Showing posts with label बेदाग़. Show all posts
Showing posts with label बेदाग़. Show all posts

Thursday, February 2, 2023

चर्चा प्लस | सारा खेल क़मीज़ की बेदाग़ सफ़ेदी का है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
सारा खेल क़मीज़ की बेदाग़ सफ़ेदी का है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       चाहे राजनीति हो या आमजन जीवन, सारे फसाद की जड़ होती है एक अदद क़मीज़। इस जादुई क़मीज़ में बड़ी ताक़त होती है। यह किसी को भी आसानी से किसी का दुश्मन बना सकती है। अब आप सोचेंगे कि यह कौन-सी क़मीज़ है? किस ब्रांड की है? कहां मिलती है? तो इसकी विशेषता यह है कि यह अपनी ब्रांडिग खुद करने में सक्षम होती है। इसे पता है कि इसके चाहने वाले अंधभक्त इसे पाने के लिए मर-मिटने को तैयार रहते हैं। ठीक है, अब और अधिक सस्पेंस नहीं। चलिए जान लीजिए उस क़मीज़ के बारे में जिसे पाने के लिए गलाकाट प्रतिद्वंद्विता चलती रहती है और अपवाद छोड़ दिया जाए तो दुनिया का कोई भी व्यक्ति उस सफ़ेद क़मीज़ के प्रभाव से अछूता नहीं है।
इन दिनों एक पूर्व मुख्यमंत्री और एक वर्तमान मुख्यमंत्री के बीच आरोप-प्रत्यारोप भरा प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा है। मसला वही कि तेरी क़मीज़ मेरी क़मीज़ से अधिक सफ़ेद क्यों? एक-दूसरे की क़मीज़ पर दाग़ ढूंढना ज़रूरी है। एक दाग़ी निकलेगा तभी तो दूसरा बेदाग़ दिखाई देगा। लेकिन आमजन को भी यह पूछने की फ़ुर्सत नहीं है कि इस प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम से आमजन को क्या मिलेगा? आमजन स्वयं भी एक-दूसरे की क़मीज़ की सफ़ेदी देख कर चुंधियाता रहता है। यदि सामने वाले ने एक फुट ज़मीन का अतिक्रमण किया है तो मैं दो फुट जमीन का अतिक्रमण कर के रहूंगा। इसी दांवपेंच में उलझे रहने वाले कभी जान ही नहीं पाते हैं कि खुश कैसे रहा जाता है? जो दूसरे की क़मीज़ देख कर जलते-कुढ़ते रहते हैं वे अपनी खुशी को कभी महसूस कर ही नहीं पाते हैं और न दूसरे को खुशी दे पाते हैं। दूसरे से ज़्यादा पाने की चाहता उन्हें पागल किए रहती है। बुद्धिजीवी भी इससे अलग नहीं हैं। वे भी कुढ़ते रहते हैं कि फलां की दो किताबें आ गईं तो मेरी चार किताबें आ जानी चाहिए। उसके एक शेर पर तालियां बजीं तो मेरे चार शेरों पर तालियां बजनी चाहिए। यह सारा चक्कर असंतोष नामक सफ़ेद क़मीज़ का है।    

रूसी कवि सेर्गेई येसेनिन (1895-1925) की एक कविता की ये पंक्तियां बताती हैं कि एक अदद क़मीज़ इंसान के मन को किस तरह अपने वश में रखती है-
मैं नहीं पहनना चाहता
वह क़मीज़
जिसे पहन कर
मुझे अपना अस्तित्व
लगने लगता है
छोटा और फ़ीका,
दरअसल मेरी कमीज़ है मैली-कुचैली
मेरे हालात की तरह।

