Thursday, March 31, 2022

बतकाव बिन्ना की | सल्ल ने होए सो गल्ल काए की? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | सा. प्रवीण प्रभात


प्रिय मित्रो, "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत प्रकाशित मेरा लेख प्रस्तुत है- "सल्ल ने होए सो गल्ल काए की?" साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) के मेरे बुंदेली कॉलम में।
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बतकाव बिन्ना की
सल्ल ने होए सो गल्ल काए की?
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
                                  
‘‘का सोच रए भैयाजी?’’ भैयाजी सोचत भए दिखाने औ मोए उने पिंची करबे की सूझी, ‘‘आप खों देख के मनो ऐसो लग रओ के आप अभई अभई पचमढ़ी के चिंतन शिविर से चले आ रए हो।’’
‘‘हमें को पूछ रओ उते।’ भैयाजी मों सो बनात भए बोले।
‘‘नई, मैंने तो ऊंसईं पूछ लई, काए से के आज-कल्ल सो हैशटैग में जो कछु ट्रेंड करत आए वोई सबई जांगा चलत आए। मैंने सोची के आप सोई चिंतन शिविर के ट्रेंड पे चल रए हो।’’ मैंने भैया जी से कही।
‘‘जे ट्रेंड-मेंड हमें नईं पोसात। हम तो इत्तई जानत आएं के सल्ल नईं सो गल्ल नईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ईको का मतलब? मोए कछु समझ में ने आई।’’ मोए वाकई कछु समझ में ने आई के भैयाजी कहो का चात आएं।
‘‘हम जे सोच रए बिन्ना के जिनगी में जो सल्ल ने होए तो जिनगी तो झंड कहानी।’’ भैयाजी जे बोलत भए मोए बो दासर्निक अरस्तू के फादर घांई दिखाने। मोरो सर चकरा गओ। जे भैयाजी खों का हो गओ जो ऐसी बात कै रए।
‘‘आपकी तबीयत तो सही आए भैयाजी? कहूं डाक्दर खों दिखाबे के लाने सो नईं चलने?’’ मैंने पूछीं
‘‘नईं, कहूं नई जाने। मोरी तबीयत को कछु नईं भओ। बाकी जे ई सोच बेर-बेर आ रई के हमाए बुंदेलखंड को सल्ल से कभऊं पीछो नईं छूट सकत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कौन सी सल्ल?’’
‘‘एक होए सो कही जाए, इते तो सल्लई सल्ल आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘एकाध सो बताओ।’’ मैंने सोई जिद पकर लई।
‘‘अब का कहों बिन्ना, इब्राहिम लोदी हतो सो इते लो धड़धड़ात लो चलो आओ हतो। अकबर हतो तो ऊकी नज़र वा ओरछा वारी नचनारी प्रवीन पे ठैर गई रई। वा तो प्रवीन ने हिम्मत करके ऊको बारी, बायस, श्वान सबई कछु कै दओ रओ, सोे अकबर ने वापस आन दओ। ने तो हमाई प्रवीन खों उतई रैने परतो ओ हमाओ ओरछा सूनो हो जातो। फेर वा  जहांगीर रओ। सो ऊके लाने ओरछा वारन खों पथरा को बड़ो सो प्यालों बनवाने परो। फेर जे ससुरे अंग्रेज हते सो उनकी तो ने कहो। बे तो लुगाईयन से उनको राज छीनबे की जुगत करत भए झांसी पे दांत गड़ात फिरे। बरिया बर के अंग्रेजन से पीछो छूटो सो डाकू हरें दोंदरा देन लगे। मनो का जिनगी पाई अपने जे बुंदेलखंड ने। एक से पीछो छूटो नईं के दूसरो मूंड पे ठाड़ो।’’ भैयाजी सांस लेबे के लाने ठैरे।
‘‘ऐसी सल्ल सो सबई खों भोगने परी आए। औ रही डाकुअन की सो सरकार ने उने मना-मुनू के सरेंडर करा दओ रओ। सो पुरानी बातन पे ज्यादा सोच-फिकर ने करो। ठाले-बैठे ब्लडप्रेशर बढ़ जेहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘सो का? डाकू बढ़ा गए तो मैंगाई आ गई। पैंले बित्ता भर रई, अब बढ़त-बढ़त सोला हाथ की धुतियन से बी आगूं पोंच गई। तुमे पतो बिन्ना के कोनऊ सब्जी बीस रुपया पऊवा से नीचे नईयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो मैंगाई सो सबलों के लाने बढ़ी आए, हमाए-तुमाए भर के लाने नईं।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ, कोनऊ सल्ल होए अपने बुंदेलखंड में तुरतई आ जात आए, पर परमेसरी कछु साजी बात होए तो ऊको इते आत भए मुतके बरस लग जात आएं।’’ भैयाजी मों लटकात भए बोले।
‘‘मानें?’’
‘‘मानें जे के अखियां होंए सो कजरा नईंयां, कजरा हैं सो अंखियां नइयां। तुमई सोचो बिन्ना के हमाए इते खजुराहा में हवाईअड्डो है। है के नईं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हओ है।’’
‘‘अपने बुंदेलखंड में बरक-बरक के रेल लाईन मुतकी जांगा आ गई है। बोलो आ गई के ने आ गई?’’
‘‘हौ आ गई।’’
‘‘जेई तो सल्ल आए के जहां एक ठईयां हवाई अड्डा है उते कोनऊं बड़ों उद्योग नईयां, औ जिते रेल आए उते न बड़ी मंडी आए ने डंडी आए। रई खेती-किसानी, सो हमेसई दो असाढ़ दूबरे रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात सो संाची कै रए भैयाजी, मनो खजुराहा में पर्यटन को उद्योग सो कहानो।’’ मैंने भैयाजी खों सुरता कराई।
‘‘हऔ, मनो जे बताओ के उत्ते भर से पूरों बुंदेलखंड को का भलो हो रओ? कछु और उद्योग लगो चाइए के नईं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी। बात में दम हती।
‘‘हऔ भैयाजी, कै तो तुम ठीक रए। मनो हमाए नेता हरें कछु करें सो होय।’’ मैंने कही।
‘‘अब जो हम ने मांगबी, सो बे काए देहें?’’ भैयाजी कुढ़त भए बोले।
‘‘अपन ओरें तो कैत ई रैत आएं।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ सो, तुमाए हमाए कहे भर से का होने? कछु जनता हरें सो बोलें। उनखों सो फुरसत नईयां व्हासअप्प खेलत से। सुबै भई से गुड़मार्निंग पैल दई, दुफेर भई सो गुड़नून डार दओ, संझा की बिरियां गुड़ईवनिंग औ रात भई से गुड़नाईट, सारी जिनगी हो गई टाईट। सब रे अंग्रेजी चलात आएं औ कैत फिरत हैं के बुंदेली लाओ चाइए। ठेंगा से आहे बुंदेली। हिन्दी सो टिकुलिया घांई बिंदी बन के रै गई, ऊपे बुंदेली कहां से आई जा रई?’’ भैयाजी बमकत भए बोले।
‘‘भौयाजी, आज आपको मूड सही नई कहानों। इतिहास से बुंदेली लों आ गए। सबई सल्ल की घोंटा लगा के लप्सी बना दई। मोए सो कछु समझ में ने आ रई के आज आप कहो का चा रए हो?’’ मैंने भैयाजी से साफ-साफ पूछी।
‘‘हम जा सोच रए बिन्ना! के हमाई जिनगी में जो जे सबईं सल्ल ने होती तो हम का करते? काए के बारे में सोचते? हमाई जिनगी सो भौतई बोर भई जाती। सल्ल आए सो गल्ल आए। रामधई, हमाए इते के नेता सही मायने के नेता आएं। आगूं बढ़ो नई चात औ पीछूं हटो नईं चात। सबई खों अधर में लटकाए फिरत आएं। उते सागर में देख लेओ, दो साल होने खों आ रए मनो तला खों पतोई नईयां। इत्तो बड़ो नोनो सो तला उल्टो खटोला घांई परो है। कबे ऊकी मिट्टी फिकहे, कबे ऊमें फेर के पानी भरहे, कछु पतो नई पड रओ। रई सड़कन की, सो टाटा ने भांटा बना दओ औ खुदी परी सड़कें भर्त घांई दिखा रईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो काम चल तो रओ। बड़ो काम आए सो टेम तो लगहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ चाओ।
‘‘काम चलत को मतलब जे नईं आए के चलत जाए- चलत जाए। ऐसो थोड़ी होत आए। जल्दी-जल्दी करो चाइए। हम होते सो टाटा खों टाटा-बाय-बाय कर देते औ दूसरी कंपनी खों ठेका दे देते।’’
‘‘जै ई लाने तो आप नई हो।’’ मैंने हंस के कही, ‘‘आप सो सल्ल की गल्ल करो औ मोए देओ चलबे की परमीसन।’’
अब लों मोए समझ में आ गई हती के भैयाजी सोच-सोच के अपनो टेम पास कर रए। बाकी उने कछु से ने लेबे की ने देबे की। भैयाजी घांई सबई ओरें सल्ल नई मिटन देन चात आएं नईं तो ठेन-ठेन के गल्ल काए की करहें? मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी सल्ल जाने, गल्ल जाने, ठलुआ हरें की ठल्ल जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(31.03.2022)
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Wednesday, March 30, 2022

चर्चा प्लस | जन्मतिथि विशेष : विश्वविख्यात चित्रकार वैन गॉग जिन्हें जीते जी पागल समझा गया | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

