Thursday, February 29, 2024
डॉ हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा चंदेल कला पर शोध पत्र प्रस्तुत
बतकाव बिन्ना की | दुनिया कैसी ? मोए जैसी ! | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
Wednesday, February 28, 2024
चर्चा प्लस | बुंदेली जिंकड़ी भजनों की कथात्मकता एवं दार्शनिकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, February 27, 2024
पुस्तक समीक्षा | राजा बुकरकना : आधुनिक संदर्भों के साथ बुंदेली लोककथा का बेहतरीन नाट्य रूपांतर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 27.02.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यासुंदर दुबे की नाट्य-पुस्तक "राजा बुकरकना" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
राजा बुकरकना : आधुनिक संदर्भों के साथ बुंदेली लोककथा का बेहतरीन नाट्य रूपांतर
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - राजा बुकरकना
लेखक - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक - इंडिया पब्लिशिंग हाउस, ई 5/21, अरेरा काॅलोनी, हबीबगंज पुलिस स्टेशन रोड, भोपाल-16
मूल्य - 100/-
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लोक संस्कृति के मर्मज्ञ डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने बुंदेली लोक संस्कृति पर कई पुस्तकें लिखी हैं। उनकी नाट्य-पुस्तक ‘‘राजा बुकरकना’’ बुंदेली लोक कथा ‘‘राजा बुकरकना’’ पर आधारित है। इस नाटक को पढ़ते समय दो बातें मेरी स्मृति में उभर आईं- पहली यह कि एक ही लोककथा अपने विविध रूपों में विविध भौगोलिक क्षेत्रों में विद्यमान रहती है। और दूसरी यह कि यह नाटक भारतेन्दु परंपरा का कहा जा सकता है। लोक के कहन की अपनी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि वह विद्रूपताओं पर उस चाबुक से वार करता है जो दिखाई तो नहीं देता है किन्तु गहरी चोट करता है। राजशाही के समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रही। उस समय कोई भी स्पष्ट विरोध नहीं कर सकता था, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जाना तय था। अतः विरोध का स्वर किसी कथा अथवा गीत के रूप में मुखर किया जाता। इसीलिए लोक में प्रचलित कथाएं एवं गीत समसामयिक स्थितियों का इतिहास रचते हैं। वे तत्कालीन परिस्थितियों से अवगत कराते हैं। साथ ही वे इस बात के प्रति विश्वास प्रकट करते हैं कि अन्याय अथवा अव्यवस्था हमेशा नहीं रहती है। समय आने पर स्थितियों में परिवर्तन होता है। लगभग यही संदेश इस नाटक के कलेवर में भी उपस्थित है।
राजा बुकरकना से आशय है वह राजा जिसके कान बकरे के कान की भांति हैं। जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया कि प्रत्येक लोककथा सौ कोस में बोली के अंतर के साथ थोड़ी बदल जाती है। मैंने भी इस लोककथा को अपने बचपन में अपने नानाजी के मुख से अनेक बार सुना था। किन्तु नानाजी द्वारा सुनाई जाने वाली कथा में राजा के कान बकरे के कान की भांति नहीं थे बल्कि राजा के सिर पर दो सींग उग आए थे और इसीलिए कथा का नाम था ‘‘राजा के दो सींग’’। शेष कथानक लगभग वही था जो ‘‘राजा बुकरकना’’ का है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है कि एक राजा के कान बढ़ते हुए बकरे के कान के समान लंबे हो जाते हैं (मेरी सुनी कथा के अनुसार सींग उग आते हैं) जिन्हें वह साफा बांध कर छुपाए रखता है। मगर राजा का हज्जाम बाल काटने के दौरान इस रहस्य को जान जाता है। राजा उसे धमकाता है कि यदि उसने यह बात किसी को बताई तो उसे मृत्युदंड दे दिया जाएगा। हज्जाम को व्याकुलता होती है और उससे चुप नहीं रहा जाता