Dr (Miss) Sharad Singh |
कोमल कंधों पर भारी बोझ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
एक बच्चा सुबह उठता है। जल्दी-जल्दी तैयार होता है कि कहीं स्कूलबस न छूट जाए। जैसे-तैसे मुंह में नाश्ता भरता है और नश्ता गले से पेट तक पहुंचने से पहले 8-10 किलो का बस्ता उठा कर दौड़ पड़ता है घर से स्कूलबस-स्टॉप की ओर। घर से बस तक की यह दूरी पचास मीटर से कहीं कम तो ज्यादा भी होती है। स्कूलबस आने तक बस्ता बच्चे के कोमल कंधों पर लदा रहता है। कंधे थक जाते हैं तो पीठ पर वज़न अधिक महसूस होता है जिसे साधने के लिए कमर अपने-आप झुकने लगती है। जबकि स्वास्थ्य के नियम कहते हैं कि शरीर हमेशा सही पाश्चर में होना चाहिए। चिकित्सक तो यहां तक कहते हैं कि कक्षा 1 से 2 के बच्चों को मात्र 1 किलो तक तो कक्षा 8 से ऊपर कक्षा में पढ़नेवाले बच्चों को 5 किलो वजन तक का ही बस्ता होना चाहिए। भारी बैग के चलते बच्चों की रीढ़ की हड्डी को नुकसान, फेफड़ों की समस्या होने की संभावनाएं होती है। और सांस लेने में दिक्कत जैसे कई समस्याओँ उठानी पड़ सकती है।
Navbharat - Komal Kandhon pr Bhari Bojha - Dr Sharad Singh, 29.03.2019 |
बच्चों के बस्ते के बढ़ते वज़न को नियंत्रित करने के लिए आज से लगभग 27 साल पहले वर्ष 1992 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने बच्चों के बस्ते के बढ़ते बोझ और उनके कमजोर कंधों का गंभीरता से अध्ययन किया। इसके बाद यशपाल कमेटी ने जुलाई 1993 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में होमवर्क से लेकर स्कूल बैग तक के लिए कई सुधार सुझाए गए थे। जिनका भरपूर स्वागत भी हुआ लेकिन अफ़सोस कि सुधार ईमानदारी से अमल में नहीं लाया गया। उस समय यह राय भी दी गई थी कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृहकार्य इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठय़ पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठय़ पुस्तक के सवाल-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेष रूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है।
यशपाल कमेटी के लगभग 14 साल बाद वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने क़ानून बनाकर बच्चों के स्कूल का वज़न तय किया, लेकिन यह क़ानून भी लागू नहीं हो सका। जबकि अस्थिरोग विशेषज्ञों ने भी इसके पक्ष में अपनी राय देते हुए बस्ते के भारी बोझ के खतरों से आगाह करते हुए कहा चेताया था कि-‘‘भारी बस्ते ढोने से बच्चे की रीढ़ की हड्डी पर तो असर होता है ही, उनका पोश्चर भी ग़लत हो जाता है।’’ बच्चों की हड्डी मुलायम होती है। ऐसे में ज़्यादा वज़न से उन्हें गर्दन, कंधे और कमर दर्द की शिकायत हो जाती है। कई बार हड्डी चोटिल भी हो सकती है। भारी बैग उठाकर चलने से बच्चे आगे की ओर झुक जाते हैं जिससे बॉडी पॉश्चर पर असर पड़ता है। क्षमता से अधिक वज़न उठाने से बच्चों में कमज़ोरी और थकान रहने लगती है।’’
इसके बाद स्कूली बच्चों की पीठ से बस्ते का बोझ कम करने के लिए केंद्र सरकार ने निर्देश जारी किया। इसमें साफ तौर पर कहा गया कि किस कक्षा के बच्चों के बैग का वजन कितना होना चाहिए। इसी आधार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने इस संबंध में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किए। इसमें राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से कहा गया कि वे स्कूलों में विभिन्न विषयों की पढ़ाई और स्कूल बैग के वजन को लेकर भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार नियम बनाएं। इसमें कहा गया कि पहली से दूसरी कक्षा के छात्रों के बैग का वजन डेढ़ किग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी तरह तीसरी से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बैग का वजन 2-3 किग्रा, छठी से 7वीं के बच्चों के बैग का वजन 4 किग्रा, 8वीं तथा 9वीं के छात्रों के बस्ते का वजन साढ़े चार किग्रा और 10वीं के छात्र के बस्ते का वजन 5 किलोग्राम होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। मगर सवाल वहीं है कि यह वज़न भी शारीरिक रूप से मजबूत बच्चे के लिए सही हो सकता है, कमजोर बच्चे के लिए नहीं। एक सर्वे के अनुसार, दिमाग़ से तेज लेकिन शरीर से कमजोर बच्चे सिर्फ़ बस्ते के बोझ के दबाव से पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं। ध्यान देने की बात है कि बच्चे के वजन के दस प्रतिशत का निर्धारण हर बच्चे के लिए अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर एक औसत मानक हर बच्चे के लिए उपयुक्त भी नहीं हो सकता है।
इस समस्या का एक पक्ष और भी है। मंहगें प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को डिज़िटल पुस्तकें और स्कूल में लॉकर्स भी उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे वे बोझमुक्त रह सकें। लेकिन सामान्य स्कूलों में यह सुविधा बच्चों को नहीं मिल पाती है। ग्रामीण बच्चे जो बिजली की लुकाछिपी से जूझते रहते हैं वे डिज़िटल किताबों की सुविधा का लाभ ठीक से उठा भी नहीं सकते हैं। जिन बच्चों को स्कूलबस नसीब हो जाती है वे तो फिर भी खुशनसीब हैं लेकिन जिन बच्चों को पीठ पर बस्ते का भारी बोझ लाद कर चार-पांच कि.मी. या उससे भी अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है या फिर रस्सी बांध कर बनाए गए पुलों से हो कर गुज़रना पड़ता है, उन पर उनके वज़न के दस प्रतिशत बोझ को लागू करना भला कैसे न्यायसंगत हो सकता है? वस्तुतः हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता का अभाव है और अभाव है बच्चों की सेहत की सुरक्षा का। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के बावजूद आज भी करोड़ों बच्चे बस्ते का भारी बोझ उठाने को विवश है। आज भी देश में अनेक स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चों के कंधों पर बस्ते का भारी बोझ तो है मगर बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। शिक्षा नीति और शिक्षा योजनाओं के व्यवहारिक निर्माण और उसके अनुपालन की अभी भी कमी है। जबकि देश के हर बच्चे तक डिज़िटल पढ़ाई की सुविधा पहुंचा कर इस समस्या का हल निकल सकता है।
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( नवभारत, 29.03.2019 )