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पुस्तक समीक्षा | प्रेम को व्याख्यायित करते बेजोड़ साॅनेट्स | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 09.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि विनीत मोहन औदिच्य द्वारा अनूदित काव्य संग्रह "ओ प्रिया" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम को व्याख्यायित करते बेजोड़ साॅनेट्स
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - ओ प्रिया
अनुवादक - विनीत मोहन औदिच्य
प्रकाशक - ब्लैक ईगल बुक्स, 7464, विस्डम लेन, डब्लिन, ओहायो (यूएसए)
मूल्य - 180/-
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इस बार समीक्षा के लिए जो काव्य संग्रह मैंने चुना है उसका नाम है ‘‘ओ प्रिया’’। यह नोबल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरुदा के एक सौ प्रेम साॅनेट का हिन्दी में काव्यात्मक अनुवाद है। इसके अनुवाद हैं सागर निवासी विनीत मोहन औदिच्य। यह पुस्तक अमरीकी प्रकाशक ब्लैक ईगल बुक्स का इंटरनेशनल एडीशन है। यूं तो ब्लैक ईगल बुक्स का मुख्यालय ओहायो स्टेट के डब्लिन शहर में स्थित है किन्तु भारत में ओडीशा के कलिंग नगर, भुवनेश्वर में भी इसका कार्यालय है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन मानक के अनुरुप यह पुस्तक आकर्षक मुद्रण में पेपरबैक है। जहां तक इस पुस्तक के कलेवर का प्रश्न है तो इसका मैंने दो तथ्यों के साथ आकलन करना उचित समझा है- पहला पाब्लो नेरुदा से जुड़े तथ्य और दूसरा हिन्दी साहित्य में साॅनेट की स्थिति। इन दो तथ्यों से गुज़र कर ही इस समीक्ष्य पुसतक की उपादेयता को परखा जा सकता है।
पाब्लो नेरुदा मात्र एक कवि ही नहीं बल्कि राजनेता और कूटनीतिज्ञ भी थे। 1970 में चिली में सल्वाडोर अलेंदे ने साम्यवादी सरकार बनाई जो विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई साम्यवादी सरकार थी। अलेंदे ने 1971 में नेरूदा को फ्रांस में चिली का राजदूत नियुक्त किया। और इसी वर्ष उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला। 1973 में चिली के सैनिक जनरल ऑगस्टो पिनोचे ने अलेंदे सरकार का तख्ता पलट दिया। इसी कार्रवाई में राष्ट्रपति अलेंदे की मौत हो गई और आने वाले दिनों में अलेंदे समर्थक हजारों आम लोगों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया। कैंसर से बीमार नेरूदा चिली में अपने घर में बंद इस जनसंहार के समाप्त होने की प्रार्थना करते रहे। लेकिन अलेंदे की मौत के 12 दिन बाद ही नेरूदा ने दम तोड़ दिया। 23 सितंबर, 1973 को चिली के सैंटियागो में नोबेल पुरस्कार पाने के दो साल बाद नेरुदा का निधन हो गया। हालाँकि उनकी मौत को प्रोस्टेट कैंसर के लिए आधिकारिक रूप से जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन आरोप लगाए गए हैं कि कवि को जहर दिया गया था, क्योंकि तानाशाह ऑगस्टो पिनोशे के सत्ता में आने के ठीक बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। पाब्लो ने अपने जीवन में दो भावनाओं को प्रबल रूप से जिया जिसमें एक थी देश के प्रति प्रेम जिसके लिए वे राजनीति के क्षेत्र में संघर्ष करते रहे और दूसरी भावना थी प्रेम की। जो उन्हें जब सच्चे प्रेम के रूप में अनुभव हुई तो उन्होंने प्रेम पर वे साॅनेट लिख डाले जिन्होंने उन्हें विश्व में एक रोमांटिक कवि की ख्याति दिला दी।
