मौत के आंकड़ों की सांप-सीढ़ी में सांपों का ख़तरा
- डाॅ शरद सिंह
एक इंसान की मौत सिर्फ़ एक इंसान को ख़त्म नहीं करती, बल्कि पूरे परिवार को तबाह कर देती है। इसकी पीड़ा वही समझ सकता है जिसने किसी अपने प्रिय व्यक्ति को
कोरोना से खोया हो। अपनों की ़़ंं, अचानक मृत्यु जीवित बचे हुए परिजन के जीवन को भी ग्रहण लगा देती है। ये सदमा किसी पढ़ चुकी किताब की तरह समय के साथ नए अनुभवों की नई किताब के नीचे भले ही दब जाए लेकिन उसके पढ़े गए पृष्ठ कभी भूलते नहीं हैं। कोई अपने प्रिय व्यक्ति की असामयिक मौत को भला कैसे भुला सकता है? दुख तो तब होता है जब ऐसी ही मौतों पर आंकड़ों की सांप-सीढ़ी का खेल खेला जाने लगे।
इन दिनों सरकार और विदेशी मीडिया के बीच विवाद चल रहा है कि भारत में कोरोना से कितने लोगों की मौत हुई? विदेशी मीडिया के आंकड़ें बड़े हैं जबकि सरकार के आंकड़ें छोटे हैं। सच किसी से छिपा नहीं है। कोरोना की पहली लहर में जो जनहानि हुई थी उसकी तुलना में यह दूसरी लहर कहर बरपा गई। दूसरी लहर आने के बाद से ही कोरोना से मृत्यु के आंकड़ें आसमान छूने लगे। इस बार कोरोना वायरस ने अपना रूप बदल लिया था। एक छलावे की तरह वह ‘‘नोसिम्टोमेटिक’’ बन गया। हज़ारों कोरोना मरीजों को उनकी गंभीरता का पता तब चला जब उनके फेफड़े बेहद क्षतिग्रस्त हो चुके थे। फिर भी डाॅक्टर्स तैयार थे उन्हें बचाने के लिए। यदि नहीं था तो पर्याप्त संसाधन और पर्याप्त तैयारी। आॅक्सीजन की कमी, अस्पताल में बेड्स की कमी और स्टाफ की कमी से जूझ रहे थे सरकारी अस्पताल। निजी अस्पतालों की चांदी रही। उन्होंने ज़िन्दगी बचाने के नाम पर मनमाने पैसे वसूले। वैसे निजी अस्पतालों में सबको दाखिला भी नहीं मिला। जिन्हें मिला उनके लाखों रुपए पानी की तरह ईलाज में बह गए। यदि उनका मरीज बच गया तो उन्हें पैसे जाने का पछतावा नहीं हुआ। लेकिन जिसने अपना परिजन और पैसे दोनों गवां दिया, उसके लिए तो ठीक ऐसा ही था जैसे सांप-सीढ़ी के खेल में जीत वाले सौवें खाने के ठीक पहले निन्यान्वे पर मुंह बाया सांप एक झटके में निगल ले। विडम्बना तो ये कि इस भयावह दौर में भी आंकड़ों को ग़लत-सही साबित करने का खेल चल रहा है। यह खेल भी सांप-सीढ़ी के खेल की तरह ही है। छोटी-छोटी सीढ़ियां और बड़े-बड़े सांप।
कोरोना से मरने वालों के आंकड़े बड़े हैं या छोटे, यह जानने का अहमदाबाद के एक समाचारपत्र ने। विगत 11 अप्रैल 2021 की शाम को एक अख़बार के दो रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर अहमदाबाद के 1200 बिस्तरों वाले कोविड हॉस्पिटल के मुर्दाघर पहुंचे। उनके संक्रिमत होने का ख़तरा था, लेकिन वे सच जानना चाहते थे। उन्होंने वहां 17 घंटे बिताया। