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Wednesday, September 17, 2025

चर्चा प्लस | पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
पितृपक्ष पूर्वजों के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण करने का पक्ष होता है। पक्ष अर्थात 15 दिन की अवधि। 365 दिन में 15 दिन पूर्वजों के प्रति विशेष कर्तव्यों के लिए निर्धारित किए गए हैं। यह निर्धारण आधुनिक नहीं वरन पौराणिक काल से चला आ रहा है। पौराणिक काल में श्राद्धकर्म किस तरह आरम्भ हुआ इस संबंध में कुछ रोचक कथाएं मिलती हैं जो सदियों से हर पीढ़ी को पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रखने की सीख देती आई हैं। तो चलिए एक दृष्टि डालते हैं इन कथाओं पर, क्योंकि पारिवारिक टूटन के संवेदनहीन होते इस समय में ऐसी कथाओं को जानना और समझना जरूरी है। इन कथाओं का मात्र धार्मिक नहीं वरन मानवीय मूल्य भी है।  
पितृ पक्ष, भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक चलता है। इन 15 दिनों में दौरान पितरों अर्थात पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए जो भी श्रद्धापूर्वक अनुष्ठानिक कार्य किए जाते हैं, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध कर्म आरंभ होने के संबंध में कई कथाएं भी प्रचलित हैं, यूं तो इनका पाठ तर्पण करते हुए किया जाता है। किन्तु ज्ञान की दृष्टि से इन्हें किसी भी समय पढ़ा, सुना और समझा जा सकता है। 

पितृ पक्ष आरंभ होने के संबंध में सबसे प्रमुख कथा है दानवीर कर्ण की कथा। इस बहुप्रचलित कथा के अनुसार कुंतीपुत्र कर्ण ने अपने जीवनकाल में सोना, चांदी, आभूषण आदि का दान हाथ खोल कर दिया। कर्ण के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। उसके दान-पुण्य कर्म के कारण यह तो सुनिश्चित था कि कर्ण को अंततः स्वर्ग में स्थान मिलेगा। मरणोपरांत कर्ण को नर्क के कुछ दण्ड के बाद स्वर्ग में सम्मानजनक स्थान दिया गया। स्वर्ग में कर्ण को भरपूर सुख-सुविधा दी गई। किन्तु जब भोजन का समय आया तो कर्ण यह देख कर चकित रह गए के उन्हें सोने की थाली में सोने के सिक्के और आभूषण ही परोसे गए। पहले तो कर्ण को लगा कि सेवक से कोई त्रुटि हो गई होगी किन्तु जब दो-तीन बार वही प्रक्रिया दोहराई गई तो कर्ण ने इन्द्रदेव से इसका कारण पूछा।  तब इंद्र ने कहा, ‘‘कर्ण, तुम सबसे बड़े दानवीर थे। तुमने अपने प्राणों की परवाह किए बिना अपना दिव्य कवच दान कर दिया, यहां तक कि मुत्यु के कुछ क्षण पूर्व तुमने अपना सोने का दांत भी स्वयं तोड़ कर दान कर दिया। किन्तु कर्ण, तुमने अपने पूरे जीवन में सिर्फ स्वर्ण का ही दान दिया, कभी भोजन दान नहीं दिया। जबकि स्वर्ग का नियम है कि यहां मनुष्य की आत्मा को वही खाने के लिए दिया जाता है, जिसका उसने धरती पर दान किया होता है। इसलिए तुम्हारी थाली में स्वर्ण ही परोसा जा रहा है।’’
यह सुन कर कर्ण ने इन्द्र से पूछा कि अब मैं अपनी भुल कैसे सुधार सकता हूं? मैं तो मृत्यु को प्राप्त हो चुका हूं। यहां दान आदि का कोई प्रावधान नहीं है, न कोई दान लेने वाला है। अब मेरा उद्धार कैसे होगा?’’
इस पर इन्द्र ने उससे कहा कि ‘‘इसका बस यही उपाय है कि मैं तुम्हें 15 दिन के लिए वापस पृथ्वी पर भेज देता हूं। इस अवधि में तुम अपने पूर्वजों की स्मृति में भोजन का दान करो। यह दान ब्राह्मणों और गरीबों दोनों को करना है।’’
इन्द्र के द्वारा पृथ्वी पर 15 दिन के लिए आने के बाद कर्ण ने ब्राह्मणों एवं गरीबों को भरपूर भोजनदान दिया। इसके बाद 15 दिन की अवधि पूर्ण होते ही उसे वापस स्वर्ग बुला लिया गया। स्वर्ग में पहुंचते ही भांति-भांति के सुस्वाद भोजन से कर्ण का स्वागत किया गया। 
इस कथा का मानवीय मूल्य यह है कि हर तरह का दान-पुण्य कर के मनुष्य यह समझे कि मैंने अपने कर्तव्य पूर्ण कर लिए है, तो ऐसा नहीं है। मनुष्य के सारे कर्तव्य तभी पूर्ण माने जाते हैं जब वह भूखों, निराश्रितों एवं निर्धनों को भोजन दान करता है। संग्रहण की प्रवृति वाले समाज में इस तरह की कथाएं ही प्रेरित करती हैं कि उनका भी समुचित ध्यान रखा जाए जिन्हें एक टुकड़ा रोटी भी नसीब नहीं है। फिर जब कोई सद्कर्म करता है तो भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि इससे उसके पूर्वज भी प्रसन्न होते हैं तथा उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जीवन की व्यस्तताओं में कई बार सब कुछ जानते-समझते हुए भी कर्तव्यों की अवहेलना हो जाती है इसीलिए 15 दिन का वह समय निर्धारित किया गया है जिसमें कर्ण ने धरती पर आ कर दानकर्म एवं श्राद्धकर्म किया था।    

