से सामने आया। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में लगभग 9 बजे ही 98 शवदाहगृहों में 98 कोरोना शवों का अंतिम संस्कार किया गया। अधिकारियों के मुताबिक नौ बजे के बाद भी कुछ शव बाहर शव वाहनों में पड़े हुए थे, जिनका दाह किया जाना बाकी था। जबकि सरकारी आंकड़ों ने दूसरे दिन बताया कि पूरे प्रदेश में कोविड से सिर्फ 68 मौतें हुईं तो अकेले लखनऊ में ही कोविड से मरे 98 शवों का अंतिम संस्कार कैसे हो गया? आंकड़ों वाला यह सांप-सीढ़ी का खेल चलता रहेगा। इस मामले को अख़बार के पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक पहुंचते-पहुंचते सब भूल चुके होंगे इसके बारे में। आज किसी को सही आंकड़े याद नहीं हैं कि भोपाल गैस त्रासदी में कितने लोग मारे गए थे। ज़िंदगी में आगे की सीढ़ी चढ़ते समय कड़वी यादों को हम सांप के मुंह में डालते चले जाते हैं, इस बात को भुला कर कि ये सिर्फ़ आकड़ें नहीं थे बल्कि एक ऐसा सबक थे जिसे हमें याद रखना चाहिए था। इसी सबक के आधार पर आगे की सुरक्षा तैयारी करनी चाहिए थी लेकिन हमने तो मानो सबक लेना सीखा ही नहीं है।

कोरोना की पहली लहर आई। मरने वालों के आकड़ों का एक ढेर छोड़ गई। ये आंकड़े विदेशों के आकड़ों से कम थे। इस पर हमने अपनी खूब पीठ ठोंकी। हमने कोई सबक नहीं लिया। हम तो सांप-सीढ़ी का खेल खेलने में व्यस्त थे, मस्त थे। दूसरी लहर की चेतावनी वैज्ञानिक दे चुके थे लेकिन उससे क्या? चुनाव ज़रूरी थे। चुनाव हुए। गार्डियन ने विशेषज्ञों के हवाले से दूसरी लहर के ‘सुपर स्प्रेड‘ का कारण बताते हुए लिखा कि ‘‘वायरस गायब हो गया है। यह गलत तरीके से समझते हुए सुरक्षा उपायों में बहुत जल्दी ढील दे दी गई। शादियों और बड़े त्योहारों को आयोजित करने की अनुमति थी और नेता स्थानीय चुनावों में भीड़ भरी चुनावी रैलियां कर रहे थे।’’
वैश्विक मीडिया संस्थान अल जजीरा ने अपनी बेवसाइट पर भारत में दूसरी लहर के बढ़ते संक्रमण के मामलों के लिए ‘‘डबल म्यूटेंट’’ और ‘‘सुपर-स्प्रेडर’’ भीड़ को जिम्मेदार बताया। उसकी इस ख़बर का शीर्षक था-‘‘भारत में दुनिया के सबसे अधिक दैनिक कोविड मामले, रिकॉर्ड मौतें’’। इसी समाचार में अल जजीरा ने उल्लेख किया कि ‘‘बहुत सारे अस्पतालों ने बेड और दवा कम पड़ने की शिकायत की है, जबकि ऑक्सीजन की कमी ख़तरनाक स्तर तक पहुंच गई है।’’
लोग मरते रहे और पारिवारिक संबंध टूटते रहे। ‘‘कोविड प्रोटोकाल’’ में परिजनों को अनुमति नहीं थी के वे अंतिम संस्कार में शामिल हो सकें। अनेक अभागों के तो परिजन उनकी अस्थियां संचित करने भी नहीं पहुंचे। मध्यप्रदेश के सागर मुख्यालय में ही एक शवदाह स्थल पर अस्थियों के दस-बारह थैले विसर्जन की प्रतीक्षा में सप्ताह भर से अधिक समय से कीलों पर लटके रहे। अंततः नगरनिगम ने उन्हें विसर्जित कराया। साथ ही कई स्वयं सेवक इसके लिए आगे आए। आश्चर्य तो यह है कि इस त्रासद स्थिति से गुज़रते हुए भी हम सबक नहीं ले रहे हैं। वैसे एक विसंगति भी इस दौरान सामने आई। समाचारपत्रों में कई ऐसी सत्य घटनाएं प्रकाशित हुईं जिनमें उल्लेख था कि निजी अस्पतालों में कोरोना संक्रमित मरीज को उनके परिजन अस्पताल में भी साथ रह कर अटेंड करते रहे। जबकि सरकारी अस्पतालों एवं मेडिकल काॅलेजों में मरीज के पास पहुंच पाना उनके परिजन के लिए प्रतिबंधित था। एक गंभीर आपदा में ये दोहरा मापदण्ड कैसे लागू होता रहा?

