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Saturday, August 23, 2025

संस्मरण | पद्मश्री रामसहाय पांडे - डॉ शरद सिंह | "चौमासा" पत्रिका में प्रकाशित

आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल की पत्रिका  "चौमासा" के मार्च - जून 2025 अंक में सागर गौरव मृदंग वादक व राई नर्तक पद्मश्री स्व. पं. रामसहाय पाण्डेय जी के जीवन पर आधारित है मेरा लेख ....👇
🚩 हार्दिक आभारी हूं "चौमासा" के संपादक मण्डल की। 🌹🙏🌹 
         लेखिका डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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#आदिवासीलोककला #बोलीविकासअकादमी #मध्यप्रदेशसंस्कृतिपरिषद
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Tuesday, April 19, 2022

मेरे पुराने पारिवारिक चित्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#यादें .. तस्वीर में कुर्सी पर बैठे हैं मेरे नाना जी  गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संत श्याम चरण सिंह। बाएं से दाएं खड़े हुए - मेरी दीदी वर्षा सिंह, मामाजी कमल सिंह, मां डॉ विद्यावती 'मालविका' और मैं शरद सिंह। स्थान :  हिरणबाग, पन्ना (मप्र) में घर के आंगन में।

#Memories.. In the picture, my maternal grandfather is sitting on the chair, Gandhian freedom fighter Sant Shyam Charan Singh.  Standing from left to right - my sister Varsha Singh, maternal uncle Kamal Singh, mother Dr Vidyavati 'Malvika' and me Sharad Singh.  Location: In the courtyard of the house at Hiranbagh, Panna (MP).
मां डॉ विद्यावती 'मालविका' 
मां डॉ विद्यावती 'मालविका' और दीदी वर्षा सिंह
मां डॉ विद्यावती 'मालविका' और मैं शरद सिंह
मैं शरद सिंह, मां डॉ विद्यावती 'मालविका'  और दीदी वर्षा सिंह। मेरी गोदी में है सफ़ेद धवल रंग का हमारा बिल्ला जिसका नाम बिल्लोश था।
मै शरद सिंह और मेरी दीदी वर्षा सिंह (खड़ी हुईं)
मेरी दीदी वर्षा सिंह और मैं शरद सिंह
मेरी दीदी वर्षा सिंह
मेरी दीदी वर्षा सिंह
मैं शरद सिंह
मेरी दीदी वर्षा सिंह मां की साड़ी में

Friday, November 19, 2021

आंचलिक स्त्री का ज़मीनी यथार्थ और स्त्री विमर्श | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | व्याख्यान | राष्ट्रीय वेबिनार

सर्दी-खांसी के अंतिम चरण में जब गला बैठा जा रहा हो तब एक घंटे का व्याख्यान देना ... पर, आयोजकों के आत्मीयतापूर्ण विश्वास को तोड़ नहीं सकती थी...दम साध कर बोलती गई, ग़नीमत की बीच में खांसी का दौरा नहीं पड़ा। विषय मेरी पसंद का था-"आंचलिक स्त्री का ज़मीनी यथार्थ और स्त्री विमर्श"। आप भी देख-सुन सकते हैं Youtube की नीचे दी लिंक पर।👇
https://youtu.be/sGJOlsbteGkLecture of Dr (Miss) Sharad Singh
       जी हां मित्रो, आज, 19-11-2021 को शाम 5 बजे जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, बाराबंकी (उप्र) के हिन्दी विभाग एवं शारीरिक शिक्षा विभाग द्वारा डॉ. राम अँजोर सिंह स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत Zoom एवं Youtube पर "आंचलिक स्त्री का ज़मीनी यथार्थ और स्त्री विमर्श"  विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य वक्ता के रूप में मैंने व्याख्यान दिया। 
🚩हार्दिक धन्यवाद आयोजन-सचिव
डॉ. रीना सिंह, एसोसिएट प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग 💐
#स्त्रीविमर्श #व्याख्यान #वेबिनार #webinar #Lecture # WomanDiscourse
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Tuesday, September 7, 2021