है तब वह जंगल में जा कर एक पेड़ को सारी बात बता देता है। कालांतर में उस पेड़ को काट कर उससे वाद्ययंत्र बनाए जाते हैं जो राजा के सारे रहस्य दुनिया के सामने उजागर कर देते हैं। इस लोककथा का नाट्य रूपांतर करते समय लेखक श्यामसुंदर दुबे ने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की लंबी कविता ‘‘असाध्य वीणा’’ की आधार बनी चीनी लोककथा से भी प्रेरणा ली है जिसका उल्लेख उन्होंने आरंभ में ही किया है। लेखक ने लिखा है कि ‘‘इस लोककथा के साथ अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता ‘असाध्य वीणा’ की चर्चा करना चाहता हूं। यह लंबी कविता चीनी लोककथा का रचनात्मक विस्तार है। इसमें एक बड़ा पुराना किरीट तरु है। इस तरु की लकड़ी से वीणा बनाई जाती है। जब यह वीणा राजदरबार पहुंचती है तो कोई भी वीणा वादक इसे नहीं साध पाता है। केशकंबली नामक साधु इसे अपनी गोद में रखता है और वीणा अपने आप बजने लगती है। वीणा से वह सुर संसार निनादित होता है जो जीवन भर किरीट तरु अपनी छाया के विस्तार में पीता रहा है।’’ लेखक ने आगे लिखा है कि ‘‘ये दोनों पक्ष नाटक रचते समय थे। मैंने इस नाटक को इन दोनों प्रसंगों के स्थूल आशयों से मुक्त किया है। इसे अपने समय में विस्तारित करना चाहता था और मैंने किया भी वहीं। कुछ मुद्दे मेरे सामने थे इसमें पहला और महत्वपूर्ण मुद्दा है अभिव्यक्ति का संकट।’’
लोककथा ‘‘राजा बुकरकना’’ हो या अज्ञेय की ‘‘असाध्य वीणा’’, दोनों में अभिव्यक्ति के संकट को रेखांकित किया गया है। यही मूल मुद्दा ‘‘राजा बुकरकना’’ नाटक का भी है। राजा और उसके कथित ‘‘न्याय’’ के प्रसंग पर लेखक श्यामसुंदर दुबे ने भी भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘‘अंधेर नगरी’’ का स्मरण किया है जिसमें एक फरियादी अपनी फरियाद ले कर राजा के पास पहुंचता है और कहता है कि कल्लू बनिए की दीवार गिर गई जिसमें उसकी बकरी दब कर मर गई। राजा न्याय करने के लिए कल्लू बनिए, कारीगर आदि को एक के बाद एक बुलाता है। सभी अपने आप को निर्दोष बता कर छूटते जाते हैं। अंततः राजा दीवार को फांसी दिए जाने का हुक्म सुनाता है। यह सटीक और अभिव्यंजनात्मक तीखा कटाक्ष ‘‘राजा बुकरकना’’ में भी है। इसीलिए से भारतेंदु परंपरा का नाटक कह सकते हैं। वैसे इसमें विजय तेंदुलकर के ‘‘शांताता कोर्ट चालू आहे’’ और ‘‘घासीराम कोतवाल’’ भी ध्वनित होता प्रतीत होगा क्योंकि लेखक ने अपने इस नाटक में भले ही लोककथा के राजशाही वातावरण को आधार बनाया है किन्तु इसमें भाषा एवं संवाद आधुनिक रखे हैं। इससे नाटक में कहन की धार और तीखी हो गई है। जैसे शाही हकीम राजा को बताता है कि एक वायरस फैला हुआ है जो काटता तो एक को है लेकिन उसका असर लाखों लोगों पर पड़ता है और यह किताब के पुराने पन्नों में चिपका रहता है। राजा फिर भी समझ नहीं पाता है तो शाही हकीम और विस्तार से समझाता है कि -‘‘ जी हां हुजूर! यही इस कीड़े की खासियत है। अक्षरों में फंसा-फंसा ये अपनी अपनी सेहत सुधारता रहता है। अक्षरों में क्या नही है हुजूर! अक्षर से खून रिसता है। अक्षर से आंसू बहते हैं। अक्षर में हंसी दुबकी बैठी है। अक्षर में फांसी का फंदा है। अक्षर से नहीं अलग कोई बंदा है। अक्षर चंदा है। अक्षर चुनाव है। अक्षर भाव है ताव है। अक्षर में घुसी है इमरजेन्सी! इमरजेन्सी के दिल में पांव पसारे लेटा है यह कीड़ा ! इस कीड़े के द्वारा फैलायी गयी पीड़ा भोगता है- देश सारा। राजन! आपके हलक में भी यह कीड़ा फंसा है वह बांयी ओर सरक कर दायी ओर आ रहा है। आपका यह कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा। जहा होता यह कीड़ा वहा होता आनंद ही आनंद!’’
