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Tuesday, April 22, 2025

पुस्तक समीक्षा | प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी ग़ज़लों का पठनीय संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 22.04.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
       प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी ग़ज़लों का पठनीय संग्रह
     - समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
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ग़ज़ल संग्रह - हवा में आग
कवि       - अमन मुसाफ़िर
प्रकाशक - नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्य सोसायटी, प्लाट-91आई.पी. एक्सटेंशन, दिल्ली-92
मूल्य    - 200/-
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ग़ज़ल काव्य की एक ऐसी विधा है जो कहन में जितनी कठिन है, आकर्षण में उतनी ही अधिक लोकप्रिय है। ग़ज़ल के लिए कहा जाता है कि यह ‘कही जाती है’, लिखी नहीं जाती। अर्थात् ग़ज़ल संवेदनाओं से जन्म ले कर मानस में अवस्थित हो कर शब्दों में ढलती है और वाक्-ध्वनि के रूप में अथवा गान में ढल कर तुरंत अभिव्यक्त हो जाती है। यूं भी चाहे गद्य हो या पद्य, किसी भी विधा को साधना समय, श्रम और समर्पण की मांग करता है। निरंतर श्रम से ही विधा की प्रस्तुति में परिपक्वता आती है। युवा कवि अमन मुसाफिर के ग़ज़ल संग्रह ‘‘हवा में आग’’ की ग़ज़लें परिपक्वता की सीमा में दस्तक देती ग़ज़लों का संग्रह है। 
20 जुलाई 1999 को बहरोली, बरेली, उत्तरप्रदेश जन्मे अमन मुसाफिर किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्व विद्यालय से भौतिकी में बी.एससी (ऑनर्स), एम.ए. हिन्दी (इग्नू)य डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (अंग्रेजी-हिंदी) हैं तथा फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में भी सक्रिय रहते हैं। “हवा में आग” अमन मुसाफिर का यह पहला ग़ज़ल संग्रह है।

अमन मुसाफिर की ग़ज़लों में नूतन अनुभवजन्य एक ताज़गी है, जीवन के यथार्थ की बारीकियां हैं, बदलते युग के प्रतिमान एवं विसंगतियां हैं साथ ही रूमानियत की सुकोमल अभिव्यक्ति भी है। उन्होंने छोटी और बड़ी दोनों बहर की ग़ज़लें लिखी हैं। उनकी छोटी बहर की ग़ज़लों में शिल्प की कसावट के साथ शब्दों की सटीकता भी है। युवा ग़ज़लकार अमन मुसाफिर के इस प्रथम ग़ज़ल संग्रह में कुल 104 ग़ज़लें हैं। अमन की ये ग़ज़लें प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी हो उठती हैं। इन ग़ज़लों में समकालीन यथार्थ को गहराई से आत्मसात कर उसके आशय को शाब्दिक कैनवास पर खूबसूरती से चित्रित किया है। जैसे यह बानगी देखिए- 
जाने किसने आग लगायी पानी में 
हमने  पूरी  रात  बितायी पानी में
सबने अपने  सपने  देखे और हमें 
इक चेहरा बस दिया दिखाई पानी में
डूब समंदर के अंदर मुझ प्यासे ने 
पानी की  तस्वीर  बनायी पानी में

अपने इर्दगिर्द के परिवेश से उपजी चुनौतियां कलमकार को जहां एक ओर अव्यवस्थाओं के विरुद्ध उठ खड़े होने को प्रेरित करती हैं, तो वहीं दूसरी ओर प्रेम के वैविध्य पूर्ण उद्गार उनके सृजन को एक विशेष रोचकता प्रदान करते हैं। अमन ने अपने संग्रह के आरंभिक पृष्ठ में ही लिखा है-‘‘मैं वह किताब हूँ जीवन की जिसकी कोई भूमिका नहीं।’’ जीवन का पाठ पढ़ते हुए, अनुभवों से सीखते हुए और व्यष्टि से समष्टि को ओर उन्मुख होते हुए अमन मुसाफिर ग़ज़ल की दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं। वे इस तथ्य को महसूस कर रहे हैं कि वर्तमान समाज में किस तरह संवेदनहीनता अपने पांव पसारती जा रही है। इसी से वे द्रवित हो कर यह ग़ज़ल कहते हैं-
यहां हर आदमी सबसे यही कहता है होने दो 
किसी के साथ गर जो हादसा होता है होने दो
यहाँ सब लोग सोये हैं अकेला मैं नहीं सोया 
शहर सारा अगर बारूद पर सोता है होने दो
किसी के देखकर आँसू तुम्हें रोना न पड़ जाये 
तुम्हें क्या वो किसी भी बात पर रोता है होने दो
अमन मुसाफिर उन सारे बिन्दुओं पर भी दृष्टिपात करते हैं जिनके कारण संवेदनाओं क्षरण हुआ है और व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो गया है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण रोज़मर्रा के जीवन में देखने को मिल जाता है कि किसी भी कार्यक्रम के दौरान कुछ लोग ऐसे होते हैं जो वक्ता या कवि को सुनने के बजाए अपने मोबाईल में ऐसे व्यस्त रहते हैं मानो उनके मोबाईल न देखने से शेयर मार्केट धराशयी हो जाएगा और आर्थिक तबाही छा जाएगी। दमसरों की बातों को न सुनने की इस आदत को अपनी एक ग़ज़ल में समेटते हुए अमन मुसाफिर ने बड़ा सुंदर कटाक्ष किया है-
घर में लोगों को बिठाना बंद कर दो 
सबसे रिश्तों को निभाना बंद कर दो
या तो गंगा साफ कर दो इक तरफ से 
या तो  गंगा में  नहाना  बंद कर दो
सीरियस हो जाओ सुन लो बात मेरी 
फोन को अब तुम चलाना बंद कर दो

संग्रह में पर्यावरण एवं स्त्री के अस्तित्व के प्रति चिन्ता प्रकट करती ग़ज़लें भी हैं। जंगलों को बेतहाशा काटे जाने की व्यथा के साथ ही अमन प्रकृति की महत्ता का भी स्मरण कराते हैं कि यदि अभी भी बचे हुए जंगलों को यथास्थित छोड़ दिया जाए तो वे कटे-लुटे जंगल कुछ ही सालों में स्वयं को व्यवस्थित करने की क्षमता रखते हैं।
गये कहाँ वह सारे जंगल 
कल के प्यारे-प्यारे जंगल
छोड़ धरो दस बीस साल को 
खुद को आप निखारे जंगल
गहन चोटियों-चट्टानों उन 
झरनों के  वे  धारे जंगल

जहां तक स्त्री के अस्तित्व का प्रश्न है तो मां के गर्भ में आते ही कन्या भ्रूण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाया करता था। वह तो लिंग जांच पर कड़ी पाबंदी लगा दिए जाने से स्थिति सुधरी, अन्यथा पुरुष और स्त्री की संख्या का आनुपातिक अंतर तेजी से बढ़ता जा रहा था। बावज़ूद इसके दुभाग्य है कि कन्या के जन्म के पहले से ही उसकी नियति समाज और परिवार द्वारा प्रायः निर्धारित कर दी जाती है। इस बात को गहन मार्मिकता के साथ अमन मुसाफिर ने कहा है-
घर का काम करेगी रेखा 
सबका पेट भरेगी रेखा
जो भी उसका दुख समझेगा 
उसकी बात सुनेगी रेखा
उसकी कोख की जाँच हुई है 
जिंदा नहीं बचेगी रेखा

अमन मुसाफिर के प्रेम की ग़ज़लों की खूबसूरती प्रशंसनीय है। देखा जाए तो संग्रह की अधिकांश ग़ज़लों का मूल स्वर प्रेम ही है जो कोमल भावनाओं का सूक्ष्मता से प्रतिपादन करता है। चाहे संयोग श्रृंगार की बात हो या वियोग का संदर्भ दोनों में समान रूप से बेहतरीन ग़ज़ल कही है। उदाहरणार्थ संयोग श्रृंगार की एक बानगी जिसमें गरिमा भी है और लालित्य भी- 
छुअन को फिर छिपाकर अनछुए हो लोगे, क्या होगा?
विकल  हो  वासना को  प्यार से  तोलोगे, क्या होगा?
किसी की   याद  में  खोकर, किसी  के  सिर से जो
घूँघट, कड़े, कंगन, खनकती पायलें, खोलोगे, क्या होगा?
वहीं, वियोग की स्थिति को कुछ इस नास्टैल्जिक अंदाज़ में बयान किया है-
मिटाता ही रहा खुद को रुलाता ही रहा खुद को 
जलाकर ख़त मुहब्बत के बुझाता ही रहा खुद को
चलाकर फोन में शब भर कहीं जगजीत की गजलें 
लगाकर कश मैं सिगरेट के जलाता ही रहा खुद को
हुआ जो कत्ल ख़्वाबों का बहा आँसू का जो दरिया 
तो फिर नमकीन पानी में डुबाता ही रहा खुद को

यूं तो अमन में ग़ज़ल कहने की कला है फिर भी कहीं-कहीं वे अपने ही शब्दों और भावनाओं में उलझ गए हैं। जैसे एक उदाहरण यहां रखा जा सकता है कि नवीन प्रयोग के उत्साह में पड़ कर ‘रैदास’ के साथ ‘राग’ के औचित्य का तारतम्य नहीं बिठा पाए हैं। इस अतिउत्साह से उन्हें बचना होगा-
ईंधन जुटा लिया  गया है आग के लिए 
घर में नमक बचा नहीं है साग के लिए
मीरा के पास कृष्ण तो आयेंगे ही जरूर 
रैदास को  बुलाओ  किसी राग के लिए

वैसे इसमें कोई दो मत नहीं कि संग्रह की अमूमन ग़ज़लें बेहतरीन हैं और पूरा संग्रह पठनीय है। यदि वे अपनी ग़ज़लों के साथ इसी तरह गंभीरता से चलते रहे तो अमन मुसाफिर की यह रचनात्मक यात्रा उन्हें परिपक्वता और सफलता के मार्ग पर बहुत दूर तक ले जाएगी।     
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Friday, July 26, 2024

शून्यकाल | प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम "शून्यकाल"-                                                                      प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
        प्रेम बड़ा ही कौतूहल भरा और गुदगुदाने वाला शब्द है। यह शब्द अपने आप में  रहस्यमय लगता है। आज के भौतिकवादी वैश्विक समय में परस्पर संपर्क को भले ही विस्तार मिला है, लेकिन प्रेम संकुचित और भौतिकता से ग्रसित हो गया है। ‘पैंचअप” और “ब्रेकअप” के चलन में आज प्रेम को दैहिक वस्तु मान लिया जाता है। जबकि वास्तविक प्रेम में देह आवश्यक नहीं है। अपने प्रिय को अपनी "संपत्ति" समझना भी एक बड़ी भूल है। यदि भावना में “व्यक्ति” को “संपत्ति” बना लेने की आकांक्षा है तो फिर वह प्रेम हो ही नहीं सकता है। वह मात्र एक लिप्सा है, वासना है तथा एक मनोविकार है जिसके प्रभाव में वह व्यक्ति रहता है। यदि प्रेम को समझना है तो श्रीकृष्ण के महारास को समझना जरूरी है। क्योंकि प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में।
कुछ वर्ष पूर्व कानपुर में एक हृदय विदारक घटना घटी थी जिसमें एक कथित युवा प्रेमी ने कॉलेज में पढ़ने वाली एक युवती को चाकू मार कर मौत के घाट उतार दिया था। वह भी सिर्फ इसलिए कि उस युवती ने उस युवक का प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। युवक पकड़ा गया। उस पर इरादतन हत्या का अपराध दर्ज हुआ। उसने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने यही कहा कि वह उस युवती से बेइंतहा प्रेम करता था। न्यायाधीश भी चकित रह गए कि यह किस तरह का प्रेम था? क्या कोई प्रेमी उस युवती को किसी भी तरह से चोट पहुंचा सकता है जिससे वह प्रेम करता हो? सच्चा प्रेम हर हाल में अपने प्रिय की सलामती चाहता है उसकी खुशी चाहता है उसके हर निर्णय को स्वीकार करता है। वस्तुतः वह युवक प्रेम में नहीं था,  सिर्फ एक आकर्षण और अधिकार की भावना उसे पर हावी थी। वह युवती पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था। ऐसा अधिकार जिसमें वह युवती किसी अन्य से बात न करें, किसी अन्य से न मिले, किसी अन्य की ओर न देखें। सिर्फ उस युवक की ‘संपत्ति’ बन कर रहे। यदि भावना में ‘‘व्यक्ति’’ को ‘‘संपत्ति’’ बना लेने की आकांक्षा है तो फिर वह प्रेम हो ही नहीं सकता है। वह मात्र एक लिप्सा है, वासना है तथा एक मनोविकार है जिसके प्रभाव में वह व्यक्ति रहता है। जब यह प्रभाव व्यक्ति को पूरी तरह से अपने जाल में जकड़ लेता है तो फिर उस व्यक्ति की उचित, अनुचित में भेद करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। अमानवीय और  क्रूरतापूर्ण उठाया गया अपना हर कदम उसे सही लगता है। यही सच था उस युवा का, जो अपनी आपराधिक मनोवृत्ति को प्रेम समझने की भूल कर रहा था। ऐसा व्यक्ति किसी से भी प्रेम नहीं कर सकता है न अपने माता-पिता से, न अपने परिजन से और न किसी अन्य व्यक्ति से। उसके द्वारा ईश्वर से प्रेम किए जाने का तो सवाल ही नहीं उठाता है क्योंकि ईश्वर तो दिखाई ही नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता उस पर वह अधिकार कैसे जमा सकता है? जहां अधिकार की भावना हो वहां प्रेम नहीं होता है।
प्रेम विश्वास समर्पण और समानता की भावना से भरा होता है। वास्तविक प्रेम में कुछ पाने की नहीं बल्कि देने की भावना प्रबल होती है। सूफी संत कवि लुत्फी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के  मैं  मोम की बाती हूं।
यक पांव पर  खड़ी हूं  जलने पिरत पाती हूं।।
सब निस  घड़ी जलूंगी,  जागा सूं न हिलूंगी,
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।।