बुंदेली व्यंग्य | पच्चीस रुपइया मंहगे वारे अच्छे दिन | डॉ शरद सिंह | पत्रिका में प्रकाशित

आज 07 सितंबर 2021 को #पत्रिका समाचार पत्र में मेरा बुंदेली व्यंग्य "पच्चीस रुपइया मंहगे वारे अच्छे दिन" प्रकाशित हुआ ..आप भी पढ़ें..आंनद लें..😄
#ThankYou #Patrika
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बुंदेली व्यंग्य
पच्चीस रुपइया मंहगे वारे अच्छे दिन
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       "काए नोने भैया, किते जा रहे हैं?" सामने नोने भैया खों देख के मोसे पूंछे बिना न रहो गओ। काए से के नोने भैया की सुबो तो ग्यारा-बारा बजे होत है औ आज बे मोए सुबो साढ़े छह बजे जात लो दिखाने।
"अरे कहूं नई, इतई लो।" नोने भैया टालत भए बोले।
"इतई कितई? औ जे मूंड़ पे गमछा बांध रखो है, टुकनिया सोई लिए हो...का माटी खोदबे के लाने जा रए? मनो, अबे छबाई-लिपाई खों टेम सो आओ नइयां औ तुमने कुदाली भी नई रखी है...सांची-सांची बताओ के कहां जा रए?" मैंने सोई पीछा ने छोड़ी।
"अरे कहूं नईं, इतई हारे लों जा रए!" नोने भैया खों बतानई पड़ी।
"हारे? काए के लाने हारे जा रए? अबई सो बेर-मकोय खों सीजन नइयां, फेर तुम काए के लाने जा रए भुनसारे से?" मैंने पूछी।
"अरे, तुमाई भौजी सो ठेन कर रई कल्ल रातई से।""
"काए के लाने ठेन कर रईं?"
"अरे, बा ने जब से सुनी है के रसोई गैस के दाम पच्चीस रुपइया बढ़ गए, तभई से घरे रार मची है।" नोने भैया ने बताई।
"भौजी खों कौन ने बताई?" मैंने पूछी।
"हमई ने बताई, और कौन बताता? कल्ल रात हमने तुमाई भौजी से कह दई के गैस को उपयोग तनक सम्हर-सम्हर के करियो, काए से के गैस के दाम पच्चीस रुपए बढ़ गए हैं। हमने इत्ती कही के तुमाई भौजी सो बमक गईं। कहन लगीं के और कित्तो सम्हारें, जित्तो खाना बनने है, उत्तो तो बनहे ई। कहो तो खाना बनाना छोड़ दें । सो, हमने उनखों समझाई के परमेसरी, हमाओ मतलब जो न हतो। हमने तो खबर पढ़ी, सो तुमे सुना दई। ईपे बे बोलीं, सुनो अब इत्ती मैंहगी गैस में तो हमसे खाना ने पकाओ जेहे। सो, हमने पूछी के काए हम ओरन खों भूको मारबे को बिचार बना रईं का? सो, बे बोलीं, काए भूको मारहें हमाई तुम ओरन से कौनऊ दुस्मनी है का? अरे , हम तो जे कह रै के कल्ल भुनसारे उठ जइयो और हारे से चूल्हा में जलाबे जोग लकड़ियां ले आइयो।" नोने भैया ने बताई।
"मगर हारे में बे जंगल विभाग वारों ने लकड़ियां कान ने दईं, सो का कर हो?" मैंने पूछी।
 "हऔ, सो जेई तो हमने तुमाई भंजी से कही, परमेसरी बे जंगल विभाग वारे लकड़ियां ने काटन देहें। सो, बे बोलीं के हमने कब कही के तुमें लकड़ियां काट के लानी है? उते से बीन के लाइयो और एक टुकनियां संगे ले जइयो ताकि उते गोबर के कंडा-मंडा मिलें सो संगे बीन लाइयो। अब बिन्ना, हमें तुमाई भौजी खों हुकुम सो बजानेई है।" नोने भैया गहरी सांस लेत भए बोले।
"भैया, गलत नई कही भौजी ने। अब जेई तो करने पड़हे। गैस के दाम हर महीना पच्चीस-पच्चीस रुपइया बढ़हें, सो सबई जनन खों हारे जाने पड़हे। बाकी तुम तो जे सोचो भैया के हारे में तुमें सुद्ध हवा मिलहे। जोन से तुमाई सेहत अच्छी रैहे। तुम तो इको पच्चीस रुपइया मंहगे वारे अच्छे दिन मानो, रामधई!" मैंने नोने भैया खों समझाओ।
"हौ बिन्ना, सो संगे चलो तुम सोई।" नोने भैया हंसत भए बोले, "जे मंहगाई डायन जो न कराए सो कम है...।"
"गलत कै रए भैया, मंहगाई डायन नई, पच्चीस रुपइया मंहगे वारे अच्छे दिन!!!" मैंने नोने भैया खों याद दिलाओ और बे हंसत भए चल पड़े हारे लकड़ियां-कंडा बीनबे के लाने।
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Thursday, August 26, 2021

