Dr (Miss) Sharad Singh |
हाल ही में रिलीज़ "लिपस्टिक अंडर माई बुर्का" पर आज (26.07.2017) मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस
दैनिक "सागर दिनकर" में पढ़िए ...."अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘‘लिपस्टिक
अंडर माय बुर्का’’ ने इस बात को साबित कर दिया है कि आज की महिला फिल्म
निर्देशक घाटे के जोखिम से निपटना बखूबी जानती है। स्त्री यौनिकता का
संवेदनशील विषय को सामने रख कर वह स्त्री की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़
बुलंद करती है और साथ ही अपने आर्थिक घाटे की संभावना को भी चतुराई से बचा
ले जाती है।"
चर्चा प्लस
लिपस्टिक के बहाने स्त्रीपक्ष में बहस
- डॉ. शरद सिंह
किसी स्त्री की स्वतंत्रता का अर्थ क्या हो चाहिए? आर्थिक स्वतंत्रता या
यौनिक स्वतंत्रता अथवा दोनों या दोनों नहीं। प्रश्न पेंचीदा हैं। तय स्वयं
स्त्री को करना है कि वह किस सीमा तक और कैसी स्वतंत्रता चाहती है।
निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित स्त्री के पक्ष में
महत्वाकांक्षी फिल्म ’लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ इस प्रश्न को बड़ी शिद्दत
से उठाती है और एक बहस छोड़ जाती है दर्शकों के मन-मस्तिष्क में। लिपस्टिक
स्त्री के श्रृंगार का एक हिस्सा ही नहीं वरन् उसके अधिकार का प्रतीक है
जिसे वह समाज के सामने लाना चाहती है पूरी खूबसूरती के साथ। फिर भी अनेक
ऐसे प्रश्न हैं जो एक बार फिर बहस का आग्रह करते दिखाई देते हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
स्त्री अधिकारों के पक्ष में फिल्म जगत ने यू ंतो हमेशा पहल की है लेकिन जब
ये स्त्री निर्देशकों और निर्माताओं ने इस क्षेत्र में क़दम रखा तब से एक
अलग ही रंग इस तरह की फिल्मों में दिखाई देने लगा। यह अलग रंग बॉक्स ऑफिस
का जोखिम माना जाता रहा है। भारतीय सिने जगत में अल्पसंख्यक होते हुए भी
महिला निर्देषकों ने साहस के साथ इस जोखिम को बार-बार उठाया लिया। अपने
परिवार के लिए एक-एक पैसे जोड़ने पर विष्वास रखने वाली महिलाएं जब सिने जगत
में निर्देषक के रूप में प्रविष्ट हुईं तो उनमें से अधिकांष ने फिल्म के
माध्यम से पैसे कमाने का उद्देष्य त्याग कर सामाजिक, पारिवारिक एवं वैष्विक
मुद्दों पर फिल्में बनाईं, वह भी बिना किसी ‘फिल्मी-मसाले’ के।
जब प्रश्न भारतीय सिनेमा का उठता है तो आमतौर पर महिलाओं की विस्तृत भूमिका अभिनय और संगीत तक सिमटी दिखाई देती है। नायिका, खलनायिका, चरित्र अभिनेत्री अथवा पार्श्व गायिका पर जा कर स्त्री का अस्तित्व सिमटता दिखता है। भारतीय सिने जगत में महिला गीतकारों को भी उंगलियों पर गिना जा सकता है और निर्देशकों को भी। यद्यपि भारतीय सिनेमा में महिला निर्देशकों की शुरूआत बहुत पहले हो गई थी जब अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री फातिमा बेगम ने सन् 1926 में मूक फिल्म ‘बुलबुल ए परिस्तान’ का निर्देशन किया था। इसके लगभग 10 साल बाद सन् 1936 में अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई ने फिल्म ‘मैडम फैशन’ का निर्देशन किया था। यह फिल्म हिट रही और इसके बाद उन्होंने ‘मोती का हार’ और ‘जीवन स्वप्न’ नामक फिल्मों का भी निर्देशन किया। इसके बाद शोभना समर्थ ने भी अभिनय के साथ ही फिल्म का निर्देशन का काम किया । फिर भी महिला फिल्म निर्देशक स्थायी रूप से अपनी उपस्थिति नहीं बनाए रख सकीं। कई अभिनेत्रियां ऐसी आई जिन्होंने अभिनय के साथ-साथ निर्देशन में भी हाथ आजमाया। इनमें थीं- शोभना समर्थ, साधना, तबस्सुम, हेमामालिनी, नीलिमा अजीम, सोनी राजदान, नंदिता दास और पूजा भट्ट। इन सभी अभिनेत्रियों ने निर्देशन के लिए या तो अभिनय क्षेत्र को त्याग दिया या फिर दोनों ही काम को बराबर करती रहीं। भारतीय सिनेमा में सिर्फ 9.1 फीसदी महिला निर्देशक हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय मानक से थोड़ा ही ज्यादा है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म उद्योग में फिल्में लिखने वाली महिलाएं ज्यादा हैं। भारत में यह हिस्सेदारी सिर्फ 12.1 फीसदी है। कैमरे के पीछे प्रति 6.2 पुरुषों की तुलना में एक महिला काम कर रही है।
