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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, February 29, 2024

डॉ हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा चंदेल कला पर शोध पत्र प्रस्तुत

"मध्यप्रदेश की चन्देल कला एवं संस्कृति खजुराहो के परिप्रेक्ष्य में" विषय पर मैंने अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। अवसर था  प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, डॉ० हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) की'मध्यप्रदेश की कला एवं संस्कृति' विषय पर द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन का।
I presented my research paper on the topic "Chandel art and culture of Madhya Pradesh in the perspective of Khajuraho".  The occasion was the organization of a two-day national seminar on the topic 'Art and Culture of Madhya Pradesh' by the Department of Ancient Indian History, Culture and Archeology, Dr. Harisingh Gaur Central University, Sagar (MP).

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बतकाव बिन्ना की | दुनिया कैसी ? मोए जैसी ! | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
दुनिया कैसी ?  मोए जैसी !     
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘भैयाजी, आज भुनसारे मोरी नींद खुली, तभईं से मोए एक किसां याद आ रई। कओ तो सुना दई जाए।’’ मैंने भैयाजी से पूछी। मोए पतो के भैयाजी कभऊं मोय मनो ने करहें, चाए मैं उने किसां सुनाऊं चाए गारी गाऊं।
‘‘हऔ सुनाओ!’’ जैसी मैंने सोची रई, भैयाजी ने तुरतईं ‘हौ’ बोल दओ।
‘‘भैयाजी ऐसो आए के हिन्दी में कही जात के साउन के अंधरा खों सबई कछू हरीरो-हरीरो दिखात आए। सो, जेई टाईप की किसां बुंदेली में सोई कही जात आए। सुनो किसां!’’ मैंने कई।
‘‘हऔ तो सुनाओ अब। का भूमिकई बांधत रैहो?’’ भैयाजी चिड़कात भए बोले।
‘‘का भओ भैयाजी के एक हतो भगुंता नाई। ऊकी बड़े-बड़े घरों में पौंच हती। काए से के भगुंता हाथ-पांव की मालिश करबे में अव्वल हतो। एक दिना भगुंता को दूर-दराज को नातेदार गुजर गओ। ऊ मरबे के पैले भगुंता के लाने सोने की दो मोहरें छोड़ गओ। इके पैले भगुंता के पास एकऊ मोहरें ने हतीं, सो दो-दो मोहरें पा के ऊकी बांछें खिल गईं। पर इके संगे ऊको फिकर भई के जे मोहरन खों लुका के राखने परहे, ने तो कऊं कोनऊं छिना ने ले। कऊं कोनऊ चोर चुरा ने ले जाए। भगुंता ने सोची के घर की किवरियां खो कौन भरोसो, जा तो एकई लात की आए। इसे तो मोहरन खों संगे राखने में भलाई कहानी। सो, मोहरें राखने के लाने भगुंता को कोऊ जागां ने सूझी सो ऊने एक डबिया लई, ऊमें दोई मोहरे राखी औ डबिया खों अफ्नी मालिस की पेटी में धर लई।
‘‘अब ठीक आए। अब मोरी मोहरन खों कोनऊ हाथ ने लगा पैहे।’’ भगुंता ने सोची। काए से के पेटी तो बरहमेस ऊके संगई बनी रैत्ती। अब तो भगुंता अपनी पेटी खों औरई अपने कलेजे से चिपटाए रहन लगो।
एक दिना भगुंता सरपंच की मालिश कर रओ हतो। दोई जनों में कछू-कछू बतकाव सोई चल रई हती। सरपंच ने भगुंता से पूछी-‘‘काए रें, भगुंता। तोये तो पतो हुइये के गांव में का चल रओ?’’
‘‘आप मालक की किरपा! सब ठीकई चल रओ।’’ भगुंता बोलो।
‘‘कोनऊ खों कोई तकलीफ-परेसानी तो नइयां?’’ सरपंच ने पूछी।
‘‘तकलीफ परेसानी काए की? अपने तो गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरे राखत आएं।’’ भगुंता ऐंड़ के बोलो।
सरपंच ताड़ गओ के दाल में कछु कारो आए। सरपंच ने जा खबर तो सुन रखी हती के भगुंता खों अपने नातेदार के मरबे पे दो मोहरे मिली रईं। हो न हो, जा भगुंता ऊ मोहरन के लाने कै रओ। फेर सरपंच ने सोची के, बा मोहरे जा अफ्नी जेई पेटी में राखत हुइए, तभईं तो जा पेटी कलेजे से चिपटाए फिरत आए।
‘‘जारे, भगुंता! जा के भीतरे से तनक बिजना तो उठा ला। तनक गरमी सी लग रई।’’ सरपंच ने भगुंता से कई औ ऊको उते से टरका के, ऊकी पेटी थथोल डारी। सरपंच के हाथ बा डबिया लग गई जा में भगुंता ने मोहरे रखी हतीं। सरपंच ने सोची के जा भगुंता बड़ो ऐंड रओ आए, जा के लाने भगुंता खो सबक सिखाओ जाए। औ सरपंच ने डबिया से मोहरे निकार लई। तब लो मगुंता भीतरे से बिजना उठा लाओ। भगुंता समझई ने पाओ के ऊके पाछूं सरपंच ने ऊकी मोहरे निकार लई आएं।
सरपंच के इते से लौट के भगुंता ने अपनी पेटी जांची। ऊने डबिया में से मोहरे नदारत पाई। ऊको जी धक से रै गओ। ऊने पूरो घर छान मारो, मोहरें कहूं ने मिली। ऊने सोची के पेटी खोलत-करत में मोहरे कहू गैल में हेरा गई हुइएं। बा जे तो सोचई ने सकत्तो के सरपंच ऊकी मोहरे निकार सकत आए।
ऊ दिनां से भगुंता उदास रैन लगो।
ऊकी उदासी देख के एक दिनां सरपंच ने ऊसे पूछी- ‘‘काए रे भगुंता! तोये तो पतो हुइए के गांव में का चल रओ?’’
‘‘रामधई, बड़ो बुरओ चल रओ आए। मालक की किरपा नई रई, मालक रूठे कहाने। ’’ भगुंता ने मों लटका के कई।
‘‘काए? ऐसो का हो गओ? कौन-सी विपदा आन परी? अपने तो गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरें राखत आए।’’ सरपंच ने पूछी।
‘‘हजूर, अब कहां धरीं दो मोहरें।’’ भगुंता खिसियानो सो बोलो।
‘‘काए? तुमई तो कहत्ते के अपने गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरें राखत आएं।’’ सरपंच ने चुटकी लई।
‘‘अरे हजूर, ने पूछो। मोय तो कछु समझई में नई आत। जब लो मोरे ऐंगर दो मोहरे रईं सो मोये सबई के ऐगर मोहरें दिखात रईं। अब मोरी मोहरे हिरा गई सो मोये लगत आए के ई गांव में सबई के सब कंगला हो गएं। सो मोसेे से कछू ने पूछो, हजूर!’’ भगुंता की आंखन से टप-टप अंसुआं झरन लगे।
जा देख के सरपंच को जी पसीज गओ।
‘‘वाह रे भगुंता। तेरी तो बोई किसां ठैरी के दुनिया कैसी, मोए जैसी। जो मैं दुखी, सो दुनिया दुखी। जो मैं खुशी तो दुनिया खुशी। अरे मूरख, जे दुनिया खों अफ्नो घाई ने देखो कर। तू, तू आए औ दुनिया, दुनिया आए। सबई की अपनी खुशी औ अपने दुक्ख होए आएं। समझ परी कछू?’’ सरपंच ने भगुंता से कई और ऊकी सोने की दोई मोहरें ऊकी गदेली पे धर दईं।
भगुंता अपनी मोहरें देख के भौतई खुश हो गओ। बाकी ऊको समझ ने परी के सरपंच के लिंगे ऊकी मोंहरें कां से आई। पर ऊको ईसे का? कऊं से आई होय? मिल तो गईं। फेर सरपंच से पूछो बी नई जा सकत्तो।
ऊको खुश देख के सरपंच ने फेर ऊसे पूछी-‘‘काए भगुंता, अब गांव को का हाल-चाल आए?’’
‘‘मालिक की किरपा! अब सब ठीक हो गओ।’’ भगुंता पैले घाई चहक के बोलो।
‘‘सो अब कोनऊ खों कोऊ तकलीफ-परेसानी नइयां?’’ सरपंच ने फेर के पूछी।
‘‘काए की परेसानी, अपने गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरे राखत आए।’’ भगुंता पैलई घांईं बोलो।
जा सुन के सरपंच ने अपनो मूंड़ पीट लओ। औ मनई मन सोचन लगो के जे भगुंता तो मोहरन को अंधरा आए। जा नईं सुधर सकत।
‘‘सो भैयाजी, जा हती किसां।’’ किसां खतम करत भई मैंने कई।
‘‘हऔ, नोनी किसां हती। जा सो बई बात भई के दुनिया कैसी? मोय जैसी!’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! जेई तो सोचबे की बात आए के जब लों कछू पार्टी वारे जेई सोचत रैहें के दुनिया उनई के जैसी आए, तबलौं बे कभऊं ने जीते पाहें। अबे बी टेम आए के बे अपनी सोच बदल लेंवें, ने तो राम नाम सत्त हो जैहे।’’ मैंने कई।
‘‘ठीक कई बिन्ना!’’ भैयाजी ने मोरी बात की समर्थन कीे।
आप ओरें सोई सोचियो, जो मैंने झूठ कई होय! बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Wednesday, February 28, 2024