पौराणिक कथा के आधार पर पितृ पक्ष की एक लोकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों की अपने नामों से विपरीत स्थिति थी। जोगे जिसकी दशा जागी की होनी चाहिए थी, वह धन-सम्पन्न था। वहीं उसका भाई भोगे जिसे नाम के अनुरुप भोग-विलास का जीवन मिलना चाहिए था वह निर्धन था। इतना निर्धन कि कभी-कभी उसके घर में फांके की थिति आ जाती थी। दोनों भाई अलग-अलग रहते थे। दोनों भाइयों में परस्पर प्रेम था लेकिन जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था। जबकि भोगे की पत्नी बड़ी सरल स्वभाव की थी। पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे को लगा कि इससे धन व्यर्थ व्यय होगा अतः उसने टालने का प्रयास किया। जोगे की पत्नी का विचार था कि यदि वे लोग श्रद्धभोज करेंगे तो इससे समाज में उनके धन का भरपूर प्रदर्शन होगा और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। जोगे ने पत्नी को समझाया कि यह सब छोड़ो क्योंकि तुमसे अकेले सब नहीं सम्हाला जाएगा। इस पर जोगे की पत्नी ने कहा कि मैं भोगे की पत्नी को काम करने के बुला लूंगी। आप तो जाइए और मेरे मायके वालों को न्योता दे आइए।  अंततः जोगे को पत्नी के कहं अनुसार कार्य करना पड़ा। जोूगे की पत्नी भोगे की पत्नी को अपने घर काम करने के लिए बुला लाई। भोगे के घर यूं भी खाने का ऐसा कुछ नहीं था कि वे श्राद्धभोज कराना तो दूर एक भी भूखे को भोजन दान कर सकें। सो, भोगे ने पत्नी को मदद करने जाने को कहा और स्वयं कंडा आदि जला कर घरन में मौजूद अन्न का इकलौता दाना अग्नि को समर्पित कर के पितरों को ‘‘अगियारी’’ दान कर दी। जब पितर धरती पर आए तो वे पहले जोगे के घर गए। वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला क्योंकि उस घर में सभी लोग नाना प्रकार के व्यंजन से अपना पेट भरने में ही जुटे थे। उन लोगों ने पितरो की ओर ध्या भी नहीं दिया। इसके बाद पितर भोगे के घर गए। वहां उन्होंने देखा कि अन्न का एक दाना अगियारी के रूप में उन्हें दान दिया गया है। उसी समय भोगे के बचचे आ गए और अपनी मां से खाना मांगने लगे। घर में खाने को तो कुछ था नहीं अतः भोगे की पत्नी ने चूल्हे पर पानी उबलने को रख दिया था जिससे बच्चों को बहलाया जा सके। यह देख कर पितरों को लगा कि देखों तो भोगे ने अपने घर का अन्न का इकलौता दाना भी हमें अर्पित कर दिया जबकि उसके बच्चे भूखे हैं। यदि भोगे के पास पर्याप्त धन होता तो वह हमें भरपूर भोग लगाता। पितरों ने अगियारी की राख चाटी और तृप्त हो गए। इस बीच बच्चे दौड़ कर गए और उन्होंने चूल्हे पर चढ़े पतीले का ढक्कन खोला कि उसमें खाने का कुछ पक रहा होगा, तो उन्हें वहां पतीला सोने के सिक्कों से भरा हुआ मिला। बच्चों ने मां को इस बारे में बताया। बच्चों की मां ने भोगे को बताया। भोगे ने पितरों को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इसके बाद उनके दिन फिर गए। अगले वर्ष श्राद्ध पक्ष में भोगे ने विनम्र भाव से पितरों का श्राद्ध करते हुए गरीबों को भरपूर भोजन दान दिया। इसके बाद भोगे को कभी निर्धनता का मुख नहीं देखना पड़ा।
यह कथा भी यही संदेश देती है कि जितना भी हमारे पास है उसे मिल-बांट कर खाएं ताकि कोई भूखा न रहे। 

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि धरती पर आए। वे घूमते-घूमते गंगातट पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक गरीब व्यक्ति बहुत परेशान था। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। नारद मुनि ने उससे पूछा कि तुम्हें क्या कष्ट है? तो उस निर्धन व्यक्ति ने कहा कि पितृ पक्ष चल रहा है किन्तु मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं दान कर के पितरों का श्राद्ध कर सकूं। मेरे पितर मुझ पर नाराज हो रहे होंगे। यह सुन कर नारद मुनि ने कहा कि यह मत सोचो कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, निर्धन तो वे हैं जिनके पास सब कुछ होता है फिर भी वे दान करने का कलेजा नहीं रखते हैं। तुम तो पेड़ की एक पत्ती तोड़ो और मुझे दान कर दो। तुम्हारा ब्राह्मण दान पूर्ण हो जाएगा। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। इसके बाद नारद वहां से चले गए। किन्तु उस व्यक्ति को लग रहा था कि मैंने मात्र ब्राह्मण दान किया है, वह भी उस ब्राह्मण ने कृपा कर के मेरी दी हुई पत्ती खा कर उसे दान मान लिया, अब मैं अपने जैसे निर्धनों को दान कैसे दूं? वह सोच ही राि था कि अचानक उसके सामने एक निर्धन आ गया। उस व्यक्ति को कुछ नहीं सूझा तो उसने पेड़ की एक और पत्ती तोड़ी और उसे उस निर्धन को देते हुए कहा कि मेरे पास इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीलं है। यदि तुम कृपा कर के इसे ग्रहण कर लो तो मेरे पितर प्रसन्न हो जाएंगे। यह सुन कर उस निर्धन ने पत्ती खा ली। इस प्रकार श्राद्ध कर के वह व्यक्ति अपने धर लौटा तो देखा कि उसकी पत्नी प्रसन्नमुद्रा में द्वार पर खड़ी है। उस व्यक्ति के पूछने पर पत्नी ने बताया कि एक आदमी आया था और वह स्वर्ण मुद्राओं से भरा घड़ा दे गया है जो तुम्हारे पूर्वजों ने तुम्हारे लिए छोड़ा था। यह सुन कर वह व्यक्ति समझ गया कि यह उसके दानकर्म का सुफल है जिससे उसके पूर्वज प्रसन्न हो गए। वह यह नहीं जानता था कि नारद ही पहले ब्राहमण और फिर निर्धन बन कर उससे दान ले गए थे और बदले में उसकी सहायता की।
यह कथा भी पूर्वजों की स्मृति में भोजन दान के महत्व को स्थापित करती है। इस कथा का भी उद्देश्य यही है कि इस धरती पर कोई भूखा न रहे। सब मिल बांट अन्न खाएं, ऐसा न हो कि एक संग्रहण करे और बाकी भूखे रह जाएं। 

वस्तुतः हमारी भारतीय संस्कृति में प्रत्येक त्योहार, संस्कार एवं अनुष्ठान का गहरा सामाजिक महत्व  एवं मानवीय मूल्य है। पितरो का स्मरण, पितरों के प्रति श्राद्ध आदि हमें अपनी पारिवारिक परंपरा पर गौरव करना सिखाती है। वहीं इन सब के साथ जुड़े दानकर्म ये उन लोगों के प्रति कर्तव्य का भी स्मरण रहता है जो हमारे ही समाज के अभिन्न अंग हैं, हमारे समान ही हैं किन्तु आर्थिक रूप से कमजोर हैं, निर्धन हैं। दानकर्म ऐसे जरूरतमंदों की मदद करने का अवसर देता है जिसे कर के हमें स्वयं भी आत्मिक शांति मिलती है।     
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(दैनिक, सागर दिनकर में 19.09.2025 को प्रकाशित)  
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Thursday, September 11, 2025

बतकाव बिन्ना की | पितर पूछ रए, सबरे कौव्वा हरें कां गए? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