चर्चा प्लस |  जन्मतिथि विशेष :
विश्वविख्यात चित्रकार वैन गॉग जिन्हें जीते जी पागल समझा गया | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       कई बार चित्रकार के जीवन काल में उसके कला की अवहेलना कर दी जाती है किंतु उसके मरणोपरांत उसकी वही चित्रकारी उसे अमरता प्रदान कर देती है। यह एक विचित्र स्थिति है। यह स्थिति तब बनती है जब कला प्रेमियों द्वारा कला की अपेक्षा कलाकार के निजी जीवन या व्यक्तित्व अथवा उसकी अनचाही कमजोरियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ विश्व विख्यात चित्रकार वैन गॉग के साथ। आज उनकी जन्मतिथि पर चर्चा उनके बारे में।   
चित्रकार होना आसान नहीं है इसमें कल्पना कला क्षमता समय और धन - चारों खर्च होते हैं और तब कहीं एक कलाकृति कैनवास पर उभरती है उसे देखने वाले यदि समझें और सराहें तो वह सफल कृति मानी जाती है किंतु यदि उससे अनदेखा कर दिया जाए अथवा नकार दिया जाए तो चित्रकार के लिए यह सर्वाधिक कष्टप्रद और अवसाद भरा होता है। प्रत्येक चित्रकार अपनी कृति को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते समय यही आशा करता है कि जो उसने अपने चित्र में प्रस्तुत किया है, उसे दर्शक समझें और आत्मसात करें। जो पेंटिंग रूपी कलाकृति दर्शकों को पसंद आती है, रुचिकर लगती है, उसकी कीमत करोड़ों रुपयों तक हो सकती है अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता है। यह अर्थ तंत्र का प्रभाव है चित्रकला की सफलता या असफलता पर। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है किंतु यही कठोर सत्य है। कई बार चित्रकार के जीवन काल में उसके कला की अवहेलना कर दी जाती है किंतु उसके मरणोपरांत उसकी वही चित्रकारी उसे अमरता प्रदान कर देती है। यह एक विचित्र स्थिति है। यह स्थिति तब बनती है जब कला प्रेमियों द्वारा कला की अपेक्षा कलाकार के निजी जीवन या व्यक्तित्व अथवा उसकी अनचाही कमजोरियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ विश्व विख्यात चित्रकार वैन गॉग के साथ।
वैन गॉग का जन्म 30 मार्च 1853 को जुंडर्ट, नीदरलैंड्स में हुआ था।  डच मूल के उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे विन्सेंट विलेम वैन गॉग का बचपन एक शांत, गंभीर बच्चे के रूप में व्यतीत हुआ। युवा होने पर वे आर्ट डीलर का काम करने लगे। इस दौरान उन्हें  लंदन में जाकर रहना पड़ा। लंदन में वैन गॉग को अपनी मकान मालकिन की बेटी इयूजेनी लोयर से प्रेम हो गया। इस एकतरफा प्रेम का कब अंत हो गया  इयूजेनी द्वारा उनके प्यार को ठुकरा दिया गया। इससे वे हताश हो गए। उन्हें जीवन निस्सार लगने लगा। उनके मानसिक स्वास्थ्य में परिवर्तन आने लगा। वे अवसादग्रस्त रहने लगे। जिस पर लोगों ने विशेष ध्यान नहीं दिया और स्वयं उन्होंने भी अपनी चिंता नहीं की। कुछ समय बाद वे एक चर्च से जुड़ गए और उन्हें एक मिशनरी के रूप में पश्चिम बेल्जियम जाना पड़ा। बेल्जियम से लौटने के बाद उनका स्वास्थ्य फिर खराब हो गया। वे गहन अवसाद में चले गए। उनके छोटे भाई थियोडोरस वैन गॉग भी आर्ट डीलर थे। उन्होंने वैन गॉग की बहुत मदद की। थोड़ा स्वास्थ्य सम्हलने के बाद वैन गॉग चित्रकारी आरंभ की। यह लगभग वर्ष 1881 का समय था। थियोडोरस ने डीलरशिप के काम का जिम्मा अपने ऊपर लिया तथा अपने भाई वैन गॉग को पूरी तरह चित्रकला  में समर्पित हो जाने का अवसर दिया। थियोडोर को लगा कि इससे वैन गॉग अवसाद से बाहर आ सकेंगे।
सन् 1885 से 1890 तक वैन गॉग ने जो पेंटिंग्स बनाईं वे आज विश्व की महान पेंटिंग्स में गिनी जाती हैं। सन् 1885 में ‘द पोटैटो ईटर्स’ पेंटिंग बनाई। इसमें उन्होंने ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों को दिखाने के लिए मोटे खुरदरे हाथों वाले किसान परिवार को चित्रित किया जो मुख्य रूप से आलू खाकर रहते थे अर्थात जिन्हें अच्छा भोजन नहीं मिल पाता था। अपने चित्र के द्वारा वह तत्कालीन चित्रकला में गरीब तबके को प्रमुखता देना चाहते थे। इस चित्र में  गरीबों के जीवन की कठिनाइयों को दिखाने के लिए गहरे रंगों का प्रयोग किया। एक ऐसा अंधेरी घुटन भरा वातावरण जिसे जीना गरीबों की विवशता थी।
सन् 1887 में ‘सनफ्लॉवर्स’ पेंटिंग बनाई। यह एक चित्ताकर्षक पेंटिंग है।  वान गॉग ने पीले रंग के केवल तीन शेड्स  का उपयोग करके रंगों का एक शानदार सामंजस्य प्रस्तुत किया।  इसका सरल रूपांकन आज भी लोगों को आकर्षित करता है। ‘सनफ्लॉवर्स’ पेंटिंग से एक दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है। यह पेंटिंग एक जापानी संग्रहकर्ता को बेची गई थी और जहाज से सन 1920 में जापान भेजी गई थी। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ओसाका पर अमेरिकी हमले में लगी आग से ये नष्ट हो गई थी। एक कला अखबार के संवाददाता और प्रबंधक मार्टिन बेली को यह तस्वीर अपनी पुस्तक ‘‘द सन फ्लॉवर्स आर माइन: द स्टोरी ऑफ वैन गॉग्स मास्टरपीस’’ के लिए शोध के दौरान मिली। मार्टिन के अनुसार, ‘‘मैंने वैन गॉग के उन पत्रों को खोजा, जिसमें उन्होंने लिखा है कि वे जब सन फ्लॉवर्स की पेंटिंग बना रहे थे तो इसे नारंगी रंग के फ्रेम में रखना चाहते थे। जो कभी नहीं देखा गया।’’ कला विशेषज्ञ मार्टिन के अनुसार ‘‘वैन गॉग का अपनी पेंटिग्स को नारंगी रंग के फ्रेम में रखने का विचार बहुत अपने समय में बहुत क्रांतिकारी था। इससे वैन गॉग की कल्पनाशीलता और विशिष्ट योग्यता का पता चलता है। परंपरागत रूप से पेंटिग्स को सुनहरे फ्रेम में रखा जाता था और आधुनिक पेंटिंग्स को कभी-कभी सादे सफेद फ्रेम में रखा जाता है।’’
सन 1888 में ‘बेडरूम इन आर्ल्स’ पेंटिंग में उन्होंने अपने शयन कक्ष के शांत वातावरण को चित्रित किया। इसी वर्ष ‘कैफे टेरेस एट नाईट’, ‘द येलो हाऊस’, ‘रेड वाईनयार्ड’ आदि पेंटिंग्स बनाई। सन् 1889 में दक्षिणी फ्रांस में सेंट-रेमी में सेंट-पॉल शरण में रहते और अपने अवसाद से जूझते हुए अपने कमरे की खिड़की से सितारों वाली रात को दिखने वाले गांव को अपनी पेंटिंग ‘द स्टाररी नाइट’ में चित्रित किया ।
‘आईरिसेस’ तथा सेल्फ पोट्रेट के साथ ही सन् 1890 में ‘पोट्रेट ऑफ डॉ गैचेट’ तथा सन 1890 में ही ‘व्हीटफील्ड विद क्रो’ नामक पेंटिंग बनाई। ‘आईरिसेस’ वह पेंटिंग है जिसमें आईरिस के फूलों को दिखाया गया है। आईरिस फूल का भी गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है।  प्राचीन ग्रीस में देवी आइरिस ने स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक कड़ी के रूप में काम किया।  उसने यात्रा करने के लिए इंद्रधनुष का प्रयोग किया। सन 1890 में ही ‘द सिएस्टा’, ‘चर्च एट औवर्स’, ‘प्रिजनर्स एक्सरसाइजिंग’ आदि पेंटिंग्स बनाईं।
वैन गॉग को आज विश्व के महानतम चित्रकारों में गिना जाता है और आधुनिक कला के संस्थापकों में से एक माना जाता है। साथ ही उन्हें पोस्ट-इंप्रेशनिज्म अर्थात उत्तर-प्रभाववाद के मुख्य चित्रकारों में से एक माना जाता है। वैन गॉग ने 28 वर्ष की आयु में चित्रकारी करना शुरु किया और जीवन के अंतिम दो वर्षों में अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण  पेंटिंग्स बनाईं। लगभग 9 साल के समय में उन्होंने 2000 से अधिक पेंटिंग्स बनाईं। जिनमें लगभग 900 ऑयल पेंटिंग्स हैं। आरंभिक पेंटिंग्स में फ्रांसीसी प्रभाववादी चित्रकला की छाप को स्पष्ट देखा जा सकता है।
      दुर्भाग्यवश अपने जीवन काल में वैन गॉग को भारी मानसिक दबाव, गहन अवसाद और लोगों की उपेक्षा झेलनी पड़ी। उन्हें अपने जीवन काल में वह ख्याति नहीं मिली जो उनकी मृत्यु के उपरांत उन्हें प्राप्त हुई। जीवनभर उन्हें कोई सम्मान नहीं मिला। वे मानसिक रोगों से जूझते रहे। एक बार एक विवाद के दौरान उन्होंने अपना बायां कान काट लिया था। लोग उन्हें बीमार नहीं बल्कि पागल समझते थे। अंततः मात्र 37 वर्ष की आयु में उन्होंने खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली।
वैन गॉग की चित्रकला की अगर प्रमुख विशेषताएं देखें तो पहली विशेषता थी भावनात्मक रंगों का प्रयोग। वैन गॉग ने अपने समय के अन्य कलाकारों की तुलना में रंगों का अलग तरह से उपयोग किया। अपनी पेंटिंग के विषय के रंगों को वास्तविक रूप से पुनरू प्रस्तुत करने के बजाय, उन्होंने ऐसे रंगों का इस्तेमाल किया जो विषय के प्रति उनकी भावनाओं को सबसे अच्छी तरह व्यक्त करते थे।
दूसरी विशेषता थी बोल्ड रंग पैलेट्स। वैन गॉग ने अपनी आरंभिक पेंटिंग्स में गहरे और धूसर रंगों का प्रयोग किया। किंतु इम्प्रेशनिस्ट और नियो-इंप्रेशनिस्ट पेंटर्स की कला को देखने के बाद बोल्ड रंगों का प्रयोग करने लगे। उनकी बात की पेंटिंग्स में नीले, पीले, नारंगी, लाल और हरे  चमकीले रंग समा गए।
तीसरी विशेषता थी एक्सप्रेसिव ब्रशस्ट्रोक यानी अभिव्यंजक ब्रशस्ट्रोक। वैन गॉग की सिग्नेचर पेंटिंग शैली में वांछित भावनाओं पर जोर देने के लिए ऊर्जावान, दृश्यमान ब्रशस्ट्रोक्स हैं। चौथी विशेषता के रूप में उनकी पेंटिंग्स पर जापानी वुडब्लॉक प्रिंट्स का प्रभाव देखा जा सकता है। वैन गॉग की कला की पांचवी विशेषता थी बहुसंख्यक सेल्फ-पोर्ट्रेट। उन्होंने अपनी चित्रकला की संक्षिप्त अवधि में 35 से अधिक स्व-चित्रों यानी सेल्फ पोट्रेट्स बनाए। जो उनकी भावनात्मक और मानसिक स्थिति को व्याख्यायित करते हैं।
वैन गॉग की पेंटिंग्स आज दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग्स में गिनी जाती है। अकेली ‘द स्टाररी नाइट’ पेंटिंग की कीमत आज 100 मिलियन डॉलर से अधिक आंकी जाती है।  सन 1975 में ‘पोट्रेट ऑफ डॉक्टर गैचेट’ पेंटिंग 1990 मिलियन डॉलर में एक निजी संग्रहकर्ता ने खरीदी थी। ‘सन फ्लॉवर’ सीरीज की एक पेंटिंग सन 1987 में ढाई करोड़ पाउंड में बिकी थी, जिसने उस समय दुनिया की सबसे महंगी पेंटिंग के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए नया रिकॉर्ड बनाया था। वस्तुतः वैन गॉग एक ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण किंतु महान चित्रकार थे जिन्हें उनके जीते जी उन्हें पागल समझा गया किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनकी पेंटिंग्स को सर्वश्रेष्ठ माना गया। आधुनिक मनोचिकित्सकों का यह मानना है कि यदि वैन गॉग की चित्रकला को उनके जीवनकाल में ही सराहा और स्वीकारा जाता तो संभवतः उनका मनोरोग धीरे-धीरे ठीक हो जाता और वे अवसाद से बाहर आ जाते। ऐसी स्थिति में वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते और कला जगत उनकी कुछ और पेंटिंग्स से समृद्ध हो पाता।  
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(30.03.2022)
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Tuesday, March 29, 2022