पाबलो नेरुदा ने तीन विवाह किए। आरम्भ के दो विवाह सफल नहीं रहे किन्तु तीसरा विवाह उन्होंने अपनी प्रेमिका मेडिल्टा उर्रुटिया सेर्डा से किया। मेडिल्टा फिजियो थेरेपिस्ट थीं और उनसे लगभग आठ वर्ष छोटी थीं। वे लैटिन अमेरिका की पहली पेड्रियाटिक थेरेपिस्ट थीं। मेडिल्टा के प्रेम में डूब कर पाब्लो नेरुदा ने ‘‘सिएन साॅनेटोज़ डी अमोर’’ अर्थात् ‘‘प्रेम के सौ साॅनेट्स’’ लिखे। इसी पुस्तक का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है ‘‘ओ प्रिया’’ के नाम से। इस पुस्तक के अनुवादक विनीत मोहन औदिच्य स्वयं भी एक साॅनेटकार हैं और उनके द्वारा अनूदित अंग्रेजी साॅनेट्स की एक और पुस्तक ‘‘प्रतीची से प्राची पर्यांत’’ की समीक्षा भी मैं इसी स्तम्भ में कर चुकी हूं। हिन्दी साहित्य में साॅनेट विधा को मौलिक सृजन के रूप में गंभीरता से परिचित कराने का श्रेय है कवि त्रिलोचन शास्त्री को। प्रारम्भ में हिंदी में सॉनेट को विदेशी विधा होने के कारण स्वीकार नहीं किया गया किन्तु त्रिलोचन शास्त्री ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया. इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवतः स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया।
विनीत मोहन औदिच्य के अनुवाद की यह विशेषता है कि वे विदेशी भाषा के साॅनेट के अनुवाद को हिन्दी में साॅनेट के रूप में ही करते हैं। जबकि काव्यानुवाद अपने आप में चुनौती भरा कार्य होता है। क्योंकि जब किसी विदेशी काव्य को अनुवाद के लिए चुना जाता है तो उसमें वर्णित दृश्य, देशज स्थितियां और तत्संबंधी कालावधि की समुचित जानकारी अनुवादक के लिए आवश्यक होती है। जैसे पाब्लो के साॅनेट्स में चिली के समुद्रतट, समुद्र और मछुवारों का वर्णन मिलता है जो भारतीय समुद्रतटों और मछुवारों की जीवन दशाओं से सर्वथा भिन्न है। इसी तरह की अनेक छोटी-बड़ी विशेषताओं का ज्ञान होना अनुवाद के लिए आवश्यक हो जाता है। इसके साथ ही जरूरी हो जाता है अनुवाद के लिए चुनी गई कृति और उसके कवि की भावनाओं से तादात्म्य स्थापित करना। इस सबके बाद ही काव्यानुवादक अनुवाद के लिए सटीक शब्दों का चयन कर पाता है। विनीत मोहन औदिच्य ने जिस आत्मीयता के साथ पाब्लो के साॅनेट्स को हिन्दी में पिरोया है, वह प्रभावित करने वाला है। संग्रह की अनूदित कविताओं को पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि अनुवादक ने पाब्लो की भावनाओं को भली-भांति समझा है और साथ ही उनके परिवेश को भी अनुवादकार्य के दौरान आत्मसात किया है। उनके शब्दों का चयन प्रभावित करता है क्यों वे शब्द मूल कविता की आत्मा को साथ ले कर चलते हैं। उदाहरण के लिए 18 वां साॅनेट की ये पंक्तियां देखें-
तुम बहती हो पर्वत श्रृंखलाओं में पवन जैसी
बर्फ़ के नीचे गिरते हुए तीव्र झरने सी
तुम्हारे सघन केश धड़कते हैं सूर्य के
उच्च अलंकरणों से, दोहराते हुए उन्हें मेरे लिए।
काकेशस का सम्पूर्ण प्रकाश गिरता है तुम्हारी काया पर
एक गुलदस्ता जैसा, असीम रूप से अपवर्तक
कजसमें जल बदलता है वस्त्र और गाता है
दूरस्थ नदी की हर गति के साथ।
