Thursday, June 27, 2019

बुंदेलखंड में महिला पत्रकारिता का सच - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... 'नवभारत' में प्रकाशित




 'नवभारत' में प्रकाशित मेरा लेख...


बुंदेलखंड में महिला पत्रकारिता का सच 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह                   
          यदि यह कहा जाए कि बुंदेलखंड की मानसिक भूमि आज भी महिला पत्रकारिता के लिए उर्वर नहीं है तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में फैले लम्बे-चौड़े भू-भाग में पुरुष पत्रकार तो अनेक हैं किन्तु महिला पत्रकारों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। यह अवश्य है कि निजी चैनल्स के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एंकर के रूप में बुंदेलखंड की युवतियों को रुपहले पर्दो पर अवश्य जगह दे दी है किंतु जहां तक बात ज़मीनी पत्रकारिता में महिलाओं के दखल की है तो आज भी बुंदेलखंड पिछड़ा हुआ है। इस तारतम्य में मुझे वह समय याद आता है जब स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद ही मैंने पन्ना जैसे छोटे से जिले में पत्रकारिता में कदम रखा था। उस समय पन्ना में ही एक और महिला पत्रकार हुआ करती थीं प्रभावती शर्मा जिनके पतिदेव एक टेबलाईड अखबार प्रकाशित किया करते थे। मेरा उनसे परिचय पत्रकारिता में कदम रखने के बाद हुआ। उन दिनों प्रिंट मीडिया में एक उत्साहजनक वातावरण था। उस दौर में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘नवीनदुनिया’ में ‘जोगलिखी’ कॉलम में पन्ना की समस्याओं पर मेरी रिपोर्ट्स प्रकाशित हुआ करती थीं। वहीं से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘ज्ञानयुग प्रभात’ में मैंने विशेष संवाददाता का कार्य किया। ‘जनसत्ता’ एवं ‘पांचजन्य’ के लिए रिपोर्टिंग की। उन दिनों पन्ना में बहुचर्चित ‘भदैंया कांड’ हुआ था जिसमें भदैंया नामक ग्रामीण की कुछ दबंगों ने आंखें छीन ली थीं। इस लोमहर्षक कांड पर मेरी कव्हरेज को ‘जनसत्ता’ ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था। पन्ना की खुली जेल में रह रहे दस्यु पूजा बब्बा से मैंने साक्षात्कार लिया था। डकैत चाली राजा के आत्मसमर्पण तथा कुछ डकैतों के इन्काउंटर पर भी मैंने रिपोर्टिंग की थी। अनुबंध के आधार पर रिपोर्टिंग में कलकत्ता (कोलकाता) से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘रविवार’ के लिए खजुराहो महोत्सव पर मेरे फीचर प्रकाशित हुए थे।
 परिस्थितिवश मैं जमीनी पत्रकारिता से दूर होती गई। आज मैं पीछे मुड़ कर देखती हूं तो तब से अब तक समूचे बुंदेलखंड में जमीनी पत्रकारिता से जुड़ी सक्रिय महिला पत्रकार गिनती की ही दिखाई देती हैं, उनमें भी अधिकांश स्थानीय समाचारपत्रों से ही संबद्ध हैं। राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्रों में अपनी रिपोर्ट देने का जज़्बा उनमें कम ही देखने को मिलता है।

बुंदेलखंड में महिला पत्रकारिता का सच - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह  ... 'नवभारत' में प्रकाशित

आज बुंदेलखंड में विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के उपाधि पाठ्यक्रम चल रहे हैं, कई निजी पत्रकारिता महाविद्यालय भी संचालित हैं लेकिन इनसे पढ़ कर निकलने वाली महिला पत्रकार बुंदेलखंड की जमीनी पत्रकारिता पर कम ही टिक रही हैं।

सागर की प्रिंट पत्रकारिता जगत में यदि नाम लिया जाए तो दो महिला पत्रकार सक्रिय दिखाई देती हैं- वंदना तोमर और रेशू जैन। ये दोनों महिलाएं अपने-अपने दायित्वों में लगन से कार्य करती रहती हैं। दोनों का दायरा परस्पर अलग-अलग है किंतु कर्मठता लगभग एक-सी है। बात की जाए यदि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड की तो वहां कुछ समय पूर्व एक धमाका हुआ था जब ‘खबर लहरिया’ नाम का अखबार प्रकाशित होना शुरू हुआ। आकलनकर्त्ताओं ने इसे ‘वैकल्पिक मीडिया’ कहा। ‘खबर लहरिया’ ग्रामीण मीडिया नेटवर्क में अपनी पहचान बनाने में सफल रहा क्योंकि कई जिलों में इसके लिए सिर्फ़ महिला रिपोटर्स रखी गईं। चालीस से अधिक महिलाओं द्वारा चलाया जानेवाला ये अख़बार उत्तर प्रदेश और बिहार से स्थानीय भाषाओं में छपता है। ‘ख़बर लहरिया’ को संयुक्त राष्ट्र के ’लिट्रेसी प्राइज़’ समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। ‘खबर लहरिया’ की पत्रकार सुश्री कविता चित्रकूट के कुंजनपुर्वा गांव के एक मध्यमवर्गीय दलित परिवार से आती हैं। बचपन में उनकी पढ़ाई नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो जिंदगी में कभी पत्रकार बनेंगी। वर्ष 2002 में उन्होंने ’खबर लहरिया’ में पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। वे कहती हैं कि ‘मेरे पिताजी ने बचपन से मुझे पढ़ाया नहीं और कहा कि तुम पढ़कर क्या करोगी, तुम्हे कलेक्टर नहीं बनना है। मैने छुप-छुप कर पढ़ाई की। पहले था कि मैं किसी की बेटी हूं या फिर किसी की पत्नी हूं। आज मेरी खुद की पहचान है।’

इस अख़बार से पत्रकार के रूप में महिलाओं का जुड़ाव होने पर भी जो पुरुष-मानसिकता सामने आई वह चौंकाने वाली थी क्योंकि इन महिला पत्रकारों को अनजान नंबरों से लगातार अश्लील संदेश और धमकियां मिलने लगीं। इस तथ्य का पता चलने पर मुझे लगा कि जिन दिनों मैं जमीनी पत्रकारिता से जुड़ी हुई थी, उन दिनों बुंदेलखंड के लिए महिला पत्रकारिता अपवाद का विषय होते हुए भी सकारात्मक माहौल लिए हुए था। प्रशासन से ले कर समस्याग्रस्त क्षेत्र तक सम्मान और सहयोग मिलता था। या फिर मध्यप्रदेशीय बुंदेलखंड में आज भी वह माहौल है जहां महिला पत्रकारों को इस प्रकार की ओछी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता है।

वैसे यहां प्रश्न क्षेत्र का नहीं मानसिकता का है क्योंकि उत्तरप्रदेशीय बुंदेलखंड में ही एक ऐसी महिला पत्रकार हुईं जिन्होंने अपने पति की बात को झुठलाते हुए दबंग पत्रकारिता की और जेल भी गईं। बांदा की पहली महिला पत्रकार के रूप में विख्यात मधुबाला श्रीवास्तव एक दबंग व्यक्तित्व की महिला रहीं। वे अपने संस्मरण सुनाते हुए अपने पत्रकार बनने के विषय में बताया करती थीं कि एक बार जब वे मंदिर गईं तो वहां यह चर्चा आई कि शहर में कोई महिला पत्रकार नहीं है। यह बात उनके पति ने इस भाव से कही थी कि गोया महिलाएं पत्रकारिता कर ही नहीं सकती हैं। तब वे आगे आ कर बोलीं कि ‘‘हम हैं महिला पत्रकार।’’ इस तरह उन्होंने पत्रकारिता जगत में कदम रखा। एक बार उन्होंने अपने पत्रकार पति के विरुद्ध भी भाषण दिया था। मधुबाला श्रीवास्तव ने ‘अमर नवीन’, ‘क्रांति कृष्णा’ तथा ‘पायोनियर’ के लिए भी पत्रकारिता की। मीसा एक्ट के तहत उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। किंतु उन्हें भी अश्लील संदेशों अथवा ऊटपटांग धमकियों का सामना नहीं करना पड़ा था। इसका अर्थ यही है कि बुंदेलखंड को जहां आज समय के साथ चलते हुए जमीनी पत्रकारिता में महिलाओं की बहुसंख्या दिखनी चाहिए थी वहां अल्पसंख्यक स्थिति है। यह बिगड़ा हुआ माहौल तभी सुधर पाएगा जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध में पड़ कर एंकरिंग से परे भी जमीनी पत्रकारिता की ओर सुशिक्षित, प्रशिक्षित और दबंग महिला पत्रकारों की नई खेप कदम रखेगी। 
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(27 जून 2018)

मेरे इस लेख पर पत्रकार सुश्री वंदना तोमर की मेरे इस लेख पर फेसबुक पर प्रतिक्रिया (स्क्रीनशॉट)
Screenshot_2019-07-06  Vandna Tomar on Dr (Miss) Sharad Singh article
 

Wednesday, June 26, 2019

चर्चा प्लस ... 26 जून : अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस पर विशेष ... नाश की ओर ले जाता है नशा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 26 जून : अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस पर विशेष :
नाश की ओर ले जाता है नशा
    - डॉ. शरद सिंह                         
      मादक पदार्थों के नशे की लत आज के युवाओं में तेजी से फ़ैल रही है। कभी फैशन में पड़ कर तो कभी दोस्तों के उकसावे पर मादक पदार्थ के भंवर में फंस जाते हैं। महिलाओं में भी नशे की आदत आम होती जा रही है विशेषरूप से बड़े शहरों में, जहां महिलाओं के लिए नशा ‘स्टेटस सिंबल’ माना जाता है। भले ही फिर नशे के चलते गर्भपात हो अथवा विकलांग शिशुओं का जन्म हो। नशा करना ठीक वैसा ही जैसे कोई बैल के सामने खड़ा हो कर आह्वान करे कि आ बैल मार मुझे। समूची दुनिया के साथ ही भारत में नशे का प्रतिशत बढ़ना चिंताजनक है। 
चर्चा प्लस ... 26 जून : अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस पर विशेष  ...  नाश की ओर ले जाता है नशा - डॉ. शरद सिंह 
     अंतर्राष्ट्रीय नशा निषेध दिवस प्रत्येक वर्ष 26 जून को मनाया जाता है। नशीली वस्तुओं और पदार्थों के निवारण हेतु ’संयुक्त राष्ट्र महासभा’ ने 7 दिसम्बर, 1987 को प्रस्ताव पारित कर हर वर्ष 26 जून को ’अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस’ मानाने का निर्णय लिया था। विकसित एवं अविकसित दोनों प्रकार के देशों में नशा एक विकट समस्या है। नशा एक ऐसी लत है जिसे बलपूर्वक छुड़ाया नहीं जा सकता है। दुनिया भर में आज अनेक रीहैबिलिटेशन केन्द्र खुल चुके हैं जो नशो के आदी व्यक्तियों को नशे से छुटकारा दिलाने का काम करते हैं। भारत में भी इस प्रकार के कई केन्द्र हैं। किन्तु रीहैबिलिटेशन केन्द्र में भी नशा छुड़वाने के संबंध में जो सबसे कारगर तत्व रहता है, वह है नशा करने वाले का स्वयं की आत्मशक्ति। यह आत्मशक्ति हर नशेबाज में एक-सी नहीं होती है। यह पाया गया है कि जो व्यक्ति जितना अधिक नशे का आदी हो चुका होता है, उसकी आत्मशक्ति उतनी ही कमजोर पड़ चुकी होती है। ऐसा व्यक्ति चाह कर भी नशे की गिरफ़्त से खुद को आजाद नहीं करा पाता है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा यह तय किया गया कि क्यों न व्यक्तियों को नशे के विरुद्ध जागरूक किया जाए ताकि वे नशे की गिरफ़्त में ही न आएं। इसके तहत उद्देश्य रखा गया कि समाज में बढ़ती हुई मद्यपान, तम्बाकू, गुटखा, सिगरेट की लत एवं नशीले मादक द्रव्यों, पदार्थों के दुष्परिणामों से समाज को अवगत कराया जाए जिससे मादक द्रव्य एवं मादक पदार्थों के सेवन की रोकथाम के लिए उचित वातावरण एवं चेतना का निर्माण हो सके। प्रत्येक देश ने इस फैसले का स्वागत किया और संयुक्त राष्ट्रसंघ की जनरल असेम्बली ने 7 दिसम्बर, 1987 में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अंतर्गत प्रतिवर्ष 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय मादक पदार्थ एवं गैरकानूनी लेनेदेन निषेध दिवस के रूप में मनाए जाने का निश्चय किया गया। इस दिवस को यही प्रयास रहता है कि निजी, संस्थागत एवं सरकारी स्तर पर वर्ष भर के लिए योजना बना कर नशे के विरोध में मुहिम छेड़ी जाए।