जब अपनी क़मीज़ फीकी लगने लगे तो दूसरे की चमकदार, झक्क सफेद क़मीज़ से ईष्र्या होने लगती है। मन खुद से ही प्रश्न करने लगता है कि मेरी क़मीज़ उसकी क़मीज़ जैसी चमकदार झकाझक सफ़ेद क्यों नहीं? बस, सारी समस्या यहीं से शुरू होती है। हर राजनीतिक दल अपनी क़मीज़ को उजली और दूसरे की क़मीज़ को दाग़दार बताने में ही अपनी आधी शक्ति झोंक देता है। हमारे कार्यकाल में सबकुछ अच्छा और तुम्हारे कार्यकाल में सब कुछ ख़राब। या फिर विपक्षी सोच में डूबा रहता है कि सत्ताधारी इतना बेदाग़ क्यों दिख रहा है? इसकी क़मीज़ पर कोई तो दाग़ होगा ही। राजनीति तो काजल की कोठरी बन चुकी है तो उसमें रहते हुए कोई भला अपनी क़मीज़ को बेदाग़ कैसे रख सकता है? निःसंदेह बेदाग़ दिख सकता है यदि विज्ञापन रूपी बेहतरीन ब्लीचिंग सोल्यूशन उसके पास हो। सो, आजकल हर राजनीतिक दल ऐसा ब्लीचिंग सोल्यूशन अपने पास रखता ही है। राजनीति में यह सोल्यूशन हमेशा से उपयोग में लाया जाता रहा है। राजाशाही के जमाने में राजा-महाराज अपनी प्रशस्ति लिखवाते थे। चारण-भाट से अपनी प्रशंसा में गीत गवाते थे। इतना ही नहीं बल्कि शिलाओं पर भी अपने श्रेष्ठ कार्यों को लेख के रूप में खुदवा दिया करते थे ताकि आने वाली कई पीढ़ियां उनकी बेदाग़ क़मीज़ के चर्चे करती रहे। आज होर्डिंग्स, बिलबोर्ड, फुल पेज विज्ञापन, चैनलों की ख़रीद-फ़रोख़्त, इतिहास का अपने हिसाब से पुनर्लेखन आदि ब्लीच अपनाए जाते हैं। ताकि आमजन उनकी चमकदार, बेदाग़ क़मीज की चकाचैंध से अंधियाती रहे और विपक्षी यह सोच-सोच कर कुढ़ते रहें कि मेरी क़मीज उसकी क़मीज जैसी बेदाग़ सफेद क्यों नहीं? 
क़मीज की यह श्रेष्ठता भरी चमक केवल राजनीति को नहीं बल्कि आम जनजीवन को भी प्रभावित करती रहती है। पिछले दो दशकों में क़मीज़ की सफेदी ने घातक प्रतिस्पद्र्धा का रूप ले लिया है। बचपन में स्कूल में एक कविता रटाई गई थी जिसका बोध उस समय तो मेरे जैसे किसी भी स्टूडेंट को नहीं रहा होगा लेकिन बड़े होने पर उसका व्यापक अर्थ सब को समझ में आ गया होगा। यदि कच्ची पहली (किंडरगार्टन) के सहपाठियों की रीयूनियन होती तो मैं अपने सहपाठियों से ज़रूर पूछती कि उन्होंने उस कविता को कितना आत्मसात किया? वैसे उत्तर मुझे पता है कि वे सौ प्रतिशत आत्मसात कर चुके होंगे। कविता कुछ इस प्रकार थी-
क्यों न मेरा तोता
बोले जैसे तेरा
जबकि मैंने दिए
उसके दूने दाम!
इस कविता का तोता भी वह क़मीज़ ही है जिसने व्यक्ति के मन में हीनभावना की गहरी जड़ें जमा दी हैं। माता-पिता इस हीन भावना से ग्रस्त हो कर ही अपने बच्चों को परीक्षा में 99 प्लस नंबर लाने का दबाव बनाते हैं। जो बच्चे इस दबाव को सहन नहीं कर पाते हैं वे या तो विद्रोही बन जाते हैं या फिर आत्मघाती बन बैठते है। ‘‘हमारा बच्चा दूसरे के बच्चे से अधिक अच्छा होना चाहिए’’ की प्रतिस्पर्द्धा भरी सोच के कारण माता-पिता अपने बच्चों के बारे में यह जान ही नहीं पाते हैं कि उनकी खुशी किसमे है? जबकि खुशी न तो लड़ कर हासिल की जा सकती है और न खरीदी जा सकती है। इस संबंध में एक इतालवी लोककथा बताती हूं।