यह आस्वाद विजय तेंदुलकर के नाटकों में मौज़ूद है। कहना होगा कि लेखक श्यामसुंदर दुबे ने लोककथा को बड़े सुंदर ढंग से आधुनिक प्रसंगों से जोड़ कर इसे समसामयिक बना दिया है। इस नाटक को पढ़ते समय विश्व इतिहास के कई प्रसंग भी सहसा स्मृति में कौंध जाते हैं। जैसे रोम के राजा नीरो की कथा। कहावत ही है कि ‘‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था’’। या फिर फ्रांस के राजा लुई सोलहवें की कथा जिसकी रानी मारिया आंत्वानेत भूख से पीड़ित जनता को कहती है कि ‘‘रोटी ने मिले तो डबलरोटी खाओ!’’ शासनतंत्र का असंतुलित उत्सवी माहौल आमजन के लिए कष्टप्रद होता है। जैसे नाटक ‘‘राजा बुकरकना’’ में मंत्री सचिव से कहता है कि- ‘‘इस राष्ट्रीय दिवस को मनाने के लिये एक परिपत्र जारी किया जायेगा। सचिव महोदय ! नोट करें, कि इस दिन संपूर्ण राष्ट्र में केवल नाच-गान ही चलता रहे। अखंड नाच-गान। दुनिया को पता चलना चाहिए कि हमारा राष्ट्र ही दुनिया का सबसे बड़ा सुखमय राष्ट्र है। इस वर्ष की सुखी राष्ट्रों की विश्व सूची में राष्ट्र का नाम सबसे ऊपर होना चाहिए।’’
राजा के जन्म दिवस के समय का दृश्य है- ‘‘राजा का जन्म दिवस मनाने मंच सजाया गया है। एक बड़ा बैनर लगा है। जिस पर हैप्पी बर्थ डे लिखा है। एक केक भी सजाया गया है।’’ इसके बाद राजा सोने के चाकू से केक काटता है। लोग उसे उपहार भेंट करने को तत्पर होते हैं तब मंत्री कहता है- ‘‘सभी लोग अपने उपहार कोष प्रभारी के कक्ष में कार्यक्रम के बाद ले जाएंगे। अभी अपने-अपने पास ही रखें। अभी आप लोग हमारे विशेष कार्यक्रम का इस क्षण आनंद ले। ये कार्यक्रम हमारे राष्ट्रीय कला गुरुओं के द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा। यह कार्यक्रम वाद्यवादन का आकर्षक कार्यक्रम है। तो लीजिए आप सब इसका आनंद लीजिए।’’ इसी के साथ का दृश्य - ‘‘एक चबूतरे पर संगीत मंडली बैठी है। वह अपना कार्यक्रम शुरू करती है। वाद्य यंत्रों को उनके वादक ठोकते पीटते हैं।’’
राजशाही का भोंडा यथार्थ इस नाटक में अपने अलग रंग और ढंग से प्रस्तुत हैं। इसे पढ़ते हुए आजकल छुटभैये नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर लगाए जाने वाले जन्मदिन के बधाई संदेश आंखों के सामने कौंध जाते हैं।
बात वहीं आ अटकती है यथार्थ के अभिव्यक्ति की। सन 1805 में जन्मे डेनिश लेखक हैंस क्रिश्चियन एंडरसन द्वारा लिखित कहानी ‘‘द एम्परर्स न्यू क्लॉथ्स’’ जो विश्व की 100 से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है, हिन्दी में ‘‘राजा नंगा है’’ के नाम से अनूदित हुई। इस कथा में अदृश्य वस्त्र पहनने के भ्रम में पड़ा राजा दरबार में भी निर्वस्त्र बैठने लगता है किन्तु किसी का साहस नहीं हो पाता है कि कह सके-‘‘राजा नंगा है’’। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के अलग-अलग रूप राजशाही में खुल कर दिखाई दिए हैं। प्रजा को यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न हो तो राजदोष बना रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी गई। ‘‘राजा बुकरकना’’ में हर अंक विसंगतियों को हाईलाईट करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरवी करता अनुभव होता है।