चर्चा प्लस | बुंदेली जिंकड़ी भजनों की कथात्मकता एवं दार्शनिकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
बुंदेली जिंकड़ी भजनों की कथात्मकता एवं दार्शनिकता
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      बुंदेलखंड का लोक साहित्य जीवनदर्शन से परिपूर्ण है। दुख की बात यह है कि यह साहित्य लोक से ही दूर होता जा रहा है। इसीलिए जीवन से भी दार्शनिकता कम होती जा रही है। आधुनिकता के नाम की शुष्कता लोक के चिंतन को किसी सोख़्ते की भांति सोखती जा रही है जिसमें भौतिकवाद की अंधी, अंतहीन दौड़ है। जीवन के प्रति सार्थक चिंतन की आती जा रही कमी ने आत्मघात के प्रतिशत को बढ़ा दिया है। जीवन का यथार्थ चिंतन क्या है, यह जान सकते हैं बुंदेली के जिंकड़ी भजनों के माध्यम से।    
लोक भजन जन सामान्य के मानस, चरित्र एवं दर्शन के द्योतक होते हैं। बुन्देलखण्ड लम्बे समय तक संघर्ष के साए में जूझता रहा। कभी मुगल शासकों से संघर्ष तो कभी अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष। देश की स्वतंत्रता के बाद आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए संघर्ष । ऐसे वातावरण में व्यक्ति का अपने आराध्य के प्रति घनीभूत मानसिक समर्पण स्वाभाविक है। जब कोई व्यक्ति किसी त्रासद स्थिति से गुजर रहा हो तो ऐसे समय में उसे उस व्यक्ति की तलाश रहती है जो उसके दुख-दर्द सुने और उसकी त्रासदी का उन्मूलन कर के उसे आंतरिक एवं बाह्य पीड़ा से छुटकारा दिलाए। त्रासदी के समय ढाढस पाने के लिए व्यक्ति को आवश्यकता होती है एक अतिविश्वस्त सहारे की और ऐसा सहारा कभी उसे ईश्वर में दिखाई पड़ता है, तो कभी किसी महानायक में दृष्टिगत होता है। वही विश्वस्त सहारा उसका आराध्य बन जाता है। अपने इसी आराध्य से अपना दुख- दर्द कहने, उसे सहायता के लिए पुकारते हुए उसकी प्रशंसा करने तथा उसके प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने की लयात्मक-गेय शैली ही वस्तुतः मनन है।    
विश्व की प्रत्येक भाषा एवं प्रत्येक बोली में भजन गाए जाते हैं। बुंदेलखण्ड में भी भजनों के आगार अपनी मौलिक विशिष्टताओं के साथ विद्यमान है। बुन्देलखण्ड के कुछ प्रमुख भक्तिगान हैं- भगते, जस, बीरौठी, पुंवारे, सुमरनी, आरती, मंगल आदि। इनमें भगतें मूलतः देवी के भक्ति गीत हैं, जस में देवीमां का यशोगान रहता है, बीरौठी में देवी मां के वीर रूप की स्तुति की जाती है तथा पुंवारे देवी स्तुति से युक्त कथात्मक गीत होते हैं।
सुमरनी, भगतें जस, पुंवारे, आरती, मंगल आदि के ही क्रम में अद्भुत दार्शनिकता एवं कथात्मकता से परिपूर्ण हैं जिंकड़ी भजन। इन्हें महाराष्ट्र में गाए जाने वाले लावनी की भांति गया जाता है। इसीलिए इन भजनों के गायन में स्वरों का सुंदर उतार-चढ़ाव सुनने को मिलता है। जिंकड़ी भजनों के गायन में टेक का बहुत महत्व है। लगभग प्रत्येक चार- पांच पद के बाद टेक का प्रयोग किया जाता है। इन भजनों में विभिन्न देवी देवताओं की स्तुति रहती है। जैसे, संकट से उद्धार करने के लिए दीनबंधु ईश्वर के शक्तिशाली रूप का स्मरण किया जाता है तो कार्य के निर्विघ्न सम्पन्न हो जाने के लिए विघ्नविनाशक गणेश जी की स्तुति की जाती है। चूंकि ये भजन भक्त के हृदय से निकले सहज उद्गार के रूप में होते हैं अतः इनमें कथात्मक तत्व भी सहज और सरल होते हैं। इनमें न तो शायन की दुरूह शास्त्रीयता होती है और कथ्य का घुमाव फिराव।
जिकड़ी भजनों में विषय की विविधता मनोदशा पर निर्भर रहती है। जिस समय मन शांत है और अपने आराध्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहता है उस समय भजन में आराध्य की स्तुति एवं प्रशंसा की प्रधानता रहती है। उदाहरण देखिए -
जिनको गनेश हैं प्यारे,
बे कभऊ नइयां हारे ।।
प्रथम सुमरि गनपति खों गायें,
ताके काम सिद्ध हो जायें।
अंत समय गति देत हैं बेई,
चंदा-सूरज उनपे वारे ।।
सदा करे मूसा पे सवारी,
देत दान दीनन हितकारी।
बेई पार लगाबे वारे,
बेई तो हैं जग रखवारे।। जिनको गनेश।।
आराध्य की प्रशंसा एवं विनती का सम्मिलित स्वरूप जिंकड़ी की कथात्मकता में देखने को मिलती है। यह कथात्मकता कभी-कभी ‘‘हनुमान चालीसा’’ की भांति आराध्य के द्वारा किए गए जनकल्याण के कार्यों एवं शौर्य गाथा के रूप में उद्घाटित होती है। जैसे -
1... लाज मोरी राखो गिरधार,ी आज सभा के बीच।।
अंसुओं ढारत कहे द्रौपदी, सुनियो श्री महाराज।
जब भक्तन पे भीर परी, तुमई संवारे काज।।
मारे लंका के रावन खों, दिये विभीषन राज।
ध्रुव प्रहलाद हरीचंद राजा, सबकी राखी लाज।। .....
2... भेजा तपसी ने हनुमान जब संजीवनी लेवे खों।।
कालनेमि सुनि बात मेरी चित लाके मारग में माया रचो
अभी तुम जा के चोरी से ले गये बैद
यहां से आ के तुमई हो मीत भारी,
जे लाने अरण गुजारी रखियो मोरी लाज,
सिद्ध कर काज लंक में तोसा नई बलवान भेजा
तपसी ने हनुमान।।  
3... मोरी अरज सुनो सरकार,
मोरी नैया कर देओ पार ।।
राम नाम से लगो लओ
भगत प्रहलाद ने ध्यान हिरनाकुस को मारो,
प्रभु खम्बा में से निकले
आन जूठे फल सबरी के खाये,
सोई सुदामा के तन्दुल भाये
जरजोधन के मेवा त्यागे,
साग बिदुर घर जीम के आये
हरि मिलत हैं प्रेम से,
जिन ने उनखों प्रेम से ध्याये ।।
मोरी अरज सुनो ।।
जिंकड़ी भजनों में पूरी की पूरी राम कथा भी गाई जाती है। इनमें भगवान राम के जन्म से ले कर रावण के संहार तक का बड़ा रोचक वर्णन रहता है। वाल्मीकि रामायण अथवा तुलसीदास की रामचरित मानस के समान रसों, संवेगों एवं भावनाओं का सुंदर समावेश मिलता है। जिंकड़ी भजनों की राम-कथा के राम जहां अद्भुत शक्तियों के धनी हैं वहीं एक साधारण मानव की भांति परिस्थितियों के विषम प्रभाव से प्रभावित होते हुए दिखाई पड़ते हैं। जैसे लक्ष्मण को शक्तिबाण लग जाने के उपरान्त श्रीराम की विह्वलता के वर्णन की कुछ पंक्तियां देखिए-
बोलो बचन बिसार, बसाना पार हुआ लाचार,
भ्रात के कहा लगो है बान ।।
घर घुटनों पे शीस,
कहे जगदीश सुनो मोरे भाई,
अब तुम बिन वीरन कौन जो लड़हे लड़ाई
राम दल नैनों भर रोया,
भाई लछमन कैसे सोया पूछेगी दुनिया सारी,
मोरे नगर के नर औ नारी
मोरी सुमित्ता महतारी,
मर जेहे मार कटारी पूछेगी जब बे हाल,
कहां गओ लाल लखन
कहां छोड़े कृपानिधान मन में सोच करत।।
जब जीवन में असत के ऊपर सत की विजय होती दिखाई देती है तो व्यक्ति स्वयं ही सत और असत के बीच चुनाव करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है और तब वह दूसरों को भी उपदेशात्मक वचन बोलने लगता है। इन वचनों में यथार्थ जीवन दर्शन निहित रहता है -
मनुष तन पाके भज ले सीता राम।।
बालापन गए बीत, ज्वानी रस की छाई
निगत में निरखे देह, ने सूझे तनकऊ भाई
इते उते छलिया बन डोले
परनारी देख मुस्कयावै ।। मनुष तन पा के ।।
ज्वानी जो गई बीत, बुढ़ापा आन
तुलानो कापन लागी देह,
निंगत में पांव पिरानो
नैनन नीर ढलक रये री माया !
मुख से नई के पाये राम ।। मनुष तन पा के ।।
बुंदेली जिंकड़ी भजनों में कथ्य का अनगढ़ स्वरूप होते हुए भी चिन्तन की गहराई पाई जाती है। ये जीवन क्या है? इस जीवन को सद्गति कैसे दिलाई जाए? अपने आराध्य के प्रति अपने समर्पण को कैसे स्पष्ट किया जाए? ये तमाम गंभीर प्रश्न जिंकड़ी में सहज भाव से गायन के रूप में व्यक्त कर दिए जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बनावटी लोकगीतों की भीड़ में जिंकड़ी जैसे विशुद्ध मौलिक भजनों का गायन कम हो चला है। आज यह बुंदेलखण्ड के सुदूर ग्रामीण अंचलों में ही गाया जाता है। भ्जन की यह अनुपम विधा यदि इसी प्रकार उपेक्षा की शिकार रही तो एक दिन यह भी विलुप्त हो जाएगी और गायक भी जिकड़ी भजनों के स्वर भूल जाएंगे।
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Tuesday, February 27, 2024

पुस्तक समीक्षा | राजा बुकरकना : आधुनिक संदर्भों के साथ बुंदेली लोककथा का बेहतरीन नाट्य रूपांतर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 27.02.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यासुंदर दुबे की नाट्य-पुस्तक "राजा बुकरकना" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
राजा बुकरकना : आधुनिक संदर्भों के साथ बुंदेली लोककथा का बेहतरीन नाट्य रूपांतर
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - राजा बुकरकना
लेखक      - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक   - इंडिया पब्लिशिंग हाउस, ई 5/21, अरेरा काॅलोनी, हबीबगंज पुलिस स्टेशन रोड, भोपाल-16
मूल्य        - 100/-
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   लोक संस्कृति के मर्मज्ञ डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने बुंदेली लोक संस्कृति पर कई पुस्तकें लिखी हैं। उनकी नाट्य-पुस्तक ‘‘राजा बुकरकना’’ बुंदेली लोक कथा ‘‘राजा बुकरकना’’ पर आधारित है। इस नाटक को पढ़ते समय दो बातें मेरी स्मृति में उभर आईं- पहली यह कि एक ही लोककथा अपने विविध रूपों में विविध भौगोलिक क्षेत्रों में विद्यमान रहती है। और दूसरी यह कि यह नाटक भारतेन्दु परंपरा का कहा जा सकता है। लोक के कहन की अपनी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि वह विद्रूपताओं पर उस चाबुक से वार करता है जो दिखाई तो नहीं देता है किन्तु गहरी चोट करता है। राजशाही के समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रही। उस समय कोई भी स्पष्ट विरोध नहीं कर सकता था, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जाना तय था। अतः विरोध का स्वर किसी कथा अथवा गीत के रूप में मुखर किया जाता। इसीलिए लोक में प्रचलित कथाएं एवं गीत समसामयिक स्थितियों का इतिहास रचते हैं। वे तत्कालीन परिस्थितियों से अवगत कराते हैं। साथ ही वे इस बात के प्रति विश्वास प्रकट करते हैं कि अन्याय अथवा अव्यवस्था हमेशा नहीं रहती है। समय आने पर स्थितियों में परिवर्तन होता है। लगभग यही संदेश इस नाटक के कलेवर में भी उपस्थित है।

राजा बुकरकना से आशय है वह राजा जिसके कान बकरे के कान की भांति हैं। जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया कि प्रत्येक लोककथा सौ कोस में बोली के अंतर के साथ थोड़ी बदल जाती है। मैंने भी इस लोककथा को अपने बचपन में अपने नानाजी के मुख से अनेक बार सुना था। किन्तु नानाजी द्वारा सुनाई जाने वाली कथा में राजा के कान बकरे के कान की भांति नहीं थे बल्कि राजा के सिर पर दो सींग उग आए थे और इसीलिए कथा का नाम था ‘‘राजा के दो सींग’’। शेष कथानक लगभग वही था जो ‘‘राजा बुकरकना’’ का है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है कि एक राजा के कान बढ़ते हुए बकरे के कान के समान लंबे हो जाते हैं (मेरी सुनी कथा के अनुसार सींग उग आते हैं) जिन्हें वह साफा बांध कर छुपाए रखता है। मगर राजा का हज्जाम बाल काटने के दौरान इस रहस्य को जान जाता है। राजा उसे धमकाता है कि यदि उसने यह बात किसी को बताई तो उसे मृत्युदंड दे दिया जाएगा। हज्जाम को व्याकुलता होती है और उससे चुप नहीं रहा जाता है तब वह जंगल में जा कर एक पेड़ को सारी बात बता देता है। कालांतर में उस पेड़ को काट कर उससे वाद्ययंत्र बनाए जाते हैं जो राजा के सारे रहस्य दुनिया के सामने उजागर कर देते हैं। इस लोककथा का नाट्य रूपांतर करते समय लेखक श्यामसुंदर दुबे ने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की लंबी कविता ‘‘असाध्य वीणा’’ की आधार बनी चीनी लोककथा से भी प्रेरणा ली है जिसका उल्लेख उन्होंने आरंभ में ही किया है। लेखक ने लिखा है कि ‘‘इस लोककथा के साथ अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता ‘असाध्य वीणा’ की चर्चा करना चाहता हूं। यह लंबी कविता चीनी लोककथा का रचनात्मक विस्तार है। इसमें एक बड़ा पुराना किरीट तरु है। इस तरु की लकड़ी से वीणा बनाई जाती है। जब यह वीणा राजदरबार पहुंचती है तो कोई भी वीणा वादक इसे नहीं साध पाता है। केशकंबली नामक साधु इसे अपनी गोद में रखता है और वीणा अपने आप बजने लगती है। वीणा से वह सुर संसार निनादित होता है जो जीवन भर किरीट तरु अपनी छाया के विस्तार में पीता रहा है।’’ लेखक ने आगे लिखा है कि ‘‘ये दोनों पक्ष नाटक रचते समय थे। मैंने इस नाटक को इन दोनों प्रसंगों के स्थूल आशयों से मुक्त किया है। इसे अपने समय में विस्तारित करना चाहता था और मैंने किया भी वहीं। कुछ मुद्दे मेरे सामने थे इसमें पहला और महत्वपूर्ण मुद्दा है अभिव्यक्ति का संकट।’’

लोककथा ‘‘राजा बुकरकना’’ हो या अज्ञेय की ‘‘असाध्य वीणा’’, दोनों में अभिव्यक्ति के संकट को रेखांकित किया गया है। यही मूल मुद्दा ‘‘राजा बुकरकना’’ नाटक का भी है। राजा और उसके कथित ‘‘न्याय’’ के प्रसंग पर लेखक श्यामसुंदर दुबे ने भी भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘‘अंधेर नगरी’’ का स्मरण किया है जिसमें एक फरियादी अपनी फरियाद ले कर राजा के पास पहुंचता है और कहता है कि कल्लू बनिए की दीवार गिर गई जिसमें उसकी बकरी दब कर मर गई। राजा न्याय करने के लिए कल्लू बनिए, कारीगर आदि को एक के बाद एक बुलाता है। सभी अपने आप को निर्दोष बता कर छूटते जाते हैं। अंततः राजा दीवार को फांसी दिए जाने का हुक्म सुनाता है। यह सटीक और अभिव्यंजनात्मक तीखा कटाक्ष ‘‘राजा बुकरकना’’ में भी है। इसीलिए से भारतेंदु परंपरा का नाटक कह सकते हैं। वैसे इसमें विजय तेंदुलकर के ‘‘शांताता कोर्ट चालू आहे’’ और ‘‘घासीराम कोतवाल’’ भी ध्वनित होता प्रतीत होगा क्योंकि लेखक ने अपने इस नाटक में भले ही लोककथा के राजशाही वातावरण को आधार बनाया है किन्तु इसमें भाषा एवं संवाद आधुनिक रखे हैं। इससे नाटक में कहन की धार और तीखी हो गई है। जैसे शाही हकीम राजा को बताता है कि एक वायरस फैला हुआ है जो काटता तो एक को है लेकिन उसका असर लाखों लोगों पर पड़ता है और यह किताब के पुराने पन्नों में चिपका रहता है। राजा फिर भी समझ नहीं पाता है तो शाही हकीम और विस्तार से समझाता है कि -‘‘ जी हां हुजूर! यही इस कीड़े की खासियत है। अक्षरों में फंसा-फंसा ये अपनी अपनी सेहत सुधारता रहता है। अक्षरों में क्या नही है हुजूर! अक्षर से खून रिसता है। अक्षर से आंसू बहते हैं। अक्षर में हंसी दुबकी बैठी है। अक्षर में फांसी का फंदा है। अक्षर से नहीं अलग कोई बंदा है। अक्षर चंदा है। अक्षर चुनाव है। अक्षर भाव है ताव है। अक्षर में घुसी है इमरजेन्सी! इमरजेन्सी के दिल में पांव पसारे लेटा है यह कीड़ा ! इस कीड़े के द्वारा फैलायी गयी पीड़ा भोगता है- देश सारा। राजन! आपके हलक में भी यह कीड़ा फंसा है वह बांयी ओर सरक कर दायी ओर आ रहा है। आपका यह कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा। जहा होता यह कीड़ा वहा होता आनंद ही आनंद!’’