बुंदेली व्यंग्य | पैले बनीं, के पैले खुदीं | डॉ शरद सिंह | पत्रिका में प्रकाशित

मित्रो, 15 अगस्त 2021 को #पत्रिका समाचार पत्र में मेरा बुंदेली व्यंग्य "पैले बनीं, के पैले खुदीं " प्रकाशित हुआ था... आप भी पढ़ें...आंनद लें....
#Thank you #Patrika
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बुंदेली व्यंग्य    
पैले बनीं, के पैले खुदीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘काए, नोने भैया! आज का हो गओ, जो ऐसो मों लटकाए बैठे हो?’’ मैंने पूछी नोने भैया से। काए से के नोने भैया को मों तभई लटकत आए जबे उने कोनऊ गम्म खान लगत आए। 
‘‘कछु नईयां!’’ नोने भैया मरी-सी आवाज में बोले।
‘‘ये लेओ, अब अपनी जे बिन्ना से ने छिपाओ। तुमाए मों पे तुमाई चिन्ता की फिलम चल रई है, बाकी डिस्क तनक गड़बड़ आए सो साफ नई दिखा रओ के पर्दा पे का चल रओ आए।’’ मैंने कही। मोरी बात सुन के नोने भैया ने मुस्का दओ।
‘‘जे भई न बात! चलो अब बता भी देओ। जे कोनऊ जेम्सबांड की फिलम नइयां के अखीरी में पता चले के कतल कोन करो हतो।’’ मैंने तनक और पिंची-सी करी। सो, काम कर गई पिंची।
‘‘हऔ, जे तो शाहरुख की फिलम आए जीमें सुरुअई से सबई खों पता रैत है के कौन ने कतल करो।’’ नोने भैया बोले।
‘‘सो, अब बताओ के का भओ? मुतकी पहेलियां-सी ने बुझाओ।’’
‘‘हमें जे समझ में ने आ रई बिन्ना के हमाई सिटी स्मार्ट कब लौं बनहें?’’ नोने भैया कहत भए, फेर के चिन्ता में डूब गए। 
‘‘ऐं, सो तुम जे आ सोच रए हो? हमने तो सोची के कोनऊ गंभीर बात आए।’’ मोए बड़ो अचरज भओ।
‘‘काए, जे का गंभीर बात नइयां?’’
‘‘तुम काए चिन्ता कर रए? हो जे हे स्मार्ट। और होत्तो जा रई आए, तुमें दिखात नइयां का? बे उते सिविल लाईन के पांछू आई लव सागर लिखो है। सबरे उते जा के सेल्फी-सेल्फी खेलत हैं। तुमने तो सोई अपनी फोटू खिंचवाई हती उते’’ मैंने सुरता कराई।
‘‘हऔ, ओ बोई के पांछू वारी घास-पतूले की दीवार गिर गई हती, बा भुला गईं?’’ नोने भैया चिढ़ के बोले।
‘‘बे तो अपनी सिटी में मुतकी जांगे लगी हैं, कोऊ कहां-कहां लो सम्हारे? एकाध गिर गई सो फेर के खड़ी कर दई। अब ईमें मूंड़ खराब करबे की का बात है?’’ मैंने पूछी।
‘‘चलो घास-पतूला की छोड़ो, झील की बोलो?’’ 
‘‘का बोले?’’
‘‘झील तो ने सुधरी बाकी गिलावा मच गओ। हाय, कित्ती नोनी झील हती, अब का हो के रै गई। सुंगरा बी न लोटें अब तो उते।’’ नोने भैया बोले।
‘‘अब ऐसो बी ने कहो। सब ठीक हो जेहे।’’
‘‘तुमें का बताएं, बिन्ना! हमने अपने अनवरसिटी वारे दिनन में नाव पे सैर करी हती ऊ झील में, वो बी एक मोड़ी के संगे। हमाए साथ पढ़त्ती।’’ नोने भैया खयालन में डूबत भए बोले।