   
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
पितर पूछ रए, सबरे कौव्वा हरें कां गए?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काए भौजी, भैयाजी नईं दिखा रए?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘बे कारी बरिया लौं गए।’’ भौजी ने बताई।
‘‘कारी बरिया? उते काए खों गए? हमने तो सुनी आए के उते तांत्रिक-मांत्रिक कछू उल्टो-सूदो पूजा-पाठ करत आएं। सो, भैयाजी उते का करबे के लाने गए?’’ मोए जा सुन के अचरज भऔ के भैयाजी कारी बरिया के इते गए आएं? का आए, के ऊको कारी बारिया जे लाने कओ जात आए के उते एक भौत पुरानो बरिया को पेड़ आए। ऊ पेड़ के नैंचे कारी जू की एक मूरत धरी आए। उते मनौती वारी लुगाइयां मनौती को धागा बांधवे जात आएं औ अमावस औ पूरनमासी को उते तांत्रिक हरें कछू स्पेशल पूजा करत आएं। सो अमावस औ पूरनमासी को रात की बेरा ऊ तरफी कोनऊं नईं फटकत। मनो आज तो ऐसो कछू आए नईं औ फेर जे दिन को टेम ठैरो, सो भैयाजी काए के लाने गए हुइएं?
‘‘सो भैयाजी काए के लाने उते गए?’’ मैंने फेर के भौजी से पूछी।
‘‘अरे उनकी ने कओ! बे हमाई कोन सुनत आएं। तुम तो जानत आओ के आजकाल करै दिन मने पितरों के दिन चल रए। अब ईमें कौब्बा खों भोग देनो जरूरी आए। औ कौव्वा हरें दिखात लौं नइयां। हमने तो कई तुमाए भैयाजी से के छत पे बरा औ पुड़ी डार देओ। जो कौव्वा आहें सो बे खा लैहें ने तो कोनऊं औ पंछी खा लैहे। अब तुमई बताओ के जो कौव्वा नईं दिखा रए तो अपन ओंरे का कर सकत आएं। पर तुमाए भैयाजी खों तो जो दिमाक में चढ़ गई सो चढ़ गई। कोनऊं ने उनको बता दओ के उते कारी बरिया पे कौव्वा आत आएं, सो बे बड़ा-पुड़ी ले के कारी बरिया खों चले गए। बाकी हमने उने समझाई रई के आप जा तो रए हो मनो उते बारा बजे के टेम पे ने रुकियो।’’ भौजी बोलीं।
‘‘काए बारा बजे का होत आए?’’ मैंने पूछी।
‘‘ऐसो कओ जात आए के दुफारी के बारा बजे बरिया को भूत उठ बैठत आए। अब रामजाने का सांची औ का झूठी? बाकी तुमें याद हुइए के पर की साल बा हल्के को मोड़ा खेलत-खेलत कारी बरिया के इते पौंच गऔ रऔ औ दुफारी के बारा बजतई सात ऊपे भूत चढ़ गओ। ईके बाद बा छै मईना बीमार रओ। वा तो ऊकी मताई ने उते बालाजी जा के झरवाओ, तब कऊं जा के ऊपे से भूत भागो।’’ भौजी ने कई।
‘‘आप मानत आओ भूत-प्रेत खों?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘मानत तो नईयां, बाकी रिस्क को ले? कऊं सई में कोनऊं भूत-वूत भओ तो?’’ भौजी बोलीं।
हम ओरें बतकाव करई रई तीं के इत्ते में भैयाजी हांपत-हांपत घरे लौटे।
‘‘का भओ? कौव्वा मिले?’’ भौजी ने उने देखतई सात पूछी।
‘‘तनक पानी तो पिलाओ पैले। गाला सूको जा रओ। भौतई गरमी आए। ऐसी सड़ी गरमी के का कई जाए!’’ भैयाजी अपने गमछा से अपने मों पे पंखा सो करन लगे। 
‘‘पंखा चल रओ भैयाजी!’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाओ।
‘‘हऔ! बाकी पतो सो नई पर रओ।’’ भैयाजी ऊंसई पंखा झलत से बोले। 
‘‘तनक देर में ठंडो लगहे। अभईं आप बायारे से निंगत आ रए न, जेई से ज्यादा गरमी लग रई हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों तनक सहूरी बांधगे को प्रयास करो।
इत्ते में भौजी पानी ले आईं। भैयाजी की दसा ऐसी हती के बे एकई घूंट में पूरो गिलास भर पानी गटक गए। ईके बाद भैयाजी की दसा ठीक भई।
‘‘सो का भओ? कौव्वा मिले?’’ भौजी ने फेर के पूछी।
‘‘कां मिले? उते बरिया तरे ठाड़ें-ठाड़े गोड़े औ दुखन लगे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘उते आपई भर पौंचे हते के औ बी कोनऊं रओ?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘दो-चार जने औ रए। हम ओरें उते कुल्ल देर ‘कां-कां’ पुकारत ठाड़े रए, बाकी उते कौव्वा तो कौव्वा, कौव्वा की छायारीं लौं ने आई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हमने तो पैलेई कई रई के सुनी-सुनाई पे ने भगत फिरो। अब कौव्वा ने मिल रए तो जे बात अपने पुरखा लौं जानत आएं। बे बुरौ ने मानहें। आप तो हमाई कई मानो औ छत पे धर दओ करे। जो इते से कोनऊं कौव्वा कड़हे तो खा लैहे, ने तो कछू औ पंछी खा लैहे। काए से जब कौव्वाप ने मिलें तो करो का जाए?’’ भौजी ने भौयाजी खों समझाओ।
‘‘भौजी सई कै रईं, भैयाजी! नाएं-मांए भगत फिरबे को मौसम ने आए जे। यां तो पानी गिरत आए ने तो भड़भडावे वारी धूप कढ़ आत आए। ईमें बीमार पड़बे को डर रैत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो तो सई कै रईं तुम! भारी गरमी आए। इत्तो पानी गिरो मनो ठंडक ने आई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब तो पितर हरें सोई हेरत हुइएं के सबरे कौव्वां कां बिला गए?’’ भौजी बोलीं।
‘‘का आए भौजी के कौव्वा हरें ऊंचे पेड़न पे अपनो घोसला बनात आएं। अब अपने धनी-धोरी हरों ने मकान औ कालोनी बनाबे के चक्कर में सबरे पेड़े कटा दए। अब कौव्वा कां रएं? कां अपनो घोंसला बनाएं? जेई लाने तो इते कौव्वा नईं दिखात। अबई ओरें सोचो के जोन से ऊको घर छीन लओ जाए तो बो उते काए खों रैहे? बा उते जाहे जिते ऊके बाल-बच्चा पल सकें।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना! हमें याद ठैरी के हमाए उते मायके में नीम को ऊंचो सो पेड़ रओ, ऊपे कौव्वा को घोंसला रओ। औ हमाई मताई बतात रईं के कोयल सोई अपनो अंडा कौव्वा के घोसला में दे के चली जात आए। कौव्वा ऊको अंडा बी अपनो अंडा समझ के पालत-पोसत रैत आए औ अंडा फूटबे पे कौव्वा के बच्चा तो कां-कां करत आए औ कोयल के बच्चा कूं-कूं करन लगे आएं। तब कौव्वा खों पतो परत के ऊके संगे का धांधली करी गई।’’ भौजी ने कई।
‘‘जे सई आए भौजी। बाकी अप ओरें चाओ तो मोसे पूछ सकत आओ के सबरे कौव्वा कां मिलहें।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी दोई से कई।
‘‘कां मिलहें?’’ दोई ने एक संगे पूछी।
‘‘सबरे कौव्वा टीवी चैनल में मिलहें। कछू एंकर के रूप धरे तो कछू डिस्कन वारे पाउना के रूप में। आप ओरन ने देखो हुइए के उते कित्ती कांव-कांव होत आए। इत्ती कांव-कांव तो असली वारे कौव्वा बी नईं करत आएं।’’मैंने हंस के कई।
‘‘जा तुमने सई कई बिन्ना। बरा-पुड़ी के ले हमें कोनऊं टीवी चैनल पे जाओ चाइए रओ।’’ भैया सोई हंसन लगे।
‘‘अबे बी कछू नईं बिगरो! अबे तो करै दिन चलहें। औ भौजी, जो कोनऊं दिनां पुरखां हरें पूछें के सबरे कौव्वा कां हिरा गए सो उने बोल दइयो के बे सबरे टीवी प्रोगराम में बैठे।’’ मैंने भौजी से कई। फेर मैंने कई के, ‘‘ बात असल में जे आए के जे जो सबरे रीत-रिवाज बनाए गए, ले जेई के लाने के अपन ओरें पेड़-पौधा, पसु-पक्छी सबई की परवा करें। सो सबके लाने कोनऊं ने कोनऊं त्योहार बना दए गए। अब अपने ओरन खों कौव्वा खों तो भोग लगाने, मनो कौव्वा खों रैन नई देने, सो कैसे काम चलहे?’’ मैंने कई।
‘‘तुम कछू कओ, अब हम तो जा रए कोनऊं टीवी चैनल वारों के इते। काए से हमें कौव्वा तो जिमानेंई आए।’’ भैयाजी बोले औ हंसन लगे। 
 बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के कौव्वा के घोंसला के लाने हमने कित्ते पेड़ लगाए? औ संगे जे सोई सोचियो के जबें पितरों के इते पौंचबी तो उनें का जवाब देबी?    
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Wednesday, September 10, 2025

