Tuesday, April 30, 2024

पुस्तक समीक्षा | बेगम समरू का सच : इतिहास की रोचक औपन्यासिक प्रस्तुति | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 30.04.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई राजगोपाल सिंह वर्मा जी के उपन्यास  "बेगम समरू का सच" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा       
बेगम समरू का सच : इतिहास की रोचक औपन्यासिक प्रस्तुति
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - बेगम समरू का सच
लेखक - राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक - संवाद प्रकाशन, आई-499, शास्त्री नगर, मेरठ - 250004 (उप्र)
मूल्य  - 300/-
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‘‘बेगम समरू का सच’’ पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार से सम्मानित लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा द्वारा लिखी गई औपन्यासिक जीवनी है। एक ऐसी बेगम की जीवनी जिसे इतिहास ने लगभग भुला दिया। जबकि वह एक नाटकीय जीवन जीती हुई सबसे ताकतवर बेगम साबित हुई थी। यूं तो वह सरधना की रानी थी लेकिन उसने अपनी सियासी चतुराई से सन 1778 से 1836 तक मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना से अलीगढ़ के टप्पल तक राज किया। इस शक्तिसम्पन्न बेगम का नाम था बेगम समरू। पुरानी दिल्ली के भगीरथ पैलेस में जहां आज स्टेट बैंक की की शाखा है, कभी वह भगीरथ पैलेस बेगम समरू का महल हुआ करता था। बेगम समरू की अपनी सेना थी और अपना साम्राज्य था। बेगम समरू किसी शाही खानदान से नहीं थी। वह एक ऐसे परिवार में जन्मी थी जहां उसका पिता उसकी मां की सौत ले आया और पिता की मृत्यु के बाद सौतेले भाई ने मां-बेटी दोनों को धक्के मार कर घर से निकाल दिया। निराश्रित मां-बेटी ठोंकरें खाती दिल्ली पहुंचीं। वहां उन्हें जिसने सहारा दिया वह उस समय दिल्ली की सबसे बड़ी तवायफ हुआ करती थी। बेगम समरू जिसका मूल नाम फरजाना था, परिस्थितिवश एक तवायफ बन गई। एक तवायफ बेगम के सम्मानित ओहदे तक कैसे पहुंची और कैसे उसने एक ताकतवर बेगम बन कर अपना जीवन जिया, यह सब कुछ लेखबद्ध किया है लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने अपने इस औपन्यासिक जीवनी पुस्तक ‘‘बेगम समरू का सच’’ में।

इतिहास पर आधारित किसी भी विधा की पुस्तक लिखना अपने आप में एक चुनौती भरा काम होता है। इस प्रकार का लेखन अथक श्रम और अटूट धैर्य मांगता है। यूं भी सच की गहराइयों की थाह लेने वही व्यक्ति अतीत के सागर में उतर सकता है जिसमें मेहनत का माद्दा हो और जो तब तक डुबकियां लगाता रहे जब तक कि पूरी सच्चाई उसे हासिल न हो जाए। यही कारण है कि इतिहास आधारित लेखन के क्षेत्र में कम ही लोग प्रवृ्त्त होते हैं। इस प्रकार के लेखन में गहन शोध आवश्यक होता है। हर प्रकार के साक्ष्य ढूंढने और परखने पड़ते हैं। फिर उन्हें लिपिबद्ध करते समय सावधानी बरतनी पड़ती है कि उसमें कल्पना का उतना ही समावेश हो जितने में यथार्थ पर आंच न आए। जिन्होंने भी इतिहास को आधार बना कर साहित्य सृजन किया और उसमें कोताही बरती है, उन्हें कभी न कभी समय के कटघरे में स्वयं भी खड़े होना पड़ा है। इतिहास और समय दोनों ही कठोर होते हैं।
‘‘बेगम समरू का सच’’ की प्रस्तावना ‘‘अमर उजाला’’ और ‘‘जनसत्ता’’ के पूर्व संपादक शंभुनाथ शुक्ल ने लिखी है। उन्होंने बड़े ही तार्किक ढंग से वृंदावन लाल वर्मा और अमृत लाल नागर को कटघरे में खड़ा किया है। उन्होंने लिखा है कि -‘‘बाबू वृंदावनलाल वर्मा और पंडित अमृतलाल नागर ने तमाम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यास लिखे हैं, लेकिन उनमें इतिहास कम उनकी लेखनी का कमाल ज्यादा दिखता है। यहां तक, कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर आधारित उपन्यास लिखते हुए भी वे बहक गए प्रतीत होते हैं। जबकि जब उन्होंने वह उपन्यास लिखा था, तब तक रानी को रू-ब-रू देखने वाले लोग भी मौजूद थे पर उन्होंने सच्चाई को नहीं, अपनी श्रद्धा को ही अपने उपन्यास का आधार बनाया। नतीजा यह निकला, कि उनका रानी लक्ष्मीबाई पर लिखा उपन्यास महज एक फिक्शन साबित हुआ। उसकी ऐतिहासिकता को कोई नहीं मानता। वे अगर विष्णु भट्ट गोडसे का ‘माझा प्रवास’ ही पढ़ लेते तो भी रानी के बारे में एक अधिकृत उपन्यास लिख सकते थे। उन्हें सागर छावनी के खरीते पढने थे। लेविस और ह्यूरोज के बयान भी, पर ऐसा कुछ उन्होंने नहीं किया। इसी तरह पंडित अमृतलाल नागर ने भी ऐतिहासिक उपन्यासों पर अपनी कल्पना को ज्यादा ऊपर रखा है। ‘गदर के फूल’ में इसकी बानगी देखने को मिलती है।’’ वहीं वे महाश्वेता देवी की प्रशंसा भी करते हैं कि ‘‘जबकि इनके विपरीत बांग्ला की कथा लेखिका महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में रानी के साथ ज्यादा न्याय करती दिखती हैं। वे इतिहास को तथ्यों के साथ लिखती हैं। बस वह साहित्य की शैली में लिखा जाता है, ताकि पाठक खुद को भी उपन्यास से बांधे रखे।’’

