Friday, March 31, 2023

ट्रेवलर डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कुबेर वाटिका सागर

🥤किसी रेस्टोरेंट में क्या हम सिर्फ़ खाना खाने जाते हैं। आप कहेंगे बेशक खाना खाने जाते ही हैं वरना क्यों जाएंगे रेस्टोरेंट्स?... लेकिन मैं कहूंगी कि "सिर्फ़  खाना खाने क्यों?"...🍵 खाने के अलावा भी  वहां  बहुत कुछ मौजूद रहता है जो हमारी ख़ुशियां बढ़ा सकता है...🎠🎡  🎠 ... और मैं ऐसे मौकों की तलाश में रहती हूं जो मुझे तो खुशी ही देता है, मेरे साथ, मेरे आस-पास मौज़ूद लोगों को भी ख़ुश होने का अवसर देता है और मेरा बचपना देखकर उनके भीतर दबा हुआ बचपना जाग उठता है ...
🌹यही तो असली मक़सद होता है आउटिंग का ...कि हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से कुछ अलग हटकर, कुछ अलग तरीके से जिएं ... भले ही कुछ पल के लिए ही सही.. लेकिन अपने मानसिक तनाव से दूर प्रसन्नचित्त होकर....
🌹29 मार्च 2023 को परेड मंदिर जाने के बाद मुझे शहर से कुछ दूर कुबेर वाटिका रेस्टोरेंट्स जाने का अवसर मिला। वहां मैंने खाना तो खाया ही लेकिन वहां परिसर में रखे हुए बच्चों के खेलने के उपकरणों ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। उसके बाद के दृश्य आप इन तस्वीरों में देख सकते हैं ...
... क्या करूं आदत से लाचार हूं🙃😛🥳 हर समय गंभीर बने रहना मुझे नहीं आता...
😀🤷😀 🎠🎡🎠😀🤷😀
#explore_your_near_about
#ilovetravel  #ilovetravelling 
💠Traveling Date ..29.03.2023

#travelermisssharadsingh 
#DrMissSharadSingh 
#travelphotography #mylife  #journeys #sagar #डॉसुश्रीशरदसिंह

Thursday, March 30, 2023

ट्रेवलर डॉ (सुश्री) शरद सिंह | परेड मंदिर सागर | धार्मिक पर्यटन

🚩कल शाम एक और लिटिल यात्रा ...  स्थानीय परेड मंदिर जो हनुमानजी का मंदिर है... यहां हनुमानजी की मूंछों वाली प्रतिमा है, बिलकुल किसी सिपाही की तरह.... 
🦉हर यात्रा चाहे छोटी हो या बड़ी, धार्मिक हो या सिर्फ पर्यटन पर केंद्रित कुछ न कुछ नया देखने का, सोचने का, समझने का अवसर देती है.... 
     मुझे लग रहा था कि अष्टमी की शाम है तो मंदिर में बहुत भीड़ होगी लेकिन जब मैं वहां पहुंची तो देखा कि मंदिर में काफी सूनापन था तब मुझको याद आया कि अष्टमी पर तो लोग अपने पैतृक निवास या अपने गांव अपने कुल देवी-देवता का पूजन करने जाते हैं और इसीलिए मंदिर सूना-सूना था... यूं भी आमतौर पर सभी हनुमान मंदिर में शनिवार और मंगलवार को ही सर्वाधिक भीड़ होती है शेष दिनों में उतनी नहीं....
     मंदिर प्रांगण में अन्य देवी-देवताओं  के भी छोटे-छोटे मंदिर है जैसे एक मंदिर में श्रीसीता, राम और लक्ष्मण की प्रतिमाएं हैं। तो दूसरे में देवी मां की प्रतिमा है वहां यज्ञ स्थल और सभागृह भी है... दीवार पर बनाई गई सुंदर पेंटिंग्स कृष्ण कथा को दर्शाती हैं... विशालकाय पीतल का घंटा अपने आप में आकर्षण का केंद्र है... 
      यदि धार्मिकता से हटकर देखें तो सबसे सुंदर है वहां का सुरम्य वातावरण.... कैंट एरिया में स्थित यह मंदिर अत्यंत साफ-सुथरे वातावरण में मौजूद है वहां पहुंचकर बहुत ही अच्छा और शांति का अनुभव होता है ऊंचे-ऊंचे पेड़ प्रकृति की निकटता का एहसास कराते हैं.... 
#ilovetravel #ilovetravelling 
💠Traveling Date ..29.03.2023