चर्चा प्लस | अंग्रेजी के मोहपाश में बंध कर हिन्दी का भला नहीं हो सकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस


अंग्रेजी के मोहपाश में बंध कर हिन्दी का भला नहीं हो सकता


- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             

सितम्बर आते ही हिन्दी मास, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस के प्रति जागरूकत बढ़ जाती है। शेष माह में हिन्दी अंग्रेजी की सेविका की भांति जीती-खाती रहती है। पढ़ने में यह बात जितनी भी बुरी लगे किन्तु सच यही है। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके।


वर्ष 2025 का हिन्दी मास आरम्भ हुए सप्ताह भर बीत गया है। पहले गणेशोत्सव की धूम और अब पितृपक्ष की व्यस्तता। लगभग हर घर के बच्चे जा रहे हैं अं्रग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने। सो, हिन्दी के प्रति उतनी जागरूकता ही पर्रूाप्त समझी जा रही है जितनी सरकारी आदेश के हिसाब से जरूरी है। मुझे याद आ रही है विगत वर्ष ठीक दस वर्ष पहले 2015, जुलाई की 19 तारीख। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिन्दी भवन न्यास के तत्वावधान में भोपाल में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन में मनोज श्रीवास्तव ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रखा था कि हम बार-बार संयुक्त राष्ट्रसंघ स्वीकृत भाषासूची में हिन्दी को शामिल किए जाने की मांग करते हैं, किन्तु विश्व श्रम संगठन अथवा सार्क संगठन में भी हिन्दी के लिए स्थान क्यों नहीं मांगते हैं? उसी समय विश्वनाथ सचदेव ने इस ओर ध्यान दिलाया कि जहां हम हिन्दी के प्रति अगाध चिन्ता व्यक्त करते नहीं थकते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम के शासकीय विद्यालय खोल रहे हैं, क्या यह हमारा अपनी भाषा के प्रति दोहरापन नहीं है?
यह अत्यंत व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने दैनिक बोलचाल में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं जो आसानी से सबकी समझ में आ जाती है। यहां तक कि अहिन्दी भाषी भी इसे समझ लेते हैं किन्तु जब हिन्दी के विद्वान तकनीकी अथवा वैज्ञानिक शब्दावली के लिए जिन हिन्दी शब्दों का चयन करते हैं, वे प्रायः संस्कृतनिष्ठ होते हैं। जैसे- ‘चार पैरों वाले’ के स्थान पर ‘चतुष्पादीय’। जब किसी को पांव में ठोकर लगती है तो उससे हम यह नहीं पूछते कि ‘तुम्हारे पद में आघात तो नहीं लगा?’ हम यही पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी?’ जिस शब्दावली से विद्यार्थी परिचित होता है, उससे इतर हम उसके सामने इतनी कठिन शब्दावली परोस देते हैं कि वह तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी को सरल मान कर उसकी ओर आकर्षित होने लगता है। संदर्भवश एक बात और (व्यक्तिगत राग-द्वेष से परे यह बात कह रही हूं) कि जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दावली की पैरवी करते हैं वे ही महानुभाव अपने बेटे-बेटियों को ही नहीं वरन् पोते-पोतियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने की होड़ में जुटे हुए भारी ‘डोनेशन’ देते दिखाई पड़ते हैं और गर्व से कहते मिलते हैं। कोई विद्यार्थी किस भाषाई माध्यम को शिक्षा के लिए चुनता है (अथवा उसे चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है) यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि भाषा को ले कर हमारे दोहरे चरित्र का मसला है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाने तथा विश्वस्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की लड़ाई आज आरम्भ नहीं हुई है, यह तो पिछली सदी के पूर्वार्द्ध से छिड़ी हुई है।

हिन्दी के पक्ष में संघर्ष

पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी।
बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
सम्मेलनों में सिमटी हिन्दी चिन्ता

पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी से 14 जनवरी 1975 तक नागपुर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति बी. डी. जत्ती थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे माॅरीशस के प्रधानमंत्राी शिवसागर रामगुलाम। सम्मेलन में तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए थे- 1.संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए 2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो तथा 3. विश्व हिन्दी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अत्यन्त विचारपूर्वक एक योजना बनायी जाए।
भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन इस क्रम में दसवां सम्मेलन था। सन् 1975 से 2015 तक प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रति वैश्विक चिन्ताएं व्यक्त की जाती रहीं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए योजनाएं बनती रहीं किन्तु  यदि हम अंग्रेजी के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को इसी तरह बनाए रहेंगे, एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे महत्वांकांक्षी आयोजन करेंगे और दूसरी ओर ठीक उसी समय अंग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलंेगे तो हमारे हिन्दी के प्रति आग्रह को विश्व किस दृष्टि से ग्रहण करेगा?
हिन्दी के प्रति हमारी कथनी और करनी में एका होना चाहिए। हिन्दी समाचारपत्र अपनी व्यवसायिकता को महत्व देते हुए अंग्रेजी के शीर्षक छापते हैं जबकि एक भी अंग्रेजी समाचारपत्र ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें हिन्दी लिपि में अथवा हिन्दी के शब्दों को शीर्षक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा हो। ‘‘सैलेब्स’’ हिन्दी के समाचारपत्र में मिल जाएगा लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्र में ‘‘व्यक्तित्व’’ अथवा ऐसा ही कोई और शब्द शीर्षक में देखने को भी नहीं मिलेगा।

हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा

विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे। त्रिभाषी फार्मूला इस दिशा में एक अच्छी पहल है किन्तु इसके परिणाम भी उतनी तीव्रता से सामने नहीं आ रहे हैं जितनी तीव्रता से आना चाहिए। जब तक हम अंग्रेजी के मोह से बंधे रहेंगे तब तक हिन्दी क्या, कोई भी भारतीय भाषा पूरा सम्मान और विश्वास नहीं पा सकती है। 
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Thursday, September 4, 2025