यहां पुस्तक की विषयवस्तु के साथ पाठक को ‘‘बांधे रखना’’ भी एक चुनौती है। यदि पुस्तक में इतिहास लेखन की सपाट बयानी होगी तो साहित्य पढ़ने के विचार से पुस्तक खोलने वाला व्यक्ति दो पृष्ठ पढ़ कर ही उसे एक ओर रख देगा। वहीं यदि इतिहास के तथ्यों को दबा कर कल्पना को प्रभावी कर दिया जाएगा तो पुस्तक की विषयवस्तु रोचक तो लगेगी लेकिन एक मामूली फिक्शन की भांति शीघ्र विस्मृत होने लगेगी। पाठक के लिए इस पर भरोसा करना कठिन हो जाएगा कि ऐसा व्यक्ति वस्तुतः था भी या नहीं? अतः आवश्यक हो जाता है कि इतिहास के तथ्यों एवं कल्पना के प्रतिशत में ऐसा संतुलन रखा जाए कि पढ़ने वाला उस सच को तन्मय हो कर पढ़े और जब आंख मूंदें तो अपने कल्पनालोक में पुस्तक के पात्रों को विचरण करता हुआ पाए, बिलकुल खांटी यथार्थ की भांति। लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू के जीवन के सच को लिखते हुए इस संतुलन को बखूबी बनाए रखा है। इस औपन्यासिक जीवनी का आरम्भ चावड़ी बाज़ार के कोठे के दृश्य से होता है। लेखक ने कल्पना की है कि उस समय वहां का दृश्य कैसा रहा होगा। यह कल्पना तत्कालीन यथार्थ से जोड़ने के लिए आवश्यक तत्व है जिसे ‘‘हुकअप’’ करना कहते हैं। जब कोई पाठक पढ़ना प्रारम्भ करेगा तो उसकी पुस्तक की विषयवस्तु के प्रति दिलचस्पी शुरू के चंद पन्नों से ही जागेगी। फिर जब एक बार वह रुचि ले कर, जिज्ञासु हो कर पढ़ना आरम्भ कर देगा तो, पूरी पुस्तक पढ़ कर ही थमेगा। यह लेखन कौशल अपना कर राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू की जीवनी को रोचक एवं पठनीय ढंग से प्रस्तुत किया है। सम्पूर्ण कथानक को कुल 33 अध्यायों में रखा है। जैसे- 1.रंगमंच सारीखा परिदृश्य, 2.काल, समय और उद्भव, 3.तत्कालीन इलाके की सामाजिक और भौगोलिक स्थितियां 4.सफर फरजाना का 5.कौन था रेन्हार्ट सोंब्रे उर्फ समरू साहब 6.रेन्हार्ट सोंब्रे की यह कैसी थी मोहब्बत 7.एक नया उजाला था वह आदि। यहां अध्यायों का नामकरण करने में लेखक से एक छोटी-सी चूक हुई है। अर्थात् जिस तरह उन्होंने प्रथम अध्याय ही पूरी रोचकता के साथ आरम्भ किया है वहीं, प्रथम अध्याय से पूर्व दिए गए अध्यायों के अनुक्रम में ‘‘काल, समय और उद्भव’’ तथा ‘‘तत्कालीन इलाके की सामाजिक और भौगोलिक स्थितियां’’ जैसे शीर्षक दे कर किसी शोधग्रंथ के होने का आभास करा दिया है। यद्यपि शेष शीर्षक रोचक एवं जिज्ञासा जगाने वाले हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक ने अथक श्रम करके वे एक-एक दस्तावेज और तथ्य जुटाए जिससे बेगम समरू के जीवन की सही एवं सटीक तस्वीर सामने आ सके। उनका यह श्रम प्रशंसनीय है। यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि लेखन ने इतिहास के पन्नों से जिस वास्तविक पात्र को उठाया, उसके साथ पूरा न्याय किया। इस पुस्तक को लिखने के लिए राजगोपाल सिंह वर्मा ने भारतीय, ब्रिटिश, फ्रेंच के दस्तावेजों से उन सभी सामग्रियों को जुटाया जिनमें बेगम समरू के बारे में जानकारी थी। फिर भारतीय अनुवादकों, लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा बेगम समरू के बारे में लिखी गई तमाम सामग्रियों का तुलनात्मक अध्ययन किया। वे किसी एक सोर्स (स्रोत) पर नहीं रुके, अपितु उन्होंने बेगम समरू के नाम से ले कर सरधना के नाम तक के लिए अनेक सोर्स खंगाल डाले। जैसा कि उन्होंने पुस्तक के अंतिम पृष्ठों में दिए गए परिशिष्ट में लिखा है- ‘‘माइकल नारन्युल को एक अच्छा फ्रेंच लेखक माना जाता है। अगर वह बेगम को एक वेश्या कहते हैं, तो उनके लेखन को नाच-गर्ल और एक वेश्या में अंतर न समझने की भूल मात्र नहीं माना जा सकती है। अतिरिक्त रूप से, जब रणजीत सिन्हा जैसा विद्वान उसका हुबहू अनुवाद कर, यह भूल सुधार कर प्रस्तुत करने की कोशिश न करे, तो कष्ट होता है। यह वह रणजीत सिन्हा हैं जिन्होंने ‘द देल्ही ऑफ सुलतान’, ‘लोदी गार्डन’ के अलावा तमाम यात्रा-वृत्तांत लिखे हैं। वह फ्रेंच में पीएच डी हैं और भाषा तथा शब्दों की पेचीदगियों से अच्छे से वाकिफ हैं। पर, दोष उनका इतना नहीं है, जितना मूल लेखक का है। अभिलेखागारों में जब हम इतिहास के पन्नों को पलटते हैं, तो फरजाना, उर्फ जेबुन्निसा उर्फ बेगम समरू उर्फ जोहाना नोबिलिस को कहीं भी एक वेश्या के रूप में नहीं बताया गया है। नृत्य कर महफिल सजाना, और उसके लिए पैसे वसूलना, ‘नाच-गर्ल’ के रूप में तब भी जायज था। आज भी है। वह कोई देह व्यापार नहीं था। उस कला का सम्मान तब भी किया जाता था और आज भी। ऐसे में उस कला में रत महिला को नर्तकी के स्थान पर श्वेश्याश् कहना अनुचित और अन्यायपूर्ण है। ऐसा लिखने की जरूरत क्यूं आ पड़ी, समझ से परे भी है! सरधना और फरजाना के इतिहास में यह तथ्य भली-भांति परिभाषित है कि फरजाना को ‘नाच-गर्ल’ किस मजबूरी में बनना पडा।’’
यह एक ऐसी औपन्यासिक जीवनी है जिसे पढ़ कर उस महिला के व्यक्तित्व के बारे में जाना जा सकता है जो अंग्रेजों के समय निडरता से अपनी सत्ता चलाती रही। मुगल बादशाह शाहआलम भी जिसकी योग्यता को स्वीकार करता था। उसका जीवन तवायफ के रूप में शुरू हुआ किन्तु वह मृत्यु को प्राप्त हुई एक ताकतवर रानी के रूप में। जिसे इतिहासकारों ने भी उपेक्षित रखा, ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के जीवन के सच को सामने ला कर लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने सचमुच एक उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण कार्य किया है। लेखक ने इसे ‘उपन्यास’ कहा है, वहीं प्रकाशक ने इसे ‘जीवनी’ के अंतर्गत प्रकाशित किया है। यूं भी इस उपन्यास में एक बेगम की जीवनी ही है अतः इसे औपन्यासिक जीवनी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। यदि इस पुस्तक की लेखन शैली की बात की जाए तो इसे उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो ऐतिहासिक व्यक्तियों, तथ्यों एवं प्रसंगों पर उपन्यास अथवा जीवनी लिखना चाहते हैं। यह पुस्तक हर पाठक को इतिहास से जोड़ने में सक्षम है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।           
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Saturday, April 27, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | सबरी बिटियन की बरहमेस जै हो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
सबरी बिटियन की बरहमेस जै हो !
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    जोन दिनां दसमीं औ बारमीं बोर्ड परिच्छा को रिजल्ट आओ, ऊ दिनां से सबरे बिटयन की जयकारे कर रये। औ करो बी चाइए। ई साल दसमीं औ बारमीं को रिजल्ट ने फेर के दिखा दओ के बिटियां पढ़बे में सबसे आगे रैत आएं। ऊमें भौत सी बिटियां तो अपनी मताई के संगे घर के काम में हाथ सोई बंटाऊत आएं। अच्छे नंबरन से पास होबे वारी सबरी बिटियां ऐसी नोईं के उने पढ़बे की भौत सुविदा मिलत हो। मेरिट में आबे वारी एक मोड़ी तो छोटे से गांव की आए। उते तो ज्यादा सुविदा बी नईं, फेर बी ऊने जम के मेहनत करी औ ऊने दिखा दओ के कोनऊं परेसानी ऊको मेरिट में आबे से ने रोक पाई।
   आज के जमाने में जो कोनऊं बिटिया पैदा होबे पे अंसुआ ढारत आए, तो ऊ टेम पे जोई जी करत आए के ऊको जम के लपरया दओ जाए। औ ऊसे कओ जाए के अरे मूरख, बेटा औ बिटिया दोई बरोबर होत आएं। मोय तो आज लौं जे समझ ने आई के बिटियन खों बेटों से कम काय मान लओ जात आए? बिटियां कोनऊं से कम नईं होत। आजकाल तो सबई फील्ड में बिटियां अपनी काबीलियत के झंडे गाड़ रईं। चाए फौज होय, चाए पुलिस होय, चाए इंजीनियर, डॉक्टर हों, चाए राजनीति होय, चाए पत्रकारिता होय, बे कऊं पीछे नोईं। सो, अब तो जे भरम उतार फेंको चाइए के बिटियां कमजोर होत आएं। जो मताई-बाप बिटयन को साथ देत रैहें, सो बे ऐसई सबसे आंगू रैहें। सो, सबरी बिटयन की बरहमेस जै हो!   
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Friday, April 26, 2024

शून्यकाल | छोटे बजट की फिल्मों में होती हैं अकसर बड़ी गहरी बातें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
छोटे बजट की फिल्मों में होती हैं अकसर बड़ी गहरी बातें
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          यह जरूरी नहीं है कि बड़े बजट की बड़े और मशहूर कलाकारों वाली फिल्में अच्छी ही हों। अन्यथा ऐसी कई फिल्में तमाम प्रचार-प्रसार के बाद भी फ्लाॅप क्यों होतीं? वहीं छोटे बजट की, सामान्य-से दिखने वाले हीरो-हिरोईन वाली कई फिल्में बाॅक्स आॅफिस का मुंह भले ही ने देख पाएं तथा ज्यादा दर्शक भले ही हासिल न कर पाएं लेकिन अपने दर्शकों के दिलों पर छाप छोड़ जाती हैं क्योंकि इनमें गहरा सामाजिक सरोकार होता है। सामानांतर फिल्मों के दौर में ऐसी फिल्मों की सत्ता थी, पर आज ऐसी फिल्में हाशिए पर हैं।
  पिछले दिनों टीवी चैनल पर एक फिल्म देखी। उसका नाम था ‘‘पपी’’। फिल्म की शुरूआत में मुझे लगा कि यह फिल्म शायद पालतू कुत्तों को ले कर होगी और साथ में कोई सामान्य-सी प्रेम कहानी चलेगी। वस्तुतः यह तमिल फिल्म थी, हिन्दी में डब की हुई। फिल्म का निर्देशन किया था नट्टू देव ने और फिल्म का निर्माण ईशारी के. गणेश ने किया था। फिल्म पुरानी थी, 2019 की रिलीज़। वरुण कमल, संयुक्ता हेगड़े और योगी बाबू द्वारा अभिनीत इस फिल्म का पहले कभी नाम भी नहीं सुना था। यदि यही फिल्म बड़े निर्माता-निर्देशक की होती और इसमें नामचीन कलाकार होते तो तमिल फिल्म होते हुए भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी इसका भरपूर प्रचार किया गया होता। कहानी बिलकुल सामान्य ढंग से शुरू होती है। फिल्म का युवा हीरो प्रभु जो काॅलेज के अंतिम वर्ष में अध्ययनरत है, उसने एक डाॅगी पाल रखी है। वह अपनी उस डाॅगी का बहुत ख़्याल रखता है। इस बीच उसके घर एक किराएदार रहने आते हैं जिनकी बेटी रम्या के प्रति वह आकर्षित होता है। जल्दी ही दोनों की दोस्ती हो जाती है। यह दोस्ती प्रेम में परिवर्तित हो जाती है। एक समय ऐसा आता है जब प्रभु की जिद पर प्रभु और रम्या सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। परिणामस्वरूप रम्या गर्भवती हो जाती है। प्रभु अपने पिता से इतना अधिक डरता था कि वह उनसे रम्या के साथ अपने रिश्ते की बात करने का साहस ही नहीं कर पाता है। वह रम्या को गर्भपात कराने के लिए बाध्य करता है। रम्या नहीं चाहती है किन्तु प्रभु उससे कहता है कि यदि तुम गर्भपात नहीं कराओगी तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी और हमारा संबंध खत्म समझो। रम्या न चाहते हुए भी प्रभु की बात मान कर अस्पताल जाने को तैयार हो जाती है। इसी दौरान प्रभु की डाॅगी की तबीयत खराब हो जाती है। प्रभु घबरा जाता है और अपनी डाॅगी को गोद में उठा कर बदहवास-सा घर के बाहर निकलता है कि कोई वाहन मिल जाए तो वह डाॅगी को अस्पताल ले जाए। इतने में उसके माता-पिता कार से कहीं से लौटते हैं। वह अपने पिता को डाॅगी की दशा के बारे में बताता है और अपने माता-पिता के साथ अपनी डाॅगी को ले कर पशुअस्पताल पहुंचता है। जब तक डाॅक्टर नहीं आ जाते हैं तब तक वह उज्ञॅगी को अपनी बांहों में उठाए-उठाए अस्पताल में यहां से वहां बदहवास-सा भागता फिरता है। डाॅक्टर आ कर प्रभु की डाॅगी की जांच करता है और बताता है कि घबराने की बात नहीं है, वह गर्भवती है इसलिए उसकी तबीयत बिगड़ी थी। यह सुन कर प्रभु को जान में जान आती है। तभी उसे दो लोगों की आपस की बात सुनाई देती है कि आजकल पपी की कीमत आठ-दस हजार से कम नहीं रहती है। वह बहुत खुश हो जाता है। उसका एक दोस्त है जो उसके हर कदम पर उसका साथ दे रहा था। उस दोस्त से मिल कर वह पपी बेच कर पैसे कमाने की योजनाएं बनाने लगता है। जिस दिन डाॅगी की डिलेवरी होनी थी ठीक उसी दिन रम्या को गर्भपात कराने जाना था। डिलेवरी से पहले डाॅगी की तबीयत एक बार फिर बिगड़ जाती है तो प्रभु उसे ले कर फिर अस्पताल भागता है। उसे रम्या के साथ जाना जरूरी नहीं लगता। गोया रम्या गर्भवती हुई तो यह सिर्फ उसकी जिम्मेदारी थी। रम्या के दुख-कष्ट से प्रभु का मानो कोई सरोकार नहीं था। प्रभु जब अपनी डाॅगी को ले कर अस्पलात पहुंचता है तो डाॅक्टर बताता है कि कुछ काम्प्लीकेशन्स हैं। प्रभु को लगता है कि उसने अपनी डाॅगी को खो दिया और वह रोने लगता है। तभी नर्स उसे आॅपरेशन थियेटर ले जाती है जहां डाॅगी इस तरह पड़ी थी मानो मर चुकी हो। प्रभु के दुख का कोई ठिकाना नहीं रहता है। वह डाॅगी को गले लगाता है। तभी डाॅगी आंखें खोल देती है। फिर प्रभु का ध्यान जाता है उन नन्हें पपीज़ पर जो अपनी मां से चिपटे दूध पी रहे थे। यानी डाॅगी और पपीज़ सभी जिन्दा थे। उसी क्षण प्रभु को अहसास होता है अपने उस व्यवहार का, जो उसने रम्या के साथ किया था। वह रम्या से मिलने उस अस्पताल की ओर भागता है जहां रम्या को गर्भपात कराना था। वहां रम्या उसे बाहर मिलती है और बताती है कि वह गर्भवती नहीं थी बल्कि जंकफूड और फास्ट फूड खाने के कारण उसके पीरियड्स में कोई गड़बड़ी आ गई थी। अब सब ठीक है। लेकिन तब तक प्रभु की आंखें खुल चुकी थीं। वह रम्या से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगता है।