यह आस्वाद विजय तेंदुलकर के नाटकों में मौज़ूद है। कहना होगा कि लेखक श्यामसुंदर दुबे ने लोककथा को बड़े सुंदर ढंग से आधुनिक प्रसंगों से जोड़ कर इसे समसामयिक बना दिया है। इस नाटक को पढ़ते समय विश्व इतिहास के कई प्रसंग भी सहसा स्मृति में कौंध जाते हैं। जैसे रोम के राजा नीरो की कथा। कहावत ही है कि ‘‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था’’। या फिर फ्रांस के राजा लुई सोलहवें की कथा जिसकी रानी मारिया आंत्वानेत भूख से पीड़ित जनता को कहती है कि ‘‘रोटी ने मिले तो डबलरोटी खाओ!’’ शासनतंत्र का असंतुलित उत्सवी माहौल आमजन के लिए कष्टप्रद होता है। जैसे नाटक ‘‘राजा बुकरकना’’ में मंत्री सचिव से कहता है कि- ‘‘इस राष्ट्रीय दिवस को मनाने के लिये एक परिपत्र जारी किया जायेगा। सचिव महोदय ! नोट करें, कि इस दिन संपूर्ण राष्ट्र में केवल नाच-गान ही चलता रहे। अखंड नाच-गान। दुनिया को पता चलना चाहिए कि हमारा राष्ट्र ही दुनिया का सबसे बड़ा सुखमय राष्ट्र है। इस वर्ष की सुखी राष्ट्रों की विश्व सूची में राष्ट्र का नाम सबसे ऊपर होना चाहिए।’’
राजा के जन्म दिवस के समय का दृश्य है- ‘‘राजा का जन्म दिवस मनाने मंच सजाया गया है। एक बड़ा बैनर लगा है। जिस पर हैप्पी बर्थ डे लिखा है। एक केक भी सजाया गया है।’’ इसके बाद राजा सोने के चाकू से केक काटता है। लोग उसे उपहार भेंट करने को तत्पर होते हैं तब मंत्री कहता है- ‘‘सभी लोग अपने उपहार कोष प्रभारी के कक्ष में कार्यक्रम के बाद ले जाएंगे। अभी अपने-अपने पास ही रखें। अभी आप लोग हमारे विशेष कार्यक्रम का इस क्षण आनंद ले। ये कार्यक्रम हमारे राष्ट्रीय कला गुरुओं के द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा। यह कार्यक्रम वाद्यवादन का आकर्षक कार्यक्रम है। तो लीजिए आप सब इसका आनंद लीजिए।’’ इसी के साथ का दृश्य - ‘‘एक चबूतरे पर संगीत मंडली बैठी है। वह अपना कार्यक्रम शुरू करती है। वाद्य यंत्रों को उनके वादक ठोकते पीटते हैं।’’
राजशाही का भोंडा यथार्थ इस नाटक में अपने अलग रंग और ढंग से प्रस्तुत हैं। इसे पढ़ते हुए आजकल छुटभैये नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर लगाए जाने वाले जन्मदिन के बधाई संदेश आंखों के सामने कौंध जाते हैं।

बात वहीं आ अटकती है यथार्थ के अभिव्यक्ति की। सन 1805 में जन्मे डेनिश लेखक हैंस क्रिश्चियन एंडरसन द्वारा लिखित कहानी ‘‘द एम्परर्स न्यू क्लॉथ्स’’ जो विश्व की 100 से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है, हिन्दी में ‘‘राजा नंगा है’’ के नाम से अनूदित हुई। इस कथा में अदृश्य वस्त्र पहनने के भ्रम में पड़ा राजा दरबार में भी निर्वस्त्र बैठने लगता है किन्तु किसी का साहस नहीं हो पाता है कि कह सके-‘‘राजा नंगा है’’। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के अलग-अलग रूप राजशाही में खुल कर दिखाई दिए हैं। प्रजा को यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न हो तो राजदोष बना रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी गई। ‘‘राजा बुकरकना’’ में हर अंक विसंगतियों को हाईलाईट करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरवी करता अनुभव होता है।

‘‘राजा बुकरकना’’ नाटक में सीमित पात्र हैं जो कि पठन और मंचन दोनों दृष्टि से उत्तम है। नाटक में मुख्य पात्र हैं- राजा कर्णेश्वर, शाही हज्जाम धन्ना, धन्ना की मां चमेली, राजकुमारी। गौण पात्र हैं- सेनापति, मंत्री कोष प्रभारी, चोबदार, संदेश वाहक, शाही हकीम, जल्लाद तथा तीन-चार लोग। भाषा सरल, सटीक, चुटीली और आधुनिक परिवेश की है। समूचा नाटक रोचकता से परिपूर्ण है। इसमें रंगमंच की लोकधर्मी परंपरा का निर्वाह किया गया है। नाटक के अंक-तीन का चौथा दृश्य धन्ना के काव्यात्मक एकालाप का है जिसमें वह पेड़ के पास जा कर राजा का रहस्य उसे बता देता है। यह दृश्य बेहद प्रभावी है। वस्तुतः यह नाटक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थितियों का एक ऐसा दृश्य प्रस्तुत करता है जो राजा और प्रजा के भेद तथा प्रजा पर शासन के शिकंजे का बखूबी रेखाचित्र खींच देता है। नाटक ‘‘राजा बुकरकना’’ राजशाही युग के पात्रों के माध्यम से आधुनिक जीवन का आख्यान प्रतीत होता है तथा इसमें बुंदेली लोककथा को समुचित और सटीक नाट्य-विस्तार दिया गया है। 
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Monday, February 26, 2024

विदा पंकज उधास 😢 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अलविदा पंकज उधास 😞😢
सुप्रसिद्ध भजन और ग़ज़ल गायक पंकज उधास जी एक उम्दा गायक एक सरल स्वभाव इंसान, उनसे भेंट हुई थी आजतक के साहित्य महोत्सव के दौरान, जब हम दोनों अपने-अपने सत्र के आरंभ होने की प्रतीक्षा में बैठे थे और बातें चल निकली थीं, आज उनके निधन का समाचार दुख दे गया..

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Sunday, February 25, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह का बुंदेली व्यंग "बुंदेली दर्शन" पत्रिका में

मध्यप्रदेश के सागर संभाग के दमोह ज़िले की हटा तहसील तीन बातों के लिए मशहूर है - बुंदेली उत्सव, पत्रिका "बुंदेली दरसन" और संस्कृतिविद डॉ श्यासुंदर दुबे जी।  विगत कई वर्ष से निरंतर प्रकाशित हो रही वार्षिक पत्रिका "बुंदेली दरसन" का निरंतर कुशल संपादन कर रहे हैं डॉ एम.एम. पाण्डेय जी। 
    पाण्डेय जी अत्यंत कर्मठ संपादक हैं। वे हर वर्ष हर लेखक को रचना भेजने के लिए स्मरण कराते हैं तथा पत्रिका प्रकाशित होने पर तत्परतापूर्वक पत्रिका प्रेषित करते हैं। मैं आभारी हूं कि डॉ एम.एम. पाण्डेय जी की जिन्होंने रचनात्मक रूप में पत्रिका के इजतक के  हर अंक से मुझे जोड़े रखा है।
    तो प्रस्तुत है इस बार के ताजा अंक में प्रकाशित मेरा एक छोटा-सा बुंदेली व्यंग्य लेख में....
व्यंग्य           
अपन ओरें तो फटे ढोल ठैरे
               - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काए शरद बिन्ना, जे अपनो मूंड पकर के काए बैठीं?’’ भुनसारे से भैयाजी आन टपके।
‘‘कछु नईं। ऊंसई।’’ मैंने कहीं।
‘‘जे ऊंसई का कहात आए? अरे कछु तो हूहे। कोनऊ बुरौ सपनों देख लौ का? काए से के इत्ते भुनसारे और तो कछु सल्ल नई हो सकत आए।’’
‘‘कहीं ना, कछु नइयां। कछु खास बात नोई।’’ मैंने भैयाजी खों टालबो चाओ।
‘‘मनो ने बताने होए सो ने बताओ। हम को लगत तुमाए।’’ भैयाजी तो ठैरे भैयाजी, रिसाबे को स्वांग भरत भए बोले।
‘‘अरे, कछु नईं भैयाजी, ऊंसई मूंड पिरा रओ।’’ मोए बताने पड़ी।
‘‘हें! तबीयत तो ठीक आए ने तुमाई? कछु दवा-सवा तो नईं चायने? काए से के तुमाई भौजी को तो आए दिना मूंड पिरात रैत आए।’’ भैयाजी फिकर करत भए बोले।
‘‘नईं-नईं भैयाजी, दवा की कोनऊ जरूरत नईयां। अपनोई आप ठीक हो जेहे।’’ मैंने कही।
‘‘चलो ठीक है, फेर बी कछु जरूरत परे सो बता दइयो। खुद को अकेलो ने समझियो।’’ भैयाजी लाड़ करत भए बोले।
‘‘आपकी किरपा भैयाजी, बाकी जे अपनो आप ठीक हो जेहे। आप फिकर ने करो।’’ भैयाजी की बात सुन के मोरो दिल भर आओ। कोनऊ दो बोल मिसरी घाईं बोल दे तो अंसुआं से आन लगत आएं। 
‘‘मनो बिन्ना, हमें पतो है के तुमाओ मूंड काए पिरा रओ आए।’’ भैयाजी तनक सोंचत भए बोले।
‘‘सो, कल संझा के बारे में आपको साई पतो पर गओ? कोन ने बताई?’’ मोए अचरज भओ के भैयाजी को कोन ने बता दओ?‘‘
‘‘ईमें कोऊ का बतेहे? ई दिना जो कछु हो रओ ई दुनिया में बा सब कछु युक्रेन औ रूस की लड़ाई के कारन सो हो रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोरे मूंड के दरद को रूस-युक्रेन की लड़ाई से का लेबो-देबो? जे तो कल संझा की गोष्ठी के कारन पिरा रओ आए।’’ मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘का हो गओ कल गोष्ठी में?’’ भैयाजी अनमने से हो के बोले। 
‘‘होने का हतो। एक भैया को कल्ल 12 मिनट देओ गओ रओ अपनी बात बोलबे के लाने। पर उन्ने तो बारह के बयालीस कर दए। बे भैया माईक से ऐसे चिपके के हटबे को नांव ई नई ले रए हते। कहने थी आम की, बोल गए नीम की। औ बेसरमी ऐसी के अखीर में कैन लगे के हमें सो अबे और बोलने रओ, बा तो संचालक जी ने टेम की पाबंदी लगा दई रई सो हम पूरी बात ने कर सके। मोरो तो जी करो के ठाड़ी हो के कहौं के भैया इते कोनऊं सत्तनारायण की कथा नोईं हो रई के आज ई सगरी बांच देओ। कछु अगली बेरा लाने बी रैन देओ। काए इते सबई के प्रान लेने का? जे आप इच्छाधारी वक्ता ने बनो। कछू गम्म खाओ।’’ मेंने भैया खों बताई।
‘‘सो तुमने उनसे ऐसई बोल दई?’’ भैयाजी चकित होत भए बोले।
‘‘अरे, काए खों! बोल ने पाई, तभई से मोरो मूंड़ सो पिरान लगो। बोल लेती सो उतई जी जुड़ा जातो।’’ मैंने बताई। 
‘‘हैं? सो जे बात आए। हमने तो सोची के यूक्रेन की लड़ाई के कारन तुमाओ मूंड़ पीरा रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ये लेओ, अब जे यूक्रेन की लड़ाई से हमाओ मूंड को का लेबो-देबो?’’ मोए हैरत भई।
‘‘अरे, जे ने कहो बिन्ना! आजकाल जो कछू हो रओ, जो अब कछू ससुरो यूक्रेन की लड़ाई के कारन हो रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का मतलब?’’
‘‘मतलब जे के पेट्रोल के दाम बढ़ गए सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, पिसी मैंगी हो गई सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, साग-भाजी मैंगी हो गई सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, पाईपें मैंगी हो गईं सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन, निंबुआ मैंगे हो गए सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन। मोए तो लगत आए के कोनऊ को तलाक बी हुइए सो वो बी यूक्रेन की लड़ाई के कारन।’’ भैयाजी बोलत-बोलत तैस खान लगे। सो, मैंने बात बदलबे की सोची।
‘‘अरे सुनो भैयाजी, निंबुआ से खयाल आओ के बे तो वाकई मैंगे हो गए हैं। कल बो ठिलिया वारो आओ रहो, मैंने उसे पूंछी के निंबुआ कैसे दे रए? सो वा बोलो के दस रुपइया को एक, बाकी दीदी, आपके लाने बीस के तीन लग जेहें। सो, मैंने ऊसे कही के इत्ती मेहरबानी करबे की जरूरत नैंया। मोए नहीं चाहने निंबुआ-विबुआ। बढ़ा लेओ ठिलिया अपनी।’’ मैंने भैयाजी को ध्यान निंबुआ पे अटकानो चाओ।
‘‘जे ई तो हम कै रए के निंबुआ दस के एक हो गए सो यूक्रेन की लड़ाई के कारन।’’ भैयाजी फेर उतई पोंच गए।
‘‘अरे सुनो तो भैयाजी! अभी परों के रोज व्हाट्सअप्प पे एक चुटकुला पढ़ो मैंने, के एक मोड़ी अपने ब्वायफ्रेंड से बोली के हमाओ तुमाओ पेंचअप भए चार मईना बीत गए पर तुमने हमाए लाने कछु गिफ्ट-शिफ्ट नई लाओ। कहूं प्रेम ऐसो करो जात आए? जे सुन के ब्वायफ्रेंड बोलो के अरे, तुम बताओ तो, हम तुमाए लाने ताजमहल बनवा दें, चांद-तारे तोड़ लाएं, एक बार कह के तो देखो। ई पे वा मोड़ी बोली, हमें ताजमहल के नांव पे अपनो मुकरबां नई बनवाने, औ ने हमें चांद-तारे चाने, तुम तो हमाए लाने दो दर्जन निंबुआ ला देओे, ने तो हमाओ तुमाओ ब्रेकअप हो जेहे। समझ लेओ! जे सुन के ब्वायफ्रेंड बोलो, ब्रेकअपई हो जान देओ। इत्तो मैंगो निंबुआ लाने से नोनो आए के ब्रेकअपई हो जाए। जे कै के ब्वायफ्रेंड ब्रेकअप कर के उते से चलो गओ।’’ मैंने भैयाजी को चुटकुलो सुना डारो ताकि भैयाजी यूक्रेन की लड़ाई खों भूल जाएं।
‘‘हऔ बिन्ना, ई समै तो ई बात पे कोनऊ खों ब्रेेकअप हो जाए। मनो, ई के पांछू बी यूक्रेन की लड़ाई को हाथ कहानों। ने लड़ाई होती औ ने निबुआ मैंगो होतो औ ने ब्रेकअप...।’’ भैया जी बोले। 
‘‘भैयाजी, मोरी तो सुनो....’’ मैंने भैयाजी को टोंको, पर बे कहां सुनबे वारे। 
‘‘हमाई जिनगी में ई समै जो कछु बी हो रओ सबई में जेई तो कहो जा रओ के अलां यूक्रेन की लड़ाई के कारन - फलां यूक्रेन की लड़ाई के कारन। रामधई, ऐसो लगत है के हमाओ सबरो ब्यापार यूक्रेन और रूस के संगे होत रओ आए। लड़ाई छिड़ गई, सो, ब्यापार बढ़ा गओ। मोए तो लगत आए के कोनऊ खों कब्जीयत बी हुइए सो ऊको जेई लगहे के यूक्रेन की लड़ाई के कारन पेट अटां गओ। कोनऊं की मोड़ी घरे से भाग जेहे, सो कहो जेहे के यूक्रेन की लड़ाई के कारन भाग गई। कोनऊ चलत-चलत रपट पड़हे सो कहो जेहे के यूक्रेन की लड़ाई के कारन रपट गओ। मैंगाई मनो रोकत नई बन रई, सो कोऊ के मूंड पे ठीकरा फोड़ई जैहे, सो फोड़ो जा रओ।’’ भैयाजी मों बनात भए बोले। 
‘‘कै सो तुम सांची रै भैयाजी! पर करो का जा सकत आए। इनखों लड़ने, उनखों लड़ने, सगरी मुसीबतें सो अपन ओरन के मूंड़े पड़ने। भैयाजी, अपन ओरें तो फटे ढोल ठैरे, चाए इते से थपड़याओ, चाये उते से थपड़याओ चूं ने बोलहें। निंबुआ चाये पचास को एक बिके पर अपन ओरें कछु ने बोलहें। बाकी जे ओरें कबलौं लड़हें? कुल्ल मईना निकर गए लड़त-लड़त। जे ओरें बोर नई भए? नासमिटे कईं के!’’ मोए सोई तैस आन लगी। सो, अब भैयाजी बात बदलबे खों ठाड़े हो गए।
‘‘अब तुमाओ मूंड को दरद कैसो है?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘अब तो ठीक लग रओ।’’ मैंने कही।
‘‘जे ई तो! एक से ध्यान बिलोरबे के लाने दूसरी अड़ी बिधो देओ, फेर देखो, फेर वोई-वोई दिखान लगत आए।’’ भैयाजी हंसत भए बोले,‘‘अब मोए चलन देओ बिन्ना! पंद्रा मिनट में दूध ले के मोए लौटने रओ, ओ अब हो गए घंटा-खांड़। तुमाई भौजी बमकत भई मिलहें।’’
‘‘सो, कै दइयो भौजी से के भैंसिया दूध नई दे रई हती यूक्रेन की लड़ाई के कारन।’’ कहत भइ मोए सोई हंसी छूट परी।               
भैयाजी सोई हंसत भए चले गए। मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी रूस जाने, फूस जाने, दफ्तर वारे घूस जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!   
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Saturday, February 24, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | उनको तनक मों तो दिखन लगे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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उनको तनक मों तो दिखन लगे
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    अपने इते अपने बड़े लोगन की स्टेचुएं लगाबे की बड़ी चाव रैत आए। औ अच्छो बी आए। काय से के स्टेचू देख के बच्चा हरें बी चीन्हबे लगत आएं के जे को आ हते, औ इन्ने का करो रओ। मने चौराहा पे लगे स्टेचू इतिहास को पन्ना को काम करत आएं। ऐसो पन्ना जीपे तस्वीर छपी होय। जैसे महात्मा गांधी, बाबा साहब अम्बेडकर, दीनदयाल उपाध्याय। औ सई मानो, इन स्टेचुअन से ज्ञान बढ़त आए। जैसे मकरोनिया चौराहा पे रानी अवंतीबाई लोधी जू की स्टेचू देख के न जाने कित्ते लोग उनके बारे में जानन लगे। पर उन ओरन को का, जोन की स्टेचू सालेक से जेई इंतेजार में ठाड़ी के कबे उनके मों पे बंधों कपड़ा हटाओ जैहे औ सबरे उनको मों देख पैंहे। जैसे अपने लाखा बंजारा की स्टेचू मों खोले जाबे के इंतजार में ठाड़ी-ठाड़ी थकी जा रई।
    एक और ऐसी स्टेचू अपने शहर में ठाड़ी करी गई है जोन को मों तो मने खुलो आए, फेर बी उनको मों देखबे खों नईं मिलत। हऔ, हम बात कर रए यूनीवर्सिटी रोड पे स्वामी विवेकानंद जू की स्टेचू की। न जाने कोन ने, का सोच के बा स्टेचू को डायरेक्शन ऐसो रखो के सिविल लाइंस से यूनीवर्सिटी जात बेरा में बरहमेस उनकी पीठई दिखात आए, मों नईं दिखात। सो, कायदे से तो उनकी स्टेचू को घुमा दओ जाओ चाइए ताकि यूनीवर्सिटी जाबे वारे विवेकानंद जी के दरसन कर सकें। सो स्मार्टसिटी वारे भैया हरों, चाए लाखा बंजारा होंय चाए विवेकानंद जू, कछू जल्दी से ऐसो करो के उनको तनक मों तो दिखन लगे।  
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Thank you Patrika 🙏
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Friday, February 23, 2024