अमेरिका जैसे विकसित देश तो नशे की चपेट में हैं ही किंतु दुर्भाग्यवश भारत जैसे आर्थिक रूप से संघर्षशील देश में भी महिला, पुरुष, बच्चे सभी में नशे के प्रति रुझान बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में भारत भी हेरोइन का बड़ा उपभोक्ता देश बनता जा रहा है। गौरतलब है कि अफीम से ही हेरोइन बनती है। भारत के कुछ भागों में धड़ल्ले से अफीम की खेती की जाती है। वर्ष 2001 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में भारतीय पुरुषों में अफीम सेवन की उच्च दर 12 से 60 साल की उम्र तक के लोगों में 0.7 प्रतिशत प्रति माह देखी गई। इसी प्रकार 2001 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार ही 12 से 60 वर्ष की पुरुष आबादी में भांग का सेवन करने वालों की दर महीने के हिसाब से तीन प्रतिशत मादक पदार्थ और अपराध मामलों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में जिस अफीम को हेरोइन में तब्दील नहीं किया जाता, उसका दो तिहाई हिस्सा पांच देशों में इस्तेमाल होता है। ईरान 42 प्रतिशत, अफ़ग़ानिस्तान 7 प्रतिशत, पाकिस्तान 7 प्रतिशत, भारत छह प्रतिशत और रूस में इसका पांच प्रतिशत इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2008 में 17 मीट्रिक टन हेरोइन की खपत की और वर्तमान में उसकी अफीम की खपत अनुमानतः 65 से 70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। कुल वैश्विक उपभोग का छह प्रतिशत भारत में होने का मतलब कि भारत में 1500 से 2000 हेक्टेयर में अफीम की अवैध खेती होती है। यह तथ्य चिंताजनक है। भारत में शराब की वार्षिक खपत लगभग 5.38 बिलियन लीटर और जो 2020 मे बढकर लगभग 6.53 बिलियन लीटर हो चुकी है। अवैध ड्रग्स का कारोबार भी दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है, मणिपुर, मिजोरम, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि मे बड़ी मात्र में जब-तब अवैध मादक पदार्थ पकड़े जाते हैं जिससे इनके प्रचुर प्रयोग का सच सामने आता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत मे लगभग 8 करोड़ लोग ड्रग्स ले रहे है इनमें अफीम, मॉर्फिन, हेरोइन, गांजा, हैशिस, कोकेन, मेथाक्लाओन, एफाड्राइन, एलएसडी, एसिटिक एनहाइड्राइड और एम्फ़ैटेमिन आदि शामिल है।

जिन युवाओं के कंधों पर देश का, समाज का और परिवार का भविष्य टिका होता है, वहीं जब नशे में उूबने लगते हैं तो सामाजिक व्यवस्था का चरमराना और अपराधों का बढ़ना स्वाभाविक है। नशा एक ऐसी बीमारी है जो कि युवा पीढ़ी को लगातार अपनी चपेट में लेकर उसे कई तरह से बीमार कर रही है। शराब, सिगरेट, तम्बावकू एवं ड्रग्सा जैसे जहरीले पदार्थों का सेवन कर युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा नशे का शिकार हो रहा है। आज फुटपाथ और रेल्वे प्लेटफार्म पर रहने वाले बच्चे भी नशे की चपेट में आ चुके हैं। कई बार कम उम्र के बच्चे आयोडेक्स, वोलिनी जैसी दवाओं को सूंघकर इसका आनंद उठाते हैं। कुछ मामलों में इन्हें ब्रेड पर लगाकर खाने के भी मामले देखे गए हैं। जान कर आश्चर्य होता है कि नशे के आदी युवा टोरेक्स, कोदेन, ऐल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस जैसे दवाओं को भी नशे के रूप में प्रयोग में लाने लगते हैं। इसके लिए गलत संगति सबसे बड़ी जिम्मेदार है जिसके प्रभाव में आ कर युवा गुटखा, सिगरेट, शराब, गांजा, भांग, अफीम और धूम्रपान सहित चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक दवाओं के गुलाम बन जाते हैं। पहले उन्हें मादक पदार्थ मुफ़्त में उपलब्ध कराकर इसका लती बनाया जाता है और फिर लती बनने पर ये युवा इसके लिए चोरी से लेकर हत्या जैसे अपराध तक करने को तैयार हो जाते हैं। वे इस बात की ओर ध्यान ही नहीं देते हैं कि .नशे के लिए उपयोग में लाई जानी वाली सुइयां एच.आई.वी. का कारण भी बनती हैं, जो अंततः एड्स का रूप धारण कर लेती है।

आज यह एक कटु सच्चाई है कि शराब, सिगरेट जैसे नशे अब सिर्फ पुरुषों के ही शौक नहीं रह गए हैं बल्कि आधी आबादी भी इसकी चपेट में आ चुकी है। और इस का नुकसान पारिवारिक विघटन के तौर पर देखने को मिल रहा है। अमेरिका में किए गए अनुसंधानों से पता चला है कि गर्भपात का खतरा शराब का सेवन करने वाली महिलाओं में अधिक रहता है। गर्भवती महिलाओं में शुरू के दिनों में 12 प्रतिशत अधिक खतरा होता है। शिशु के मस्तिष्क में विकृति की सम्भावना औरों के मुकाबले मद्यपान करने वाली महिलाओं के शिशुओं में 35 प्रतिशत तक अधिक होती है। मद्यपान से स्मरण शक्ति कमज़ोर हो जाती है, निर्णय क्षमता घट जाती है। गुर्दे, यकृत और गर्भाशय संबंधी अनेक रोग हो जाते हैं। पुरुषों से बराबरी और हाई सोसायटी के भ्रम के चलते अमीर व शिक्षित महिलाओं में ही नहीं, कम आय वर्ग की महिलाओं में भी यह बुराई पैर पसार रही है। यही वजह है कि वाइन और लिकर शॉप्स में युवकों के साथ-साथ बड़ी संख्या में युवतियां भी शराब और बीयर खरीदती दिखाई देती हैं। आलम यह है कि  पश्चिमी देशों में महिलाओं ने शराब पीने के मामले में पुरुषों की बराबरी कर ली है। एक सर्वे के मुताबिक 18 से 27 वर्ष की उतनी ही महिलाएं शराब पी रही हैं जितने पुरुष। महिलाओं में मद्यपान की बढ़ती प्रवृत्ति के संबंध में किए गए सर्वेक्षण दर्शाते हैं कि क़रीब 40 प्रतिशत महिलाएँ इसकी गिरफ्त में आ चुकी हैं। इनमें से कुछ महिलाएं खुलेआम तथा कुछ छिप-छिप कर शराब का सेवन करती हैं। महानगरों और बड़े शहरों की कामकाजी महिलाओं के छात्रावासों में यह बहुत ही आम होता जा रहा है। महानगरों में स्थित शराब मुक्ति केंद्रों के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि नशे की गिरफ्त से छुटकारा पाने हेतु आने वाले 10 व्यक्तियों में से 4 महिलाएं होती हैं।

आधुनिक रहन-सहन, पश्चिम का अंधानुकरण, मद्यपन को सामाजिक मान्यता, आसानी से शराब की उपलब्धता, तनाव, अवसाद व पुरुषों से बराबरी की होड़ को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। पुराने समय के मुकाबले आधुनिक युग में शराब को अधिक सामाजिक मान्यता मिली हुई है। बड़ी पार्टियों में तो यह आवश्यक अंग बन गई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों, जन संचार माधयमों आदि से जुड़ी महिलाएँ पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंग कर शराब को अपना लेती हैं। यही नहीं अब तो फैशन की आड़ ले कर कॉलेज की छात्राएं तक शराब का सेवन कर बैठती हैं।

धूल,धुंए और अल्ट्रावायलेट किरणों से चेहरे के बचाव के रूप में चेहरे पर कपड़ा बांध कर घर से निकलने के चलन ने जहां चुहरे को सुरक्षा दी है, वहीं आपराधिक स्तर तक की स्वतंत्रता भी दे दी है। आपराधिक प्रवृत्ति के युवा चेहरे पर कपड़ा बांध कर अपराधों को अंजाम देते हैं तो वहीं स्कूल-कॉलेज के स्टूडेंट्स अपने चेहरे को कपड़े से ढांक कर बेधड़ पब, हुक्काबार और इसी प्रकार के अन्य नशों के अड्डों की ओर चल पड़ते हैं। इस चलन का लाभ उठाते हुए युवतियां भी पीछे नहीं हैं। चेहरा छुपा कर पब जाना अथवा किसी भी आपराधिक स्थान पर जाना उनके लिए आसान हो गया है, भले ही इसके एवज में उन्हें वेश्यावृत्ति्, ब्लेकमेलिंग अथवा गंभीर बीमारी के दलदल में फंसना पड़ता है।

नशे से मुक्ति के लिए समय-समय पर सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं पहल करती रहती हैं। पर इसके लिए स्वयं व्यक्ति और परिवार जनों की भूमिका ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। नशे का निषेध सबसे पहले घर से ही शुरु होना चाहिए। यदि पिता अपने बच्चे के सामने सिगरेट के धुंए के छल्ले नहीं उड़ाएगा, यदि वह नशे वाले गुटखा नहीं खाएगा और शराब की चुस्कियां नहीं लेगा तो उसके बच्चे के मन में यही धारणा दृढ़ होगी कि नशा करना बुरी बात है। इसके साथ ही जरूरी है कि अभिभावक अपने बच्चों पर नजर रखें।  यानी स्वयं नशे से दूर रहें और बच्चों को भी नशे की ओर आकर्षित न होने दें। न सिर्फ़ पुरुषों, महिलाओं अथवा बच्चों को बल्कि समूचे समाज को एक साथ यह समझना होगा कि नशा इंसान को नाश की ओर ले जाता है।
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दैनिक ‘सागर दिनकर’, 26.06.2019)
#शरदसिंह

Saturday, June 22, 2019

बुंदेलखंड में आज भी कमी है महिला उद्योगों की - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - 'नवभारत' में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
'नवभारत' में बुंदेलखंड में महिला उद्योगों की कमी पर आज प्रकाशित मेरा लेख...
हार्दिक धन्यवाद 'नवभारत' !!!