यदि समर्पण स्वेच्छा से हो, तभी उसमें प्रेम की उपस्थिति होती है, अन्यथा समर्पण तो एक आक्रमणकर्ता शस्त्रबल से भी करा लेता है। सच्चे प्रेम की सबसे सटीक व्याख्या श्रीकृष्ण के महारास में मौजूद है। जिसने महारास का मर्म समझ लिया, वह प्रेम के मर्म को गहराई से समझ सकता है। श्रीमद्भागवत के दसवें भाग के 29वें अध्याय के प्रथम श्लोक में लिखा है- ‘‘भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमिलका।’’ भावार्थ है कि इस मधुर रासलीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है, जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है। 

श्रीकृष्ण द्वारा महारास रचाए जाने की कथा भी अत्यंत रोचक है। कथा इस प्रकार है कि कामदेव ने जब भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया तो वह घमंड से भर उठा। कामदेव ने श्रीकृष्ण को चुनौती देते हुए कहा कि ‘‘मैं आपसे भी प्रतिस्पर्द्धा  करना चाहता हूं।’’
श्रीकृष्ण ने चुनौती स्वीकार कर ली लेकिन कामदेव ने इस प्रतिस्पर्द्धा के लिए कृष्ण के सामने एक शर्त भी रखी कि ‘‘इसके लिए आपको अश्विन मास की पूर्णिमा को वृंदावन के रमणीय जंगलों में स्वर्ग की अप्सराओं-सी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा और एक ही समय में सभी गोपिकाओं के साथ महारास करना होगा।’’

श्रीकृष्ण ने शर्त मान ली। शरद पूर्णिमा की रात को श्रीकृष्ण ने निधिवन में पहुंच कर अपनी बांसुरी बजाई। निधिवन मथुरा के निकट स्थित है। यह मान्यता है कि आज भी श्रीकृष्ण राधा एवं गोपियों के साथ दिव्य रासलीला रचाने आते हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि निधिवन को परम कृष्णभक्त स्वामी हरिदास ने बसाया था। निधिवन मंदिर में राधा कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और एक रंग महल है जो जंगल से घिरा हुआ है। इस रंग महल में रास लीला खत्म होने के बाद भगवान कृष्ण और राधा रानी विश्राम करते हैं। रंग महल एक छोटा सा मंदिर है जहां माना जाता है कि श्रीकृष्ण राधा को अपने हाथों से सजाते हैं। मंदिर में उनके विश्राम के लिए बिस्तर भी है। रंग महल मंदिर के पुजारी हर रात आरती के बाद इसके दरवाजे बंद करने से पहले नीम की दातुन, एक साड़ी, चूड़ियां, पान के पत्ते, मिठाई और पानी रखते हैं। माना जाता है कि रात में राधा-कृष्ण यहां आते हैं और आराम करते हैं। इस कारण सुबह सब कुछ बिखरा हुआ पाया जाता है जैसे कि किसी ने उनका उपयोग किया हो।

कामदेव की चुनौती स्वीकार करते हुए श्री कृष्ण ने निधिवन में पहुंच कर ‘‘क्लीं बीजमंत्र’’ फूंकते हुए  32 राग, 64 रागिनियां बजाईं। श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि सुनकर राधा एवं गोपियां अपने-अपने घरों से निकलकर मंत्रमुग्ध-सी निधिवन पहुंच गईं। सभी गोपियां चाहती थीं कि जिस तरह कृष्ण राधा के साथ नृत्य कर रहे हैं, उनके साथ भी नृत्य करें। वस्तुतः यही चुनौती कामदेव ने रखी थी। कामदेव को लगा था कि कृष्ण का राधा एवं गोपियों के साथ महारास नहीं हो सकेगा। कामदेव दैहिक और मानसिक प्रेम में अंतर नहीं समझ सका था। जब व्यक्ति किसी के प्रेम में इस तरह डूब जाता है कि उसे उसके न होने पर भी उसके होने का अहसास होने लगे तो वह स्थिति मानसिक प्रेम एवं अलौकिक प्रेम की चरम स्थिति होती है। ठीक यही स्थिति निर्मित हुई थी महारास के समय जब प्रत्येक गोपियों को यह प्रतीत हुआ कि कृष्ण उनके साथ नृत्य कर रहे हैं। कामदेव यह देख कर हतप्रभ रह गया। स्वर्ग में स्थित देवता भी महारास को देख कर नृत्य कर उठे।
यूं भी जब हम ईश्वर के किसी रूप की भक्ति करते हैं तो यह जानते हैं कि वह रूप सभी को प्रिय है, किन्तु साथ ही यह मानते हैं कि उस रूप की हम पर विशेष कृपा है क्योंकि हम उसे अपना मानते हैं। यह अलौकिक भावना जैसे ही लौकिक विचार के धरातल पर पहुंचती है, प्रेम को समझना ही बंद कर देती है क्योंकि वहां व्यक्ति नहीं ‘संपत्ति’ की भावना प्रभावी हो जाती है। जबकि श्रीकृष्ण का महारास यही तो समझाता है कि यदि प्रेम सच्चा है तो तमाम सांसारिकता के बाद भी दो प्रेमियों के बीच तीसरा नहीं आ सकता है। रसखान कहते हैं कि -
अकथ कहानी प्रेम की जानत लैली खूब।
दो तनहुं जहं एक भे मन मिलाई महबूब।।
- प्रेम की अकथ है, कहानी को व्यक्त नहीं किया जा सकता है इस कहानी में आत्मा एवं परमात्मा अथवा दो आत्माओं का परस्पर मिलन ही दैहिक मिलन का संकेत होता है

विद्वानों ने महारास या रासलीला के अनेक अर्थ किए हैं। जैसे, गोपियां वेद की ऋचाएं हैं और श्रीकृष्ण अक्षर ब्रह्म वेद पुरुष। जिस प्रकार शब्द और अर्थ का नित्य संबंध है, ऋषियों और वेद का नित्य संबंध हैं, इसी प्रकार गोपियों और कृष्ण का नित्य संबंध और विहार ही रासलीला है। सांख्यवादियों के अनुसार, रासलीला प्रकृति के साथ पुरुष का विलास है। गोपियां प्रकृति स्वरूप में अंतःकरण की वृत्तियां हैं, भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं। प्रकृति के अनेक विलास देख लेने के बाद अपने स्वरूप में स्थित होना रासलीला का रहस्य है। योग शास्त्र के अनुसार, अनहद नाद भगवान श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि है। अनेक नाड़ियां गोपियां हैं। कुल कुंडलिनी श्रीराधिका रानी हैं। सहस्र दल कमल ही सुरम्य वृंदावन है, जहां आत्मा-परमात्मा का आनंदमय सम्मिलन रासलीला है।

श्रीकृष्ण का महारास यही तो समझाता है कि प्रेम में दैहिक अधिकार से कहीं अधिक महत्व है मानसिक अधिकार का। जिसको बहुत ही सरल और आम बोलचाल की भाषा में कहते हैं ‘‘दिल जीतना’’। वास्तविक प्रेम देह से नहीं मन और आत्मा से हो कर गुज़रता है। आज के बाजारवादी समय में प्रेम के अस्तित्व को भी ‘‘बाज़ारू बनाने’’ की भूल की जाने लगी है, जिससे ‘ब्रेकअप’ और उसके बाद ‘डिप्रेशन’ आम बात हो चली है। प्रेम छोटे-छोटी बातों में, दूसरों के बहकावे में टूट जाए तो वह प्रेम नहीं है। इसीलिए सतसई परंपरा के नीति कवि दयाराम कहते हैं-
मो उर में निज प्रेम अस, परिदृढ़ अचलित देहू। 
जैसे लोटन-दीप सों, सरक न ढुरक सनेहु।।
       - अर्थात् हे श्रीकृष्ण! जैसे लौटन दीपक से उलटा करने पर भी उसका तेल नहीं गिरता, उसी तरह विपरीत परिस्थितियों एवं प्रलोभनों में भी आपके प्रति मेरा प्रेम सदैव एक-सा बना रहे। ऐसा एकनिष्ठ प्रेम आप मेरे हृदय में दीजिए।   
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Friday, July 12, 2024

शून्यकाल | प्रेम का सबसे अद्भुत रूप है “सखी भाव” | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम -                     शून्यकाल
 प्रेम का सबसे अद्भुत रूप है “सखीभाव”
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                       
       गूंगे के गुड़ के समान होता है प्रेम। जिसका स्वाद तो लिया जा सकता है किंतु उसके आनंद का बखान नहीं किया सकता। यह एक ऐसी अनुभूति है जो दूसरे के प्रति संवेदना जगाती है। दूसरे के प्रति समर्पण जगाती है। भारतीय परम्परा में यह सदा माना गया है कि प्रेम के द्वारा ईश्वर को भी पाया जा सकता है। संतों, मनीषियों और विद्वानों ने प्रेम के विविध मार्ग बताए हैं। श्रीकृष्ण तो प्रेम के प्रतीक रहे हैं जिन्होंने रास के द्वारा सात्विक प्रेम का मानसिक मार्ग प्रशस्त किया। कृष्ण भक्ति मार्ग में ‘सखी भाव’ प्रेम का सबसे अद्भुत स्वरूप है।
‘‘जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी।’’ 
-यही भाव होते हैं अपने प्रिय को मनाने के, जब प्रिय और कोई नहीं, स्वयं श्रीकृष्ण अर्थात ईश्वर हो। कई सम्प्रदायों में ईश्वर को परमात्मा अर्थात पुरुष और मनुष्य को आत्मा अर्थात स्त्री माना जाता है। ऐसे सम्प्रदाय के संत एवं भक्त जब भक्ति की पराकाष्ठा में पहुंच जाते हैं तो वे स्त्री का वेश धारण कर लेते हैं तथा स्त्रियों की भांति जीवन जीते हुए अपने प्रिय ईश्वर को मनाने, रिझाने का यत्न करते हैं। यह ‘सखी भाव’ कहलाता है अर्थात स्वयं को गोपी अथवा कृष्ण की सखी मान कर कृष्ण को अपना प्रियतम मानना। 
सखी भाव प्रेम का सबसे अद्भुत स्वरूप है। एक समूचा सम्प्रदाय ही सखी भाव को समर्पित है, जिसका नाम है सखी सम्प्रदाय। यह निम्बार्क मत की शाखा है। वस्तुतः वैष्णवों के प्रमुख चार सम्प्रदाय है जिनमे सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है द्वैताद्वैत सम्प्रदाय हैं इस सम्प्रदाय के बारे में मान्यता है कि इसे भगवान विष्णु के 24 अवतारो मे से एक भगवान हंस ने प्रारंभ किया। इसी सम्प्रदाय के चतुर्थ आचार्य निम्बार्क ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इस सम्प्रदाय को एक अलग पहचान दी। जिससे इस सम्प्रदाय को उन्हीं के नाम से अर्थात  ‘‘निम्बार्क सम्प्रदाय’’ के नाम जाना गया। इस सम्प्रदाय में गृहस्थ और विरक्त दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। गुरुगद्दी के संचालक भी दोनों ही वर्गों में पाये जाते हैं, जो शिष्यों को मंत्रोपदेश करते हुए कृष्ण की भक्ति का प्रचार करते रहते है। दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। भेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्रायः एक ही हैं। इस मत के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। 