‘‘राजा बुकरकना’’ नाटक में सीमित पात्र हैं जो कि पठन और मंचन दोनों दृष्टि से उत्तम है। नाटक में मुख्य पात्र हैं- राजा कर्णेश्वर, शाही हज्जाम धन्ना, धन्ना की मां चमेली, राजकुमारी। गौण पात्र हैं- सेनापति, मंत्री कोष प्रभारी, चोबदार, संदेश वाहक, शाही हकीम, जल्लाद तथा तीन-चार लोग। भाषा सरल, सटीक, चुटीली और आधुनिक परिवेश की है। समूचा नाटक रोचकता से परिपूर्ण है। इसमें रंगमंच की लोकधर्मी परंपरा का निर्वाह किया गया है। नाटक के अंक-तीन का चौथा दृश्य धन्ना के काव्यात्मक एकालाप का है जिसमें वह पेड़ के पास जा कर राजा का रहस्य उसे बता देता है। यह दृश्य बेहद प्रभावी है। वस्तुतः यह नाटक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थितियों का एक ऐसा दृश्य प्रस्तुत करता है जो राजा और प्रजा के भेद तथा प्रजा पर शासन के शिकंजे का बखूबी रेखाचित्र खींच देता है। नाटक ‘‘राजा बुकरकना’’ राजशाही युग के पात्रों के माध्यम से आधुनिक जीवन का आख्यान प्रतीत होता है तथा इसमें बुंदेली लोककथा को समुचित और सटीक नाट्य-विस्तार दिया गया है।
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Tuesday, February 20, 2024
पुस्तक समीक्षा | भक्ति के मर्म को व्याख्यायित करती गुजराती कृति का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 20.02.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ गौतम पटेल की मूल गुजराती पुस्तक "भक्ति नो मर्म" की डॉ चंचला दवे द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद पुस्तक "भक्ति के मर्म" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भक्ति के मर्म को व्याख्यायित करती गुजराती कृति का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - भक्ति का मर्म
लेखक - गौतम पटेल
अनुवादक - चंचला दवे
प्रकाशक - लकुलीश योग युनिवर्सिटी, लोटस व्यु, निरमा युनिवर्सिटी के सामने, छारोडी, सरखेज - गांधीनगर हाईवे, अमदावाद, गुजरात
मूल्य - 300/-
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मूल गुजराती में लिखी गई पुस्तक ‘‘भक्ति नो मर्म’’ एक बहुचर्चित और बहुपठित पुस्तक है। इस पुस्तक की उपादेयता एवं भक्ति को जानने की जनरुचि को देखते हुए अहमदाबाद स्थित लकुलीश योग युनिवर्सिटी ने इसे हिन्दी में भी उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। सागर मध्यप्रदेश में निवासरत विदुषी अनुवादिका डाॅ. चंचला दवे को अनुवाद कार्य का दायित्व सौंपा गया। जिसके उपरांत ‘‘भक्ति नो मर्म’’ का हिन्दी में ‘‘भक्ति का मर्म’’ नाम से अनुवाद प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व इस पुस्तक का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद हो चुका है। पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का आमुख लिखा है प्रो. बलवंत राय जानी, कुलाधिपति, डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर ने तथा डाॅ सुरेश आचार्य एवं नरेन्द्र दुबे ने पुस्तक के कलेवर तथा अनुवाद पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। पुस्तक के लेखक डॉ. गौतम पटेल ने डाॅ. चंचला दवे के अनुवाद कार्य पर टिप्पणी करते हुए मूल पुस्तक के आकार में आने के संबंध में संक्षिप्त विवरण दिया है- ‘‘मैंने परम श्रद्धेय मित्रवर आचार्यश्री कानजीभाई पटेल के अनुरोध पर अहमदाबाद की सुप्रसिद्ध संस्था एल. डी. इंडोलाजिकल इंस्टीट्यूट में भक्ति