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My Editorials - Dr Sharad Singh
Wednesday, June 30, 2021
चर्चा प्लस | बड़े और छोटे पर्दे के बेताज बादशाह सईद मिर्जा | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, June 29, 2021
पुस्तक समीक्षा | खेल पत्रकारिता को समझने के लिए जरूरी है यह पुस्तक पढ़ना | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
Wednesday, June 23, 2021
चर्चा प्लस | कबीर की सहज समाधि जीवनपद्धति | डाॅ शरद सिंह
चर्चा प्लस
कबीर की सहज समाधि जीवनपद्धति
- डाॅ शरद सिंह
कबीर की प्रासंगिकता कोई नकार नहीं सकता है। कबीर की वाणी कालजयी वाणी है। उन्होंने जिस मानव स्वाभिमान और निडरता का साथ देते हुए, धार्मिक आडंबर ओढ़ने वालों को ललकारा, वैसा साहस आज भी दिखाई नहीं देता है। कबीर ने सहजसमाधि के रूप में जीने का आसान तरीका बताया जो आज भी प्रासंगिक है।
कबीर का जन्म लहरतारा के पास जुलाहा परिवार में सन 1398 में जेष्ठ पूर्णिमा को माना जाता है। वे संत रामानंद के शिष्य बने और ज्ञान का अलख जगाया। कबीर ने साधुक्कड़ी भाषा में किसी भी संप्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किए बिना खरी बात कही। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्तिपूजा आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर ने हिंदू मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर के विचार और उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावनअक्षरी और उलटबांसी में मिलते हैं।
कबीर ने समाज के साथ-साथ आत्म-उत्थान पर भी बल दिया। आत्म-उत्थान के लिए उन्होंने समाधि के उस चरण को उत्तम ठहराया जिसमें मनुष्य अपने अंतर्मन में झांक सके और अपने अंतर्मन को भलीभांति समझा सके। कबीर ने सहजयान की बहुत प्रशंसा की और इसे सबसे उत्तम कहा। कबीर के अनुसार सहज समाधि की अवस्था दुख-सुख से परे परम सुखदायक अवस्था है। जो इस समाधि में रम जाता है वह अपने नेत्रों से अलख को देख लेता है। जो गुरु इस सहज समाधि की शिक्षा देता है वह सर्वोत्तम गुरु होता है-
संतो, सहज समाधि भली
सुख-दुख के इक परे परम,
सुख तेहि में रहा समाई ।।
कबीर ने सहज समाधि की विशेषताओं को विस्तार से समझाते हुए कहा है कि इस समाधि को प्राप्त करने के लिए न तो शरीर को तप की आग में तपाने की आवश्यकता होती है और कामवासना में लिप्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होने की। यह समाधि अवस्था उस मधुर अनुभव की भांति है जो इसे प्राप्त करता है, तो वहीं इसकी मधुरता को जान पाता है -
मीठा सो जो सहेजैं पावा।
अति कलेस थैं करूं कहावा।।
कबीर इस तथ्य को स्पष्ट किया कि वस्तुतः सहजसमाधि का नाम तो सभी लेते हैं किंतु उसके बारे में जानते कम ही लोग हैं अथवा सहज समाधि को लेकर भ्रमित रहते हैं। यह तो सामाजिक व्यवस्था है जिसमें हरि की सहज प्राप्ति हो जाती है। कबीर सहज समाधि को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह कोई आडंबर युक्त क्रिया नहीं है अपितु सहज भाव से जीवनयापन करते हुए राम अथवा हरि में लीन हो जाना ही सहज समाधि है।
सहज-सहज सब ही कहैं,
सहज न चीन्हैं कोई ।
जिन सहजै हरिजी मिलैं
सहज कहीजैं सोई ।।
सहज समाधि के लिए न तो ग्रंथों की आवश्यकता है और न किसी पूजा पाठ की। इसके लिए बस इतना करना पर्याप्त है कि विषय-वासना का त्याग, संतान, धन, पत्नी और आसक्ति से मन को हटा कर ष्रामष् के प्रति समर्पित कर दिया जाए। जो भी ऐसा कर लेता है वह सहजसमाधि में प्रविष्ट हो जाता है। कबीर कहते हैं कि यह तो बहुत सरल है-
आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं
तनिक कष्ट नहीं धारों ।
.खुले नैनी पहिचानौं हंसि हंसि
सुंदर रूप निहारौं ।।
इस सहज समाधि की अवस्था को पाकर साधक सहज सुख पा लेता है तथा सांसारिक दुखों के सामने अविचल खड़ा रह सकता है। वह न तो स्वयं किसी से डरता है और न किसी को डराता है। यह तो ब्रह्मज्ञान है जो मनुष्य के भीतर विवेक को स्थापित करता है, धैर्य धारण करना सिखाता है और युगों युगों के विश्राम का सुख देता है -
अब मैं पाईबो रे, पाइबौ ब्रह्मगियान ।