निम्बार्क मत के अनुयायी संत स्वामी हरिदास ने सखी सम्प्रदाय का प्रर्वतन किया। स्वामी हरिदास संत के साथ ही उच्चकोटि के संगीताचार्य भी थे। स्वामी हरिदास के जन्म स्थान, जन्मतिथि और जाति के संबेध में निंबार्क मतावलंबियों तथा विष्णु स्वामी संप्रदाय वालों में परस्पर विरोध रहा है। बहरहाल, स्वामी हरिदास का जन्म चाहे जहां हुआ हो अथवा वे किसी भी जाति के रहे हों किन्तु उनकी ख्याति उनके सखी भाव के कारण हुई। वह सखी भाव जो मनुष्य को ईश्वर अर्थात श्रीकृष्ण की सखी मानता है और श्रीकृष्ण की सखी होने के लिए जाति, धर्म को कोई बंधन नहीं होता है। 

उपलब्ध विवरण के अनुसार पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुंचे थे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया था। स्वामी हरिदास ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित किया। स्वामी हरिदास ने श्रीकृष्ण की भक्ति में भजन गाते हुए अनेक राग-रागिनियों की सृजन किया। बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी हरिदास के शिष्य थे। कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन पहुंचा था।
सखी संप्रदाय का मूल आधार इस एक पंक्ति में अभिव्यक्त है कि -‘‘जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी।’’ इसी भावना के आधार पर श्रीकृष्ण को प्रिय और भक्त को सखी माना जाता है। सखी संप्रदाय के साधु नख से लेकर शिख तक स्वयं को सजाते हैं। वे स्वयं को स्त्री के रूप में कल्पना करते हैं। यहां तक कि  वे रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं। यह ईश्वर के प्रति प्रेम का अद्भुत स्वरूप है।

 सखी सम्प्रदाय के भावों को स्वामी हरिदास के कुछ पदों से भली-भांति समझा जा सकता है। स्वामी हरिदास का एक पद है -
ज्योंहि ज्योंहि तुम राखत हौ,
त्योंही त्योंही रहियतु हैं, हो हरि।
और अचरगै पाइ धरौं,
सु तौ कहौं कौन के पैंड भरि।।
जदपि हौं अपनो भायो कियो चाहौ,
कैसे करि सकौं, सो तुम राखो पकरि।
कहि ‘हरिदास’ पिंजरा के जानवर लौं,
तरफराइ रह्यौ उड़िबे कों कितोउ करि।।

स्वामी हरिदास ने स्वयं को श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित कर दिया था। वे मानते थे कि जगत की प्रीत मिथ्या है, झूठी है। यदि सच्चा प्रेम कोई है तो वह है सिर्फ बिहारीजी का प्रेम।  
जगत प्रीति करि देखी नाहिनें गटी कौ कोऊ। 
छत्रपति रंक लौं देखे प्रकृति बिरोध बन्यों नहिं कोऊ।।
दिन जो गये बहुत जनमनि के ऐसें जाउ जिनि कोऊ।
कहें श्रीहरिदास मीत भले पाये बिहारी ऐसौ पावौ सब कोऊ।।

प्रेम की पराकाष्ठा एक निजी विचार हो सकते हैं, निजी भावनाएं हो सकती हैं किन्तु विशुद्ध प्रेम का मार्ग जीने की सही राह दिखाता है। आज सांसारिकता अपने चमोत्कर्ष पर है जिसे हम बाजारवाद कह कर पुकारते हैं। धन, पद, शक्ति आदि के पीछे भागना मानवीय प्रवृति रही है। किन्तु उसी मानव के भीतर एक प्रवृति प्रेम की भी रही है जिसे आधुनिक जीवन शैली ने गौण बना दिया है। प्रेम आज स्वार्थ के रथ पर सवार हो कर चलता है। यदि माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं और अपनी संतान की हर इच्छा को पूरी करते हैं तो वहां प्रेम की फसल लहलहाती हुई दिखती है। यदि संतान माता-पिता के सपनों के अनुरूप मल्टीनेशनल कंपनी के उच्च पद पर काम करता है तो माता-पिता उस पर वारे जाते हैं। यदि पति और पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम हैं और एक दूसरे के लिए मंहगे उपहार, वेकेशन डेस्टिनेशन गिफ्ट खरीद कर देते हैं तो वहां भी प्रेम की चहक सुनाई देती है। यदि प्रेमी-प्रेमी भेट-उपहार द्वारा परस्पर एक-दूसरे की आर्थिक ख्वाहिशें पूरी करते हैं तो वहां भी प्रेम पल्वित हो कर फलता-्फूलता दिखाई देता है। क्या सच्चा प्रेम आर्थिक सम्पन्नता पर ही निर्भर होता है? यदि ऐसा है तो झुग्गी-झोपड़ी में तो प्रेम की छाया भी नहीं पड़ती होगी।
यदि प्रेम का आधार आर्थिक सम्पन्नता ही है तो उस ईश्वर के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है जो न तो दिखाई देता है, न तो किसी कार्पोरेट का मालिक है और न तो वह भेंट-उपहार देता है? ऐसा ईश्वर भला प्रेमपात्र कैसे हो सकता है? ऐसे ईश्वर के प्रति सखी भाव कैसे उपज सकता है? शायद इसीलिए स्वामी हरिदास ने कहा है कि -
देखौ इनि लोगन की लावनि ।
बूझत नांहिं हरि चरनकमल कौं मिथ्या जन्म गंवावनि।।

वस्तुतः सच्चा प्रेम सच्चा समर्पण मांगता है। यदि आप किसी से सच्चा प्रेम करते हैं तो आप उसके लिए अपना सब कुछ त्यागने के लिए सहर्ष तैयार हो जाएंगे। लेकिन यदि प्रेम में खोट है तो उसमें समर्पण की भावना नहीं अपितु नफा-नुकसान की भावना प्रभावी रहेगी। एक बार स्वामी हरिदास से उनके एक शिष्य ने पूछा कि ‘‘स्वामी, जब सोने के आभूषण बनाए जाते हैं तो उसमें अन्य धातु मिलाई जाति है जिसे खोट कहते हैं फिर भी लोग उस आभूषण को पाने के लिए लालायित रहते हैं किन्तु आप कहते हैं कि जहां शुद्धता है वहीं सच्चा प्रेम और सच्ची समृ़िद्ध है। यह बात मुझे समझ में नहीं आई है।’’
शिष्य का प्रश्न सुन कर स्वामी हरिदास मुस्कुराए और उन्होंने शिष्य को समझाया कि ‘‘जो खोट वाली वस्तुओं के पीछे पागल रहते हैं, इस दुनिया को छोड़ते समय उनके मन में शांति नहीं रहती है। वे इस बोझ के साथ प्राण त्यागते हैं कि उनका कमाया हुआ सब कुछ यहीं छूट रहा है। जबकि जो जीवन भर ईश्वर के प्रेम में लिप्त रहता है, उसे अपने अंतिम समय में यह उत्साह रहता है कि अब वह अपने प्रिय से मिल सकेगा और सदा उसके साथ रह सकेगा। क्योंकि परमात्मा ही तो प्रिय है और आत्मा उसकी प्रियतमा। हम सब परमात्मा की प्रियतमाएं हैं, यह हमें नहीं भूलना चाहिए।’’

स्वामी हरिदास का उत्तर सुन कर उनके शिष्य की शंका दूर हो गई और उसका चित्त शांत हो गया। सखी भाव यही तो सिखाता है कि प्रेम में शुद्धता बनाए रखना ही सच्चा प्रेम है। जहां वासना या स्वार्थ का बोलबाला हो, वहां प्रेम नहीं होता है। ‘‘प्रेम’’ शब्द जितना आसान है उसका स्वरूप उतना ही गूढ़ है। सखी भाव इसी गूढ़ता को समझाता करता है कि प्रेम एक निःस्वार्थ एवं समर्पण की भावना होती है जो धन-संपत्ति नहीं वरन शुद्ध भावना का सच्चा सौदा स्वरूप है।
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Wednesday, June 14, 2023

चर्चा प्लस | जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय...
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         इस समय सबसे बड़ा ज्वलंत प्रश्न है कि क्या उसे प्रेम कह सकते हैं जिसमें कोई कथित प्रेमी अपनी प्रेमिका के टुकड़े कर के उसे कुकर में उबाल दे या कुत्तों को खिला दे या मिक्सी में पीस का नाली में बहा दे? इस वीभत्सता में प्रेम दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता है। चिंता की बात यह है कि ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। पहले यदाकदा ही ऐसी घटना घटित होती थी लेकिन अब दस-पंद्रह दिन या महीने भर में ऐसी कोई न कोई घटना समाचारों की सुर्खियों पर लाल संकेत की भांति चमकने लगती है। यह जानना भी तो कठिन है कि किसके मन में क्या है? तो क्या प्रेम करने से डरने का समय आ गया है?
‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं का पाखण्ड मानता है। जितने मन, उतनी धारणाएं। मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती।

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।
- यह दोहा है हज़रत ख़्वाजा फ़रीद्दुद्दीन गंजशकर उर्फ़ बाबा फ़रीद का। बाबा फ़रीद की वाणी पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब में ‘‘सलोक फ़रीद जी’’ के रूप में विद्यमान है। बाबा फ़रीद ने अपने इस दोहे में प्रेम में समर्पण की पराकाष्ठा का वर्णन किया है। एक प्रेमी या प्रेयसी अपनी मृत्यु के निकट है। कागा यानी कौवा उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है ताकि वह उसकी देह को खा कर अपना पेट भर सके। तब वह प्रेमी या प्रेयसी के मुख से यह निवेदन निकलता है कि हे कागा! तुम मेरा पूरा शरीर खा लेना लेकिन मेरे दो नेत्रों को छोड़ देना क्योंकि मुझे अभी भी अपने प्रिय को देखने की आशा है। प्रेम की यह पराकाष्ठा, यह समर्पण अब क्या सिर्फ़ किताबों में सिमटता जा रहा है? कहां है ऐसी लगन? कहां है ऐसी चाह? अब तो प्रेम और प्रेम के विश्वास के नाम पर नृशंस धोखा ही देखने-सुनने में आने लगा है। ये घटनाएं अब मन में तिमिलाहट और बेचैनी पैदा करने लगी हैं। प्रेम के नाम पर ये कैसा आपराधिक दौर आ गया है जब एक कथित प्रेमी अपनी सच्ची प्रेमिका को अपने दोस्तों के आगे परोस देता है। फिर डरता है कि कहीं वह सबको बता न दे तो उसे इस दुनिया से ही रुख़सत कर देता है। एकदम ‘‘यूज़ एण्ड थ्रो’’। क्या ऐसे चलते रहने में लड़कियों का भरोसा टूटने नहीं लगेगा? क्या वे निडर हो कर किसी के प्रेम को स्वीकार कर सकेंगी? ये प्रश्न चिन्तित करते हैं, डराते हैं और क्रोध से भर देते हैं।