बतकाव बिन्ना की | गणेश जू ने मताई के लाने अपनों मूंड़ कटवा लओ रओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
गणेश जू ने मताई के लाने अपनों मूंड़ कटवा लओ रओ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     
        ‘‘देख तो बिन्ना, कैसे-कैसे दिन आ गए!’’ भैयाजी बोले।
‘‘काए का हो गओ भैयाजी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘देख नईं रईं के का मचो आए!’’ भैयाजी बोले।
‘‘का मचो? अच्छो-भलो गणेशजू को उत्सव मन रओ। जगां-जगां झाकियां सजीें। कित्तो नोनो लग रओ। बाकी जा सोच के अब दुख होन लगत आए के चतुरदशी के बाद जा सब नईं रैने।’’ मैंने कई।
‘‘हम झांकियन की बात नईं कर रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर काए की कै रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘बा तुमने पढ़ी-सुनी हुइए के अपने परधानमंत्री जू की मताई के लाने कोऊ ने कछू उल्टो-पुल्टो बोल दओ। बा बी ऐसी मताई जो अब सुरग सिधार गईं आएं। कित्ती बुरई बात आए न!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कै रए भैयाजी, भौतई बुरी आए जा बात। मताई कोऊ की होए, ऊके बारे में बुरौ नईं बोलो जाओ चाइए। 
‘‘अरे बिन्ना! तनक सोचो के जे गणेशजू के दिन चल रए औ ऐसे टेम पे मताई के लाने बुरौ बोलो गओ। जब के खुद गणेशजू ने अपनी मताई के लाने अपनो मूंड़ कटा डारो हतो।’’ भौजी बोल परीं।
‘‘का कैबो चा रईं तुम?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हम जे कै रए के तुमें बा किसां तो याद हुइए के पार्वती मैया जू खों नहाबे के लाने गुसलखाने में जाने रओ। उते कोऊ हतो ने, के जोन खों कैतीं के कोनऊं खों भीतरे ने आन दइयो। सो अब का करो जाए? जा सोचत-सोचत बे हल्दी, चंदन औ दूद को उबटन लगान लगीं। उबटन छुड़ाबे में जो मसाला निकरो सो ऊसे उन्ने एक पुतरा बना दओ। पुतरा देख के उने सूझी के जो ई पुतरा में जान डार दई जाए तो जेई इते पहरेदारी कर लैहे। सो उन्ने ऊ पुतरा में जान डार दई। जैसेई पुतरा में जान परी सो बा पुतरा बोल उठो के मताई पाय लागूं! हमाए लाने का हुकुम आए, बोलो। जा सुन के पार्वती बोलीं के तुमाओ काम तो हम बतेहे ही, मनो पैले जे बताओ के तुमने हमें मताई काए बुलाओ। सो बा पुतरा कैन लगो के आपने हमें बनाओ, हममें प्रान डारे, सो आप हमाई जननी भईं, मताई भईं! सो, अब हम मताई खों मताई ने कएं तो का कएं? जा सुन के पार्वती मैया इत्ती खुस भईं के उन्ने बा पुतरा बालक खों अपने गले से लगा लओ। औ बोलीं के बेटा तुम सई कै रए, तुम हमाए बेटा आओ। आज से तुमें गणेश के नांव से जानो जैहे। जा सुन के गणेशजू बोले के अम्मा बताओ के मोए का करने है? सो, पार्वती जू ने गणेश से कई के काम इत्तो सो आए के हम जा रए नहाबे के लाने, सो तुम इते दरवाजा पे ठाढ़े हो जाओ औ कोनऊं खों महल में पिड़न ने दइयो। चाए कोऊ होए। जा सुन के गणेश जू ने कई हऔ! सो, पार्वती मैया चली गईं नहाबे के लाने औ गणेश जू पहरा देन लगे।
कछू देर में महादेव जू आ टपके। बे महल में भीतरे पिड़न लगे सो गणेश जू ने उने रोको। महादेव जू ने पूछो के तुम को आ? तो गणेश जू ने बता दओ के हम पार्वती मैया के पूत आएं। हमाई मताई ने कई आए के कोऊ खों हम भीतरे पिड़न ने दें, सो आप भीतरे नईं जा सकत। जा सुन के महादेव जू पैले तो सोच में पर गए के जो जे पार्वती को मोड़ा आए, मनो हमाओ मोड़ा कहानो, औ हमें पतो नईं के जो हमाओ मोड़ा ठैरो? जो का मजाक आए? जो कोऊ बदमास हुइए। ऐसी उन्ने सोची औ बोले के तुम हमें जानत नइयां, जे हमाओ महल आए औ जोन खों तुम अपनी मताई कै रए बा हमाई लुगाई आए। ईपे गणेश जू बोले के चलो हमने मान लओ के तुम हमाए बापराम आओ, मगर हमाई मताई ने कई आए के चाए कोऊ आए ऊको भीतरे पिड़न ने दइयो। सो हम तो आपखों भीतरे ने पिड़न दैहें। 
जा सुन के महादेव जू खों भौतई गुस्सा आओ औ उन्ने गुस्सा में आ के कओ के ज्यादा मों ने चलाओ। फालतू की पकर-पकर करी तो हम तुमाओ मूंड़ काट दैहें। जा सुन के गणेश जू सोई ताव खात भए बोले के सो काट देओ न मूंड़। जे धमकियन से हम डरात नइयां। हम तो बेई करहें जो हमाई मताई ने हमसे कई आए। फेर का हती महादेव जू ने फरसा चलाओ औ गणेश जू को मूंड़ काट दओ। उनको मूंड़ को जाने कां फिका गओ। धड़ उतई छटपटात सो डरो रओ। इत्ते में पार्वती मैया सपर-खोेर के बायरे आईं। उन्ने देखी के महादेव जू खून से सनो फरसा ले के ठाड़े औ गणेश जू को धड़ उते डरो, पर मूंड़ नदारत आए। जा देख के मैया चिल्या परीं। बे महादेव जू से बोलीं के जा तुमने का करी? अपने मोड़ा को मूंड़ काट दओ? हमाओ इत्तो नोनो मोड़ा। हाय! फेर उन्ने महादेव जू खों गणेश जू के पैदा होबे की किसां सुनाई औ बोलीं के अब तुम अभईं के अभईं ईको फेर के जिन्दा करो ने तो हम अपने प्रान त्याग देबी। जा सुन के महादेव जू घबड़ा गए। उन्ने गणेश जू को मूंड़ ढूंढो के ऊको फेर के जोड़ो जा सके, लेकन मूंड़ ने मिलो तब उन्ने तुरतईं मरे हाथी के बच्चा को मूंड़ काट लओ औ ऊको गणेशजू के धड़ से जोड़ के मंतर पढ़ो। गणेश जू फेर के जी उठे। बाकी अब उनको मूंड़ सूंड़ वारे हाथी को हतो। गणेश जू ने महादेव जू खों परनाम करो और बोले के अब के आपने हमें प्रान दए सो आप हमाए पिता भए। जा सुन के महादेव जू बड़े खुस भए। पार्वती मैया ने तो गणेश जू खों अपने सीने से लगा लओ। काए से के मोड़ा-मोड़ी दिखात में कैसे बी होंए, मताई के लाने सबईं प्यारे होत आएं। पार्वती मैया बोलीं के तुमें हमाओ सबसे प्यारो बेटा मानो जैहे औ तुमाओ नांव सबरे देवताओं से पैले लओ जैहे।
अब तुमई ओरें बताओ के जोन गणेश जू ने अपनी मताई को मान राखबे के लाने अपनो मूंड़ कटा दओ, उनई के रैत भए एक मताई खों बुरौ-बुरौ कओ गओ, जा कित्ती बुरी बात आए।’’ भौजी ने गणेशजू की पूरी किसां सुना के कई।
‘‘जे आजकाल की राजनीति में जो ने होए सो कम आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ऐसी-कैसी राजनीति? का ई के पैले राजनीति ने हती? के जो आज ई टाईप से बाप-मताई की एक कर के ईको राजनीति कै रए?’’ भौजी बमकत भईं बोलीं।
‘‘सई कै रईं। जेई तो हम बिन्ना से कै रए हते के देखों कोन टाईप को गिलावो मचो आए, सबई एक-दूसरे पे गिलावो उछारत-उछारत बाप-मताई लौं पौच गए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बाकी भैयाजी, जित्ती बुरई बतकाव आजकाल राजनीति में चल रई, उत्ती पैले कभऊं नईं रई। हमाई अम्मा बताऊत तीं के बाबू जगजीवन राम औ इंदिरा जू के बीच बरहमेस घमासान छिड़ी रैत्ती, मनो दोई ने एक-दूसरे के लाने कभऊं कोनऊं ऐसी भद्दी बातें ने कईं। ई के कछू बाद की राजनीति तो हमने खुदई देखी, पर अब तो राजनीति को राजनीति कहबे में सरम आऊत आए। जे राजनीति नोंईं कुंजड़याऊ से बी गओ बीतो आए।’’ मैंने कई।   
फेर हम तीनों जने कुल्ल देर जेई सब पे अपनो खून जलाऊत रए।       
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के तनक सो राजनीतिक फायदा के लाने कोऊ के मताई-बाप पे गिलाबो उछारबो अपराध आए के नईं?  
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Wednesday, September 3, 2025