बुंदेलखंड में आज भी कमी है महिला उद्योगों की
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 


       वे सिर पर दो-दो, तीन-तीन घड़े उठाए चार-पांच किलोमीटर जाती हैं और अपने परिवार की प्यास बुझाने के लिए सिर पर पानी ढो कर लाती हैं। पहाड़ी या घाटी भी इनका रास्ता रोक नहीं पाती है। बढ़ते अपराध और सूखे की मार भी इन्हें डिगा नहीं पाती है क्योंकि ये हैं बुंदेलखंड की जीवट महिलाएं। बुंदेलखंड में महिलाएं घर-परिवार की अपनी समस्त जिम्मेदारियां निभाती हुई अपने परिवार के पुरुष सदस्यों का हाथ खेतीबारी में बंटाती आ रही हैं। दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी के तले दब कर भी उफ न करने वाली बुंदेली महिलाओं के लिए मुसीबतों की कमी कभी नहीं रही। देश की आजादी के अनेक दशक बाद भी बुंदेली महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत कम है। उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की गाथाएं तो हमेशा सुनाई और रटाई गईं किन्तु लक्ष्मीबाई जैसी शिक्षा, आत्मरक्षा कौशल अथवा आर्थिक संबल उन्हें प्रदान नहीं किया गया। फिर भी यह बुंदेली महिलाओं की जीवटता थी कि वे बीड़ी निर्माण, वनोपज संग्रहण आदि के द्वारा अपने परिवार की हरसंभव आर्थिक मदद करती रही हैं। लेकिन अब बीड़ी उद्योग और वनोपज संग्रहण के क्षेत्र में आमदनी के अवसर कम हो चले हैं। बीड़ी उद्योग तो स्वयं ही घाटे में चल रहा है। विगत दो-तीन वर्ष में सात से अधिक बीड़ी कारखाने बंद हो गए। 

Article of Dr (Miss) Sharad Singh published in  Navbharat
      महिला सशक्तीकरण की दिशा में अभी और प्रयास किये जाने की जरूरत है, ताकि महिलाओं को रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो और ज्यादा संख्या में महिला उद्यमी तैयार करने लायक माहौल बन सके। सरकारों को समझना होगा कि देश में महिला श्रमशक्ति की भागदारी बढ़ाने के लिये महिलाओं को क्षमता विकास प्रशिक्षण उपलब्ध कराने को बढ़ावा देने, देश भर में रोजगार के अवसर उत्पन्न करने, बड़ी संख्या में चाइल्ड केयर केन्द्र स्थापित करने तथा केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा हर क्षेत्र में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने सम्बन्धी प्रयास किया जाना बेहद जरूरी है।
आर्थिक पिछड़ेपन का दृष्टि से जो स्थान भारत के मानचित्र में उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश का है, वही स्थिति झांसी तथा सागर सम्भाग के जनपदों के दतिया-ग्वालियर सहित है। यहां पर विकास की एक सीढ़ी चढ़ना दुभर है। बुंदेलखंड का प्रत्येक ग्राम भूख और आत्महत्याओं की करुण कहानियों से भरा है। बुंदेलखंड में महिलाओं की शिक्षा एवं आर्थिक विकास की क्रियाओं में भागेदारी भी अपेक्षाकृत न्यून है। इस स्थिति में यदि गांवों का औद्योगीकरण करना है तो पहले महिलाप्रधान ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। इसके लिए बाहर से उद्योगपति को गांव में आमंत्रित करने की आवश्यकता ही नहीं है। इस काम के लिए महिलाओं को ही सक्षम बनाना पर्याप्त होगा। समूह आधारित सहकारिता के माध्यम से यह काम बखूबी किया जा सकता है। बुंदेलखंड के बाहर के क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा खड़े किए सेवा बैंक और लिज्जत पापड़ तो इसके अनुकरणीय उदाहरण हैं।
     बुंदेलखंड में महिलाओं को उद्योग से जोड़ने का प्रयास केंद्र सरकार द्वारा आरम्भ किया जा चुका है जिसके अंतर्गत जैव प्राद्योगिकी आधारित ग्रामीण महिलाओं का आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण कार्यक्रम तैयार किया गया है। जो उन्हें खेती, बागवानी व सब्जी की नई तकनीक के साथ पशुपालन और ग्रामीण कुटीर उद्योग से भी जोड़ रहा है। बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश के जनपद के रानीपुर खाकी, बैहार, बनाड़ी, गनीवां और कुंई गांव में करीब एक हजार महिला खेतीबारी सहित कुटीर उद्योग के गुर तुलसी कृषि विज्ञान केंद्र गनीवां के सहयोग से सीख चुकी हैं। किसानों को हमेशा नए-नए प्रशिक्षण देकर उन्नत खेती कराने का प्रयास किया गया है और अब उसे मजबूती देने के लिए महिला किसानों को आगे लाया जा रहा है। जैव प्राद्योगिकी आधारित ग्रामीण महिलाओं का आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण’ नाम के कार्यक्रम से जनपद के पांच गांव में समूह बनाकर महिलाओं को गांव में उपलब्ध संसाधन और प्रदर्शन के माध्यम से जाग्रत किया जा रहा है।

     मध्यप्रदेशीय बुंदेलखंड में भी महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने व प्रदेश के क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए शासन ने महिलाओं को उद्योगों में बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर कई कदम उठाए गए। महिला उद्यमी प्रोत्साहन योजना- 2013 के तहत औद्योगिक इकाई लगाने वाली महिलाओं को ऋण पर छूट प्रदान की जाने लगी। लेकिन बुंदेलखंड में उद्योगों में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। इसे तथ्य को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश शासन ने उद्योगों में महिलाओं को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। महिलाओं को गुह एवं लघु उद्योग के लिए ऋण दिए जाने का प्रावधान रखा गया। बुंदेलखंड में लागू इस योजना में ऋण लेकर उद्यम लगाने वाली महिलाओं को पांच प्रतिशत की दर से एक साल में अधिकतम पचास हजार और पांच साल में ढाई लाख रुपये ब्याज में छूट देने का प्रावधान किया गया। लेकिन यहां भी आड़े आ गई साक्षरता की कमी। उद्योग के लिए ऋण लेने वाली महिला उद्यमी का इंटरमीडिएट पास होना आवश्यक योग्यता तय की गई। ऋण का सदुपयोग एवं  उद्योग के संचालन की दृष्टि से यह सर्वथा उचित है किंतु इंटरमीडिएट से कम पढ़ी महिलाओं को इस लाभ से वंचित रहन पड़ा।
   एक सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि पुरुषसत्तात्मक बुंदेलखंड में आज भी महिलाओं को स्वनिर्णय का अधिकार पूरी तरह नहीं मिल सका है, विशेषरूप से आर्थिक मामलों में। जिस प्रकार राजनीतिक क्षेत्र में पंच, सरपंच, पार्षद आदि स्तर पर महिलाएं रबर स्टैम्प की भांति पदासीन रहती हैं और उनके सारे राज-काज उनके पति यानी पंचपति, सरपंचपति, पार्षदपति सम्हालते हैं उसी प्रकार आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं को सरकार द्वारा अनेक योजनाओं के अंतर्गत दिए जाने वाले ऋण एवं लघु उद्योग का वास्तविक संचालन महिलाओं के हाथों में न हो कर उनके परिवार के पुरुषों अथवा उनके पति के हाथ में होता है। इसीलिए बुंदेलखंड में महिलाओं के लिए उस प्रकार के उद्योगों की विशेष आवश्यकता है जो पूर्णरूप से महिलाओं द्वारा संचालित हों और जिनमें महिलाओं को निर्णय लेने का पूरा अधिकार हो। इस प्रकार के उद्योगों की स्थापना से ही बुंदेली महिलाओं में आर्थिक आत्मनिर्भता को बढ़ावा मिल सकेगा और वे बुंदेलखंड के आर्थिक विकास में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगी।
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नवभारत, 22 जून 2018
#बुंदेलखंड #महिला_उद्योग #महिलाएं #आर्थिक_विकास #बीड़ी_उद्योग #वनोपज #मध्यप्रदेश #उत्तरप्रदेश #सहकारिता

Wednesday, June 19, 2019

चर्चा प्लस .. सभी के लिए जानना जरूरी है पॉक्सो एक्ट और इसके प्रावधान - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ..

सभी के लिए जानना जरूरी है पॉक्सो एक्ट और इसके प्रावधान
  - डॉ. शरद सिंह                                   
   आजकल आए दिन नाबालिगों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं घटित हो रही हैं। इन घटनाओं के संबंध में पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत अपराध पंजीबद्ध किए जाते हैं। किन्तु कानून संबंधी आवश्यक ज्ञान की कमी के कारण अधिकांश लोग नहीं जानते हैं कि पॉक्सो एक्ट क्या है और इसके अंतर्गत क्या प्रावधान रखे गए हैं? वर्तमान में बच्चियों के विरुद्ध बढ़ती आपराधिक गतिविधियों के चलते प्रत्येक व्यक्ति को पाक्सो एक्ट जैसे कानून के बारे में जानकारी होनी चाहिए।
चर्चा प्लस .. सभी के लिए जानना जरूरी है पॉक्सो एक्ट और इसके प्रावधान - डॉ. शरद सिंह  About POSCO ACT in Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
बच्चों के साथ आए दिन यौन अपराधों के समाचार समाज को लज्जित करते रहते हैं। बच्चे न घर में सुरक्षित हैं और न ही खुले आसमान के नीचे। विकास के दावों के बीच भारत के अनुभव और ज़मीनी सच्चाई बच्चों की असुरक्षा की अलग कहानी कहती है। विगत वर्ष उत्तरप्रदेश के रामपुर में 7 साल की बच्ची को जंगल में ले जाकर बलात्कार किया गया। अमरोहा में 5 साल की बच्ची से बलात्कार हुआ। मुज़फ़्फ़रनगर में एक चिकित्सक ने सिरदर्द का इलाज़ कराने आई 13 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया। मध्य प्रदेश के इंदौर में 20 अप्रैल 2018 को फुटपाथ पर सो रही चार महीने की बच्ची को चुपचाप उठा लिया गया। उस मासूम के साथ बलात्कार किया गया और उसका सिर पटक पटक कर उसकी हत्या कर दी गई। उस बच्ची का परिवार राजबाड़ा में गुब्बारे बेचकर जीवनयापन करता था। हाल ही में हुए अलीगढ़कांड जैसे अपराधों ने तो नृशंसता की सारी हदें पार कर दीं। यह चिंताजनक स्थिति दिन प्रति दिन और भयानक रूप लेती जा रही है।

इस तरह के मामलों की बढ़ती संख्या देखकर ही सरकार ने वर्ष 2012 में एक विशेष कानून बनाया था। जो बच्चों को छेड़खानी, बलात्कार और कुकर्म जैसे मामलों से सुरक्षा प्रदान करता है। उस कानून का नाम पॉक्सो एक्ट। इस पॉक्सो एक्ट का पूरा नाम है - ‘‘प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट’’। महिला और बाल विकास मंत्रालय ने पॉक्सो एक्ट-2012 को बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न और यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए बनाया था। वर्ष 2012 में बनाए गए इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा तय की गई है। जिसका कड़ाई से पालन किया जाना भी सुनिश्चित किया गया है। इस अधिनियम की धारा 4 के तहत वो मामले शामिल किए जाते हैं जिनमें बच्चे के साथ दुष्कर्म या कुकर्म किया गया हो. इसमें सात साल सजा से लेकर उम्रकैद और अर्थदंड भी लगाया जा सकता है।

पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के अधीन वे मामले लाए जाते हैं जिनमें बच्चों को दुष्कर्म या कुकर्म के बाद गम्भीर चोट पहुंचाई गई हो। इसमें दस साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है और साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है। पॉक्सो अधिनियम की धारा 7 और 8 के तहत वो मामले पंजीकृत किए जाते हैं जिनमें बच्चों के प्राईवेटपार्ट से छेडछाड़ की गई हो। इस धारा के आरोपियों पर दोष सिद्ध हो जाने पर पांच से सात साल तक की सजा और जुर्माना हो सकता है। पॉक्सो एक्ट की धारा 3 के तहत पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट को भी परिभाषित किया गया है। जिसमें बच्चे के शरीर के साथ किसी भी तरह की हरकत करने वाले शख्स को कड़ी सजा का प्रावधान है। दरअसल, 18 साल से कम उम्र के बच्चों से किसी भी तरह का यौन व्यवहार इस कानून के दायरे में आ जाता है। यह कानून लड़के और लड़की को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करता है। इस कानून के तहत पंजीकृत होने वाले मामलों की सुनवाई विशेष अदालत में होती है।