पुस्तक समीक्षा | वर्तमान बोध से परिपूर्ण कविताएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 29.03.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि रमेश दुबे के काव्य संग्रह "ऐसा भी होता है" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
वर्तमान बोध से परिपूर्ण कविताएं
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - ऐसा भी होता है
कवि      - रमेश दुबे
प्रकाशक   - स्वयं लेखक (श्रीराम नगर, वृंदावन वार्ड, सागर, म.प्र.) 
मूल्य      - 150 रुपए 
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कविता क्यों लिखी जानी चाहिए? निःसंदेह यह बड़ा विचित्र प्रश्न है। लेकिन यह प्रश्न कई बार उठा है और विद्वानों से उसे अपनी-अपनी तरह से व्याख्यायित किया है। आचार्य कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ कहकर कविता को परिभाषित किया है, वहीं दूसरी तरफ आचार्य वामन ने ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ अर्थात् रीति के अनुसार रचना ही काव्य है कह कर परिभाषा दी है। आचार्य विश्वनाथ ‘वाक्यम् रसात्मकम् काव्यं’’ अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है, यह कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते है।’’ मैथ्यू आर्नोल्ड के अनुसार- “कविता के मूल में जीवन की आलोचना है।’’ वहीं, शैले के मतानुसर “कविता कल्पना की अभिव्यक्ति है।’’
मेरे विचार से जो कविता अभिव्यक्ति के उद्देश्य को पूर्ण करती है, वही सर्वोत्तम कविता है। चाहे कविता स्वानुभूति से उपजी हो या लोकानुभूति से, भावों का संप्रेषण ही उसका मूल उद्देश्य होता है। कई बार कवि वह सब कुछ अपनी कविता में उतार देना चाहता है जो कुछ समाज में घटित हो रहा है। ये कविताएं एक वाक्य को जन्म देती हैं जो कभी उच्छवास के रूप में उभरता है कि ‘उफ! ऐसा भी होता है।’ तो कभी आश्चर्य बन कर सामन आता है कि ‘अरे, ऐसा भी होता है?’ किन्तु उन कविताओं को लिखने वाला कवि सूचनात्मक भाव से कहता है कि ‘‘ऐसा भी होता है’। जी हां, सागर नगर के कवि रमेश दुबे के कविता संग्रह का नाम है-‘‘ऐसा भी होता है’’। 
इस कविता संग्रह की भूमिका डाॅ. वर्षा सिंह द्वारा लिखी गई है। उन्होंने संग्रह की कविताओं के बारे में विस्तार से टिप्पणी करते हुए लिखा है कि - ‘‘जीवन के अनुभवों से उपजी कविताओं का अपना अलग महत्व होता है। ऐसी कविताएं शैली अथवा भाषा पर केंद्रित न होकर भावनाओं पर तथा विचारों पर केंद्रित होती हैं। इस प्रकार की कविताओं की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता है। सागर के साहित्य जगत में कवि रमेश दुबे का नाम ऐसे ही कवियों की पंक्ति में सम्मान से रखा जा सकता है जिन्होंने समाज और परिवेश के अनुभव जताते हुए उन्हें अपने काव्य में पिरोया है और इस प्रकार से सृजन करते हुए उन्होंने अभिव्यक्ति को महत्ता दी है, जबकि शैली की विशेषताएं उनके लिए गौण रही हैं।’’
      डॉ. वर्षा सिंह ने आगे लिखा है कि-‘‘रमेश दुबे की कविताओं का स्वरूप भले ही अनगढ़ प्रतीत हो किंतु उनके भावों और विचारों की गहनता उनकी कविताओं को प्रभावी बना देती है। उनकी कविताओं में मौजूद जीवन के प्रति चिंतन एवं चिंता दोनों ही महत्वपूर्ण ढंग से सामने आती हैं जो युवा कवियों का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।’’  
कवि रमेश दुबे की कविताएं समाज की विसंगतियों को पूरी ईमानदारी से उजागर करती हैं। साथ ही व्यक्ति में हो रहे मानवता के क्षरण की ओर भी इशारा करती हैं। ये कविताएं वर्तमान बोध से परिपूर्ण हैं और इनमें आंचलिकता के तत्व भी है जो इन कविताओं को विश्वसनीय बनाते हैं। स्वयं कवि रमेश दुबे अपने इस संग्रह की कविताओं के बारे में लिखते हैं कि ‘‘मैंने तात्कालिक वातावरण में जो देखा उसी पर कोशिश करते हुए लिखने लगा। मेरे काव्य संग्रह का शीर्षक ‘‘ऐसा भी होता है’’ मात्र इसी धारणा से रखा गया है। क्योंकि वास्तव में जो लिखा है ऐसा ही हो रहा है। मेरी रचनाएं पढ़ने में आपको छंद विहीनता अवश्य दिखेगी परंतु कुछ न कुछ कहने में सार्थक अवश्य ही हैं।’’ 
रमेश दुबे की कविताएं बहुत कुछ कहती हैं। वे जीवन के प्रत्येक पक्ष को खंगालती हैं। प्रकृति एवं पर्यावरण की चिन्ता भी उनकी कविताओं में मुखर हुई हैं। ‘‘वृक्ष’’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
वृक्ष रात दिन प्रहरी की भांति खड़े हैं 
बिना पानी बिना खाए जी रहे हैं 
हमें फल छाया और हवा दे रहे हैं 
पक्षियों को घर, हमें घर दे रहे हैं 
पहाड़ों पर खड़े रहकर
बादलों को रोककर 
पानी बरसा रहे हैं 
फिर भी हम उन्हें काट-काट कर 
नष्ट कर रहे हैं 
इतना सब सह कर भी वे 
हमें सुख दे रहे हैं 
फिर भी दया का भाव 
उन पर नहीं 
वह दुख, हम सुख भोग रहे हैं
हम उन्हें उनकी जिंदगी 
जीने नहीं दे रहे हैं।

देश में व्याप्त बेरोजगारी पर कवि कठोर टिप्पणी करते हुए ‘‘नेता कहलाएंगे’’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
नादान बच्चे 
पढ़ेंगे लिखेंगे 
पढ़ लिखकर 
डिग्री ही पाएंगे 
डिग्री लेकर नौकरी के लिए
ऑफिस ऑफिस चक्कर लगाएंगे 
नौकरी बिना अपना सा मुंह लेकर 
घर चले आएंगे 
पढ़े-लिखे कहलाएंगे ।
जो नादान बच्चे 
सिर्फ स्कूल ही जाएंगे 
मौज मस्ती में दिन बिताएंगे 
स्कूल से नाम कटाएंगे 
धीरे-धीरे नेता के गुण पाएंगे।

वर्तमान जीवन में स्वार्थपरता का प्रतिशत बढ़ते हुए देखकर कवि ‘‘सोच दिल की’’ शीर्षक कविता में अपनी व्यथा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
लोग दिल से नहीं 
दिमाग से सोचते हैं 
हिसाब पहले लगाते फिर
दिल जोड़ते हैं 
सोच हमारा आज 
क्यों इतना बदल गया
क्या सोचने का दायरा 
इतना सिमट गया 
दायरे पहले देखते उनके 
फिर हम बोलते हैं 
सोच दिल की 
अब तो पुरानी हो गई 
कहने, सुनने की यह 
एक कहानी हो गई 
लोग दिल से नहीं 
अब दिमाग से सोचते हैं।
       निश्चित रूप से कवि रमेश दुबे की कविताओं में संवेदनाओं का गहन समावेश है। इसीलिए उनका यह संग्रह ‘‘ऐसा भी होता है’’ पठनीय एवं विचारणीय कविताएं हैं जो वर्तमान बोध से परिपूर्ण है।                           
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#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण

अथग द्वारा मंचित 'आषाढ़ का एक दिन' की डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा "स्वदेश ज्योति" में समीक्षा

मित्रो, आज "स्वदेश ज्योति" में 'आषाढ़ का एक दिन' के अथग द्वारा नाट्यमंचन का मेरे द्वारा किया गया समीक्षात्मक समाचार...
हार्दिक धन्यवाद #स्वदेशज्योति  🌷🙏🌷 
29.03.2022
#thankyou #swadeshjyoti  
#डॉसुश्रीशरदसिंह  #DrMissSharadSingh
#नाट्यमंचन  #drama 
#अन्वेषणथियेटरग्रुप  #अथग 
#आषाढ़काएकदिन

Monday, March 28, 2022

डॉ. शरद स्ट्रगलर नहीं फाईटर ऑफ लाईफ | प्रदीप पांडेय | सर्चस्टोरी

 
डॉ. शरद स्ट्रगलर नहीं फाईटर ऑफ लाईफ | प्रदीप पांडेय | सर्चस्टोरी
लेखक एवं मोटिवेशनल स्पीकर प्रदीप पांडेय जी द्वारा लिखा गया लेख #सर्चस्टोरी में प्रकाशित... संकोच के अनुभव के साथ साझा कर रही हूं...
हार्दिक आभार प्रदीप पांडेय जी का तथा "सर्च स्टोरी" का 🙏

#डॉसुश्रीशरदसिंह 
#DrMissSharadSingh

नवभारत में 'आषाढ़ का एक दिन' के अथग द्वारा नाट्यमंचन का समाचार - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज नवभारत के भोपाल संस्करण में 'आषाढ़ का एक दिन' के अथग द्वारा नाट्यमंचन का समाचार...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत भोपाल🌷🙏🌷 
28.03.2022
#thankyou #Navbharat 
#thankyouNavbharat 😊
#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh
#नाट्यमंचन  #drama 
#अन्वेषणथियेटरग्रुप  #अथग 
#आषाढ़काएकदिन

Sunday, March 27, 2022

मोहन राकेश लिखित नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' का नाट्यमंचन एवं नाट्यलेखिका डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा आचरण समाचारपत्र में समीक्षा रिपोर्ट

मित्रो,पढ़िए मेरी समीक्षात्मक रिपोर्ट विश्व रंगमंच दिवस पर अथग द्वारा मंचित किए गए नाटक"आषाढ़ का एक दिन" की...
हार्दिक धन्यवाद दैनिक #आचरण 🙏
हार्दिक बधाई #अन्वेषणथियेटरग्रुप #अथग  💐💐💐
नाटक की समीक्षा : 'अथग' की अद्वितीय प्रस्तुति ने दर्शकों का मन मोह लिया