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बतकाव बिन्ना की | काए, जो सब का चल रओ? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"काए, जो सब का चल रओ?"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
काए, जो सब का चल रओ?                  
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘भैयाजी! एक ठइयां बात बताओ!’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘पूछो! का पूछ रईं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे बताओ के जो सब का चल रओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जो सब? का सब?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे जेई सब!’’ मैंने कई।
‘‘हमें नोई समझ पर रई तुमाई बतकाव? तनक खुल के बोलो के का पूछो चा रईं?’’ भैयाजी झुंझलात भए बोले।
‘‘अरे जोई के कोनऊं धनी कै रओ के अपने गांधी बापू ने वकालत की कोनऊं डिग्री ने लई हती, तो कोनऊं कै रओ के राहुल गांधी खों संसद से निकार दओ, सो अच्छो करो। जो सब का आए? जे सो ऐसो लगत आए के कोनऊं खों गांधी नांव से खुन्नस आए। ने तो मोहनदास से खुन्नस, ने तो राहुल से। काय नई लगत ऐसो?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो तुमें का? जोन खों जो कछुू बोलने होय सो बोलन देओ। तुम ने परो जे सब में।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काय ने परो का मोहनदास करमचंद गांधी जी अपने राष्ट्रपिता नोंई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘सो ईसे का? का उनके पढ़े, ने पढ़े से का बे अपन ओरन के बापू ने रैहें? अपने इते सो दूसरी फेल सांसद रै चुके आएं। जे राजनीति में पढ़े, ने पढ़े से कोनऊं फरक नईं परत। बाकी अपने बापू पे कोनऊं ऐसी-वेसी बात होनी ने चाइए। ईसे बिदेसन तक में गलत असर परत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, जेई से सो राहुल भैया खों हड़काओ गओ के बे बिलायत की अनवरसिटी में काय इते की बोल आए?’’ मैंने कई।
‘‘सो का जेई के लाने उने संसद से निकार दओ गओ?’’ भैयाजी ने अचरज से पूछी।
‘‘अरे नईं, बा तो उनसे जे लाने संसद की सदस्यता छुड़ा लई गई के उन्ने चार साल पैले कोनऊं खों अपमान करबे वालो डायलाॅग बोल दओ रओ।’’ मैंने भैयाजी के आगूं अपनो अधकचरो ज्ञान बघारो।
‘‘लेओ, उन्ने अपमान करोे चार साल पैले औ सदस्यता छिनी अबे?’’ भैयाजी बोले। फेर बे मजाक करत भए कै बैठे के -‘‘बड़ी जल्दी करी।’’
‘‘हऔ, अपने इते की अदालते सो ऊंसई तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख के लाने मशहूर आएं, जे सो सांची में कछु जल्दी निपट गए।’’ मैंने कई। मोए अपने सनी देओल भैया की बा फिलम याद आ गई जोन में जा तारीख वारो डायलाॅग उन्ने बोलो रओ। शायद ‘‘दामिनी’’ हती बा फिलम।
‘‘का सोचन लगी?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मोय याद आ गई के मैंने एक भौत बड्डे वाले संपादकजी की पोस्ट पे टिप्पणी करी के जो कऊं आज लेखक जार्ज आर्वेल होते सो बे का लिखते? उन्ने जवाब दओ के बे 1984 सो लिख चुके, 2024 ही लिखते। मोरो जी करो के मैं टिप्पणी करौं के जे गलत जवाब! काय से के जार्ज आर्वेल ने 1948 में लिखी रई ‘‘1984’’ जो 1949 में छपी रई। सो बे आज होते तो ‘‘2042’’ लिखते 2024 नोईं। औ 2042 बी काय, बे 2023 में 2032 लिखते। है के नईं?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो तुमने ऐसो लिखो नई उनको?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अब ऐसो आए के मोरे मन में उनके लाने बड़ो सम्मान आए, सो मोसे जे ठिठोली करी ने गई।’’ मैंने कई।
‘‘अच्छी करी! अब जे गुणा-भाग छोड़ो के बे तुमाए का कहाउत आएं, के जार्ज आरवेल होते सो का लिखते औ का नई लिखते? बे होते सो अपनी कलमई तोड़ताड़ के मईं खों फेक देते। काय से के इते कल को भरोसो नईं के कल को का कै देवै।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सही कई भैयाजी आपने! मनो भगवान ने मों दओ, सो ऊंको कैसऊं बी चलात रओ, जे मोय सोई नई पोसात। कछू सो गम्म खाओ चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘ओ छोड़ो, जे कां की राजनीति की सल्ल ले बैठीं। जे बताओ के परों संझा को कां गई हतीं? हम तुमाए दुआरे के आगूं से कढ़े सो ताला परो दिखो।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘भूल गए आप? मैंने आप के लाने बताई तो हती के मोय बा नाटक देखबे जाने है, आपके लाने सो सोई मैंने कही रई के आप सोई चलो। पर आप बोले हते के आपखों कछू जरूरी काम हतो।’’ मैंने भैयाजी खों याद कराई।
‘‘अरे हओ! मोय सोई देखने रओ, बड़ो अच्छो सो नांव रओ ऊं नाटक को।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ ऊंको नांव रओ -‘ऐरी बऊ, कबे बज हे रमतूला’। बे अपने जगदीश शर्मा भैया है न, उन्ने लिखो रओ औ उन्ने ई ऊको डायरेक्शन करो रओ। बे भए औ अपने अतुल श्रीवास्तव भैया भए औ बे सतीश साहू भैया, जे इन ओरन ने एक्टिंग करी, मंच सम्हारो औ संगे बाजे सोई बजाओ। औ हम का बताएं आपके लाने भैया जी के अतुल भैया हरें सो इत्ती नोनी लुगाई बने रए के देख के मजोई आ गओ। जे सो बड़ी काली मूंछें औ ऊपे मूंड़ पे धुतिया को घूंघट सो करें, देखतई बन रए हते। बाकी जोन को रमतूला ने बज पा रओ हतो बा कल्लू बने हते अपने कपिल नाहर भैया। ऐसी नोनी एक्टिंग करी के ने पूछो। बाकी सबई जने अच्छे रए। आपने देखी होती सो आपको भौतई अच्छो लगतो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘अब का करो जाए, कछू जरूरी सो काम आन परो रऔ, ने तो मोय सो जानेई रओ। एक सो नाटक औ वा बी अपनी बुंदेली में। मोय सो बड़ी ललक रई देखबे की।’’ भैयाजी तनक पछतात से बोले।
‘‘अरे कछू नईं भैयाजी! जी छोटो ने करो! जो फेर के हुइए, सो देख लइयो। अबईं सो जे नाटक खों देखो जो अपने इते की राजनीति में चल रओ आए।’’ मैंने भैयाजी खों तनक चुटकी लई।
‘‘तुम सोई, फेर उतई के उतई आ गईं!’’ भैयाजी खों हंसी आई गई।
‘‘हऔ, सो का करो जाए। चाए फेसबुक देख लेओ, चाए ट्विटर देख लेओ औ चाय व्हाट्सअप्प देख लेओ, सबई जागां, सबई जने राजनीति के एक्पर्ट घांईं गिचड़ कर रए। इत्ती ज्यादा किचर-किचर हो रई आए के अब तो मोसे जे सोशल मीडिया देखो नई जा रओ।’’ मैंने कई।
‘‘सो काय देख रईं? देवी मैया के दरसन करो औ भजन गाओ।’’भैयाजी बोले।
‘‘देवी दरसन की ने कऔ भैयाजी! मैं सो रानगिर वारी औ बाघराज वारी दोई हरसिद्धी माता के दरसन कर आई औ भजन सोई गा आई। मैंने ढोल सोई बजा के देख लओ। मनो जे बड़ी पोल वारी राजनीति की ढोल कछू ज्यादी जोर से ढमर-ढमर कर रई। ईके मारे कछू औ सुनाई नई परत।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, कै सो सांची रईं तुम। सुनाई की सो छोड़ो, कछू के कछू समझ परत आए। अभईं ऊं दिनां तुमाई भौजी बोलीं जे किवार के जोड़े खुले जा रए, तनक इनखों बनवा दइयो। औ हमने सुनी का? के बे बोल रईं के हम किवार जोड़बे जा रए। सो हम कै बैठे के मोरी धना जे जोड़ा-जोड़ी ने करो, ने तो तोड़ा-तोड़ी हो जेहै। बे जा सुन के बोलीं- के का सठिया गए जो अंटशंट बके जा रए? हम किवार के जोड़ ठीक कराबे की कै रए भारत जोड़बे की नोंईं।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘जे सोई खूब रई।’’ मोय हंसी फूट परी। भैयाजी सोई हंसन लगे।  
सो, मोरे भैया-बैन हरों, रई मोरे सवाल की, सो बा तो अबे लों स्टेंडबाई आए के-‘‘काय जो सब का चल रओ?’’ मनो, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, March 29, 2023

