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Wednesday, January 30, 2019

चर्चा प्लस ... राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला
- डॉ. शरद सिंह
चुनाव आते-आते नेताओं की जबान कुछ अधिक ही फिसलने लगती है और वे देश और जनता की समस्याओं पर बोलने के बजाए प्रतिद्वंद्वी दलों की महिलाओं पर अपशब्द बोलने लगते हैं। यही गति रही तो कहीं जनता इन्हीं बोलों के आधार पर उन्हें खारिज़ करना न शुरू कर दें। जिन कर्णधारों को जनता चुन कर विधान सभा और संसद में भेजती है जब वे ही लोग बिगड़े बोल बोलने लगें को तो हो चुका देश का उद्धार। भारतीय राजनीति में ऐसी फिसलन पहले कभी नहीं रही जैसे विगत कुछ चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद देखने-सुनने को मिल रही है। 
चर्चा प्लस ... राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला  - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Rajniti Me Bigare Bolon Ka Bolbala -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar

  चुनाव नजदीक आते ही वादों-विवादों का दौर चल पड़ता है। एक दूसरे की टांग खींचने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। यदि मामला एक-दूसरे के भ्रष्टाचार या कामों तक सीमित रहे तो फिर भी गनीमत है, कान तो तब गर्म होने लगते हैं जब अपनी भड़ास निकालने और दूसरे को नीचा दिखाने के लिए महिलाओं को निशाना बनाया जाता है। उस समय सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या ये वही हमारे कर्णधार हैं जिनके हाथों में देश के विकास और सुरक्षा की बागडोर हमने सौंपी है।
आज राजनीतिक गलियारों में भाषा स्वयं शर्मिंदा हो रही है। जब बात हो जबान फिसलने की तो राजनीतिक दलों के भी भेद मिट जाते हैं। स्वयं को संस्कारी कहने वाले दल भी असंस्कारी भाषा बोलने लगते हैं। चाहे सत्ताधारी हो या विपक्षी दोनों एक-दूसरे से आगे बढ़ कर अशोभनीय टिप्पणियां करने लगते हैं। मकसद सिर्फ यही कि वे मीडिया में छाए रहें। कई नेता तो अपने विकास कार्यों नहीं बल्कि अपनी ओछी टिप्पणियों के लिए ही जाने जाते हैं। क्योंकि उन्होंने विकास कार्य किया ही नहीं होता है और इसे छिपाने के लिए अभद्र टिप्पणियों का सहारा लेने लगते हैं। जिससे सभी का ध्यान बंटा रहे। नेताओं के विवादित और फूहड़ बोल हमेशा मीडिया में छाए रहते हैं और आमतौर पर इन नेताओं के निशाने पर महिलाएं होती हैं, फिर चाहे वह महिला राजनीति से जुड़ी हो या नहीं। उनके लिए महिलाएं आसान निशाना होती हैं, क्योंकि इनके रंग, रूप, कद-काठी, मोटापे या बालों को लेकर कुछ भी बोलने पर अच्छा-खासा कव्हरेज मिल जाता है।
अभी विगत दिनों भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि कांग्रेस चॉकलेटी चेहरों पर चुनाव लड़ना चाहती है। उन्होंने बाद में सफाई भी दी, यह बयान प्रियंका गांधी के लिए नहीं बल्कि बॉलिवुड ऐक्टर्स के लिए था। अब इसी पर मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने कहा है कि बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उनकी पार्टी में खुरदुरे चेहरे हैं। सज्जन सिंह वर्मा ने बॉलिवुड अदाकारा और बीजेपी सांसद हेमा मालिनी पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, ‘’बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उनकी पार्टी में खुरदुरे चेहरे हैं, ऐसे चेहरे जिनको लोग नापसंद करते हैं। एक हेमा मालिनी है, उसके जगह-जगह शास्त्रीय नृत्य कराते रहते हैं, वोट कमाने की कोशिश करते हैं। चिकने चेहरे उनके पास नहीं हैं।’’