पॉक्सो एक्ट लागू किए जाने के बाद बारह वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म में फांसी की सजा का प्रावधान रखा गया था,  किन्तु बाद में अनुभव किया गया कि बालकों को भी इस एक्ट के तहत न्याय दिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसीलिए एक्ट में संशोधन किया गया और  बालकों को भी यौन शोषण से बचाने और उनके साथ दुराचार करने वालों को फांसी की सजा का प्रावधान तय किया गया। इसके अंतर्गत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने लड़की-लड़कों दोनों यानी बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाने के बाल यौन अपराध संरक्षण कानून (पॉस्को) 2012 में संशोधन को मंजूरी दे दी। संशोधित कानून में 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ दुष्कर्म करने पर मौत की सजा तक का प्रावधान है। इसके अलावा बाल यौन उत्पीड़न के अन्य अपराधों की भी सजा कड़ी करने का प्रस्ताव है।

बच्चों के हित संरक्षित करने और बाल यौन अपराध को रोकने के उद्देश्य से लाया जा रहा पोस्को संशोधन विधेयक  के संबंध में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने स्पष्ट कहा था कि सभी बच्चों को इससे बचाने के लिए जेन्डर न्यूट्रल कानून पोस्को में संशोधन किया जाएगा। संशोधित कानून में पोस्को कानून की धारा 4, 5, 6, 9, 14, 15 और 42 में संशोधन करने का प्रस्ताव है। धारा 6 एग्रीवेटेड पेनीट्रेटिव सैक्सुअल असाल्ट पर सजा का प्रावधान करती है। अभी इसमें न्यूनतम 10 वर्ष की कैद है जो कि बढ़कर उम्रकैद व जुर्माना तक हो सकती है। प्रस्तावित संशोधन में न्यूनतम 20 वर्ष की कैद जो बढ़ कर जीवन पर्यन्त कैद और जुर्माने के अलावा मृत्युदंड तक का प्रावधान किया गया है। धारा 5 में संशोधन करके जोड़ा जाएगा कि अगर यौन उत्पीड़न के दौरान बच्चे की मृत्यु हो जाती है तो उसे एग्रीवेटेड पेनीट्रेटिव सैक्सुअल असाल्ट माना जाएगा। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा के शिकार बच्चे का यौन उत्पीड़न भी इसी श्रेणी का अपराध माना जाएगा।
धारा चार में संशोधन करके 16 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ पेनीट्रेटिव सैक्सुअल असाल्ट में न्यूनतम सात साल की सजा को बढ़ा कर न्यूनतम 20 साल कैद करने का प्रस्ताव है जो कि बढ़ कर उम्रकैद तक हो सकती है। पैसे के बदले यौन शोषण और बच्चे को जल्दी बड़ा यानी वयस्क करने के लिए हार्मोन या रसायन देना भी एग्रीवेटेड सैक्सुअल असाल्ट माना जाएगा। धारा 15 में संशोधन होगा जिसमें व्यवसायिक उद्देश्य से बच्चों की पोर्नोग्राफी से संबंधित सामग्री एकत्रित करने पर न्यूनतम तीन साल की सजा का प्रावधान किया जा रहा है इससे ये धारा गैर जमानती अपराध की श्रेणी में आ जाएगी।

भारतीय दंड संहिता में धारा 376 में बलात्कार के अपराधी को सजा दी जाती है। लेकिन अगर बलात्कार पीड़िता कोई नाबालिग हो, तो उसके साथ एक और धारा बढ़ जाती है। उसे बलात्कार के अलावा पाक्सो ऐक्ट के तहत भी सजा दी जाती है. 27 दिसंबर, 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली कैबिनेट ने इसी पॉक्सो ऐक्ट को और भी कड़ा कर दिया। अब इस ऐक्ट के तहत दोषी लोगों को फांसी तक की सजा हो सकती है। इस ऐक्ट को बच्चों को यौन अपराधों से बचाने, यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से बचाने के लिए लागू किया गया था. 2012 में ये ऐक्ट इसलिए बनाया गया था, ताकि बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों का ट्रायल आसान हो सके और अपराधियों को जल्द सजा मिल सके. इस ऐक्ट में 18 साल से कम उम्र वाले को बच्चे की कैटेगरी में रखा जाता है. 2012 से पहले बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों को लेकर कोई खास नियम-कानून नहीं था।
यदि पीड़ित बच्चा अथवा बच्ची मानसिक रूप से बीमार है या बच्चे से यौन अपराध करने वाला सैनिक, सरकारी अधिकारी या कोई ऐसा व्यक्ति है, जिस पर बच्चा भरोसा करता है, जैसे रिश्तेदार, पुलिस अफसर, टीचर या डॉक्टर, तो इसे और संगीन अपराध माना जाएगा। अगर कोई किसी नाबालिग लड़की को हॉर्मोन्स के इंजेक्शन देता है, ताकि वक्त के पहले उनके शरीर में बदलाव किया जा सके, तो ऐसे भी लोगों के खिलाफ पॉक्सो ऐक्ट के तहत केस दर्ज किया जाता है।

इस ऐक्ट ने यौन अपराध को रिपोर्ट करना अनिवार्य कर दिया है। यानी अगर आपको किसी बालिका के साथ होने वाले यौन अपराध की जानकारी है, तो ये आपकी कानूनी ज़िम्मेदारी है कि उस संबंध में रिपोर्ट की जाए। ऐसा न करने पर अपराध की जानकारी छिपाने के अपराध में 6 महीने की जेल और जुर्माना हो सकता है। ऐक्ट के अनुसार किसी केस के स्पेशल कोर्ट के संज्ञान में आने के 30 दिनों के अंदर क्राइम के सबूत इकट्ठे कर लिए जाने चाहिए और स्पेशल कोर्ट को ज़्यादा से ज़्यादा से एक साल के अंदर ट्रायल पूरा कर लिया जाना चाहिए। बालिका का मेडिकल 24 घंटे के भीतर हो जाना चाहिए। ऐक्ट के तहत स्पेशल कोर्ट को सुनवाई कैमरे के सामने करने की कोशिश करनी चाहिए। साथ ही, कोर्ट में बालिका के माता-पिता या कोई ऐसा व्यक्ति उपस्थित होना चाहिए, जिस पर पीड़ित बालिका भरोसा करती हो।
पॉक्सो ऐक्ट अनुसार केस जितना गंभीर हो, सज़ा उतनी ही कड़ी होनी चाहिए। बाकी कम से कम 10 साल जेल की सज़ा तो होगी ही, जो उम्रकैद तक बढ़ सकती है और जुर्माना भी लग सकता है. बच्चों के पॉर्नॉग्राफिक मटीरियल रखने पर तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अप्रैल 2018 में  केंद्र सरकार ने पॉक्सो में एक अहम बदलाव किया। जिसके तहत प्रावधान रखा गया कि 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार करने पर मौत की सज़ा दी जाएगी अर्थात् इस ऐक्ट की कुछ धाराओं में दोषी पाए जाने पर मौत की सजा तक का प्रावधान कर दिया गया है। इस ऐक्ट में कहा गया है कि अगर कोई आदमी चाइल्ड पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देता है, तो उसके खिलाफ भी पॉक्सो ऐक्ट के तहत कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। इस ऐक्ट की धारा 4, धारा 5, धारा 6, धारा 9, धारा 14, धारा 15 और धारा 42 में संशोधन किया गया है। धारा 4, धारा 5 और धारा 6 में संशोधन के बाद अब अपराधी को इस ऐक्ट के तहत मौत की सजा दी जा सकती है।

बच्चों को नृशंस अपराधों से बचाने के लिए तथा उन्हें न्याय दिलाने के लिए सभी को यह जानकारी होनी चाहिए कि पाक्सो एक्ट क्या है और उसके तहत कौन से प्रावधान हैं क्योंकि कानून की जानकारी अपराध का विरोध करने की शक्ति देती है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 19.06.2019)

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Thursday, June 13, 2019

हीरों का जनक बुंदेलखंड बढ़ रहा है भुखमरी की ओर - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - 'नवभारत' में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
'नवभारत' में आज प्रकाशित मेरा लेख...
हार्दिक धन्यवाद 'नवभारत' 🙏



        हीरों का जनक बुंदेलखंड बढ़ रहा है भुखमरी की ओर
    - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
                     
छत्ता तेरे राज में धक्-घक् धरती होय।
जित-जित घोड़ा पग धरे, उत-उत हीरा होय।।
- यह आशीर्वाद दिया था बुंदेला महाराज छत्रसाल को प्रणामी धर्म के प्रवर्त्तक महामति प्राणनाथ ने। आशीर्वाद फलीभूत हुआ और जिसका प्रमाण है कि आज भी पन्ना स्थित हीरों की खदान ने हीरों का खनन किया जाता है। जिस धरती में हीरे पाए जाते हों उसे तो धन सम्पन्न, सुविधासम्पन्न होना चाहिए किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। यशस्वी बुंदेलखंड आज भुखमरी की ओर बढ़ रहा है। जहां भुखमरी होगी वहां अपराध और अत्याचार भी होंगे ही। बुंदेलखंड में भुखमरी का सबसे बड़ा कारण है प्राकृतिक संपदा का असंतुलित दोहन। जिन्हें जरूरत है उन्हें पानी नहीं मिलता और जिन्हें विलासिता के लिए चाहिए उनके फॉर्म हाऊस के पूल पानी से लबालब भरे रहते हैं। सामुदायिक व्यवस्थाएं तो जब पूरे देश ने बिसार दी हैं तो बुंदेलखंड की क्या बिसात? व्यक्तिगत लॉन सिंचित होते रहते हैं जिनमें अधिक से अधिक चार-छः लोग आनन्द ले पाते हैं जबकि सार्वजनिक पार्क अपनी दुदर्शा पर आंसू बहाते रहते हैं, जहां पचासों व्यक्ति हर शाम प्रकृति का आनन्द ले सकते हैं। लेकिन स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो चली है। यदि किसान की खेती ही सूख जाए और पीने को पानी ही न मिले तो किसी पार्क में आनन्द नहीं आ सकता है।
Article of Dr (Miss) Sharad Singh published in  Navbharat
        जंगल कटते जा रहे हैं। बेतहाशा खनन हो रहा है, इस पर अंकुश नहीं है। कभी सूखे से तो कभी ओलावृष्टि से चारा नष्ट हो गया। बुंदेले सरकार और उनकी मशीनरी के ही हाशिये पर ही नहीं रहे बल्कि प्रकृति ने भी उन्हें कमजोर किया। पहले बारिश न होने से सूखा झेला तो दो वर्ष से किसानों ने अतिवृष्टि और ओलावृष्टि की समस्या का भी सामना किया। अब तो मानों किसानों ने समस्याओं का सामना करने को नियति मान लिया है।  बुंदेलखंड में किसान सालभर में एक ही फसल बो पाता है। ऐसी स्थिति में इस योजना का बहुत लाभ किसानों को नहीं मिल पाता है। बुंदेलखंड कभी जल संरक्षण और संवर्धन की गाथा कहने वाला इलाका हुआ करता था, मगर अब यही इलाका पानी की समस्या के कारण हर वर्ष अखबारों की सुर्खियों में रहता है।

राजनीतिक स्थितियां सरकारों के साथ बदलती गईं लेकिन मगर बुंदेलखंड के हालात नहीं बदले। जल संकट, सूखा, बेरोजगारी और पलायन का आज भी स्थायी समाधान नहीं खोजा जा सका है। राजनेताओं ने खूब सब्ज-बाग दिखाए, मगर जमीनी हकीकत वही बंजर जमीन जैसी है। सन् 2018 में खजुराहो में ‘राष्ट्रीय जल सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन में देशभर के 200 से अधिक सामाजिक कार्यकर्ता, विशेषज्ञ और जल संरक्षण के जानकारों नें भाग लिया था। इस दो दिन के सम्मेलन में बुंदेलखंड की जल समस्या पर खास चर्चा हुई। जल-समस्या के निदान पर भी चर्चा हुई किन्तु समस्या जस के तस रही। बुंदेलखंड में मध्यप्रदेश के सात और उत्तर प्रदेश के सात, कुल मिलाकर 14 जिले हैं। इन सभी जिलों की स्थिति लगभग एक जैसी है। कभी यहां नौ हजार से ज्यादा जल संरचनाएं हुआ करती थीं, मगर अब अस्तित्व में एक हजार से कम ही बची हैं। भवन निर्माण के विस्तार के लिए प्राचीनतम तालाब और कुए तक सुखा दिए गए। कुछ कुंओं और बावड़ियों का उद्धार समाजसेवकों ने किया किन्तु इतना पर्याप्त नहीं है। दरअसल, पुराने जलस्रोतों को बचाने और नए स्रोतों की खोज करने की मुहिम छेड़े जाने की जरूरत है। 