 यह कथा है राजा गिफाद और ग़रीब युवक सांजियो की। राजा गिफाद का इकलौता पुत्र था राजकुमार जोनाश। इतना लाड़ला कि राजा उसे दुनिया की सारी खुशियां देना चाहता था। राजकुमार जोनाश जैसे-जैसे बड़ा हुआ वैसे-वैसे उसके स्वभाव में परिवर्तन आने लगा। हमेशा खुश रहने वाला जोनाश उदास और खोया-खोया रहने लगा। राजा गिफाद से अपने पुत्र की यह दशा देखी नहीं गई। उसने राजकुमार का इलाज कराना चाहा लेकिन चिकित्सकों ने जांच कर के कह दिया कि राजकुमार पूर्णतः स्वस्थ है। अंततः राजा गिफाद ने अपने दरबार के मुख्य ज्योतिषी से इस बारे में चर्चा की। ज्योतिषी एक मनोवैज्ञानिक भी था। वह राजकुमार को देख कर ही समझ गया कि यह शारीरिक नहीं वरन मानसिक समस्या है। अतः उसने राजा से कहा कि यदि राजकुमार को राज्य के सबसे खुश रहने वाले व्यक्ति की क़मीज़ पहनाई जाए तो राजकुमार भी खुश रहने लगेगा। ज्योतिषी की सलाह पर राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि खुश रहने वाले सारे व्यक्ति दरबार में हाज़िर हों। अधिक तो नहीं, पर कुछ लोग ईनाम के लालच में दरबार जा पहुंचे। राजा ने पड़ताल करनी चाही कि वे जो स्वयं को सबसे खुश व्यक्ति बता रहे हैं, सचमुच खुश हैं या नहीं? राजा ने एक आदमी से पूछा कि तुम खुश क्यों हो? तो उसने कहा कि मेरे पास एक पेटी लीरा (इतालवी मुद्रा) हैं। इसलिए मैं खुश रहता हूं। राजा ने उससे कहा कि फिर तो यदि मैं तुम्हें दो पेटी लीरा और दूं तो तुम मना कर दोगे क्योंकि तुम तो अपने एक पेटी लीरा में ही खुश हो। इस पर वह आदमी बोल उठा। अरे नहीं, अगर मुझे दो पेटी लीरा और मिल जाएंगे तो मैं और खुश हो जाऊंगा। यह सुन कर राजा समझ गया कि यह आदमी लालची है और लालची कभी खुश रह ही नहीं सकता है। राजा ने इसी तरह सबसे प्रश्न पूछे और सभी झूठे साबित हुए। राजा निराश हो गया। तब एक दिन रानी ने उससे कहा कि इस तरह निराश हो कर बैठने से अच्छा है कि आप शिकार खेलने चले जाइए। इससे आपका मन बहल जाएगा। राजा गिफाद अपनी रानी की सलाह मान कर शिकार खेलने जंगल गया। वहां वह एक हिरण का पीछा करता हुआ जंगल के बीच बनी एक झोपड़ी में पास जा पहुंचा। झोपड़ी के पास एक मचान बनी हुई थी। मचान पर एक युवक मस्ती से लेटा हुआ बादलों को देख रहा था और बीच-बीच में गाना गुनगुना रहा था। वह बहुत खुश दिखाई दे रहा था। राजा ने राजकुमार की आयु के उस युवक से पूछा कि क्या तुम हमेशा ऐसे ही खुश रहते हो? तो सांजियो नाम के उस युवक ने उत्तर दिया कि हां, मैं तो हमेशा ऐसे ही रहता हूं। राजा ने पूछा कि तुम मेरे साथ मेरे राजमहल चलोगे क्या? मैं तुम्हें वहां सारी सुख-सुविधाएं दूंगा। सांजियो बोला, नहीं! मैं यहीं ठीक हूं मुझे कोई सुख-सुविधाएं नहीं चाहिए। यहां मेरी झोपड़ी है, मेरी मचान है, मेरे बादल हैं, मेरे कंदमूल फल हैं। मैं इन्हीं में खुश हूं, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। सांजियो का उत्तर सुन कर राजा समझ गया कि वह जिसे ढूंढ रहा था वह यही व्यक्ति है। तब राजा गिफाद ने सांजियो से पूछा कि क्या वह राजकुमार की खुशी लौटाने के लिए अपना कोई सामान दे सकता है? सांजियो मस्ती से बोला कि आप जो चाहे ले लीजिए। राजा ने कहा मुझे तुम्हारी क़मीज़ चाहिए! और यह कहते हुए राजा ने सांजियो की क़मीज़ उतारने के लिए हाथ बढ़ाया तो देखा कि यह क्या? सांजियो के बदन पर तो क़मीज़ थी ही नहीं। वह तो पेड़ की छाल और पत्ते अपने शरीर पर लपेटे हुए था। यह देख कर राजा की आंखें खुल गईं कि खुशी कपड़ों या भौतिक वस्तुओं से नहीं मिलती है। यदि व्यक्ति संतुष्ट है तो वह फटेहाल हो कर भी खुश रह सकता है। राजा ने तय किया कि वह राजकुमार जोनाश को सांजियो के पास ला कर मिलाएगा ताकि राजकुमार खुशी की वास्तविकता से परिचित हो सके।