एक युवा लेखिका है सुजाता मिश्र। वर्तमान की दशा-दिशा को बड़ी बारीकी से परखती रहती है। जब कुछ आपत्तिजनक घटित होते देखती है तो अपना आक्रोश प्रकट करने से खुद को रोक नहीं पाती है। स्वाभाविक है। एक संवेदनशील मन जो प्रेम पर विश्वास रखता हो, वह घात पर तिलमिलाएगा ही। औरतों को टुकड़े-टुकड़े में काटा जाना, जलाया जाना, उबाला जाना आदि की घटनाओं ने सुजाता मिश्र को झकझोर दिया और उसने अपने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली जिसे बिना अनुमति उसे यहां शेयर कर रही हूं क्योंकि मुझे विश्वास है कि जो ललकार उसने अपनी पोस्ट में की है वह हर व्यक्ति के लिए है। सुजाता की पोस्ट शब्दशः यूं है- ‘‘कोई प्रेमिका के टुकड़े -टुकड़े कर कुत्तों को खिला देता है,कोई बीच सड़क प्रेमिका को चाकूओं से गोद देता है तो कोई प्रेमिका के टुकड़े कर कूकर में उबाल देता है...कुत्तों को खिला देता है.... क्या हो गया है लोगों को...इतनी हिंसा...इतनी नफरत......लोगों ने प्रेम को हर बंधन,हर सीमा से मुक्त करना चाहा....परिणाम सामने हैं... लड़कियों मत करो प्रेम.... इस दौर के प्रेमियों में एक होड़ सी मची है वीभत्सता की सीमा पार करने की...  कुछ समय पूर्व लोग प्रेम में भागी हुई लड़कियों के लिए लिख रहे थे बढ़ - चढ़कर...कोई प्रेम में मारी गयी लड़कियों पर भी लिख दो....कुछ कविताएं....कुछ शोक गीत!’’
.        सुजाता मिश्र सही लिखती है कि अब शोकगीत लिखने का समय आ गया है क्योंकि लड़कियों, स्त्रियों के विरुद्ध अपराध थम नहीं रहे हैं। सुजाता का यह कहना कि ‘‘लड़कियों मत करो प्रेम’’ कोई नसीहत नहीं है, अपितु पीड़ा है, छटपटाहट है, आक्रोश है। ऐसा हो भी क्यों न, आखिर, अभी ही तो हमने ख़ुश होना शुरू किया था कि स्त्री और पुरुष की संख्याओं का अनुपातिक अंतर कम होता जा रहा है। लेकिन ऐसी घटनाओं ने ख़ुशी को फ़ीका कर दिया है। ऐसा लगता है कि अपराधों के आधार पर एक बार फिर से जनगणना की जानी चाहिए ताकि पता चले कि कितनी लड़कियां प्रेम में धोखा कर मारी गईं और कितनी लड़कियां प्रेम करने के कारण अपने ही माता-पिता, भाई-बहन के द्वारा अपराधी घोषित करके मरने को छोड़ दी गईं। ऐसी दशा में यदि लड़की को समय रहते धोखे का तनिक अनुमान भी लग जाए तो वह किससे मदद मांगे? कहां जाए? उसके सबसे पहले घर के दरवाज़े ही उसके मुंह पर बंद किए जा चुके हैं। अब या तो वह इंसानों की भीड़ में कूद पड़े या फिर अपने कथित प्रेमी रूपी दरिंदे के रहमोकरम पर स्वयं को ज़िन्दा रखने की कोशिश करे।
इन घटनाओं की आड़ में भी नसीहत लड़की को ही कि प्रेम किया है तो अब भुगतो! किसने कहा था प्रेम करो? तो क्या एक लड़की को सिर्फ़ निराकार, अदृश्य ईश्वर से ही प्रेम करने में ही सुरक्षा मिल सकती है? शायद वहां भी। क्योंकि मीराबाई का उदाहरण हमारे सामने है। मीरा ने तो निराकार (वस्तुतः), अदृश्य ईश्वर से प्रेम किया। अटूट प्रेम किया। फिर भी उसे विषपान करने को विवश किया गया। तो एक लड़की क्या करे? वह भी तो एक इंसान है। उसके शरीर में भी हार्मोन्स हिलोरें लेता है। वह रोबोट नहीं है कि जिसके पास अपना खुद का न दिल हो न दिमाग़। फिर प्रेम में बुराई क्या है? वस्तुतः प्रेम की भावना कलुषित नहीं होती है, कलुषित होते हैं धोखेबाज़ प्रेमी। प्रेम ऐसा वीभत्स तो कभी नहीं रहा।

प्रेमियों के बारे में रहीम ने बहुत रोचक और मर्मस्पर्शी बात कही है-

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं।।

अर्थात् रहीम कहते हैं कि आग से जलकर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने पर प्रेमी बुझकर भी सुलगते रहते हैं। लेकिन आज प्रेमियों की एक ऐसी खेप पनपने लगी है जो विक्षिप्त है, मानसिक विकृति से भरी हुई है, इसीलिए वह स्वयं नहीं सुलगी है बल्कि अपनी वासना की पूर्ति होते ही अपनी प्रेमिका को ही जीवित जला देने से नहीं हिचकती है।
कबीर को क्या पता था कि ढाई आखर लड़कियों के लिए कभी इतने घातक सिद्ध होंगे। उन्होंने तो बड़ी सहजता से प्रेम की पैरवी की। अब इसकी व्याख्या हर तरह से की जा सकती है कि यह बात सामाजिक प्रेम और सौहाद्र्य के लिए है, या फिर यह बात ईश्वर के प्रति प्रेम के लिए है अथवा दुनियावी विपरीत-लिंगी परस्पर प्रेम के लिए है। मूल में तो यही है कि प्रेम एक अच्छा वातावरण निर्मित करता है। शांति, सुरक्षा और विश्वास प्रदान करता है और जीवन का वास्तविक ज्ञान देता है-

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ढाई  आखर  प्रेम के,  पढ़ै सो  पंडित होइ।।
.        यदि प्रेम की भावना न होती तो क्या यह सामाजिक संरचना बन पाती या पारिवारिक ढांचा खड़ा हो पाता?

 हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’ 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि "प्रेेम एक  संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।"

वहीं प्रेमचंद लिखते हैं कि-‘‘मोहब्बत रूह की ख़ुराक़ है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’’

दरअसल, प्रेम दोषपूर्ण नहीं होता है और न हो सकता है। प्रेम को आड़ बना कर वासनापूर्ति का लक्ष्य साधने वाले इसे कलंकित कर रहे हैं। क्योंकि जहां स्वार्थ है, वहां स्वार्थपूर्ति होते ही छुटकारे की भावना भी विकराल रूप ले लेती है। वर्तमान में ऐसा लग रहा है जैसे हम प्रेम के स्वरूप और उसकी प्रकृति को ले कर ही उलझ गए हैं। हर प्रेम को किसी न किसी ‘‘ऐंगल’’ से देखने लगे हैं और इसी का लाभ उठा रहे हैं सायकोपैथिक (मनोरोगी) लोग। जिनके लिए व्यक्ति नहीं वासना ही सबकुछ है।
जब उन अभागी स्त्रियों के बारे में विचार करो तो उनकी मानसिक और शारीरिक पीड़ा का अंदाज़ा लगाना भी कठिन हो जाता है। क्या बीती होगी उन पर जब उनका विश्वास रौंदा गया होगा? क्या बीती होगी उन पर जब उन पर प्राणघातक पहला प्रहार किया होगा? यदि मान लें कि देह से निकल कर आत्मा स्वतंत्र हो जाती है और वह सबकुछ देख सकती है तो क्या बीती होगी उनकी आत्माओं पर जब उन्होंने अपनी शरीर को अपने ही प्रेमी के हाथों काटे जाते, उबाले जाते या कुत्तों को खिलाते हुए देखा होगा? कोई इतना नृशंस, इतना निर्मोही, इतना घातक कैसे हो सकता है? विडंबना यह कि अब इस तरह के केस ‘‘रेयर ऑफ द रेयरेस्ट’’ नहीं रह गए हैं। ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ना युवाओं में आपराधिक मनोदशा के बढ़ने का अलर्ट अलार्म है। यदि अब भी इस अलार्म को नहीं सुना और समझा तो प्रेम का नाम सिर्फ़ पुरातन किताबों में रह जाएगा किसी ताड़पत्र में लिखे लेख की भांति।  

सच यह भी है कि हर प्रेम में घोखा नहीं होता और हर प्रेम घातक नहीं होता। आवश्यकता है प्रेमी के आचार-व्यवहार और मनोदशा को समझने की। लेकिन वह कहावत है न कि ‘‘प्रेम तो अंधा होता है’’। यदि प्रेम में कपट है तो उस प्रेमांध व्यक्ति (लड़की) को बचाने के लिए उसके लौटने का दरवाज़ा खुला रखा जाए। जीवन में छोटे-बड़े धोखे हर इंसान खाता है। जब पैसों के लेनदेन में धोखा मिलता है तो परिजन यही कह कर सांत्वना देते हैं कि ‘‘अरे, जाने दो, उसी की किस्मत का रहा होगा। हम फिर कमा लेंगे। मन छोटा मत करो!’’ तो फिर प्रेम को ले कर निष्ठुरतापूर्ण हठ क्यों? लड़की ने प्रेम किया। उसे सच्चा साथ मिला और वह खुश है तो परिजन भी खुश रहें। लेकिन लड़की को प्रेम में धोखा मिलता है तो उसे लौट कर आने के लिए एक दरवाज़ा को खुला छोड़ें। उसके सम्हलने का एक मौका तो दें। यदि सारे रास्ते बंद कर दिए जाएंगे तो हादसे का रास्ता उसकी प्रतीक्षा में मुंह बाए बैठे मिलेगा। पहले एक लड़की को जन्म दे कर इस दुनिया में लाना और फिर उसके प्रेमविवाह कर लेने पर उसके जीते जी उसका पिण्डदान कर के उसे मृत घोषित कर देना, उससे सारे नाते तोड़ लेना क्या यही दायित्व निर्वहन है? समाज में इतनी भी कठोरता नहीं आनी चाहिए। यदि पानी की सतह पर शैवाल फैल जाए तो पानी का भी दम घुट जाता है। लड़कियों, महिलाओं की सुरक्षा के लिए सामाजिक सोच में एक लचीलापन जरूरी है। 
बहरहाल, प्रेम के नाम पर नृशंसता की शिकार हुई सभी लड़कियों की ओर से मीराबाई का यह दोहा-

जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती प्रेम न करियो कोय।।

आशा करनी चाहिए है कि हम स्वस्थ मनोदशा वाले वातावरण की ओर जल्दी लौट आएंगे और ये तमाम नृशंस घटनाएं किसी दुःस्वप्न की भांति सनद रहेंगी।      
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Tuesday, June 13, 2023