इस फिल्म की कहानी इतना गंभीर मोड़ लेगी, यह फिल्म की शुरूआत में नहीं लगता है। कहानी ने न केवल गंभीर मोड़ लिया बल्कि एक ऐसा संदेश भी दिया जो उन लोगों के लिए तमाचे के समान था जो प्रेम में दैहिक संबंधों तक बढ़ जाते हैं और फिर सब कुछ लड़की पर डाल कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसे संबंधों को ले कर ‘‘धूल का फूल’’, ‘‘आराधना’’ जैसी बड़े स्टारर की मशहूर फिल्में बन चुकी हैं। उनमें हीरो दोषी नहीं रहा किन्तु विवाहपूर्व दैहिक संबंधों के दुष्परिणाम जरूर दिखाए गए। देखा जाए तो उन सब में लड़कियों के लिए ही सबक था। ऐसी कई फिल्में रहीं जिनमें हीरो की बहन के साथ ज्यादती की गई और ‘‘मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रही’’ कह कर उसने आत्महत्या कर ली। खुद फिल्मवालों ने इस परम्परा को धीरे-धीरे खत्म किया और यह स्थापित किया कि प्रेम या बलात संबंधों के बाद लड़की द्वारा आत्महत्या करना कोई हल नहीं है। लेकिन ‘‘पपी’’ तरह की संवेदनशील फिल्म या कहना चाहिए कि अपने आप में अनूठी भारतीय फिल्म कम से कम मैंने तो इससे पहले नहीं देखी। जिसमें बड़े सलीके से इस बात को सामने रखा गया है कि प्रेम का दम भरने वाले युवा के लिए उसकी प्रेमिका उसकी डाॅगी से भी कम महत्व रखती है जबकि वह उसके कारण ही गर्भवती होने की स्थिति में पहुंची थी। यह बहुत बड़ा विचार बिन्दु है। यह इस बात से भी आगाह करता है कि अपनी डाॅगी के लिए एक लड़का अपने पिता से खुल कर सहायता मांग सकता है लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए नहीं, जबकि उसकी दशा के लिए वह बराबर का जिम्मेदार है। 
फिल्म ‘‘पपी’’ को देखते हुए मुझे लगा कि छोटे बजट की ये फिल्में कितनी गहराई लिए हुए होती हैं। ये सीधे सामाजिक मुद्दों और मानसिक समस्याओं पर दस्तक देती हैं। हिन्दी में ऐसी फिल्में समानान्तर फिल्मों के दौर में बना करती थीं और उनमें सबसे ऊपर नाम था बासु चटर्जी का। बासु चटर्जी ने ‘‘रजनीगंधा’’, ‘‘छोटी सी बात’’ ‘‘खट्टा-मीठा’’, ‘‘बातों बातों में’’, ‘‘शौकीन’’ जैसी छोटे बजट की बड़ी फिल्में बनाईं। आम जीवन को छूने वाली ये फिल्में बेहद सफल हुईं। जिन्होंने ‘‘रजनीगंधा’’ देखी होगी, वे समझ सकते हैं कि कितनी सुंदर और सहज फिल्म थी। प्रेम के वास्तविक स्वरूप को बखूबी परिभाषित करती थी। इसी तरह ‘‘छोटी-सी बात’’ हंसी-मजाक में वह बात समझा गई थी कि युवक का हीरो टाईप बना-ठना होना ही युवती के लिए प्रेम का आधार नहीं होता है बल्कि प्रेम का आधार होता है युवक की सच्चाई और युवती की भावनाओं का सम्मान करना। इस फिल्म में अमोल पालेकर एक ऐसे युवा के किरदार में था जो अपने सहकर्मी असरानी के हीरो टाईप एटीट्यूड के कारण हीनभावना का शिकार था। वह नायिका विद्या सिंन्हा से प्रेम करता है किन्तु हीनभावना के कारण अपना प्रेम प्रकट नहीं कर पाता। फिर वह एक विज्ञापन पढ़ कर पर्सनालिटी ग्रूमिंग के लिए अशोक कुमार के पास पहुंचता है। अशोक कुमार उसे अपनी किताब में लिखे कुछ नुुस्खे बताता है। अमोल पालेकर वहां से लौट कर वे घटिया टाईप के नुस्खे विद्या सिन्हा पर आजमाने का प्रयास करता है। असरानी के द्वारा विद्या सिन्हा को यह पहले ही पता चल चुका था। बात बिगड़ जाती इसके पहले ही अमोल पालेकर को अहसास हो जाता है कि वह कितनी बड़ी गलती करने जा रहा है। लिहाजा मामला बिगड़ते-बिगड़ते सम्हल जाता है। यानी जो बातें करोड़ों के बजट वाली फिल्में नहीं बताती हैं वह बातें इन छोटे बजट की छोटी-छोटी फिल्मों में बड़ी गंभीरता, सहजता, सादगी और खिलंदड़ेपन से कह दी जाती हैं। इन फिल्मों में न हिंसा होती है और न अश्लीलता, फिर भी ये फिल्में दर्शकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ती हैं। 
‘‘पपी’’ जैसी फिल्में बाॅलीवुड भी बना सकता है लेकिन उसे हाॅलीवुड की मार-धाड़ की काॅपी और रीमेक से फुर्सत नहीं है। कभी-कभार भूले-भटके कोई फिल्म आ भी जाती है तो न उस पर फिल्म समीक्षक ध्यान देते हैं और न वितरक। वह जिस ख़ामोशी से आती है उसी ख़मोशी से चली जाती है। यदि सौभाग्य रहा तो किसी विदेशी फिल्म फेस्टिवल तक पहुंच जाती है, तब उस पर लोगों का हल्का सा ध्यान जाता है। अन्यथा ऐसी फिल्में तमाम मूल्यवत्ता रखते हुए भी हाशिए में पड़ी दम तोड़ती रहती हैं, जबकि ऐसी फिल्मों की आज समाज को सबसे अधिक जरूरत है।
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Thursday, April 25, 2024