सहज समाधें सुख मैं रहिबौ
कोटि कलप विश्राम ।।
कबीर कहते हैं कि जब मन ष्रामष् में लीन हो जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है, चित्त एकाग्र हो जाता है - उस समय मन स्वयं ही भोग की ओर से हटकर योग में प्रवृत्त होने लगता है। यह साधक की साधना की चरम स्थिति ही तो है जिसमें उसे दोनों लोकों का सुख प्राप्त होने लगता है -
एक जुगति एक मिलै, किंवा जोग का भोग ।
इन दून्यूं फल पाइए, राम नाम सिद्ध जोग ।।
सहज समाधि के बारे में कबीर के विचार सिद्धों के सहजयान संबंधी विचार के बहुत समीप हैं। सिद्धों के समय सहज भावना उत्तम और सरल मानी जाती थी। सिद्ध भी यही मानते थे कि घर बार को त्याग कर साधु होना व्यर्थ है यदि त्याग करना है तो सभी प्रकार के आडंबरों का त्याग करना चाहिए। सिद्ध संत गोरखनाथ ने भी सहज जीवन के बारे में यही कहा है कि ष्हंसना, खेलना और मस्त रहना चाहिए किंतु काम और क्रोध का साथ नहीं करना चाहिए। ऐसा ही हंसना, खेलना और गीत गाना चाहिए किंतु अपने चित्त की दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिए। साथ ही सदा ध्यान लगाना और ब्रह्म ज्ञान की चर्चा करनी चाहिए।ष्
हंसीबा खेलिबा रहिबा रंग,
काम क्रोध न करिबा संग ।
हंसिबा खेलिबा गइबा गीत
दिढ करि राखि अपना चीत ।।
हंसीबा खेलिबा धरिबा ध्यान
अहनिस कथिबा ब्रह्म गियान ।
हंसै खेलै न करै मन भंग
ते निहचल सदा नाथ के संग।।
सिद्धों और नाथों की सहज ज्ञान परंपरा की जो प्रवृत्ति कबीर तक पहुंची उसे कबीर ने आत्मसात किया और उसे सहज समाधि के रूप में और अधिक सरलीकृत किया। जिससे लोग सुगमता पूर्वक उसे अपना सकें। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन का यह कथन समीचीन है कि ष्यद्यपि कबीर के समय तक एक भी सहजयानी नहीं रह गया था फिर भी इन्हीं (पूर्ववर्ती) से कबीर तक सहज शब्द पहुंचा था। जिस प्रकार सिद्ध सहज ध्यान और प्रवज्या से रहित गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए सहज जीवन की प्रशंसा करते हैं वैसे ही कबीर साधु वेश से रहित घर में रहकर जीवन साधना में लीन थे।ष्
संसार में रहकर सांसारिकता के अवगुणों में न डूबना ही सहजसमाधि का मूलमंत्र कहा जा सकता है। सिद्धों के इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कबीर ने कहा है -
साधु ! सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी
दिन-दिन अधिक चली
जंह-जंह डोलों सो परिकरमा
जो कछु करौं सो सेवा
जब सोवौं तब करो दंडवत
पूजौं और न देवा
कहौं तो नाम सुनौं सो सुमिरन
खावौं पियौं सो पूजा
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं
भाव मिटावौं दूजा
कबीर ने अपने जीवन में संयम, चिंतन, मनन एवं साधना को अपनाया। उन्होंने सदैव भक्ति का सहज मार्ग ही सुझाया। यह वही सहज मार्ग था जो सिद्धों-नाथों के बाद आडम्बरों की भीड़ में लगभग खो गया था किंतु कबीर ने उसे पुनर्स्थापित किया तथा शांति एवं धैर्यवान जीवन जीने का रास्ता दिखाया।
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(सागर दिनकर, 23.06.2021)
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Tuesday, June 22, 2021
पुस्तक समीक्षा | स्त्री-अतीत की गौरव गाथा: ब्रह्मवादिनी | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित
मित्रो, प्रस्तुत है आज 22.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री डॉ. सरोज गुप्ता के काव्य संग्रह "ब्रह्मवादिनी" की पुस्तक समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्री-अतीत की गौरव गाथा: ब्रह्मवादिनी
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - ब्रह्मवादिनी
कवयित्री - डाॅ. सरोज गुप्ता
प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, वी-508, गली नं. 17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य - रुपए 595/-