जलवायु परिवर्तन ने बुंदेलखंड में भी विगत 15 वर्षों में जो मौसम में गंभीर परिवर्तन किए हैं। इन परिवर्तनों ने क्षेत्र के लोगों की कठिनाइयों और जोखिम को बढ़ा दिया है। यहां विगत वर्षों में मानसून का देर से आना, जल्दी वापस हो जाना दोनों बीच लंबा सूखा अंतराल, जल संग्रह क्षेत्रों में पानी का न हो पाना, कुआं का सूख जाना इत्यादि ने यहां कि कृषि को पूरी तरफ नष्ट कर दिया। यहां तक कि कुछ वर्षों में तो किसान फसल की बुवाई तक नहीं कर पाए। विगत 3 दशकों में तो यहां की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। प्राकृतिक आपदाओं ने इस पूरे क्षेत्र की तस्वीर ही बदल दी है, जिसकी वजह से यहां की सामाजिक व आर्थिक स्थिति काफी हद तक बिगड़ चुकी है। यह क्षेत्र सूखा प्रभावित हैं, जिसका सीधा असर यहां की कृषि पर पड़ा है। एक बार पुनः इस वर्ष बुंदेलखंड भयंकर रूप से सूखा की मार झेल रहा है। विगत पांच वर्षों का औसत देखा जाए तो इसमें 40-50 प्रतिशत की कमी आई है अर्थात औसत 450-550 मि.मी. वर्षा ही प्राप्त हुई है। यह चिंताजनक है।

हर वर्ष ग्रीष्मकाल में पेयजल के लिए सिरफुटौव्वल की सीमा तक झगड़े होना आम बात है। जान जोखिम में डाल कर महिलाएं और बच्चे गहरे कुओं की तलछठ से पानी निकालने को विवश रहते हैं। जहां तक विवशता का मसला है तो विगत वर्षों विवशता का वह रूप सामने आया जिसने सभी को स्तब्ध कर दिया। एक ओर किसानों ने घास की रोटियां खा कर अपना पेट भरा तो दूसरी ओर पलायन करने को मजबूर परिवारों की बेटियां मानव-तस्करी की शिकार हो गईं। गरीबी से जूझती बुंदेली युवतियां महानगरों के लोगों के झांसे में आ जाती हैं और अपना भविष्य सोचे बिना उनके साथ हो लेती हैं। युवतियों को लगता है कि वे रोजी-रोटी कमा कर अपने परिवार का सहारा बन सकेंगी किन्तु ऐसा हो नहीं पाता है। प्रायः गरीब परिवारों की युवतियां देहशोषण की भेट चढ़ जाती हैं।

इस वर्ष भी मानसून बुंदेलखंड को तरसा रहा है। वर्षाजल की बाट जोहते किसानों को बुवाई आरम्भ करने की प्रतीक्षा है। जबकि जलप्रबंधन की लचर दशा इस बात की ओर संकेत कर रही है कि इस बार भी वर्षाजल का समुचित भंडारण नहीं हो सकेगा। तालाब और नदियों की सफाई या गहरीकरण की दिशा में कोई ठोस कदम उठाए ही नहीं गए हैं। अपने गौरवशाली अतीत को सीने से लगाए और हाथ में कटोरा लिए खड़े बुंदेलखंड की कल्पना ही मन को डरा देने वाली हैं। अभी भी असंभव प्रतीत होती व्यवस्थाएं संभव हैं यदि राजनीतिक नेतृत्व अपने वादों को ईमानदारी से पूरा कर दे, अन्यथा बुंदेलखंड को भुखमरी का दंश झेलना ही पड़ेगा। 
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('नवभारत', 13.06.2019)

Wednesday, June 12, 2019

चर्चा प्लस ... और कितनी बेबी, कितनी गुड़िया, कितनी निर्भया? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
और कितनी बेबी, कितनी गुड़िया, कितनी निर्भया?
 
- डॉ. शरद सिंह

आश्चर्य होता है कि किसी नन्हीं बच्ची के साथ कोई इतनी नृशंसता कैसे कर सकता है? अलीगढ़ के आंसू अभी सूखे नहीं थे कि भोपाल में एक ऐसी बच्ची हवस और मौत का शिकार बन गई जो पढ़ाई में अव्वल थी और एक लम्बा सुखद भविष्य उसके सामने था। लेकिन वहशी दरिंदे को उसकी योग्यता नहीं मात्र शरीर दिखा। हद तो यह है कि आज ढाई साल की बच्चियां भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। आए दिन ऐसे घृणित अपराध घटित हो रहे हैं मानो कानून का कोई भय उन अपराधियों को है ही नहीं। वस्तुतः यौनअपराधों से जुड़े कानूनों की एक बार फिर समीक्षा किए जाने की जरूरत है। 
चर्चा प्लस ... और कितनी बेबी, कितनी गुड़िया, कितनी निर्भया? - डॉ. शरद सिंह   Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     भारत में पिछले साल जम्मू के एक रेप केस ने सबको हिलाकर रख दिया था। कठुआ ज़िले में ख़ानाबदोश समुदाय की एक बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इस मामले की सुनवाई पंजाब में हुई जहां अदालत ने जम्मू-कश्मीर के कठुआ में पिछले साल जनवरी महीने में आठ साल की एक बच्ची के साथ गैंग रेप, प्रताड़ना और हत्या मामले में छह दोषियों में से तीन को अदालत ने उम्र क़ैद की सज़ा दी है। इस सनसनीखेज गैंग रेप के बाद देश भर में ग़ुस्सा देखा गया था। पूर्व सरकारी अधिकारी सांजी राम को इस मामले का मास्टरमाइंड माना जा रहा था। पठानकोट की फास्ट ट्रैक अदालत ने राम को भी उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई है। सबूतों के अभाव में सांजी राम के बेटे को अदालत ने रिहा कर दिया है। इसके साथ ही दो पुलिस वालों को भी पांच-पांच साल की क़ैद की सज़ा सुनाई है। सांजी राम के अलावा परवेश कुमार, दो स्पेशल पुलिस ऑफिसर दीपक कुमार और सुरेंदर वर्मा, हेड कॉन्स्टेबल तिलक राज और सब-इंस्पेक्टर आनंद दत्ता को इस मामले में दोषी ठहराया गया है। पुलिसकर्मियों को सबूतों को मिटाने में दोषी ठहराया गया है। यह जान कर आश्चर्य होता है कि सांजी राम राजस्व विभाग के रिटायर्ड अधिकारी रहा है और दीपक खजुरिया स्पेशल पुलिस ऑफिसर। ऐसे जिम्मेदार पदों पर आसीन व्यक्तियों ने इतना घृणित कार्य किया कि मानवता और सांस्कृतिक मूल्यों का भी दिल दहल गया। कोर्ट के फ़ैसले के बाद पीड़िता की मां ने मुख्य अभियुक्त सांझी राम को फांसी देने की मांग की थी। सजा के संबंध में पीड़िता की मां का कहना है कि “मुझे राहत मिली है, लेकिन न्याय तब मिलेगा जब सांझी राम और विशेष पुलिस अधिकारी दीपक खजुरिया को फांसी दी जाएगी।“
पीड़िता पक्ष के वकील मुबीन फ़ारूकी ने कहा, “आज सच की जीत हुई है आज पूरे देश की जीत हुई है। पूरे देश ने यह लड़ाई मिल कर लड़ी थी। दीपक खजुरिया, प्रवेश कुमार और सांझी राम को 376डी, 302, 201, 363, 120बी, 343 और 376बी के तहत दोषी ठहराया गया है। वहीं तिलक राज, आनंद दत्ता और सुरिन्दर वर्मा को आईपीसी की धारा 201 के तहत दोषी ठहराया गया है। यह संवनैधानिक भावना की जीत है।’’
   लेकिन मां का हृदय अपनी बेटी की क्षत-विक्षत स्थिति को याद कर आज भी चीत्कार कर उठता है। वे कहती हैं कि “मेरी बेटी का चेहरा आज भी मुझे परेशान करता है और यह दर्द जीवनभर रहेगा। जब मैं उसकी उम्र के दूसरे बच्चों को खेलते देखती हूं तो मैं अंदर से टूट जाती हूं।“

चाहे अलीगढ़ की घटना हो या भोपाल की अथवा सागर की, ऐसी सभी वारदातों में एक बात की समानता होती है और वह है नाबालिग मासूम बच्चियों के साथ दरिंदगी। हाल ही में घटित अलीगढ़ की घटना ने तो एक बार फिर देश को स्तब्ध कर दिया। आश्चर्य होता है कि किसी नन्हीं बच्ची के साथ कोई इतनी नृशंसता कैसे कर सकता है? अलीगढ़ के आंसू अभी सूखे नहीं थे कि भोपाल में एक ऐसी बच्ची हवस और मौत का शिकार बन गई जो पढ़ाई में अव्वल थी और एक लम्बा सुखद भविष्य उसके सामने था। लेकिन वहशी दरिंदे को उसकी योग्यता नहीं मात्र शरीर दिखा। हद तो यह है कि आज ढाई साल की बच्चियां भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। आए दिन ऐसे घृणित अपराध घटित हो रहे हैं मानो कानून का कोई भय उन अपराधियों को है ही नहीं। वस्तुतः यौनअपराधों से जुड़े कानूनों की एक बार फिर समीक्षा किए जाने की जरूरत है। नाबालिग बच्चियों के साथ नृशंसतापूर्ण अपराध पर रोक न लग पाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कहीं न कहीं व्यवस्था में कमी जरूर है-सामाजिक व्यवस्था में भी और कानून व्यवस्था में भी। बच्चियों के साथ निरंतर हो रहे हादसों पर राजनीति का खेल खेलने के बजाए जरूरी है जन जागरूकता और कानून में कुछ जरूरी बदलाव पर ध्यान दिया जाना।
प्रायः पुलिस 24 घंटे से पहले गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखने से परहेज करती है क्योंकि कई बार गुमशुदा इंसान अपनी मर्जी से क्रोध में आ कर घर से निकल पड़ता है और क्रोध शांत होने पर स्वयं घर लौट आता है। यह धारणा आज के आपराधिक माहौल में मंहगी साबित हो रही है। जहां तक धारणा की बात है तो इस धारणा को भी बदलना होगा कि यदि कोई लड़की घर से गायब है तो प्रथमदृटष्या यह मान लिया जाए कि वह किसी के साथ भाग गई होगी। आज लड़कियों के घर से भागने के मामले नगण्य हो चले हैं जबकि उनके साथ यौनहिंसा के अपराध रिकार्ड तोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में तत्काल रिपोर्ट लिख कर खोज आरम्भ कर देने से कई बच्चियों की जान बच सकती है।
हमारे जीवन की हमारे समाज का पारिवारिक ढांचा और सामाजिक सोच बुनियादी रूप से आत्मीयता भरी है। यहां अपरिचितों से दूरी बनाने के बजाए उनसे परिचय बढ़ा कर अपनापन स्थापित करने की परम्परा रही है। ऐसे वातावरण में छोटी बच्चियां दिन भर पड़ोसियों के आंगन और घर में खेलती रहती हैं। उनके माता-पिता भी यह सोच कर निश्चिन्त रहते हैं कि बच्ची अपने चाचा, मामा जैसे पड़ोसी के घर में ही तो खेल रही है। ऐसे पड़ोसी जब बच्ची को टॉफी-चॉकलेट देते हैं और बच्चियां अपने माता-पिता की ओर देखती हैं कि वो ‘अंकल जी’ से टॉफी-चॉकलेट ले या न ले तो उसके माता-पिता भी उसे प्रोत्साहित करते हैं कि ‘ले लो बेटी, अंकल टॉफी दे रहे हैं, ले लो!’
माता-पिता को विश्वास रहता है कि बच्ची के ‘अंकल जी’ बच्ची के प्रति वात्सल्यभाव रखते हैं और उसे किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाएंगे। लेकिन दिल्ली गुड़िया-कांड के अपराधियों ने न केवल माता-पिता के विश्वास को तोड़ा बल्कि एक ऐसे अविश्वास को जन्म दे डाला जिसके कारण अब माता-पिता अपनी बच्चियों को पड़ोसियों से दूर रखने का प्रयास करेंगे। यदि दूर नहीं भी रख सकेंगे तो मन ही मन दुश्चिन्ताओं से घिरे रहेंगे।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के गांधीनगर इलाके में 15 अप्रैल 2013 को पांच साल की मासूम ‘गुड़िया’ का अपहरण के बाद किए गए दुराचार से पूरा देश स्तब्ध रह गया था। दिसम्बर 2012 में ‘दामिनी’ के साथ हुई घटना को लोग भूल भी नहीं पाए थे कि यह घटना सामने आ गई थी। दामिनी रेप कांड के बाद कुछ लोगों ने यह भी दोषारोपण किया कि लड़कियां पाश्चात्य वेशभूषा धारण करती हैं और अकेली या अपने मित्रों के साथ घूमती हैं इसलिए उनके प्रति बलात्कारी आकर्षित होते हैं। लेकिन चार-पांच साल की छोटी बच्चियों के बारे में भी क्या यही कहा जाएगा कि ये भी बलात्कारियों को आकर्षित करती हैं? ऐसी गैरजिम्मेदाराना सोच अनजाने में ही बलात्कारियों की पक्षधर बन जाती है।