शून्यकाल | कुंती मेरे मन से जाती ही नहीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम.....        
शून्यकाल
कुंती मेरे मन से जाती ही नहीं
      - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
      “पत्तों में कैद औरतें” यही है मेरी वह पुस्तक जो 2010 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई । इस किताब को लिखने के सिलसिले में मैं तेंदूपत्ता तोड़ने और बीड़ी बनाने वाली सागर संभाग की अनेक स्त्रियों से मिली। उनके जीवन और उनकी कठिनाइयों को करीब से जाना। उसी दौरान मेरी भेंट कुंती से हुई। यह उसकी निजता को ध्यान में रखते हुए परिवर्तित नाम है, किन्तु घटना असली है, वह स्त्री असली है।
     यह बात उन दिनों की है जब मैं बीड़ी उद्योग से जुड़ी महिला श्रमिकों के जीवन की पड़ताल कर रही थी। भले ही यह उद्योग आर्थिक स्तर पर पुरुषों के हाथों में है लेकिन लगभग नब्बे प्रतिशत औरतें बोड़ी बनाने के काम से जुड़ी हुई हैं। मेरी पड़ताल का एक चरण पूरा हो चुका था, जिसमें मैंने बीड़ी बनाने के काम में आने वाले तेंदू पत्ते तोड़ने वाली औरतों के दुख दर्द को साझा किया था। अपनी पड़ताल के दूसरे नरण में मैंने उन स्त्रियों के बारे में पता किया जो बीड़ी बनाने का काम करती है। बुन्देलखण्ड में यह काम अधिकतर अपने अपने घरों में ही किया जाता है।
     मुझे पता चला कि मेरे शहर सागर के एक छोर पर अनुसूचित जाति के परिवारों की एक बस्ती सासन द्वारा बसाई गई है। इस बस्ती का नाम है अयोध्याबस्ती। इस अयोध्याबस्ती के हर घर की महिलाएं बीड़ी बनाने का काम करती हैं। मैंने उस बस्ती में जाने का निश्चय किया। मेरे शहर की होकर भी मेरे लिए वह बस्ती अपरिचित थी। शहर की सकरी गलियों से होती हुई, लोगों से पता पूछती हुई मैं बस्ती के एक सिरे पर पहुंची। अब समस्या यह थी कि मैं वहां किसी को जानती नहीं यी और न कोई मुझे जानता था। लक्ष्य चुनौती भरा था। 
       मैं अभी सोच ही रही थी कि किस दरवाजे की सांकल खटकाऊं कि अधेड़ उम्र की एक औरत ने मुझसे पूछा कि मैं किसे ढूंढ रही हूं?
'आप बीड़ी बनाती हो? मैंने बिना किसी लाग लपेट के सीधे प्रश्न कर दिया।
 'हऔ।’ उत्तर भी सीधा ही मिला।
''मुझे कुछ पूछना है ?' 
“काए के बारे में?” उसने भी पलटकर पूछा।
'बीड़ी बनाने के बारे में। आप कैसे बीड़ी बनाती हो ?' मैंने पूछा ।
'मोए टेम नइयां। आप उते, बा घर में कुंती से मिल लेओ।' कहती हुई यह औरत वहां से कूच कर गई। झक मारकर मैंने उस घर की ओर कदम बढ़ाए जिसकी ओर उसने इशारा किया था।
         गोबर से लिपा साफ सुथरा आंगन किसी ग्रामीण आंगन की तरह लग रहा या । आंगन से सटा हुआ खपरैली कच्चा घर था। घर से ठीक उल्टी दिशा में एक नीम का पेड़ था, औसत ऊंचाई का। घर की दीवार से नीम के पेड़ के बीच एक अलगनी बंधी हुई थी, जिस पर कपड़े टंगे भी थे और लदे भी थे। बच्चों के कपड़े टंगे सूखे रहे थे और एक फटी- सी कथरी अलगनी पर लदी हुई थी। संभवतः उसे रखने के लिए कोई बक्सा, खाट या ऐसी कोई वस्तु नहीं थी। ऐसा दृश्य मैं पहले भी कई बार ग्रामीण अंचलों में देख चुकी थी अतः मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि उस घर की माली हालत की एक छोटी-सी झलक जरूर मिल गई।
       'अम्मा अम्मा' कहता हुआ एक चिरकुट-सा बच्चा घर के भीतर की ओर दौड़ा। मेरा उसकी ओर ध्यान नहीं गया था, लेकिन वह मुझे अपने घर की ओर ताकता हुआ पाकर शायद घबरा गया था। बेटे की आवाज सुनकर उस घर से एक औरत बाहर आई। कहीं कोई चौबीस-पच्चीस वर्ष की रही होगी। उसने मुझसे मेरे आने का उद्देश्य पूछा। मैंने बताया कि मैं बीड़ी बनाने वाली औरतों पर एक किताब लिख रही हूं और जानना चाहती हूं कि बीड़ी कैसे बनाई जाती है? उनकी समस्याएं क्या हैं? उन्हें क्या सुविधाएं मिलती हैं? आदि-आदि ।
      उसने वहां आंगन में मेरे लिए एक बोरी बिछा दी। मैं बोरी पर बैठ गई। यह स्वयं मेरे सामने नंगी जमीन पर बैठ गई। 
      उसकी गोद में एक छोटी सी नन्ही बच्ची थी। उसने अपने बेटे से कहा कि नुक्कड़ की दूकान से मेरे लिए चाय ले आए। मैंने मना किया। मैंने पूछा 'दूकान' से क्यों मंगा रही हो? दूकान की चाय तो मंहगी होती है।
     'पर हमाए इते की चाय..... कहकर वह चुप हो गई। उसके इस संकोच को देखकर मुझे बेहद दुख हुआ।
      'तुम तो मुझे बस, पानी पिला दो। चाय-वाय रहने दो।”
      मुझे प्यास नहीं लगी थी फिर भी मैंने पानी मांगा, ताकि उसे विश्वास हो जाए कि मैं किसी जाति-धर्म की डोर से बंधी कठपुतली नहीं बल्कि उसी की तरह एक इंसान हूं। एक स्त्री हूं। मेरी यह पहल कारगर साबित हुई। उसने अपने बेटे से पानी मंगाकर मुझे पानी पिलाया और फिर उत्साहपूर्वक बातें करने लगी। मैं उससे बातें कर रही थी लेकिन कहीं न कहीं मेरे मन में यह कचोट उठ रही थी कि मैं भी उसी समाज का एक हिस्सा हूं जहां जातिगत भेद-भाव आज भी जिन्दा हैं। फिर उसने जब अपने जीवन के बारे में बताया तो मैं यह जानकर अवाक रह गई कि चौबीस-पचीस साल की एक युवती एक साथ कितने संकट झेल रही है, और वह भी धैर्य के साथ। उसकी जगह कोई और औरत होती तो शायद कब को टूट चुकी होती।
        उसने बताया कि पति द्वारा छोड़े जाने से पूर्व यह चार बच्चों की मां बन चुकी है। दो लड़के हैं और दो लड़कियां। सबसे बड़ी बेटी है फिर दो बेटे और फिर सबसे छोटी बेटी जो अभी गोद में है। कुंती ने बेटों को जन्म दिया फिर भी उसके पति ने उसे छोड़ दिया क्योंकि यह किसी और को रखना चाहता था। कुंती अपने चारों बच्चों सहित मायके आ तो गई लेकिन उसके विवाह के समय से अब तक उसके मायके की दशा में बहुत परिवर्तन हो चुका था। मायके में उसे पनाह नहीं मिली। बल्कि मोतियाबिन्द से पीड़ित लगभग अंधी मां को भी उसके सुपुर्द कर दिया गया। छोटे-छोटे चार बच्चों और अंधी मां को लेकर कुंती ने अयोध्याबस्ती में शरण ली। इसमें उसकी एक बहन ने उसकी मदद की। इस पर भी दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। कुंती ससुराल छोड़ने से पहले गर्भवती थी। अयोध्याबस्ती में आकर उसने पांचवी संतान के रूप में एक बेटी को जन्म दिया।
           कुंती की बहन ने उसे बीड़ी बनाना सिखाया। फिर उसे अपने साथ ले जाकर बीड़ी सट्टेदार से मिलाया। बीड़ी सट्टेदार ने कुंती से बीड़ी लिपटवाकर उसकी परीक्षा ली। कुंती के कौशल को देखकर उसे काम देना स्वीकार कर लिया, जिससे आमदनी का एक बहुत छोटा सा स्रोत बन गया। अब कुंती पर अपने पांच बच्चों और अंधी मां का दायित्व या लेकिन उसने हार नहीं मानी। अब कुंती अपनी झोपड़ी के सामने गोबर लिपी भूमि पर बैठकर दिन के चौबीस घंटों में सोलह घंटे बीड़ियां लपेटा करती है। उसके पास दीवार से टिककर उसकी अंधी मां बैठी रहती है। उसकी अंधी मां के इर्द-गिर्द चारों बच्चे खेलते रहते हैं। सबसे छोटा बच्चा उसकी गोद में लेटा रहता है। जब वह किसी काम से उठती है तो उसे अपनी गोद से उठाकर अपनी मां की गोद में लिटा दिया करती है। अंधी मां पूरे जतन से उसे दुलारती और संभालती है। यह स्त्री के भीतर मौजूद ममता के प्रकटीकरण का एक अनोखा, मर्मस्पशों दृश्य होता है। बस दुख की बात यह थी कि कुंती और उसकी मां दोनों इस बात से अनजान थीं कि गोद में लेटी हुई बेटी की सांसों में तंबाकू के पार्टीकल्स समाते जा रहे हैं जो किसी दिन उसके प्राणों पर भारी पड़ सकते थे। मैंने उसे समझाया भी, वह समझी भी। फिर भी मुझे इस बात का एहसास था कि वह मेरी बातों पर पूरी तरह अमल नहीं कर सकेगी मजबूरियों ने उसे जाकड़ जो रखा था।
     आज भी जब कुंती याद आती है तो मेरा मन उसके साहस और उसकी जीवटता के आगे नतमस्तक हो जाता है। एक साहसी स्त्री। उसके जीवन की तस्वीर मेरे मन में इस तरह समा चुकी है कि कुंती मेरे मन से जाती ही नहीं है और कभी जाएगी भी नहीं।
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Thursday, February 22, 2024

