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Tuesday, December 19, 2023

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली वागेश्वरी: बुन्देली भक्ति और लोक की काव्यात्मक प्रस्तुति | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 19.12.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लोकगायक देवीसिंह राजपूत के काव्य संग्रह "बुंदेली वागेश्वरी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
बुंदेली वागेश्वरी: बुन्देली भक्ति और लोक की काव्यात्मक प्रस्तुति        
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह    - बुन्देली वागेश्वरी
कवि          - देवी सिंह राजपूत
प्रकाशक       - हाई टैक कम्प्यूटर सेंटर, मेडीकल कॉलेज के सामने, तिली रोड, सागर म.प्र
मूल्य          - 200/-
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  छांदासिक रचनाएं लय और भाव के कारण गेय तथा सरस होती है। ये रचनाएं गीत परंपरा की होती हैं। किसी कवि की भावनाएं संगीतमय होकर कोमलकान्त पदावली के माध्यम से जब अभिव्यक्त होती हैं तो उसे गीत कहते हैं। भारतीय साहित्य में गीत की परंपरा बहुत पुरानी है। प्राचीन समय के सम्पूर्ण भारतीय साहित्य ही गीतों के रूप में रचे गए हैं। अंग्रेजी में गीत के लिए ‘लिरिक’ शब्द का प्रयोग होता है। वस्तुतः, ‘लायर‘ वाद्ययंत्र पर गाए जाने वाले काव्य को ‘लिरिक’ कहा गया। अंग्रेजी का यह ‘लायर’ शब्द  ग्रीक शब्द ‘लूरा’ से विकसित हुआ। यह एक प्रकार का अति प्राचीन ग्रीक वाद्ययंत्र था, जिसके सहारे गीत गाए जाते थे। इन गीतों को ग्रीक में ‘लुरिकोस‘ कहते थे और अंग्रेजी में आकर इसका नाम ‘लिरिक’ हो गया तथा हिन्दी में ‘गीत’ के नाम से भावनाओं की अभिव्यक्ति की एक विधा है। गीत के इस परिचय को यहां देने का तारतम्य यह है कि गीतों का उद्भव लोक से हुआ और यह काव्य संग्रह जिस कवि के गीतों से सृजित हुआ है वह एक श्रेष्ठ लोकगीत गायक हैं। इसलिए इनके गीतों में लोक का सोंधापन स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। किन्तु यह नहीं भुलाया जा सकता है कि गीत सृजन भी एक गंभीर साधना है।
देवी सिंह राजपूत लोकगीत गायकी के क्षेत्र में समूचे बुंदेलखंड में एक जाना-पहचाना नाम हैं। उनकी बुंदेली लोकगीत गायन की यह विशेषता है कि उन्होंने भजन से ले कर जनजागरण जैसे विषयों के गीत स्वयं लिखे और गाए हैं। आकाशवाणी, दूरदर्शन के अनेक केन्द्रों सहित प्रत्यक्षतः मंच पर उनको सुनना एक अलग ही आनंद का अनुभव कराता है। वे अपने गायन से श्रोताओं को एक अदृश्य रस-बंधन में बांध लेते हैं। वे जिस बुंदेली लोक शैलीबद्ध गीतों के गायन के लिए जाने-पहचाने जाते हैं उनमें से कई गीत उनके इस प्रथम काव्य संग्रह ‘‘बुंदेली वागेश्वरी’’ में संग्रहीत हैं। जैसा कि संग्रह का नाम है-‘‘बुंदेली बागेश्वरी’’, प्रथम गीत सरस्वती वंदना के रूप में मां वागेश्वरी अर्थात् देवी सरस्वती को समर्पित है। संग्रह का इस प्रथम गीत ‘‘मां बागेश्वरी वन्दना’’ में कवि की भक्ति भावना को सहजता से अनुभव किया जा सकता है-
वीणा वादनी मोरी माँ, हे बागेश्वरी मोरी मां।
वीणा वादनी पुस्तक धारणी
कमल नयन माँ कमल आसनी
दिल से करूं वन्दना, हे बागेश्वरी मोरी मां।
शब्द भाव और मीठी वाणी
रंग रस रसना तूं है कृपाणी
हम बालक करें वन्दना,हे बागेश्वरी मोरी मां।
श्वेताम्बरी माँ बुद्धि विधाता
तुमरी शरण हूं तेरे गुण गाता हूं
शब्दों की करूं मां वन्दना, हे बागेश्वरी मोरी मां
गायक को दे स्वर मयी मणियां
दूर से बतलाओ ना तुम डगरिया
कौन हमारा यहां मां, हे बागेश्वरी मोरी मां।