विश्व रंगमंच दिवस पर "आषाढ़ का एक दिन" का मंचन

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
नाट्यलेखिका एवं कलासमीक्षक

विश्व रंगमंच दिवस पर नाट्य संस्था अन्वेषण थिएटर ग्रुप द्वारा मोहन राकेश रचित नाटक "आषाढ़ का एक दिन"  का मंचन किया गया। दो दिवसीय आयोजन के पहले शो में ही दर्शकों की भारी भीड़ ने नाट्य प्रदर्शन के प्रति अपनी रुचि साबित कर दी। नगर की नाट्य संस्थाओं में "अथग" सबसे प्रतिष्ठित नाम है। इसने  नामचीन कलाकार मंच को दिए हैं। अपनी गरिमा के अनुरूप चुनौती भरा नाटक "आषाढ़ का एक दिन" अथग द्वारा रवींद्र भवन सभागार में प्रस्तुत किया। मोहन राकेश के इस नाटक को निर्देशित किया वरिष्ठ निर्देशक एवं रंगकर्मी जगदीश शर्मा ने। उल्लेखनीय है कि मोहन राकेश के इस नाटक का प्रथम मंचन 1958 में हुआ था और इसे पहला आधुनिक हिंदी नाटक माना जाता है। इस नाटक को 1959 में सर्वश्रेष्ठ नाटक के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला और इसके बाद कई प्रसिद्ध निर्देशकों द्वारा इसका मंचन किया गया। नाटक में कालिदास के जीवन को सार्थक करने के लिए मल्लिका के त्याग की कहानी है। मल्लिका का जीवन पीड़ा के चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाता है और कालिदास यह कहते हुए कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता उसे छोड़कर चले जाते हैं। इस नाटक में भावप्रवणता की प्रधानता है जिससे मंजे हुए कलाकार ही प्रभावी ढंग से इसे मंचित कर पाते हैं। कालिदास की भूमिका में जगदीश शर्मा तथा मल्लिका की भूमिका में दीपगंगा साहू के बेजोड़ अभिनय को दर्शकों ने खूब सराहा। इनके साथ ही विलोम की भूमिका में कपिल नाहर, अम्बिका की भूमिका आयुषी चौरसिया, प्रियंगु मंजरी की भूमिका में करिश्मा गुप्ता, मातुल की भूमिका में मनोज सोनी का अभिनय भी सराहनीय रहा। कई दृश्य ऐसे हैं जिन्हें देखकर दर्शक भावुक हो उठे यह अभिनय की सफलता थी। मंच पर जिन्होंने अभिनय किया वे कलाकार थे - आयुषी चौरसिया, दीप गंगा साहू, जगदीश शर्मा, समर पांडे, मनोज सोनी, संदीप दीक्षित, कपिल नाहर, प्रवीण कैम्या, दीपक राय, करिश्मा गुप्ता।
    मंच सज्जा, संगीत, वस्त्र विन्यास तथा प्रकाश व्यवस्था की कथानक के अनुकूल प्रस्तुति ने कालिदास के समय को मंच पर जीवंत कर दिया। मंच प्रबंधन डॉ. अतुल श्रीवास्तव का, संगीत पार्थो घोष और यशगोपाल श्रीवास्तव (स्टूडियो अनश्ते) का, दृश्य परिकल्पना राजीव जाट संगीत एवं ध्वनि प्रभाव संचालन ग्राम्या चौबे, सेट निर्माण अश्विनी साहू एवं प्रेम जाट तथा ब्रोशर डिजाइन तरुणय सिंह ने किया एवं वस्त्र विन्यास जगदीश शर्मा एवं राजीव जाट का था। भोपाल के रंगकर्मियों का भी योगदान रहा जिसमें गायन और गीत रचना आशीष चौबे , प्रकाश परिकल्पना कमल जैन तथा रूप सज्जा शराफत अली की थी।
     नाट्यसंस्कृति को सागर में स्थापित एवं विकसित करने का श्रेय अथग को है। एक बार फिर इस नाट्यग्रुप ने अद्वितीय प्रस्तुति दे कर दर्शकों का मन मोह लिया।
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#विश्वरंगमंचदिवस  #आषाढ़काएकदिन #मोहनराकेश #नाटक #मंचन #WorldTheatreDay #MohanRakesh #play #drama #theatre #studioanashte #ATHAG #AnweshanTheaterGroup

Article | Summer! Summer! Hot Summer! Why did you come early? - Dr (Ms) Sharad Singh


⛳Friends ! Today my article "Summer! Summer! Hot Summer!  Why did you come early?" has been published in the Sunday edition of #CentralChronicle. Please read it. 
🌷Hearty thanks CentralChronicle🙏
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Article | Summer! Summer! Hot Summer!  Why did you come early?  -  Dr (Ms) Sharad Singh

Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

Everyone is feeling that this time the weather is heating up very fast. The summer season is starting to show its effect. Have you ever wondered why this change in weather patterns? Had not thought, so now is the time to think. Before it is too late, we will have to face the fact that due to our irregularities and carelessness, the temperature of the earth is increasing, which is having a direct effect on the seasons. Just blaming the weather for this will not work, we have to look at the facts.

Summer, summer
Hot summer
Why you have come
Early at my door
I am not ready
To face you yet
So, don't create trouble more.
Summer said on this
By cutting trees
By drying to rivers and ponds
You disturbed to weather's bees
So, face the stings
And don't blame me.

This is my latest poem. It was created when I stepped out of the house this afternoon and the scorching sun made me feel like May in March. Everyone I met was saying that this time summer has come early. If this is the case now, what will happen next?

What will happen next? Really, it is a burning question. In fact, for this, the effect of climate change on the weather has to be seen. Scientists have predicted that would result from global climate change now occurring as loss of sea ice, accelerated sea level rise and longer, more intense heat waves. Actually rising global average temperature is associated with widespread changes in weather patterns. Scientific studies indicate that extreme weather events such as heat waves and large storms are likely to become more frequent or more intense with human-induced climate change. Long-term changes in climate can directly or indirectly affect many aspects of society in potentially disruptive ways. For example, warmer average temperatures could increase weather problems. More extreme variations in weather are also a threat to living beings.  

   As the Earth warms overall, average temperatures increase throughout the year, but the increases may be larger in certain seasons than in others. India's average temperature has risen by around 0.7 degrees Celsius during 1901-2018, said the Assessment of Climate Change over the Indian Region, a report by India's Ministry of Earth Sciences. Such a rise in temperatures will have dire consequences for we Indians. Unless emissions are cut sharply to curb global warming to 1.5 degrees Celsius from pre-industrial times, large parts of the tropics will see increasing episodes of high heat and high humidity that go beyond the limits of human survival, according to new research. Prolonged exposure to such conditions could prove fatal even to healthy people, the researchers said in the study. The Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) has said in its report that the Earth's average surface temperature will increase by 1.5 °C by 2030. This increase will go a decade earlier than forecast. The effects of high heat and humidity are worse for women, children and the elderly, scientists have found. Working outdoors, which is a must for the majority of poor people in India engaged in farming and construction, is likely to worsen the effects of extreme heat.

If necessary steps are not taken to stop climate change, then by 2050, the Indian economy may suffer a loss of up to 35.1 percent of GDP. This information came out in the report released by the Swiss Ray Institute that due to changing weather patterns, there can be a lot of damage in India too. The Swiss Ray Institute analyzed 48 countries around the world, in which it clarified the pressure of climate change on the economies of these countries.

These 48 countries including India represent 90 percent of the world's economy. Based on this analysis, Swiss Re also ranked these countries. India was placed at 45th place among these countries. According to which it has been included in the category of countries most affected by climate change. Excessive rain, early summer, these are the consequences of climate change.

Today, increasing human activities and fulfillment of needs, indiscriminate use of natural resources are the root cause of these problems. It is necessary to use them in a proper and balanced quantity. Otherwise, the accident that will happen in future cannot be avoided. As we know, the climate stability of a place provides stability by encouraging agriculture, income, employment, water life, society and culture there. Therefore, as a responsible citizen, we all have to play our part in keeping the environmental ecosystem clean and sustainable as well as spreading environmental awareness to the masses.

It is true that India is making every effort to reduce its emissions. It has promoted renewable energy and made policies regarding electric vehicles to reduce dependence on coal. But it is also true that we are not fully prepared to deal with the threats coming from climate change. Today our agriculture is largely dependent on rain water. We have not made serious efforts for rainwater harvesting, which results in summer drought and severe water crisis every year. We also have to be prepared to deal with these risks. For this we have to be conscious of water and tree conservation. We have to be aware of balanced exploitation of natural substances. It has to be remembered that our life and life of our earth are in our hands. As we sow, so shall we reap. If we care about the environment, then the environment will also care about us. Nature-friendly habits are also essential for a good season.           
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(27.03.2022)
#ClimateCahnge  #MyClimateDiary
#KnowYourClimate
#KnowYourEnvironment
#unclimatechange
#nature #Environment #earlysummer #Summer

Saturday, March 26, 2022

मध्य प्रदेश इतिहास परिषद का 39 वें अधिवेशन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

" इतिहास को प्राचीन भारतीय इतिहास, मध्यकालीन भारतीय इतिहास, आधुनिक इतिहास यानी मॉडर्न हिस्ट्री के रूप में बांट दिया गया है। मैं सोचती हूं कि मॉडर्न हिस्ट्री के बाद अब क्या आएगा?" यह प्रश्न था डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर की विदुषी कुलपति प्रो. नीलिमा गुप्ता का।
    वहां उपस्थित एक प्रोफेसर ने उत्तर दिया कि मॉडर्न के बाद पोस्ट मॉडर्न आता है। तो इस पर कुलपति महोदय ने प्रश्न किया कि "और पोस्टमाडर्न के बाद? इसे कितने साल का पीरियड मानेंगे?" 
     सभी अनुत्तरित रह गए प्रश्न वाकई साइंटिफिक था और आज के इस उद्घाटन सत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि भी। इतिहास का कालक्रम अनुसार विभाजन करने वालों को इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा।
    आमंत्रित अतिथि के रुप  मैं भी उपस्थित थी और मैं भी इस प्रश्न पर चिंतन कर रही हूं। अवसर था मध्य प्रदेश इतिहास परिषद का 39 वें अधिवेशन का विश्वविद्यालय के जवाहर लाल नेहरू लाइब्रेरी के सभागार में शुभारम्भ का। इसे इतिहास विभाग द्वारा आयोजित किया गया है। उद्घाटन सत्र में अध्यक्ष, मध्य प्रदेश इतिहास परिषद एवं अध्यक्ष, इतिहास विभाग प्रो. बी के श्रीवास्तव का उद्बोधन आयोजन की गरिमा के अनुरूप सर्वश्रेष्ठ उद्बोधन रहा किंतु इसके पूर्व विश्वविद्यालय की विदुषी कुलपति प्रो. नीलिमा गुप्ता ने अपने उद्बोधन में जो प्रश्न किया वह बहुत मायने रखता है। प्रो. गुप्ता एक साइंटिस्ट है और देश विदेश में अपने अनेक शोध पत्र प्रस्तुत कर चुकी हैं। एक साइंटिस्ट के रूप में उनका विशेष स्थान है। इसलिए जब उन्होंने यह प्रश्न किया तो इस प्रश्न पर विचार करना जरूरी है।
(26,03.2022)
#मध्यप्रदेशइतिहासपरिषद 
#डॉसुश्रीशरदसिंह

Friday, March 25, 2022

नवभारत में 'गगन दमामा बाज्यो' के नाट्यमंचन एवं डॉ (सुश्री) शरद सिंह के सम्मान का समाचार

"गगन दमामा बाज्यो" पियूष मिश्रा लिखित इस नाटक का आदित्य निर्मलकर द्वारा निर्देशित तथा स्टूडियो अनश्ते एवं थर्ड आई परफॉर्म्स द्वारा मंचन तथा मेरे सम्मान का समाचार प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🌷🙏🌷 
#thankyou #Navbharat 
#thankyouNavbharat 😊
#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh
#नाट्यमंचन #drama
#गगनदमामाबाज्यो
 #GAGANDAMAMABAJYO

Thursday, March 24, 2022

बतकाव बिन्ना की | उन्ने कही सो पता परी | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | सा. प्रवीण प्रभात

  साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में  मेरे बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत प्रकाशित मेरा लेख प्रस्तुत है- "उन्ने कही सो पता परी"।