बतकाव बिन्ना की | अबे तो पार्टी जारी आए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
अबे तो पार्टी जारी आए     
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘बिन्ना! आजकाल भौतई मजो आ रओ!’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘काय, कैसें?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘देख नई रईं, भगदर सी मची परी। सबरे टुकर-टुकर एकई पार्टी खों देखे जा रए के कबे वे अपने दोरे को फाटक खोलबे की किरपा करें और उने भीतरे पिड़ा लेंवे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अच्छा, आप उन ओरन की कै रए!’’ मैंने भैयाजी से कई। काय से के मोय समझ में आ गई कि भैयाजी आजकाल जो पार्टी बदलबे को खेल चल रओ ऊके बारे में कै रए।
‘‘और का!’’ भैयाजी बोले।
‘‘पर भैयाजी, अब ई सब में मोय तो कोनऊं मजो नई आत, काय से के अब तो जे आम-सी चलन भई जा रई। जां चुनाव आन लगे सो नेता हरें नांय के मांय होन लगत आएं। ई में अब कछू नओ नई रै गओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘काय नओ नईयां? अभईं देखों नईं? के एक पुराने नेताजी बाल-बच्चा संगे दूसरी पार्टी में जाबे वारे हते। बा तो इत्तो दोंदरा मच गओ के उने रुकने परो और सहूरी से काम लेने परो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘पर बे उते गए तो नईं। का पतो के बात सांची हती की झूठी हती।’’ मैंने कई।
‘‘काय, झूठी फैला के उने का मिलतो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अब हमें का पतो के उने का मिलतो। बाकी आप देखों, जोन को अपने मकान को मोल जानने होत आए तो कछू तो सूदे-सूदे कोनऊं इंजीनियर से एसेस करा लेत आएं औ कछू जोन ज्यादा सयाने होत आएं, बे अपने मकान खों बेचबे के लाने विज्ञापन छपवा देत आएं। ईसे होत का आए के खरीदबे वारे मकान को एसेस मने आकलन करन लगत आएं, सो मकान को चालू मोल अपनेई आप पतो पर जात आए। ई सब में जे सोई फायदा रैत आए के जोन मकान देखबे के लाने आत आएं उनसे मुतकी बतकाव कर के टेम पास हो जात आए औ जान-परिचय सोई बढ़ जात आए। औ ऊपे जो घर अच्छो साजो सजो-धजो होय तो ऊको दिखा के तारीफें पाने को सुख बोनस में मिल जात आए। ऐसो सौदा कभऊं पटत नईयां काय से के मकान तो बेचने रैत नईयां, खाली मोल जानबे को खेल रैत आए।’’ मैंने भैयाजी खों अच्छे से समझाई।
‘‘मने तुम कै रईं के जे दिखाबे को खेल रओ। उने जाने कऊं नई हतो?’’ भैयाजी सोच में पर गए।
‘‘मैं जा नईं कै रई के जा सब खेल रओ, मने ऐसो होत रैत आए जा आपके लाने याद कराई। बाकी को जाने उनको मन भओ होय, मगर इत्तों हल्ला मच गओ के अबे ठैरने परो। अपन ओंरे भला का कै सकत? जे सब राजनीति के खेल आएं।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ बिन्ना! तुमने ठीक कई। जे सबरे राजनीति के बड़े-बड़े खिलाड़ी ठैरे। अपनो इनको का मेल? जे ठैरे पोलो वाले खिलाड़ी और अपन ठैरे कंचा वारे खिलाड़ी। बे पोलो स्टिक से धकिया-धकिया के बाॅल गढ़ा में सरका देत आएं औ अपन अपनी छिंगरियां से भुरसट करत-करत कंचा को घुच्चू में डारत आएं। सांची, अपन उनकी घांई नईं सोच सकत।’’ भैयाजी ने बड़ी गंभीरता से कई। औ ईके संगे ने जाने कोन सो दुख उनके मों पे झलक परो।
‘‘का हो गओ भैयाजी? आप अचानक इत्ते सीरियस काय हो गए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘कछू नईं भओ!’’ भैयाजी ने मुंडी हिलात भई कई। जो कोनऊं इनकार में मुंडी हिला के ‘‘कछू नईं भओ’’ कए, तो मानो के हंड्रेड परसेंट कछू ने कछू सल्ल जरूर आए।
‘‘कछू तो आ रई आप के मन में, तभईं तो अचानक आपको मों मुरझा सो गओ। का हो गओ? अब बताई डारो, ने तो आप जानत आओ के जब लौं आप बताहो नईं, मोय आपको चेंटे रैने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
मोरी चेंटें रैने वारी बात पे भैयाजी तनक मुस्काए औ बोले,‘‘हमें तो जे सोच के दुख होत आए के जे नेता हरें खाली अपनईं-अपनईं सोचत आएं। इने ऊ पब्लिक की कछू नईं परी जो इनके लाने वोट दे के इने जिताती आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो सांची आए आपकी, मनो जे आप कोन के लाने कै रै?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘उनईं के लाने जोन की अभई इते से उते होबे की बात चल रई हती। का तुमें याद नईं के ई चुनाव से पैले वारे चुनाव में इन्हईं खों जिताओ गओ रओं। मने पब्लिक ने इनको औ इनकी पार्टी वारों को वोट दए रए, मनो इन ओरन ने का करो रओ? इनके मुतके जने बिक-बुका के रिसाॅर्ट में जा बैठे औ जे अपनी कुर्सी ने सम्हार पाए। सो, इनको तो ओई टेम पे इते से उते हो जाने तो। ईसे अबे दोदरा में फंस के मन ने मसोसने परतो। पब्लिक तो उल्लू आए जोन खो सीधा कर-कर के जे अपनी साधत रैत आएं।’’ भैयाजी ने कई।
मैं उनकी ओर मों बाए देखत रै गई। ‘‘उल्लू सीधा करबे’’ को इत्तो नोनो उदाहरण मैंने ईसे पैले कभऊं ने सुनो रओ। भैयाजी सोई कभऊं-कभऊं गजबई बतकाव कर जात आएं।
‘‘अब तुम का सोचन लगी?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘मैं जा सोच रई के पब्लिकई काय बरहमेस के उल्लू बनत आए? जे नेता हरें काय नईं उल्लू बनत?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जे ओरें कैसे बन सकत आएं? पब्लिक ठैरी शेर औ नेता ठैरे लड़इया, सो शेरपना में पब्लिकई उल्लू बनत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कैसी? मैं कछू समझी नईं।’’ मैंने कई।
‘‘बा किसां तुमें याद नईं का के एक जंगल में एक शेर रैत्तो। ऊके संगे लड़इया रैत्ते। एक दिना लड़इयन ने सोची के जा शेर बड़ो राजा बनत फिरत आए, तनक ईको मजा चखाओ जाए के असल में राजा को आ। सो लड़इयन ने डरबे की एक्टिंग करी। शेर ने पूछी के का भओ? तुम ओरें हमाए रैते कोन से डरा रए? सो लड़इयन ने कई के महाराज, उते कुआं में एक शेर रैन लगो आए औ कै रओ हतो के हम तुम सबई खों मार के खा जाबी। तुमाओ राजा बी हमसे तुमें नईं बचा सकत। जा सुन के शेर को आओ ताव। बा दहाड़त भओ बोलो, चलो देखत आएं तुमाए बा दूसरे शेर खों जो कुआ में लुक के बैठो। लड़इयां हरें अपने राजा शेर खों कुंआ के लिंगे लेवा ले गए। उते पौंच के उन्ने शेर खों कुआ में झांकबे की कई। शेर ने कुआ में झांको, सो ऊको दूसरो शेर दिखा गओ। बाकी असल में बा दूसरो शेर न हतो, बा तो ओई की परछाईं हती। शेर ने दाहाड़ो, परछाई सोई दहाड़त भई दिखानी। शेर को आओ गुस्सा औ बा ने कुआ में छलांग लगा दई के कुआ वारे शेर की गरदन दबोच सके। मनो शेर के कूदत संगे परछाई मिट गई और शेर कुआ के पानी में हाथ-पांव मारन लगो। तब ऊको समझ परी के जे लड़इया हरन ने ऊको उल्लू बना दओ आए। ऊने लड़इयन से शिकायत करी तो बे ओरें मजाक उड़ात भए बोले, तुम काय के राजा? बा तो हम तुमसे शिकार कराबे के लाने तुमें राजा-राजा बोल के उल्लू बनात रैत आएं। ताके तुम शिकार करो औ हमें फोकट में खाबे को मिल जाए। शेर बोलो, जा तुम ओरन से ठीक नई करो। हमें ऊपर आन देओ, फेर हम तुमें बताबी। लड़इयन ने शेर खों कुआ से निकारो और निकारतई साथ ‘महराज-महराज’’ करन लगे। शेर चिल्लाओ के पैले तो तुमने हमें कुआ में भेजो औ हमाओ मजाक उड़ाओ, औ अब महराज बोल के उल्लू बना रए। सो, लड़इया बोले, नईं महाराज, बा तो हम ऊ कुंआ वारे शेर खांें बोल रए हते, जोन को आपने मार के हमाई जान बचाई। लड़इया हरें गिड़गिड़़ाने की एक्टिंग करत भए बोले। जा सुन के शेर ने सोची के लगत आए के इन ओरन को सच्चाई पता नईं परी, अच्छो रैहे के ईको ढंकई रैन दओ जाए। शेर मूंछन पे ताव देत भओ बोलो। हमने तो पैलई कई रई के हमारे रैत भए तुम ओरन खों डरबे की कोनऊं जरूरत नोंईं। चलो अब घरे चलें। सो अपनी मूंछन पें ताव देत भओ शेर आगे-आगे चल परों और ऊके पांछूं लड़इयां हरें मों दबाके हंसत भए चल परे। काय से के उने तो अबे शेर से औ शिकार करा के दावतें खानी रईं। अब याद आ गई तुमें जा किसां?’’ भैयाजी ने पूरी किसां सुना के मुझसे पूछा।
‘‘हऔ भैया याद आ गई। मनो आपने जोन बात के लाने सुनाई, बा तो गजबई कर दई। आप सोई व्यंगकार बने जा रए।’’ मैंने भैयाजी की प्रशंसा करी।
‘‘काय के व्यंगकार? अपने इते तो व्यंगई भर आए, कार तो उन ओरन को मिलत आए, बा बी लाल बत्ती वारी।’’ कै के भैयाजी हंसन लगे। मोय सोई हंसी फूट परी।      
सो, अबे तो पार्टी जारी आए! देखत जाओ के आगे-आगे का-का होत आए। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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चर्चा प्लस | हाय ! ये दर्ददेवा, जानलेवा स्पीड ब्रेकर्स | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
हाय ! ये दर्ददेवा, जानलेवा स्पीड ब्रेकर्स
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      एक अनुसंधान के अनुसार भारत में 50 प्रतिशत दुर्घटनाएं स्पीडब्रेकर्स के पास होती हैं। एक न्यूज एजेंसी के आकड़ों के अनुसार हर दिन 30 दुर्घनाएं और 9 मौतें होती हैं। जबकि केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी स्वयं यह मानते हैं कि ‘‘यह समस्या पूरे देश में है। हमारे यहां हर रोड पर स्पीड ब्रेकर हैं जो कि आपकी हड्डियां तोड़ सकते हैं और आपके वाहन को क्षतिग्रस्त कर सकते हैं।’’ उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि वे राज्य सरकारों के लिखेंगे कि वे सुनिश्चित करें कि स्पीड ब्रेकर बनाते समय नियमों का पालन हो। किन्तु लगता है कि न राज्य प्रशासन और न स्थानीय प्रशासन इस ओर ध्यान देता है।
‘‘हे भगवान! इन बहुसंख्यक, बेढब स्पीडब्रेकर्स के झटकों से मुक्ति दिला!’’ - सच्चे और दुखी मन से ये प्रार्थना तब मुख से स्वतः फूट पड़ी जब एक ज़ोरदार झटका रीढ़ की हड्डी में लगा। स्कूटी के हैंडल थामें रखने की कोशिश में कलाइयों में टीस उठी, गोया लचक आ गई हो। चलिए विस्तार से बताती हूं। मैं अपनी स्कूटी ले कर अपने घर से निकली। हांलाकि यह बताना जरूरी नहीं है कि मेरा घर कहां है क्यों कि शहर के जिस भी जगह पर होगा, ये सारे स्पीडब्रेकर्स वहां भी खड़े मिलेंगे। घर से निकलने के बाद पीले मोड़ पर एक बेढब स्पीडब्रेकर। दूसरे मोड़ के बाद एक छिपा हुआ-सा (हिडेन) स्पीडब्रेकर। जिस पर दचका खाने के बाद ही पता चलता है कि यहां स्पीडब्रेकर था जिस पर ताज़ा-ताज़ा दचका खाया है। उससे आगे अगर सीधे जाओ तो एक और स्पीड ब्रेकर। उसके आगे वाले मोड़ के बाद एक और स्पडब्रेकर। उससे आगे क्रमशः तीन और स्पीडब्रेकर। उसमें तीसरे वाले ब्रेकर के पहले सड़क काट कर डाली गई पाईप लाईन को ढांकने के लिए बनाया गया कथित ब्रेकर। तीसरा ब्रेकर पहले बंप वाला यानी कूबड़ वाला हुआ करता था लेकिन अब उसका बंप यानी कूबड़ काट दिया गया है जिससे वह ऊबड़-खाबड़ ढांचा बन कर रह गया है, और भी अधिक झटका देने वाला। चूंकि उस क्षेत्र में स्कूल और मंदिर दोनों हैं अतः उस ब्रेकर के कुछ दूर पर एक और ब्रेकर है। उससे आगे एक और ब्रेकर है। अब अभी तक मैंने कितने ब्रेकर्स की चर्चा यहां की है, वह आप स्वयं गिन लीजिए क्योंकि ब्रेकर्स को गिनना मैंने छोड़ ही दिया है।