पुस्तक समीक्षा | प्रेम के संवाद रचती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 13.06.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त के काव्य संग्रह "अन्जानी राहें" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम के संवाद रचती कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - अन्जानी राहें
कवि       - लक्ष्मीचन्द्र गुप्त
प्रकाशक    - मंगलम् प्रकाशन सर्किट हाउस मार्ग, छतरपुर (म.प्र.)
मूल्य       - 250/-
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‘‘वक्त की लय को देख न पाई। नियति के क्रम को समझ न पाई। इस पल कुछ, उस पल कुछ जान न पाई। जब आप चल दिए तब सुध आई। आपकी कोई बात नहीं, कोई सौगात नहीं। आपसे अधिक मीठा कुछ लगता नहीं। ममता, प्रेम के कोष को क्या दे सकती हूं? प्रेम, विश्वास, भावना के श्रद्धासुमन अर्पित करती हूं। पूज्य तुम्हें माना है मैंने, नित अर्चना करती हूं। उठ प्रभात नित नव किसलय संग, आपको वंदन करती हूं। प्यार की डोरी विंध जाती, जब भी अभिनंदन. करती हूं। बीते लम्हे संग उन यादों के, हे मेरे प्रिय तुम्हें वंदन करती हूं।’’ - ये काव्यात्मक शब्द हैं श्रीमती तारा गुप्ता के जिन्होंने अपने बिछड़े हुए जीवनसाथी की कविताओं को संग्रह के रूप में प्रकाशित कराते हुए स्मरण के तौर पर व्यक्त किए हैं।
साहित्यकार, चाहे वह गद्यकार हो या पद्यकार, कई बार ऐसा होता है कि उसके जीवनकाल में उसकी रचनाएं एक सीमित दायरे में सिमट कर रह जाती हैं। कभी वह संकोचवश, कभी आर्थिक कारणों से अथवा कभी आवश्यकता का अनुमान न लगा पाने के कारण अपनी रचनाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराने से वंचित रह जाता है। साथ ही वंचित रह जाता है उन रचनाओं से पाठकों का एक बड़ा वर्ग। कई रचनाकारों की रचनाएं उनके दिवंगत होने के उपरांत उनके परिजन, उनके हितैषी, उनके इष्टमित्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराते हैं और कई रचनाकार और उनकी रचनाएं विस्मृति की गर्त में समा जाती हैं। जहां तक इष्टमित्रों द्वारा अपने दिवंगत मित्र की रचनाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराने का संदर्भ है तो मैं यहां एक प्रसंग का उल्लेख कर रही हूं। सागर नगर के चर्चित शायर यार मोहम्मद ‘यार’ का 2016 में निधन हो गया। उनकी अनेक उम्दा शायरी बिखरी पड़ी थी जिन्हें संग्रह के रूप में समेटे जाने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में उनके मित्र जो कि साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘श्यामलम’ के अध्यक्ष भी हैं, उमाकांत मिश्र ने ‘‘यारां’’ के नाम से उनकी शायरी का संग्रह प्रकाशित कराया। उस पर प्रशंसनीय यह कि उसका कोई मूल्य न रखते हुए उसे पाठकों को निःशुल्क उपलब्ध कराया गया। जबकि उमाकांत मिश्र स्वयं कोई पूंजीपति नहीं हैं, मध्यवर्गीय व्यक्ति हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि श्रेष्ठ भावनाएं हर बाधा के बीच से रास्ता निकाल ही लेती हैं। इसी क्रम में यह प्रसन्नता का विषय है कि कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त की अर्द्धांगिनी तारा गुप्ता ने उनकी कविताओं को ‘‘अन्जानी राहें’’ के रूप में प्रकाशित करा कर भावनात्मक एवं साहित्यक दोनों दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कार्य किया है।      
पुस्तक की भूमिका गीतकार डॉ. विष्णु सक्सेना ने लिखी है। उन्होंने लिखा है कि -‘‘गुप्त जी की अधिकांश कविताएं प्रकृति, समाज और व्यक्तिगत सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। सामाजिक विद्रूपताओं पर बड़े प्यार से चोट की है उन्होंने। अपनों के बीच रहकर व्यक्ति कैसे घुट-घुट कर जीता है इस प्रकार की संवेदनाओं से परिपूर्ण कवितायें पठनीय हैं।’’
संग्रह ‘‘अन्जानी राहें’’ की कविताएं पढ़ने के बाद यह टीस मन में उठती है कि इस कवि को तो अभी और सृजन करना चाहिए था, इसने इतनी जल्दी सबसे विदा क्यों ले ली? लेकिन जीवन और मृत्यु किसी के वश में नहीं। किन्तु यह भी सच है कि एक रचनाकार कभी मरता नहीं है, वह अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को अपनी रचनाओं में इस तरह पिरो जाता है कि उसकी उपस्थिति सदा बनी रहती है और वह सदा सबसे संवाद करता रहता है। कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त की कविताएं पाठकों से एक मधुर संवाद करती हैं। इन कविताओं में प्रेम के विविध पक्ष हैं। संयोग, वियोग, अनुनय, उलाहना आदि सभी कुछ। प्रेम की राहें हमेशा अन्जानी ही होती हैं। प्रेम किस सोपान को प्राप्त करेगा, इसका अनुमान पहले से नहीं लगाया जा सकता है। लक्ष्मीचंद्र गुप्त की कविताओं में छायावाद और रहस्यवाद दोनों की झलक मिलती है। क्योंकि वे प्रेम की ऐसी काव्यात्मक प्रस्तुति सामने रखते हैं जिसमें खुला निवेदन भी है और गोपन भी है। उदाहरणस्वरूप उनकी कविता ‘‘हर लहर मैंनें किनारों से मिलती देखी’’ की कुछ पंक्तियां देखिए-
हर लहर मैंने किनारों से मिलती देखी।
हर शाम सुबहो में बदलती देखी।।
कब तक रहोगी मौन, बता दो तेरी कविते
हर बात प्यार की तेरे अधरों पर मचलती देखी।।
जीता तो हूं, मगर जी नहीं पाता।
पीता भी हूं, तो पी नहीं पाता ।।
क्या करूं, मजबूर हूं, निगाहों के पहरे यहां
मिलता हूं पर तुम से मिल नहीं पाता ।।

लक्ष्मीचन्द्र गुप्त ने कुछ चुटीली कविताएं भी लिखी हैं जो इस संग्रह में मौजूद हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘बाकी वे सब हैं बोर’’। यह अत्यंत रोचक कविता है। इस कविता से कवि की सृजनात्मक तीक्ष्णता का भी पता चलता है। यह कविता इस प्रकार है-
जरूरी नहीं प्यारे
केवल जरूरी है
जैसे
लिखना जरूरी है।
ताकि
पटक सकूं मुट्ठियां
मचा सकूं शोर
कि हमें छोड़कर
बाकी वे सब हैं बोर।

कविता में व्यंजना का प्रयोग करते हुए विसंगतियों पर गहरी चोट की जा सकती है। इसीलिए व्यंजना को अपनाते हुए कवि ने अपनी कविता ‘‘इस कवि में सामर्थ कहां है’’ में साहित्यजगत में व्याप्त दुरावस्था पर कटाक्ष किया है-
समझ गया उद्देश्य आपका,
बाध्य नही, पर बतला सकता।
मेरी कविता का अर्थ, कविता से पूछो,
इस कविता में अर्थ कहां है?
सीधी-साधी कविता का भी अर्थ बताता हूं।
इस कवि में सामर्थ कहां है।
मैं यों ही नहीं बहला सकता  
मैं तो अनर्थ से अर्थ निकालता,
बड़े-बड़े बाजारों में क्या,
छोटा दर्पण बिक सकता है?
बड़ी-बड़ी सरिता धारा में,
नीर कहीं क्या रूक सकता है?
कहते तो है, धरा गगन भी,
सावन भादों मिल जाते हैं।
साहित्य-गगन में रवि-कवियों संग
तुच्छ कवि क्या टिक सकता है?

वैसे लक्ष्मीचंद्र गुप्त की कविताओं में प्रेम केन्द्रीय भाव है। प्रेमपत्रों के युग में पत्र के साथ कोई फूल या कोई उपहार भेजने का भी चलन था। उसी परिपाटी के तारतम्य में कवि ने ‘‘अनामिका के नाम एक पत्र’’ कविता में लिखा है कि -
पत्र के मैं साथ बोलो और क्या मैं भेज सकता।
भाव का भन्डार केवल कल्पना मैं भेज सकता ।।
पास मेरे कुछ नहीं अनुकूल कह संतोष करता -
संपदा की देवि को-कंकड़ दिखाना तुच्छ लगता ।।
हो भरा ज्यों सिंधु बोलो, बिन्दु का अस्तित्व क्या है।
सूर्य के सम्मुख कहो तुम इंदु का अस्तित्व क्या है।।
मौन तो अनुगामिनी है साधना की कल्पना -
भक्ति के सम्मुख कहो आस्तिक का अस्तित्व क्या है ।।
तुम स्वयं जब मेघ हो तो मेह की अभिलाष क्या है।

कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त ने प्रकृति का मानवीयकरण करते हुए छायावादी परम्परा का भी अवगाहन किया है। वे अपनी कविता ‘‘पनिहारी प्रीतम’’ में प्रकृति के तत्वों में प्रेम और प्रेयसी के सवरूप को देखते हैं-
पनिहारी प्रीतम
पनघट पर।
पनिहारी की गागर से घट से।
कुछ छलका।
कुछ बिजली सी चमकी,
शीतल कुछ झलका, अलिका मन से।

‘‘अन्जानी राहें’’ एक ऐसी धरोहर कृति है जो हिन्दी काव्य जगत को समृद्ध करने में सक्षम है। इसके प्रकाशन के लिए तारा गुप्त एवं प्रवीण गुप्त साधुवाद के पात्र हैं क्योंकि साहित्य का सृजन जितना महत्वपूर्ण होता है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है उसे सहेजना।
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Tuesday, May 2, 2023

पुस्तक समीक्षा | प्रेम के सापेक्षीय युगबोध का दृश्य रचती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 02.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  वरिष्ठ कवि राजेंद्र गौतम के काव्य संग्रह "ठहरे हुए समय में" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम के सापेक्षीय युगबोध का दृश्य रचती कविताएं
    - समीक्षक  डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - ठहरे हुए समय में
कवि           - राजेन्द्र गौतम
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स,क्ष1/10206, लेन नं.18, वेस्ट गोरखपार्क,शाहदरा, दिल्ली-32  
मूल्य       - 250/-
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राजेन्द्र गौतम हिन्दी काव्य जगत में एक वरिष्ठ और सुपरिचित नाम है। मैंने उनके दोहे भी पढ़े हैं और नवगीत भी। बल्कि मैं यह कहूंगी कि नवगीत के दौर में जिसे हम ‘‘धर्मयुग काल’’ कह सकते हैं, राजेन्द्र गौतम जी के नवगीतों से मेरा परिचय हुआ। उस समय की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाओं में राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत प्रकाशित हुआ करते थे। नवगीत के पुरोधा देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जिनका नवगीत सृजन के दौरान मुझे विशेष आशीर्वाद मिला (मेरा दुर्भाग्य कि उनसे कभी भेंट नहीं हुई), वे अपने पत्रों में राजेन्द्र गौतम जी के नवगीतों के प्रति सदा आश्वस्त मिले। लगभग एक युग बीत जाने जैसे एक लम्बे अंतराल के बाद मेरा राजेन्द्र गौतम जी से पुनःसंवाद हुआ और उनकी नई कृति ‘‘ठहरे हुए समय में’’ प्राप्त हुई। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मेरा पूर्व परिचय अथवा राजेन्द्र गौतम जी की पूर्व काव्य रचनाओं के प्रभाव से मुक्त हो कर ही यह समीक्षाकर्म कर रही हूं। क्योंकि मैं यह मानती हूं कि प्रत्येक रचनाकार का उसकी प्रत्येक नई कृति के साथ पुनर्जन्म होता है। अपने हर जन्म में वह एक-सा रहे, यह सुनिश्चित नहीं होता है। कभी अपने पिछले जन्म की अपेक्षा ख़राब या अपेक्षाकृत बहुत अच्छा साबित हो सकता है। स्पष्ट है कि हर कृति के सृजन के समय कृतिकार अलग मनोदशा तथा अलग अनुभवों के दायरे में होता है। इस कृति को आद्योपांत पढ़ने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि इस काव्य संग्रह में संग्रहीत कई कविताएं अपने पूर्व काव्यसृजन से बहुत आगे निकल कर सृजित हुई हैं। ये वे रचनाएं हैं जो सिखाती हैं कि एक रचनाकार किस तरह समय की किताब को पढ़ते अपने विचारों को ‘अपडेट’ रख सकता है। संग्रह का नाम है ‘‘ठहरे हुए समय में: कुछ प्रेम कविताएं’’ जिसके द्वारा कवि ने समय और प्रेम के पारस्परिक संबंध को बहुत सुंदर ढंग से बिना किसी उपदेश के सामने रखा है।