‘‘सो अब वो कहां गई? कहीं हमाई भौजी तो ने आए वो?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे, भली कहीं! कहां वो गोरी-चिट्टी पहाड़न औ कहां तुमाई भौजी, करिया-सी भंटा-सी।’’ नोने भैया ठंडी आह भरत बोले।
‘‘जो का कै रए भैया? भौजी के लाने कछू और कही तो सो हमसे चुप ने रई जेहे, उनके ऐंगर सबलो हाल सुना देबी।’’ हमें नोने भैया की लवस्टोरी ने पोसाई।
‘‘अरे, बा तो ऊंसई कै दई हमने। अब तो खबरई नईयां ऊकी। बाकी जे झील को नास कर दओ, सबने मिल के।’’ नोने भइया को सुर फेर के झील पे पोंच गओ।
‘‘अरे झील को छोड़ो भैया, तुमें सड़कें ने दिखा रईं का? उने देख के तो लगत आए के बे सिमेंट या डामल की नोईं, गिलावे की बनी आएं। जैसे बरफ वारी स्लेज गाड़ी चलत आए न, ऊंसई गिलावे वारी स्लेज गाड़ी मंगा लेओ चइए।’’ मोसे बी चुप ने रओ गओ। 
‘‘जे कही तुमने हमाए मन की बात, बिन्ना! जुग-जुग जियो! जे ई सब तो हम सोच रए के कां तो हमाई सिटी स्मार्ट बनबे जा रई हती और कां अब गिलावा सिटी बन के रै गई आए। जो का हो रओ?’’ नोने भैया चहक के बोले। उने मोरो समर्थन जो मिल गओ।
‘‘गम्म खाओ भैया! एक दिना हमाई सिटी सोई बन जेहे स्मार्ट। अभई तो हमाई सड़कें हड्डियन के डाक्टर की फ्रेंडली आएं।’’ 
‘‘हऔ, भली कही! ऊंसई हमाए इते अंडा-मुर्गी को खेल चलत रैत आए। पैले सड़क बनत है, फेर टेलीफोन वारे, मोबाईल वारे, पाईप वारे, नाली वारे, जे वारे-बे वारे, सबरे वारे जमीन खोदत की मशीन ले के सड़कई खोद देत आएं। फेर पाईप, नाली, तार को काम हो जात आए तो फेर के सड़क बनत है। ओ, सड़क बन के तैयार ने हो पाए के फेर के कोनऊ ने कोनऊ सड़क खोदबे के लाने दनदनानत भओ आ जात है। जेई समझ में न आ पात है के पैले सड़क बनी, के पैले सड़क खुदी? रामधई, सोच-सोच के मूंड़ पिरान लगत आए।’’ नोने भैया अपनो मूंड़ पकड़त भए बोले।
‘‘येल्लो, अब सोच-सोच के तुमई पिछड़ रए? अरे भैया, स्मार्ट बनने है तो सोच-फिकर छोड़ो। तुम सोई अपने घरे घास-पतूला लगाओ, ऊमें पानी डारो और खुस हो जाओ। स्मार्ट सिटी के लाने सोचबे खों हमाए नेता औ अधिकारी तो हैं, तुम ने फिकर करो! जे ऊंसई बरसात को सीजन आए, सो भुंटा खाओ औ खुस हो जाओ!’’
‘‘हऔ, बिन्ना! जे सही कही। अबई हम तुमाई भौजी से भुंटा भूंजबे के लाने कहत हैं, मनो पैले भुंटा लाने पड़हे।’’ नोने भैया ने भुंटा की सुनी सो स्मार्ट सिटी की भूल गए। और गिलावा में फिसलत भए चल पड़े भुंटा लाने। हम सबई तो हमाए नोने भैया घांई आएं के भुंटा याद आ गओ तो पिराबलम भूल गए। अब कहां की झील, कहां की सड़कें, कहां के गढ़ा और कहां को गिलाबो! सो भैया, सबई जने भुंटा खाओ औ खुस हो जाओ!     
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Monday, March 15, 2021