चर्चा प्लस | टेक्नोलाॅजी हमारे लिए है या हम टेक्नोलाॅजी के लिए? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
टेक्नोलाॅजी हमारे लिए है या हम टेक्नोलाॅजी के लिए?
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                   
       पर्यावरण की बहुत सीधी सरल परिभाषा है कि- वह वातावरण जिसने हमें चारो ओर से घेर रखा हो। लेकिन आज पर्यावरण से अधिक हम टेक्नोलॉजी से घिरे दिखाई देते हैं। घर से ले कर बाहर तक हम टेक्नोलॉजी पर आश्रित होते जा रहे हैं। चाहे रसोईघर हो या स्नानघर, चाहे परिवहन हो या कार्यालय हर जगह टेक्नोलाॅजी का बोलबाला है। गोया हम एक पंगु हैं और टेक्नोलाॅजी हमारी बैसाखियां। यह समझना कठिन है कि हमारे लिए टेक्नोलाॅजी है या हम टेक्नोलाॅजी के लिए हैं? बेशक़ टेक्नोलाॅजी से हम पीछे नहीं हट सकते हैं। यह हमारे बहुमुखी विकास के द्वार खोलती है लेकिन कहीं हम स्वतः इसके गुलाम तो नहीं बनते जा रहे हैं? 
 