चलिए, फिर मैं एक बार अपने घर से निकलती हूं। दो ब्रेकर्स पार करने के बाद सीधे रस्ते पर न जा कर उस दूसरे रस्ते की ओर से मुख्य मार्ग की ओर बढ़ती हूं जो एक तिराहे जैसा है। उस तिराहे पर इतना बड़ा स्पीड ब्रेकर है कि मत पूछिए। दरअसल वहां नाली में पानी के निकास के लिए एक बड़ा पाईप डाला गया। उस पाईप को जमीन में नीचे धंसाने की बजाए ऐसे ढंग से लगा दिया गया कि वह लगभग आधा ऊपर रह गया। उसी पर से सड़क बना दी गई। उसे देख कर यह तय करना मुश्किल है कि वह स्पीड ब्रेकर है या गाड़ी ब्रेकर?

खैर, यह तो हुए दो रास्ते। तीसरा रास्ता है उस ओर का जहां साप्ताहिक हाट भरता है। रास्ता अच्छा बनाया गया लेकिन उसके मुहाने पर दो कूबड़ वाला ब्रेकर किस खुशी में बनाया गया, यह समझना कठिन है। बहरहाल, यह तो था एक नमूना जिसका मुझे लगभग रोज सामना करना पड़ता है। शहर में अनेक मोहल्लों और स्थानों पर यही हाल है। उस पर करेला और नीम चढ़ा वाली बात ये है कि जिसके भी मन में आता है, यानी जो तनिक भी रसूख वाला है तो वह अपने घर के आगे एक स्पीडब्रेकर जरूर बनवा लेता है। फिर वह सड़क काट कर पाईप डालने और उस पाईप को छिपाने के लिए ब्रेकर जैसे दिए गए आकार तो सड़कों पर राज करते ही रहते हैं।

चलिए अब दृष्टिपात करते हैं कि दरअसल स्पीडब्रेकर्स होने कैसे चाहिए? क्योंकि स्पीडब्रेकर्स राहचलने वालों की सुरक्षा के लिए होते हैं अतः इनका होना जरूरी है लेकिन कितना जरूरी है? कहां होना चाहि? और कैसा होना चाहिए? साथ ही कैसे होना चाहिए? इन सारे प्रश्नों पर विचार करना भी जरूरी है।

स्पीड ब्रेकर एक महत्वपूर्ण सड़क सुरक्षा सुविधा है जिसे दुर्घटनाओं को रोकने के लिए वाहन की गति को कम करने के लिए डिजाइन किया गया है। यह विभिन्न आकारों और डिजाइनों में उपलब्ध है, जैसे 1 एम रबर रोड हंप, 3 एम स्पीड ब्रेकर, 6 एम स्पीड रंबलर, 12 एम स्पीड बम्पर और 18 एम स्पीड हंप। मानक स्पीड ब्रेकर के लिए इंडियन रोड कांग्रेस की गाइडलाइन के अनुसार स्पीड ब्रेकर की अधिकतम ऊंचाई 4 इंच होनी चाहिए। ब्रेकर के दोनों ओर 2-2 मीटर का स्लोप दिया जाए ताकि वाहन स्लो होकर बगैर झटका खाए निकल जाए। 6 से 8 इंच तक ऊंचाई वाले और बगैर स्लोप के ब्रेकर नहीं बनाए जाने चाहिए।
स्पीड ब्रेकर की ऊंचाई 10 सेंटीमीटर, लंबाई 3.5 मीटर व वृत्ताकार रेडियस 17 सेंटीमीटर हो। स्पीड ब्रेकर बनाने का मकसद वाहनों की स्पीड 20 से 25 किलोमीटर करना। स्पीड ब्रेकर पर थर्मो प्लॉस्टिक पैंट से पट्टियां बनाई जानी चाहिए, जिससे वाहन चालकों को रात में भी दिखे। वाहन चालक को अलर्ट करने के लिए ब्रेकर से 40 मीटर पहले चेतावनी बोर्ड लगा होना चाहिए। स्पीड ब्रेकर अर्थात स्पीड बम्प का मुख्य उद्देश्य लोगों की गति धीमी करना है। यह उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जहां दुर्घटना की ंसभावना अधिक रहती है। नियमकायदे से लगाए गए स्पीड बम्प क्रॉसिंग, प्रवेश और निकास, तीखे मोड़ आदि से पहले तेज गति से चलने वाले वाहनों को रोक सकते हैं। इससे दुर्घटनाओं को बड़े पैमाने पर रोकने में मदद मिलती है।

1906 में चौथम, न्यू जर्सी में स्पीड बम्प का एक प्रारंभिक रूप लागू किया गया था। ड्राइवरों की गति को कम करने के लिए श्रमिकों ने क्रॉसवॉक को पांच इंच ऊपर उठाया। हालाँकि, आधुनिक स्पीड बम्प 1950 के दशक में पेश किए गए थे। स्पीड बम्प गंभीर खतरे पैदा करते हैं और अक्सर मोटरसाइकिल चालकों, स्कूटर चालकों, साइकिल चालकों आदि के लिए घातक होते हैं । वे रीढ़ की हड्डी को नुकसान पहुंचाते हैं और पुराने पीठ दर्द को बढ़ाते हैं । बसों में खड़े लोगों को कई बार काफी चोटें आई हैं। स्पीड बम्प और स्पीड हंप में क्या अंतर है? स्पीड बम्प और स्पीड हंप एक ही समस्या के अलग-अलग दृष्टिकोण हैंय वाहनों की गति धीमी करना. स्पीड बंप स्पीड हंप की तुलना में ऊंचाई में थोड़े छोटे लेकिन लंबे होते हैं, जबकि स्पीड बंप ऊंचे होते हैं और पार्किंग स्थल में पाए जाने की अधिक संभावना होती है। काले और पीले रबर स्पीड हंप, जिन्हें ज्यूडर बार या स्पीड बम्प के रूप में भी जाना जाता है, वाहनों को धीमा करने और यातायात को धीमा करने के लिए सुरक्षित माने जाते हैं।
लोग घरों के सामने वाहनों की गति नियंत्रित करने के लिए जगह-जगह स्पीड ब्रेकर बना लेते हैं। नियम के तहत सड़क पर मनमाने स्पीड ब्रेकर नहीं बनाए जा सकते हैं। नगर पंचायत क्षेत्र की गलियों में लोगों अनाधिकृत तौर पर स्पीड ब्रेकर बनवा लेते हैं। इन स्पीड ब्रेकर्स के कारण वाहन सवार गिरकर चोटिल होते रहते हैं।
भारतीय सड़क कांग्रेस (आईआरसी) की ब्रेकर निर्माण को लेकर गाइड लाइन है। इसमें यह ध्यान दिया गया है कि सड़क पर स्पीड ब्रेकर की लंबाई, चैड़ाई और ऊंचाई का स्लोप इस तरह बनाया जाए, जिससे वाहन की स्पीड तो कम करनी पड़े, लेकिन चालकों को हिचकोले या झटके नहीं लगें। सड़क पर खासकर मोटर साइकिल या स्कूटर से चलने वाले लोगों को हरदम दुर्घटना का खतरा बना रहता है। वजह स्पीड ब्रेकर में कोई संकेतक तो होता नहीं इसलिए रात को कोई मोटर साइकिल या स्कूटर सवार इस सड़क से गुजरता है।

स्पीड ब्रेकर्स पर किसी भी तरक का इंडीकेटर लगाने का होश किसी को नहीं रहता है। मुख्य चैराहों एवं मुख्य मार्गों के स्पीडब्रेकर्स पर ही पेंट या प्लारिूटक स्टिकर आदि से स्पीड बंप के ऊपर संकेतक लगे रहते हैं अन्यथा शेष स्पीड बंप्स पर कोई संकेतक अथवा इंडीकेटर नहीं लगा रहता है जिससे वे पहले से दिखाई नहीं देते हैं और उन पर उचकना तय रहता है।

      नियम तो यह है कि स्पीडबंप्स नगरनिकाय के अंतर्गत तयशुदा मानक के आधार पर सड़क निर्माण वालों को बनाना चाहिए। कोई भी नागरिक नगरनिकाय यानी नगर पालिका अथवा नगर निगम अथवा नगर महापालिक निगम से अनुमति लिए बिना स्पीडबंप नहीं बनवा सकता है। ऐसा कोई भी निर्माण अवैधानिक माना जाएगा। स्पड बंप का निर्माण एक्सपर्ट के निर्देशन में निर्धारिक मानकों के अनुरूप ही बनाया जाए।

पर्याप्त स्लोप के बिना बनाए जाने वाले स्पीडबंप वाहनों और वाहन चालकों दोनों के लिए घातक होते हैं। दूर से कोई निशान न बने होने के कारण छह से आठ इंच ऊंचे स्पीड ब्रेकरों के कारण अचानक ब्रेक लगाने से हादसे का डर रहता है। यदि स्पीड कम किए बिना निकले तो तेजी से बाइक उछलती है और पीठ में दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह स्पीड ब्रेकर बाइकों को भी बीमार बना रहे हैं। जानकारों अनुसार ब्रेकर से लगने वाले झटके से बाइक या कार के कलपुर्जों को नुकसान पहुंचता है। शॉकर एवं इंजन पर इसका विपरीत असर पड़ता है। बारिश के दिनों में गलियों में पानी भर जाने से संकेतकविहीन स्पीड ब्रेकर दिखाई नहीं देंते हैं और लोग हादसे का शिकार होते रहते हैंे। बिना मानक एवं बिना संकेतक के बने स्पीडबंप इतने खड़े हुए होते हैं कि कई बार तो पैदल चलने वाले भी उससे अपट जाते यानी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं।

साइटकेयर हाॅस्पिटल के वरिष्ठ सलाहकार न्यूरोसर्जन डॉ. शैलेश एवी राव के अनुसार- स्पीड बम्प गंभीर खतरे पैदा करते हैं और अक्सर मोटरसाइकिल चालकों, स्कूटर चालकों, साइकिल चालकों आदि के लिए घातक होते हैं। वे रीढ़ की हड्डी को नुकसान पहुंचाते हैं और पुराने पीठ दर्द को बढ़ा देते हैं। बसों में खड़े लोगों को कई बार काफी चोटें आई हैं। डाॅ. राव इसके लिए समाधान भी सुझाते हैं। उनके अनुसार स्पीड बंप के स्थान पर स्पीड टेबल का प्रयोग किया जाना चाहिए। स्पीड टेबल या फ्लैट टॉप कूबड़ या उठा हुआ पैदल यात्री क्रॉसिंग को बीच में एक सपाट खंड के साथ एक लंबी गति कूबड़ के रूप में डिजाइन किया जाता है। आमतौर पर अग्निशमन विभागों द्वारा स्पीड कूबड़ की तुलना में इन्हें प्राथमिकता दी जाती है। स्पीड टेबल का उपयोग अक्सर विशिष्ट आवासीय गति सीमा वाली सड़कों पर किया जाता है। स्पीड टेबल को पैदल यात्री क्रॉसिंग, अर्थात् जेबरा क्रॉसिंग के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है।

केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी स्वयं यह मानते हैं कि, ‘‘यह समस्या पूरे देश में है। हमारे यहां हर रोड पर स्पीड ब्रेकर हैं जो कि आपकी हड्डियां तोड़ सकते हैं और आपके वाहन को क्षतिग्रस्त कर सकते हैं।श् उन्होंने बातचीत में बताया कि वह राज्य सरकारों के लिखेंगे कि वे सुनिश्चित करें कि स्पीड ब्रेकर बनाते समय नियमों का पालन हो। गडकरी ने कहा कि मंत्रालय यह सुनिश्चित करेगा कि स्पीड ब्रेकर एक निश्चित स्थान पर सोच-विचार कर बनाया जाए। ग्रामीण इलाकों में हर 100 मीटर पर एक स्पीड ब्रेकर बना मिलता है। ऐसा ज्यादातर रिहायशी इलाकों में होता है। कई जगहों पर लोग ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिए ईंटों की मदद से डीआईवाई बंप्स (हाथ से बने स्पीड ब्रेकर) बना देते हैं।
दरअसल, हम नागरिक स्पीड ब्रेकर अथवा स्पीड बंप पर रोज झटके खाते हैं। कमर दर्द और सर्वाइकल के दर्द को रोना रोते हैं लेकिन इन ब्रेकर्स के अनियमित निर्माण की ओर न तो ध्यान देते हैं और न इन्हें रोके जाने की दिशा में साहस जुटाते हैं। प्रशासन तो इनकी अनदेखी करता ही रहता है। जो काम प्रशासन अथवा नागरिक सुधार सकते हैं उनके लिए भी भगवान से प्रार्थना करने की हमारी आदत-सी पड़ गई है। इसी लिए तो आए दिन स्पीडब्रेकर्स पर जोर का झटका लगने पर यही मुंह से निकलता है-‘‘‘हे भगवान! इन बहुसंख्यक, बेढब स्पीड ब्रेकर के झटकों से मुक्ति दिला!’’
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Tuesday, February 20, 2024

पुस्तक समीक्षा | भक्ति के मर्म को व्याख्यायित करती गुजराती कृति का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 20.02.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ गौतम पटेल की मूल गुजराती पुस्तक "भक्ति नो मर्म" की डॉ चंचला दवे द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद पुस्तक "भक्ति के मर्म"  की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
भक्ति के मर्म को व्याख्यायित करती गुजराती कृति का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद
      - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - भक्ति का मर्म
लेखक      - गौतम पटेल
अनुवादक    - चंचला दवे
प्रकाशक   - लकुलीश योग युनिवर्सिटी, लोटस व्यु, निरमा युनिवर्सिटी के सामने, छारोडी, सरखेज - गांधीनगर हाईवे, अमदावाद, गुजरात
मूल्य        - 300/-
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मूल गुजराती में लिखी गई पुस्तक ‘‘भक्ति नो मर्म’’ एक बहुचर्चित और बहुपठित पुस्तक है। इस पुस्तक की उपादेयता एवं भक्ति को जानने की जनरुचि को देखते हुए अहमदाबाद स्थित लकुलीश योग युनिवर्सिटी ने इसे हिन्दी में भी उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। सागर मध्यप्रदेश में निवासरत विदुषी अनुवादिका डाॅ. चंचला दवे को अनुवाद कार्य का दायित्व सौंपा गया। जिसके उपरांत ‘‘भक्ति नो मर्म’’ का हिन्दी में ‘‘भक्ति का मर्म’’ नाम से अनुवाद प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व इस पुस्तक का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद हो चुका है। पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का आमुख लिखा है प्रो. बलवंत राय जानी, कुलाधिपति, डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर ने तथा डाॅ सुरेश आचार्य एवं नरेन्द्र दुबे ने पुस्तक के कलेवर तथा अनुवाद पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। पुस्तक के लेखक डॉ. गौतम पटेल ने डाॅ. चंचला दवे के अनुवाद कार्य पर टिप्पणी करते हुए मूल पुस्तक के आकार में आने के संबंध में संक्षिप्त विवरण दिया है- ‘‘मैंने परम श्रद्धेय मित्रवर आचार्यश्री कानजीभाई पटेल के अनुरोध पर अहमदाबाद की सुप्रसिद्ध संस्था एल. डी. इंडोलाजिकल इंस्टीट्यूट में भक्ति विषयक तीन प्रवचन किये। शिमला स्थित ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवान्स स्टडीझ’ ने मुझे एक समर वेकेशन में ‘रिसोर्स परसन’ के रूप में आमंत्रण दिया। उसी समय श्रीमती डॉ. भुवन चन्देल वहाँ डायरेक्टर के रूप में सेवा प्रदान करती थी। वहाँ भी भक्ति विषय को केन्द्र में और कर्णाटक की ‘संशोधन’ नामक संस्था द्वारा आयोजित सेमिनार में तिरुपति में ‘श्रीमद् वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति’ इस विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत किया। इन सभी की जो शोध (खोज) मेरे पास थी उसके अनुसार गुजराती में ‘भक्तिनो मर्म’ नामक ग्रंथ संस्कृत सेवा समिति ने प्रकाशित किया। उसकी भूमिका विश्ववंद्य संत मोरारी बापू ने लिखी एवं आशीर्वाद प्रदान किया।’’
‘‘भक्ति नो मर्म’’ की हिन्दी में उपलब्धता वर्तमान में और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आज भक्ति की भावना सभी के हृदय में हिलोरें ले रही है लेकिन हर व्यक्ति नहीं समझ पाता है कि वस्तुतः भक्ति क्या है? किसी गुरु का स्तुततिगान करना, किसी मंदिर की चैखट में माथा टेकना, किसी विशेष रंग का वस्त्र पहना लेना अथवा जोश में भर कर जयकारे लगाना- क्या यही भक्ति है? यदि नहीं, तो भक्ति क्या है? भक्ति एक बहुत गहरा विचार है, एक ऐसी अनुभूति भरा विचार जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को परिवर्तित करके ‘स्व’ को भुलाने की क्षमता रखता है। भक्ति का तात्पर्य है-स्वयं के अंतस को ईश्वर के साथ जोड़ लेने की प्रक्रिया ही भक्ति है। सांसारिकता के मोहपाश में बंधे रहना अथवा आडंबर ओढ़ लेना भक्ति नहीं है। भक्ति का अर्थ है पूर्ण समर्पण। सरल शब्दों में कहें तो आत्मा की डोर का परमात्मा से बंध जाना भक्ति है। ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला सच्चा साधक ही भक्त है। भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘भज’’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘‘सेवा करना’’ या ‘‘भजना’’ है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। महर्षि व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है।
डाॅ गौतम पटेल ने अपनी पुस्तक में सम्पूर्ण कलेवर को उपसंहार संहित पांच अध्यायों में विभक्त किया है-1 भक्ति की उत्पत्ति एवं विकास, 2. भगवद् गीता में भक्ति 3. श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति, 3. श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति 4. शुद्धाद्वैत सिद्धांत में भक्ति तथा 5. उपसंहार।
प्रथम अध्याय ‘‘भक्ति की उत्पत्ति एवं विकास’’ के अंतर्गत लेखक ने भक्ति की उत्पत्ति के बारे में विवरण दिया है तथा भक्ति के विकास को व्याख्यायित करते हुए सात उपशीर्षकों के अंतर्गत उद्धरण सहित विविध विचारों को प्रस्तुत किया है। इसके अंतर्गत हैं- वेदों में भक्ति, शांडिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति, नारद भक्ति सूत्र में भक्ति, नारद पंचरात्र में भक्ति की व्याख्या, भक्ति रसायन के अनुसार भक्ति, भक्तिरसामृतसिन्धु में भक्ति, शरणागति अथवा प्रपत्ति।
दूसरे अध्याय ‘‘भगवद् गीता में भक्ति’’ के अंर्तगत ‘‘भगवद् गीता’’ पर आधारित भक्ति के स्वरूप को रेखांकित ेिकया है। इस अध्याय में है- भगवद् गीता में भक्ति, आदि शंकराचार्य के मतानुसार भक्ति तथा श्री रामानुजाचार्य के मतानुसार भक्ति।
तीसरे अध्याय ‘‘श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति’’ में लेखक ने भक्ति के उस स्वरूप का विवरण दिया है जिसका उल्लेख भागवत पुराण में मिलता है-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः।।
- ‘‘यहाँ श्रीमद्भागवत पुराण को ‘वेदरूपी कल्पवृक्ष’ का पका हुआ फल कहा गया है। यही भागवत की अद्वितीय विशेषता है। यहाँ व्यास महर्षि ने, रसिको को जीवन के अंतिम क्षण तक, जब तक यह देह पंच-भूतों में विलीन हो, तब तक बारम्बार भागवत रूपी रस का पान करने का आव्हान किया है। क्योंकि यह भागवत वेदरूपी कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है एवं इसका रस शुक (तोता-शुकदेवजी) के मुख से प्रवाहित हो रहा है। ऐसी मान्यता है कि जिस फल को शुक अपनी चोंच मारता है, वह अत्यंत ही मधुर होता है।’’
इसी अध्याय में लेखक ने हिन्दू संस्कृति में मान्य अवतारवाद केा तार्किक ढंग से सामने रखा है। उन्होंने लिखा है कि-‘‘मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नृसिंहो वामन एव च।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किस्तथैव च।।
- अर्थात दसअवतार के रूप में ईश्वर धरती पर अवतरित हुए। ये दस अवतार हैं- ‘‘1. मत्स्य 2. कूर्म 3. वराह 4. नृसिंह 5. वामन 6. परशुराम 7. राम 8. कृष्ण 9. बुद्ध एवं 10. कल्कि।’’
लेखक डाॅ. गौतम पटेल ने आगे लिखा है कि ‘‘भारत में मत्स्यावतार के बाद कूर्मावतार की बात है, यहाँ सूक्ष्म उत्क्रांति हैं। मछली केवल पानी में रहती है। जब कछुआ अर्थात् कूर्म पानी में अधिक पृथ्वी पर कम रहता है। तीसरा अवतार वराह है। वराह पृथ्वी ऊपर अधिक, पानी में कीचड़ में कम रहता है। इसके पश्चात् नृसिंह अर्थात् आधी देह प्राणी की, आधी देह मनुष्य की, प्राणी में से मानव की तरफ उत्क्रांति हुई। उसके बाद वामन अवतार हुआ। वामन अर्थात् लघु मानव, तदनंतर परशुराम-पूर्ण मानव । परंतु उसमें पशुकी तरह हिंसा, क्रोध, बैर जैसे लक्षण रह गये हैं। इसके पश्चात् राम आये-संपूर्ण मानव के रूप में, आदर्श मानव के रूप में। मानव में अपेक्षित सभी सद्गुण इनके अंदर पाये गये। डार्विन मानव से आगे नहीं बढ़े, परंतु भारतीय अवतारवाद में राम में मानवीय गुणों की पराकाष्ठा है, जबकि कृष्ण में दैवीय गुणों की चरम सीमा है। इन दोनों की तुलना, समरसता भी रसप्रद है।’’
इसके बाद लेखक ने राम और कृष्ण अवतारों की परस्पर तुलना की है जोकि अपने आप में अत्यंत रोचक है।
चैथे अध्याय ‘‘शुद्धाद्वैत सिद्धांत में भक्ति’’ में शुद्ध अद्वैत मत के अनुसार भक्ति की व्याख्या करते हुए लेखक ने उपनिषद का उद्धरण दिया है कि -‘‘इस प्रकार वेद की संहिताओं में भक्ति का आरम्भ हुआ है-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्य होते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।
- जिन्हें ईश्वर में पराभक्ति हो वैसी ही गुरु में भी हो तो उस महात्मा को यह अर्थ प्रकाशित होता है। भक्ति के प्रति विचार एवं सिद्धांत बहुत ही प्राचीन हैं। शुद्धाद्वैत सिद्धांत पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति प्रभु की कृपा हे प्राप्त होती है एवं वह पुष्टि-भक्ति कहलाती है। पुष्टि अर्थात् पोषण, प्रभु का अनुग्रह ‘‘पोषणं तदनुग्रहः ’’। यह पुष्टि-भक्ति प्रभु की कृपा से पुष्टि-जीवों को ही प्राप्त होती है। प्रभु के विग्रह से विलग होकर ये जीव पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। प्रभु स्वयं इनमें भक्ति के बीज का रोपण करते हैं एवं मनन, श्रवण रूपी जल से सिंचन करते हैं। ब्रह्म-संबंध की दीक्षा प्रदान कर उसमें भागवत भक्ति का पुष्प खिलता है। भगवद् व्यसनरूपी फल की प्राप्ति होती है। ऐसा पुष्टि-भक्त प्रभु की भक्ति के बिना एक सांस भी नहीं ले सकता है। ऐसी इस सिद्धांत की मान्यता है।’’
वस्तुतः जिसके विचारों में शुचिता (पवित्रता) हो, जो अहंकार से दूर हो, जो किसी वर्ग-विशेष में न बंधा हो, जो सबके प्रति सम भाव वाला हो, सदा सेवा भाव मन में रखता हो, ऐसे व्यक्ति विशेष को हम भक्त का दर्जा दे सकते हैं। नर सेवा में नारायण सेवा की अनुभूति होने लगे, ऐसी अनुभूति ही सश्ची भक्ति कहलाती है। भक्त के लिए समस्त सृष्टि प्रभुमय होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-जो पुरुष आकांक्षा से रहित, पवित्र, दक्ष और पक्षपातरहित है, वह सुखों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है, परंतु अफसोस यह कि इस दौड़ती-भागती और तनावभरी जिंदगी में हम कई बार प्रार्थना में भगवान से भगवान को नहीं मांगते, बल्कि भोग-विलास के कुछ संसाधनों से ही तृप्त हो जाते हैं।
‘‘मैं भगवान नारायण या भगवान शिव या भगवान कृष्ण को प्रणाम करता हूँ।’’ यह भक्ति योग है. ‘‘सबमें मैं ही आत्मा हूँ।’’ यह ज्ञान योग है. अद्वैत वेदांती के अनुसार, भक्ति इस सूत्र पर निरंतर विचार करना है, ‘‘मैं वह हूं’’ या ‘‘मैं ब्रह्म हूं।’’ भक्ति मार्ग में पांच चीजें अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। (1) भक्ति निष्कामया प्रकार की होनी चाहिए। (2) अव्याभिचारिणी भी होनी चाहिए। (3) यह सादात (निरंतर) होना चाहिए. (4) साधक का सदाचार पूर्ण होना चाहिए। (5) अभ्यर्थी को बहुत गंभीर होना चाहिए और सही ढंग से अभ्यास करना चाहिए। तब बोध शीघ्र हो जाता है।
लेखक गौतम पटेल भारतीय भक्ति दर्शन के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने गहन अध्ययन, चिंतन, मनन के साथ मूल गुजराती में जो पुस्तक ‘‘भक्ति नो मर्म’’ लिखी है, उसका उतना ही श्रमसाध्य अनुवाद डाॅ. चंचला दवे ने किया है। अनुवादकार्य अपने-आप में ही एक पूर्ण सर्तकता भरा कार्य होता है क्योंकि इसके लिए आवश्यक होता है कि अनुवादक मूल कृति के मर्म को आत्मसात करे ताकि वह अनुवाद हेतु उचित शब्दों का चयन कर सके। डाॅ. चंचला दवे को गुजराती एवं हिन्दी का समुचित ज्ञान है अतः उन्हें शब्द चयन में कठिनाई नहीं हुई होगी। मूल गुजराती पुस्तक मैंने नहीं पढ़ी है किन्तु अनुवाद के संबंध में लेखक गौतम पटेल के आश्वस्ति भरे शब्द ‘‘यह अनुवाद माता गंगा की तरह पावन’’ लिखा जाना इस बात का द्योतक है कि लेखक संतुष्ट है अपनी कृति के अनुवाद के प्रति। जिसके आधार पर कह जा सकता है कि डाॅ चंचला दवे ने एक उत्कृष्ट अनुवाद कार्य कर के हिन्दी साहित्य को एक ऐसी गंभीर विषय की कृति से परिचित कराया है जिसकी वर्तमान में महती आवश्यकता है। भक्ति के स्वरूप एवं प्रकृति को जानने में रुचि रखने वालों के लिए यह कृति निश्चित रूप से पठनीय है।   
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Sunday, February 18, 2024