सन् 2017 के मध्य में आई अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ ने इस बात को साबित कर दिया है कि आज की महिला फिल्म निर्देशक घाटे के जोखिम से निपटना बखूबी जानती है। स्त्री यौनिकता का संवेदनशील विषय को सामने रख कर वह स्त्री की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करती है और साथ ही अपने आर्थिक घाटे की संभावना को भी चतुराई से बचा ले जाती है। आज की महिला फिल्म निर्देशक व्यावसायिक क्षेत्र बारीकी से नज़र रखे हुए हैं। यह जरूरी भी है। क्यों कि जब आपकी बात अधिक से अधिक लोगों के पास पहुंचेगी तभी तो उस पर विचार-विमर्श होगा अन्यथा स्टूडियो की चौखट पर ही फिल्म भी दम तोड़ देगी। ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ की पूरी टीम इस बात को भली-भांति जानती और समझती है।
‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ में पुरूष पितृसत्ता की वजह से इसके पीछे क्या चीजें होती है वो दिखाने की कोशिश की गई है। जहां एक लड़की लोगों के सामने डांस नहीं कर सकती क्योंकि ’लोग क्या सोचेंगे’. जहां एक अधेड़ उम्र की महिला अपने यौनिक रूचि-अरूचि के बारे में बात नहीं कर सकती। जहां एक पुरूष कभी भी सेक्स के लिए अपनी अपनी पत्नी की अनुमति या उसकी पसंद नापसंद के बारे में नहीं सोचता है। ‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ उन महिलाओं की आवाज है जो शायद ही कभी सुनी जाती है। दरअसल फिल्म में लिपस्टिक एक प्रतीक है स्त्री के अधिकारों का। लिपस्टिक चेहरे को सुंदर दिखाने के लिए लगाई जाती है लेकिन यदि चेहरा दिखाने की ही आजादी न हो तो? क्या स्त्री पुरुषों की भांति मनुष्य नहीं है जो उसके चेहरा दिखाने पर पाबंदी लगा दी जाती है। ऐसी पाबंदियां पहले घुटन, फिर क्रोध और फिर विद्रोह को जन्म देती हैं। यही इस फिल्म का मुख्य कथानक है।
‘’लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ के संदर्भ में एक और बात जिसने एक अलग ही बहस का इतिहास रच दिया। सेंसर बोर्ड द्वारा फिलम पर बैन लगा और फिर हटा लेकिन इन सबके विरोध में फिल्म की टीम ने साशल मीडिया पर एक फोटो-आंदोलन चलाया। फिल्म की चारों लीड स्टार्स ने फिल्म के पोस्टर के ही पोज में मिडिल फिंगर को दिखाते हुए तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड की। उन्होंने अपने फैन्स से आग्रह किया कि वो भी इसी पोज में अपनी तस्वीरें खींच कर भेजें। इसकी शुरूआत कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, अहाना कुमरा और प्लबिता बोरठाकुर ने शुरू की है। इन सभी ने इसी मुद्रा में फोटो खिंचाई है। इसे ’लिपस्टिक रिबेलियन’ का नाम दिया गया है। चारो अभिनेत्रियों ने कहा कि एक महिला होने के नाते हम पर हमेशा ये बातें थोपी जाती हैं कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसलिए जिस प्रकार सभी ने मुद्रा बनाई है उसी तरह आप भी बनाये और फोटो साझा कर इस आंदोलन का हिस्सा बने। जोया अख्तर ने भी इसके सर्मथन में अपनी आवाज उठाई और अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की। परिणाम रहा कि ’लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ ने अपने तीसरे दिन नही कुल 2.41 करोड़ की कमाई की।
‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ में भोपाल की पृष्ठभूमि है। फिल्म वॉइस ओवर से शुरू होती है कि कैसे महिलाओं की जिंदगी में उदासी आ जाती है और फिर युवावस्था पीड़ा देने लगती हैं। इसके बाद शुरू होती है चार स्त्रियों की अलग-अलग कहानियां। चारों स्त्रियां सभी बंदिशों को तोड़कर यौनिक दमित समाज से बाहर निकलना चाहती है और वो जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहती हैं जिसके बारे में उनका मानना है कि मनुष्य होने के नाते उनका अधिकार भी है।
एक स्त्री रेहाना ( पल्बिता बोरठाकुर ) है जो एक टीनएज है और जिसेघर में भी बुर्का में रहना पड़ता है। माइली सायरस (प्रसिद्ध युवा गायिका) बनना चाहती है। उसे लेड जेप का ‘‘स्टेयर वे टू हेवन’’ गाना पसंद है। वह कॉलेज में जीन्स पर बैन के ख़िलाफ आवाज़ उठाती है और दुकान से सामान भी चुराती है। दूसरी स्त्री शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) की है जो एक बुर्का पहनने वाली हाउसवाइफ है। जिसका रुढ़िवादी पति उसे उपभोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता। वो अपनी खुशी के लिए घर-घर जाकर सेल्सगर्ल का काम करती है। तीसरी स्त्री लीला (आहना कुमारा) है जो एक पार्लर चलाती है। उसकी साच और अधिक खुलेपन की है। वह अपनी सुहागरात के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करना चाहती है और इसे लेकर कई सपने सजाती रहती है। चौथी स्त्री बुआ जी उर्फ उषा परमार (रत्ना पाठक शाह) है। वह 55 साल की महिला है जिसका यौन अस्तित्व समाज में स्वीकार्य नहीं है। वो तैराकी के लिए जाती है और नाम बदल कर फोन पर यौनिक बातें करती है। असल में ये चारों महिलाएं एक मिट्टी के घर में रहती है जो बुआ जी का है और बाकी तीनों इसमें किराएदार हैं।
इस कहानी के कई पक्ष ऐसे भी है जिनसे सभी लोग सहमत नहीं हो सकते हैं। जैसे हर स्त्री इस तरह यौनिक दबाव में नहीं रहती है कि अपनी भावनाओं को शांत करने के लिए नाम बदल कर फोन पर यौनिक बातें करने लगे। या फिर स्त्री की सारी स्वतंत्रता उसकी यौनिकता से हो कर ही गुज़रती है। सन् 1996 में दीपा मेहता ने फिल्म ‘फायर’ बनाई। इस फिल्म के कथानक एवं दृष्यांकन को ले कर जमकर विवाद हुआ। भारतीय सिने परिवेष के लिए ‘फायर’ का विषय अत्यंत नया और चौंकाने वाला था। इस फिल्म में बॉलीवुड की दो दमदार अभिनेत्रियों शबाना आजमी और नंदिता दास के माध्यम से दो महिलाओं के बीच के दैहिक संबंधों की कहानी प्रदर्षित की गई है।
नया विषय और वह भी स्त्री-जीवन से जुड़ा हो तो सभी को चौंकाता है। लोग रूचि भी लेते हैं और नाक-भौंह भी सिकोड़ते हैं। ‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ को भी इन सबसे गुज़रना पड़ा है। फिर भी जहां तक अभिनय की बात की जाए तो कोंकणा सेन शर्मा ने शिरीन के के पात्र को जिस तरह अभिनीत किया है, अद्भुत है। रत्ना पाठक शाह का अभिनय भी फिल्म में पर्याप्त प्रभावित करता है। आहना कुमारा का दमदार किरदार और पल्बिता बोरठाकुर का विद्रोही अंदाज भी प्रभाव डालता है। सुशांत सिंह, वैभव तत्ववादी भी अपना असर छोड़ते हैं। कुल मिला कर फिल्म बहुत कुछ सिखा जाती है-यौनिक दमन, यौनिक दमन के दुष्परिणाम और फिल्म का नया अर्थशास्त्र।
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जब प्रश्न भारतीय सिनेमा का उठता है तो आमतौर पर महिलाओं की विस्तृत भूमिका अभिनय और संगीत तक सिमटी दिखाई देती है। नायिका, खलनायिका, चरित्र अभिनेत्री अथवा पार्श्व गायिका पर जा कर स्त्री का अस्तित्व सिमटता दिखता है। भारतीय सिने जगत में महिला गीतकारों को भी उंगलियों पर गिना जा सकता है और निर्देशकों को भी। यद्यपि भारतीय सिनेमा में महिला निर्देशकों की शुरूआत बहुत पहले हो गई थी जब अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री फातिमा बेगम ने सन् 1926 में मूक फिल्म ‘बुलबुल ए परिस्तान’ का निर्देशन किया था। इसके लगभग 10 साल बाद सन् 1936 में अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई ने फिल्म ‘मैडम