  यह माना जाता है कि भक्ति की भावना मनुष्य को धैर्य और संयम प्रदान करती है। यह मन को एकाग्र करने का भी काम करती है। विदेशी आक्रमणकारियों के भारत पर आधिपत्य कर लेने तथा मुस्लिम धर्म को बलपूर्वक स्थापित करने के सामाजिक एवं धार्मिक संघर्षमय काल में ही सर्वाधिक भक्ति रचनाओं का सृजन हुआ और वह काल हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल माना गया। वस्तुतः सच्ची भक्ति मानवता की भावना जगाती है जिससे पारस्परिक कलह दूर होते हैं। जब ईश्वर में मां अथवा पिता की कल्पना करते हैं तो उनके प्रति वंदना के भाव स्वतः जाग्रत होने लगते हैं। देवी सिंह राजपूत ने ‘‘बुन्देली देवी गीत’’ में देवी मां के प्रति इसी अपनत्व और आस्था को सरल शब्दों में व्यक्ति किया है-
मैंया अंगना आन पधारो, बिगड़े भाग सम्हारों
नौ दिन तेरी सेवा करु मैं तेरे
ध्यान में उपवास करूँ मैं करो उद्धार हमारो,
मैंया अंगना आन पधारो।
शैल पुत्री, ब्रह्मचारणी, चन्द्र घंटा
नो महामाई कुष्माण्डा और कात्ययानी माँ,
कालरात्री है रुप प्यारो गौरी और सिद्धदात्री,
नौ रात्री है प्यारो।
चैत क्वार में नव दुर्गा आने
सबई जनन पर कृपा बरसाने
जप-जप नाम तुम्हारो, मैंया अंगना आन पधारो,
बिगड़े भाग सम्हारों।

भक्ति के इसी क्रम में शिव वंदना भी है जिसमें कवि ने भगवान शिव के रूप और स्वरूप को पूरी गेयता के साथ सामने रखा है जिससे गीत में दृश्यात्मकता प्रभावी बन पड़ी है-
जै जै शिव शंकर, डमरु बारे।
है त्रिलोकी नाथ जें डमरु बारे।।
बिच्छु तैतइयों को अंग पे चढ़ाके
तन पे लगाए धूनी रमाके
जै बैठे जटा धारी,
जै जै शिव शंकर, डमरु बारे।

ऐसा नहीं है कि कवि ने अपने इस संग्रह में भक्ति भावना की ही काव्य रचनाएं सहेजी हों, उन्होंने इस संग्रह में लोकचार एवं लसोहित की अपनी रचनाओं को भी समुचित स्थान दिया है। जैसे एक रचना है ‘‘बेटी बचाओ’’। यह रचना एक दोहे से आरंभ हुई है -
बिटिया कम ना जानियो, बिटिया है वरदान।
जी घर  बिटिया  होत है,  होवे कन्यादान।।
इसके बाद अगली पंक्तियां हैं-
बिटिया ने मारो रे, भैया बिटिया जान से प्यारी
अपन तरे और दो कुल तारे घर भर खो सुख देती
जावें ममता भरी मताई-रामधई
बिटिया ने मारो, बिटिया जान से प्यारी
सीता राधा गौरा मैया इनई से शिक्षा ले लो
भैया दुनिया माँ में समाई-
रामधई बिटिया ने मारो, बिटिया जान से प्यारी
अगर मारोगे बिटिया को तुम
कहाँ से ममता लाओगे फिर तुम
अकल गई का मारी -
रामधई बिटिया ने मारो, बिटिया जान से प्यारी

लोक जागरण के प्रवाह में एक रचना साक्षरता पर भी आधारित है। यह भी लोकशैलीमें निबद्ध रचना है-
एक घन एक खो जोड़ के गुईयां बात करो कछु करवे की
गैंया बछियां छोड़ के गुईयाँ बात करो कछु करवे की ।
कछु मूरख मारे मिजाजजे अपनी मूछे ऐंठे
कछु सयाने एई बहाने चार जने पढ़वे बैठे
‘क’ कुटम्ब को ‘ख’ खुशियो को बात करो कछु करवे की
गैंया बछियां छोड़ के गुईयाँ बात करो कछु करवे की।