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बतकाव बिन्ना की
उन्ने कही सो पता परी
   - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
  ‘‘काए बिन्ना, बा फिलम कश्मीर फाईल्स देख आईं?’’ भैयाजी ने हाल पूछी ने चाल औ दाग दओ सवाल।
‘‘नई भैयाजी, मैंने सिनेमाघर जा के बरसों से फिलम नहीं देखी। अब मनो आदतई छूट गई आए टाकीज में फिलम देखबे की। बा टीवी में मुतकी फिलम आउत रैत हैं, बेई नईं देखी जात आएं।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘अरे बाकी फिलम की छोड़ो, जा वारी फिलम गजब की कहानीं। ई खों देख के पतो परत आए के कश्मीर में कित्तो अत्याचार भओ है। रामधई मोए तो अंसुआ झरन लगे। औ तुम कै रईं के तुमने जे फिलम नई देखी? ऊंसई अपडेट बनी फिरत आओ।’’ भैयाजी ने फिलम की कही सो तो ठीक कही, मनो मोपे सोई तानो मार दओ। मोए जो ने पोसानो।
‘‘काए भैयाजी, जो मैंने ई फिलम नई देखी सो का मोए पतो नईंयां के कश्मीर में का होत रओ औ अब का हो रओ? मोए सब पतो आए। मैंने उते को इतिहास पढ़ो है, उते की खबरें पढ़ी हैं औ कछु उन कश्मीरी पंडितन से सोई मुलाकात करी है जिनको उते से जबरन भगा दओ गओ।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘बे ओरें कहां मिल गए तुमाए लाने?’’ भैयाजी खों यकीन नई भओ।
‘‘स्पेसल मोरे लाने नई मिले, मनो मोरे परिचय के कहाने। बे ओरें सोई साहित्यकार आएं।’’ मैंने भैयाजी खों जवाब दओ।
‘‘ठीक है, तुमाई बात मान लई। बाकी, जोन तुमने जे फिलम नई देखी तो कछु नई देखो। तुमाई जिनगी झंड कहानी।’’ भैयाजी के दिमाग पे फिलम को भूत सवार हतो। बे मोरी जिनगी झंड बतान लगे। मोए लगो के अब जे तो कछु ज्यादा सी हो रई कहानी।
‘‘भैयाजी, मोरी जिनगी जैसी आए ऊंसई आए, मनो मोए जे बताओ के फिलम वारों खों कश्मीरी पंडितों पे भए अत्याचारन खों गम्म आए के बाॅक्स आॅफिस को रिेकार्ड तोड़बे की खुसी आए? मोए पतो आए के ई फिलम में कश्मीरी पंडितों पे 1990 में करे गए जुलम खों दिखाओ गओ है। मनो, फिलम के नौवें दिना जे खबर धूम मचान लगी के ई फिलम ने नौ दिनां में 141 करोड़ को कलेक्शन कर लओ है। मोए तो ऐसो लगो के मनो कश्मीरी पंडितन की दुरदसा पे बोली लग रई होए।’’ मैंने अपने मन की खरी-खरी कै दई।
‘‘जे का कै रईं? अरे जे फिलम ने बनती सो, सब ओरन खों पतो कैसे चलतो? औ अब फिलम है सो टिकट बिकहें और बनाबे वारे पइसा कमाहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काए भैयाजी, नब्बे से अब लों का हमें पतो नई रओ के कश्मीर में पंडितन के संगे का भओ? अपने परधानमंत्री जी ने धारा 370 ऊंसई हटवा दई? अरे जेई लाने तो उन्ने धारा 370 हटवाई के उते सब कछु सही हो सके। बाकी हमें सो आदत परी आए के उन्ने कही सो पता परी, ने तो पैने हते बंद घरी।’’ मैंने सोई भैयाजी की पिंची करी।
‘‘का मतलब तुमाओ? जे पैने हते बंद घरी को का मतलब?’’ भैयाजी तनक चैंके।
‘‘मोरो कहनो जे आए के अब हमें अपनो कष्ट तभई दिखात आए जब कोनऊ फिलम बना के हमाए आंगरे परस देवे। ऊ एक फिलम आई हती, अरे जी में मंहगाई डायन वारो गानो हतो, ऊमें आमीर खान हीरो रओ ओर वाई की लुगाई ने बनाई हती बा फिलम। मनो, अभई ऊको नाम याद नई आ रओ।’’
‘‘हौ तो, मोए सोई याद नई आ रओ, बाकी ऊ फिलम से का मतलब तुमाओ?’’ भैयाजी उतावले होत भए पूछन लगे।
‘‘मोरो मतलब जे आए के ऊ बेरा जब मंहगाई डायन वारो गाना बजत त्तो, सबई खों मैंगाई सबसे बड़ी समस्या लगत्ती। बा फिलम पुरानी भई सो, मैंगाई के नाम पे सबई पल्ली ओढ़ के सो गए। जोन आज डीजल-पेट्रोल मैंगो होत जा रओ, सब्जी-भाजी सोई आसमान छू रई, पर कोनऊं खों मनो फिकर नईंया। ईंसई, कश्मीर फाइल्स फिलम जां दिनां पुरानी परी सो, सबई खों बिसर जाने है के उते का भओ, औ का भओ चाइए। अब हमें खुद बी खयाल करो नाइए। अपनी आंखें ख्ुाली रक्खें, कछु सोसें, विचारें सो खुदई पात चलत रैहे, ने तो हुन्ना की ने लत्ता की, उड़ गई बातें पत्ता की।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘बोल तो मनो तुम सही रई हो, पर जे फिलम नोनी आए सो नोनी आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मैंने कब कही के जे फिलम नोनी नईयां। ऐसी फिलमें बनबी चाइए। भैयाजी, मोरी अरज जे आए के ई फिलम खों स्टेटस सिंबल बना के नई देखों चाइए। देखने है सो ऊकी कहानी से जुड़ के देखो चाइए। ऐंसई तो एक फिलम आई हती रोजा। बा सोई बड़ी नोनी फिलम हती। बा फिलम पुरानी भई सो कश्मीर में आतंकवादियन पे हमने धूरा डार दई। तब से अब लौं सैंकड़ा खांड आतंकी घटनाएं उते हो चुकीं, मनो हमने ढंग से अपनी आंखें ने खोलीं। सो भैया, ई फिलम खों देखबे वारे सोसल मीडिया पे कश्मीर के हालात खों गरियात फिर रए। पर उते जा के हाल सुधारबे की बात कोनऊं नई कर रओ। जेई हाल रैने हमाओ, जब लों हम अपनी आंखन से सबई कछु ने जानहें-परखहें, सो पड़ा सो शेर बने रैने। बाकी मोए सोई देखने है ई फिलम। सबई खों जरूर देखो चाइए। हमाई सरकार ने तो टैक्सफ्री कर दई ईको, सो टिकट को खरचा कम लगहे। पाॅपकार्न खात भए कश्मीर पे अंसुआ बाहाबे की बातई कछु ओर आए।’’ मैंने कही।
‘‘जेई तो हम कै रए हते, सो तुमने हमें लेक्चर पिला दओ।’’ भैयाजी खिझात भए बोले।
‘‘आप जे नईं कै रए हते। आपने कही हती के जो मैंने ई फिलम नई देखी तो मोरी जिनगी झंड कहानी। जे कही रई आपने। लेओ, अपनी कही अभईं के अभईं बिसर गए? फिलम की किसां का याद रखहो? जे सोई खूब रही।’’ मैंने तनक फिर पिंची करी।
‘‘हओ, अब ज्यादा ने बोलो। तुमाई बा लेखिका आए, बा का नाम उनखों, अरे बा बांगलादेस वारी....।’’
‘‘तसलीमा नसरीन?’’
‘‘हऔ, उन्ने सोई देख लई ई फिलम। औ फिलम देख के तुरंतई ट्वीट करो के उनकी आंखें भर आईं। उन्ने कही के कश्मीरी पंडितन खों उनको हक मिलो चाइए। उन्ने बांगलादेशी हिन्दुअन पे बी सवाल उठा दओ।’’ भैयाजी अपनो ज्ञान बघारत भए बोले।
‘‘हऔ सो, जो कल्ला गरम होए सो सबई अपनी रोटी सेंकन लगत आएं। खैर, उनकी बे जानें। बे पैलें अपने देस की तो सुधार लेंवे फिर इते टांग अड़ाएं। अपने इते बतकाव करबे वारन की कोनऊं कमी नई आए। अपन ओरें तो हेंई बतकाव-वीर। मों चलवा लेओ, जित्तो चलवाने होए, बाकी काम की ने कहियो। अब गरमी आन चा रई। अभईं भौजी कूलर सुधरवाबे की बोलहें सो आपई इते-उते को बहानों करत फिरहो।’’ मैंने फिर के पिंची करी। भौजी को जिकर तो भैयाजी की दुखती रग ठैरी।
‘‘हऔ, हम समझ गए, बिन्ना! अब हमें तुमसे कछु नई कैने। हमें माफ करो। अपनी भौजी औ कूलर की सुरता दिला के मोरो मूड खराब ने करो।’’ भैयाजी हार मानत भए, अपनो दोनों हाथ जोड़ के बोले।
‘‘चलो, मैंने सोई आपकी जान बक्सी कहानी। कुल्ल देर हो गई ठांडे-ठांडे। मोए अब चलो चाइए। बाकी अपने हाथन की घरी खुदई देख लओ करे के बा चल रई के ने चल रई।’’ मैंने कही औ भैयाजी खों कुनमुनात भओ छोड़ के उते से अपनी दुकान बढ़ा लई।      
मोए बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी फिलम जाने, इलम जाने, बाबाजी की चिलम जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(24.03.2022)
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पियूष मिश्रा लिखित नाटक 'गगन दमामा बाज्यो' का नाट्यमंचन एवं नाट्यलेखिका डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा दैनिक भास्कर में समीक्षा

"गगन दमामा बाज्यो" पियूष मिश्रा लिखित इस नाटक का आदित्य निर्मलकर द्वारा निर्देशित तथा स्टूडियो अनश्ते एवं थर्ड आई परफॉर्म्स द्वारा मंचन की  मेरी इस समीक्षा को प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद #दैनिकभास्कर 🌷🙏🌷 

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पियूष मिश्रा लिखित नाटक 'गगन दमामा बाज्यो' का नाट्यमंचन एवं नाट्यलेखिका डॉ (सुश्री) शरद सिंह सम्मानित

ब्लॉग साथियों, कल शाम शहीद दिवस 23 मार्च को दर्शकों से खचाखच भरे डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर के स्वर्णजयंती सभागार में  आदित्य निर्मलकर के निर्देशन में पार्थो घोष और यशगोपाल श्रीवास्तव के संगीत से सजे पीयूष मिश्रा लिखित बहुचर्चित नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ का मंचन किया गया। इसे प्रस्तुत किया थर्ड आई परफार्मस एवं स्टूडियो अनश्ते ने। इस दौरान सभागार में शहीद भगत सिंह और सुखदेव सहित कई क्रांतिवीरों की विचारधारा की गूंज सुनाई देती रही। 
        प्रस्तुति इतनी प्रभावी थी कि जब मुझसे मंच पर उस प्रस्तुति के बारे में बोलने के लिए कहा गया तो मैंने शुरू में ही 3 शब्द कहे - "आउटस्टैंडिंग, अद्वितीय, बेजोड़ !"
       नाट्य दल की पूरी टीम युवा है और ऊर्जा से लबरेज है। उन्होंने बतौर एक नाट्यलेखिका स्मृति चिन्ह देकर मुझे भी सम्मान और आत्मीयता प्रदान की जिसके लिए मैं उनकी हृदय से आभारी हूं ... और उन्हें शुभकामनाएं देती हूं कि वे अपनी प्रस्तुति देश के बड़े-बड़े थिएटर्स में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जाकर दे सकें। मुझे उन पर गर्व है!
      इस नाट्यमंचन के बारे में आज मेरी समीक्षात्मक रिपोर्ट 24.03.2022 के दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई है जिससे आप इस नाट्यदल एवं नाटक के बारे में जान सकेंगे!
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Wednesday, March 23, 2022