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प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को समाज में जो उच्चस्थान दिया गया था उसका वर्तमान संदर्भ में अनुमान लगाना कठिन है। विशेष रूप से भारतीय इतिहास में जो आक्रांताओं का युग आया उसने स्त्रियों की गौरवशाली स्थिति को पददलित कर दिया। वेदों में नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान किया गया है। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का! सुन्दर वर्णन पाया जाता है। वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय, वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख, समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा आदि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं। वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। उसे सदा विजयिनी कहा गया है। उनके हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। वैदिक काल में नारी पठन-पाठन से लेकर युद्धक्षेत्र में भी जाती थी। जैसे रानी कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार था। अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा थीं- अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति-दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि। अतीत की इसी गौरवशाली परम्परा को काव्य रूप में प्रस्तुत किया है कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने अपने काव्य संग्रह ‘‘ब्रह्मवादिनी’’ के रूप में। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें उन स्त्रियों के बारे में काव्यात्मक जानकारी दी गई है जो अपने ज्ञान एवं कौशल के कारण ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं कहलाईं।
‘‘ब्रह्मवादिनी’’ काव्य संग्रह में इस संग्रह के अवतरण की भी एक समृद्ध परम्परा देखी जा सकती है। संग्रह की ‘‘पुरोचना’’ में आचार्य पं. दुर्गाचरण शुक्ल ने इस काव्य संग्रह की मूल कथाओं के संदर्भ को स्पष्ट करते हुए मानो गुरु-शिष्य परम्परा की एक नई प्रस्तावना लिखी है। वे लिखते हैं कि ‘‘ब्रह्मवादिनी दृष्टमंत्रभाष्य के प्रणयन के समय मन में यह प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हुई थी कि इस ग्रंथ को आज की प्रगतिशील नई पीढ़ी की महिलाएं पढ़ें, समझें, तो ही मैं अपने को कृत कार्य मानूंगा। ग्रंथ लेखन की ये चाह आज पूरी हो रही है। मेरी कनिष्ठा शिष्या डाॅ. सरोज ने मेरे इस ग्रंथ को पढ़ा है, गुना है। यही नहीं ब्रह्मवादिनियों के दिव्य विचारों ने चित्त पर जो प्रभाव डाला है, उसे मुक्त रूप से कविता में अभिव्यंजित किया है।’’ अर्थात् इस काव्य संग्रह में गुरु के ज्ञान को आधार बना कर उनकी गुणी शिष्या ने काव्यात्मक संरचना बुनी है। वर्तमान समय में यह अपने आप में एक सुंदर अनूठा उदाहरण है कि गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार भी निभाई जा सकती है। इसीलिए संस्कृतिविद डाॅ. श्याम सुंदर दुबे ने इसे ‘‘एक महनीय कृति’’ कहा है।
‘‘ब्रह्मवादिनी’’ में लोपामुद्रा, रोमशा, विश्ववारा आत्रेयी, अपाला अत्रिसुता, शश्वती, नद्यः ऋषिका, यमी वैवश्वती, वसुक्रपत्नी, काक्षीवती घोषा, अगस्त्यस्वसा, दाक्षयणी अदितिः, सूर्या सावित्री, उर्वशी, दक्षिणा प्राजापत्या, सरमा देवशुनी, जुहूः ब्रह्मजाया, वाग आम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, गोधा, इंद्राणी, श्रद्धा कामायनी, देवजामयःइंद्रमातरः, पौलोमी शची, सार्पराज्ञी, निषद उपनिषद, लाक्षा, मेधा तथा श्री नामक ऋषिकाओं का सुंदर विवरण दिया गया है। वस्तुतः काव्य संग्रह में संग्रहीत प्रत्येक कविता ब्रह्मवादिनियों से साक्षात्कार कराती है। ऋषिका लोपामुद्रा के व्यक्तित्व वैभव को लक्षित करते हुए कवयित्री भावपूर्ण शब्दों में लिखती है-
यज्ञ पूजन करते-करते मन की आंखों ने
अगस्त्य प्रिया लोपामुद्रा का दर्शन किया।
हम सबकी आराध्या, पूजनीया, प्रातः स्मरणीय
भारतीय वैदिक नारी की अलौकिक छवि लिए
असाधारण व्यक्तित्व की धनी, तेजस्वी मनस्वी
निजत्व का लोप करने वाली अनुपम सृजन शक्ति
आलापन में गुरु महर्षि दुर्वासा से दीक्षित
श्रीविद्या को साधने वाली, पराशक्ति स्वयंसिद्धा
विश्वासमयी ऋषिका लोपामुद्रा का दर्शन किया।