वह दूसरे शहर में रहती है। वह जब कभी सागर आती है तभी उससे मिलना हो पाता है। अभी पिछले दिनों वह सागर आई हुई थी। उसके आने की सूचना मुझे नहीं थी लेकिन अचानक एक आयोजन में उससे भेंट हो गई। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई उसे देख कर। हम आजूबाजू बैठ गए। उसने मुझे बताया कि वह स्किल डेव्हलपमेंट की ऑनलाइन क्लासेस चलाती है। विदेशों में भी उसके छात्र हैं। मुझे यह जान का अच्छा लगा और गर्व का भी अनुभव हुआ। एक भारतीय नारी विदेशी छात्र-छात्राओं को स्किल डेव्हलपमेंट की आॅनलाईन शिक्षा दे रही है। कुछ वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि हमें विदेशों से स्किल डेव्हलपमेंट की शिक्षा लेनी पड़ती थी। मगर अब हम विकसित टेक्नोलाॅजी के सहारे तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं। अभी हमारी बात शुरू ही हुई थी और मैं उसकी बात सुन कर गर्व ही कर रही थी कि वह बोल उठी-‘‘साॅरी, मेरे एक सेशन का समय स्टार्ट हो गया है, मुझे इसे देखना ही पड़ेगा।’’ इतना कह कर वह सभागार से बाहर चली गई। हां, अपना हैण्डबैग जरूर अपनी सीट पर छोड़ गई ताकि उसकी सीट पर कोई और कब्ज़ा न कर ले। उसके इस तरह सभागार से बाहर जाने पर मैंने सोचा कि आखिर वह आॅनलाईन क्लासेस चला रही है तो उसका अपने काम के प्रति जिम्मेदार रहना भी जरूरी है। मुझे लगा कि वह थोड़ी देर में वापस आ जाएगी। कार्यक्रम आरम्भ हो गया। मेरा ध्यान कार्यक्रम पर केन्द्रित हो गया। कार्यक्रम लगभग समाप्त होते-होते वह सभागार में वापस आई।
‘‘अब अगला सेशन रात को साढ़े ग्यारह बजे रहेगा। उसमें अमेरिकी शहरों के स्टुडेंट्स हैं। तो फिलहाल तब तक के लिए मेरी छुट्टी है। कैसा रहा कार्यक्रम? मैं तो आ कर भी अटैण्ड नहीं कर पाई। खैर तुमसे मुलाकात हो गई। यही उपलब्धि रही।’’ वह मुस्कुराते हुए बोली। तब तक कार्यक्रम पूरा समाप्त हो गया था और हमारी वहां से रवानगी का समय आ गया था।
‘‘चलो, फिर मिलती हूं।’’ कह कर वो अपने रास्ते चल दी और मैं अपने रास्ते।
यह कैसी भेंट थी? आयोजन में उसकी यह कैसी उपस्थिति थी? उससे विदा लेने के बाद से ही मैं सोच में पड़ गई। फिर मेरे मन में विचार आया कि वह तो आर्थिक लाभ के लिए अपना समय इन्टरनेट को समर्पित किए हुए है लेकिन उन लोगों के बारे में क्या कहा जाए जो आमने-सामने बैठ कर भी मोबाईल, टेबलेट या लैपटाॅप पर फिल्में देखते, नेट-चैट करते रहते हैं।

मुझे याद है कि मैं एक बार उत्कल एक्सप्रेस से दिल्ली से सागर लौट रही थी। एसी-2 कोच में चार बर्थ में मेरी सामने वाली सीट पर एक सरदार जी थे जो अमृतसर से पुरी जा रहे थे, उनकी ऊपर वाली सीट पर एक युवक था जो झांसी तक जा रहा था और मेरे ऊपर वाली सीट पर एक महिला थी जिसे मथुरा जाना था। सरदार जी हम चारों में उम्र में बड़े थे लेकिन जल्दी ही वे हम लोगों से घुलमिल गए। हम राजनीति को ले कर अनावश्यक बहसें करते रहे। वह महिला भाजपा समर्थित थी। उस युवक का तो पता नहीं लेकिन मैं और सरदार जी किसी पार्टी विशेष के नहीं थे फिर भी टाईमपास के लिए उस महिला से इस तरह बहस करने लगे गोया हम विपक्षी दल के हों। वह महिला भी एक कुशल राजनीतिज्ञ की भांति डटी रही। उसे भी बहस में मजा आ रहा था। कुछ देर में बाजू की बर्थ से भी दो सज्जन आ गए और बहस में शामिल हो गए। उनमें से एक उस महिला के समर्थन में बोलने लगा। उस समय ऐसा लग रहा था कि जैसे हम सब एक शहर के हों, परस्पर पूर्व परिचित हों। जब उस महिला के उतरने का समय आया तो मैंने और सरदार जी ने बाकायदा उस महिला से माफी मांगी कि हम यूं ही बहस कर रहे थे, यदि हमारी किसी बात का बुरा लगा हो तो दिल पे मत लीजिएगा। वह मुस्कुराते हुए बोली,‘‘मैं तो आप लोगों की आभारी हूं कि आप लोगों से बहस कर के मेरा अच्छा-खासा अभ्यास हो गया। मुझे बुरा बिलकुल नहीं लगा है।’’
हम सबने मुस्कुराते हुए उसे विदा किया। इसके बाद बचे हुए हम लोग काफी देर तक अलग-अलग मुद्दों पर चर्चाएं करते रहे। फिर देर रात हम लोग सो गए। मैं थोड़ी देर ही सो पाई क्योंकि मेरा स्टेशन फिर जल्दी ही आ गया था। मुझसे पहले वह युवक झांसी में उतर चुका था। दो बर्थ के यात्री बदल चुके थे। मेरी बर्थ पर भी कोई और पहुंचा होगा। बस, वे सरदार जी लम्बी यात्रा में थे। दूसरे दिन उन्होंने किसी और से बहस कर के समय काटा होगा। लेकिन सच तो ये है कि आपसी चर्चाओं में समय का पता ही नहीं चला था।
इसके माह भर बाद मुझे भोपाल जाना पड़ा। दमोह से भोपाल तक चलने वाली उस रेल के एसी चेयर कोच में यात्रियों के आमने-सामने बैठने की व्यवस्था थी। लगभग तीन-साढ़े तीन घंटे का रास्ता मुझे तेरह घंटे के समान लगा। मेरी बाजू वाली सीट पर बैठी महिला ईयरफोन लगाए मोबाईल पर कोई कार्यक्रम देख रही थी, मेरे सामने बैठी युवती लैपटाॅप पर कुछ काम कर रही थी। उसके बाजू में बैठा युवक भी मोबाईल में किसी से चैट पर व्यस्त था। वह बीच-बीच में मुस्कुरा उठता था। अब यह पता नहीं कि उसकी जिससे चैटिंग हो रही थी वह उसकी वास्तविक दोस्त थी या कोई आभासीय दोस्त? मुझे पूरे समय मोबाईल में घुसे रहना पसंद नहीं है। जाहिर है कि मेरी यात्रा बोरीयत भरी रही। दुर्भाग्य से यह अबोलेपन का आलम अब घर के भीतर बैठक से ले कर बेडरूम तक फैलता जा रहा है।
 