भाजपा नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उनके खिलाफ विवादित बयान देते हुए प्रियंका को मानसिक बीमारी का शिकार बताया और कहा कि प्रियंका को सार्वजनिक जीवन में काम नहीं करना चाहिए। स्वामी ने प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने के फैसले पर कहा कि ‘‘उसको एक बीमारी है जो सार्वजनिक जीवन में अनुकूल और उपयुक्त नहीं है। उस बीमारी को बायपॉलट्री कहते हैं, यानी उसका चरित्र हिंसक है। लोगों को पीटती है। पब्लिक को पता होना चाहिए कि वह कब संतुलन खो बैठेगी, किसी को पता नहीं है।’’ इस तरह की अशोभनीय टिप्पणी करने पर संबंधित महिला के चरित्र का हनन होता हो या नही,ं पर टिप्पणी करने वाले नेता का मानसिक चरित्र जरूर सामने आ जाता है।
कुछ दशक पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सड़कों की तुलना हेमा मालिनी के गालों से करते हुए कहा था कि ‘‘हम बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह चिकना बना देंगे।’’ तब हेमा मालिनी के गालों जैसी चिकनी सड़कों का उनका जुमला काफी चर्चित हुआ था। फिर इसी जुमले को अप्रैल 2013 में उत्तर प्रदेश के खादी और ग्रामोद्योग मंत्री राजा राम पांडेय ने दोहरा दिया था। पांडेय ने यह विवादित बयान यूपी के प्रतापगढ़ में दिया था। उन्होंने पत्रकारों से कहा था, ’बेला की सड़कें हेमा मालिनी के गालों जैसी चमकेंगी। अभी तो फेशल हो रहा है।’ बेहतर यह हुआ कि सड़कों की तुलना हेमा मालिनी के गालों से करना उन्हें भारी पड़ गया था। इस बयान ने उनकी कुर्सी छीन ली थी।
फूहड़ बयानबाजी का सिलसिला थमा नहीं है। वर्ष 2018 में भी इसी तरह के फूहड़ बयान सुनने को मिले। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में जिस अंदाज में कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा से की और इस पर जिस अंदाज में संसद में बैठे नेताओं ने ठहाके लगाए वह अशोभनीय था। लोकतांत्रिक जनता दल के नेता शरद यादव ने राजस्थान चुनाव के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर बहुत ही फूहड़ तंज कसते हुए कहा था, “वसुंधरा को आराम दो, बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं। हमारे मध्य प्रदेश की बेटी हैं।“ मध्य प्रदेश के गुना से भजापा विधायक पन्नालाल शाक्य ने बहुत ही घटिया बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘‘महिलाएं बांझ रहें, मगर ऐसे बच्चे को जन्म न दें, जो संस्कारी न हो और जो समाज में विकृति पैदा करते हों।’’ उत्तर प्रदेश से भाजपा विधायक विक्रम सैनी ने देश की बढ़ती आबादी के बावजूद हिंदुओं को बच्चे पैदा करते रहने की सलाह दी थी। उन्होंने बड़े शर्मनाक ढंग से अपनी पत्नी के साथ अपनी बातचीत का जिक्र सार्वजनिक तौर पर किया था- “मैंने तो अपनी पत्नी से कह दिया है कि जब तक जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कानून नहीं आ जाता, बच्चे पैदा करती रहो।“
भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। राजनीति जिसे देश चलाना है और देश को रास्ता दिखाना है, वह खुद गहरे भटकाव की शिकार है। लोग निरंतर अपने ही बड़बोलेपन से ही मैदान जीतने की जुगत में हैं और उन्हें लगता है कि अभद्र टिप्पणी उन्हें रातों-रात सुर्खियों में बिठा देगी। होता भी यही है। टीवी चैनल्स उन्हें नकारते नहीं वरन् उनकी अभद्र टिप्पणी को ले कर बात पर डिबेट करने लगते हैं। ‘‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ’’ वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है। यही तथ्य उकसाता है है ऐसी टिप्पणियां करने को।
डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे “लोकराज लोकलाज से चलता है।” लेकिन ऐसा लगता है कि आज के कतिपय नेताओं की डिक्शनी में ‘‘लोकलाज’’ जैसा शब्द ही नहीं बचा हैं। वहीं पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘‘पॉलिटिकल डायरी’’ में लिखा ऐसे भटके हुए नेताओं के लिए बड़ा अच्छा सुझाव दिया है कि - “कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। बुरा-बुरा ही है और वह कहीं भी और किसी का भी हित नहीं कर सकता। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनियती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।”
दुर्भाग्य यह कि महिला नेताएं भी पुरुष नेताओं से पीछे नहीं हैं। अभद्र टिप्पणी करते समय वे गोया भूल जाती हैं कि वे भी एक स्त्री हैं। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को मंजूरी देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बड़े गर्व से कहा था कि “क्या आप अपने किसी दोस्त के घर खून से सना हुआ नैपकिन लेकर जाएंगे, नहीं ना! तो भगवान के घर में कैसे जा सकते हैं?“ दरअसल महिला नेताएं भी इस संबंध में कहीं न कहीं दोषी हैं। यदि वे अपने ऊपर की गई अशोभनीय टिप्पणी को राजनीतिक, व्यक्तिगत अथवा किसी भी तरह के दबाव में आ कर टाल जाती हैं और प्रतिरोध नहीं करती हैं तो इससे गलत मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। यदि लालू प्रसाद यादव की टिप्पणी पर हेमामालिनी ने कड़ी आपत्ति जताई होती तो उत्तर प्रदेश के मंत्री महोदय उसे दोहराने की जुर्रत नहीं करते। इसी तरह जुलाई 2013 में मंदसौर की एक आमसभा में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने आप को राजनीति का पुराना जौहरी बताते हुए कहा था, ‘’मुझे पता है कि कौन फर्जी है और कौन सही है. इस क्षेत्र की सांसद मीनाक्षी नटराजन सौ टंच माल है।’’ जब बयान को लेकर जब विवाद बढ़ता गया तो पढ़ी-लिखी और स्वयं एक लेखिका होते हुए भी मीनाक्षी नटराजन दिग्विजय सिंह के बचाव में उतर आई थीं। उन्होंने कहा था कि दिग्विजय सिंह ने उनकी तारीफ में ऐसा कहा था, इसलिए इस मामले को तूल दिए जाने की जरूरत नहीं है। भला कोई महिला स्वयं को ‘माल’ शब्द कहे जाने पर कैसे शांत रह सकती है? लेकिन राजनीति की इसी कमजोरी ने बोलों के बिगाड़ को निरंतर बढ़ावा दिया है। यदि नेताओं के बोलों के बिगड़ने की यही गति रही तो कहीं जनता इन्हीं बोलों के आधार पर उन्हें खारिज़ करना न शुरू कर दें।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 30.01.2019)
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Wednesday, January 23, 2019

चर्चा प्लस ... सम्मान के संघर्ष में थर्ड जेंडर को संविधान, साहित्य और धर्म का समर्थन - डॉ. शरद सिंह

चर्चा प्लस ...             सम्मान के संघर्ष में थर्ड जेंडर को
Dr (Miss) Sharad Singh
संविधान, साहित्य और धर्म का समर्थन
- डॉ. शरद सिंह