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि मुर्दाघर से बाहर निकलने के एक मात्र दरवाजे से उन 17 घंटों में ऐंबुलेंस के ज़रिए 69 शवों को बाहर लाया गया। अगले दिन गुजरात की राज्य सरकार ने आधिकारिक रूप से पूरे राज्य में 55 लोगों की कोरोना से मौत का आंकड़ा जारी किया जिसमें अहमदाबाद में मात्र 20 लोगों के मरने का आंकड़ा था। जबकि यह आंकड़ा उस एक कोविड सेंटर के आंकड़े से ही कम था जहां पत्रकारों ने 17 घंटे बिताए थे। मामले की और छानबीन करने कि लिए 16 अप्रैल 2021 की रात ये पत्रकार 150 किलोमीटर गाड़ी चलाकर अहमदाबाद के आस-पास के 21 शवदाह स्थलों पर गए। वहां उन्होंने जलाने के लिए लाए गए शवों की संख्या देखी। यावदाह स्थल के रजिस्टर देखे। शवदाह स्थलों के कर्मचारियों से जानकारी ली। वहां उन्हें एक और खेल का पता चला। उन्होंने पाया कि अधिकतर मौतों का कारण ‘‘गंभीर बीमारी’’ लिखा गया था जबकि उन शवों को ‘‘कोरोना प्रोटोकाल’’ का पालन करते हुए लाया गया था। उस एक रात में रात पत्रकारों की टीम ने 200 शवों की गिनती की लेकिन अगले दिन सरकारी आंकड़ों ने बताया कि अहमदाबाद में केवल 25 लोगों की कोरोना से मृत्यु हुई थी।
दूसरा उदाहरण उत्तर प्रदेश से सामने आया। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में लगभग 9 बजे ही 98 शवदाहगृहों में 98 कोरोना शवों का अंतिम संस्कार किया गया। अधिकारियों के मुताबिक नौ बजे के बाद भी कुछ शव बाहर शव वाहनों में पड़े हुए थे, जिनका दाह किया जाना बाकी था। जबकि सरकारी आंकड़ों ने दूसरे दिन बताया कि पूरे प्रदेश में कोविड से सिर्फ 68 मौतें हुईं तो अकेले लखनऊ में ही कोविड से मरे 98 शवों का अंतिम संस्कार कैसे हो गया? आंकड़ों वाला यह सांप-सीढ़ी का खेल चलता रहेगा। इस मामले को अख़बार के पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक पहुंचते-पहुंचते सब भूल चुके होंगे इसके बारे में। आज किसी को सही आंकड़े याद नहीं हैं कि भोपाल गैस त्रासदी में कितने लोग मारे गए थे। ज़िंदगी में आगे की सीढ़ी चढ़ते समय कड़वी यादों को हम सांप के मुंह में डालते चले जाते हैं, इस बात को भुला कर कि ये सिर्फ़ आकड़ें नहीं थे बल्कि एक ऐसा सबक थे जिसे हमें याद रखना चाहिए था। इसी सबक के आधार पर आगे की सुरक्षा तैयारी करनी चाहिए थी लेकिन हमने तो मानो सबक लेना सीखा ही नहीं है।
कोरोना की पहली लहर आई। मरने वालों के आकड़ों का एक ढेर छोड़ गई। ये आंकड़े विदेशों के आकड़ों से कम थे। इस पर हमने अपनी खूब पीठ ठोंकी। हमने कोई सबक नहीं लिया। हम तो सांप-सीढ़ी का खेल खेलने में व्यस्त थे, मस्त थे। दूसरी लहर की चेतावनी वैज्ञानिक दे चुके थे लेकिन उससे क्या? चुनाव ज़रूरी थे। चुनाव हुए। गार्डियन ने विशेषज्ञों के हवाले से दूसरी लहर के ‘सुपर स्प्रेड‘ का कारण बताते हुए लिखा कि ‘‘वायरस गायब हो गया है। यह गलत तरीके से समझते हुए सुरक्षा उपायों में बहुत जल्दी ढील दे दी गई। शादियों और बड़े त्योहारों को आयोजित करने की अनुमति थी और नेता स्थानीय चुनावों में भीड़ भरी चुनावी रैलियां कर रहे थे।’’