राजेन्द्र गौतम ने आत्मकथ्य ‘‘सत्रह और सत्तर के दरमियान’’ में प्रेम के प्रति अपने दृष्टिकोण और समझ को अपनी एक पुरानी कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। वे लिखते हें कि ‘‘तो हाजिर हैं कुछ प्रेम-कवितायें ! आपसे थोड़ा बतिया लेता हूं- प्रेम के बारे में नहीं, कविताओं के बारे में। ‘गूंगे के गुड़’ के बारे में कोई कैसे बतिया सकता है? इस संग्रह का प्रकाशन भी विचित्र विरोधाभासी है। अपने छपे अनछपे को टटोलते हुए 50 साल पहले की एक डायरी में लिखी छोटी-सी कविता मिली ‘निरर्थक शब्द’! कविता इस प्रकार- ‘‘एक दिन मैं बहुत हैरान रह गया जब हाथ लग गया/अपने ही जीवन-कोश का एक पुराना पन्ना/अंकित थे उसमें ये भी शब्द- प्यार, प्राण, प्रियतमा, साथी, अभिसार!/ ओह, किस काल-खण्ड में बन गया था यह शब्दकोश/जिसमें आ गये थे निरर्थक शब्द भी !’’
प्यार, प्राण, प्रियतमा, साथी, अभिसार को नकारती सत्रह वर्ष के एक किशोर की वह कविता और सत्तर तक पहुंचे इस वृद्ध ‘बालक’ का प्रेम-कविताओं का यह संग्रह! कितना विरोधाभासी है यह सब ! मुझे यह अनुभव और कल्पना के गडमड हो जाने का मामला लगता है।’’
कवि की सहज स्वीकारोक्ति। निःसंदेह यह विरोधाभास लग सकता है, यदि ऊपरीतौर पर देखा जाए तो। जबकि यथार्थतः प्रेम की व्यापकता और गरिमा का वास्तविक बोध आयु के साथ ही परिपक्व होता है। सत्रह की आयु में एक-दूारे को देख कर मुस्कुरा देना मात्र ‘गहरा प्रेम’ लग सकता है और वहीं एक तरफा प्रेम दूसरे की बेरुखी और बेवफ़ाई लग सकती है। उस आयु में परिस्थितियों का बोध नहीं रहता है किन्तु आयु बढ़ने के साथ जीवन के अनुभव बढ़ते हैं और प्रेम का स्वरूप कुछ-कुछ समझ में आने लगता है। यद्यपि, कुछ लोगों का पूरा जीवन निकल जाता है प्रेम को समझे बिना। वर्तमान मशीनीकृत और संवेदनाओं के क्षरण के इस युग में प्रेम का बोध और अधिक कठिन हो चला है। संग्रह की पहली ही काव्य रचना समय का गहरा भावबोध कराती है। शीर्षक है ‘‘कुछ भी तो नहीं मिटा’’। कुछ पंक्तियां देखिए-
 ग्वायर हॉल के
हॉस्टल रूम का ताला
इसी हाथ ने खोला था
इससे पहले
राजीव चैक से विश्वविद्यालय तक
सन्तुलन के लिए इसी ने पकड़ा था
खचाखच भरी मेट्रो में हैन्डल
यों तो ओडेन सिनेमा हाल में
कुर्सी के हत्थे पर भी
टिका रहा था यही बहुत देर तक
और इसी ने दबाया था
उतरते हुए लिफ्ट का बटन !
मगर सब कुछ तो मौजूद है इस पर.....
ज्यों-का-त्यों !
कुछ भी तो नहीं मिटा
देर-देर तक घेरे रहे वे सुगन्ध के परमाणु
क्या इतनी अमिट होती है प्यार की खुशबू?
सच कुछ भी तो नहीं मिटा....
बहुत वाचाल था इस महक का एहसास
मेरे भीतर के एकांत मौन की तरह !

नवगीत से बहुत आगे, छांदासिक प्रवाह लिए नई कविता और शाश्वत अनुभूति की यह प्रथम कविता इस बात की दस्तक दे देती है कि कुछ नया, चैंकाता हुआ-सा बहुत नया पढ़ने को मिलने वाला है आगे के पृष्ठों में।
क्या समय कभी ठहरा है? क्या समय कभी ठहर सकता है? जटिल प्रश्न है। इसका उत्तर तो सीधा-सरल है कि ‘‘नहीं!’’ लेकिन इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता है कि इतिहास के पन्नों और मानवीय स्मृतियों में समय ठहरा रहता है। संग्रह की शीर्षक कविता है ‘‘ठहरे हुये समय में’’। इस कविता में कवि ने प्रेम, राजनीति, चारित्रिक गिरावट और अनुभव की असीमितता को बड़ी कुशलता से एक साथ प्रस्तुत कर दिया है, मात्र एक अदद राजघाट का संदर्भ दे कर -
मुट्ठी मैं क़ैद जुम्बिश
राजघाट पर आज नहीं बधेंगे हम
प्यार के वचन में
यहां पर नहीं बोलेंगे वायदों की भाषा.....
पुराने लोगों से सुना है-
राजघाट पर
गांधी की शपथ लेकर भी
झूठे कर दिए गये थे सब वायदे
सन् 77 में!
....लेकिन
और बहुत कुछ है
जो हम कर रहे हैं।

समयबोध से लबरेज़ एक और कविता है ‘‘ताल पर कंकड़ी’’। इस कविता में ‘कव्हरेज़ क्षेत्र’ के बहाने जो व्यंजना रची गई है, वह नवोदित कवियों के लिए एक ‘‘टेक्स्ट लेसन’’ कही जा सकती है। कविता की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं-
गया था,
मैसेंजर में भी गया था
तुम वहां भी नहीं थे।
तुम्हारे ‘जीयो’ वाले नम्बर ने
बड़ी शालीनता से कहा था-
‘‘आप जिस नम्बर से सम्पर्क करना चाहते हैं,
फिलहाल वह स्विच ऑफ है
या कवरेज क्षेत्र से बाहर है।’’
आज तक कहां जान पाया मैं
कहां से शुरू होता है-
तुम्हारा कवरेज क्षेत्र!

    ‘‘कुछ खुला-खुला’’ और ‘‘कुछ बंधा-बंधा’’ -इन दो उपखंडों में विभक्त कुल 62 कविताओं में से अनेक बानगियां दी जा सकती हैं जो कवि के रचनाकर्म की प्रतिबद्धता और समय के साथ चलने का बिम्ब प्रस्तुत करती हैं। छंदबद्ध रचनाओं के सृजन के एक दीर्घानुभव ने राजेन्द्र गौतम की इन अतुकांत कविताओं को भी रस और प्रवाह से परिपूर्ण किया है। कविताओं का मूल विषय वस्तु प्रेम होते हुए भी समय से संवाद की प्रकृति इनमें उपस्थित है। वे आज की बात करते हुए आज का उदाहरण चुनते हैं और अतीत को मात्र आधार के रूप में प्रयोग करते हैं। देखा जाए तो प्रेम के बहाने कवि ने युग की सापेक्षता को जांचा और परखा है। वस्तुतः सापेक्षता अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा तैयार की गई एक प्रमेय है, जिसमें कहा गया है कि अंतरिक्ष और समय सापेक्ष हैं, और सभी गति-संदर्भ को एक फ्रेम के सापेक्ष होनी चाहिए। यह एक धारणा बताती है कि भौतिकी के नियम हर जगह समान हैं। यह सिद्धांत सरल है लेकिन समझने में कठिन है। ठीक प्रेम और युग की तरह। जिन्हें कवि ने सापेक्षता की कसौटी पर कसते हुए परस्पर पूरक के रूप में प्रयुक्त किया है। राजेन्द्र गौतम का यह काव्य संग्रह सभी के लिए पठनीय है, विशेषरूप से युवा रचनाकारों के लिए, ताकि वे अतुकांत कविता के सही स्वरूप को समझ सकें, सीख सकें।        
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Monday, February 14, 2022

काव्य वसंत में प्रेम और मां की लोरी में नींद का संचार करता है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"काव्य साहित्यिक विधाओं में सर्वाधिक सशक्त विधा है। काव्य युद्ध भूमि में वीरता का संचार करता है तो वसंत ऋतु में हृदय में प्रेम को उद्दीप्त करता है। यह मां की लोरी में नींद का उपहार बन जाता है तो धर्म-चिंतन में धार्मिक महाकाव्य में ढल जाता है। अतः जो काव्यसृजन से जुड़ा है वह विशिष्ट है। इस विशिष्टता के साथ प्रत्येक कवि को अपना दायित्व समझते हुए सृजन करना चाहिए ताकि वह देश और समाज को जीवन के कठोर विषयों पर भी कोमलता से विचार प्रदान कर सके।" यह अपने अध्यक्षीय उद्बोधन मे मैंने कहा। अवसर था बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति विकास मंच, सागर (म.प्र.) की 1413 वीं ऑन-लाईन साप्ताहिक संगोष्ठी क्रमांक 92 का।    
       यह आयोजन सागर के सुपरिचित कवि एवं प्रखर चिंतक आदरणीय बड़े भाई मणिकांत चौबे बेलिहाज़ जी को जिनकी संकल्पना का सुफल है कि विकट कोरोनाकाल में भी उन्होंने इस मंच के माध्यम से सभी साहित्यकारों को एक-दूसरे से जोड़े रखा और विचार- विनिमय तथा परस्पर भावनात्मक संबल बनाए रखने का आधार प्रदान किया। यह बेलिहाज़ जी का ही माद्दा है जो वे बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति विकास मंच की गोष्ठियों की निरंतरता बनाए हुए हैं।  प्रशंसा के पात्र भाई डॉ नलिन जैन ‘‘नलिन’’ जी भी हैं जो अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद इन गोष्ठियों के संचालन के दायित्व को पूरी गंभीरता से निभाते रहते हैं। 
      इस अवसर पर मैंने काव्य पाठ भी किया।
#डॉसुश्रीशरदसिंह 
#DrMissSharadSingh

Tuesday, November 9, 2021

पुस्तक समीक्षा | प्रेम को व्याख्यायित करते बेजोड़ साॅनेट्स | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


प्रस्तुत है आज 09.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि विनीत मोहन औदिच्य द्वारा अनूदित काव्य संग्रह "ओ प्रिया" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम को व्याख्यायित करते बेजोड़ साॅनेट्स 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह  - ओ प्रिया
अनुवादक     - विनीत मोहन औदिच्य
प्रकाशक      - ब्लैक ईगल बुक्स, 7464, विस्डम लेन, डब्लिन, ओहायो (यूएसए)
मूल्य         - 180/-
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इस बार समीक्षा के लिए जो काव्य संग्रह मैंने चुना है उसका नाम है ‘‘ओ प्रिया’’। यह नोबल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरुदा के एक सौ प्रेम साॅनेट का हिन्दी में काव्यात्मक अनुवाद है। इसके अनुवाद हैं सागर निवासी विनीत मोहन औदिच्य। यह पुस्तक अमरीकी प्रकाशक ब्लैक ईगल बुक्स का इंटरनेशनल एडीशन है। यूं तो ब्लैक ईगल बुक्स का मुख्यालय ओहायो स्टेट के डब्लिन शहर में स्थित है किन्तु भारत में ओडीशा के कलिंग नगर, भुवनेश्वर में भी इसका कार्यालय है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन मानक के अनुरुप यह पुस्तक आकर्षक मुद्रण में पेपरबैक है। जहां तक इस पुस्तक के कलेवर का प्रश्न है तो इसका मैंने दो तथ्यों के साथ आकलन करना उचित समझा है- पहला पाब्लो नेरुदा से जुड़े तथ्य और दूसरा हिन्दी साहित्य में साॅनेट की स्थिति। इन दो तथ्यों से गुज़र कर ही इस समीक्ष्य पुसतक की उपादेयता को परखा जा सकता है।
पाब्लो नेरुदा मात्र एक कवि ही नहीं बल्कि राजनेता और कूटनीतिज्ञ भी थे। 1970 में चिली में सल्वाडोर अलेंदे ने साम्यवादी सरकार बनाई जो विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई साम्यवादी सरकार थी। अलेंदे ने 1971 में नेरूदा को फ्रांस में चिली का राजदूत नियुक्त किया। और इसी वर्ष उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला। 1973 में चिली के सैनिक जनरल ऑगस्टो पिनोचे ने अलेंदे सरकार का तख्ता पलट दिया। इसी कार्रवाई में राष्ट्रपति अलेंदे की मौत हो गई और आने वाले दिनों में अलेंदे समर्थक हजारों आम लोगों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया। कैंसर से बीमार नेरूदा चिली में अपने घर में बंद इस जनसंहार के समाप्त होने की प्रार्थना करते रहे। लेकिन अलेंदे की मौत के 12 दिन बाद ही नेरूदा ने दम तोड़ दिया। 23 सितंबर, 1973 को चिली के सैंटियागो में नोबेल पुरस्कार पाने के दो साल बाद नेरुदा का निधन हो गया। हालाँकि उनकी मौत को प्रोस्टेट कैंसर के लिए आधिकारिक रूप से जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन आरोप लगाए गए हैं कि कवि को जहर दिया गया था, क्योंकि तानाशाह ऑगस्टो पिनोशे के सत्ता में आने के ठीक बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। पाब्लो ने अपने जीवन में दो भावनाओं को प्रबल रूप से जिया जिसमें एक थी देश के प्रति प्रेम जिसके लिए वे राजनीति के क्षेत्र में संघर्ष करते रहे और दूसरी भावना थी प्रेम की। जो उन्हें जब सच्चे प्रेम के रूप में अनुभव हुई तो उन्होंने प्रेम पर वे साॅनेट लिख डाले जिन्होंने उन्हें विश्व में एक रोमांटिक कवि की ख्याति दिला दी।
पाबलो नेरुदा ने तीन विवाह किए। आरम्भ के दो विवाह सफल नहीं रहे किन्तु तीसरा विवाह उन्होंने अपनी प्रेमिका मेडिल्टा उर्रुटिया सेर्डा से किया। मेडिल्टा फिजियो थेरेपिस्ट थीं और उनसे लगभग आठ वर्ष छोटी थीं। वे लैटिन अमेरिका की पहली पेड्रियाटिक थेरेपिस्ट थीं। मेडिल्टा के प्रेम में डूब कर पाब्लो नेरुदा ने ‘‘सिएन साॅनेटोज़ डी अमोर’’  अर्थात् ‘‘प्रेम के सौ साॅनेट्स’’ लिखे। इसी पुस्तक का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है ‘‘ओ प्रिया’’ के नाम से। इस पुस्तक के अनुवादक विनीत मोहन औदिच्य स्वयं भी एक साॅनेटकार हैं और उनके द्वारा अनूदित अंग्रेजी साॅनेट्स की एक और पुस्तक ‘‘प्रतीची से प्राची पर्यांत’’ की समीक्षा भी मैं इसी स्तम्भ में कर चुकी हूं। हिन्दी साहित्य में साॅनेट विधा को मौलिक सृजन के रूप में गंभीरता से परिचित कराने का श्रेय है कवि त्रिलोचन शास्त्री को। प्रारम्भ में हिंदी में सॉनेट को विदेशी विधा होने के कारण स्वीकार नहीं किया गया किन्तु त्रिलोचन शास्त्री ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया. इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवतः स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया।
विनीत मोहन औदिच्य के अनुवाद की यह विशेषता है कि वे विदेशी भाषा के साॅनेट के अनुवाद को हिन्दी में साॅनेट के रूप में ही करते हैं। जबकि काव्यानुवाद अपने आप में चुनौती भरा कार्य होता है। क्योंकि जब किसी विदेशी काव्य को अनुवाद के लिए चुना जाता है तो उसमें वर्णित दृश्य, देशज स्थितियां और तत्संबंधी कालावधि की समुचित जानकारी अनुवादक के लिए आवश्यक होती है। जैसे पाब्लो के साॅनेट्स में चिली के समुद्रतट, समुद्र और मछुवारों का वर्णन मिलता है जो भारतीय समुद्रतटों और मछुवारों की जीवन दशाओं से सर्वथा भिन्न है। इसी तरह की अनेक छोटी-बड़ी विशेषताओं का ज्ञान होना अनुवाद के लिए आवश्यक हो जाता है। इसके साथ ही जरूरी हो जाता है अनुवाद के लिए चुनी गई कृति और उसके कवि की भावनाओं से तादात्म्य स्थापित करना। इस सबके बाद ही काव्यानुवादक अनुवाद के लिए सटीक शब्दों का चयन कर पाता है। विनीत मोहन औदिच्य ने जिस आत्मीयता के साथ पाब्लो के साॅनेट्स को हिन्दी में पिरोया है, वह प्रभावित करने वाला है। संग्रह की अनूदित कविताओं को पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि अनुवादक ने पाब्लो की भावनाओं को भली-भांति समझा है और साथ ही उनके परिवेश को भी अनुवादकार्य के दौरान आत्मसात किया है। उनके शब्दों का चयन प्रभावित करता है क्यों वे शब्द मूल कविता की आत्मा को साथ ले कर चलते हैं। उदाहरण के लिए 18 वां साॅनेट की ये पंक्तियां देखें-
तुम बहती हो पर्वत श्रृंखलाओं में पवन जैसी
बर्फ़ के नीचे गिरते हुए तीव्र झरने सी
तुम्हारे सघन केश धड़कते हैं सूर्य के
उच्च अलंकरणों से, दोहराते हुए उन्हें मेरे लिए।