‘‘नद्यः ऋषिका’’ कविता में इस तथ्य का पता चलता है कि जलप्रवाहिनी नदियों को भी ऋषिका स्वरूप माना जाता था तथा ज्ञान का प्रवाह बनाए रखने वाली ऋषिका को नदी की भांति प्रवाहमान माना जाता था। इस कविता की यह पंक्तियां देखिए जिनमें नद्यः ऋषिका उद्घोष करती है -
मैं नदी हूं
द्युलोक अंतरिक्ष से धरती तक
प्राणशिराओं को अपने में समेटे
लहरों, धाराओं से वत्सलता छलकाती
अनन्त करुणा सहेजे, अहर्निश बह रही हूं
मैं नदी हूं।
इसी संग्रह में ऋषिका सरमा देवशुनी का काव्यात्म विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसमें ऋषिका सरमा देवशुनी के अस्तित्व की विशेषताएं बड़े सुंदर ढंग से बताई गई हैं। ये पंक्तियां परिचयात्मक होते हुए भी प्रवाहपूर्ण एवं लयात्मक हैं-
सरमा देवशुनी साक्षात् वाक रूपा दिव्यप्रकायामयी
सूर्यरश्मि, ज्ञान शक्ति खोजती अमरत्व की देवी।
पणि मेघों ने असुर रूप में, प्रकाश किया आच्छादित
वाक् सरस्वती वृहस्पति की गौएं, मेघपणियों ने कर ली लुप्त
इन्द्र लोक में अंधकार से मच गई खलबली
अंधकार ही अंधकार से सर्वत्र आसुरी वृत्ति बढ़ी
श्यामल मेघों के पीछे बाधाएं हरती
सरमा देवशुनी दिवयप्रकाशमयी।
कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता की संस्कृतनिष्ठ भाषाई पकड़ ने इस संग्रह की कविताओं को अर्थवान बना दिया है। भाषाई सौष्ठव का आनंद लेने वाले पाठकों के लिए यह काव्य संग्रह पूर्ण उपादेय है। संग्रह की कविता ‘‘ऋषिका रात्रि भारद्वाजी’’ में शब्दों का चयन विशेष आकर्षित करता है-
देदीप्यमान, प्रकाशवती विश्वाःश्रियाः
सृष्टि के मूल की रात्रिरूप महाबीज
विशिष्ट नक्षत्र, रूपनेत्रों से सब ओर झांकती
तमरूप ओजस्वी ओढ़ती सारी चमक
जीवरात्रि, ईशरात्रि, महाप्रलयकालरात्रि
सृष्टि की अव्यक्तशक्ति
ब्रह्ममयी एकार्णव चितशक्ति
ऋषिका रात्रि भारद्वाजी।
यह काव्य संग्रह स्त्री-अतीत की गौरवमयी गाथा कहता हुआ भारतीय संस्कृति और उसमें स्त्री के स्थान को समझने का प्रबल आग्रह करता है। गहरे सामाजिक सरोकारों के साथ ऋषिकाओं के जीवन को बड़े प्रभावी ढंग से और सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है। इसीलिए इस संग्रह की कविताओं में भी प्राचीन वैदिक काव्य की ध्वन्यांत्मकता स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने अपने मन के भावों को कागज पर उकेरते हुए जो अंतः सलिला प्रवाहित की है वह पठनीय एवं संग्रहणीय है। यह काव्यसंग्रह स्वतः ही पाठकों की बुकशेल्फ में जगह बनाने सक्षम है। भारतीय स्त्री के गौरवमयी अतीत में रुचि रखने वाले पाठकों द्वारा इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
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Saturday, June 19, 2021
श्री माधवराव सप्रे जन्मदिवस 2021
Wednesday, June 16, 2021
चर्चा प्लस | एक गंभीर कार्य है स्त्री-अध्ययन | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, June 15, 2021
पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की सुंदर प्रस्तुति है ‘‘शब्दों की निर्झरिणी’’ में | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित
Sunday, June 13, 2021
व्यंग्य | चलो ‘चिन्ता दिवस’ मनाएं | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित
Friday, June 11, 2021
बुंदेली व्यंग्य | ब्याओ की दावतें | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका समाचारपत्र में प्रकाशित
Wednesday, June 9, 2021
चर्चा प्लस | महात्मा गांधी की दृष्टि में कला और सौंदर्य | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, June 8, 2021
पुस्तक समीक्षा | ‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’: अनुभव से उपजा सृजन समीक्षक | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित
Wednesday, June 2, 2021
चर्चा प्लस | मौत के आंकड़ों की सांप-सीढ़ी में सांपों का ख़तरा | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, June 1, 2021
पुस्तक समीक्षा | ‘उसकी आकर बातों में’ : कोमल भावनाओं का खूबसूरत गुलदस्ता | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 01.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्य संग्रह "उसकी आकर बातों में" की पुस्तक समीक्षा...