प्रयागराज में हो रहे कुंभ में किन्नर अखाड़ा को पेशवाई में शामिल होने का अधिकार मिलना धार्मिक एवं सामाजिक सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे पहले थर्ड जेंडर ने अपनी पहचान की लड़ाई लड़ी थी और कानूनी जीत हासिल की थी। वैसे भारतीय संविधान में थर्ड जेंडर को ऐसे कई अधिकार मिले हुए है जो उनके सम्मान रक्षा करने में समर्थ हैं किन्तु संविधान के दस्तावेज़ या कानून की किताबों से बाहर भी वे स्वयं को साबित करने के लिए संघर्षरत हैं। सुखद पक्ष यह कि बुद्धिजीवी वर्ग भी आज उनके समर्थन खड़ा होता जा रहा है। एक ओर साहित्यकार समुदाय उनके पक्ष में आवाज़ उठा रहा है तो दूसरी ओर जूना अखाड़े ने उनकी पेशवाई को स्वीकारा।
चर्चा प्लस ... सम्मान के संघर्ष में थर्ड जेंडर को संविधान, साहित्य और धर्म का समर्थन  - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Samman Ke Sangharsha Me Third Gender Ko Sanvidhan, Sahitya Aur Dharm Ka Samarthn -   -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
 संवैधानिक व्यवस्थाएं गणतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने में बहुत मददगार साबित होती हैं। भारतीय संविधान इस तरह बनाया गया जिससे गणतंत्र की रक्षा हो सके और सभी नागरिकों को उसके संवैधानिक अधिकार मिल सकें। जिस समाज में प्रत्येक नागरिक को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हों वह समाज किसी भी तानाशाही का बखूबी विरोध कर सकता है। लेकिन समाज का एक ऐसा हिस्सा जो सबके लिए दुआएं देता है और स्वयं के जीवन को एक अभिशप्त जीवन की तरह जीने को विवश है क्योंकि उसे समाज में वह समानता आज भी नहीं मिली है जो समाज के अन्य सदस्यों को मिली हुई है। बेशक, समाज में औरतों की दशा भी उतनी बेहतर नहीं है जितनी कि संवैधानिक कानूनों के लागू होने के बाद हो जानी चाहिए थी। फिर भी औरतों की दशा के बारे में समाज भली-भांति परिचित तो है किन्तु थर्ड जेंडर तो अभी भी अपरिचय के धुंधलके में जी रहा है। यद्यपि थर्ड जेंडर समाज अपने ऊपर छाए धुंधलके को हटा देने के लिए अब दृढ़ प्रतिज्ञ हो चला है। जिसका उदाहरण है अप्रैल 2014 में भारत की शीर्ष न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को तीसरे लिंग (थर्ड जेंडर) के रूप में पहचान दी। नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी की अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय के द्वारा इस समुदाय को न केवल ‘तृतीय लिंग’ की पहचान देने बल्कि उन्हें सभी ‘विधिक’ और ‘संवैधानिक-अधिकार’ भी प्रदान करने का निर्देश केंद्र सरकार एवं देश की राज्य सरकारों को दिया है। वस्तुतः में यह कार्य तो विधायिका का था, किंतु देश की स्वतंत्रता के छह दशक बाद भी ऐसा नहीं किया जा सका और अंततः इस कार्य को पूरा किया न्यायिक उच्चतम न्यायालय को। ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ (नाल्सा) बनाम भारत संघ और अन्य (2014)के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की खंडपीठ ने यह निर्णय 15 अप्रैल, 2014 को दिया। इस कानून ने थर्ड जेंडर के अधिकारों को व्यापक बना दिया। उन्हें एक-दूसरे से शादी करने और तलाक देने का अधिकार भी मिल गया। इस निर्णय के बाद वे बच्चों को गोद लेने का अधिकार मिल गया। इसके साथ ही उन्हें उत्तराधिकार कानून के तहत वारिस होने तथा इससे संबंधित अन्य अधिकार भी मिल गए।
उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19(1) (क) और 21 के अंतर्गत देश के व्यक्तियों/नागरिकों को प्रदत्त सभी मूल अधिकारों को किन्नरों के भी पक्ष में विस्तारित करते हुए यह निर्णय दिया कि - संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार राज्य किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। यह अनुच्छेद ‘व्यक्ति’ को केवल ‘पुरुष’ और ‘स्त्री’ तक ही सीमित नहीं करता है। ‘हिजड़ा’ या ‘ट्रांसजेंडर’, जो न तो पुरुष हैं और न ही स्त्री, भी शब्द ‘व्यक्ति’ के अंतर्गत आते हैं। इसलिए राज्य के उन सभी क्षेत्र के कार्यों, नियोजन, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा तथा समान सिविल और नागरिक अधिकारों, जिनका उपभोग देश के अन्य नागरिक कर रहे हैं, ये वर्ग भी विधियों का कानूनी संरक्षण प्राप्त करने का हकदार है। अतः उनके साथ लिंगीय पहचान या लिंगीय उत्पत्ति के आधार पर विभेद करना विधि के समक्ष समानता और विधि के समान संरक्षण का उल्लंघन करता है।
संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 संयुक्त रूप से लिंगीय पक्षपात या लिंगीय विभेद को प्रतिबंधित करते हैं। इनमें प्रयोग किया गया शब्द ‘लिंग’ केवल पुरुष या स्त्री के जैविक लिंग तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अंतर्गत वे लोग भी शामिल हैं जो स्वयं को न तो पुरुष मानते हैं और न स्त्री। अतः ये वर्ग इन अनुच्छेदों के संरक्षण के साथ-साथ अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के द्वारा प्रदत्त आरक्षण का भी लाभ प्राप्त करने का अधिकारी है, जिसे देने के लिए राज्य बाध्य है।

संविधान के अनुच्छेद 19(1) (क) का कथन है कि सभी नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी और इसके अंतर्गत किसी नागरिक के अपने ‘स्व-पहचानीकृत लिंग को अभिव्यक्त करने का अधिकार भी सम्मिलित है, जिसे पहनावा शब्द, कार्य या व्यवहार अथवा अन्य रूप में दर्शित किया जा सकता है और संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कथित प्रतिबंधों के सिवाय किसी ऐसे व्यक्ति की व्यक्तिगत प्रस्तुति या वेशभूषा पर अन्य कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। अतः ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों की एकांतता का महत्त्व, स्व-पहचान, स्वायत्तता और व्यक्तिगत अखंडता अनुच्छेद 19(1) (क) के अंतर्गत प्रत्याभूत किए गए मूल अधिकार हैं और राज्य इन अधिकारों की रक्षा करने तथा उन्हें मान्यता प्रदान करने के लिए बाध्य है।

संविधान का अनुच्छेद 21 यह प्रावधान करता है कि ‘‘किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं’’। यह अनुच्छेद मानव जीवन की गरिमा, किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्तता एवं किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है। किसी व्यक्ति की लिंगीय पहचान को मान्यता दिया जाना गरिमा के मूल अधिकार के हृदय में निवास करता है। इसलिए लिंगीय पहचान हमारे संविधान के अंतर्गत गरिमा के अधिकार और स्वतंत्रता का एक भाग है। स्व-पहचानीकृत लिंग या तो ‘पुरुष’ या ‘महिला’ या एक ‘तृतीय लिंग’ (थर्ड जेंडर) हो सकता है। ‘हिजड़ा’ तृतीय लिंग के रूप में ही जाने जाते हैं, न कि पुरुष अथवा स्त्री के रूप में। इसलिए इनकी अपनी लिंगीय अक्षमता को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूह के कारण एक तृतीय लिंग के रूप में विचारित किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी के हैं, जिन्होंने अन्य मामलों में इसके पूर्व न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन के संपूर्ण तर्कों का समर्थन किया करते हुए इसी बात पर बल दिया था कि ट्रांसजेंडर समूह भी देश के नागरिक हैं और उन्हें थर्ड जेंडर के रूप में पहचान दी जानी चाहिए जिससे वे भी गरिमा और सम्मान के साथ जीवन-यापन कर सकें और देश के अन्य नागरिकों की भांति मतदान के अधिकार, संपत्ति अर्जन के अधिकार, विवाह के अधिकार, पासपोर्ट, राशन कार्ड, वाहन-चालन अनुज्ञप्ति इत्यादि के माध्यम से औपचारिक पहचान प्राप्त करने के अधिकार, शिक्षा, नियोजन एवं स्वास्थ्य इत्यादि के अधिकार का दावा कर सकें। क्योंकि इन अधिकारों से इस समूह को वंचित रखे जाने का कोई कारण नहीं है।

