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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, June 8, 2021

पुस्तक समीक्षा | ‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’: अनुभव से उपजा सृजन समीक्षक | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

आज 08.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्य संग्रह "गीत तुम्हारे स्वर मेरा है" की  पुस्तक समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’: अनुभव से उपजा सृजन
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - गीत तुम्हारे स्वर मेरा है (गीत संग्रह)
कवि    - निर्मल चंद निर्मल
प्रकाशक - एन.डी. पब्लिकेशन नई दिल्ली
मूल्य    - रुपए 250/-
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दीर्घ जीवन का अनुभव और सृजन की निरंतरता कवि को शून्य से समग्र की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है। ‘‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’’ वरिष्ठ कवि निर्मल चंद निर्मल की काव्य कृति है इसमें संग्रहीत रचनाओं के बारे में स्वयं कवि निर्मल ने लिखा है-‘‘मेरी इन रचनाओं में सभी रसों और भाव-भंगिमाओं का समावेश है। मैं तो प्रकृति और सामाजिक संतुलन का पक्षधर हूं। जो अच्छा लगा रचनाओं के माध्यम से उसकी प्रशंसा की और जो न भाया उसकी ओर  असहमति का इशारा किया। समाज को कैसा चलना चाहिए सब के पास अपनी बुद्धि है। सब स्वतंत्र है। हां, दुराग्रह से मनुष्य को परहेज होना चाहिए अन्यथा सामाजिक तानाबाना बिखराव की ओर अग्रसर होने लगता है। जरा सोचिए हमें इस संसार में कितने दिन रहना है। शेष अवधि प्रकृति की गोद में विश्राम की है ।’’ जीवन के प्रति इस प्रकार का बोध कवि से वह सृजन करवा देता है जिसकी कालजयी महत्ता रहती है। कवि निर्मल चंद निर्मल के अभी तक 20 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस 21वें काव्य संग्रह में उन्होंने जिन रचनाओं को भी पिरोया है वे विशेष महत्व रखती हैं। अनेक सम्मान से सम्मानित कवि निर्मल अपनी बातों को काव्य के माध्यम से बहुत ही सादगी के साथ प्रस्तुत करते हैं। वे अपनी जन्मभूमि के प्रति आगाध प्रेम रखते हैं। उनकी एक गीत हैं -‘‘शरीर यह मेरा सागर की मिट्टी’’। पंक्तियां देखिए-  
सागर की मिट्टी में जन्मा
है शरीर यह मेरा  
चकराघाट मनोरम स्थल
खेल कूद कर बड़ा हो गया
पता चला ना कब उठ करके
अपने पैरों खड़ा हो गया
बोध नहीं था अपनेपन का
मित्र मंडली सहज मिल गई
जहां हवाओं ने बहलाया
जीवन बगिया पूर्ण खिल गई
बढ़े कदम तक जाना मैंने
क्या है मेरा तेरा।

मनुष्य ने जब सभ्यता को अपनाया तो उसने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में शब्दों का विकास किया इस प्रकार शब्द मानव मन की मानव के विचारों की और मानव के संविधान की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गए। ‘‘शब्द महत्ता’’ शीर्षक गीत में कभी निर्मल ने शब्दों के महत्व को बहुत ही सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया है। यह पूरी रचना शब्दों को समर्पित है। इस गीत का एक अंश देखें-

शब्द हुआ करते हैं दर्पण अंतर्मन के।

शब्दों ने ही उद्गारों का भार संभाला
आपस के संबंधों को भी देखा भाला
कठिन धार होती इनकी प्रस्तर कट जाते
बुद्धि व विवेक से सुदृढ़ इनके नाते
होती है पहचान शब्द से गहराई की
मनुज-मनुज के संस्कार की चतुराई की
बहुरूपिया यदि शब्द ध्वनि कुछ और बोलती
एक शब्द के जाने कितने अर्थ खोलती
सधता है संसार चाहिए शब्द जतन के
शब्द हुआ करते हैं दर्पण अंतर्मन के।