आजकल कार्पोरेट दुनिया में काम करने वाले पति-पत्नी अपने बेडरूम में भी अपने-अपने मोबाईल और लैपटाॅप में व्यस्त रहते हैं। भोजन की मेज पर बैठा परिवार भी अपने-अपने मोबाईल पर यूं जुटा रहता है मानो खाने से अधिक जरूरी हो मोबाईल पर समय देना। ऐसे में जब कोई बड़ा किसी बच्चे को टोंकता है या कोई बच्चा किसी बड़े से कोई बात करने की कोशिश करता है तो दोनों के बीच झड़प की स्थिति बन जाती है। सच तो ये है कि जब हम मोबाईल पर सोशल मीडिया की दुनिया में घूम रहे होते हैं तो ठीक उस समय हम अपनी दुनिया में अनसोशल हो चुके होते हैं। हमें उस समय किसी की पोस्ट पर कामेंट देना अधिक जरूरी लगता है, बनिस्बत अपनी मां, पिता, भाई या बहन की बात सुनने के।
टेक्नोलाॅजी के प्रभाव की चर्चा को मैंने रोजमर्रा की ज़िन्दगी से इसलिए शुरू की क्योंकि टेक्नोलाॅजी से होने वाले बड़े-बड़े नुकसान तो हमें साफ दिखाई देते हैं लेकिन अनजाने में हम जिस तरह टेक्नोलाॅजी के शिकंजे में जकड़ते जा रहे हैं उस पर हमारा ध्यान प्रायः नहीं जाता है। यह सच है कि कंप्यूटर, स्मार्टफोन, लैपटॉप, नोटपैड, इत्यादि गैजेट्स ने हमारी शिक्षा प्रणाली को और बेहतर और आसान बना दिया है। हम इंटरनेट के माध्यम से जिस विषय या वस्तु को चाहे उसे मोबाइल या लैपटॉप में पढ़ सकते हैं। नयी तकनीकी के चलते ही दुनिया भर में फैली कोरोना महामारी में भी बच्चे घरों में रहकर भी अपनी क्लासेस करते रहे है। वर्क फ्राम होम की प्रणाली ने लाखों लोगों की नौकरियां बचाए रखीं और अर्थव्यवस्था को भी सहारा दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सब बिना टेक्नोलाॅजी के सम्भव नहीं था।

लेकिन टेक्नोलाॅजी के कुछ और भी नकारात्मक पहलू हैं जिन्हें हम नकार नहीं सकते हैं। जैसे टेक्नोलाॅजी से बनाए गए एसी, फ्रिज आदि हमारे वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों से ओजोन परत को नुकसान पंहुचा रहे हंै। विभिन्न प्रकार की नई तकनीक के कारण हमारी व्यक्तिगत सूचनाएं का गलत हाथों में पड़ने का खतरा बना रहता है। यहां तक कि बड़े सस्थानों जैसे बैंक, उद्योग, आदि की सुरक्षा को खतरा रहता है। टेक्नोलाॅजी से होने वाले नुकसान में यह भी है कि इसने विचारशीलता और कल्पनिकता को कम कर दिया है। आज हम संख्याओं का जोड़ लगाने के लिए पहाड़े नहीं पढ़ते हैं बल्कि कैल्कुलेटर खोल कर झट से गुणा-भाग, जोड़-घटाना कर लेते हैं। इससे दिमाग की गणतीय क्षमता का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है। किसी भी विषय के बारे में जानकारी को याद रखने की बजाए हम इंटरनेट के ‘सर्च इंजन’ पर निर्भर हो गए हैं। हम ‘‘एलेक्सा’’ जैसे वाईस कामांड डिवाईस को आदेश दे कर सोचते हैं कि टेक्नोलाॅजी को हमने अपना सेवक बना लिया है जबकि ठीक इसके उलट हम टेक्नोलाॅजी के गुलाम बनते जा रहे हैं। एक अदद लोरी सुनने के लिए अगर बच्चे को मां पर निर्भर होने के बजाए ‘‘एलेक्सा’’ पर निर्भर होना पड़े तो यह मानवीय संवेदनाओं को गंभीर क्षति पहुंचने जैसा है।