शबनम मौसी, कमला जान, आशा देवी, कमला किन्नर, मधु किन्नर और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी वे नाम हैं जिन्होंने चुनाव में बहुमत से विजय प्राप्त कर के विधायक और महापौर तक के पद सम्हाले। देश की पहली किन्नर प्राचार्य मानबी बंदोपाध्याय और पहली किन्नर वकील तमिलनाडु की सत्य श्री शर्मिला ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जे़ंडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरुष की भांति बुद्धिजीवी वर्ग की किसी भी ऊंचाई को छू सकते हैं। किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा लिखी ‘मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’। उन्होंने लम्बा संघर्ष किया। महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का कहना है कि ’हम सनातन धर्म के हैं, उपदेवता हैं। हमने सालों संघर्ष झेला है। आज उसी संघर्ष का परिणाम है कि स्वयं इस धर्म मेले ने हमें अपनाया। संगम ने गोद में खिलाया। आज जितने भी किन्नर संन्यासियों ने यहां स्नान किया है, उनकी ओर से मैं पूरे मानव समाज के हित की कामना और प्रयास करती हूं। यह सनातन धर्म की ही महिमा हो सकती है कि जहां सालों तक संस्कृति और समाज से अलग रखा, वहीं सबसे बड़े संस्कृति के मेले ने बांहें फैलाकर हमारा स्वागत किया।’

समाज किसी भी परिवर्तन को एक झटके में स्वीकार नहीं करता है। वह दीर्घकालिक प्रक्रिया से गुज़रता है परिवर्तन को आत्मसात करने के लिए। हिन्दी साहित्य को ही ले लीजिए। थर्ड जेंडर के जीवन तथा मनोदशा पर कहानियां, कविताएं, उपन्यास और लेख लिखे जाते रहे। किन्तु थर्ड जेंडर के साहित्यिक विमर्श को खड़े होने में भी लगभग डेढ़ दशक से अधिक समय लग गया। लेकिन अब बहुत कुछ सकारात्मक हुआ। नईदिल्ली के सामयिक प्रकाशन ने अपनी पत्रिका ‘सामयिक सरस्वती’ के अप्रैल-सितम्बर 2018 के संयुक्तांक को ‘थर्ड जेंडर विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया। इस पत्रिका की कार्यकारी संपादक के रूप में मैंने और संपादक महेश भारद्वाज ने अपने इस इरादे पर अमल किया। विशेषांक छप कर आया तो पाठकों, समीक्षकों और शोधकर्ताओं ने इसे हाथों-हाथ लिया। इसके बाद विचार आया कि क्यों न थर्ड जेंडर के इतिहास से ले कर वर्तमान और भविष्य तक की चर्चा को एक ही ज़िल्द में सहेज कर एक किताब पाठकों को सौंपी जाए और परिणामतः प्रकाशित हुई मेरी पुस्तक ‘‘थर्ड जेंडर विमर्श’’। दरअसल, मुझे व्यक्तिगततौर भी लगता है कि थर्ड जेंडर के संघर्ष को हर स्तर पर चाहे वह साहित्य हो या संविधान हो, उसे वैचारिक संमर्थन एवं प्रोत्साहन यानी विमर्श की जरूरत है। शेष समाज का समर्थन ही थर्ड जेंडर को समाज में वह समतापूर्ण सम्मान दिला सकता है जो स्त्रियों और पुरुषों को प्राप्त है। कानून भी तभी असरकारक होते हैं जब विचारों में सकारात्मकता हो और यह सकारात्मकता साहित्य के पन्नों से मानस तक पहुंचती है। लिहाजा, कानून भी जरूरी है और साहित्य भी।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 23.01.2019)