चर्चा प्लस | भगत सिंह होने का अर्थ | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
भगत सिंह होने का अर्थ
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
        ‘‘मैं महत्वाकांक्षा, आशा और जीवन के आकर्षण से भरा हूं लेकिन जरूरत के समय मैं सब कुछ त्याग सकता हूं।’’ भगत सिंह ने यह सिर्फ कहा नहीं बल्कि कर के भी दिखा दिया। 23 वर्ष की छोटी-सी आयु में वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। लेकिन जो भगत सिंह असेम्बली में बम फेंकते हैं वे ही भगत सिंह लिखते हैं कि ‘‘बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं होती। क्रांति की तलवार विचारों के पत्थर पर तेज होती है।’’ अर्थात् भगत सिंह को समझना इतना आसान नहीं है। उनकी विलक्षण प्रतिभा को जानने के लिए उनके विचारों को गहराई से जानना जरूरी है।
मात्र 23 वर्ष की आयु में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को स्वीकार कर लेना कोई आसान काम नहीं है। जी हां, जब भगत सिंह को फांसी दी गई तो उस समय उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। मेरे नानाजी संत श्यामचरण सिंह बचपन में हम दोनों बहनों को भगत सिंह की कहानी सुनाया करते थे। भगत सिंह की जीवनी के अंत में नानाजी की टिप्पणी रहा करती थी कि- ‘‘कायर अंग्रेजों ने रात के अंधेरे में फांसी दे दी और अंतिम संस्कार भी कर दिया। एक बच्चे से डर गई थी अंग्रेज सरकार।’’ यूं तो मेरे नानाजी गांधीवादी थे और गांधीजी के आंदोलनों में उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। तत्कालीन सीपी एण्ड बरार के वर्धा, राजनांदगांव, दुर्ग आदि स्थानों में नशाबंदी अभियान चलाया। वे अहिंसावादी एवं सत्याग्रही थे किन्तु उनके मन में शहीद भगत सिंह के प्रति सम्मान एवं वात्सल्य की अगाध भावना थी। स्वाभाविक था क्योंकि भगत सिंह ने जो भी रास्ता अपनाया था उसका एकमात्र उद्देश्य देश को आज़ाद कराना था। आज जब बाईस-तेईस साल के युवा कोचिंग औा काॅम्पीटीशन की दौड़ में जूझते रहते हैं, इस आयु ने भगत सिंह ने सिर्फ़ देशहित के बारे में सोचा। उनके विचार इतने गहरे और प्रखर थे कि उन्हें जानने के बाद यह विश्वास करना और भी कठिन हो जाता है कि वे मात्र बीस वर्ष के थे जब उन्होंने अंग्रेज सरकार की ताकत को चुनौती दे डाली।
यूं तो कोर्स की किताबों में शहीद भगत सिंह के बारे में मैंने पढ़ा था किन्तु जिज्ञासावश समय-समय पर अलग से उन पर कई किताबें पढ़ीं। अगस्त 1947 में प्रकाशित जितेन्द्रनाथ सान्याल द्वारा लिखित और कुमारी स्नेहलता सहगल द्वारा अनूदित पुस्तक ‘‘अमर शहीद सरदार भगत सिंह (एकमात्र प्रामाणिक जीवनी)’’ जिसकी भूमिका बाबू पुरषोत्तम दास टण्डन ने लिखी थी। जो कि कर्मयोगी प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी। यह किताब मुझे जबलपुर के साहित्य सदन पुस्तक भंडार में मिली थी। बहुत पुरानी पुस्तक। पन्ने लगभग पीले पड़ चुके थे। ऐसी विशेष किताबें उस पुस्तक भंडार में मिल जाया करती थीं। अतः जब भी मैं मां के साथ जबलपुर जाती थी तो मां मुझे साहित्य सदन जरूर ले जाती थीं। बाद में राजशेखर व्यास द्वारा संपादित एवं अनूदित ‘‘भगत सिंह की जेल डायरी’’ पढ़ी। वीरेन्द्र सिन्धु की पुस्तक ‘‘सरदार भगतसिंह पत्र और दस्तावेज’’ पढ़ी। कुलदीप नैयर द्वारा लिखित ‘‘भगत सिंह की फांसी का सच’’ पढ़ा।  अन्य कई किताबें। हर किताब यह साबित करती थी कि भगत सिंह अपनी आयु से अधिक गंभीर विचारशीलता रखते थे।  
असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था कि-‘‘मनुष्य को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’’
भगत सिंह हिंसात्मक प्रवृत्ति के नहीं थे। वे भारतीय जनता की स्वतंत्रता की इच्छा के बारे में अंग्रेज सरकार को आगाह करना चाहते थे। इसीलिए भगतसिंह ने जब बटुकेश्वर दत्त के साथ असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई और 8 अप्रैल 1929 को बम फेंका तो वह स्थान असेम्बली का खाली हिस्सा था। वरना यदि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो वहां उपस्थित न्यायाधीश, वकीलों या दीर्घा में बैठे लोगों पर बम फेंक सकते थे। उनका उद्देश्य निर्दोषों को मरना नहीं था बल्कि आजादी के संघर्ष का उद्घोष करना था। इसीलिए उन्होंने वहां से भागने का प्रयास नहीं किया बल्कि स्वयं की गिरफ़्तारी दे दी। वे जानते थे कि उन पर देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चलाया जाएगा और शायद फांसी दे दी जाए मगर वे डरे नहीं। यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में ‘‘लाहौर षडयंत्र’’ के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी करते रहे।
भगत सिंह पर अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स की हत्या का भी मुकद्दमा चलाया गया। इस दौरान सुखदेव और राजगुरु भी इनके साथ जेल में थे। तीनों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया था। उस समय जो भी व्यक्ति अंग्रेज शासनकर्ता के विरुद्ध आवाज उठाता उसे देशद्रोही करार दे दिया जाता।
भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में रहते थे। इन दोनों युवाओं में गहरी मित्रता थी। दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे। सांडर्स हत्याकांड में सुखदेव ने भगतसिंह तथा राजगुरु का साथ दिया। पुणे जिले के खेड़ा में जन्में राजगुरु को जब पता चला कि पुलिस द्वारा निर्ममता से पीटे जाने के कारण लाला लाजपत राय की मौत हो गई है तो उनका खून खौल उठा। उन्होंने अंग्रेज सरकार से उनके इस कृत्य का बदला लेने का निश्चय किया। वे भगतसिंह और सुखदेव के संपर्क में आए। फिर 19 दिसंबर, 1928 को राजगुरु ने भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को गोली मार दी थी और खुद ही गिरफ्तार हो गए। भगत सिंह ने उस समय अपनी गिरफ्तारी नहीं दी क्योंकि वे एक कदम और आगे बढ़ कर फिर अपनी गिरफ्तारी देने की योजना बना चुके थे। वे कुछ ऐसा करना चाहते थे जिसकी गूंज भारत में ही नहीं वरन पूरी दुनिया में सुनाई दे। यह योजना थी असेम्बली में बम और पर्चे फेंकने की।
लाहौर षडयंत्र केस में भगत सिंह के शामिल होने को लेकर मुकदमे का नाटक चला और अंततः 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई। रात के अंधेरे में ही सतलुज नदी के किनारे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। यह अंग्रेज सरकार का एक कायराना कृत्य था।
भगत सिंह की यह छोटी-सी जीवनयात्रा अत्यंत ऊर्जावान और एकाग्र थी। मानो उनके जीवन का उद्देश्य देशभक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्यधिक प्रभावित थे। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के कोमल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने 1920 में भगत सिंह महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन में भाग लेने लगे, जिसमें गांधी जी विदेशी समानों का बहिष्कार कर रहे थे। 14 वर्ष की आयु में ही भगत सिंह ने सरकारी स्कूलों की पुस्तकें और कपड़े जला दिए। सन् 1921 में जब चौरा-चौरा हत्याकांड के बाद गांधीजी ने किसानों का साथ नहीं दिया तो भगत सिंह पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसके बाद चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में गठित हुए ‘‘गरम दल’’ के हिस्सा बन गए। उन्होंने चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। 9 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर से लखनऊ के लिए चली 8 नंबर डाउन पैसेंजर से काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर सरकारी खजाने को लूट लिया गया। यह घटना काकोरी कांड नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इस घटना में भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद आदि का हाथ था। काकोरी कांड के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज कर दी। तब भगत सिंह और सुखदेव लाहौर पहुंच गए। भगत सिंह के चाचा सरदार किशन सिंह चाहते थे कि भगत सिंह घर बसाएं और सामान्य जीवन जिएं। किन्तु भगत सिंह तो मन ही मन स्वतंत्रता संग्राम का वरण कर चुके थे।  
भगत सिंह कुशल वक्ता, गंभीर पाठक और उत्साही लेखक थे। उन्होंने ‘‘अकाली’’ और ‘‘कीर्ति’’ दो अखबारों का संपादन भी किया था। वे फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांति का अध्ययन कर चुके थे। जेल की अपनी दो साल की अवधि में भगत सिंह कई लेख लिखे जिनमें उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों को व्यक्त किया। अपने लेखों में उन्होंने पूंजीपतियों को भी स्वतंत्रता का शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि ‘‘मजदूरों का शोषण करने वाला चाहे एक भारतीय ही क्यों न हो, वह भी स्वतंत्रता का शत्रु है।’’ उन्होंने जेल में अंग्रेजी में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’’। भगत सिंह मानते थे कि ‘‘क्रांति मानव जाति का एक अविभाज्य अधिकार है तथा स्वतंत्रता सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है।’’ उन्हांेने कहा था कि ‘‘वे (अंग्रेज प्रशासन) मुझे मार सकते हैं, लेकिन वे मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन वे मेरी आत्मा को कुचल नहीं पाएंगे।’’ वे यह भी कहते थे कि ‘‘मेरा धर्म मेरे देश की सेवा करना है।’’
भगत सिंह का एक ऐसा वाक्य जो उनके द्वारा असेम्बली में बम फेंके जाने के वास्तविक उद्देश्य की ओर स्पष्ट संकेत करता है, वह है-‘‘लोग स्थापित चीजों के आदी हो जाते हैं इसलिए परिवर्तन के विचार से कांपते हैं। इस सुस्ती की भावना को क्रांतिकारी भावना द्वारा प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है।’’ वस्तुतः वे आमजन में स्वतंत्रता की चेतना का त्वरित संचार करना चाहते थे। उनकी यह भावना उनके इस शेर में भी साफ़ दिखाई देती है-
आज जो मै आगाज़ लिख रहा हूं, उसका अंजाम कल आएगा।
मेरे खून  का  एक-एक  कतरा  कभी  तो  इंकलाब लाएगा।
भगत सिंह होने का अर्थ बहुत व्यापक है। उनके व्यक्तित्व को एक गरमपंथी, हिंसावादी कह कर ठुकराया नहीं जा सकता है। उन्हें समझने के लिए उनके पूरे विचारों को जानना और समझना जरूरी है।
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(23.03.2022)
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Tuesday, March 22, 2022