पेंटिंग्स वर्कशॉप | विज्ञान में रंग | डॉ शरद सिंह

प्रिय ब्लॉग साथियों,  पेंटिंग्स का मुझे बहुत शौक़ है। मेरा एक पेंटिंग्स ब्लॉग भी है-  
और फेसबुक पेज भी...
यह सच है कि लेखन और सामाजिक संपर्क कार्यों के कारण यह शौक़ ज़रा पीछे रह गया है। फिर भी जब भी किसी पेंटिंग एक्जीबिशन या वर्कशॉप में जाने का अवसर मिलता है मैं ज़रूर जाती हूं।
         मेरी और मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह का बचपन से ही पेंटिंग में रुचि रही है। बचपन में हम दोनों ऑक्साईड कलर और पेस्टल कलर्स से काग़ज़ पर पेंटिंग किया करती थीं। फिर काग़ज़ के अलावा कैनवास, कांच, लकड़ी और कपड़े पर भी पेंटिंग्स की। लोक और समकालीन दोनों विधाएं पसंद हैं। 
     अभी हाल ही में शहर के 'रंग के साथी' ग्रुप के असरार अहमद और अंशिता वर्मा ने एक पेंटिंग वर्कशॉप किया जिसकी थीम थी 'विज्ञान में रंग'। हम दोनों बहनों ने वर्कशॉप देखा। वर्षा दीदी ने पेंटिंग्स की कला समीक्षा भी की जो 'आचरण' समाचारपत्र में प्रकाशित हुई है।
#आचरण #चित्रकला #वर्कशॉप #रंग_के_साथी #कार्यशाला #पेंटिंग #पोट्रेट्स

Monday, December 28, 2020

चिंतन की सीमाओं को मिला विस्तार | डॉ शरद सिंह | दैनिक जागरण | पुनर्नवा | सप्तरंग

प्रिय मित्रो, आज दैनिक जागरण एवं नई दुनिया में सप्तरंग के अंतर्गत 'पुनर्नवा' में (सभी संस्करणों में) प्रकाशित विशेष फीचर में पढ़िए मेरे विचार ...
https://epaper.jagran.com/mepaper/28-Dec-2020-64-Kanpur-edition-Kanpur-page-12.html
हार्दिक आभार #दैनिकजागरण #नईदुनिया #नवदुनिया🙏
दिनांक 28.12.2020

#dainikjagran
#naidunia
#navdunia

Friday, December 11, 2020

लेख | आंचलिक पत्रकारिता, महिलाएं और हैशटैग मी टू | डॉ शरद सिंह | अक्षरालोक के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित

मेरा लेख "आंचलिक पत्रकारिता, महिलाएं और हैशटैग मी टू" शामिल है फर्रुखाबाद (उप्र) की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था अभिव्यंजना द्वारा प्रकाशित अक्षरालोक पत्रिका का "हिंदी पत्रकारिता विशेषांक" में ...  जिसके लिए पत्रिका के प्रधान संपादक भाई भूपेन्द्र प्रताप सिंह का हार्दिक आभार 🙏🌹🙏