सरकार विदेशी मीडिया के साथ आंकड़ों की सांप-सीढ़ी खेलने में इतनी रम गई है कि उसे आगे मिलने वाले सांपों को भी अनुमान नहीं लग पा रहा है। यदि विदेशी मीडिया झूठे आंकड़ें दे रहा है तो भी सरकारी व्यवस्थाओं को इतनी दुरुस्त हो जाना चाहिए कि भविष्य में जनहानि कंे आंकड़े कम से कम रहें। बारात आने पर कुंआ खोदने वाली कहावत चरितार्थ होते देखी है इन गुजरे दिनों में। आॅक्सीजन की कमी से देश कराहता रहा। अभी भी अनेक स्थानों पर आॅक्सीजन यूनिट पूरी तरह से बन कर तैयार नहीं हुई है। अनलाॅक की ओर बढ़ते समय आगे आने वाले ख़तरों की पूर्व तैयारी के बारे में विश्वासपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस दूसरी लहर में बेड की कमी, वेंटिलेटर की कमी, आॅक्सीजन की कमी, दवाओं की कमी और स्टाफ की कमी झेल चुके हैं। विडम्बना यह कि कोरोना संक्रमितों के आंकड़े कथित तौर पर घटने से पहले ही उन संविदा चिकित्सकों को अस्पतालों से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया जो जान हथेली पर ले कर अपना काम करते रहे। अस्पतालों में बेड भी कम कर दिए गए। अब से आ बैल मार मुझे नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? लेकिन बात तो यही है न कि उन्हें मालूम है कि बैल उन्हें नहीं आमजनता को मारेगा। लोग मरेंगे और आंकड़ों में तब्दील होते जाएंगे। इस तरह सांपों से बेख़बर हो कर चलता रहेगा आंकड़ों की साप-सीढ़ी का खेल। जबकि अभी भी समय है कि तीसरी लहर की भयावहता को रोकने के ईमानदार उपाय किए जा सकते हैं।
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Tuesday, June 1, 2021

पुस्तक समीक्षा | ‘उसकी आकर बातों में’ : कोमल भावनाओं का खूबसूरत गुलदस्ता | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 01.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्य संग्रह "उसकी आकर बातों में" की  पुस्तक समीक्षा... 


पुस्तक समीक्षा
‘उसकी आकर बातों में’ : कोमल भावनाओं का खूबसूरत गुलदस्ता
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - उसकी आकर बातों में (गजल संग्रह)
कवि   - कुमार सागर
प्रकाशक - बुक रिवर्स, डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू बुक रिवर्स डॉट कॉम
मूल्य - रुपए 199/-
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किसी भी काव्य में दो पक्ष महत्वपूर्ण होते हैं- भाव पक्ष और कला पक्ष। इन दोनों का संतुलन काव्य प्रस्तुति को सुंदर बना देता है। लेकिन काव्य भावना प्रधान अभिव्यक्ति होती है अतः इसे कलापक्ष से अधिक भाव पक्ष प्रभावी बनाता है। भावना की कमी वाला काव्य पाठकों एवं श्रोताओं से सीधा संवाद नहीं कर सकता है। कहने का आशय है कि काव्य का आकलन करते समय उसमें निहित भावनात्मकता को आधार बनाया जाना चाहिए। जैसे आचार्य विश्वनाथ ने रस को ही काव्य का प्रमुख तत्त्व मानते हुए कहा है- ‘वाक्यरसात्मकंकाव्यम्’ अर्थात् रस से पूर्ण वाक्य ही काव्य है। अतः जहां रस है वहां भावनाएं प्रमुख स्थान पर होंगी। ऐसा ही भावना प्रधान काव्य संग्रह है कवि कुमार सागर का, जिसका नाम है-‘‘उसकी आ कर बातों में"। संग्रह की भूमिका लिखते हुए सुविख्यात कवयित्री डाॅ. वर्षा सिंह ने कुमार सागर के इस संग्रह के बारे में लिखा है-‘‘पुष्पेंद्र दुबे हिन्दी साहित्य जगत में एक नवोदित कवि के रूप में अपना स्थान बना चुके हैं। वे ग़ज़ल भी लिखते हैं और गीत भी। उनकी काव्य रचनाएं खड़ी बोली के साथ ही बुंदेली बोली में भी रहती हैं। उनकी कविताओं का भाव पक्ष कला पक्ष की अपेक्षा अधिक प्रभावी है। उनके भाव पक्ष में कच्ची माटी सा सोंधापन है। एक युवा स्पंदन की तरह पुष्पेंद्र दुबे की काव्य पंक्तियां स्पंदित होती हैं।’’
‘‘उसकी आ कर बातों में’’ काव्य शैलियों की विविधता है और हिन्दी और बुंदेली दोनों में काव्य रचनाएं हैं। इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है, इनकी सहजता। कवि कुमार सागर अपनी भावनाओं को बिना किसी आडम्बर के सीधे, सहज शब्दों में अभिव्यक्त कर देते हैं। उदाहरण के लिए उनकी यह रचना देखें -

उसकी अगर बातों में नींद है  गायब रातों में
प्यार तो चुपके होता है तू क्यों पगले रोता है
हंस करके ही जीना है हंस कर आंसू पीना है
मैं तो जानूं ऐसी बात, दिल  टूटे  आघातों में