बतकाव बिन्ना की | लबरा औ दोंदा में हो रओ मुकाबला | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
लबरा औ दोंदा में हो रओ मुकाबला 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘भैयाजी, आजकाल का चल रओ?’’मैंने भैयाजी से पूछी। बे आराम से सुस्ताते भए बैठे हते।
‘‘दोई चीज चल रई बिन्ना।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन सी दोई चीज?’’ मैंने पूछी।
‘‘एक तो मुतकी गर्मी और दूसरो मुकाबला।’’भैयाजी बोले।
‘‘गर्मी तो समझ में आई मनो आप कोन से मुकाबला की बात कर रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जे दिखा नईं रओ के लबरा औ दोंदा में कैसो मुकाबला चल रओ?’’ मैयाजी अचरज दिखात भए पूछन लगे।
‘‘जो आप चुनाव वारे माहौल की कै रए सो बा तो हमें दिखा रओ। बाकी कछू और की कै रए हो तो बात अलग कहाई।’’ मैंने कही।
‘‘ई टेम पे औ का बात हो सकत आए?’’भैयाजी बोले।
‘‘बाकी आपने सई उदाहरण दओ लबरा औ दोंदा को।’’ मैंने भैयाजी की तारीफ करी।
‘‘तुमें पतो लबरा औ दोंदा की किसां?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, मोय काय ने पतो हुइए? आप भूल रए के मैंने साहित्य अकादमी के लाने ‘बुंदेली लोककथाएं’ बुक लिखी रई जीमें बुंदेलखंड की मुतकी लोककथाओं को हिंदी में लिखों रओ, जीसे सबई इते पढ़बे वारे अपने इते की लोककथाओं के बारे में जान सकें।’’मैंने भैयाजी खों याद कराई।
‘‘हऔ, सई कई! मनो कई लोगों को ने पतो हुइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘तो चलो उने सोई सुना दओ जाए। ऐसो आए के किसां तो जित्ती बेरा कई-सुनी जाए उत्तई मजो आत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, औ उत्तई ज्ञान बढ़त आए।’’ भैयाजी हंस बोले। उनको इसारो दूसरोई हतो। काय से के उनें तो लबरा औ दोंदा को खयाल आ रओ हतो।
सो, लबरा औ दोंदा की किसां ऐसी आए के एक गांव में दो जने हते, जोन में एक को नांव लबरा हतो औ दूसरे को दोंदा। जैसो नांव, ऊंसई उनके लच्छन हते। लबरा लबरयात रैत्तों, मने झूठ बोलत रैत्तो औ दोंदा अपनई-अपनई देत रैत्तो। लबरा ऐसो झूठ बोलत के सुनबे वारे खों सच लगन लगत्तों और दोंदा ऐसो ठोंक-बजा के सच्ची-झूठी पेलत्तों के अपनी कई मनवा के ई दम लेत्तो। एक दिनां लबरा औ दोंदा में गिचड़ होन लगी। दोई जने अपने-अपने दद्दा की बड़वारी में फंकाईं देन लगे। लबरा कैन लगो के ‘‘हमाए दद्दा इत्ते पावरफुल हते के उन्ने एक मुक्का मार के शेर खों धूरा चटा दओ रओ।’’
‘‘बस्स? अरे हमाए दद्दा सो ऐसे हते के उन्ने अपने घरे की दलान में बैठे-बैठे फूंक मारी औ फूंक के जोर से उते जंगल में शेर ने दहाड़ मारी और मर गओ।’’ दोंदा बोलो। दोंदा की कई लबरा खों बुरई लगी, काय से के बो अपने दद्दा खों कम नई होन दे सकत्तो।
‘‘हमाए दद्दा के पास एक इत्तों लंबो बांस रओ के, बे जब चाय बो बांस से बादलन खों हला-हला के पानी बरसा लेत्ते।’’ लबरा ने एक झूठ औ पेल दओ।
‘‘हओ हमें पतों काय से के तुमाए दद्दा हमाए दद्दा के घुड़साल में अपनो बांस रखत्ते। काय से के हमाए दद्दा को घुड़साल बा बांस से लम्बो रओ।’’ दोंदा ने फेर दोंदरा दओ।
‘‘हमाए दद्दा के पास उड़बे वारों घोड़ा रओ।’’ लबरा बोलो।
‘‘हऔ, तुमाए दद्दा के ऊ घोड़ा के पर हमाए दद्दा ने कतर दए रए।’’ दोंदा काय को हार मानतो।
‘‘हमाए दद्दा के पास ऐसी बोतल रई जीमें बे पूरो तला को पानी भर लेत्ते।’’ लबरा बोलो।
‘‘बोतल तो बड़ी कहानी, हमाए दद्दा तो अपनी अंजन की डिबिया में तला को पूरो पानी धर लेत्ते।’’ दोंदा बोला।
ईपे लबरा से रओ नई गओ और कैन लगो,‘‘सुनों काय दोंदरा दे रए। ने तो तुमाए दद्दा के लिंगे अंजन की कोनऊं ऐसी डिबिया रई औ ने हमाए दद्दा के लिंगे कोनऊं बोतल रई।’’
‘‘तुमाए दद्दा के लिंगे बोतल ने रई हुइए, मनो हमाए दद्दा के लिंगे अंजन की डिबिया रई।’’ दोंदा ने दोंदरा दओ।
दोई लड़त-भिड़त सरपंच के इते पौंचे। ऊंसे कैन लगे के अब आपई न्याय करो। सरपंच ने दोई की बातें सुनीं औ फेर सोचन लगो के दोंदा ज्यादा चतुर आए, ईको पटा लओ जाए। सो सरपंच मुस्क्या के बोलो,‘‘दोंदा सई बोल रओ, काय से के ईके दद्दा ने बा अंजन की डिबिया मोय दद्दा खों भेंट करी रई।’’
जा सुन के लबरा को बड़ो गुस्सा आओ। बा समझ गओ के सरपंच दोंदा को फेवर कर रओ आए। पर सरपंच खों झूठो कै के बा मुसीबत बी मोल नईं ले सकत्तो। सो सरपंच के इते से निकरत साथ लबरा ने दोंदा से कई के,‘‘जे सरपंच की बात से मोय तसल्ली ने भई, चलो राजा के दरबार चलिए।’’
दोंदा मान गओ। दोई चल परे। रस्ता में रात परी, सो बे दोई एक पेड़ के तरे सो गए। भुनसारे लबरा जगो तो ऊने देखो के ऊके सबरे कपड़ा भींजे हते औ दोंदा के कपड़ा सूके हते। ऊने दोंदा से पूछो के रात को का भओ जो तुमाए कपड़ा तो सूके आएं औ हमाए भींज गए। सो, दोंदा बोलो के चलो राजा के दरबार में पौंच के बताबी। दोई चलत-चलत राजा के दरबार पौंच गए। दोई ने अपनी-अपनी बात राजा खों कै सुनाई। राजा ने दोंदा से पूछी,‘‘औ तो सब ठीक मनो जे बताओ के जो पानी बरसो तो लबरा भीग गओ औ तुम सूके रए। जो का माजरा आए?’’
सो, दोंदा हाथ जोर के बतान लगो,‘‘महाराज! वो का आए के हमाए दद्दा ने हमाए लाने एक बूटी दई रई के कभऊं पानी में भीगबे से बचने होय तो बूटी खों अपने कपडा पे मल लइयो। फेर चाय जित्तो पानी गिरे, तुम सूके ई रैहो। सो महाराज, ओई बूटी के कारण मोरे हुन्ना-लत्ता नईं भींजे।’’
‘‘बा बूटी हमें सोई दिखाओ!’’ राजा ने कई।
‘‘महाराज! अब कां धरी बा बूटी, बा तो हमने मल लई, काय से के आपके दरबार में भींजे कपड़ा में कैसे आ सकत्ते?’’ दोंदा बोलो। बाकी भओ जे रओ के दोंदा ने रात में चुपके से लबरा के कपड़ा भिंजा दए रए। दोंदा की बात सुन के राजा समझ गओ के चाय कछू हो जाए, जा मानुस अपनी बात मनवा के ई रैहे। सो राजा ने टेम खोटी ने करत भए फैसला सुना दओ के दोंदा जो कछू कै रओ, सब सही आए। अब राजा के आगूं लबरा का कैतों? सो हाथ जोर के बाहरे निकर आओ। तभई से जे कहनात चल परी के लबरा से बड़ो दोंदा। काय से के दोंदरा देबे वारो दोंदरा दे के कैसऊं ने कैसऊं अपनी बात मनवा ई लेत आए।
सो, जा हती लबरा औ दोंदा की किसां, शार्ट में।
‘‘जेई सो हम कै रए बिन्ना, के ई टेम पे बी लबरा औ दोंदा हरों के बीच मुकाबला चल रओ। दोई अपनी-अपनी झूठी बी सांची कै रए। मनो अब देखने जो आए के वोटर का करहें? बे सरपंच औ राजा घांई रैहें के अपनी कछू दिखेंहैं?’’ किसां के बाद भैयाजी बोले।
‘‘भैयाजी, ई टेम पे जोन किसां चल रई ऊको अलगई मजा आए। बे लबरा औ दोंदा तो पुरानी बातन की हांक रए हते, मनो ई टेम पे तो पुरानी के संगे आबे वारे टेम पे बी फांको जा रओ। एक कैत आए के हमें जिताओ सो हम आसमान के तारे तोड़ लाबी, सो दूसरो कैत आए के हम तुमाए लाने आसमान ई तोड़ लाबी।’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो अपन वोट डारबे वारन की परीच्छा की घड़ी आए। जे तो अपन को सोचने के कोन की बातन में दम आए औ कोन की बातन में फुसकी बम आए! सई पूछो तो जे चुनाव उन ओरन के लाने नोंईं, अपन वोटरन के लाने हो रओ। अपन खों सोचने, समझने औ फेर वोट डारने आए। समझ गईं के नईं?’’ भैयाजी ने कई।
 ‘‘मोय का समझने! समझने उनको आए जोन फंकाई में उरझ जात आएं। मनो, एक बात तो आए भैयाजी के अब जनता सब समझन लगी आए। बा न लबरा के फेर में पड़हे औ ने दोंदा के फेर में। बाकी पांचों उंगरियां तो बरोबर नईं होत। फेर बी जो हुइए, अच्छो हुइए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, सई कई बिन्ना! बस, जेई आए के पैले सोचे, समझें औ सबरे जा के अपनों-अपनों वोट देबें। काय से के हर वोट कीमती होत आए।’’ भैयाजी ने बड़ी खरी बात कई।
         सो, भैया औ बैन हरों, दद्दा औ मम्मा हरों लबरा औ दोंदा को मुकाबला को मजो लेत रओ। मनो, जे ध्यान राखियों के जोन के इते जब वोटिंग होय, सो वोट देबे जरूर जाइयो, सोउत ने रइयो। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Wednesday, April 24, 2024

चर्चा प्लस | ‘‘गुलबकावली’’ की कहानी सिखाती है जलसंरक्षण बशर्ते हम सीख सकें | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस 
‘‘गुलबकावली’’ की कहानी सिखाती है जलसंरक्षण बशर्ते हम सीख सकें
    - डाॅ (सुश्री) शरद  
सिंह                                                                                      
      पूरे ब्रह्मांड में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां आज तक पानी और जीवन मौजूद है। इसलिए, हमें अपने जीवन में पानी के महत्व को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और सभी संभव तरीकों का उपयोग करके पानी बचाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। जब हमें प्यास लगती है तो हम पानी पीते हैं। हम जानते हैं कि पृथ्वी मुख्य रूप से पानी से ढकी हुई है, लेकिन फिर भी, मानव उपयोग के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। इसका कारण यह है कि यह पानी पीने लायक नहीं है. पृथ्वी पर केवल 3 प्रतिशत पानी ही मानव मांग को पूरा करने के लिए उपलब्ध है। इसलिए जल संरक्षण नितांत आवश्यक है। पुरानी कहानियों ने जल संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस संदर्भ में “गुलबकावली” की कहानी भी अपने आप में अनोखी और संदेश देने वाली है। 


मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष और अधिक गर्मी पड़ेगी। उनकी भविष्यवाणी का असर दिखने भी लगा है। अधिक गर्मी पड़ने का अर्थ होता है पानी की कमी। अधिक गर्मी पड़ती है तो जलस्तर गिरने लगता है। रेगिस्तान में रहने वालों से पूछने पर पता चलता है पानी का मोल। यह बात अलग है कि हम पानी की उपलब्धता होते हुए भी बोतलबंद पानी का मोल चुकाने में अपनी शान समझते हैं। न जाने कितने पुराने जलस्रोत हमारी लापरवाही से अब तक सूख चुके हैं। जो बचे हैं, वे भी संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। हमने हाल ही में इस समाचार पर खूब चर्चा की कि दुबई में कृत्रिम बारिश कराने के प्रयास में बाढ़ आ गई और भारी नुकसान हुआ। क्या उन सारी चर्चाओं के दौरान यह सोचा कि दुबई को कृत्रिम बारिश कराने की ज़रूरत क्यों पड़ी? जहां पानी न हो या पानी की कमी हो, वहां इंसान पानी हासिल करने के सौ उपाय सोचता है। जिनके पास पानी के पर्याप्त स्रोत हैं, वे सौभाग्यशाली हैं। लेकिन वे अपनी लापरवाही से जलसंकट के दुर्भाग्य को न्योता देते रहते हैं। दुनिया का अरेबियन क्षेत्र जहां मीठे पानी का संकट हमेशा रहा, वहां पानी को सम्हाल कर उपयोग में लाने के कई किस्से प्रचलित हैं। उन्हीं में से एक है गुलबकावली का किस्सा। यह कहानी हमें भी बहुत कुछ सिखाती है।
कहानी कहने की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। दुनिया भर में अनगिनत कहानियां बताई गई हैं। उनमें से कुछ बहुत प्रसिद्ध और शिक्षाप्रद रहे हैं। जैसे विष्णु शर्मा ने ‘‘पंचतंत्र’’ की कहानियों के माध्यम से राजकुमारों को आवश्यक शिक्षा दी थी। विश्व प्रसिद्ध ‘‘अरेबियन नाइट्स स्टोरीज’’ हमारा मनोरंजन करते हुए हमें सिखाती है कि विपरीत परिस्थितियों से कैसे निपटें और प्रकृति से कैसे प्यार करें। ये कहानियां उस क्षेत्र की हैं जहां हमेशा पानी की कमी रही है। इसलिए ऐसी कई कहानियां हैं जिनमें जल संरक्षण और पानी बचाने का संदेश मौजूद है। ऐसी ही एक कहानी है ‘‘गुल बकावली’’।
गुलबकावली एक पुरानी कहानी है जिसे अलग-अलग देशों में अलग-अलग संस्करणों में बताया गया है, लेकिन हर संस्करण में एक बात समान है, वह है कम पानी से अपनी जरूरतों को पूरा करना। मुझे आज तक गुलबकावली की कहानी याद है जो मेरे दादा, स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर श्याम चरण सिंह ने मुझे सुनाई थी। जब मैं बड़ी हुआ और गुलबकावली की कहानी के बारे में गूगल पर खोज की, तो मुझे पता चला कि मुंशी निहाल चंद लाहौर ने इसे उर्दू में लिखा था और इसे 1927 में दारुल इशात पंजाब, प्रकाशन लाहौर द्वारा प्रकाशित किया गया था। हालाँकि ये कहानी अरेबियन नाइट्स की कहानी है। इस कहानी पर 1962 में टी. रामाराव के निर्देशन में एन.एन. त्रिविक्रम राव ने तेलुगु में एक फिल्म बनाई थी। जिसे काफी पसंद किया गया था।
मैंने जो कहानी सुनी थी उसका कथानक यह था कि एक बादशाह की आँखों की रोशनी चली गयी। शाही हकीमों को बुलाया गया। हकीमों ने बहुत कोशिश की लेकिन वे बादशाह की ओखों में रोशनी लाने में सफल नहीं हुए। बादशाह निराश हो गया। मगर तभी एक बुजुर्ग हकीम ने एक इलाज बताया कि यदि गुलबकावली का फूल लाया जाए और उसका अर्क आंखों में डाला जाए तो आंखों की रोशनी वापस आ सकती है। तब बादशाह पुनः देख सकेंगें। हकीम ने यह भी बताया कि वह फूल सात समुद्र और सात पर्वतों से परे एक सुदूर स्थान पर पाया जाता है। बादशाह ने घोषणा की कि जो कोई गुलबकावली का फूल लाएगा उसे बड़ा इनाम दिया जाएगा। जान जाने के डर से लोग सामने नहीं आते, तभी यासीन नाम का एक गरीब युवक बादशाह के पास पहुंचा। उसने बादशाह को आश्वासन दिया कि वह किसी भी कीमत पर गुलबकावली के फूल लेकर आएगा।
यासीन गुलबकावली लेने निकला। रास्ते के समय उसे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह बिना डरे आगे बढ़ता रहता है। सात समुद्र और सात पर्वत पार करने के बाद उसे पता चलता है कि एक राजकुमारी के बगीचे में गुलबकावली के फूल हैं। लेकिन उस राजकुमारी के महल तक पहुंचना कठिन था। राजकुमारी के महल के चारों ओर कीचड़ से भरी एक खाई थी। उस पर शर्त यह थी कि जो कोई भी राजकुमारी के महल तक पहुंचना चाहेगा उसे कीचड़ से होकर गुजरना होगा। लेकिन जब वह राजकुमारी के पास पहुंचे तो उसके पैरों पर कीचड़ नहीं होना चाहिए। कीचड़ साफ करने के लिए पानी का एक बहुत छोटा कटोरा ही रखा गया था। राजकुमारी की सुंदरता की चर्चा सुनकर कई युवक वहां पहुंचे लेकिन पानी के एक बहुत छोटे कटोरे से अपने पैरों के कीचड़ को साफ नहीं कर सके और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
जब यासीन उस कीचड़ भरी खाई के पास पहुंचा तो उसे पता चला कि उसे पार करने के बाद उसे पैर धोने के लिए पानी का एक बहुत छोटा कटोरा ही मिलेगा। यासीन एक बुद्धिमान युवक था। उसने पास की झाड़ी से दो-तीन पतली-पतली लकड़ियाँ तोड़ लीं, उन्हें छीलकर जीभी (टंग क्लीनर) की तरह बना लिया और अपनी जेब में रख लिया। फिर यासीन ने कीचड़ से भरी खाई को पार किया। उसके पैर घुटनों से लेकर पंजों तक कीचड़ से सने हुए थे। यासीन ने अपनी जेब से लकड़ी की जीभी (टंग क्लीनर) निकाली और अपने पैरों से कीचड़ साफ किया। फिर दूसरी जीभी से बची हुई मिट्टी भी साफ कर दी। जब उसके पैरों से कीचड़ साफ हो गया तो उसने अपने पैरों को अपने रुमाल से अच्छी तरह से पोंछा और फिर दिए गए कटोरी भर पानी को अपने पैरों पर तेल की तरह लगाकर दोबारा रुमाल से पोंछ लिया। अब उसके पैर इतने साफ थे मानो उन पर कभी कीचड़ लगा ही न हो।
जब दासियों ने देखा कि यासीन के पैर बिल्कुल साफ हैं तो वे उसे अपनी शहजादी के पास ले गईं। शहजादी यासीन की चतुराई से बहुत प्रभावित हुई। जब उसने यासीन से उसके आने का कारण पूछा तो यासीन ने उसे बताया कि वह राजकुमारी की सुंदरता देखने नहीं बल्कि उसके बगीचे से गुलबकावली फूल लेने आया है। वह चाहता है कि उसके बादशाह का अंधापन दूर हो जाये। यह जानकर राजकुमारी और भी खुश हो गई। उसे लगा कि यासीन न केवल चतुर है, बल्कि दयालु भी है, अन्यथा दूसरों के लिए अपनी जान जोखिम में कौन डालता? फिर भी शहजादी ने यासीन की कुछ और परीक्षाएँ लीं, जिनमें यासीन सफल रहा। शहजादी ने यासीन को गुलबकावली के फूल दिये। यासीन ने शहजादी से विदा लेते समय पूछा, ‘‘तुमने पैर धोने के लिए पानी का एक बहुत छोटा कटोरा ही क्यों रखा?’’
इस पर राजकुमारी ने कहा, ‘‘मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जो व्यक्ति पानी के महत्व को समझता है और कम पानी में अपनी जरूरतें पूरी कर सकता है, वही मुझसे मिलने के योग्य साबित होगा।’’
यानी गुलबकावली की इस कहानी में जहां जड़ी-बूटी के रूप में गुलबकावली फूल की औषधि का वर्णन है, वहीं पानी की मितव्ययता की सीख भी है। आज दुनिया भर में बढ़ते जल संकट को देखते हुए हमें गुलबकावली की राजकुमारी की सीख याद रखने की जरूरत है।
पानी इतना कीमती है कि पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का केवल एक प्रतिशत ही पीने योग्य है। एक औसत इंसान को प्रतिदिन लगभग 250- 400 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, हमारा शरीर 70 प्रतिशत पानी से बना है, इसलिए प्रतिदिन 2-3 लीटर ताजे पानी की आवश्यकता होती है। एक सदी पहले, मानव मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी था। भविष्य में जल की कमी की समस्या के समाधान के लिए जल संरक्षण ही जल की बचत है। भारत और दुनिया के अन्य देशों में पानी की भारी कमी है जिसके कारण आम लोगों को पीने और खाना पकाने के साथ-साथ दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक पानी पाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। दूसरी ओर, पर्याप्त पानी वाले इलाकों में लोग अपनी दैनिक जरूरतों से ज्यादा पानी बर्बाद कर रहे हैं। हम सभी को पानी के महत्व और भविष्य में पानी की कमी से होने वाली समस्याओं को समझना चाहिए। हमें अपने जीवन में उपयोगी जल को बर्बाद एवं प्रदूषित नहीं करना चाहिए तथा लोगों के बीच जल संरक्षण एवं बचत को बढ़ावा देना चाहिए। गुलबकावली जैसी कहानियाँ जल संरक्षण का महत्वपूर्ण संदेश देती हैं। 
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Tuesday, April 23, 2024