विषयक तीन प्रवचन किये। शिमला स्थित ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवान्स स्टडीझ’ ने मुझे एक समर वेकेशन में ‘रिसोर्स परसन’ के रूप में आमंत्रण दिया। उसी समय श्रीमती डॉ. भुवन चन्देल वहाँ डायरेक्टर के रूप में सेवा प्रदान करती थी। वहाँ भी भक्ति विषय को केन्द्र में और कर्णाटक की ‘संशोधन’ नामक संस्था द्वारा आयोजित सेमिनार में तिरुपति में ‘श्रीमद् वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति’ इस विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत किया। इन सभी की जो शोध (खोज) मेरे पास थी उसके अनुसार गुजराती में ‘भक्तिनो मर्म’ नामक ग्रंथ संस्कृत सेवा समिति ने प्रकाशित किया। उसकी भूमिका विश्ववंद्य संत मोरारी बापू ने लिखी एवं आशीर्वाद प्रदान किया।’’
‘‘भक्ति नो मर्म’’ की हिन्दी में उपलब्धता वर्तमान में और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आज भक्ति की भावना सभी के हृदय में हिलोरें ले रही है लेकिन हर व्यक्ति नहीं समझ पाता है कि वस्तुतः भक्ति क्या है? किसी गुरु का स्तुततिगान करना, किसी मंदिर की चैखट में माथा टेकना, किसी विशेष रंग का वस्त्र पहना लेना अथवा जोश में भर कर जयकारे लगाना- क्या यही भक्ति है? यदि नहीं, तो भक्ति क्या है? भक्ति एक बहुत गहरा विचार है, एक ऐसी अनुभूति भरा विचार जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को परिवर्तित करके ‘स्व’ को भुलाने की क्षमता रखता है। भक्ति का तात्पर्य है-स्वयं के अंतस को ईश्वर के साथ जोड़ लेने की प्रक्रिया ही भक्ति है। सांसारिकता के मोहपाश में बंधे रहना अथवा आडंबर ओढ़ लेना भक्ति नहीं है। भक्ति का अर्थ है पूर्ण समर्पण। सरल शब्दों में कहें तो आत्मा की डोर का परमात्मा से बंध जाना भक्ति है। ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला सच्चा साधक ही भक्त है। भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘भज’’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘‘सेवा करना’’ या ‘‘भजना’’ है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। महर्षि व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है।
डाॅ गौतम पटेल ने अपनी पुस्तक में सम्पूर्ण कलेवर को उपसंहार संहित पांच अध्यायों में विभक्त किया है-1 भक्ति की उत्पत्ति एवं विकास, 2. भगवद् गीता में भक्ति 3. श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति, 3. श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति 4. शुद्धाद्वैत सिद्धांत में भक्ति तथा 5. उपसंहार।
प्रथम अध्याय ‘‘भक्ति की उत्पत्ति एवं विकास’’ के अंतर्गत लेखक ने भक्ति की उत्पत्ति के बारे में विवरण दिया है तथा भक्ति के विकास को व्याख्यायित करते हुए सात उपशीर्षकों के अंतर्गत उद्धरण सहित विविध विचारों को प्रस्तुत किया है। इसके अंतर्गत हैं- वेदों में भक्ति, शांडिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति, नारद भक्ति सूत्र में भक्ति, नारद पंचरात्र में भक्ति की व्याख्या, भक्ति रसायन के अनुसार भक्ति, भक्तिरसामृतसिन्धु में भक्ति, शरणागति अथवा प्रपत्ति।
दूसरे अध्याय ‘‘भगवद् गीता में भक्ति’’ के अंर्तगत ‘‘भगवद् गीता’’ पर आधारित भक्ति के स्वरूप को रेखांकित ेिकया है। इस अध्याय में है- भगवद् गीता में भक्ति, आदि शंकराचार्य के मतानुसार भक्ति तथा श्री रामानुजाचार्य के मतानुसार भक्ति।