चर्चा प्लस | राजनीति को इतना भी न गिराएं कि मां अपमानित हो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

दैनिक, सागर दिनकर में 03.09.2025 को प्रकाशित  
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चर्चा प्लस 
राजनीति को इतना भी न गिराएं कि मां अपमानित हो
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
                                                             
     हर प्राणी अपनी मां की कोख से ही जन्म लेता है। पिता की पहचान पर एक बार संशय हो सकता है किन्तु मां की पहचान सुनिश्चित रहती है। फिर हम एक मातृदेश के नागरिक हैं। हमारी सभ्यता एवं संस्कृति इस बात की कभी अनुमति नहीं देती है कि मां का अपमान किया जाए। पुत्र प्रेम में स्वार्थी बनी मां कैकयी को भी श्रीराम ने मान दिया था तथा राजसत्ता के अवसर को त्याग कर उनकी इच्छानुसार चौदह वर्ष के वनवास में चले गए थे। महाभारत काल में कर्ण ने मां कुंती के अपराध को जानते हुए भी उनके पांच पुत्रों के जीवन का वचन दिया था। अब इतनी गिरावट क्यों आती जा रही है कि राजनीति के मैदान में एक मां को अपशब्द कहे जा रहे हैं?  
नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। 
नास्ति मातृसमं त्राणं, नास्ति मातृसमा प्रपा।। 
अर्थात मां के समान कोई छाया नहीं, मां के समान कोई आश्रय नहीं, मां के समान कोई रक्षा नहीं और मां के समान कोई जीवन देने वाला नहीं है। 
ऐसी मां के प्रति राजनीतिक लाभ के लिए अपशब्द बोला जाना हमारे सांस्कृतिक पतन का परिचायक है। प्रश्न यह नहीं है कि किस पक्ष ने किस पक्ष को निशाना बनाया, प्रश्न यह है कि एक बेटे ने एक मां को अपशब्द कहने का साहस कैसे किया? मां सबकी एक समान होती है। वह अपनी संतान के प्रति अपना सर्वस्व निछावर कर देती है। नौ माह गर्भ में पालित-पोषित करने के उपरांत अपने प्राणों को दांव पर लगा कर शिशु को जन्म देती है। रात-रात भर जाग कर शिशु का पालन करती है। शिशु की गंदगी भी प्रसन्नतापूर्वक साफ करती है। वह अपनी संतान को अच्छे संस्कार देती है। हर मां यही करती है, चाहे मित्र की मां हो या शत्रु की मां। इसीलिए मां के प्रति अपशब्द कहे जाने का अधिकार किसी को नहीं है। किन्तु कहीं न कहीं जाने अनजाने राजनीतिक स्वार्थ को उस सीमा तक पहुंचा दिया है जहां सभ्यवर्ग और मां-बहन की गाली देने वाले ‘टपोरी’ वर्ग में अंतर मिटता जा रहा है। 

‘‘माता गुरुतरा भूमेः।’’ 
- अर्थात माता इस पृथ्वी से भी कहीं अधिक भारी और श्रेष्ठ होती है।
ऐसी मां के प्रति हल्के शब्द कैसे कहे जा सकते हैं? लेकिन समाज का एक बड़ा तबका अपनी दादागिरी जताने के लिए मां-बहन की गाली देता है। ऐसी गालियां जिन्हें सुन कर कान के पर्दे झनझना जाते हैं लेकिन अनेक औरतें प्रति दिन अपने शराबी पतियों के हाथों पिटती हुईं मां-बहन की गालियां सुनती हैं। उनके बच्चे भी अपने पिता का अनुकरण करते हुए उन गालियों को कंठस्थ कर लेते हैं, दोहराते हैं जबकि उन्हें उन गालियों का अर्थ भी पता नहीं होता है। हम अपने समाज से उन गालियों को तो नहीं मिटा पाए हैं लेकिन उन गालियों के एक नए संस्करण को विस्तार दे दिया जो राजनीतिक हलके में कुछ समय पहले से चलन में आ चुका है। जब कोई बुराई चलन में शामिल होती है तो उसे और अधिक विकृत होते देर नहीं लगती है। इसका उदाहरण प्रधानमंत्री की दिवंगत मां के लिए कहे गए अपशब्द के रूप में सामने आया है। यह आपत्तिजनक है। इसलिए नहीं कि यह प्रधानमंत्री की मां के लिए कहे गए अपितु इसलिए कि एक मां के लिए कहे गए। मां चाहे किसी की भी हो, वह जीवित हो या दिवंगत, उसका सम्मान यथावत एवं यथोचित ही रहना चाहिए। 

