दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
शारीरिक कष्टों से मुक्ति का अनूठा काव्य है तुलसीदास का “हनुमान बाहुक”
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
गोस्वामी तुलसीदास श्री राम के अनन्य उपासक थे किंतु जब उन्हें भय, संकट या पीड़ा से मुक्ति चाहिए होती थी, तो वे श्रीराम के सेवक हनुमान जी का स्मरण करते थे। इसी मनोभाव से उन्होंने “हनुमान चालीसा” का सृजन किया। उसमें उन्होंने लिखा- “भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे / नासे रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बल बीरा” । फिर भी उन्हें शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए हनुमान जी से विशेष प्रार्थना करनी पड़ी जो “हनुमान बाहुक” के रूप में सामने आई। यह असीमित विश्वास से भरी हुई रचना है जिसमें एक उलाहना भी शामिल है जो कि बहुत रोचक है।
उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर नाम के गांव में पिता आत्मा राम दुबे और माता हुलसी के घर तुलसीदास का जन्म सम्वत 1557 में श्रावण मास में शुक्ल सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। यह नक्षत्र शुभ नहीं माना जाता है। इस शंका को बढ़ाने के लिए जो घटनाएं हुईं, उनमें कुछ हैं, जैसे तुलसीदास जी जन्मते ही रोये ही नहीं अपितु उनके मुँह से राम शब्द निकला। उनके शरीर का आकार भी सामान्य शिशु की तुलना में अधिक था और सबसे बढ़कर उनके मुख में जन्म के समय ही दाँतों की उपस्थिति थी। यह सब लक्षण देखकर उनके पिता किसी अमंगल की आशंका से भयभीत थे। उनकी माता ने घबराकर कि बालक के जीवन पर कोई संकट न आए, अपनी एक चुनियां नाम की दासी को बालक के साथ उसके ससुराल भेज दिया। विधि का विधान ही कुछ और था और वे अगले दिवस ही गोलोक वासी हो गई। चुनियां ने बालक तुलसीदास का पालन पोषण बड़े प्रेम से किया पर जब तुलसीदास जी करीब साढ़े पाँच वर्ष के हुए तो चुनियां शरीर छोड़ गई। । अनाथ बालक द्वार – द्वार भटकने लगा। इस पर माता पार्वती को दया आई और वे एक ब्राह्मणी का वेश रखकर प्रतिदिन बालक को भोजन कराने लगीं।
श्री अनन्तानन्दजी के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्दजी जो रामशैल पर निवास कर रहे थे, उन्हें भगवान शंकर से प्रेरणा प्राप्त हुई और वे बालक तुलसीदास को ढूढ़ते हुए वहां पहुंचे और मिलकर उनका नाम रामबोला रखा। वे बालक को अपने साथ अयोध्या ले गए और वहाँ उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। तुलसीदास जी ने जहाँ बिना सिखाए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सभी को एक बार फिर चकित कर दिया। नरहरि महाराज ने वैष्णवों के पांच संस्कार कराए और राम मंत्र से दीक्षित किया।
इसके बाद उनका विद्याध्ययन प्रारम्भ हो गया। तुलसीदास जी एकपाठी थे। अर्थात वे जो भी एक बार सुन लेते थे उसे वे कंठस्थ कर लेते थे। उनकी प्रखर बुद्धि की सभी प्रशंसा करते थे। फिर नरहरि महाराज उन्हें काशी में शेषसनातन जी के पास वेदाध्ययन के लिए छोड़ गए। यहाँ तुलसीदास जी ने 15 वर्ष वेद-वेदांग का अध्ययन किया।
गोस्वामी तुलसीदास का निधन 1623 ईस्वी में वाराणसी (काशी) में हुआ था. उनकी मृत्यु अस्सी घाट पर हुई थी, जो गंगा नदी के किनारे स्थित है. यह घटना श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की तीज को हुई थी, जो विक्रम संवत 1680 के अनुसार थी. उनकी मृत्यु के संबंध में एक दोहा भी प्रचलित है: "संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर, श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर".
अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों का सृजन किया। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ग्रंथ इसप्रकार हैं - रामचरितमानस, रामललानहछूं, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण-गीतावली, विनयपत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकट मोचन, करखा रामायण, रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण एवं कलिधर्माधर्म निरुपण।
कवितावली के साथ उन्होंने ‘हनुमान बाहुक’ भी लिखा। कहा जाता है कि तुलसीदास जी को जीवन के उत्तरार्ध में बाँहों में असहनीय पीड़ा होने लगी थी। साथ ही फोड़े-फुंसी जैसे शारीरिक कष्टों ने भी ने उन्हें घेर लिया था। उन्होंने हर तरह की चिकित्सा करके देखी किंतु किसी से भी उन्हें आराम नहीं मिल रहा था। लोगों के कहने पर झाड़-फूंक भी कराया, फिर भी आराम नहीं मिला। जबकि उन्होंने स्वयं लोगों को निरोग रहने के लिए तथा पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए ‘श्रीहनुमान चालीसा’ में यह मंत्र दिया था- ‘नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा’। अतः शारीरिक कष्ट से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने श्रीहनुमान जी की स्तुति एवं प्रार्थना आरंभ कर दी। संयोगवश इससे उन्हें आराम मिला। तब उन्होंने रोग मुक्ति के लिए चवालीस पद वाली हनुमान जी की प्रार्थना ‘हनुमान बाहुक’ लिखी।
‘हनुमान बाहुक’ में छप्पय, झूलना, घनाक्षरी, सवैया आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। मान्यता है कि इस स्तुति का सस्वर पाठ रोग पीड़ित को पीड़ा से मुक्ति दिलाता है। ‘हनुमान बाहुक’ अवधी में लिखा गया है। इसमें कुल 44 पद हैं।
"हनुमान बाहुक" छप्पय छंद से आरंभ होता है। इसके कुछ पद भावार्थ सहित इस प्रकार हैं -
सिंधु-तरन, सिय सोच हरन, रबि-बालबरन-तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥
कह तुलसीदास सेवत सुलभ, सेवक हित संतत निकट।
गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-बिकट॥1॥
- भावार्थ है कि जिनके शरीर का रंग उदयकाल के सूर्य के समान है, जो समुद्र लाँघकर श्री जानकीजी के शोक को हरने वाले, आजानुबाहु, डरावनी सूरतवाले और मानो काल के भी काल हैं। लंका-रूपी गंम्भीर वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, उसे जिन्होंने निःशंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहोंवाले तथा बलवान राक्षसों के मान और गर्व का नाश करने वाले हैं, तुलसीदासजी कहते हैं - वे श्रीपवनकुमार सेवा करने पर बड़ी सुगमता से प्राप्त होने वाले, अपने सेवकों की भलाई करने के लिए सदा समीप रहने वाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपने से सब भयानक संकटों को नाश करने वाले हैं।
इस प्रकार बाहुक प्रार्थना आरंभ करते हुए तुलसीदास ने तीसरा पद झुलना छंद में लिखा। इसमें उन्होंने श्री हनुमान जी की शक्ति का उन्हें स्मरण कराया है-
पंचमुख-छमुख-भृगुमुख्य भट-असुर-सुर,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरूदैत बिरूदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है,
पवनको पूत रजपुत रूरो॥3॥
अर्थात शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द सबके युद्धरूपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी आपकी प्रशंसा करते हैं। तुलसीदास जी हनुमान जी से कहते हैं कि आप पूरी प्रतिज्ञावाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान और यशस्वी हैं। जिनके गुणों की कथा को रघुनाथजी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत पवनपुत्र के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कोई नहीं है।
जिस प्रकार हनुमान चालीसा में तुलसीदास जी ने हनुमान जी को उलाहना दिया है कि-”कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसे नहीं जात है टारो”, ठीक इसी प्रकार “हनुमान बाहुक” के सत्रहवें पद में तुलसी बाबा पवनकुमार से उलाहना भरी विनती करते हुए कहते हैं-
तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके से जाले।
बुढ़ भये बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥17॥
- अर्थात हे वानरराज! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज! आप जिस पर प्रसन्न हुए वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत से गरीबों का पालन करते-करते आप अब थक गये हैं ? (इसीलिए मेरा कष्ट दूर नहीं कर पा रहे हैं)।
बीसवें पद में फिर श्री हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए तुलसीदास उन्हें आत्मीय उलाहना देते हुए स्मरण कराते हैं कि जो आपको दोना भर-भर के लड्डू खिलाता हो उसे विष खिलाकर मत मारिए। वे घनाक्षरी छंद में कहते हैं-
जानत जहान हनुमानकौ निवाज्यौ जन,
मन अनुमानि, बलि, बोल न बिसारियै।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो, ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीरके दुलारे रघुबीरजूके,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥20॥
- अर्थात हे हनुमानजी! अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाईये, जिसको संसार जानता है, मनमें विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवाके योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबीको सम्हालिये। मुझे अपराधि समझते हो तो सहस्त्रों भांतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लडडू दोनेसे मरता हो तो उसको विषसे न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवनके दुलारे, रघुनाथ जी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ाको शीघ्र ही दूर कीजिये।
“हनुमान बाहुक” के अंतिम पद में तुलसीदास दार्शनिक भाव से प्रार्थना करते हुए अपनी पीड़ा के कारणो़ं पर भी विचार करते हैं-
कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों,
कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई,
बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥
माया जीव कालके करमके सुभायके,
करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सौ बुझैये मोहि,
हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये॥44॥
- अर्थात तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं हनुमानजीसे, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वे कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता ? फिर मैं भी यह जान कर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ।
यद्यपि “हनुमान चालीसा” अधिक पढ़ी जाती है किंतु “हनुमान बाहुक” का महत्व भी कम नहीं है। इस रचना को भी श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाता है क्योंकि यह मूल रूप से व्याधियों और शारीरिक पीड़ा पर केंद्रित है। अतः इसका महत्व हनुमान चालीसा से इतर है।
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