पुस्तक समीक्षा | ये सिर्फ़ शायर की नहीं, अपने समय की प्रतिनिधि ग़ज़लें हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 23.04.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई हरेराम समीप जी के ग़ज़ल संग्रह  "प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम समीप" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
ये सिर्फ़ शायर की नहीं, अपने समय की प्रतिनिधि ग़ज़लें  हैं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह- प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम नेमा ‘समीप’
कवि           - हरेराम नेमा ‘समीप’
प्रकाशक    - हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर (उ०प्र०) 246701
मूल्य          - 250/-
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‘‘प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम नेमा ‘समीप’’’- यह ग़ज़ल संग्रह हिंदी ग़ज़ल यात्रा श्रृंखला के अंतर्गत हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर द्वारा प्रकाशित की गई है। हरेराम नेमा ‘समीप’ हिंदी साहित्य जगत में ‘हरेराम समीप’ के नाम से जाने जाते हैं। 13 अगस्त 1951 को नरसिंहपुर (म.प्र.) में जन्में हरेराम ‘समीप’ फरीदाबाद के निवासरत हैं। वाणिज्य एवं विधि में स्नातक इस कवि ने दोहा, कविता, कहानी, आदि विविध विधाओं में लेखन किया, किन्तु जब वे हिंदी ग़ज़ल विधा में प्रविष्ट हुए तो हिंदी ग़ज़ल की स्थापना में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। पहले उर्दू ग़ज़ल के शिल्प और व्याकरण को उन्होंने समझा और फिर हिन्दी ग़ज़ल के शिल्प और व्याकरण पर केन्द्रित पुस्तकें लिखीं। जैसे- ‘‘हिंदी ग़ज़लकार एक अध्ययन’’ (चार खंड), ‘‘हिंदी ग़ज़ल की परंपरा’’, ‘‘हिंदी ग़ज़ल की पहचान’’ आदि। इन आलोचनात्मक पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने कई ग़ज़ल संग्रहों का संपादन भी किया। साथ ही वे स्वयं एक चर्चित ग़ज़लकार हैं।

‘‘प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम नेमा समीप’’ में संग्रहीत हरेराम समीप की ग़ज़लों पर दृष्टिपात करने के पूर्व इस बात की चर्चा कर ली जाए कि साहित्य निकेतन को इस प्रकार के संग्रह प्रकाशित करने का विचार कैसे आया? इस संबंध में संग्रह के आमुख में डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल ने योजना के उद्देश्य के बारे में विस्तार से लिखा है -‘‘किसी पाठक के लिए यह संभव नहीं होता कि वह एक साहित्यकार के सभी प्रकाशित गजल-संग्रहों को पढ़ सके। हिंदीभाषा में गजल लिख रहे, चुने हुए साहित्यकारों/रचनाकारों के प्रतिनिधि गजल-संग्रह प्रकाशित करने के पीछे प्रमुख उद्देश्य यही है कि पाठकों को एक स्थान पर ऐसे रचनाकारों की प्रतिनिधि गजलों को प्रस्तुत किया जाए, जिन्होंने पिछले 30-35 वर्षों में पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। इस कड़ी में नए और पुराने, दोनों ही रचनाकारों की कृतियों को शामिल करने की कोशिश की गई है। हम यह दावा भी नहीं करते कि प्रतिनिधि गजलों के लिए जिन रचनाकारों का चयन किया गया है, वे पूरे हिंदी गजल-संसार का प्रतिनिधित्व करते हैं।’’
इसके साथ ही डाॅ. अग्रवाल ने इन प्रतिनिधि ग़ज़लों के चयन के संबंध में भी जानकारी दी है कि -‘‘प्रतिनिधि गजलों का चयन पूरी तरह रचनाकारों ने किया है, इसमें संपादक की कोई भूमिका नहीं है। एक रचनाकार बेहतर जानता है कि उसकी कौन-सी गजलें उसकी रचनात्मकता का प्रतिनिधित्व करती हैं।’’
वैसे देखा जाए तो किसी भी रचनाकार के लिए यह सबसे दुरूह काम है कि वह अपनी रचनाओं में से स्वयं अपनी प्रतिनिधि रचनाएं चुने। हर रचनाकार को उसकी अमूमन सभी रचनाएं अच्छी लगती हैं क्योंकि वह तो अपनी सभी रचनाओं का सर्जक होता है। यह भी सच है कि रचनाकार को अपनी कुछ रचनाएं अपने दिल के बहुत करीब लगती हैं, उन्हें वह बार-बार पढ़ना और सुनाना पसंद करता है। किन्तु यहां कुछ रचनाओं का प्रश्न नहीं अपितु इस संग्रह में संकलित करने हेतु 96 ग़ज़लों को चुनने की चुनौती थी। इस संबंध में हरेराम ‘समीप’ ने आत्मकथन में लिखा है- ‘‘प्रस्तुत संकलन में मेरे सभी गजल संग्रहों से चुनी हुई 96 गजलें हैं। सन 1980 के आसपास गीत लिखते हुए मुझे गजल का संग-साथ मिला। तब मैंने उर्दू भाषा और साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया, उर्दू-गजल परंपरा और हिंदी-राजल-परंपरा को जानने, समझने का भी प्रयास किया और तब हिंदी में गजलें लिखना प्रारंभ किया साथ ही हिंदी-गजल-आलोचना पर कुछ लिखने का प्रयत्न किया। मैंने ये गजलें कभी समय बिताने या मात्र वाहवाही लूटने के लिए नहीं लिखी हैं, बल्कि इनके जरिए मैंने अपनी भावनाओं को ही शब्द देने का प्रयास किया है। इन गजलों के जरिए मैंने जीवन का ताप और गहन यथार्थ-बोध को विकसित करने का भी प्रयास किया है। दरअसल, मैंने बचपन से अपने गांव में बेहद अभाव, अन्याय, अपमान, अत्याचार और तिरस्कार के बीच कठिन संघर्षमय जीवन जिया था। फिर गांव से नगर में आकर रहने के दौरान मैंने व्यक्ति, परिवार, समाज और सत्ता की कथनी-करनी में इतनी विसंगतियां पाई थीं कि मेरा मन प्रश्नों व बेचैनियों का एक गोदाम बन गया। चूंकि ये गजलें मेरी इसी बेचैनी, इसी प्रश्नाकुलता और इसी छटपटाहट के शब्द-चित्र बनकर उतरी हैं, इसलिए ये गजलें अपने वर्तमान से साक्षात्कार भी कर रही हैं और आज के जीवन की छवियां भी प्रस्तुत कर रही हैं। अतः मैं इन्हें जिंदगी के अधिक करीब की गजलें मानता हूं।’’

पीड़ा वह स्थिति है जो व्यक्ति को तोड़ देती है, मिटा देती है किन्तु जो व्यक्ति पीड़ा से स्वयं को उबार कर संघर्ष करता चला जाता है, पीड़ा उसके लिए नींव का पत्थर साबित होती है। यदि एक रचनाकार पीड़ा से हो कर गुज़रा हो तो उसकी लेखनी की धार अलग ही होती है क्योंकि उसमें जीवन के यथार्थ का प्रतिबिम्ब होता है। ऐसा रचनाकार समय की नब्ज़ को पकड़ना जानता है। हरेराम समीप भी एक ऐसे ग़ज़लकार हैं जिन्होंने अपने आरंभिक जीवन से मिली पीड़ा को जीवन की सच्चाइयों को समझने और उसे उजागर करने का हथियार बनाया। यह किसी के प्राण लेने वाला हथियार नहीं वरन सोई हुई चेतना में प्राण फूंकने वाला हथियार था। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में वह सब कुछ कहा जो उन्हें कहना आवश्यक लगा। संग्रह की पहली ग़ज़ल ही इस तथ्य की बानगी है-  
कराहें  तेज  होती जा रही हैं।
दिलों में मौन बोती जा रही हैं।
दवाखाने को दौलत की पड़ी है,
हमारी सांसें खोती जा रही हैं।
बदल दो नाम अब अच्छाइयों का,
ये अपने अर्थ खोती जा रही हैं।

एक आम आदमी अपना सारा जीवन अपने परिवार की खुशियों के सपने देखने में बिता देता है। ऐसा नहीं है कि वह अपने सपने सच करने की कोशिश नहीं करता, वह जी-तोड़ कोशिश करता है लेकिन अपने सपने सच नहीं कर पाता है। एक आम आदमी का सपना होता ही क्या है? सबसे पहले एक अदद अपना घर। यह अपना घर सबको नसीब नहीं हो पाता है। इस सच्चाई को हरेराम समीप ने बड़ी सहजता से बयान किया है-
मेरा घर नक्शे में है।
नक्शा भी सपने में है।
इक पीपल गमले में है,
ज्यों ‘‘छोटू’’ ढाबे में है।
बेचारा वो इक पौधा,
बरगद के साये में है।

ये सपने ही तो हैं जो इंसान को गांव से शहरों की ओर खींच ले जाते हैं। जबकि शहर भी हर किसी के सपने सच नहीं करता, अधिकांश मात्र जूझते रह जाते हैं। गांव की चिरपरिचित सड़कें छोड़ने के बाद शहर की अपरिचित सड़कें इंसान का वज़ूद ही बदल देती हैं। शायर हरेराम समीप के ये कुछ शेर देखिए जिनमें एक कड़वी सच्चाई है कि सपने भी किस तरह कर्ज़ की भेंट चढ़ते जाते हैं-
गांव का वो कोहिनूर ।
शहर में बंधुआ मजूर।
फिर अदालत किसलिए,
क़ैद में हैं बेक़सूर।
अनवरत यह सिलसिला,
बाप, फिर बेटा मजूर।

हरेराम समीप अपने समय के यथार्थ को न केवल बीरीकी से समझते हैं वरन उसे अपनी ग़ज़लों में उतनी ही बारीकी से प्रस्तुत भी करते हैं-
सूरज दिखा के हमको नए इश्तिहार में।
ले जा  रहा  वो  राहनुमा  अंधकार में।
सब-कुछ तो बेचने पे तुला है वो आजकल,
पानी, हवा,  प्रकाश,  जमीं कारोबार में।
आज बाज़ारवाद में भौतिक वस्तुओं की अंधी दौड़ है। प्रिज, टीवी, कार, इलेक्ट्रानिक गेजेट्स आदि आज इंसान को सब कुछ चाहिए क्योंकि बाजार ऐसा चाहता है। इसके लिए बाज़ार ही कर्ज़ का कारोबार भी करता है और जो नतीजा होता है वह इस शेर में देखा जा सकता है-
जिंदगी हमने यूं गुजारी है।
आय से सौ गुना उधारी है।