आज भी राजकुमार जोनाश और सांजियो जैसे लोग मौजूद हैं। पर दुख की बात यह है कि जोनाश जैसे असंतुष्टों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही और सांजियो जैसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। उच्चवर्ग ‘‘पेजथ्री’’ पर चमकने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। मध्यमवर्गीय न तो स्वयं खुश रहता है और न अपने बच्चों को खुश रहना सिखा पाता है। ‘कटआफॅ’ के स्लाटर हाउस में ‘कटते’ बच्चों की निराशा, दुख और परेशानियां देखने के बजाए उन पर अपने सपने थोपता रहता है। निम्नवर्ग जो आमतौर पर अपनी फटेहाली में भी खुश रहना जानता था, उसे बाजार की चकाचैंध ने भ्रमित कर के अपराध के रास्ते में धकेल दिया है। आज हर व्यक्ति वह चाहे किसी भी तबके का हो, सब कुछ पा लेना चाहता है और इसी चाहत में अपनी सारी खुशी बरबाद कर देता है।
मसला मात्र इतना ही रहता है कि उसे जो मिल गया वो मुझे क्यों नहीं मिला? यही बेचैनी इंसान को परेशान करती रहती है और उससे एक कप चाय की रिश्वत से ले कर करोड़ों के घोटाले करवा डालती है। सब कुछ पा लेने की अंतहीन इच्छा में दूसरे की क़मीज़ अपनी क़मीज़ से हमेशा अधिक चमकदार दिखाई देती है और तब हीनभावना जाग उठती है। हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति न तो अपनी क़मीज़ चमकाने का प्रयास करता है और न ही अपनी क़मीज़ में संतुष्ट रहता है, बल्कि वह दूसरे की क़मीज़ गंदा करने पर तुल जाता है। आमजन जब खुद इसी झगड़े में फंसा रहता है तो कोई और उसके दुख-सुख का ध्यान क्यों रखे? चुनाव आया तो चुन कर भेज दिया और फिर उलझ गए एक-दूसरे की क़मीज़ की सफ़ेदी देखने में। यानी सारा खेल एक अदद क़मीज़ की सफेदी का है। वरना सच तो ये हैं बकौल नजीर अकबराबादी -
टुक हिर्स-ओ-हवा को छोड़ मियां मत देस बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक़ अजल  का  लूटे है  दिन रात  बजा कर नक़्क़ारा
क्या  बधिया भैंसा, बैल, शुतुर, क्या गू में  पल्ला  सर-भारा
क्या  गेहूं, चावल,  मोठ, मटर,  क्या आग धुआं और अंगारा
सब  ठाठ  पड़ा  रह  जावेगा  जब  लाद  चलेगा  बंजारा
   
  ----------------------------
#DrMissSharadSingh  #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर  #डॉसुश्रीशरदसिंह 
#सफेद  #सफेदकमीज़