वैश्विक मीडिया संस्थान अल जजीरा ने अपनी बेवसाइट पर भारत में दूसरी लहर के बढ़ते संक्रमण के मामलों के लिए ‘‘डबल म्यूटेंट’’ और ‘‘सुपर-स्प्रेडर’’ भीड़ को जिम्मेदार बताया। उसकी इस ख़बर का शीर्षक था-‘‘भारत में दुनिया के सबसे अधिक दैनिक कोविड मामले, रिकॉर्ड मौतें’’। इसी समाचार में अल जजीरा ने उल्लेख किया कि ‘‘बहुत सारे अस्पतालों ने बेड और दवा कम पड़ने की शिकायत की है, जबकि ऑक्सीजन की कमी ख़तरनाक स्तर तक पहुंच गई है।’’
लोग मरते रहे और पारिवारिक संबंध टूटते रहे। ‘‘कोविड प्रोटोकाल’’ में परिजनों को अनुमति नहीं थी के वे अंतिम संस्कार में शामिल हो सकें। अनेक अभागों के तो परिजन उनकी अस्थियां संचित करने भी नहीं पहुंचे। मध्यप्रदेश के सागर मुख्यालय में ही एक शवदाह स्थल पर अस्थियों के दस-बारह थैले विसर्जन की प्रतीक्षा में सप्ताह भर से अधिक समय से कीलों पर लटके रहे। अंततः नगरनिगम ने उन्हें विसर्जित कराया। साथ ही कई स्वयं सेवक इसके लिए आगे आए। आश्चर्य तो यह है कि इस त्रासद स्थिति से गुज़रते हुए भी हम सबक नहीं ले रहे हैं। वैसे एक विसंगति भी इस दौरान सामने आई। समाचारपत्रों में कई ऐसी सत्य घटनाएं प्रकाशित हुईं जिनमें उल्लेख था कि निजी अस्पतालों में कोरोना संक्रमित मरीज को उनके परिजन अस्पताल में भी साथ रह कर अटेंड करते रहे। जबकि सरकारी अस्पतालों एवं मेडिकल काॅलेजों में मरीज के पास पहुंच पाना उनके परिजन के लिए प्रतिबंधित था। एक गंभीर आपदा में ये दोहरा मापदण्ड कैसे लागू होता रहा?
सरकार विदेशी मीडिया के साथ आंकड़ों की सांप-सीढ़ी खेलने में इतनी रम गई है कि उसे आगे मिलने वाले सांपों को भी अनुमान नहीं लग पा रहा है। यदि विदेशी मीडिया झूठे आंकड़ें दे रहा है तो भी सरकारी व्यवस्थाओं को इतनी दुरुस्त हो जाना चाहिए कि भविष्य में जनहानि कंे आंकड़े कम से कम रहें। बारात आने पर कुंआ खोदने वाली कहावत चरितार्थ होते देखी है इन गुजरे दिनों में। आॅक्सीजन की कमी से देश कराहता रहा। अभी भी अनेक स्थानों पर आॅक्सीजन यूनिट पूरी तरह से बन कर तैयार नहीं हुई है। अनलाॅक की ओर बढ़ते समय आगे आने वाले ख़तरों की पूर्व तैयारी के बारे में विश्वासपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस दूसरी लहर में बेड की कमी, वेंटिलेटर की कमी, आॅक्सीजन की कमी, दवाओं की कमी और स्टाफ की कमी झेल चुके हैं। विडम्बना यह कि कोरोना संक्रमितों के आंकड़े कथित तौर पर घटने से पहले ही उन संविदा चिकित्सकों को अस्पतालों से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया जो जान हथेली पर ले कर अपना काम करते रहे। अस्पतालों में बेड भी कम कर दिए गए। अब से आ बैल मार मुझे नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? लेकिन बात तो यही है न कि उन्हें मालूम है कि बैल उन्हें नहीं आमजनता को मारेगा। लोग मरेंगे और आंकड़ों में तब्दील होते जाएंगे। इस तरह सांपों से बेख़बर हो कर चलता रहेगा आंकड़ों की साप-सीढ़ी का खेल। जबकि अभी भी समय है कि तीसरी लहर की भयावहता को रोकने के ईमानदार उपाय किए जा सकते हैं।
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सत्य उजागर करता सार्थक लेखन ।
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