 इस संग्रह में संग्रहीत हर ग़ज़ल की अपनी एक अलग ताब है। इन सभी को पढ़ना हरेराम समीप के हिंदी ग़ज़ल सृजन को गहराई से जानने के लिए जरूरी है। इस प्रकार की संग्रह श्रृंखला प्रकाशित करने की योजना भी प्रशंसनीय है क्योंकि इससे शोधार्थियों को हिंदी ग़ज़ल के विकास को जानने और किसी भी विशेष शायर की प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़लों को पढ़ने का अवसर मिलेगा। निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह है। इस संग्रह में संग्रहीत हरेराम नेमा ‘समीप’ की 96 ग़ज़लें एक शायर की प्रतिनिधि ग़ज़लें नहीं, अपने समय की प्रतिनिधि ग़ज़लें हैं। इनके द्वारा वर्तमान समय को भी समझा और परखा जा सकता है।
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Saturday, April 20, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | तारीफें सोई करो चाइए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
तारीफें सोई करो चाइए
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    बड़े-बूढ़े कै गए आएं, के जो कोनऊं गलत काम हो रओ होय औ ने तो कोनऊं कामचोरी कर रओ होय, सो ऊकी खिंचाई करी जाओ चाइए। जोन से बा सुधर सके। मनो, जो कोनऊं अच्छो काम करे सो ऊकी तारीफें सोई करी जाओ चाइए। अपने नगर निगम ने हमाई जान में पैली दार ऐसो अच्छो काम करो आए के ऊकी तारीफें तो बनत आएं। ऐसो नईयां के नगर निगम अच्छो काम नईं करत, बाकी ऊमें कोनऊं ने कोनऊं कमी-बेसी रै ई जात आए। अब सोचबे की बात आए के उते सिविल लाइन पे वीसी बंगला के इते अच्छो नोनो पब्लिक टॉयलेट बनो आए, जो अगर खुलो रै तो बिटियन खों, लुगाइयन खों खीबई सुविदा होय। मनो उते तो बरहमेस तारो डरो रैत आए। कुची कां रैत, जा कोनऊं खों पतो नईं। अब जे, सब कछू हो के बी कछू ने होबे वारी बात भई, के नईं? ऐसी मुतकी कमियां गिनाईं जा सकत आएं।
      मनो अबे तो बात हो रई तारीफ करबे की। नवरातें की अखीर में देवी मैया के जित्ते बी चलसमारोह निकरे, उनके पाछूं-पांछू चल रए नगरनिगम के ‘सफाई मित्र’ सफाई करत गए। ईसे जुलूस निकरबे के घंटा-खांड़ के भीतरे सड़कें साफ दिखन लगीं। सो, जे भई ने नगरनिगम खों तारीफें मिलबे वारी बात! औ जो अच्छो काम होय सो ऊकी तारीफें करबो बी जरूरी आए। रामधई, जो ऐसई तारीफ जोग काम जे करत रैं, सो कित्तो अच्छो होय। अपनो सागर सोई इंदौर घांईं सच्ची को नंबर वन बन जाए औ सच्ची तारीफें मिलें।   
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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मां डॉ विद्यावती "मालविका जी की तृतीय पुण्यतिथि पर सीताराम रसोई में पुत्री डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा वृद्धजन को भोजन

प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी मैंने वृद्धजन की सेवा तथा अन्य सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित संस्था श्रीसीताराम रसोई में अपनी मां डॉ विद्यावती "मालविका" जी की स्मृति में वृद्धजन को भोजन परोसा। यद्यपि मेरी अत्यंत अल्प सहयोग राशि सागर में एक बूंद के समान है किंतु वृद्धजन को अपने हाथों से परोसना बहुत सुख देता है।
   🚩 भोजन आरंभ होने के पूर्व नियमानुसार प्रतिदिन वृद्धजन प्रार्थना करते हैं और भजन गाते हैं। आज मैंने भी उनके साथ खड़ताल बजाते हुए भजन गए। मैंने स्पष्ट महसूस किया कि मेरा इस तरह उनके साथ बैठकर गाना उनके भीतर प्रसन्नता और ऊर्जा का संचार कर रहा था। मुझे भी बहुत प्रसन्नता हो रही थी। अपनत्व की भावना हमेशा हर पक्ष को सुख प्रदान करती है।
🚩 मेरा मानना है कि अपने प्रियजन की स्मृति में इस प्रकार वृद्धाश्रम, भोजन दान स्थल, बालाश्रम आदि में अवश्य जाना चाहिए। हमारा थोड़ा सा सानिध्य उन्हें बहुत-सा अपनापन देकर खुशियां देता है और हमें भी आत्मिक शांति मिलती है।
🚩 मेरे घर से श्री सीताराम रसोई की दूरी बहुत अधिक है। मेरा घर शहर के एक छोर पर है तो श्री सीताराम रसोई  शहर के दूसरे छोर पर ... आभारी हूं श्री पंकज शर्मा जी की जो मां  के प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए मुझे श्री सीताराम रसोई तक पहुंचने में प्रतिवर्ष सहयोग करते हैं।
🚩 जब आज मैंने सीताराम रसोई से अपने छोटे भाई विनोद तिवारी को फोन किया तो उन्होंने बताया कि वे रेलवे स्टेशन में पानी पिलाने में व्यस्त है क्योंकि इस समय दो ट्रेन आई हुई हैं। फिर उन्होंने एक बड़ी सुंदर बात कही जो मेरे मन को बहुत गहरे तक छू गई। विनोद भाई ने कहा कि "दीदी, मां हमें देख रही होंगी कि उनकी बेटी सीताराम रसोई में वृद्धों को खाना खिला रही है और उनका बेटा रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को पानी पिला रहा है। वे हमें देखकर प्रसन्न हो रही होंगी।"
🚩 यह सच है कि मेरी मां की स्मृति में विनोद भाई की छवि रेलवे स्टेशन में यात्रियों को पानी पिलाने वाले जन सेवक की ही रही। क्योंकि जब वे अस्पताल में थी और हमें संशय था कि वे लोगों को पहचान पा रही हैं या नहीं? फिर भी जब विनोद भाई ने उनसे पूछा की "मां मुझे पहचाना?" तो वे मुस्कुरा कर बोलीं, "हां बेटा, तुम वही हो जो रेलवे स्टेशन में यात्रियों को पानी पिलाते हो।"  शायद नाम उन्हें विस्मरण हो रहा था किंतु विनोद भाई का कार्य उनकी स्मृति में अच्छी तरह रचा बसा था। निश्चित रूप से उनका आशीष विनोद भाई जैसे प्रत्येक कर्मठ और सच्चे जन सेवकों पर हमेशा बना रहेगा।
🚩 मेरे घर से श्री सीताराम रसोई की दूरी बहुत अधिक है। मेरा घर शहर के एक छोर पर है तो श्री सीताराम रसोई  शहर के दूसरे छोर पर ... आभारी हूं श्री पंकज शर्मा जी की जो मां  के प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए मुझे श्री सीताराम रसोई तक पहुंचने में प्रतिवर्ष सहयोग करते हैं।
🚩 आभारी हूं  श्री सीताराम रसोई परिवार की... जहां कर्मचारी महिलाएं हमेशा मुस्कुरा कर आत्मीयता से स्वागत करती हैं तथा बड़ी जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह करती हैं। यह संस्था अशक्त वृद्धों को उनके घर पर भोजन पहुंचाने का कार्य भी करती है।
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मां डॉ विद्यावती "मालविका" जी की तृतीय पुण्यतिथि - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

20 अप्रैल...आज मेरी मां डॉ विद्यावती "मालविका" जी की तृतीय पुण्यतिथि है ... 
    वही घर... वही घर की दीवारें... वही खिड़कियां... वही दरवाजे... बस, मां नहीं हैं जिन्हें मैं कभी "मैया" तो कभी "नन्ना" कह कर पुकारा करती थी... एक प्रतिष्ठित लेखिका... एक लोकप्रिय शिक्षिका ... लेकिन मेरे लिए तो सबसे पहले मेरी मां थीं ... आज मैं पुकारूं तो किसको? ... बस, महसूस करती हूं कि वे हमेशा की तरह मेरे साथ हैं... यह भ्रम ही सही, पर जीने के लिए सहारा है... वर्षा दीदी होतीं तो मां के विछोह की पीड़ा हम दोनों एक-दूसरे को ढाढस बंधा के झेल लेते ... किन्तु नियति की क्रूरता ... 
     मां! लिखना तुमसे सीखा, पढ़ना तुमसे सीखा और ज़िंदगी की हर कठिनाइयों से जूझना भी तुमसे ही सीखा ... 
     मां! तुम्हारी 'शरदू' तुम्हें हर पल याद करती है ... तुम भी अपनी इस 'शरदू' को याद रखना... मेरे साथ रहना...😢🥺😢
💔
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Friday, April 19, 2024