पुस्तक समीक्षा | लोकजीवन का आह्वान करता बुन्देली गीतसंग्रह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 22.03.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि बिहारी सागर के गीतसंग्रह "बुन्देली मकुईयां" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
लोकजीवन का आह्वान करता बुन्देली गीतसंग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - बुन्देली मकुईयां
कवि      - बिहारी सागर
प्रकाशक   - स्वयं लेखक (धर्मश्री पुल के पास, अंबेडकर वार्ड, सागर)
मूल्य      - 60 रुपए
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      बेर और मकुईयां बुन्देलखंड के ऐसे वनोपज हैं जिनसे ग्राम्यजीवन का हमेशा नाता रहा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ और वनों की अंधाधुंध कटाई ने सभी प्रकार के वनोपज को क्षति पहुंचाई है। बेर तो अभी भी शहरी बाज़ार में दिखाई दे जाते हैं लेकिन मकुईयां ठीक उसी तरह से सिमटती चली गई है जैसे आधुनिक जीवन में लोकगीत सिमटते जा रहे हैं। ऐसे अपारम्परिक होते समय में सागर के कवि बिहारी सागर का काव्य संग्रह महत्वपूर्ण कहा जा सकता है जिसमें उनके द्वारा लिखे गए बुन्देली गीत हैं जो लोकधुनों एवं लोकगीतों के स्वर पर आधारित हैं। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर मुद्रित है -‘‘लोकगीत’’ ‘‘रचयिता- बिहारी सागर’’। प्रश्न उठता है कि लोकगीत किसे कहेंगे?
लोकगीत लोक के गीत हैं। जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा लोकसमाज अपनाता है। लोकगीतों में लोक संस्कृति और सभ्यता का वास्तविक स्वरूप देखने को मिलता है। लोकगीतों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है इसमें मानव जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु तक के विभिन्न संस्कार समाए होते हैं। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के लिए लिखे गए गीतों को लोकगीत कहा जा सकता है। लोकगीत में लोक और गीत दो शब्दों का योग है जिसका अर्थ है लोक के गीत। लोक शब्द वास्तव में अंग्रेजी के ‘फोक’ का पर्याय है जो नगर तथा ग्राम की समस्त साधारणजन का परिचायक है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-‘‘लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम नहीं है बल्कि नगर व ग्रामों में फैली हुई समुचित जनता है।’’
लोकगीत आमजन के गीत होते है। घर, नगर, गांव के लोगों के अपने गीत होते है। त्योहारों और विशेष अवसरों पर यह गीत गाए जाते हैं। इसकी रचना करनेेवाले जमीन से जुड़े लोग होते हैं जिन्हें परंपराओं एवं लोकजीवन का सहज ज्ञान होता है। इसके अनेक प्रकार हैं। स्त्रियां चक्की चलाती हुई गीत गाती हैं, पानी भरने जाते समय गीत गाती हैं, पुरुष मवेशी चराने जाते समय या खेत में काम करते समय गीत गाते हैं- ये सभी लोकगीत ही होते हैं। कवि बिहारी सागर ने भी लोकभाषा अर्थात् बुन्देली में जो गीत लिखे हैं उनका सीधा सरोकार लोकजीवन से है। अतः इन्हें लोकगीतों की श्रेणी में इस आशा के साथ रखा जा सकता है कि ये गीत बुन्देलखंड अंचल के जनसामान्य के स्वर में अपना स्थान बना लेंगे।
संग्रह के आरंभिक पन्नों पर गीतकार मोतीलाल ‘मोती’ का शुभकामना संदेश, उमाकांत मिश्र, लोकनाथ मिश्र एवं मणिकांत चौबे ‘बेलिहाज़’ द्वारा लिखी गई भूमिकाएं हैं। इस संग्रह में मुख्यरूप से काव्यात्मक रचनाएं हैं किन्तु पांच लघुकथाएं भी अंतिम पृष्ठों पर रखी गई हैं। साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था श्यामलम के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र ने इस संग्रह के कलेवर पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि - ‘‘कवि बिहारी सागर के इस संग्रह में ईश्वर भक्ति से ओतप्रोत भजनों देवी-देवताओं पर गीत, बुन्देलखंड में शादी विवाह, विभिन्न त्योहारों पारंपरिक, सामाजिक, पारिवारिक अवसरों पर गाए जाने योग्य शैलीबद्ध बुन्देली (लोक) गीतों के साथ ही पांच लघुकथाएं भी शामिल की गई हैं जो उनके कथा लेखन के प्रति रुझान का संकेत है। सरल और सहज भाषा में अपने भावों को व्यक्त करना बिहारी भाई के लेखन कर्म को लोक से जोड़ता है। सुधि पाठक इस संग्रह का पठन कर आनंद की अनुभूति करेंगे।’’
गणेश भजन से आरंभ होने वाले गीतों के क्रम में हास्य गीत, कृष्ण भजन, गारी ढिमरयाई धुन में निबद्ध कोरोनावायरस पर गीत, विवाह गीत, शारदा मां की स्तुति, तुलसी गीत, चैकड़िया भजन, बाल कविताएं, ग़ज़ल, वसंत गीत, झूला गीत, दादरा धुन में निबद्ध गीत, देशभक्ति गीत, विवाह से संबंधित गीत आदि विविध विषयों पर गीत इस संग्रह में मौजूद हैं जिन्हें प्रस्तुत करते हुए कवि बिहारी सागर ने लोक जीवन के प्रति अपनी आत्मीयता को प्रकट किया है। इनमें से अधिकांश गीत गेय हैं तथा ढोलक, मंजीरा, नगड़िया आदि वाद्ययंत्रों के साथ गाए जा सकते हैं। कई गीतों में बड़ा मनोहारी दृश्य मिलता है। जैसे ढिमरियाई धुन में रचा गया गीत जिसमें वर्षा ऋतु में एक ननद अपनी भौजी से कहती है कि प्रिय के बिना यह ऋतु उसके लिए कष्टकारी है-
भौजी उचटन लगी मिदंरियां
गईयो खूब ददरिया, भौजी उचटन लगी मिदंरियां।
बेरन जा बरसात सी आई
ऐसी ऋतु सावन की छाई
गरजे कारी बदरिया, भौजी उचटन लगी मिदंरियां।
दादरा की धुन पर लिखे गए गीत ‘‘मोरी खजुरिया वारी’’ में एक ऐसे युवक की समस्या का वर्णन है जो काम करने के लिए निकला है लेकिन उसके पांव में कांटा लग गया है जिससे वह परेशान है। उसे घर लौटने में देर होगी तो मां चिंता करेगी। पर उसे विश्वास है कि उसके बारे में सुन कर उसकी पत्नी उसकी सहायता के लिए दौड़ी चली आएगी -
मोरी खजुरियावारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
अबई से है जा काम की बेरा
आफत जा हम खों भारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
निगतो मोपे बनरव नैयां
हेरत है बाट मतारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
अबई के जो लागो बसकारो
छा गई बदरिया जा कारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
घर खों मोरे खबर लगा दो
आ जेहे तोरी घरवारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
‘‘आए न सांवरिया’’ शीर्षक गीत में वियोग श्रृंगार की सुंदर प्रस्तुति है। वर्षाऋतु में एक विरहणी नायिका अपनी सखी से अपने मन का हाल व्यक्त कर रही है-
रस की भरी है गगरिया
मोरे आए न सांवरिया।
हरियाली चैमासा छाई
रुत सावन की ऐसी आई
पल-पल आवे खबरियर,
मोरे आए न सांवरिया।
संग की सखियां झूला झूलें
विरह दिवस हम कैसे भूलें
नस-नस चमके बिजुरिया,
मोरे आए न सांवरिया।
कवि को समसामयिक समस्याओं से भी सरोकार है। जिसमें सबसे बड़ी समस्या कोरोना के रूप में हमारे सामने आ चुकी है। बिहारी सागर ने ढिमरियाई धुन पर कोरोना गीत लिखते हुए आमजन को सजगता और सावधानी का संदेश दिया है-
भैया सबको बच के रेंने
सबई जनो से केंने, भैया सबको बच के रेंने।
दो गज दूरी बना के चलियो
सेनेटाईज कर लेंने, भैया सबको बच के रेंने।
गांव-बस्ती में सबको समझाने
चलने मास्क खों पेंने, भैया सबको बच के रेंने।
‘‘बुन्देली मकुईयां’’ एक ऐसा काव्य संग्रह है जो मन और जीवन दोनों की भावनाएं सामने रखता है। यह विश्वास किया जा सकता है कि बुन्देली में लिखा गया यह संग्रह बुन्देली साहित्य में रुचि रखने वाले प्रत्येक पाठक को रुचिकर लगेग।      
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Monday, March 21, 2022

बतकाव बिन्ना की | ऊंटन खेती नईं होत | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात

प्रिय मित्रो,  साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में  मेरे बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत प्रकाशित मेरा लेख प्रस्तुत है- "ऊंटन खेती नईं होत"।
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बतकाव बिन्ना की
ऊंटन खेती नईं होत
      - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
               ‘‘अब काए मूंड औंधाए बैठे हो भैयाजी? तुमाए बाबाजी तो मनो चुनाव जीत गए। ओ ऐसे जीते के रिकार्डई तोड़ दऔ।’’ भैयाजी खों सोच-फिकर में परो देख मोसे नईं रओ गओ औ मैंने उने टोंक दओ।
‘‘ऊकी तो मोए भौतई खुसी आए। जो साजो काम करे ऊको बेर-बेर चानस मिलो चइए। बाकी मोए जे नई समझ में आ रओ के अब का हूंहे?’’ भैयाजी फिकर करत भए बोले।
‘‘अब का हूंहे? अरे, बाबाजी अपनो नओ मंत्रीमंडल बनाहें, औ का हूंहे?’’मैंने कही।
‘‘नईं बो तो सही कही, बाकी बिपक्ष तो मनो बचो सो नईंया।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बचो काए नईयां? बाबाजी के प्रदेस में सपा नईं बचो का? अब आप अगर कांग्रेसई खों बिपक्ष मानबे खों टिके हो तो परमेसर की बात तुमाई सही कहानी के बिपक्ष बचो सो नई कहानो। पर भैयाजी, जो हमाओ प्ररजातंत्र आए। ईमें बिपक्ष को माने कांग्रेसई नईं होत आए। तनक बिचारो, पैले एक जमाना में कांग्रेस कुर्सी पे बैठत ती औ जनसंघ, जनतादल, भाजपा कछु बी नाम ले लेओ, जे ओरें बिपक्ष मेंई रैत ते। मोए सो भौतई अच्छे से सुरता आए के बालपन में मैंने एक दफा जो नारो सुनो रओ के -‘अटल बिहारी खों दे दो तार, जनसंघ की हो गई हार’। तनक बड़ी भई सो मोए सोई लगन लगो के जे ओरें बिपक्षई कहाउत आएं। जे कभऊ सत्ता की कुर्सी पे नईं बैठ सकत। पर तनक देखो, अटल बिहारी जी ने प्ररधानमंत्री बन के दिखा दओ।’’ मैंने भैयाजी खों बताबो चाओ, पर बे मोए टोंक परे।
‘‘सो, तुम कओ का चात हो? भैयाजी मोए टोंकत भए झुंझलाए।
‘‘मोरी अरज जे आए के प्ररजातंत्र में कोन कबे कहां पौंच जाए, कछु कओ नई जा सकत। बाकी, जे परमेसर की कांग्रेस सो मोए बी कहूं पोंचत भई नईं दिखा रई।’’ मैंने भैयाजी की बात को समर्थन करो। 
‘‘जे इन ओरन खों का हो गओ है? का इने अपनी पतरी दसा नई दिखात आए? या तो ढंग से हुन्ना पैहनो, या के पहनबई छोड़ देओ, निकर जाओ कहूं जोग धर के।’’ भैयाजी बड़बड़ात भए बोले।
‘‘बे का जोग धरहें? जोग वारे तो सरकार चला रै। इनके बस को अब कछु नई बचो।’’ मैंने कही। 
‘‘हओ, ने पंजा बचो, ने हाथी बचो, अब को जेहे लर्ड़यां के ब्याओ में? जमानत लो ने बचा पाए।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘हाथी की ने कहो। हाथी ने पैलेईं इत्तो खा लओ हतो के अब लो ऊको पेट खराब आए। अब तो वा अपनो पेटई सुधार ले, बोई भौत आए।’’ मैंने कही। 
‘‘मनो, बे उते पंजाब में आप ने अच्छी बाजी मारी। बो मफलर वारे को उते इत्तो काए पूछो जात आए?’’ भैयाजी सोचत भए बोले। 
‘‘जे तो उनई ओरन से पूछो चइए। उने कछु अच्छो दिखात हूंहे।’’ मैंने कही।
‘‘सो और जांगा वारों खों मफलर वारो अच्छो काए नईं दिखात?’’ भैयाजी की मुंडी मफलर ई पे अटक गई हती।
‘‘आपने सुनो नईयां का? सब जने कैत आएं के लैला काली-कलूटी हती, मनो मजनूं भैया खों पोसा गई सो पोसा गई। जेई से कहनात चल परी के लैला खों मजनूं की नजर से देखो चइए। अब आप सोई समझो करे। उते बे मफलर वारे उन ओरन खों लैला दिखात हूंहे।’’ मैंने समझाई।
‘‘जे कोन सी बात भई? लैला-मजनूं की तुमाई बात हमें ने पोसाई। जे राजनीति में काए की लैला, काए के मजनूं। अभईं कोनऊ और मुफत की बारिस करने लगहे सो बो ई अच्छो लगन लगहे।’’ भैयाजी कुढ़त भए बोले,‘‘मुहब्बत तो जो कहाउत आए जो हम ओरें करत आएं। देस में चाए सबसे ज्यादा टैक्स हमई खों देने पड़ रओ आए, मनो हम चीं बी नईं बोलत आएं। सारी मैंगाई चिमा के सैत रैत आएं। जे कहाऊत है सांची मुहब्बत।’’ भैयाजी अपनो मूंड़ उठा के बोले।
‘‘हौ, तनक गरमी पड़न देओ, बिजली मैंगी ने हो जाए सो कहियो।’’ मैंने कही।
‘‘जेई लाने तो एक साजो, तगड़ो बिपक्ष चाउने परत आए ताके बो मैंगाई के लाने कछु तो हल्ला-गुल्ला करे। भैयाजी बोले। बे घूम-फेर के फेर के बिपक्ष पे आ टिके।
‘‘अब जे बिपक्ष को रोना रोबो छोड़ो भैयाजी! अब कोनऊ ने कोनऊ तो बिपक्ष में रैहे ही। ने तो सरकार में बैठबे वारे सोई विधानसभा में जा के बोर फील करहें। बाकी, कांग्रेस के पांछू ने लगो। उनसे अब कछु न हुंहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘जेई तो, जेई तो हम कै रै। एक कांग्रेसई हती परमानेंट बिपक्ष बनबे जोग, सो वा बी फुस्स हो के रै गई। अब हर प्रदेस को बिपक्ष अलग-अलग हूंहे। का ससुरो, मजा सो ख़राब हो गओ आए।’’ भैयाजी कुनमुनात भए बोले।
‘‘कै तो आप ठीक रै हो भैयाजी, बाकी आप ई बताओ के कभऊं ऊंट खों हल चलात देखो है?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अब जे ऊंट कहां से आ गओ?’’ भैयाजी चौंकत भए बोले।
‘‘नईं, तुम पैले बताओ तो, कभऊं देखो है के कोनऊ ने अपने हल में ऊट खों जोत रखो है?’’ मैंने फेरके पूछी।
‘‘नईं, कभऊ नईं। बैल, ट्रेक्टर जेई खेत जोतबे के काम में आत आएं। ऊंट तो हमने कभऊ खेत पे हल चलात भए नईं देखे। बाकी हमाई बात से ऊंट को का लेबो-देबो?’’ भैयाजी ने पूछी। 
‘‘मुतको लेबो-देबो आए। जोन तरा ऊंट खेती जोग नईं रैत आए ऊंसई अब कांग्रेस राजनीति जोग नईं रै गई। एक जमाना में सबसे बड़ी पार्टी भओ कर त्ती, पर अब बिपक्ष जोग नईं बची। अब बे ओरें बैल से ऊंट बन गए, जेई लाने कछु काम के नईं रै गए। मनो रेता में भले दौड़ लेंबे, पर खेतन में कोनऊं काम के नहीं कहाने। सो अब सोग ने करो कांग्रेस के लाने औ वो बी बिपक्ष में देखबे के लाने। अब सो इतिहास की किताबन में देखियो ऊको।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘जे तो सब ठीक आए मनो एक बैल ऊट कैसे बन सकत आए? मोए जे समझ में नईं आई। जे तुमाई नूडल्स घांई उलझी-पुलझी बातें हमें समझ में नईं आत आएं, ने लप्सी घांई स्वाद की औ ने कोसन घांई सूदी। कछु तो समझ में आन जोग बात करो।’’ भैयाजी मूंड खुजात भए बोले।
‘‘चलो, सो सुनो भैयाजी! जिराफ के लाने का कहो जात आए के पेड़न के ऊपर की पत्तियां खात-खात ऊकी गरदन लम्बी हो गई। ऊंसई हमारे जे बैल हरें ऐसे अपनी गरदन अकड़ान लगे के उन्ने नीचे देखबो ई छोड़ दओ। उन्ने एक घड़ा पानी पी लओ और सोच लगो के हमने तो सगरो समन्दर ई पी डारो। कबे उनके पैरन तले जमीन खिसक गई औ कबे वे ऊंट घांई रेतन में सिमट गए उनको खुदई ने पतो चलो। मैं कोनऊं जेडर चेंज कराबे वारी बात नईं करई, मैं तो बेखबर होबे वारी बात कर रई। बे खरगोस घांई पेड़ की छइयां में सोए परे रहे के कछुआ कभऊं ने जीते पेहे, पर कछुआ हतो के जीततई चलो गओ और जे अपनई ख्वाबन में डूबे रै गए।’’ मैंने सोई भैयाजी खों अच्छे से समझा दओ।    
‘‘बिन्ना, बड़ी खरी-खरी कै रईं।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘मैं तो खरई बोलत हूं। चाए कोनऊं को मीठी लगे, चाए करई लगे। मनो अब मोए देर हो रई। आप डारो आदत दूसरों खों बिपक्ष की कुर्सी पे देखबे की औ मोए देओ इजाजत। बाकी जे जान लेओ के कछु हो जाए पर ऊंटन खेती नईं होत।’’ मैंने भैयाजी से कही औ उते से आगे बढ़ ली।    
मोए बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी राजा जाने, प्रजा जाने, चोर अपनी सजा जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(17.03.2022)
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Sunday, March 20, 2022

Article | We need Vedic knowledge not western for water conservation - Dr (Ms) Sharad Singh


⛳Friends ! Today my article "Every Creature Is Necessary For Us" has been published in the Sunday edition of #CentralChronicle. Please read it. 
🌷Hearty thanks Central Chronicle🙏
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Article | We need Vedic knowledge not western for water conservation -  Dr (Ms) Sharad Singh

Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

Why was there no water crisis in the Vedic period? Because at that time water was considered a deity. When we consider someone as our well-wisher, we also care about him and work in his favor. Whereas we have made water a means of earning money by imprisoning it in bottles. Marketism has become so effective in our lives that we have started looking at essential items of life as a salable product. We will once again have to look in the pages of the Vedas to see how we strengthen our relationship with water to conserve it.


Before the onset of summer season, the sound of water crisis starts to be heard. Has anyone ever thought that one day such a situation will come in the country that section 144 will be imposed for water or the sources of drinking water will be guarded round the clock with guns?  Nobody thought.  But this is what happened in the summer of 2016.  It is the result of not giving serious thought to the scarcity of water in the last decades that cities, villages and towns all seem to be facing water shortage.  The problem of water in many parts of the country was extremely dire.  Last year, in Maharashtra, there was scarcity of drinking water, far from water for agriculture.  The water sources had dried up.  Those who were there were under tremendous pressure from the population.  The most deplorable situation was in Latur.  There were so many incidents of violence and beatings for drinking water.  The collector had to impose Section 144 near 20 water tanks in Latur.

      In Madhya Pradesh too, there was a severe water crisis.  In Madhya Pradesh, 32 thousand hand pumps were closed.  More than 12 thousand tap-water schemes were directly closed.  About 200 Tehsils of the state were drought-hit and 82 urban bodies were also facing severe drinking water crisis.  The situation was even more strange in Tikamgarh, Madhya Pradesh.  According to the chairman of the municipality there, farmers could not steal the water, so 10 guards with licensed weapons were deployed on behalf of the municipality.  On the other hand, the Supreme Court sought a response from the Center on the drought in the states.  The scariest truth of the future, if there is one today, is the lack of water.  Long queues and people fighting among them for water can be seen near water sources with sagging water levels in urban areas.  In rural areas the scenes are more frightening.  There, living water is available by making pits in mud and sand and risking lives by descending into deep trenches.  The sad thing is that we have forgotten about the mutual relation of water and drought, about which we have been reading, hearing and understanding since our childhood.  If there is no water then there will be drought and if there is drought then the question of availability of water does not arise.

World Water Day is celebrated every year on 22 March by people all over the world.  In the year 1993, it was decided by the General Assembly of the United Nations to celebrate this day as an annual event.  In order to increase awareness about the importance, need and conservation of water, it was first officially included in Schedule 21 of the "United Nations Convention on Environment and Development" in Rio de Janeiro, Brazil in 1992 and since 1993  Celebrations started.  The theme for the year 2022 is “Groundwater: Making the Invisible Visible” (Groundwater: Making the Invisible Visible). For it we need Vedic knowledge not western.

With the arrival of the summer season, the scarcity of water starts speaking. Water is life. If there is no water then where is life?  Even after the construction of many dams in independent India, due to negligence, disorder and lack of awareness, the water crisis has increased continuously.  In rural areas where the sources of drinking water are less and the water level is depleting, women in those areas have to walk many kilometers to collect drinking water for their families.  From small girls to adults can be seen carrying water.  Many school-age girls carry several consignments of plastic 'kuppas' (cans used for filling water) on their bicycle carriers and handles from the water source to their homes.  In India, more than 1 lakh people die every year due to waterborne diseases.  According to the latest data, 77 percent of the total patients in India suffer from water-borne diseases like cholera, jaundice, diarrhea, typhoid.  Water pollution has increased so much that it affects 70 percent of the households in the country.  Lack of proper toilets and health facilities is a major reason for water pollution.  Uncleaned dirty water gets into the water sources, due to which diseases spread.  Diarrhea is the most serious disease among water borne diseases, which causes maximum death of children.  According to the World Health Organization data, every year 98,000 children lose their lives due to diarrhea in India.

So now is the time to turn the pages of our past on which the knowledge about the importance and conservation of water is preserved. Yes, our Vedic Knowledge is the storehouse of unlimited knowledge which shows us the way to identify with the environment. Vedic scriptures teach us to respect nature. When we respect someone, consider him close to us, then we do not think of harming him in any way. That is why there was no crisis for the environment and availability of water in the Vedic period, but in the blind race of materialism and selfishness, we kept breaking our relationship with nature, whose consequences are in front of us today in the form of water crisis.

In the Rigveda, First Mandala, Sukta 23, Verse 19 state that-

"Apsu antah amrutam apsu bheshajam apam ut prashaye, devah bhavat vajinah."

- That is, there is nectar in water, medicine in water. O sages, be quick in praising such elevated waters. Water is life; it is the basis of life. It is not possible to imagine life without water. Water is medicine in itself; this water expels  harmful elements of the body through urine. The sages, yagya-priests and humans should not delay in the praise of such water.

In the fourth chapter of Yajurveda, it is said that one should attain purity from the water which is the giver of all the pleasures, the sustainer of life and the nurturer like a mother, to purify the water.  Only after this, it should be used, so that the body can get a beautiful complexion, disease-free body, with continuous effort, while performing religious rituals, can get pleasure from one's effort.

In the Atharvaveda (Kand 19, Sukta 02) it is instructed that man should use rain, well and river water for his food, farming and crafts, etc. and make his life complete -

Shanta apo haimavatih shamu te santutsyaah.

Shan te sanishpada aapah shamu te santu varsyaah.

If we follow our Vedic knowledge carefully, then we can understand the importance of water very well. It is well known that whatever fact or element we find important, we are aware of it. Therefore, understanding the importance of water, we have to be ready about its conservation, only then we will be able to hand over pure water to our coming generation. We have to try to preserve and develop every component of nature and environment as God. Only then will the earth be happy and exist.                   
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(20.03.2022)
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