बहुत महत्वपूर्ण कलेवर और सुंदर मुद्रण ने इस विशेषांक को पठनीय और संग्रहणीय बना दिया है। अभिव्यंजना परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 🙏💐🙏

यह पूरा लेख आप पढ़ सकते हैं मेरे इसी ब्लॉग "शरदाक्षरा" पर - http://sharadakshara.blogspot.com/2020/12/blog-post_6.html?m=1


Wednesday, October 14, 2020

साहित्य का महासागर बनता जा रहा सागर - डॉ शरद सिंह, दैनिक भास्कर में प्रकाशित

दैनिक भास्कर की 14वीं वर्षगांठ पर 60 पृष्ठीय विशेषांक मास्ट हेड 'बुंदेलखंड भास्कर' के अंतर्गत मेरा लेख " साहित्य का महासागर बनता जा रहा सागर" आज दि. 14.10.2020 को प्रकाशित हुआ है।
हार्दिक आभार दैनिक भास्कर 🙏
लेख : 
साहित्य का महासागर बनता जा रहा है सागर
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

      किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक एवं जातीय पहचान उस क्षेत्र के साहित्य एवं साहित्यिक गतिविधियों से होती है। साहित्य में क्षेत्रविशेष के संस्कार, परम्परा एवं नवाचार का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ जोड़ कर चलना साहित्य में ही संभव है। सागर साहित्य एवं संस्कृति जगत् में अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए देश में ही नहीं वरन् विदेशों में भी विख्यात है। यहां के साहित्यकारों की रचनाएं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधसंदर्भ के रूप में पढ़ी जाती हैं तथा उन पर शोध कार्य भी किया जाता है। वस्तुतः सागर की भूमि साहित्य सृजन के लिए सदा से उर्वरा रही है। यदि अतीत के पन्ने पलटे जाएं तो एक से बढ़ कर एक कालजयी कवि और उनकी रचनाएं दिखाई देती हैं। जिनमें सर्वप्रथम कवि पद्माकर (सन् 1753-1833) का नाम लिया जाना उचित होगा। सागर झील के तट पर स्थित चकराघाट पर स्थापित कवि पद्माकर की प्रतिमा आज भी सागर के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्त्रोत का कार्य कर रही है। पद्माकर रचित ग्रंथों में पद्माभरण, जगद्विनोद, गंगालहरी, प्रबोध पचासा, ईश्वर पचीसी, यमुनालहरी आदि प्रमुख हैं। प्रतिवर्ष होली पर सागर का साहित्यवृंद सुबह-सवेरे सबसे पहले चकराघाट पहुंच कर कवि पद्माकर की प्रतिमा को नमन करता है, उन्हें गुलाल लगाता है और इसके बाद ही होली खेलने तथा होली पर केन्द्रित रचनापाठ का क्रम शुरू होता है। कवि पद्माकर के अनुप्रास अलंकार की बहुलता वाले कवित्त छंद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनका यह लोकप्रिय कवित्त देखें -
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई  भीतर गोरी 
भाय करी मन की पदमाकर,  ऊपर  नाय अबीर की झोरी 
छीन पितंबर कंमर तें,  सु बिदा  दई  मोड़ि कपोलन रोरी 
नैन नचाई, कह्यौ मुसकाई, लला! फिर खेलन आइयो होरी

सागर के साहित्य कोे समय के साथ चलना बखूबी आता है। यहां के साहित्यकारों ने उत्सव के समय उत्सवधर्मिता को अंगीकार किया तो वे स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वतंत्रता के पक्ष में स्वर बुलंद करने में आगे रहे। 14 मार्च 1908 को नरसिंहपुर जिले के करेली में जन्मे पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी अपनी बाल्यावस्था से ही सागर आ गए थे और जीवनपर्यन्त सागर में रहते हुए उन्होंने साहित्य सृजन किया। उनकी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं- 
जनम जनम के हैं हम बागी, 
लिखी बगावत भाग्य हमारे
जेलों मे है कटी जवानी, 
ऐसे ही कुछ पड़े सितारे

पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी के समय रामसिंह चैहान बेधड़क, शंकरलाल तिवारी ‘बेढब सागरी’, पं. लक्ष्मी प्रसाद मिश्र ‘कवि हृदय’ साहित्य सृजन कर रहे थे। हिन्दी, उर्दू और बुंदेली में साहित्य सृजन करते हुए इस यात्रा को आगे बढ़ाया इकराम सागरी, लक्ष्मण सिंह निर्मम, जहूर बख़्श, दीनदयाल बालार्क, जयनारायण दुबे, पं. लोकनाथ सिलाकारी, नेमिचन्द ‘विनम्र’, विठ्ठल भाई पटेल, रमेशदत्त दुबे, माधव शुक्ल मनोज, शिवकुमार श्रीवास्तव, अखलाक सागरी आदि ने। साथ ही पन्नालाल साहित्याचार्य ने दार्शनिकतापूर्ण साहित्य का सृजन किया।
 
अपने मौलिक सृजन से साहित्यजगत को उल्लेखनीय रचनाएं एवं कृतियां देने वाले सागर के साहित्यकारों में से कुछ प्रमुख नाम हैं- महेन्द्र फुसकेले, डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. गोविंद द्विवेदी, प्रो कांति कुमार जैन, लक्ष्मी नारायण चैरसिया, डाॅ. सुरेश आचार्य, कपूरचंद बैसाखिया, दिनकर राव दिनकर, यार मोहम्मद यार, निर्मलचंद ‘निर्मल’, हरगोविंद विश्व, डाॅ. गजाधर सागर, मणिकांत चैबे ‘बेलिहाज़’, डाॅ. वर्षा सिंह, डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, वृंदावन राय ‘सरल’, अशोक मिजाज़ बद्र, टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’, डाॅ. महेश तिवारी, डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, डाॅ. सरोज गुप्ता, डाॅ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, वीरेन्द्र प्रधान, डाॅ. वंदना गुप्ता, सतीश पांडे आदि। इनमें से प्रो कांति कुमार जैन, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. सुरेश आचार्य, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, अशोक मिजाज़ बद्र का सागर का नाम देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान है। 

प्रादेशिक स्तर की साहित्यिक संस्थाओं की सागर इकाईयां भी वर्तमान में डिज़िटल माध्यमों को अपनाते हुए आॅनलाईन आयोजनों में संलग्न हैं। अध्यक्ष आशीष ज्योतिषी एवं सचिव पुष्पेन्द्र दुबे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई के तत्वावधान में साप्ताहिक गोष्ठियों का आयोजन करते रहते हैं। इसी प्रकार अध्यक्षद्वय टीकाराम त्रिपाठी रुद्र एवं सतीश पांडे द्वारा मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की सागर एवं मकरोनिया इकाईयों के अंतर्गत् आॅनलाईन काव्यपाठ एवं परिचर्चा का आयोजन कराया जाता है। मध्यप्रदेश हिन्दी लेखिका संघ की सागर इकाई की अध्यक्ष सुनीला सराफ द्वारा काव्य गोष्ठी, परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष कोरोना आपदा के कारण सागर इकाई की स्मारिका ‘अन्वेषिका’ का वितरण संभव नहीं हो से ई-पत्रिका  प्रकाशित की। 

 नवाचार को अपनाकर अडिग रहना साहित्यकारों एवं साहित्यसेवियों की विशेषता होती है। इस विशेषता को चरितार्थ करते हुए सागर का साहित्यकार समाज, साहित्य की मशाल को अपनी लेखनी के जरिए उठाए हुए निरंतर आगे बढ़ रहा है और अपने साहित्य के प्रकाश से समाज का पथ-प्रदर्शक बना हुआ है। इसमें दो मत नहीं कि सागर सही अर्थों में साहित्य का महासागर बनता जा रहा है। 
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