शून्यकाल | क्या इतिहास खुद को कभी दोहरा सकेगा? (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
क्या इतिहास खुद को कभी दोहरा सकेगा?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          चाहे प्राचीन भारत का इतिहास उठा कर देखा जाए या मध्यकालीन भारतीय इतिहास, एकाध शासक को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो 99 प्रतिशत शासकों ने जनहित और प्रकृति हित को एक साथ साधा। वे चाहे मौर्य थे, गुप्त थे, तुगलक या सूरी थे, सभी ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की एक नीति को अवश्य दोहराया। यूं भी कहा जाता है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। क्या प्रकृति संरक्षण के संदर्भ में यह कहावत कभी खरी उतर सकेगी? 
      अभी चंद दिनों पहले की बात है, मैं मकरोनिया से सिविल लाईन जा रही थी। उस मार्ग पर कई महीनों से चौड़ीकरण का कार्य चल रहा है। उस मार्ग के दोनों ओर आर्मी क्षेत्र होने के कारण अंग्रेजों के समय से बड़े-बड़े वृक्ष लगे हुए हैं। मैंने देखा कि उनमें से कई पेड़ सड़क चौड़ीकरण की भेंट चढ़ गए थे। उनके कटे हुए ठूंठ देख कर रोना आ गया। जनसंख्या के बढ़ता दबाव और गाड़ियों की बहुसंख्या ने विवश कर दिया कि सड़कें चौड़ी की जाएं। यह एक जरूरत है जिसको पूरा करना भी आवश्यक है। मकरोनिया से सिविल लाईन के इस मार्ग पर एक पुल है जिसका नाम है कठवा पुल। उसके बारे में बताया जाता है कि अंग्रेजों के समय वहां लकड़ी का पुल था जिसके कारण उस पुल का नाम कठवा पुल पड़ा। इस कठवा पुल के पास हनुमान जी का पुराना मंदिर है। वे भी कठवापुल वाले हनुमान जी के नाम से प्रसिद्ध हैं। कालान्तर में कठवा यानी लकड़ी के पुल के स्थान पर सीमेंट का पुल बना दिया गया। लेकिन उसका नाम कठवापुल ही बना रहा। सीमेंट का बेहद मजबूत पुल। आज भी उसके अवशेष उसकी मजबूती की गवाही देते हैं। अब सड़क चौड़ीकरण के तहत उसे भी तोड़ कर चौड़ा किया जा रहा है। यह सब वर्तमान आवश्यकताओं को देखते हुए उचित लगता है। किन्तु इन सबके पीछे जो कुछ अनुचित धटित हो रहा है, वह दुखदायी है। वर्षों पुराने विशालकाय वृक्षों को काटा जाना पर्यावरण की दृष्टि से अनुचित है और भावी जलवायु संकट को देखते हुए दुखदाई है।
        ऐसा नहीं है कि पहले सड़कें नहीं बनीं अथवा पेड़ नहीं काटे गए। भारतीय इतिहास जो कि वस्तुतः राजवंशों का इतिहास है, उसे उठा कर देखें तो प्रत्येक राजा ने अपने राज्य का विस्तार किया। नए गांव, शहर बसाए। और विजित प्रदेशों, राज्यों तक पहुंच-मार्गों का विकास किया। परिवहन के तत्कालीन साधनों के अनुरुप सड़कें विकसित कीं। चाहे मौर्य वंश हो गुप्त वंश हो सभी राजाओं के आंतरिक नीतियों को देखें तो यही प्रमाण मिलते हैं कि उन्होंने सड़कें बनवाईं और उन सड़कों के किनारे फल वाले छायादार वृक्ष लगवाए। स्थान-स्थान पर कुए खुदवाए और राहगीरों के निःशुल्क विश्राम के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। भारतीय इतिहास के प्राचीनकालीन इतिहास के समापन के बाद ऐबक, खिल्जी, लोदी, सूरी आदि गैर भारतीय शासकों का शासनकाल आया। इन शासकों ने भी सत्ता सम्हालने के बाद अपने आधिपत्य वाले क्षेत्रों में सड़कें बनवाईं और सड़कों के किनारे फलदार एवं छायादार वृक्ष लगवाए। कुए और बावड़ियां खुदवाईं तथा सराय बनवाए। इनके बाद मुगलकाल को देखें तो मुगल कालीन शासकों ने भी इस नीति को यथावत रखा। अर्थात् सड़कों के साथ वृक्ष लगवाना और जल की व्यवस्था करना, सराय खुलवाना वे नहीं भूले। इस पूरे दौर में जो भारतवंशीय राजा थे, उन्होंने भी अपने-अपने देशों में इसी प्रकार के कार्य कराए। आज भी राजस्थान के किलों के आसपास पुरानी सड़कें और पानी की व्यवस्था देखी जा सकती है। कालंजर, धामोनी, चंदेरी, झांसी आदि सभी जगह सड़कों के किनारे पुराने वृक्ष तब तक मौजूद रहे हैं जब तक उन्हें काटा नहीं गया।
        न जाने कितनी कहानियां इन छायादार वृक्षों के नीचे से कही और सुनी गई हैं। बचपन में मैंने अपने नानाजी से एक कहानी सुनी थी। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि एक राजा ने अपने राज्य से दूसरे राज्य तक एक नई सड़क बनवाई। उसने वृक्ष तो लगवाए लेकिन इतनी दूर-दूर पर कि राहगीरों को लगातार छाया नहीं मिल पाती थी। इससे राहगीर परेशान हो जाते थे लेकिन किसी में इतना साहस नहीं था कि वे इस बारे में राजा से शिकायत कर सकें। एक बार दो राहगीर एक वृक्ष के नीचे सुस्ताने को बैठे और आपस में बातें करने लगे। उनकी चर्चा का विषय यही था कि अगर जरा पास-पास पेड़ लगाए गए होते तो अच्छा रहता। जिस पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे ये बातें कर रहे थे, उसी पेड़ पर एक चिड़िया बैठी थी। उसने दोनों की बातें सुनीं और सोचने लगी कि इस समस्या का हल निकालना पड़ेगा। दूसरे दिन वह चिड़िया राजमहल पहुंची। और राजा के साथ भ्रमण पर निकल पड़ी। वह राजा के आगे-आगे उड़ रही थी। राजा ने देखा कि वह कुछ दूर जाती है और फिर एक बीज बो देती है। यह देख कर राजा को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया से पूछा कि ‘‘ये तुम क्या कर रही हो?’’ तो उसने कहा ‘‘राजन! जो काम आपसे छूट गया उसे मैं पूरा कर रही हूं ताकि लोग आपको न कोसें।’’ फिर उसने राहगीरों की समस्या के बारे में बताया। यह सुन कर राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने दो वृ़क्षों की लंबी दूरी के बीच भी वृक्ष लगवाए। आज तो चिड़ियां अपने ही घरों को उजड़ने से नहीं बचा पा रही हैं तो मनुष्यों की भला क्या सहायता कर सकेंगी? और ऐसे राजा भी नहीं हैं जो चिड़िया की बात सुन कर अपनी चूक सुधार लें। 
        आज कहानी नहीं किन्तु इतिहास को सामने रख कर उससे सबक लिया जा सकता है। लेकिन अफ़सोस कि आज इतिहास से भी अपने मतलब चीजें ही छांटी जाती हैं। आज सड़कों के किनारे ढाबे, होटल्स, रिसाॅर्ट्स तो अनेक हैं लेकिन निःशुल्क धर्मशाला और सराय गायब हो गए हैं। यहां तक कि छाया और पानी भी निःशुल्क नहीं मिलते हैं। एक से एक सुविधाएं हैं किन्तु पैसे खर्च करने पर उपलब्ध हैं। भय और अविश्वास का वातावरण इतना गहरा चुका है कि कोई भी व्यक्ति आज अनजान पाहुने को पनाह देने का जोखिम नहीं उठाना चाहता है। शहरों के अंदर भी लगभग यही दशा है। कड़क धूप में दो घड़ी की छांह भी मिलनी कठिन हो गई है। जबकि सरायों ने भी न जाने कितने किस्सों को जन्म दिया। बुंदेलखंड में ही ठग और पिंडारियों के जमाने की एक कथा कही-सुनी जाती रही है कि एक बुजर्ग व्यापारी अपनी बैलगाड़ी से सागर से जबलपुर की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे एक युवा व्यापारी मिल गया। वह भी सागर से जबलपुर जा रहा था। दोनों साथ हो लिए। युवा व्यापारी ने बुजुर्ग व्यापारी से कहा कि वे दोनों अपनी-अपनी बैलगाड़ी में बैठे रहें तो यात्रा में उकता जाएंगे। इसलिए दोनों एक बैलगाड़ी में बैठ जाते हैं और दूसरी वाली को पीेछे बांध के ले चलते हैं। बुजुर्ग व्यापारी मान गया। कुछ मील दोनों आराम से बातें करते चलते रहे। फिर उस बुजुर्ग व्यापारी को नींद आने लगी। वह झपकने लगा। युवा व्यापारी ने उससे कहा कि चल कर अगली सराय में ठहर जाते हैं। वहां थोड़ा आराम कर के फिर दोनों आगे बढ़ेंगे। बुजुर्ग व्यापारी मान गया। दोनों सराय पहुंचे। थका हुआ बुजुर्ग व्यापारी जल्दी ही गहरी नींद में सो गया। उस युवा व्यापारी ने बुजुर्ग व्यापारी का सारा सामान समेटा और वहां से भाग खड़ा हुआ। जब बुजुर्ग व्यापारी की नींद खुली और उसने उस युवा व्यापारी और अपने सामान को नदारत पाया तो समझ गया कि दरअसल वह व्यापारी नहीं बल्कि एक ठग था जो उसे लूट कर भाग गया। लेकिन पेड़ पर बैठे एक कौवे ने उसे देख लिया था। वह कांव-कांव करता उसके साथ चलने लगा। युवा व्यापारी ने कौवे को भगाने कोशिश की लेकिन वह नहीं भागा। यह देख कर लोगों को शक हुआ और उन्होंने उस ठग को पकड़ लिया। यह कहानी सभी यात्रियों के लिए एक सबक के रूप में सुनाई जाती रही। यदि सराय नहीं होती तो यह कहानी भी नहीं होती और जो सड़कें नहीं होतीं तो सराय भी नहीं होती। और जो छायादार वृक्ष न होते तो कहानी का वह कौवा भी नहीं होता।            
         यदि इतिहास अपने आप को दोहराता है तो सड़क के चौड़ीकरण के बाद सड़कों के दोनों किनारों पर फल और छायादार वृक्षों का इतिहास क्यों नहीं दोहराया जा रहा है? विभिन्न राज्यों में दो लेन से लेकर आठ और बारह लेन तक की सड़कें बन चुकी हैं। यह सड़कों के चौड़ीकरण की ही प्रक्रिया है। इसी तरह की किसी भी सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगाने की जरूरत नहीं समझी गई। प्रकृतिप्रेम और प्रकृति की सुंदरता की गोया ‘‘डमी’’ दिखाने के लिए इन चौड़ी सड़कों के बीच डिवाईडर्स पर बोगनबिलिया जैसे फूलदार पेड़ लगा दिए गए हैं जिन्हें ट्रिम कर के बौना ही बनाए रखा जाता है। यूं भी डिवाईडर पर वृक्ष तो लगाए नहीं जा सकते हें। यानी हम विकास की घटनाएं तो दोहरा रहे हैं लेकिन प्रकृति के संरक्षण के इतिहास को नहीं दोहरा रहे हैं।       
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