दरअसल सोशल मीडिया अर्थात् फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम को ईज़ाद किए जाने के पीछे उद्देश्य था ‘‘कनेक्टिंग पीपुल्स’’ यानी लोगों को आपस में जोड़ना, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे हों। ऐसा हुआ भी। हम घर बैठे दुनिया के दूसरे छोर पर बैठे अपरिचित से जुड़ने लगे लेकिन अपने आस-पास मौजूद लोगों से बेख़बर हो गए। कोई भी आविष्कार आमतौर पर अच्छे उद्देश्य को ही ले कर किया जाता है लेकिन उसके गुलाम बन कर हम उसे अपने ही विरुद्ध उपयोग में लाने लगते हैं। सो, इसमें दोष टेक्नोलाॅजी का नहीं वरन हमारा है या हमारी उस आदत का है जो हमें अधिकार प्राप्त करने के वहम में गुलाम बना देती है। हमने टेक्नोलाॅजी की मदद से सौ से अधिक मंजिलों की इमारतें बनानी शुरू कर दीं और फिर उसी टेक्नोलाॅजी की मदद से यानी लिफ्ट से उन मंजिलों तक पहुंचने का रस्ता बनाया। लेकिन यदि लिफ्ट में खराबी आ जाती है तो पंद्रहवी मंजिल में रह रहा इंसान भी जहां के तहां अटक कर रह जाता है। वह पंद्रह मंजिल की सीढ़ियां न तो चढ़ सकता है और न उतर सकता है। छोटे से ले कर बड़े-बड़े उपकरण भी कम्प्यूटर टेक्नोलाॅजी पर आधारित होती है। ऐसे में यदि कम्प्यूटर टेक्नोलाॅजी में कोई इंफेक्शन आ गया तो सारी व्यवस्था एक झटके में चरमरा सकती है।

हम यह क्यों भूलते जा रहे हैं कि मनुष्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहयोगी हो सकता है, कोई मशीन या कोई टेक्नोलाॅजी नहीं। हम अपनी जगह उसे न दें, इसी में हमारी भलाई है। हमारी मनुष्यता, हमारी संवेदना, हमारी विचारशीलता, हमारी चैतन्यता आदि सभी कुछ तभी तक सुरक्षित है जब तक हम टेक्नोलाॅजी को अपने ऊपर हावी न होने दें। मानवीय संवाद, मानवीय संवेदना और मानवीय स्पर्श से बढ़ कर कोई टेक्नोलाॅजी नहीं हो सकती है और न होनी चाहिए। अर्थात् हम टेक्नोलाॅजी को इस्तेमाल करें, टेक्नोलाॅजी हमें नहीं।
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ट्रेवलर डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बाघराज मंदिर सागर | धार्मिक पर्यटन


सागर शहर के मुख्य बस स्टैंड से करीब चार किलोमीटर दूर स्थित बाघराज मंदिर सागर का प्रमुख आस्था केंद्र है। यहां विराजमान मां हरसिद्धि के दर्शन व नवरात्र के नौ दिनों तक माता की विशेष पूजा-अर्चना के लिए भक्तों की लंबी-लंबी कतारें लगती हैं। मंदिर के बारे में किंवदंती है कि इस मंदिर में पहले एक बाघ का पहरा रहता था, जिस कारण मंदिर का नाम बाघराज नाम से भी प्रसिद्ध है।

कहते हैं कि बाघराज मंदिर का इतिहास सैंकड़ों साल पुराना है। यहां कभी घना जंगल हुआ करता था और जंगल में बाघों का राज था। इन्हीं में से एक बाघ इस मंदिर में आकर बैठ जाया करता था। इसी कारण इस मंदिर का नाम बाघराज मंदिर रखा गया। देवी प्रतिमा के सामने जिस जगह बाघ आकर बैठता था, वहां एक बड़े शेर की प्रतिमा भी स्थापित है। प्राचीन समय से ही यहां हरसिद्धि माता का भव्य मंदिर भी है। माता मंदिर के पास एक हनुमान मंदिर भी है। इसके नीचे एक आकर्षक गुफा है। बताया जाता है कि प्राचीन समय में यह गुफा रानगिर वाली मां हरसिद्धि के दरबार तक निकलने के लिए प्रयोग में ली जाती थी। सुरक्षा कारणों से अब यह बंद कर दी गई है।

मान्यता : मान्यता है कि बाघराज मंदिर में विराजमान मां हरसिद्धि भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं। इसलिए भक्त इस मंदिर को मनोकामना देवी मंदिर भी कहते हैं। श्रद्धालुओं का कहना है कि मंदिर घने जंगल के बीचों-बीच था, जहां बाघों का समूह रहता था। इन्हीं में से एक बाघ प्रतिदिन मां के दरबार में जाता था। उस समय दर्शन के लिए आने वाले लोगों को बाघ कभी नुकसान नहीं पहुंचाता था।