संग्रह की गीतों से स्पष्ट है कि ये जीवन, समाज और आसपास घट रहे के प्रति गहरी दृष्टि रखते हैं और गहरा सरोकार भी। मीडिया, बाजारवाद आदि सब के प्रति कवि की निगाह है। इनकी शैली शोर मचाने वाली न होकर गम्भीर और चिंतन-प्रशस्त करने वाली है। वे अव्यवस्थाओं पर कटाक्ष करने के बदले व्यवस्थाओं में सुधार की गति को इंगित करते हैं-
भ्रष्टाचार  कहो  अथवा  कोई आचार कहो
मानव मन की  कमजोरी  हटते-हटते हटती है।
आदत को भी  लग  जाता है  समय भुलाने में
कुपथ पंथ से  हट कर  कुछ  अच्छाई लाने में
अभ्यासों का  चलन  बहुत  धीरे-धीरे रुकता है
नूतन राह स्वीकृति को, मन मुश्क़िल से झुकता है।
शुचिता का आधार हमें मिल जाता लेकिन
पूर्व चलन  की  परिपाटी  घटते-घटते घटती है।

कवि निर्मल चंद ‘निर्मल’ के गीत छीजती मनुष्यता और दरकती संवेदनशीलता की पड़ताल करती गीत है। जैसे ‘‘निकलें कैसे बाहर’’ शीर्षक गीत की पंक्तियां देखिए-
खांचों में ही फंसे हुए हम
निकलें कैसे बाहर।
जग ने जैसा समझा हमको
वैसे ही दिखते हैं
अंतर्मन को कौन समझता
बाह्य मूल्य बिकते हैं
छद्मवेश ही सारे जग में
होता रहा उजागर।

कवि कर्म होता है कि वह जीवन की परिस्थितियों को कोमलता से सामने रखे और चिंतन का मार्ग प्रशस्त करे। कवि ‘निर्मल’ इस कवि कर्म को बड़ी सुघड़ता से निभाते दिखाई देते हैं। वे अपनी गीत के माध्यम से समझाते हैं कि ‘साहस से लें काम’। इसी शीर्षक की यह गीत है-
हर मुश्क़िल विरक्ति पाएगी
साहस से लें काम।
साहस है जागीर हमारी
दिल ओछा क्यों करना
वीर बनो या कायर बन लो
होगा आखिर मरना
संकल्पों के आभूषण हों
दृढ़ता का हो नाम।

कवि के भावों में एक अनूठी ऊर्जा का संचार दिखाई देता है। यदि व्यक्ति में वैचारिक ऊर्जा हो तो आयु का बढ़ता हुआ प्रभाव भी उसे विचलित नहीं कर पाता है। इसलिए कवि ‘निर्मल’ उद्घोष करते हुए कहते हैं-‘मैं वृद्ध नहीं हूं’’।
उम्र बड़ी है
वृद्ध नहीं हूं।
भावों में अब भी तड़पन है
जगह-जगह दिखती अड़चन है
जिनको लोग बुद्धि से नापें
उनमें भी लक्षित बचपन है
जाप किया पर
सिद्ध नहीं हूं।

‘‘गीत तुम्हारे स्वर मेरा है’’ संग्रह की सभी गीतों में एक सुंदर प्रवाह है, जो काव्यपाठ-सा आनंद देता है। अपनी वरिष्ठता के अनुरूप कवि निर्मल चंद निर्मल का यह संग्रह परिपक्व गीतों से परिपूर्ण है, सतत पठनीय है।  
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2 comments:

  1. कवि कर्म होता है कि वह जीवन की परिस्थितियों को कोमलता से सामने रखे और चिंतन का मार्ग प्रशस्त करे। कवि निर्मल चंद की पुस्तक, गीत तुम्हारे स्वर मेरा है, की कविताएं पढ़कर वाकई ऐसा ही प्रतीत होता हैं, सुंदर समीक्षा !

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    1. हार्दिक धन्यवाद अनिता जी 🙏

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