स्वस्थ और स्वच्छ भारत अभियान, श्रमिक कृषि विकास, साक्षरता अभियान, बालविवाह उन्मूलन, राष्ट्रीयता आदि को समर्पित गीतों से इस संग्रह की सामाजिक मूल्यवत्ता स्थापित हुई है। श्रृंगार, भक्ति के साथ-साथ हास्य एवं वीर रस के सुंदर गीतों का समावेश इस संग्रह को अधिक रुचिकर बनाने में सक्षम है।
संग्रह में सबसे बड़ी विसंगति इसके संग्रह के नाम को ले कर है। संग्रह की भूमिकाएं डाॅ. सुरेश आचार्य, डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया, उमाकांत मिश्र एवं मैंने लिखी है। सभी ने कवि द्वारा उपलब्ध पांडुलिपि के अनुसार पुस्तक के नाम में ‘‘बागेश्वरी’’ शब्द का प्रयोग किया है। स्वयं कवि की प्रथम रचना एवं आत्मकथन ‘‘बागेश्वरी’’ शब्द लिए हुए है किन्तु पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ‘‘वागेश्वरी’’ शब्द प्रकाशित है। यह त्रुटि पाठक को भ्रमित कर सकती है कि सही शब्द कौन-सा है? इसके साथ ही रचनाओं में गेयता तो पर्याप्त है किन्तु शिल्प पक्ष अत्यंत कमजोर है। छांदासिक एवं गैर छांदासिक दोनों तरह की रचनाओं की प्रतिध्वनि तो इस संग्रह रचनाओं में मौजूद है किन्तु छंद अथवा छंदमुक्त गीत विधा का परिपालन नहीं मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने प्रत्येक रचना को अपनी गेयता के आधार पर आकार दिया है। फिर भी यह विश्वास किया जा सकता है कि लयबद्धता एवं भक्ति तथा लोक का सरोकार होने के कारण इस संग्रह की रचनाएं पाठकों के चित्त को सहज भाव से स्पर्श करेंगी।
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Friday, November 15, 2019

चर्चा प्लस ... संस्कृति से लोक नहीं अपितु लोक से बनती है संस्कृति - डाॅ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
संस्कृति से लोक नहीं अपितु लोक से बनती है संस्कृति
- डाॅ. शरद सिंह 


      समय में परिवर्तन के साथ सांस्कृतिक मूल्यों में भले ही संशोधन एवं परिवर्द्धन होता रहे किन्तु वह संस्कृति जो लोक से उत्पन्न होती है, सदा अक्षुण्ण रहती है। लोक संस्कृति को जन्म देता है, गढ़ता है, संवारता और सहेजता है। यही कारण है कि लोक जीवन में जल और पर्यावरण जैसे मूल तत्वों के प्रति सकारात्मक चेतना आज भी पाई जाती है। लिहाजा किसी भी संस्कृति को समझने के लिए उसके लोक को समझना जरूरी है।

 
Charcha Plus - Sanskriti Se Lok Nahin Apitu Lok Se Banti Hai Sanskriti -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh

भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चैरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मंा है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।
एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। बुंदेलखण्ड में नर्मदा को मां का स्थान दिया गया है। नर्मदा स्नान करने नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उठती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
अरे, ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
जब नर्मदा माता है तो गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी? क्या उनसे कोई नाता नहीं रह जाता है? लोकमानस त्रिवेणी से भी अपने रिश्तों को व्याख्यायित करता है। बाम्बुलिया गीत का ही एक और अंश उदाहरणार्थ-
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया... हो...
भारतीय संस्कृति में मानवमूल्य की महत्ता इतनी सघन है कि प्रकृति को भी रक्तसंबंधियों से अधिक घनिष्ठ माना जाता है। इसके उदाहरण लोकसंस्कारों में देखे जा सकते हैं जो आज भी ग्रामीण अंचलों में निभाए जाते हैं-
कुआ पूजन - विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। ठीक किसी हठी रिश्तेदार की तरह। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हैं तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।
सप्तपदी में जल विधान - विवाह में सप्तपदी के समय पर जो पूजन-विधान किया जाता है, उसमें भी जल से भरे मिट्टी के सात कलशों का पूजन किया जाता है। ये सातो कलश सात समुद्रों के प्रतीक होते हैं। इन कलशों के जल को एक-दूसरे में मिला कर दो परिवारों के मिलन को प्रकट किया जाता है।
पूजा-पाठ में जल का प्रयोग - पूजा-पाठ के समय दूर्वा से जल छिड़क कर अग्नि तथा अन्य देवताओं को प्रतीक रूप में जल अर्पित किया जाता है जिससे जल की उपलब्धता सदा बनी रहे।
मातृत्व साझा कराना - सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्री के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
जिस संस्कृति में पृथ्वी की रक्षा से ले कर पारिवारिक संबंधों की गरिमा तक समुचित ध्यान दिया जाता हो उस संस्कृति में मानवमूल्यों का पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान रहना स्वाभाविक है। वस्तुतः संस्कृति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के सतत् विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है। मानव मूल्य संस्कृति से ही उत्पन्न होते हैं और संस्कृति की रक्षा करते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर के शाश्वत मूल्यों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति में पाषाण जैसी जड़ वस्तु भी देवत्व प्राप्त कर सर्वशक्तिमान हो सकती है और नदियां एवं पर्वत माता, पिता, बहन, आदि पारिवारिक संबंधी बन जाते हैं। ऐसी भारतीय संस्कृति की नाभि में मानवमूल्य ठीक उसी तरह अवस्थित है जैसे भगवान विष्णु की नाभि में कमल पुष्प और उस कमल पुष्प पर जिस तरह ब्रह्मा विद्यमान हैं, उसी तरह मानवमूल्य पर ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’ की लोक कल्याणकारी भावना विराजमान है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 13.07.2019)
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