Tuesday, March 28, 2023

पुस्तक समीक्षा | सच बयानी का सफ़र | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 28.03.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ के काव्य संग्रह "सच बयानी का सफ़र" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
सच की विविधता को मुखर करती कविताएं
समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - सच बयानी का सफ़र
कवि       - ऋषभ समैया ‘‘जलज’’
प्रकाशक    - प्रिज़्म बुक्स (इंडिया), 58, मुरली लेक सिटी, ओल्पाड, सूरत-394540 (गुजरात)
मूल्य        - 795/-
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ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ सागर नगर के वरिष्ठ कवियों में से एक हैं। 07 सितम्बर 1947 को जन्मे कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ दीर्घ जीवनानुभवों के साथ काव्य सृजन का भी दीर्घकालिक अनुभव रखते हैं। यद्यपि पुस्तक प्रकाशन की दिशा में उनका काव्य संग्रह ‘‘सच बयानी का सफ़र’’ एक लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ है। इस संबंध में कवि ने ‘‘आत्मकथ्य’’ में स्वयं लिखा है कि -‘‘हर एक जीवन यात्रा एक कविता गजलगो अपने काव्य चक्षु से बांचता रहता है और भाषा भेद किए बिना शब्दों में पिरोकर रचना धर्म निबाहता हुआ यात्रा करता रहा है। ‘सच बयानी का सफर’ भी लगभग पचपन वर्षों का काव्य सफर है। कविता, कहानी, गजल कोशिश से नहीं लिखी जाती, वह तो जब निकलती है तो अविरल भाव धारा की तरह। मुझे काव्य संग्रह प्रकाशन का बहुत शौक नहीं रहा।’’

जहां तक सच का प्रश्न है तो सच हमेशा आंदोलित करता है। सच चाहे कितना भी चुभने वाला क्यों न हो, जीवन की सच्चाइयों से चाह कर भी नज़रें नहीं चुराई जा सकती हैं। सच के अनेक प्रकार होते हैं-कड़वा, मीठा, चुलबुला, गुदगुदाता, सुइयां चुभोता और कभी आईना दिखाता। लगभग ये सारे सच इस काव्य संग्रह में अपने अनूठे काव्यात्मक रूप में मिलेंगे। परिवार इस सामाजिक जीवन का सबसे बड़ा सच है। परिवार उसी समय तक एक उम्दा परिवार रहता है जब तक उसके सारे सदस्य परिवार के महत्व को समझते हैं और उसका आदर करते हैं। जिस दिन परिवार के प्रति आदर भावना कम होने लगती है, उसी दिन से परिवार टूटने लगता है। इसलिए कवि ने अपनी रचना के द्वारा परिवार की महत्ता को समझने का आह्वान किया है-
घर को केवल गुज़र-बसर माने हैं जो।
कोहनूर !  कंकर  पत्थर माने हैं जो।
बहुत तरस आता है उनकी बुद्धि पर
अमृत-प्याला बुझा जहर माने हैं जो।
चैन चहक की मस्ती मौज झूमते हैं
अर्पण, अपनापन आदर माने हैं जो।
एक परिवार सदस्यों के पारस्परिक संबंधों से ही तो मिल कर बनता है अतः परिवार की ही भांति संबंधों का सच भी जीवन का महत्वपूर्ण सच होता है। ये संबंध माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री या मित्र-रिश्तेदारों के होते हैं। कवि ‘जलज’ ने अपने इस संग्रह में पिता को समर्पित कुछ रचनाएं संजोई हैं। जिनमें से एक रचना की ये पंक्तियां देखिए। इनमें पिता के अस्तित्व एवं दायित्वों को सामने रखते हुए पिता के लिए एक नूतन उपमा दी गई है कि वे परिवार में सुख-सुविधा की गर्माहट बनाए रखने के लिए उसी तरह लगे रहते हैं जैसे किसी रजाई में धागा तगा हुआ होता है-  
स्मृतियों से बंधे  पिताजी।
दायित्वों से लदे पिताजी।
जीवन की पथरीली राहें
ठिठके फिसले सधे पिताजी। ’
घर-भर की नींदें मीठी हों
रात-रात भर जगे पिताजी।
सुविधाओं की गर्माहट को
खुद रजाई से तगे पिताजी।

जीवन में जितना पिता का महत्व है उतना ही जन्मदात्री मां का भी है। अकसर एक निपट गृहणी मां को लोग ‘‘फालतू की वस्तु’’ मान लेते हैं। जबकि गृहणी मां के दायित्व भी कम नहीं होते हैं। मां के लिए भी ‘‘सांकल कुंडी’’ की एक नई उपमा देते हुए मां की महत्ता को कवि ने बखूबी रेखांकित किया है-
जीवन देने  वाली  है मां।
पालन पोषण वाली है मां।
मन भर नेह परोसा करती
प्रिय भोजन की थाली है मां।
हरी भरी बगिया सबकी है
फ़क़त सींचती माली है मां।
घर द्वारे की सांकल कुंडी
मन चैकस रखवाली है मां।