कवि ने प्रेम के उस कोमल पक्ष को बड़े ही सुंदर ढंग से सामने रखा है कि जब एक प्रेमी प्रेम का संकेत देने का आग्रह करता है ताकि वह प्रेम के प्रति आश्वस्त हो सके। इन चार पंक्तियों में आग्रह के सहजता का प्रभाव देखिए -

आओ जरा किनारे में
कुछ सोचो मेरे बारे में
मैं इसीलिए तो आता हूं
कुछ कह दो जरा इशारे में

विडम्बना यह है कि समाज प्रेम की मुखरता को अनुमति नहीं देता है और उसकी प्रेममार्ग में बाधा पहुंचाने की प्रवृत्ति होती है। समाज के भय से कई बार प्रेमीजन में अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे ही एक प्रेमी जोड़े की भावना को व्यक्त करते हुए कुमार सागर खूबसूरत पंक्तियां रचते हैं-

प्यार की जब से सबको खबर हो गई
मैं इधर हो गया, वो उधर हो गई
मेरे दिल को है चाहत तेरे प्यार की
प्यार में जीत की, जीत में हार की
जीत कर दिल मेरा, तू किधर हो गई

इस काव्य संग्रह की प्रत्येक कविता आंतरिक काव्य सौंदर्य से प्रतिध्वनित है। इन कविताओं में सांस्कृतिक एवं शाश्वत जीवन मूल्यों में प्रगाढ़ आस्था के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं का उत्तम प्रवाह दिखाई देता है। जीवन में ऐसे पल आते हैं जब व्यक्ति उलझन में पड़ जाता है कि क्या ग़लत है और क्या सही है? यह स्थिति प्रायः अकेलेपन की उपज होती है-

उनके जीवन में अक्सर है तनहाइयां
कुछ तो भ्रम है कि वे तो अकेले पड़े
हर जगह खाई है वे किधर  हैं खड़े
जाने क्या हो  उनको  पता ही नहीं
वो  है  छोटे,   मुसीबत  बड़े से बड़े
जिनकी दिखती नहीं अब तो परछाइयां

कुमार सागर की काव्य रचनाओं में सहजता, निश्छलता के साथ भावों का उन्मुक्त प्रवाह है जिसमें प्रेम है तो साथ ही प्रेमासिक्त उलाहना भी है। ये पंक्तियां देखिए -

छेड़ती तू सताती नहीं आजकल
नींद मुझको आती नहीं आजकल
याद आते हैं मौसम सुहाने सभी
गीत किस्से कहानी तराने सभी
एक पल के लिए भूल जाता हूं सब
भूल जाता हूं अपने बेगाने सभी
तू पलट कर बुलाती नहीं आजकल

कवि ने मात्र सांसारिक प्रेम पर कविताएं नहीं रचीं हैं वरन ईश्वर के प्रति प्रेम को भी भवाभिव्यक्ति दी है। इसीलिए संग्रह में भक्ति पर गीत भी है जैसे यह गीत देखिए-

बिन भजे राम का नाम कि तरना मुश्किल है
मन लगन लगाओ राम, कि तरना मुश्किल है
नाहक इधर-उधर मत डोलो
मुंह से राम नाम तो बोलो
जय बोलो अयोध्या धाम कि तरना मुश्किल है

कुमार सागर के भक्ति गीतों में जहां पर्याप्त गेयता है, वहीं धार्मिक मूल्यों की दार्शनिकता भी है। ‘‘मन को कंस हमें मरवाने’’ जैसी पंक्ति प्रत्येक मनुष्य को उसके भीतर मौजूद दुष्ट प्रवृत्तियों को नष्ट करने का आग्रह करती है। 

हमखो तुम खो मिल के जाने। मथुरा  नंदगांव बरसाने।।
हमखो तुम खो मिल के जाने। गोकुल नंदगांव बरसाने।।
मथुरा जाने दर्शन करने जहां जन्मे मदन मुरारी
छैल छबिलों  नटवर  नागर  गिरधारी बनवारी
मन को कंस हमें मरवाने।

कवि चाहे किसी भी भाषा में कविताएं लिखे किन्तु उसे तृप्ति तभी मिलती है जब वह अपनी मातृभाषा और मातृबोली में सृजन करता है। कवि कुमार सागर ने बुंदेली में भी काव्य रचनाएं लिखी है जिनमें माटी का सोंधापन साफ महसूस किया जा सकता है। एक उदाहरण देखिए-
न्यारो रोज जला के चूला
घर में खेलत रये घरघूला
बाप-मताई कौन गली के
सास-ससुर सब कोई
ससुरारे गए जितने ज्यादा
इतनई इज्जत खोई
जा-जा काये झूल रहे झूला
घर में खेलत रये घरघूला

यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि युवा कवि कुमार सागर का यह प्रथम काव्य-संग्रह सहजता और सरलता के पक्षधर पाठकों को रुचिकर लगेगा। अत्यंत ही सरल एवं सुबोध भाषा में कही गई ये काव्य रचनाएं जितनी सहजता से कही गई हैं, पाठकों के मन में भी उतनी ही सहजता से उतर जाती हैं। संग्रह की कविताओं को देखते हुए कवि के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
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