दामिनी बलात्कार कांड के बाद भी यही लगा था कि बलात्कार के अपराध पर लगाम लगेगी। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक मासूम बच्ची के साथ हुई बलात्कार व दरिंदगी की घटना को लेकर महिला संगठनों में एक बार फिर उबाल आया। इन संगठनों ने आरोपियों के अपराध स्वीकार करते ही उन्हें फांसी के तख्ते पर चढ़ा देने की मांग की। राष्ट्रीय और प्रादेशिक महिला जन संगठनों ने ‘दामिनी’ के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद एनसीआर में अप्रैल 2013 तक कुल 393 बलात्कार की घटनाएं घटने पर भी गहरा रोष व्यक्त किया। उन्होंने कहा था कि ‘दिल्ली जैसे इलाके में बलात्कार की घटनाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाएं इस देश में सुरक्षित नहीं हैं, लिहाजा खुद उन्हें तीर-तलवार लेकर अपनी हिफाजत करनी पड़ेगी।’ कुछ महिला संगठनों की मांग थी कि ‘जिस अपराध के लिए जो सजा का प्रावधान कानून में निहित किया गया हो, उसकी सजा देने का अधिकार पीड़ित या उसके परिजनों को ही दिया जाए।’ निःसंदेह कठोर सजा जरूरी है। ऐसी सजा जो अन्य अपराधियों को अपराध में प्रवृत होने से रोक सके। उनके दिलों में भय जगा सके। किन्तु क्या इतना ही पर्याप्त होगा? भारतीय दण्ड संहिता में सजाओं के अनेक प्रावधान हैं। फिर भी अपराधी बेखौफ़ अपराध करते रहते हैं।
एक ओर दिल्ली की पांच वर्षीया नन्हीं गुड़िया दो वहशियों की शिकार बनी और दूसरी ओर मध्यप्रदेश के सिवनी जिले की नन्हीं बच्ची बलात्कारियों की शिकार बनी। शिकार हुई पांच वर्षीय मासूम ने 14 दिनों से जिंदगी और मौत से जंग लड़ने के बाद नागपुर के निजी अस्पताल में दम तोड़ दिया। दोनों स्थानों पर अलग-अलग दल की सरकारें। इसलिए राजनीतिक बयानबाज़ी का बाज़ार गर्म होना था और हुआ भी। दूसरी ओर एक और शर्मनाक प़क्ष सामने आया कि दिल्ली गुड़िया-रेप कांड में बच्ची के माता-पिता को अपना मुंह बंद रखने की एवज में दो हजार रुपए देने वाले आरोपी एक कांस्टेबल था। अर्थात् जिसे रक्षा के लिए तैनात किया गया वही भक्षकों का ‘सगावाला’ बन बैठा। जब कांस्टेबल पकड़ा गया तो उसने कथित तौर पर स्वीकार किया कि अपने सीनियर इंस्पेक्टर के कहने पर ही उसन दो हजार रुपए की पेशकश बच्ची के परिजनों को की थी। ऐसी दशा में दोषी किसे ठहराया जाए? भ्रष्ट और लचर कानून व्यवस्था को? राजनीतिज्ञों को? समाज के पुरुषवादी दृष्टिकोण को? या फिर तीनों को?
उन सभी बच्चियों को याद करते हुए जो आज जीवित होतीं अगर समाज में दरिंदे न होते....उन बच्चियों का मेरी ये पंक्तियां श्रद्धांजलि स्वरूप ....
आपराधिक हो चला वातावरण
हो चला संदिग्ध सबका आचरण
जब सुरक्षित ही नहीं हैं बच्चियां
उठ गया इंसानियत का आवरण
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 12.06.2019)
 

बुंदेलखंड की लोकगाथाओं में है अद्भुत ‘महाभारत’-प्रसंग - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित

 
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Dr (Miss) Sharad Singh
नवभारत' में  प्रकाशित मेरा लेख ...
धन्यवाद नवभारत !!!
 
बुंदेलखंड की लोकगाथाओं में है अद्भुत ‘महाभारत’-प्रसंग
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
 
बुन्देलखण्ड में वे लोक गाथाएं सदियों से कहीं-सुनी जा रही हैं जिनमें ‘महाभारत’ महाकाव्य की कथाएं मौजूद हैं। बुन्देलखण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ने लगभग 14 वीं सदी में ‘महाभारत कथा’ और ‘रामायण कथा’ लिखी थी। अन्य बुंदेली गाथाओं में भी ‘महाभारत प्रसंग मिलते हैं। 
बुंदेलखंड की लोकगाथाओं में है अद्भुत ‘महाभारत’-प्रसंग - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित  Navbharat - Bundelkhand Ki Lokgathaon Me Adbhut Hai Mahabharat Prasang  - Dr Sharad Singh
बुन्देली की प्रसि़द्ध महाभारतकथा संदर्भित लोकगाथाएं हैं- बैरायठा, कृष्ण-सुदामा, द्रौपदी चीरहरण तथा मेघासुर दानव आदि। इनके अतिरिक्त राजा जगदेव की लोकगाथा में भी पाण्डवों की चर्चा का समावेश है। महाभारत कालीन चरित्रों से जुड़ी गाथाओं का इस प्रकार बुन्देलखण्ड में रूचिपूर्वक गाया जाना इस बात का द्योतक है कि बुन्देली जन प्रकृति से जितने वीर होते हें तथा मानवीय संबंधों के आकलन को लेकर उतने ही संवेदनशील होते हैं। उन्हें व्यक्ति के अच्छे अथवा बुरे होने की परख होती है तथा साहसी, वीर, उदार, दानी और सच्चा व्यक्ति अपना आदर्श प्रतीत होता है। इसीलिए जन-जन में गाए जाने वाली बैरायठा लोकगाथा में ‘महाभारत’ महाकाव्य की लगभग सम्पूर्ण कथा को जन-परिवेश में पस्तुत किया गया है। जैसे, धृतराष्ट्र और गांधारी के विवाह के प्रसंग को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है-
जब आ गई है चिठिया महाराज रे कै,
जब गंधार में हो रये हैं ब्याव रे कै
जब गांधारी को हुइये नौने ब्याव रे कै,
जब खबरें तो मिल गईं महराज रे कै
इसी गाथा में कौरवों द्वारा आयोजित कपट भरी द्यूतक्रीड़ा दृश्यात्मक वर्णन मिलता है-
जब सकुनी ने डारे दाव रे कै,
जब पर गये अठारा दाव रे कै
फिर हारे धरम और राज रे कै
जब बोले जरजोधन महराज रे कै
इस विवरण में जिन तथ्यों को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है वे ध्यान देने योग्य हैं कि जब व्यक्ति अनुचित कर्म करने लगता है तो ‘धरम’ और ‘राज’ दोनों गंवा बैठता है। उस समय तो और अनर्थ होने लगता है जब दुश्शासन द्रौपदी को बलपूर्वक राजसभा ले जाता है-
जब जबरन तो लैजा रव महराज रे कै
जब जूटो तो पकरो ओने आज रे कै
जब रानी खों लै गव अपने साथ रे कै
जब आ गई सभा के नोने बीच रे कै
जब सबरो से करी है गुहार रे कै
जब कोऊ खों ने आई लाज रे कै
इसी प्रकार जब ‘पांच पती’ अर्थात् सगे-संबंधी भी रक्षा नहीं कर पाते हैं उस समय ‘हरि’ अर्थात् ईश्वर सहायता करता है-
जब भरी कचेरो महराज रे कै
जब कोनऊ ने करे सहाय रे कै
जब पांच पती मौजूद रे कै
जब हर से लगा दई ओने टेर रे कै
जब कैसे तो रये हो नोने सोय रे कै
यह मानव मन की वह अवस्था है जो राजनीतिक अस्थिरता एवं असुरक्षा के दौर में प्रभावी हो उठती है। यही भाव ‘चीरहरण’ लोकगाथा में मिलते हैं। दुश्शसन द्वारा चीरहरण किए जाने पर द्रौपदी पतियों द्वारा निर्धारित नियति को चुपचाप स्वीकार करने के बदले सहायता के लिए कृष्ण को पुकारती है-
हे श्याम मेरी सुध लइयो, रे प्रभु मोरी लाज बचइयो रे
शकुनी दुर्योधन ने मिल के, कपट के पांसे डारे
जुआ खेल के पति हमारे, राजपाट सब हारे
मोरी बिगड़ी आज बनइयो, रे प्रभु मोरी लाज बचइयो रे
‘राजा जगदेव’ लोकगाथा में भी पाण्डवों का उल्लेख प्रश्नों के रूप में है। किसने पृथ्वी को रचा? किसने संसार को रचा? किसने पाण्डवों को बनाया? पाण्डवों को किस उद्देश्य से बनाया गया? इन प्रश्नों का उत्तर भी इन्हीं के साथ दिया गया है कि देवी ने पाण्डवों को बनाया। पृथ्वी से अन्याय और अधर्म का विनाश करने के लिए पाण्डवों की रचना की गई।
कौना रची पिरथवी रे दुनियां संसार, कौना रचे पंडवां उनई के दरबार
बिरमा रची पिरथवी रे दुनियां संसार, माई रचें पंडवां रे अपने दरबार
रैबे खों रची पिरथवी रे दुनियां संसार, रन खों रचे पंडवा रे अपने दरबार ।।
अन्याय, दासता के विरुद्ध युद्धघोष करने वाले बुन्देलों के लिए महाभारतकालीन प्रसंगों का विशेष महत्व होना स्वाभाविक है। यदि मुग़लों अथवा अंग्रेजों के विरु़द्ध बुन्देलों के संघर्ष का इतिहास पढ़ा जाए तो यही तथ्य सामने आता है कि बहुसंख्यक शत्रुओं से अल्पसंख्यक बुन्देलों ने सदैव डट कर संघर्ष किया। ठीक उसी तरह जिस प्रकार पाण्डवों ने कौरवों का सामना किया था। अतः इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि ऐसे संघर्षपूर्ण अवसरों पर ये लोग गाथाएं आमजन में साहस का संचार करती रही होंगी। आज भी सुदूर ग्रामीण अंचलों में ये लोक गाथाएं गाई जाती हैं। यद्यपि आधुनिकता के आज के दौर में इन लोक गाथाओं के मूल स्वरूप के लुप्त होने का भय बढ़ चला है। आज बहुत कम लोग जानते हैं कि बुंदेली में भी अद्भुत ‘महाभारत’ प्रसंग मौजूद है।
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नवभारत, 08.06.2019

world environment day 2019 : पहले वृक्ष काट दिए और अब कर रहे पर्यावरण की चिंता, ऐसे में कैसे मिलेगी शुद्ध हवा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
विश्व पर्यावरण दिवस पर Patrika.com ने मेरे लेख को प्रकाशित कर जो डिज़िटल प्लेटफार्म दिया है उसके लिए मै Patrika.com की हृदय से आभारी हूं।
https://www.patrika.com/sagar-news/world-environment-day-2019-how-to-reduce-air-pollution-4669006/?fbclid=IwAR2wXgjIThaFA_Z30YsysggfHm8Yotwl8WQzbRJdgINeKqGi3eExE5626M8 