हम उस देश के नागरिक हैं जिसे मातृदेश कहा जाता है। अतः जब एक मां को गाली दी जाती है तो वह देश को भी गाली देने के समान है। मां किसकी है यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि जिसे अपशब्द कहे गए वह एक मां (दिवंगत ही सही) है। यूं भी माना जाता है कि मां कभी मरती नहीं है। वह दैहिक रूप से भले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए किन्तु उसका अंश रक्त और मज्जा के रूप में उसकी संतानों में सदैव रहता है। उसका आशीष सदा संतानों के सिर पर रहता है। फिर हम तो उस देश के नागरिक हैं जहां श्रीराम जैसे पुत्र हुए। माता कैकयी ने अपने पुत्र भरत को लाभ पहुंचाने के स्वार्थ में पड़ कर राजा दशरथ के द्वारा श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास दिला दिया। श्रीराम चाहते तो सबसे बड़े पुत्र होने के नाते राजगद्दी पर अपने अधिकार का दावा करते हुए वनवास में जाने से मना कर सकते थे। किन्तु उन्होंने पिता के वचन और सौतेली माता की इच्छा को शिरोधार्य माना और चौदह वर्ष के वनवास पर सहर्ष चले गए।
स्त्री की अवमानना का सबसे धृणित उदाहरण जिस महाभारतकाल में मिलता है, भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण के रूप में, उस काल में भी माता का अपमान नहीं किया गया। माता कुंती की आज्ञा मानते हुए द्रौपदी ने पांच भाइयों की पत्नी बनना स्वीकार किया। वही कुंती माता जब अपने त्यागे गए पुत्र कर्ण के पास अर्जुन के प्राणों की भिक्षा मांगने पहुंचती हैं तो कर्ण सब कुछ जाने हुए भी कि मां के एक कमजोर निर्णय ने उसे आजीवन सूतपुत्र बन कर जीने को विवश किया, मां को निराश नहीं करता है। वह यही कहता है कि मां आपके पांच पुत्र जीवित रहेंगे, यह मैं आपको वचन देता हूंै।’’ वह जानता था कि उसके और अर्जुन के बीच युद्ध अवश्यमभावी है अतः उसमें और अर्जुन दोनों में से जो जीवित रहेगा वह मां के पांच पुत्रों की संख्या को बनाए रखेगा। कर्ण ने भी माता कुंती को अपशब्द नहीं कहा था।  
  
28 अगस्त, 2025 को भाजपा ने बिहार में विपक्षी दलों की ‘‘वोटर अधिकार यात्रा’’ को लेकर को निशाना साधते हुए उनपर गंभीर आरोप लगाए। पार्टी ने दावा किया कि बिहार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी स्वर्गीया मां हीराबेन मोदी के खिलाफ बेहद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया। कार्यक्रम में कांग्रेस नेता राहुल गांधी और आरजेडी प्रमुख तेजस्वी यादव के पोस्टर लगे थे। भाजपा ने सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर पोस्ट करते हुए विपक्षी नेताओं पर राजनीति में निम्न स्तर पर गिरने का आरोप लगाया। भाजपा ने कहा, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की यात्रा के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वर्गीय मां के लिए बेहद अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया। भाजपा ने यह भी कहा कि राजनीति में ऐसी अभद्रता पहले कभी नहीं देखी गई। यह यात्रा अपमान, घृणा और स्तरहीनता की सारी हदें पार कर चुकी है।
भाजपा ने ‘‘एक्स’’ में पोस्ट में आगे लिखा, ‘‘तेजस्वी और राहुल ने पहले बिहार के लोगों का अपमान करने वाले स्टालिन और रेवंत रेड्डी जैसे नेताओं को अपनी यात्रा में बुलाकर बिहारवासियों को अपमानित कराया। अब उनकी हताशा की स्थिति यह है कि वे प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गीय मां को गाली दिलवा रहे हैं।’’
यह विवाद तब शुरू हुआ, जब कांग्रेस के एक स्थानीय नेता नौशाद के नेतृत्व में कांग्रेस और आरजेडी कार्यकर्ताओं ने पीएम मोदी के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया और पार्टी के झंडे लहराए। हालांकि कांग्रेस ने वीडियो और अभद्र भाषा के आरोपों से खुद को अलग कर लिया था। किन्तु भाजपा नेता सैयद शाहनवाज हुसैन ने कहा, ‘‘राहुल गांधी की यात्रा विफल हो रही है, इसलिए इसके लिए उन्होंने कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को फोन करना शुरू कर दिया है। तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी और तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने बिहारियों को गाली दी थी तो उन्हें फोन करके वह बिहार के लोगों को क्या संदेश देना चाहते हैं?’’
इसके बाद एक कदम और आगे बढ़ कर प्रधानमंत्री की दिवंगत मां को अपशब्द कहे गए। इस घटना ने सभी को विचलित कर दिया है। यदि चुनाव विशेषज्ञों का मानें तो इस घटना का चुनाव के परिणामों पर सीधा असर पड़ेगा। इससे उपजी सहानुभूति की लहर विपक्ष को डुबो सकती है। 
इस घटना पर सभी नैतिक मूल्यों की दुहाई दे रहे हैं लेकिन यह भूलने की बात नहीं है कि इसकी शुरुआत पिछले कुछ वर्षों में हो चुकी है। मां चाहे देशी हो या विदेशी, उसकी संतान चाहे योग्य हो या अयोग्य, उसके प्रति भी निरादर का भाव नहीं होना चाहिए। जोकि पिछले कुछ वर्षों में बार-बार छलक कर बाहर आया है। यह सच है कि पलटवार में सीमाएं लांघी गई हैं और किसी भी मां के मातृत्व पर अपशब्द नहीं कहे जाने चाहिए। पुलिस सक्रिय है। जांच जारी है। जांच में परिणाम जो भी सामने आए किन्तु यह तो तय करना ही होगा कि राजनीतिक लाभ की बिसात पर मां की गरिमा को दांव पर नहीं लगाया जाना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से कोई एक प्रदेश मात्र नहीं, वरन पूरा देश, पूरा समाज एवं पूरी संस्कृति लांछित होती है। जब एक प्रधानमंत्री की दिवंगत मां को सार्वजनिक स्थान पर अपशब्द कहा जा सकता है तो आम नागरिक की मां की प्रतिष्ठा को कहां तक सुरक्षित माना जाए? राजनीति की ओर से ऐसी मिसालें स्थापित किया जाना सर्वथा अनुचित है। भारतीय राजनीति से इस प्रकार के आचरण को विलोपित किए जाने पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि -
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत।
 - अर्थात माता का स्थान सभी तीर्थों से भी ऊपर होता है और पिता का स्थान सभी देवताओं के भी ऊपर होता है इसीलिए हर मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता का सदा सम्मान करे। 
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Thursday, August 28, 2025