प्रिय की अनुपस्थिति किस तरह किसी व्यक्ति को आलोड़ित करती है, विशेष रूप से जब वह उसकी उपस्थिति चाहता हो, 69 वें साॅनेट की इन चार पंक्तियों में अनुभव किया जा सकता है-
संभवतः तुम्हारी अनुपस्थिति ही होना है शून्यता का
तुम्हारे बिना हिले, दोपहर को काटना
एक नीले पुष्प-सा, बिना तुम्हारे टहले
धुंध और पत्थरों से हो कर बाद में
संग्रह का 89 वां साॅनेट भावनाओं के उच्चतम शिखर को छूता हुआ प्रतीत होता है। यह वह अतिसंवेदनशील भावाभिव्यक्ति है जो असाध्य रोग के कारण मृत्यु के सुनिश्चित हो जाने पर अंतिम इच्छा की तरह प्रकट होती है। पंक्तियां देखिए-
जब मैं करूं मृत्यु का वरण, मैं चाहता हूं तुम्हारे हाथों को मेरी ओखों पर
मैं चाहता हूं रोशनी और तुम्हारे प्यारे हाथों का गोरापन
मैं चाहता हूं उन हाथों की स्फूर्ति मुझसे हो कर गुजत्ररे एक बार
मैं करना चाहता हूं उस कोमलता की अनुभूति जिसने परिवर्तित किया मेरा भाग्य।
इसी तारतम्य में 94 वें साॅनेट को भी उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जिसमें एक प्रेमी मृत्यु, प्रेम और परिवेश के समीकरण को अमरत्व प्रदान कर देना चाहता है-
यदि मैं मरूं, तुम इतनी शुद्ध शक्ति के साथ उत्तरजीवी रहो
कि तुम करो विवर्णता और शीतलता को क्रोधित
चमकाओ अपनी अमिट आंखों को दक्षिण से दक्षिण तक
सूर्य से सूर्य तक, जब तक कि गाने न लगे तुम्हारा मुख गिटार-सा
मैं नहीं चाहता तुम्हारी हंसी या पदचाप लगे डगमगाने
मैं नहीं चाहता मेरी प्रसन्नता की विरासत की हो मुत्यु
मत पुकारो मेरे हृदय को, मैं नहीं हूं वहां
मेरी अनुपस्थिति में रहो जैसे रहती हो एक घर में।
‘‘ओ प्रिया’’ अनूदित होते हुए भी पाब्लो के मौलिक साॅनेट्स का आनन्द दे पाने में सक्षम है। यूं भी अनुवाद कार्य दो भाषाओं, दो साहित्यों और दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य करता है। इतना श्रेष्ठ अनुवाद करके विनीत मोहन औदिच्य ने हिन्दी साहित्य और लैटिन अमरीकी साहित्य के बीच एक सृदृढ़ सेतु तैयार किया है। यह काव्य संग्रह न केवल पठनीय अपितु संग्रहणीय भी है।
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Wednesday, September 8, 2021
चर्चा प्लस | यह ज़ुनून है, प्रेम तो हरगिज़ नहीं | डाॅ शरद सिंह
चर्चा प्लस
यह ज़ुनून है, प्रेम तो हरगिज़ नहीं
- डाॅ शरद सिंह
इश्क़ है इश्क़ ये मज़ाक नहीं
चंद लम्हों में फ़ैसला न करो।
शायर सुदर्शन फ़ाकिर का यह शेर प्रेम की गंभीरता को बयान करता है। लेकिन इन दिनों प्रेम के नाम पर जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उन्हें पढ़-सुन कर विश्वास होने लगता है कि वह जो कुछ भी हो मगर प्रेम तो हरगिज़ नहीं हो सकता। प्रेम में प्रेमी तो अपनी जान देने को तैयार रहते हैं लेकिन अगर कोई प्रेमी उस लड़की की जान ले ले जिससे वह प्रेम करने का दावा करता है तो यह प्रेम नहीं जुनून ही कहा जाएगा।