काकेशस का सम्पूर्ण प्रकाश गिरता है तुम्हारी काया पर
एक गुलदस्ता जैसा, असीम रूप से अपवर्तक 
कजसमें जल बदलता है वस्त्र और गाता है
दूरस्थ नदी की हर गति के साथ।

प्रिय की अनुपस्थिति किस तरह किसी व्यक्ति को आलोड़ित करती है, विशेष रूप से जब वह उसकी उपस्थिति चाहता हो, 69 वें साॅनेट की इन चार पंक्तियों में अनुभव किया जा सकता है-
संभवतः तुम्हारी अनुपस्थिति ही होना है शून्यता का
तुम्हारे बिना हिले, दोपहर को काटना
एक नीले पुष्प-सा, बिना तुम्हारे टहले
धुंध और पत्थरों से हो कर बाद में

संग्रह का 89 वां साॅनेट भावनाओं के उच्चतम शिखर को छूता हुआ प्रतीत होता है। यह वह अतिसंवेदनशील भावाभिव्यक्ति है जो असाध्य रोग के कारण मृत्यु के सुनिश्चित हो जाने पर अंतिम इच्छा की तरह प्रकट होती है। पंक्तियां देखिए-
जब मैं करूं मृत्यु का वरण, मैं चाहता हूं तुम्हारे हाथों को मेरी ओखों पर
मैं चाहता हूं रोशनी और तुम्हारे प्यारे हाथों का गोरापन
मैं चाहता हूं उन हाथों की स्फूर्ति मुझसे हो कर गुजत्ररे एक बार
मैं करना चाहता हूं उस कोमलता की अनुभूति जिसने परिवर्तित किया मेरा भाग्य।

इसी तारतम्य में 94 वें साॅनेट को भी उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जिसमें एक प्रेमी मृत्यु, प्रेम और परिवेश के समीकरण को अमरत्व प्रदान कर देना चाहता है-
यदि मैं मरूं, तुम इतनी शुद्ध शक्ति के साथ उत्तरजीवी रहो
कि तुम करो विवर्णता और शीतलता को क्रोधित
चमकाओ अपनी अमिट आंखों को दक्षिण से दक्षिण तक
सूर्य से सूर्य तक, जब तक कि गाने न लगे तुम्हारा मुख गिटार-सा

मैं नहीं चाहता तुम्हारी हंसी या पदचाप लगे डगमगाने
मैं नहीं चाहता मेरी प्रसन्नता की विरासत की हो मुत्यु
मत पुकारो मेरे हृदय को, मैं नहीं हूं वहां
मेरी अनुपस्थिति में रहो जैसे रहती हो एक घर में।

‘‘ओ प्रिया’’ अनूदित होते हुए भी पाब्लो के मौलिक साॅनेट्स का आनन्द दे पाने में सक्षम है। यूं भी अनुवाद कार्य दो भाषाओं, दो साहित्यों और दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य करता है। इतना श्रेष्ठ अनुवाद करके विनीत मोहन औदिच्य ने हिन्दी साहित्य और लैटिन अमरीकी साहित्य के बीच एक सृदृढ़ सेतु तैयार किया है। यह काव्य संग्रह न केवल पठनीय अपितु संग्रहणीय भी है।                    
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Wednesday, September 8, 2021

चर्चा प्लस | यह ज़ुनून है, प्रेम तो हरगिज़ नहीं | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस           
यह ज़ुनून है, प्रेम तो हरगिज़ नहीं
       - डाॅ शरद सिंह
इश्क़ है इश्क़ ये मज़ाक नहीं
चंद लम्हों में फ़ैसला न करो।
शायर सुदर्शन फ़ाकिर का यह शेर प्रेम की गंभीरता को बयान करता है। लेकिन इन दिनों प्रेम के नाम पर जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उन्हें पढ़-सुन कर विश्वास होने लगता है कि वह जो कुछ भी हो मगर प्रेम तो हरगिज़ नहीं हो सकता। प्रेम में प्रेमी तो अपनी जान देने को तैयार रहते हैं लेकिन अगर कोई प्रेमी उस लड़की की जान ले ले जिससे वह प्रेम करने का दावा करता है तो यह प्रेम नहीं जुनून ही कहा जाएगा।    
     

बरसों पहले एक फिल्म देखी थी ‘‘लव स्टोरी’’। कुमार गौरव और विजेयता पंडित उसके हीरो-हिरोईन थे। उस फिल्म की पूरी कहानी तो अब मुझे याद नहीं है लेकिन उसमें एक सीन था जो मुझे उस समय भी अच्छा नहीं लगा था। कुमार गौरव और विजेयता पंडित एक ही हथकड़ी से बंधे होते हैं और विजेयता पंडित गुस्से में पत्थर से हथकड़ी तोड़ने का प्रयास करती है। पत्थर धोखे से कुमार गौरव के हाथ में लग जाता है और वह चोटिल होकर विजेयता पंडित के गाल पर एक थप्पड़ जड़ देता है। इससे पहले की फिल्मों में मैंने यही देखा था कि नायक स्वयं चाहे कितना भी कष्ट उठा ले पर नायिका पर कभी हाथ नहीं उठाता था। पहली बार ऐसा दृश्य किसी फिल्म में मैंने देखा था। यह कोई अच्छा दृश्य नहीं था। यदि उस समय तक दोनों में प्रेम नहीं भी था तो भी किसी लड़की पर बिना सोचे-समझे हाथ उठाना सरासर गलत लगा था मुझे। लेकिन अब तो एक तरफा कथित प्रेम के भयावह परिणाम सुनने को मिलने लगे हैं। भला यह कैसा प्रेम कि आप आपने प्रिय को ही मार डालें?

सागर नाम के हमारे इस विकासशील शहर में विकास की गति भले ही धीमी हो लेकिन अपराध के नए नमूने ने शहर को चैंका दिया। घटना इस प्रकार है कि सागर शहर में रहने वाले एक लड़के ने पड़ोस में रहने वाली लड़की को एक तरफा प्रेम के चलते उस समय गोली मार दी जब वह कॉलेज से लौटकर अपने घर जा रही थी। गोली लगने से लड़की की मौके पर ही मौत हो गई। बीच सड़क पर लड़की को गोली लगने से वहां दहशत का माहौल हो गया। घबरा कर स्थानीय लोगों ने पुलिस को सूचना दी। सूचना मिलते ही पुलिस बल मौके पर पहुंची और सड़क पर लहूलुहान पड़े किशोरी के शव को कपड़े से ढंका गया। लड़की के भाई ने बताया कि आरोपी कई दिनों से बहन को परेशान करता था। जिसकी थाने में शिकायत भी की थी। इसी वजह से वह दुश्मनी रखने लगा था। उस लड़के पर छेड़छाड़ का मामला पहले से ही दर्ज है। इसे एक तरफा प्रेम नहीं एक तरफा जृनून ही कहा जाना चाहिए। प्रेम में हिंसा की कोई जगह नहीं होती है। जहां हिंसा की भावना है, वहां तय है कि प्रेम हो ही नहीं सकता है। किसी को जबर्दस्ती पाने की लालसा रखने और किसी को प्रेम करने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होता है। प्रेम हिंसा नहीं समर्पण मांगता है। प्रेम में दुख देने नहीं अपितु सुख देने की भावना होती है।
सागर जैसे सौहाद्र्यपूर्ण, शांत शहर के लिए यह अपने-आप में (मेरी जानकारी में) पहली घटना है। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में इस तरह की घटनाएं यदाकदा पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। 27 दिसम्बर 2017 को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में ग्यारहवीं में पढ़ने वाली एक नाबालिग को गोली मार दी गई। गोली मारने करने वाला 16 साल का किशोर था और वह पिछले 3 महीनों से लड़की को अपने प्रेम प्रस्ताव से परेशान कर रहा था। लड़की इंटर कॉलेज में ग्यारहवीं की छात्रा थी। आरोपित पीड़िता का पड़ोसी था। जब लड़की स्कूल जा रही थी तो रास्ते में लड़के ने उसे रोकने का प्रयास किया। जब लड़की नहीं रुकी तो आरोपित ने देशी तमंचा निकाला और उसके पेट से सटाकर गोली चला दी। इसी तरह 19 फरवरी 2021 को जौनपुर में बाइक सवार युवक ने एक शिक्षिका को गोली मारने के बाद खुद को भी गोली मार ली। मामला एक तरफा प्रेम का बताया गया। कहा गया कि शिक्षिका ने उसका प्रेम प्रस्ताव मानने से इंकार कर दिया जिससे उसने यह जघन्य अपराध कर डाला। भला यह कैसा प्रेम जिसका अंत हिंसा से हो, अपराध से हो।
हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि प्रेेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ वहीं प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’
प्रेम की परिभाषा बहुत कठिन है क्योंकि इसका सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़ दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ, एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति  पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो जाती हैं।
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ आॅफर’ जैसा व्यवहार नहीं है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका प्रेम पात्र भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आह्ल्लाद कैसे देगा? प्रेम तो पूजा की तरह, इबादत की तरह होता है। मंज़र लखनवी के शेर हैं-
दुनिया कहे कुछ है मगर  ईमान की  ये बात
होने की  तरह  हो  तो  इबादत है  मोहब्बत
है जिनसे उन आंखों की कसम खाता हूं ‘मंजर’
मेरे  लिए   परवाना-ए-जन्नत  है  मोहब्बत

सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया। गुरु ने पूछा कि ‘‘बाहर कौन है?’’ शिष्य ने उत्तर दिया-‘‘मैं।’’ अस पर भीतर से गुरू की आवाज आई ‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’’ यह सुन कर दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी। फिर वही प्रश्न किया गुरु ने-‘‘कौन है?’’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया- ‘‘आप ही हैं।’’ और द्वार खुल गया।
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’ इस बात को उन युवाओं को विशेष रूप से समझना चाहिए जो एक तरफा प्रेम को अपना अधिकार समझने लगते हैं और चाहते हैं कि उन्हें प्रेम है तो लड़की भी उन्हें प्रेम करे। अब ये ज़रूरी तो नहीं। जब प्रेम हठधर्मिता बन जाए तो वह प्रेम नहीं रहता। यही हठधर्मी भावना अपराध की भावना को जन्म देने लगती है। जबकि इस तरह का कोई भी अपराध दो परिवारों का सुख-चैन छीन लेता है। जो लड़की अपराध की शिकार होती है उसका परिवार तो दुख से टूटता-विखरता ही है, साथ ही उस लड़के के परिवार पर भी मुसीबत टूट पड़ती है जिसने लड़की पर प्राणघातक हमला किया होता है। वह लड़का पकड़े जाने पर जेल भेज दिया जाता है। वहीं, उस लड़के का पूरा परिवार जीवन भर के लिए पुलिस, कचहरी और कानून के चक्कर में फंस जाता है। कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रेम में देने के बदले में लेने की भावना हो, वह प्रेम सराहनीय नहीं हैे। असली प्रेम तो वह है, जिसमें प्राणों की बाजी तक लगा दी जाती है। यह सोचें बिना, कि हार होगी या जीत, व्यक्ति प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। वह यह आशा नहीं रखता कि उसके द्वारा सब कुछ न्योछावर कर देने के बदले में प्रेमी उसके लिए कितना और क्या करेगा । वह बदले में किसी भी चीज की आशा नहीं रखता। प्रेम का असली स्वरूप यही है, जहां प्रेमी निस्वार्थ भाव से अपने प्रेमी के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देता है। युवाओं को कवि रहीम के इस दोहे से सबक लेना चाहिए कि -
यह न रहीम सराहिये, लेन देन की प्रीति।
प्राणन बाजी राखिए, हार होय कै जीति।।

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(सागर दिनकर, 08.09.2021)
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Wednesday, November 18, 2020

चर्चा प्लस | चिन्ताजनक है प्रेम का हिंसा की ओर बढ़ना | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
चिन्ताजनक है प्रेम का हिंसा की ओर बढ़ना
 - डाॅ शरद सिंह
  महाराष्ट्र के बीड जिले में दिवाली के दिन दिल दहला देने वाली घटना घटी जिसमें एक 22 वर्षीय युवती को उसके बॉयफ्रेंड ने एसिड और पेट्रोल से जलाने के बाद सड़क किनारे फेंक दिया। इस ख़बर ने सोचने को मज़बूर कर दिया है कि क्या प्रेम इतना हिंसात्मक रूप भी ले सकता है? विगत कुछ दशकों से एकतरफा प्रेम अथवा प्रेमिका से छुटकारे के लिए हिंसात्मक कदम उठाए जाने के समाचार अकसर पढ़ने को मिलने लगे हैं। प्रेम का इस तरह हिंसा की ओर बढ़ना चिंतनीय है।   
जिसने भी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ पढ़ी है, उसे वह यह संवाद कभी नहीं भूल सकता कि कहानी का नायक लहना सिंह एक लड़की से पूछता है-‘तेरी कुड़माई हो गई?’ और वह लड़की ‘धत्’ कह कर शरमा जाती है। लड़की ने एक दिन ‘तेरी कुड़माई हो गई’ का उत्तर दे दिया कि ‘हंा, हो गई....!’ लहना विचलित हो गया। उस लड़की का विवाह जिससे हुआ, वह आगे चल कर सेना में सूबेदार बना और वह लड़की कहलाई सूबेदारनी। एक भरा-पूरा परिवार, वीर, साहसी पति, वैसा ही वीर, साहसी बेटा। आर्थिक सम्पन्नता। सामाजिक दृष्टि से सुखद पारिवारिक जीवन। वहीं एकतरफा प्रेम में डूबा लहना सिंह उस लड़की को कभी भुला नहीं सका। युद्ध में जाते समय जब लहना सूबेदार के घर उन्हें लेने गया तो सूबेदारनी ने ही उसे पहचाना और अनुरोध किया कि युद्ध में उसके पति यानी सूबेदार की रक्षा करना। लहना सिंह ने अपना वचन निभाया। लहना चाहता तो सूबेदार को मर जाने देता ओर सूबेदारनी से अपना बदला ले लेता। या फिर बहुत पहले ‘कुड़मई’ की ख़बर पाते ही आक्रामक हो उठता। लेकिन लहना ने कोई गलत कदम नहीं उठाया क्योंकि वह उस लड़की से सच्चा प्रेम कर बैठा था। प्रेम समर्पण मांगता है हिंसा या प्रतिकार नहीं।   

आज के माहौल में लहना सिंह का समर्पित प्रेम मानो कहीं खो गया है। हाल ही में महाराष्ट्र के बीड जिले में दिवाली के दिन की दिल दहला देने वाली घटना ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि क्या प्रेम मर कर हिंसा का रूप ले लेता है या फिर वह वस्तुतः प्रेम होता ही नहीं है? महाराष्ट्र के बीड जिले में एक 22 वर्षीय युवती को उसके बॉयफ्रेंड ने एसिड और पेट्रोल से जलाने के बाद सड़क किनारे फेंक दिया, जहां वह 12 घंटे से अधिक समय तक मौत से जूझती, तड़पती वह पड़ी रही। किसी ने उसे देखा और पुलिस को ख़बर की जिसके बाद उसे अस्पताल पहुंचाया गया। मौत से 16 घंटे तक जूझने के बाद उस युवती ने दम तोड़ दिया। यह सिर्फ़ एक घटना नहीं है। विगत कुछ दशको से ऐसी घटनाएं अकसर पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। देश के हर प्रांत, हर जिले से एक न एक ऐसी घटना प्रकाश में आती रहती है। जून 2016 को रेवाड़ी में एक युवक ने एक तरफा प्यार के चलते युवती को चाकू मार घायल कर दिया था। मार्च 2017 मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में एक युवक ने एकतरफा प्रेम के चलते एक युवती की चाकू मार कर हत्या करने की कोशिश की। युवती को फौरन अस्पताल ले जाया गया। नवंबर 2018 गाजियाबाद के सिहानी गेट थाना क्षेत्र के मालीवाडा में प्रशांत नाम के 28 वर्षीय युवक ने एक 26 वर्षीय युवती पर चाकू से हमला कर दिया। आरोपी प्रेमी ने लड़की के घर पर ही लड़की का गला चाकू से बुरी तरह रेत दिया। ग्रेटर नोएडा के एक मॉल में शुक्रवार को एकतरफा प्रेम प्रसंग के मामले में एक व्यक्ति ने 18 वर्षीय युवती की चाकू घोंपकर हत्या कर दी और इसके बाद अपने आप को भी मारने की कोशिश की। नवंबर 2019 अलीगढ़ के इगलास कोतवाली क्षेत्र के गांव जारौठ में एकतरफा प्रेम में पागल प्रेमी ने युवती की घर में घुसकर बेरहमी से हत्या कर दी। 19 वर्षीय युवती की 15 दिसंबर को शादी होने वाली थी। शादी की खबर से युवक आहत था। उसने सोमवार दोपहर युवती के घर में घुसकर उसकी गर्दन, छाती और पेट में चाकू से प्रहार किए और भाग गया। जून 2020 कोतवाली थाना क्षेत्र में एक सिरफिरे आशिक ने एकतरफा प्रेम में पड़ोस में रहने वाली लड़की पर चाकू से हमला कर दिया। ओरछा गेट निवासी विनोद पड़ोस में रहने वाली एक लड़की से एकतरफा प्यार करता था। साथ ही वह लड़की पर आये दिन शादी करने का दबाव बनाता था। जब ऐसा नहीं हो सका तो विनोद ने बुधवार की दोपहर लड़की पर चाकू से हमला कर दिया। जून 2020 दिल्ली से सटे गाजियाबाद के तुलसी निकेतन में एकतरफा प्यार में पागल एक सनकी प्रेमी ने एक युवती की चाकू से गोदकर निर्ममता से हत्या कर दी। आरोपी युवक उस युवती की कहीं और शादी तय होने से नाराज था। 

ये तो मामले हैं एकतरफा प्रेम के हिंसात्मक परिणाम के। अब लिवइन में अपनी पार्टनर से पीछा छुड़ाने के लिए हिंसात्मक तरीके अपनाएं जाने लगे हैं। जबकि लिवइन का आधार ही है प्रेम, समर्पण और विश्वास। लेकिन इस प्रकार की हिंसात्मक घटनाओं को देखते हुए लगने लगा है मानो प्रेम से ये तीनों आधार तत्व लुप्त होते जा रहे हैं। ‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं का विषय मानता है। कहा तो यह भी जाता है कि प्रेम सोच-समझ कर नहीं किया जाता है। यदि सोच-समझ को प्रेम के साथ जोड़ दिया जाए तो लाभ-हानि का गणित भी साथ-साथ चलने लगता है। बहरहाल सच्चाई तो यही है कि प्रेम बदले में प्रेम ही चाहता है और इस प्रेम में कोई छोटा या बड़ा हो ही नहीं सकता है। जहां छोटे या बड़े की बात आती है, वहीं प्रेम का धागा चटकने लगता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।’ प्रेम सरलता, सहजता और स्निग्धता चाहता है, अहम की गंाठ नहीं। इसीलिए जब प्रेम किसी सामाजिक संबंध में ढल जाता है तो प्रेम करने वाले दो व्यक्तियों का पद स्वतः तय हो जाता है। स्त्री और पुरुष के बीच का वह प्रेम जिसमें देह भी शामिल हो पति-पत्नी का सामाजिक रूप लेता है। हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्रा और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि प्रेेम एक  संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ कथा सम्राट प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’ 

बेशक़ प्रेम की परिभाषा। प्रेम का अर्थ, एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घ्बहुत कठिन है घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। तभी तो कबीर ने कहा है कि -
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, हुआ न पंडित कोय। 
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।

लेकिन वर्तमान परिदृश्य चिंता में डालने वाला है। प्रेम हिंसा की ओर बढ़ता दिखाई देने लगा है। इसके कारणों पर गौर करें तो तो मूल करण यही दिखाई देते हैं कि एक तो मानवीय मूल्यों में तेजी से कमी आती जा रही है और दूसरे, युवाओं में प्रेम संबंधों को ले कर असुरक्षा की भावना बढ़ रही है। ये दोनों कारण ‘‘प्रेम करने का भ्रम पालने वालों’’ को हिंसाात्मक बना देता है। असली प्रेम करने वाले कभी, किसी भी दशा में अपने प्रिय का अहित नहीं कर सकते हैं। इस हिंसात्मक आचरण के लिए कहीं न कहीं घरेलूहिंसा भी जिम्मेदार है। जो बच्चे अपने घर में स्त्रियों के प्रति हिंसात्मक रवैया देखते हैं, वही बच्चे बड़े हो कर स्त्रियों के प्रति हिंसात्मक कदम उठाने से नहीं हिचकते हैं। समाज से जुड़ा यह एक ऐसा विषय है जिसकी अनदेखी नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय संस्कृति प्रेम की पक्षधर है हिंसा की नहीं।               
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(दैनिक सागर दिनकर में 18.11.2020 को प्रकाशित)
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