प्रगतिशील लेखक संघ गोष्ठी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज शाम प्रगतिशील लेखक संघ की मकरोनिया शाखा की पाक्षिक गोष्ठी का आयोजन हुआ। जिसकी अध्यक्षता की श्री टीकाराम त्रिपाठी जी ने। गोष्ठी में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का स्मरण किया गया तथा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई। मैंने भी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से भेंट के संस्मरण साझा किया, साथ ही  गोष्टी के रचना पाठ सत्र में अपनी दो कविताओं का पाठ किया। 
    इस अवसर पर कार्यक्रम में सर्वश्री संतोष रोहित,  डॉ सतीश पांडे, पी आर मालैया, पेट्रिस फुसकेले, वीरेंद्र प्रधान, मुकेश तिवारी, नम्रता फुसकेले, सुमन झुड़ेले, भावना बड़ोन्या, ज्योति दीक्षित, संतोष श्रीवास्तव, रहबर आदि रचनाकार बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
आयोजन की कुछ तस्वीरें.. 
सौजन्य : श्री मुकेश तिवारी जी
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Saturday, February 17, 2024

बतकाव बिन्ना की | जो अबे न हुइए, तो कबे हुइए? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जो अबे न हुइए, तो कबे हुइए?  
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘बिन्ना! देखो तो फेर के किसान हरें दिल्ली पौंच गए।’’ भैयाजी कछू सोचत भए बोले।
‘‘अबईं तो देखत जाओ के जैसे-जैसे चुनाव करीब आने, उंसई-उंसई कछू ने कछू होत रैने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, जे तो तुमने सांची कई। मनो ई के पैले कोनउं सुनत कां आए? बा तो चुनाव टेम आबे के संगे कानो में जूं रेंगन लगत आए, ने तो कोऊ कित्तोई चिचियाए कोनऊं फरक नईं परत।’’ भैयाजी बोले।
‘‘चलो जे आप छोड़ो, आपके लाने मैं एक किसां सुना रई। तनक ध्यान से सुनियो!’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कैसी किसां? चलो सुनाओ! का किसान हरों की किसां आए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘नईं! ईको किसानो से कोनऊं लेबो-देबो नईयां। मैं तो ऊंसई सुना रई। आपके लाने फेर जो समझ में आए सो समझ लइयो।’’ मैंने कई।
‘‘चलो सुनाओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘एक गांव में एक पंडतजी के तीन मोड़ा हते। तीनो के तीनों ई में कछू ने कछू डिफेक्ट रओ। मने एक हकला के बोलत्तो। दूसरो बोलबो चालू करतो तो बोलतई चलो जातो। औ तीसरो मोड़ा जो रओ बा रओ तोतलो। जे डिफेक्ट के कारण उनको ब्याओ ने हो पा रओ हतो। पंडतजी बेचारे बड़े परेसान। आखिर एक भौत दूर के गांव में एकई धरे की तीन मोड़ियों के संगे ब्याओ की बात चली। पंडतजी ने सोची के जो जे ब्याओ सेट हो जाए तो एकई घरे की तीनों मोड़ियों के कारण बात ढंकी रैहे। सो पंडतजी अच्छो सो महूरत निकार के अपने तीनों मोड़ा खों संगे ले के निकर परे ऊ मोड़ियन के गांव के लाने।
मोड़ियन को गांव पास आतई साथ पंडतजी ने तीनों मोड़ा खों समझाओ के तीनों चुप रहियो। कछू ने बोलियो। जो कोनऊं कछू पूछे तो अपनो मूंड़ हिला के रै जइयो। बाकी सब हम सम्हार लेबी। तीनों मोड़ा ने हऔ कई। मनो ऐसई झट से नईं कै दई। बड़ो वालो बोलो ‘‘हहहऔ’’, मंझलो वारो बोलो ‘हऔ हऔ हऔ हऔ हऔ’’, औ तीसरो तोतलो वारो बोलो ‘‘हऊ’’। खैर, पंडतजी तीनों मोड़ा खों ले के मोड़ियन के घरे पौंचे। तीनों मोड़ियां खूबई सुंदर हतीं। पंडतजी सोचन लगे के जो जे तीनों हमाए घर की बहू बन जाएं तो हमाए भाग खुल जाएं।
मोड़ियन के बाप-मताई ने पंडतजी औ तीनोई मोड़ों की खूबई आव-भगत करी। अच्छे-अच्छे पकवान दए खाबे के लाने। फेर बात आई मोड़ा हरो से बात करबे की। मोड़ियन के बापराम ने पंडतजी से कई के तनक मोड़ा हरों से सोई पूछ लओ जाए के उने मोड़ियां पसंद आईं के नईं। पंडतजी झट्टई बोले के अरे इन ओरन से का पूछने? जो हमने हौ कै दई तो जे ओरें मना थोड़े करहें। मोड़ियन के बापराम सोई हते चतुरा। उन्ने सोची के जे पंडतजी हमें अपने मोड़ों से बात काय नईं करन दे रए, कछू तो गड़बड़ जरूर आए। ऊपर से तो ऊने कछू नईं कई मनो ऊने लगाई एक जुगत। ऊने पंडतजी खों खूब खिलाओ-पिलाओ। सो पंडतजी खों आने लगी नींद। कछू देर में पंडतजी लेन लगे खर्राटे। बस, मोड़ियन को बापू पौंचों तीनों लरका के लिंगे। औ ऊने बड़ो मोड़ा से कई के बेटा पंडतजी बता रए हते के तुमाई आवाज भौतई साजी आए। पर हमने तो अबे लौं सुनी नईं। तनक हमें सोई कछू बोले के सुना देओ। हमाए कान सोईं तर जाएं।
‘‘हहहऔ, बोबोबोलो ककका सससुनाएं हहहम?’’ बड़ो मोड़ा हकलात सो बोल परो।
ऐं! मोड़ियन के बापू खों समझ में आ गई के जे मोड़ा सो हकलात आए। जेई से पंडतजी ईसे बात नई करन दे रए हते। अब ऊने सोची के बाकियन खों सोई चैक कर लऔ जाए। सो ऊने दूसरे मोड़ा से कई के बेटा, तुमओ बड़ो भैया सो भौतई अच्छो बोलत आए, अब तुम कछू बोल के बताओ। मंझले मोड़ा ने देखी के बड़े की तारीफ करी जा रई सो बा जोस में आ के पूछन लगो के ‘‘का सुनाएं, का सुनाएं, का सुनाएं, का सुनाएं, का सुनाएं?’’
हे मोरे राम! जे तो बोलबे टिको, सो बोलतई जा रओ। जे सो औरई गड़बड़ आए। मोड़ियन के बापू ने सोची। अब ऊने तीसरे मोड़ा खों जांचबे की सोची। ऊने तीसरे खों बोलबे की कई हती के इत्ते में पंडतजी भगत आए। काय से के उतेे उनकी आंख खुली और तीनों मोड़ा ने दिखाने सो बे घबड़ा गए के कऊं पोल ने खुल जाए। पंडतजी ने पौंचतई साथ पूछी के काए तुम ओरन ने अपनो मौन व्रत तो नईं तोड़ो?
काय को मौन व्रत? काय छिपा रए पंडतजी? तुमाए दो मोड़ा खों बोलबो हमने सुन लओ। अब ने छिपाओ। तीसरो वारो को औ सुन लेन देओ। बेचारे पंडतजी धरे रै गए। उन्ने फेर बी छोटे मोड़ा की तरफी देख के आंखें मिचकाईं के बा तो कम से कम चुप रए। मगर जबे छोटे मोड़ा ने देखों के ऊको बापू ऊकी तरफी देख के आंखे मिचका रओ, सो ऊने सोची के बापू कै रए के अब तुम सोई बोल देओ। सो, बा तुरतई बोल परो ‘‘हम तो टुप्प टाप रए, अब आप कै रए सो हम बोल रए।’’ जे सुन के मोड़ियन को बापू समझ गओ जे तीसरो मोड़ा तोतला ठैरो। पंडतजी हते सो अपने मूंड़ पे हाथ दे के रै गए।
मोड़ियन के बापू ने पंडतजी औ उनके तीनों मोड़ों को भगा दओ। बे चारो जने अपनो सो मों ले के घरे लौट परे।
‘‘सो जे तो होतई आए, झूठ कभऊं छुपत नइयां। और यांदी-ब्याओं में सो झूठ बोलोई नईं जाओ चाइए।’’ भैयाजी बोले। उन्ने सोची कि किसां बढ़ा गई।
‘‘भैयाजी, अबे किसां खतम नई भई। जे किसां में कछू नओ टर्न सोई आए।’’
‘‘का मतलब?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब जे के, जब पंडतजी अपने तीनों मोड़ा खों ले के घरे लौट रए हते तो बीच जंगल में बे चारों कछू देर एक पेड़ के नैचे सुस्ताबे खों रुके। ऊ पेड़ पे रैत्तो एक देव। देव ने देखी के चारो जने भारी दुखी आएं। सो ऊने पेड़ से उतर के पंडतजी से कारण पूछी। पंडतजी ने अपने मोड़ा हरो के डिफेक्ट के बारे में ऊको बताई। डिफेक्ट की सुन के बा देव हसन लगो। फेर बोलों के पंडतजी आप जे ने सोचियो के हम आपके मोड़ों पे हंस रए। हमें तो जे देख के हंसी आ गई के जोन डिफेक्ट पे आप आज दुखी हो रए कछू समै बाद जेई डिफेक्ट वारे सबई तरफी दिखाहें। पंडतजी देव की बात सुन के चकराए। तब देव ने बताई के हम ठैरे तीन काल देखबे वारे। हमें भविष्य को सोई दिखा जात आए। औ हम भविष्य में देख रए के कछू समै बाद कहला-कहला के बोलबे वारे, माने गोल-मोल बोलबे वारे जैसो तुमाओ बड़ो मोड़ा बोलत आए, ऐसई लोग राज करहें। औ भविष्य में टेलीविजन नाम की एक चीज हुइए जीमें बहस करबे वारे तुमाए दूसरे मोड़ा घांई एकई बात दोहरा-दोहरा के पगलयात रैहें। औ रई तुमाए तीसरे तोतला मोड़ा की सो ई टाईप की सो सगरी जनता हो जैहे, के अपनी बात साफ बोलई ने पाहे। सो तुम अब इन तीनों मोड़ा खों ले के दुखी ने हो। ई जनम में सेटल ने हो पाए, तो अगले जनम में तो पक्के सेटल हो जैहेे। इत्तो कै के बा देव फेर के पेड़ पे जा बैठो। औ पंडतजी अपने तीनों मोड़ा के संगे खुसी-खुसी घरे लौट गए।
‘‘सो भैयाजी, जा हती किसां। कओ कैसी लगी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘किसां तो अच्छी हती, मनो जे नओ टर्न तुमई ने दओ कहानो।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘सो का गलत कई मैंने? ई टेम पे तीनों मोड़ा घांई दसा नईयां का?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ, है तो सई। मनों हमने तुमसे आतई बात करी हती किसान हरो की जो बे दिल्ली पौंचे जा रए, औ तुमने हमें सुना दई जे किसां। अब जे बताओ के ऊ मामले से ई किसां को का मेल?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मैंने सो पैलई कई रई के दोई को आपस में कोनऊं लेबो-देबो नइयां।’’ मैंने कई।
‘‘सो तुमने जा किसां काय सुनाई?’’ भैयाजी झुंझलात भए बोले।
‘‘जेई से हमने आपके लाने जे किसां सुनाई के आपको ध्यान किसानन से हट जाए। आजकाल जेई को तो जमाना आए के आम की पूछो सो नीम की चर्चा करी जात आए। जो पब्लिक को मुद्दा भुलवाने होय सो अपनो कोनऊं मुद्दा बना के बोई के ढपलिया पीटन लगो। फेर कोनऊं सल्ल नई रैने।’’ मैंने कई।
‘‘सई कई। देखो अब जे किसानों के मामले में का हुइए?’’ भैयाजी फेर चिंता करत भए बोले।      
‘‘भैयाजी, चाए ई तरफी देखो, चाए ऊ तरफी देखो। जा ठैरो चुनाव को टेम। सगरे दोंदरा जो अबे ने हुइए तो कबे हुइए?’’ मैंने भैयाजी कई। मनो किसां सुनबे के बाद बी किसानों खों ले के उनकी सोच-फिकर ने गई।
बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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