डॉ. शरद सिंह. सागर. विश्व पर्यावरण दिवस हर वर्ष पांच जून को मनाया जाता है। इस वर्ष भी मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा थीम तय की गई है- वायु प्रदूषण। इसी थीम के आधार पर वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। इसके साथ ही मंत्रालय इस अवसर पर कई कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। कितना कंट्रास्ट और विरोधाभासी है न यह सब? एक ओर देश का आधे से अधिक हिस्सा पेयजल की किल्लत से जूझ रहा है वहीं दूसरी ओर उत्सवी वातावरण में पर्यावरण पर चिंतन किया जा रहा है। गोया हम अपने उत्सवधर्मिता के दायरे से बाहर आए बिना कुछ सोच ही नहीं सकते हैं। वहीं चीन अपने संसाधनों को हरसंभव बचाते हुए हमसे तेजी से आगे निकलता जा रहा है। इसीलिए वर्ष 2019 के लिए विगत 15 मार्च 2018 को को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परियोजना कार्यालय की कार्यवाहक कार्यकारी प्रमुख जॉइसी म्सुया के साथ केन्या की राजधानी नैरोबी में संयुक्त रुप से चीन को मेजबान घोषित किया गया।
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अत: इस वर्ष चीन पर्यावरण दिवस के आयोजन का मेजबान देश बनाया गया है। इस अवसर पर म्सुया ने कहा था कि 'वायु प्रदूषण के मुकाबले में चीन ने बड़ी नेतृत्वकारी शक्ति दिखाई। इसी क्षेत्र में चीन विश्व में और बड़े कदम उठाने में मददगार सिद्ध होगा। चीन वैश्विक अभियान का नेतृत्व करेगा, ताकि लाखों प्राणियों के प्राण बचाए जा सके।
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दुनिया भर में बढ़ते प्रदूषण और उसको रोकने के उपायों पर ध्यान देने और उन उपायों को लागू करने के मकसद से विश्व पर्यावरण दिवस हर साल मनाया जाता है। एक बार फिर हम आज चिंतन कर रहे हैं बढ़ते हुए वायु प्रदूषण पर। यह चिंतन ठीक इसी प्रकार है कि पहले हमने चिकित्सकों को काम से हटा दिया और फिर मरीज की चिंता करने जुटे हैं। जी हां, वायु प्रदूषण पर सबसे अधिक नियंत्रण करने वाले प्राकृतिक तत्व हैं वृक्ष। लेकिन हमने अपने कांक्रीट का साम्राज्य बढ़ाने के लिए वृक्षों को कटने दिया और आज उम्मीद कर रहे हैं कि हमें शुद्ध वायु मिले। गंदगी से बजबजाते खुले नालों और कूड़े के ढेरों को देखते हुए भी हम आशा करते हैं कि हमें शुद्ध वायु मिले। यह स्वयं को छलने से बढ़कर और यदि कुछ है तो वह अपराध है जो हम अपने आने वाली पीढ़ी के प्रति कर रहे हैं।
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भारत में वाहन संबंधी वायु प्रदूषण के कारण अकेले वर्ष 2015 में साढ़े तीन लाख दमा का शिकार बने थे। दुनिया की प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिका 'द लांसेट प्लैनटेरी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई थी। अध्ययन में 194 देशों और दुनिया भर के 125 प्रमुख शहरों को शामिल किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार प्रति वर्ष बच्चों में दमा के दस में से एक से ज्यादा मामले वाहन संबंधी प्रदूषण के होते हैं। इन मामलों में से 92 प्रतिशत मामले ऐसे क्षेत्रों के रहते हैं, जहां यातायात प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशानिर्देश स्तर से नीचे है। उसी दौरान अमेरिका स्थित जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ सुसान अनेनबर्ग ने इस रिपोर्ट पर बात करते हुए मीडिया से कहा था कि हमारे निष्कर्षों से पता लगा है कि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड से होने वाला प्रदूषण बचपन में दमा की बीमारी के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। यह विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों के लिए चिंता का विषय है। ऐसे में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की सांद्रता से जुड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश पर पुनर्विचार करने की जरूरत है तथा यातायात उत्सर्जन को कम करने के लिए भी एक लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिए।
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क्या इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद हमारे देश में वायु प्रदूषण के आधार पर वाहनों के रख-रखाव अथवा प्रदूषण नियंत्रण के प्रति कोई जागरूकता सामने आई? बस, एक ठोस कदम यह उठाया गया कि 15 वर्ष से पुराने वाहनों को सड़क पर निषिद्ध कर दिया गया। जबकि वाहनों की संख्या में सौगुनी वृद्धि हुई। भारत में बहुप्रचतिल वाहनों में मुख्यत: पेट्रोल एवं डीजल का ईंधन रूप में उपयोग होता है। इन वाहनों से निकलनेवाले धुंए में कार्बन-डाई-ऑक्साइड, कार्बन-मोनो-आक्साइड जैसी विषैली गैसे होती हैं, जो मानव एवं जीव जन्तुओं के स्वास्थ्य के लिए घातक होती हैं। वायु में निरन्तर घुलते भारी जहर के कारण लोगों को श्वासजनित बीमारियां हो जाती हैं। इनमें से अनेक लाइलाज होती हैं। वाहनों के धुएं से आंखों में जलन होना तो आम बात है।
वाहनों का धुआं इनकी साइलेन्सर की नली के छोर से निकलता है, जिसका मुंह वाहनों के पीछे की ओर रहता है। पीछे की ओर हवा में जहरीले पदार्थ घुलते जाते हैं। और फिर इस नली का मुंह नीचे ओर झुका होने के कारण धुएं का तेज झोंका पहले सड़क पर टकराता है और अपने साथ सड़क की गन्दी धूल को भी लेकर हवा में उड़ाकर जहरीले तत्वों को कई गुना बढ़ा देता है। लोगों की नाक में यह धुआं एवं गन्दी धूल घुसकर घातक प्रभाव डालती है। सबसे घातक स्थिति होती है, जब चौराहों पर लाल बत्ती होने के कारण प्रतीक्षारत वाहन खड़े रहते हैं तो उनका इंजन स्टार्ट रहता है तथा उनसे निकलता धुआं इतना अधिक गहरा होता जाता है कि आंखों में जलन होने के साथ साथ खांसी भी आने लगती है। चौराहों पर यातायात पुलिस कर्मियों की स्थिति आत्मघातियों जैसी बनी रहती है।
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हम अपने शहरों और बस्तियों में कारों की बाढ़ ले आए लेकिन हमने आज भी कारपूल करना नहीं सीखा। जबकि कारपूल वह पद्धति है जिसमें एक ही दफ्तर अथवा एक ही दिशा में जाने वाले कर्मचारी एक ही कार का साझा उपयोग करते हैं। प्रतिदिन किसी एक की कार का उपयोग होता है जिससे ईंधन की खपत कम होती है और सड़कों पर गाडिय़ों की संख्या में भी कमी आती है। इस पद्धति में किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ता है। किंतु दिखावा पसंद हम कारों की बढ़त के खतरों को अनदेखा कर के अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन करने में अधिक विश्वास रखते हैं।
आज जब लगभग हर पच्चीसवें घर की एक न एक संतान अपनी रोजगार देने वाली कंपनियों के सौजन्य से विदेशों के स्वच्छ वातावरण में कुछ दिन बिताकर आती है और उनके माता-पिता भी टूर पैकेज में विदेश यात्राएं कर लेते हैं। वहां से लौट कर वे विदेशों में स्वच्छता के किस्से तो बड़ी धूमधाम से सुनते हैं किंतु उनमें से बिरले ही एकाध ऐसा संवेदनशील निकलता है जो विदेशों में स्वच्छता से प्रभावित हो कर अपने शहर, गांव या कस्बे को साफ-सुथरा रखने की पहल करता हो। हमारे देश में हर घर में आंगन का कंसेप्ट हुआ करता था जिसमें एक न एक छायादार बड़ा वृक्ष लगाया जाता था किन्तु अब इस तरह मकानों को अतिक्रमण करते हुए फैला दिया जाता है कि घर का मुख्यद्वार ही सड़क पर खुलता है। इस तरह हमाने अपने जीवनरक्षक वृक्ष को अपने घर से काट कर फेंक दिया है।
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नदियां जो गांवों और शहरों की गंदगी को बारिश के पानी के साथ बहा कर दूर ले जाता करती थीं, उन्हें भी हमारी लापरवाहियों ने सुखा दिया है। गंगा में औद्योगिक कारखानों का ज़हर घुलता रहता है और शेष में सीवेज की गंदगी घुलती रहती है। गंदे पानी से उठने वाली बदबू वायु को शुद्ध कैसे बनाए रख सकती हैं? झील एवं तालाबों की सतह पर जब गंदगी की पत्र्तें फैल जाती हैं तो जलजीव भी दम घुटने से मरने लगते हैं। मरे हुए जलजीवों की दुर्गंध भी वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण बनती है।
कवि कालिदास के साथ जुड़ा एक किस्सा है कि वे जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, इस बात से बेखबर कि डाल कटने पर वे गिर जाएंगे। हम भी कुछ ऐसा ही तो कर रहे हैं। जो पर्यावरण हमें जीवन देता है हम उसी को तेजी के साथ नष्ट करते जा रहे हैं। वायु प्रदूषण, जलसंकट और जंगलों का विनाश- ये तीनों स्थितियां हमारी खुद की पैदा की गई हैं जो समूची दुनिया को भयावह परिणाम की ओर ले जा रही है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो हमारे जीवन की डाल कट जाएगी और नीचे गिरने पर हमें धरती का टुकड़ा भी नहीं मिलेगा।
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Wednesday, June 5, 2019