फैशन’ का निर्देशन किया था। यह फिल्म हिट रही और इसके बाद उन्होंने ‘मोती का हार’ और ‘जीवन स्वप्न’ नामक फिल्मों का भी निर्देशन किया। इसके बाद शोभना समर्थ ने भी अभिनय के साथ ही फिल्म का निर्देशन का काम किया । फिर भी महिला फिल्म निर्देशक स्थायी रूप से अपनी उपस्थिति नहीं बनाए रख सकीं। कई अभिनेत्रियां ऐसी आई जिन्होंने अभिनय के साथ-साथ निर्देशन में भी हाथ आजमाया। इनमें थीं- शोभना समर्थ, साधना, तबस्सुम, हेमामालिनी, नीलिमा अजीम, सोनी राजदान, नंदिता दास और पूजा भट्ट। इन सभी अभिनेत्रियों ने निर्देशन के लिए या तो अभिनय क्षेत्र को त्याग दिया या फिर दोनों ही काम को बराबर करती रहीं। भारतीय सिनेमा में सिर्फ 9.1 फीसदी महिला निर्देशक हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय मानक से थोड़ा ही ज्यादा है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म उद्योग में फिल्में लिखने वाली महिलाएं ज्यादा हैं। भारत में यह हिस्सेदारी सिर्फ 12.1 फीसदी है। कैमरे के पीछे प्रति 6.2 पुरुषों की तुलना में एक महिला काम कर रही है।
सन् 2017 के मध्य में आई अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ ने इस बात को साबित कर दिया है कि आज की महिला फिल्म निर्देशक घाटे के जोखिम से निपटना बखूबी जानती है। स्त्री यौनिकता का संवेदनशील विषय को सामने रख कर वह स्त्री की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करती है और साथ ही अपने आर्थिक घाटे की संभावना को भी चतुराई से बचा ले जाती है। आज की महिला फिल्म निर्देशक व्यावसायिक क्षेत्र बारीकी से नज़र रखे हुए हैं। यह जरूरी भी है। क्यों कि जब आपकी बात अधिक से अधिक लोगों के पास पहुंचेगी तभी तो उस पर विचार-विमर्श होगा अन्यथा स्टूडियो की चौखट पर ही फिल्म भी दम तोड़ देगी। ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ की पूरी टीम इस बात को भली-भांति जानती और समझती है।
‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ में पुरूष पितृसत्ता की वजह से इसके पीछे क्या चीजें होती है वो दिखाने की कोशिश की गई है। जहां एक लड़की लोगों के सामने डांस नहीं कर सकती क्योंकि ’लोग क्या सोचेंगे’. जहां एक अधेड़ उम्र की महिला अपने यौनिक रूचि-अरूचि के बारे में बात नहीं कर सकती। जहां एक पुरूष कभी भी सेक्स के लिए अपनी अपनी पत्नी की अनुमति या उसकी पसंद नापसंद के बारे में नहीं सोचता है। ‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ उन महिलाओं की आवाज है जो शायद ही कभी सुनी जाती है। दरअसल फिल्म में लिपस्टिक एक प्रतीक है स्त्री के अधिकारों का। लिपस्टिक चेहरे को सुंदर दिखाने के लिए लगाई जाती है लेकिन यदि चेहरा दिखाने की ही आजादी न हो तो? क्या स्त्री पुरुषों की भांति मनुष्य नहीं है जो उसके चेहरा दिखाने पर पाबंदी लगा दी जाती है। ऐसी पाबंदियां पहले घुटन, फिर क्रोध और फिर विद्रोह को जन्म देती हैं। यही इस फिल्म का मुख्य कथानक है।
‘’लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ के संदर्भ में एक और बात जिसने एक अलग ही बहस का इतिहास रच दिया। सेंसर बोर्ड द्वारा फिलम पर बैन लगा और फिर हटा लेकिन इन सबके विरोध में फिल्म की टीम ने साशल मीडिया पर एक फोटो-आंदोलन चलाया। फिल्म की चारों लीड स्टार्स ने फिल्म के पोस्टर के ही पोज में मिडिल फिंगर को दिखाते हुए तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड की। उन्होंने अपने फैन्स से आग्रह किया कि वो भी इसी पोज में अपनी तस्वीरें खींच कर भेजें। इसकी शुरूआत कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, अहाना कुमरा और प्लबिता बोरठाकुर ने शुरू की है। इन सभी ने इसी मुद्रा में फोटो खिंचाई है। इसे ’लिपस्टिक रिबेलियन’ का नाम दिया गया है। चारो अभिनेत्रियों ने कहा कि एक महिला होने के नाते हम पर हमेशा ये बातें थोपी जाती हैं कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसलिए जिस प्रकार सभी ने मुद्रा बनाई है उसी तरह आप भी बनाये और फोटो साझा कर इस आंदोलन का हिस्सा बने। जोया अख्तर ने भी इसके सर्मथन में अपनी आवाज उठाई और अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की। परिणाम रहा कि ’लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ ने अपने तीसरे दिन नही कुल 2.41 करोड़ की कमाई की।
‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ में भोपाल की पृष्ठभूमि है। फिल्म वॉइस ओवर से शुरू होती है कि कैसे महिलाओं की जिंदगी में उदासी आ जाती है और फिर युवावस्था पीड़ा देने लगती हैं। इसके बाद शुरू होती है चार स्त्रियों की अलग-अलग कहानियां। चारों स्त्रियां सभी बंदिशों को तोड़कर यौनिक दमित समाज से बाहर निकलना चाहती है और वो जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहती हैं जिसके बारे में उनका मानना है कि मनुष्य होने के नाते उनका अधिकार भी है।
एक स्त्री रेहाना ( पल्बिता बोरठाकुर ) है जो एक टीनएज है और जिसेघर में भी बुर्का में रहना पड़ता है। माइली सायरस (प्रसिद्ध युवा गायिका) बनना चाहती है। उसे लेड जेप का ‘‘स्टेयर वे टू हेवन’’ गाना पसंद है। वह कॉलेज में जीन्स पर बैन के ख़िलाफ आवाज़ उठाती है और दुकान से सामान भी चुराती है। दूसरी स्त्री शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) की है जो एक बुर्का पहनने वाली हाउसवाइफ है। जिसका रुढ़िवादी पति उसे उपभोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता। वो अपनी खुशी के लिए घर-घर जाकर सेल्सगर्ल का काम करती है। तीसरी स्त्री लीला (आहना कुमारा) है जो एक पार्लर चलाती है। उसकी साच और अधिक खुलेपन की है। वह अपनी सुहागरात के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करना चाहती है और इसे लेकर कई सपने सजाती रहती है। चौथी स्त्री बुआ जी उर्फ उषा परमार (रत्ना पाठक शाह) है। वह 55 साल की महिला है जिसका यौन अस्तित्व समाज में स्वीकार्य नहीं है। वो तैराकी के लिए जाती है और नाम बदल कर फोन पर यौनिक बातें करती है। असल में ये चारों महिलाएं एक मिट्टी के घर में रहती है जो बुआ जी का है और बाकी तीनों इसमें किराएदार हैं।
इस कहानी के कई पक्ष ऐसे भी है जिनसे सभी लोग सहमत नहीं हो सकते हैं। जैसे हर स्त्री इस तरह यौनिक दबाव में नहीं रहती है कि अपनी भावनाओं को शांत करने के लिए नाम बदल कर फोन पर यौनिक बातें करने लगे। या फिर स्त्री की सारी स्वतंत्रता उसकी यौनिकता से हो कर ही गुज़रती है। सन् 1996 में दीपा मेहता ने फिल्म ‘फायर’ बनाई। इस फिल्म के कथानक एवं दृष्यांकन को ले कर जमकर विवाद हुआ। भारतीय सिने परिवेष के लिए ‘फायर’ का विषय अत्यंत नया और चौंकाने वाला था। इस फिल्म में बॉलीवुड की दो दमदार अभिनेत्रियों शबाना आजमी और नंदिता दास के माध्यम से दो महिलाओं के बीच के दैहिक संबंधों की कहानी प्रदर्षित की गई है।
नया विषय और वह भी स्त्री-जीवन से जुड़ा हो तो सभी को चौंकाता है। लोग रूचि भी लेते हैं और नाक-भौंह भी सिकोड़ते हैं। ‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ को भी इन सबसे गुज़रना पड़ा है। फिर भी जहां तक अभिनय की बात की जाए तो कोंकणा सेन शर्मा ने शिरीन के के पात्र को जिस तरह अभिनीत किया है, अद्भुत है। रत्ना पाठक शाह का अभिनय भी फिल्म में पर्याप्त प्रभावित करता है। आहना कुमारा का दमदार किरदार और पल्बिता बोरठाकुर का विद्रोही अंदाज भी प्रभाव डालता है। सुशांत सिंह, वैभव तत्ववादी भी अपना असर छोड़ते हैं। कुल मिला कर फिल्म बहुत कुछ सिखा जाती है-यौनिक दमन, यौनिक दमन के दुष्परिणाम और फिल्म का नया अर्थशास्त्र।
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