मां के बाद घर में पत्नी का विशेष स्थान रहता है। चूंकि वह दूसरे परिवार से आई हुई स्त्री होती है अतः उसका दायित्व और विशिष्ट रहता है। वह चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे, वह चाहे तो घर को नर्क बना दे। लेकिन वास्तव में यही पत्नी एक ‘‘डिठौने’’ की भांति अपने परिवार से सभी विपत्तियों को दूर रखती है। कवि ‘‘जलज’’ की इस भावना को ‘‘बीबी’’ शीर्षक इस उनकी ग़ज़ल में देखा जा सकता है-
तन मन शादी-गोना बीबी।
सपना सुखद सलोना बीबी।
धुरी कहें या बाहर घेरा
घर का कोना कोना बीबी।
सीरत से घर स्वर्ग बना दे
नफरत-रोना धोना बीबी।
गिरे नो मुंह पर कालिख पोते
रक्षक बने, डिठौना बीबी।

घर-परिवार से बाहर निकलने पर कवि जब आमजन जीवन पर दृष्टिपात करता है तो उसे यह देख कर ठेस पहुंचती है कि चारो ओर पराएपन का सन्नाटा है। लोग अलगाववादी होते जा रहे हैं। एकता खोखली होती जा रही है और जिससे समूची सभ्यता पर असंवेदनशीलता का ख़तरा मंडराने लगा है। ग़ज़ल की ये पंक्तियां देखिए-
घोर सन्नाटा घिरा है, नेह के हर नीड़ में।
खो गया है आदमी, अलगाववादी भीड़ में।
झुक गई है शर्म से, या बोझ से दोहरी हुई
हो गए नासूर गहरे, सभ्यता की रीढ़ में।
नफरतों की दीमकें, चट कर गईं हैं एकता
घुप्प अंधियारा समेटे, सरपरस्ती सीड़ में।

जीवन का एक सच यह भी है कि लोग हानि के बारे में जानते-बूझते भी धूम्रपान करते रहते हैं। धूम्रपान पर केन्द्रित यह रचना इस संग्रह की महत्वपूर्ण रचना है क्यों कि इसमें उपदेशात्मक ढंग से नहीं वरन अगरबत्ती के धुंए से तुलना करते हुए धूम्रपान के बारे में लिखा गया है-
सिगरेट और अगरबत्ती
दोनों के धुएं में फर्क है
पहला अय्याशी का नमूना है
दूसरा ख़ुशबू का अर्क़ है।
सिगरेट कैन्सर को जन्म देती है
अगरबत्ती महक लुटाती है
सिगरेट मर्सिया पढ़ती है
अगरबत्ती गुनगुनाती है।

कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ के इस काव्य संग्रह में दोहे और बुंदेली ग़ज़लें भी हैं। वे उन्मुक्तभाव से काव्य रचते हैं तथा नवीन उपमाएं देते हुए अपनी बात कहते हैं। किन्तु एक सच यह भी है कि इस संग्रह की रचनाएं निश्चत रूप से पठनीय हैं किन्तु आमपाठक के लिए इसे खरीद के पढ़ पाना कठिन है। कुल 86 काव्य रचनाओं के इस हार्डबाउंड संग्रह का मूल्य 795 रुपये है। बड़ी डायरी के आकार में प्रकाशित इस पुस्तक का प्रकाशकीय स्वरूप बेशक़ आकर्षक है लेकिन रचनाओं की सार्थकता तभी है जब वे सभी पाठकों तक सुगमता से पहुंचें। यह पुस्तक यदि पेपरबैक में, कम मूल्य पर होती तो इसकी रचनाओं की पहुंच पाठकों तक बढ़ जाती।
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Monday, March 27, 2023

ट्रेवलर डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बालाजी मंदिर सागर | धार्मिक पर्यटन

❤️ आज एक और निकटतम यात्रा...
🚶चाहें तो इसे धार्मिक पर्यटन कह सकते हैं... जी हां, बालाजी मंदिर का भ्रमण... सिद्ध क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है... कहा जाता है कि इस स्थान पर मेंहदीपुर वाले बालाजी प्रकट हुए थे...
🌹 निर्माणाधीन मंदिर की विशालता... और श्रीराम की भावी प्रतिमा निर्माण-स्थल शिव का त्रिशूल...
🦉बस, दिक्कत थी तो ऊपर चटक धूप और नंगे पैरों तले तपते फर्श की... लेकिन घुमक्कड़ी का जोश हो तो सब चलता है 🤷🌷😊🚩
मंदिर के अंदर फोटो लेना मना है इसलिए बाहर से ही तस्वीरें लेकर तसल्ली कर ली😀
♦️ बाहरहाल, हर यात्रा कुछ ना कुछ सिखाती है कुछ नया दिखाती है ... चाहे वह धार्मिक हो या प्राकृतिक या भीड़ भरी सड़कों की... धार्मिक स्थलों में आस्था, विश्वास, मान्यताएं आदि जीवन की कई रंग देखने को मिलते हैं .... और मैं सोच में पड़ जाती हूं कि कई बार कल्पना और यथार्थ में कितना बारीक सा अंतर होता है यदि बात धर्म की हो, आस्था की हो और विश्वास की हो... हमारी कल्पना हमारे यथार्थ पर छाई रहती है किसी आवरण की तरह....🚩🙏
#ilovetravel #ilovetravelling 
💠Traveling Date ..27.03.2023

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