चर्चा प्लस ... विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : तय करना होगा कि हमें शुद्ध वायु चाहिए या अशुद्ध - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष :
तय करना होगा कि हमें शुद्ध वायु चाहिए या अशुद्ध
- डॉ. शरद सिंह
हमारे शहरों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस को छूने चला है। राजस्थान के श्री गंगानगर में यह 50डिग्री को पार भी कर चुका है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों? हमने पेड़ काटे, जलस्रोतों को सुखाया जिससे हवा भी शुष्क हो गई। एक बार फिर हम आज चिंतन कर रहे हैं बढ़ते हुए वायु प्रदूषण पर। यह चिंतन ठीक इसी प्रकार है कि पहले हमने चिकित्सकों को काम से हटा दिया और फिर मरीज की चिंता करने जुटे हैं। जी हां, वायु प्रदूषण पर सबसे अधिक नियंत्रण करने वाले प्राकृतिक तत्व हैं वृक्ष। लेकिन हमने अपने कांक्रीट का साम्राज्य बढ़ाने के लिए वृक्षों को कटने दिया और आज उम्मींद कर रहे हैं कि हमें शुद्ध वायु मिले। यह स्वयं को छलने से बढ़ कर और यदि कुछ है तो वह अपराध है जो हम अपने आने वाली पीढ़ी के प्रति कर रहे हैं।
Charcha Plus -  विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष -  तय करना होगा कि हमें शुद्ध वायु चाहिए या अशुद्ध   -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     विश्व पर्यावरण दिवस हर वर्ष 5 जून को मनाया जाता है। इस वर्ष भी मनाया जा रहा है। संयुक्तराष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा थीम तय की गई है-‘वायु प्रदूषण’। इसी थीम के आधार पर वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। इसके साथ ही मंत्रालय इस अवसर पर कई कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। जिसके तहत 5 जून, 2019 को दिल्ली के विज्ञान भवन में एक बड़ा आयोजन तय किया गया है। इस आयोजन में पर्यावरण पर फिल्म प्रतिस्पर्धा, पुस्तकों के विमोचन के साथ ही वायु प्रदूषण, अपशिष्ट प्रबंधन एवं ‘वन : द ग्रीन लंग्स ऑफ सिटीज’ पर तीन विषयगत सत्र आयोजित रखे गए हैं। विश्व पर्यावरण दिवस दिल्ली ही नहीं वरन् देश भर में राज्यों की राजधानियों और अन्य शहरों में भी मनाया जाना है। इस आयोजन के लिए थीम सांग की लंचिंग काफी पहले की जा चुकी है।
कितना कंट्रास्ट और विरोधाभासी है न यह सब? एक ओर देश का आधे से अधिक हिस्सा पेयजल की किल्लत से जूझ रहा है वहीं दूसरी ओर उत्सवी वातावरण में पर्यावरण पर चिंतन किया जा रहा है। गोया हम अपने उत्सवधर्मिता के दायरे से बाहर आए बिना कुछ सोच ही नहीं सकते हैं। वहीं चीन अपने संसाधनों को हरसंभव बचाते हुए हमसे तेजी से आगे निकलता जा रहा है। इसीलिए वर्ष 2019 के लिए विगत 15 मार्च 2018 को को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परियोजना कार्यालय की कार्यवाहक कार्यकारी प्रमुख जॉइसी म्सुया के साथ केन्या की राजधानी नैरोबी में संयुक्त रुप से चीन को मेजबान घोषित किया गया। अतः इस वर्ष चीन ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के आयोजन का मेजबान देश बनाया गया है। इस अवसर पर बोलते हुए म्सुया ने कहा था कि ‘वायु प्रदूषण के मुकाबले में चीन ने बड़ी नेतृत्वकारी शक्ति दिखाई। इसी क्षेत्र में चीन विश्व में और बड़े कदम उठाने में मददगार सिद्ध होगा। चीन वैश्विक अभियान का नेतृत्व करेगा, ताकि लाखों प्राणियों के प्राण बचाए जा सके।’
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्थापित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम हर साल 5 जून को “विश्व पर्यावरण दिवस” का आयोजन करता है। विश्व पर्यावरण दिवस दुनिया भर में बढ़ते प्रदूषण और उसको रोकने के उपायों पर ध्यान देने और उन उपायों को लागू करने के मकसद से हर साल मनाया जाता है। वर्तमान में वातावरण में लगातार बढ़ते प्रदूषण और उसके मानव जीवन सहित दूसरे जीव जन्तुओं में पड़ते प्रभाव को कम करने के उपायों को बेहतर बनाने के लिए है विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी विश्व पर्यावरण दिवस बुधवार 5 जून 2019 को मनाया जा रहा है। हर साल की तरह इस साल भी संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन होगा। वैसे तो समय-समय में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पर्यावरण पर सम्मेलन आयोजित होते रहते हैं किंतु 5 जून को विश्व के सभी सदस्य देश इस सम्मेलन में भाग लेते हैं और पर्यावरण को बेहतर और हराभरा बनाने के उपायों में विचार विमर्श करते हैं। यह विश्व के 100 से ज्यादा देशों द्वारा मनाया जाता है। इस दिन हर जगह पर्यावरण के सन्दर्भ में जागरुकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
एक बार फिर हम आज चिंतन कर रहे हैं बढ़ते हुए वायु प्रदूषण पर। यह चिंतन ठीक इसी प्रकार है कि पहले हमने चिकित्सकों को काम से हटा दिया और फिर मरीज की चिंता करने जुटे हैं। जी हां, वायु प्रदूषण पर सबसे अधिक नियंत्रण करने वाले प्राकृतिक तत्व हैं वृक्ष। लेकिन हमने अपने कांक्रीट का साम्राज्य बढ़ाने के लिए वृक्षों को कटने दिया और आज उम्मींद कर रहे हैं कि हमें शुद्ध वायु मिले। गंदगी से बजबजाते खुले नालों और कूड़े के ढेरों को देखते हुए भी हम आशा करते हैं कि हमें शुद्ध वायु मिले। यह स्वयं को छलने से बढ़ कर और यदि कुछ है तो वह अपराध है जो हम अपने आने वाली पीढ़ी के प्रति कर रहे हैं।
भारत में वाहन संबंधी वायु प्रदूषण के कारण अकेले वर्ष 2015 में साढ़े तीन लाख बच्चे दमा का शिकार बने थे। दुनिया की प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिका ‘द लांसेट प्लैनटेरी हेल्थ जर्नल’ में प्रकाशित हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आयी थी। इस अध्ययन में 194 देशों और दुनिया भर के 125 प्रमुख शहरों को शामिल किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार प्रति वर्ष बच्चों में दमा के दस में से एक से ज्यादा मामले वाहन संबंधी प्रदूषण के होते हैं। इन मामलों में से 92 प्रतिशत मामले ऐसे क्षेत्रों के रहते हैं, जहां यातायात प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशानिर्देश स्तर से नीचे है। उसी दौरान अमेरिका स्थित जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ सुसान अनेनबर्ग ने इस रिपोर्ट पर बात करते हुए मीडिया से कहा था कि ‘हमारे निष्कर्षों से पता लगा है कि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड से होने वाला प्रदूषण बचपन में दमा की बीमारी के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। यह विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों के लिए चिंता का विषय है। ऐसे में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की सांद्रता से जुड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश पर पुनर्विचार करने की जरूरत है तथा यातायात उत्सर्जन को कम करने के लिए भी एक लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिए।’
क्या इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद हमारे देश में वायु प्रदूषण के आधार पर वाहनों के रख-रखाव अथवा प्रदूषण नियंत्रण के प्रति कोई जागरूकता सामने आई? बस, एक ठोस कदम यह उठाया गया कि 15 वर्ष से पुराने वाहनों को सड़क पर निषिद्ध कर दिया गया। जबकि वाहनों की संख्या में सौगुनी वृद्धि हुई। भारत में बहुप्रचतिल वाहनों में मुख्यतः पेट्रोल एवं डीजल का ईंधन रूप में उपयोग होता है। इन वाहनों से निकलनेवाले धुंए में कार्बन-डाई-ऑक्साइड, कार्बन-मोनो-आक्साइड जैसी विषैली गैसे होती हैं, जो मानव एवं जीव जन्तुओं के स्वास्थ्य के लिए घातक होती हैं। वायु में निरन्तर घुलते भारी जहर के कारण लोगों को श्वासजनित बीमारियां हो जाती हैं। इनमें से अनेक लाईलाज होती हैं। वाहनों के धुंए से आंखों में जलन होना तो आम बात है। वाहनों का धुंआ इनकी साईलेन्सर की नली के छोर से निकलता है, जिसका मुंह वाहनों के पीछे की ओर रहता है। पीछे की ओर हवा में जहरीले पदार्थ घुलते जाते हैं। और फिर इस नली का मुंह नीचे ओर झुका होने के कारण धुंए का तेज झोंका पहले सड़क पर टकराता है और अपने साथ सड़क की गन्दी धूल को भी लेकर हवा में उड़ाकर जहरीले तत्वों को कई गुना बढ़ा देता है। लोगों की नाक में यह धुंआ एवं गन्दी धूल घुसकर घातक प्रभाव डालती है। सबसे घातक स्थिति होती है, जब चौराहों पर लाल बत्ती होने के कारण प्रतीक्षारत वाहन खड़े रहते हैं तो उनका इंजन स्टार्ट रहता है तथा उनसे निकलता धुंआ इतना अधिक गहरा होता जाता है कि आंखों में जलन होने के साथ साथ खांसी भी आने लगती है। चौराहों पर यातायात पुलिस कर्मियों की स्थिति आत्मघातियों जैसी बनी रहती है।
हम अपने शहरों और बस्तियों में कारों की बाढ़ ले आए लेकिन हमने आज भी ‘कारपूल’ करना नहीं सीखा। जबकि ‘कारपूल’ वह पद्धति है जिसमें एक ही दफ्तर अथवा एक ही दिशा में जाने वाले कर्मचारी एक ही कार का साझा उपयोग करते हैं। प्रतिदिन किसी एक की कार का उपयोग होता है जिससे ईंधन की खपत कम होती है और सड़कों पर गाड़ियों की संख्या में भी कमी आती है। इस पद्धति में किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ता है। किंतु दिखावा पसंद हम कारों की बढ़त के खतरों को अनदेखा कर के अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन करने में अधिक विश्वास रखते हैं।
आज जब लगभग हर पच्चीसवें घर की एक न एक संतान अपनी रोजगार देने वाली कंपनियों के सौजन्य से विदेशों के स्वच्छ वातावरण में कुछ दिन बिता कर आती है और उनके माता-पिता भी टूर पैकेज में विदेश यात्राएं कर लेते हैं। वहां से लौट कर वे विदेशों में स्वच्छता के किस्से तो बड़ी धूम-धाम से सुनते हैं किंतु उनमें से बिरले ही एकाध ऐसा संवेदनशील निकलता है जो विदेशों में स्वच्छता से प्रभावित हो कर अपने शहर, गांव या कस्बे को साफ-सुथरा रखने की पहल करता हो। हमारे देश में हर घर में आंगन का कंसेप्ट हुआ करता था जिसमें एक न एक छायादार बड़ा वृक्ष लगाया जाता था किन्तु अब इस तरह मकानों को अतिक्रमण करते हुए फैला दिया जाता है कि घर का मुख्यद्वार ही सड़क पर खुलता है। इस तरह हमाने अपने जीवनरक्षक वृक्ष को अपने घर से काट कर फेंक दिया है।
नदियां जो गांवों और शहरों की गंदगी को बारिश के पानी के साथ बहा कर दूर ले जाता करती थीं, उन्हें भी हमारी लापरवाहियों ने सुखा दिया है। गंगा में औद्योगिक कारखानों का ज़हर घुलता रहता है और शेष में सीवेज की गंदगी घुलती रहती है। गंदे पानी से उठने वाली बदबू वायु को शुद्ध कैसे बनाए रख सकती हैं? झील एवं तालाबों की सतह पर जब गंदगी की पर्त्तें फैल जाती हैं तो जलजीव भी दम घुटने से मरने लगते हैं। मरे हुए जलजीवों की दुर्गंध भी वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण बनती है।
कवि कालिदास के साथ जुड़ा एक किस्सा है कि वे जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, इस बात से बेखबर कि डाल कटने पर वे गिर जाएंगे। हम भी कुछ ऐसा ही तो कर रहे हैं। जो पर्यावरण हमें जीवन देता है हम उसी को तेजी के साथ नष्ट करते जा रहे हैं। वायु प्रदूषण, जलसंकट और जंगलों का विनाश - ये तीनों स्थितियां हमारी खुद की पैदा की गई हैं जो समूची दुनिया को भयावह परिणाम की ओर ले जा रही है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो हमारे जीवन की डाल कट जाएगी और नीचे गिरने पर हमें धरती का टुकड़ा भी नहीं मिलेगा।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 05.06.2019)

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