पुस्तक समीक्षा
‘उसकी आकर बातों में’ : कोमल भावनाओं का खूबसूरत गुलदस्ता
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कवि - कुमार सागर
प्रकाशक - बुक रिवर्स, डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू बुक रिवर्स डॉट कॉम
मूल्य - रुपए 199/-
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किसी भी काव्य में दो पक्ष महत्वपूर्ण होते हैं- भाव पक्ष और कला पक्ष। इन दोनों का संतुलन काव्य प्रस्तुति को सुंदर बना देता है। लेकिन काव्य भावना प्रधान अभिव्यक्ति होती है अतः इसे कलापक्ष से अधिक भाव पक्ष प्रभावी बनाता है। भावना की कमी वाला काव्य पाठकों एवं श्रोताओं से सीधा संवाद नहीं कर सकता है। कहने का आशय है कि काव्य का आकलन करते समय उसमें निहित भावनात्मकता को आधार बनाया जाना चाहिए। जैसे आचार्य विश्वनाथ ने रस को ही काव्य का प्रमुख तत्त्व मानते हुए कहा है- ‘वाक्यरसात्मकंकाव्यम्’ अर्थात् रस से पूर्ण वाक्य ही काव्य है। अतः जहां रस है वहां भावनाएं प्रमुख स्थान पर होंगी। ऐसा ही भावना प्रधान काव्य संग्रह है कवि कुमार सागर का, जिसका नाम है-‘‘उसकी आ कर बातों में"। संग्रह की भूमिका लिखते हुए सुविख्यात कवयित्री डाॅ. वर्षा सिंह ने कुमार सागर के इस संग्रह के बारे में लिखा है-‘‘पुष्पेंद्र दुबे हिन्दी साहित्य जगत में एक नवोदित कवि के रूप में अपना स्थान बना चुके हैं। वे ग़ज़ल भी लिखते हैं और गीत भी। उनकी काव्य रचनाएं खड़ी बोली के साथ ही बुंदेली बोली में भी रहती हैं। उनकी कविताओं का भाव पक्ष कला पक्ष की अपेक्षा अधिक प्रभावी है। उनके भाव पक्ष में कच्ची माटी सा सोंधापन है। एक युवा स्पंदन की तरह पुष्पेंद्र दुबे की काव्य पंक्तियां स्पंदित होती हैं।’’
‘‘उसकी आ कर बातों में’’ काव्य शैलियों की विविधता है और हिन्दी और बुंदेली दोनों में काव्य रचनाएं हैं। इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है, इनकी सहजता। कवि कुमार सागर अपनी भावनाओं को बिना किसी आडम्बर के सीधे, सहज शब्दों में अभिव्यक्त कर देते हैं। उदाहरण के लिए उनकी यह रचना देखें -
उसकी अगर बातों में नींद है गायब रातों में
प्यार तो चुपके होता है तू क्यों पगले रोता है
हंस करके ही जीना है हंस कर आंसू पीना है
मैं तो जानूं ऐसी बात, दिल टूटे आघातों में
कवि ने प्रेम के उस कोमल पक्ष को बड़े ही सुंदर ढंग से सामने रखा है कि जब एक प्रेमी प्रेम का संकेत देने का आग्रह करता है ताकि वह प्रेम के प्रति आश्वस्त हो सके। इन चार पंक्तियों में आग्रह के सहजता का प्रभाव देखिए -
आओ जरा किनारे में
कुछ सोचो मेरे बारे में
मैं इसीलिए तो आता हूं
कुछ कह दो जरा इशारे में
विडम्बना यह है कि समाज प्रेम की मुखरता को अनुमति नहीं देता है और उसकी प्रेममार्ग में बाधा पहुंचाने की प्रवृत्ति होती है। समाज के भय से कई बार प्रेमीजन में अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे ही एक प्रेमी जोड़े की भावना को व्यक्त करते हुए कुमार सागर खूबसूरत पंक्तियां रचते हैं-
प्यार की जब से सबको खबर हो गई
मैं इधर हो गया, वो उधर हो गई