बरसों पहले एक फिल्म देखी थी ‘‘लव स्टोरी’’। कुमार गौरव और विजेयता पंडित उसके हीरो-हिरोईन थे। उस फिल्म की पूरी कहानी तो अब मुझे याद नहीं है लेकिन उसमें एक सीन था जो मुझे उस समय भी अच्छा नहीं लगा था। कुमार गौरव और विजेयता पंडित एक ही हथकड़ी से बंधे होते हैं और विजेयता पंडित गुस्से में पत्थर से हथकड़ी तोड़ने का प्रयास करती है। पत्थर धोखे से कुमार गौरव के हाथ में लग जाता है और वह चोटिल होकर विजेयता पंडित के गाल पर एक थप्पड़ जड़ देता है। इससे पहले की फिल्मों में मैंने यही देखा था कि नायक स्वयं चाहे कितना भी कष्ट उठा ले पर नायिका पर कभी हाथ नहीं उठाता था। पहली बार ऐसा दृश्य किसी फिल्म में मैंने देखा था। यह कोई अच्छा दृश्य नहीं था। यदि उस समय तक दोनों में प्रेम नहीं भी था तो भी किसी लड़की पर बिना सोचे-समझे हाथ उठाना सरासर गलत लगा था मुझे। लेकिन अब तो एक तरफा कथित प्रेम के भयावह परिणाम सुनने को मिलने लगे हैं। भला यह कैसा प्रेम कि आप आपने प्रिय को ही मार डालें?
सागर नाम के हमारे इस विकासशील शहर में विकास की गति भले ही धीमी हो लेकिन अपराध के नए नमूने ने शहर को चैंका दिया। घटना इस प्रकार है कि सागर शहर में रहने वाले एक लड़के ने पड़ोस में रहने वाली लड़की को एक तरफा प्रेम के चलते उस समय गोली मार दी जब वह कॉलेज से लौटकर अपने घर जा रही थी। गोली लगने से लड़की की मौके पर ही मौत हो गई। बीच सड़क पर लड़की को गोली लगने से वहां दहशत का माहौल हो गया। घबरा कर स्थानीय लोगों ने पुलिस को सूचना दी। सूचना मिलते ही पुलिस बल मौके पर पहुंची और सड़क पर लहूलुहान पड़े किशोरी के शव को कपड़े से ढंका गया। लड़की के भाई ने बताया कि आरोपी कई दिनों से बहन को परेशान करता था। जिसकी थाने में शिकायत भी की थी। इसी वजह से वह दुश्मनी रखने लगा था। उस लड़के पर छेड़छाड़ का मामला पहले से ही दर्ज है। इसे एक तरफा प्रेम नहीं एक तरफा जृनून ही कहा जाना चाहिए। प्रेम में हिंसा की कोई जगह नहीं होती है। जहां हिंसा की भावना है, वहां तय है कि प्रेम हो ही नहीं सकता है। किसी को जबर्दस्ती पाने की लालसा रखने और किसी को प्रेम करने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होता है। प्रेम हिंसा नहीं समर्पण मांगता है। प्रेम में दुख देने नहीं अपितु सुख देने की भावना होती है।
सागर जैसे सौहाद्र्यपूर्ण, शांत शहर के लिए यह अपने-आप में (मेरी जानकारी में) पहली घटना है। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में इस तरह की घटनाएं यदाकदा पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। 27 दिसम्बर 2017 को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में ग्यारहवीं में पढ़ने वाली एक नाबालिग को गोली मार दी गई। गोली मारने करने वाला 16 साल का किशोर था और वह पिछले 3 महीनों से लड़की को अपने प्रेम प्रस्ताव से परेशान कर रहा था। लड़की इंटर कॉलेज में ग्यारहवीं की छात्रा थी। आरोपित पीड़िता का पड़ोसी था। जब लड़की स्कूल जा रही थी तो रास्ते में लड़के ने उसे रोकने का प्रयास किया। जब लड़की नहीं रुकी तो आरोपित ने देशी तमंचा निकाला और उसके पेट से सटाकर गोली चला दी। इसी तरह 19 फरवरी 2021 को जौनपुर में बाइक सवार युवक ने एक शिक्षिका को गोली मारने के बाद खुद को भी गोली मार ली। मामला एक तरफा प्रेम का बताया गया। कहा गया कि शिक्षिका ने उसका प्रेम प्रस्ताव मानने से इंकार कर दिया जिससे उसने यह जघन्य अपराध कर डाला। भला यह कैसा प्रेम जिसका अंत हिंसा से हो, अपराध से हो।
हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि प्रेेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ वहीं प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’
प्रेम की परिभाषा बहुत कठिन है क्योंकि इसका सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़ दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ, एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो जाती हैं।
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ आॅफर’ जैसा व्यवहार नहीं है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका प्रेम पात्र भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आह्ल्लाद कैसे देगा? प्रेम तो पूजा की तरह, इबादत की तरह होता है। मंज़र लखनवी के शेर हैं-
दुनिया कहे कुछ है मगर ईमान की ये बात
होने की तरह हो तो इबादत है मोहब्बत
है जिनसे उन आंखों की कसम खाता हूं ‘मंजर’
मेरे लिए परवाना-ए-जन्नत है मोहब्बत
सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया। गुरु ने पूछा कि ‘‘बाहर कौन है?’’ शिष्य ने उत्तर दिया-‘‘मैं।’’ अस पर भीतर से गुरू की आवाज आई ‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’’ यह सुन कर दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी। फिर वही प्रश्न किया गुरु ने-‘‘कौन है?’’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया- ‘‘आप ही हैं।’’ और द्वार खुल गया।
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’ इस बात को उन युवाओं को विशेष रूप से समझना चाहिए जो एक तरफा प्रेम को अपना अधिकार समझने लगते हैं और चाहते हैं कि उन्हें प्रेम है तो लड़की भी उन्हें प्रेम करे। अब ये ज़रूरी तो नहीं। जब प्रेम हठधर्मिता बन जाए तो वह प्रेम नहीं रहता। यही हठधर्मी भावना अपराध की भावना को जन्म देने लगती है। जबकि इस तरह का कोई भी अपराध दो परिवारों का सुख-चैन छीन लेता है। जो लड़की अपराध की शिकार होती है उसका परिवार तो दुख से टूटता-विखरता ही है, साथ ही उस लड़के के परिवार पर भी मुसीबत टूट पड़ती है जिसने लड़की पर प्राणघातक हमला किया होता है। वह लड़का पकड़े जाने पर जेल भेज दिया जाता है। वहीं, उस लड़के का पूरा परिवार जीवन भर के लिए पुलिस, कचहरी और कानून के चक्कर में फंस जाता है। कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रेम में देने के बदले में लेने की भावना हो, वह प्रेम सराहनीय नहीं हैे। असली प्रेम तो वह है, जिसमें प्राणों की बाजी तक लगा दी जाती है। यह सोचें बिना, कि हार होगी या जीत, व्यक्ति प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। वह यह आशा नहीं रखता कि उसके द्वारा सब कुछ न्योछावर कर देने के बदले में प्रेमी उसके लिए कितना और क्या करेगा । वह बदले में किसी भी चीज की आशा नहीं रखता। प्रेम का असली स्वरूप यही है, जहां प्रेमी निस्वार्थ भाव से अपने प्रेमी के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देता है। युवाओं को कवि रहीम के इस दोहे से सबक लेना चाहिए कि -
यह न रहीम सराहिये, लेन देन की प्रीति।
प्राणन बाजी राखिए, हार होय कै जीति।।
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(सागर दिनकर, 08.09.2021)
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