तीसरे अध्याय ‘‘श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति’’ में लेखक ने भक्ति के उस स्वरूप का विवरण दिया है जिसका उल्लेख भागवत पुराण में मिलता है-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः।।
- ‘‘यहाँ श्रीमद्भागवत पुराण को ‘वेदरूपी कल्पवृक्ष’ का पका हुआ फल कहा गया है। यही भागवत की अद्वितीय विशेषता है। यहाँ व्यास महर्षि ने, रसिको को जीवन के अंतिम क्षण तक, जब तक यह देह पंच-भूतों में विलीन हो, तब तक बारम्बार भागवत रूपी रस का पान करने का आव्हान किया है। क्योंकि यह भागवत वेदरूपी कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है एवं इसका रस शुक (तोता-शुकदेवजी) के मुख से प्रवाहित हो रहा है। ऐसी मान्यता है कि जिस फल को शुक अपनी चोंच मारता है, वह अत्यंत ही मधुर होता है।’’
इसी अध्याय में लेखक ने हिन्दू संस्कृति में मान्य अवतारवाद केा तार्किक ढंग से सामने रखा है। उन्होंने लिखा है कि-‘‘मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नृसिंहो वामन एव च।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किस्तथैव च।।
- अर्थात दसअवतार के रूप में ईश्वर धरती पर अवतरित हुए। ये दस अवतार हैं- ‘‘1. मत्स्य 2. कूर्म 3. वराह 4. नृसिंह 5. वामन 6. परशुराम 7. राम 8. कृष्ण 9. बुद्ध एवं 10. कल्कि।’’
लेखक डाॅ. गौतम पटेल ने आगे लिखा है कि ‘‘भारत में मत्स्यावतार के बाद कूर्मावतार की बात है, यहाँ सूक्ष्म उत्क्रांति हैं। मछली केवल पानी में रहती है। जब कछुआ अर्थात् कूर्म पानी में अधिक पृथ्वी पर कम रहता है। तीसरा अवतार वराह है। वराह पृथ्वी ऊपर अधिक, पानी में कीचड़ में कम रहता है। इसके पश्चात् नृसिंह अर्थात् आधी देह प्राणी की, आधी देह मनुष्य की, प्राणी में से मानव की तरफ उत्क्रांति हुई। उसके बाद वामन अवतार हुआ। वामन अर्थात् लघु मानव, तदनंतर परशुराम-पूर्ण मानव । परंतु उसमें पशुकी तरह हिंसा, क्रोध, बैर जैसे लक्षण रह गये हैं। इसके पश्चात् राम आये-संपूर्ण मानव के रूप में, आदर्श मानव के रूप में। मानव में अपेक्षित सभी सद्गुण इनके अंदर पाये गये। डार्विन मानव से आगे नहीं बढ़े, परंतु भारतीय अवतारवाद में राम में मानवीय गुणों की पराकाष्ठा है, जबकि कृष्ण में दैवीय गुणों की चरम सीमा है। इन दोनों की तुलना, समरसता भी रसप्रद है।’’
इसके बाद लेखक ने राम और कृष्ण अवतारों की परस्पर तुलना की है जोकि अपने आप में अत्यंत रोचक है।
चैथे अध्याय ‘‘शुद्धाद्वैत सिद्धांत में भक्ति’’ में शुद्ध अद्वैत मत के अनुसार भक्ति की व्याख्या करते हुए लेखक ने उपनिषद का उद्धरण दिया है कि -‘‘इस प्रकार वेद की संहिताओं में भक्ति का आरम्भ हुआ है-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्य होते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।