मेरे दिल को है चाहत तेरे प्यार की
प्यार में जीत की, जीत में हार की
जीत कर दिल मेरा, तू किधर हो गई
इस काव्य संग्रह की प्रत्येक कविता आंतरिक काव्य सौंदर्य से प्रतिध्वनित है। इन कविताओं में सांस्कृतिक एवं शाश्वत जीवन मूल्यों में प्रगाढ़ आस्था के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं का उत्तम प्रवाह दिखाई देता है। जीवन में ऐसे पल आते हैं जब व्यक्ति उलझन में पड़ जाता है कि क्या ग़लत है और क्या सही है? यह स्थिति प्रायः अकेलेपन की उपज होती है-
उनके जीवन में अक्सर है तनहाइयां
कुछ तो भ्रम है कि वे तो अकेले पड़े
हर जगह खाई है वे किधर हैं खड़े
जाने क्या हो उनको पता ही नहीं
वो है छोटे, मुसीबत बड़े से बड़े
जिनकी दिखती नहीं अब तो परछाइयां
कुमार सागर की काव्य रचनाओं में सहजता, निश्छलता के साथ भावों का उन्मुक्त प्रवाह है जिसमें प्रेम है तो साथ ही प्रेमासिक्त उलाहना भी है। ये पंक्तियां देखिए -
छेड़ती तू सताती नहीं आजकल
नींद मुझको आती नहीं आजकल
याद आते हैं मौसम सुहाने सभी
गीत किस्से कहानी तराने सभी
एक पल के लिए भूल जाता हूं सब
भूल जाता हूं अपने बेगाने सभी
तू पलट कर बुलाती नहीं आजकल
कवि ने मात्र सांसारिक प्रेम पर कविताएं नहीं रचीं हैं वरन ईश्वर के प्रति प्रेम को भी भवाभिव्यक्ति दी है। इसीलिए संग्रह में भक्ति पर गीत भी है जैसे यह गीत देखिए-
बिन भजे राम का नाम कि तरना मुश्किल है
मन लगन लगाओ राम, कि तरना मुश्किल है
नाहक इधर-उधर मत डोलो
मुंह से राम नाम तो बोलो
जय बोलो अयोध्या धाम कि तरना मुश्किल है
कुमार सागर के भक्ति गीतों में जहां पर्याप्त गेयता है, वहीं धार्मिक मूल्यों की दार्शनिकता भी है। ‘‘मन को कंस हमें मरवाने’’ जैसी पंक्ति प्रत्येक मनुष्य को उसके भीतर मौजूद दुष्ट प्रवृत्तियों को नष्ट करने का आग्रह करती है।
हमखो तुम खो मिल के जाने। मथुरा नंदगांव बरसाने।।
हमखो तुम खो मिल के जाने। गोकुल नंदगांव बरसाने।।
मथुरा जाने दर्शन करने जहां जन्मे मदन मुरारी
छैल छबिलों नटवर नागर गिरधारी बनवारी
मन को कंस हमें मरवाने।
कवि चाहे किसी भी भाषा में कविताएं लिखे किन्तु उसे तृप्ति तभी मिलती है जब वह अपनी मातृभाषा और मातृबोली में सृजन करता है। कवि कुमार सागर ने बुंदेली में भी काव्य रचनाएं लिखी है जिनमें माटी का सोंधापन साफ महसूस किया जा सकता है। एक उदाहरण देखिए-
न्यारो रोज जला के चूला
घर में खेलत रये घरघूला
बाप-मताई कौन गली के
सास-ससुर सब कोई
ससुरारे गए जितने ज्यादा
इतनई इज्जत खोई
जा-जा काये झूल रहे झूला
घर में खेलत रये घरघूला
यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि युवा कवि कुमार सागर का यह प्रथम काव्य-संग्रह सहजता और सरलता के पक्षधर पाठकों को रुचिकर लगेगा। अत्यंत ही सरल एवं सुबोध भाषा में कही गई ये काव्य रचनाएं जितनी सहजता से कही गई हैं, पाठकों के मन में भी उतनी ही सहजता से उतर जाती हैं। संग्रह की कविताओं को देखते हुए कवि के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
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