- जिन्हें ईश्वर में पराभक्ति हो वैसी ही गुरु में भी हो तो उस महात्मा को यह अर्थ प्रकाशित होता है। भक्ति के प्रति विचार एवं सिद्धांत बहुत ही प्राचीन हैं। शुद्धाद्वैत सिद्धांत पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति प्रभु की कृपा हे प्राप्त होती है एवं वह पुष्टि-भक्ति कहलाती है। पुष्टि अर्थात् पोषण, प्रभु का अनुग्रह ‘‘पोषणं तदनुग्रहः ’’। यह पुष्टि-भक्ति प्रभु की कृपा से पुष्टि-जीवों को ही प्राप्त होती है। प्रभु के विग्रह से विलग होकर ये जीव पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। प्रभु स्वयं इनमें भक्ति के बीज का रोपण करते हैं एवं मनन, श्रवण रूपी जल से सिंचन करते हैं। ब्रह्म-संबंध की दीक्षा प्रदान कर उसमें भागवत भक्ति का पुष्प खिलता है। भगवद् व्यसनरूपी फल की प्राप्ति होती है। ऐसा पुष्टि-भक्त प्रभु की भक्ति के बिना एक सांस भी नहीं ले सकता है। ऐसी इस सिद्धांत की मान्यता है।’’
वस्तुतः जिसके विचारों में शुचिता (पवित्रता) हो, जो अहंकार से दूर हो, जो किसी वर्ग-विशेष में न बंधा हो, जो सबके प्रति सम भाव वाला हो, सदा सेवा भाव मन में रखता हो, ऐसे व्यक्ति विशेष को हम भक्त का दर्जा दे सकते हैं। नर सेवा में नारायण सेवा की अनुभूति होने लगे, ऐसी अनुभूति ही सश्ची भक्ति कहलाती है। भक्त के लिए समस्त सृष्टि प्रभुमय होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-जो पुरुष आकांक्षा से रहित, पवित्र, दक्ष और पक्षपातरहित है, वह सुखों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है, परंतु अफसोस यह कि इस दौड़ती-भागती और तनावभरी जिंदगी में हम कई बार प्रार्थना में भगवान से भगवान को नहीं मांगते, बल्कि भोग-विलास के कुछ संसाधनों से ही तृप्त हो जाते हैं।
‘‘मैं भगवान नारायण या भगवान शिव या भगवान कृष्ण को प्रणाम करता हूँ।’’ यह भक्ति योग है. ‘‘सबमें मैं ही आत्मा हूँ।’’ यह ज्ञान योग है. अद्वैत वेदांती के अनुसार, भक्ति इस सूत्र पर निरंतर विचार करना है, ‘‘मैं वह हूं’’ या ‘‘मैं ब्रह्म हूं।’’ भक्ति मार्ग में पांच चीजें अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। (1) भक्ति निष्कामया प्रकार की होनी चाहिए। (2) अव्याभिचारिणी भी होनी चाहिए। (3) यह सादात (निरंतर) होना चाहिए. (4) साधक का सदाचार पूर्ण होना चाहिए। (5) अभ्यर्थी को बहुत गंभीर होना चाहिए और सही ढंग से अभ्यास करना चाहिए। तब बोध शीघ्र हो जाता है।
लेखक गौतम पटेल भारतीय भक्ति दर्शन के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने गहन अध्ययन, चिंतन, मनन के साथ मूल गुजराती में जो पुस्तक ‘‘भक्ति नो मर्म’’ लिखी है, उसका उतना ही श्रमसाध्य अनुवाद डाॅ. चंचला दवे ने किया है। अनुवादकार्य अपने-आप में ही एक पूर्ण सर्तकता भरा कार्य होता है क्योंकि इसके लिए आवश्यक होता है कि अनुवादक मूल कृति के मर्म को आत्मसात करे ताकि वह अनुवाद हेतु उचित शब्दों का चयन कर सके। डाॅ. चंचला दवे को गुजराती एवं हिन्दी का समुचित ज्ञान है अतः उन्हें शब्द चयन में कठिनाई नहीं हुई होगी। मूल गुजराती पुस्तक मैंने नहीं पढ़ी है किन्तु अनुवाद के संबंध में लेखक गौतम पटेल के आश्वस्ति भरे शब्द ‘‘यह अनुवाद माता गंगा की तरह पावन’’ लिखा जाना इस बात का द्योतक है कि लेखक संतुष्ट है अपनी कृति के अनुवाद के प्रति। जिसके आधार पर कह जा सकता है कि डाॅ चंचला दवे ने एक उत्कृष्ट अनुवाद कार्य कर के हिन्दी साहित्य को एक ऐसी गंभीर विषय की कृति से परिचित कराया है जिसकी वर्तमान में महती आवश्यकता है। भक्ति के स्वरूप एवं प्रकृति को जानने में रुचि रखने वालों के लिए यह कृति निश्चित रूप से पठनीय है।
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