बतकाव बिन्ना की | परकम्मा करबे की शुरुआत करी ती गणेश जू ने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
परकम्मा करबे की शुरुआत करी ती गणेश जू ने 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     
‘‘काए भौजी, घूम आईं बृंदाबन?’’ मैंने भौजी से पूछी। 
भौजी चार दिनां के लाने मथुरा बृंदाबन खों गई रईं। काए से उनकी बुआ सास मैहर से आईं रईं। बे बृंदाबन जान वारी हतीं सो भौजी को सोई उनके संगे प्लान बन गओ रओ। 
‘‘हऔ बिन्ना! घूम आए कान्हा की नगरी।’’ भौजी खुस होत भईं बोलीं।
‘‘औ आपकी बुआ सास नईं दिखा रईं? का बे उतई रै गईं?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे नईं बे तो उते से बनारस खों निकर गईं। हमसे सोई चलबे की कै रई हतीं, पर हमाए तो उतई गोड़े दुखा गए। ईसे ज्यादा हम नईं चल सकत्ते।’’ भौजी अपने घूंटा पे हात देत भईं बोलीं।
‘‘सो कोन आपखों पैदल जाने रओ? रेल से, ने तो बस से, ने तो कोनऊं टैक्सी में जातीं। सो, हो आने रओ।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘जा बात तुमाई सई आए के बृंदाबन से बनारस लौं हमें निंगत नईं जाने रओ पर बृंदाबन में पांच कोसी परकम्मा कर के तो हमाए गोड़े दुखन लगे हते। आज लौं दुख रए।’’ भौजी फेर के अपनों घूंटा दबात भईं बोलीं।
‘‘आप ने करी पांच कोसी परकम्मा? पांच कोसी मने 15 किलोमीटर निंगो आपने?’’ मोए भौतई अचरज भओ।
‘‘हऔ बिन्ना! ऊ टेम पे सब के संगे कोन पता परो के कित्तो निंग लओ, मनो परकम्मा के बाद रात को खूबई गोड़ दुखे हमाए तो। इत्ते चलबे की अब आदत नईं रई हमाई तो। जेई लाने हमने उनके संगे बनारस जाबे खों मना कर दओ। का पता उते बी बे कोनऊं परकम्मा करान लगें। बाकी आओ बड़ो मजो। परकम्मा करत टेम बिलकुल पतो नई परो। उते तो मुतकी भीड़ रैत आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कै रईं भौजी। अभईं पिछली नौरातें मैं ज्वालादेवी के दरसन के लाने गई रई। उते की छिड़ियंा देख के मोए लगो के मैं चढ़ पैहों के नईं? फेर जब चढ़न लगी तो पतई नई परी के कबे चढ़ गई। अच्छी ऊंची पहड़िया पे बिराजी हैं बे तो।’’ मैंने सोई कई।
‘‘बिन्ना उते हमें कोऊ ने बताओ के जे जो परकम्मा करबे की प्रथा आए जे बृंदाबन की पांच कोसी परकम्मा से शुरू भई रई।’’ भौजी बोलीं।
‘‘जोन ने बताई बा झूठी बताई। होत का आए के अपनी जांगा खों बढ़ा-चढ़ा के बताबे के लाने कछू बी बोल दओ जात आए।’’ मैंने कई।
‘‘सो तुमें कैसे पतो के बा ने झूठी कई?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हमें ऐसे पतो के ई बारे में पुराण में किसां मिलत आए।’’ मैंने कई।
‘‘कैसी किसां?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘आप पैले जे बताओ के पैले गणेशजू भए के पैले कान्हा भए?’’ मैंने भौजी से पूछो।
‘‘गणेशजू पैले भए। बे तो देवता आएं। मनो कान्हा सोई देवता आएं पर बे बिष्णु जी के अवतार रए।’’ भौजी ने कई।
‘‘बस, सो परकम्मा की शुरुआत भई गणेशजू से। औ वा बी महादेव और पार्वती जू के घरे से, सो, जा बृंदाबन से शुरू भई नईं हो सकत। मनो ओई टाईप से सब जांगा कोसी परकम्मा को चलन चल गओ। आप खों तो पतई हुइए के उतईं ब्रज में चैरासी कोस की परकम्मा होत आए जीमें 252 किलोमीटर चलने परत आए। जीमें बरसाना, नंदगांव, मथुरा, बृंदाबन गोवर्द्धन, राधाकुंड बगैरा सबई आ जात आएं।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘हऔ, बा तो हमें पतो , बाकी गणेशजू जी की का किसां आए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘अरे ने पूछो आप, बड़ी मजेदार किसां आए। का भओ के एक दार नारद जू ने सुरसुरी छोड़ दई के इत्ते लौं देवी-देवता आएं के उते धरती पे मानुस हरें समझ ने पात आएं के कोन को नांव पैले लओ जाए। नारद जू को इत्तो कैनो तो के देवता हरें झगड़न लगे के हमाओ नांव पैले लओ जानो चाइए, हमाओ नांव पैले लओ जानो चाइए। जे झगड़ा मिटाबे के लाने महादेवजू ने कई के ऐसो करो के सबरे देवता जे ब्रह्मांड के चक्कर लगा लेओ। जोन सबसे पैले परकम्मा पूरो करहे ओई को पैले पूजो जाहे। ओई को नांव पैले लओ जाहे। सब देवता ईके लाने राजी हो गए। उतई गणेशजू के भैया कार्तिकेय सोई ढ़ाड़े हते। उन्ने सोची के जेई टेम सबसे बढ़िया आए। जो हम ई टेम पे गणेश खों हरा देवें तो हमाओ नांव ईसे पैले लओ जाहे। सो कार्तिकेय ने गणेशजू खों चैलेंज करी। गणेशजू ने चैलेंज मान लओ। सबरे अपने-अपने वाहन पे सवार हो के निकर परे। कार्तिकेय को वाहन हतो मोर, जबके गणेश जू को वाहन चोखरवा। अब जे तो तै रओ के मोर चोखरवा से पैले परकम्मा पूरो कर लैहे।
सब रे देवता औ कार्तिकेय परकम्मा के लाने निकर परे। सब में लग गई रेस। मनो गणेजू तो हते बुद्धि के देवता। उन्ने चतुराई से काम लओ औ अपने मताई-बाप मने महादेव जू और पार्वती जू की परकम्मा कर के ठाड़े हो गए। पार्वती जू ने जा देखो तो बे गणेश जू से पूछ बैठीं के तुम परकम्मा पे काए नईं गए? ईपे गणेशजू ने कई के हमने तो परकम्मा पूरो कर लओ। जा सुन के महादेव जू ने कई के तुम झूठीं काए बोल रए? तुम तो इतई हमाई परकम्मा ले के ठाड़े हो गए, तुम ब्रह्मांड की परकम्मा करबे कां गए? तब गणेश जू ने कई के पिताजी हम झूठ नईं बोल रए। माता-पिता में पूरो ब्रह्मांड समाओ रैत आए, सो हमने आप दोई की परकम्मा कर के पूरे ब्राह्मांड की परकम्मा कर लई। ईमें झूठ का आए? जो सुन के नारद जू मुस्क्यान लगे औ बोले, बिलकुल सई कई। हमें आप से जेई उमींद रई। आपई हो जोन को नांव सबसे पैले लओ जाओ चाइए औ आपई की पूजा सबसे पैले करी जानी चाइए। नारद जूं की बात सुन के महादेव जू सोई मंद-मंद मुस्क्यान लगे। काए से के बे तो पैलई समझ गए रए के नारद जू ने जा सुरसुरी काय के लाने छोड़ी रई। बे समझ गए रए के नारद जू सबसे बुद्धिमान देवता चुनो चात आएं जोन को नाव ले के मानुस हरें अपनो काम बिना कोनऊं बाधा के पूरो कर सकें। 
इत्ते में कार्तिकेय औ बाकी देवता हरें सोई ब्राह्मांड की परकम्मा कर के लौट आए। सबने कई के अब बताओं के हममें से कोन जीतो? नारद जू ने बता दओ के गणेशजू जीते। जा सुने के कार्तिकेय खों खूबई गुस्सा आओ। बे झगड़न लगे। तब महादेव जू ने उने पूरी किसां बताई और गणेशजू की बुद्धिमानी बताई। तब कार्तिकेय सोई मान गए के सबसे पैले नांव जिनको लओ जा सकत आए बे गणेशजू के अलावा औ कोई होई नईं सकत। फेर ब्रह्माजू बोले के सबसे पैली सई परकम्मा गणेशजू ने करी सो अब जेई समै से परकम्मा करे की प्रथा शुरू भई कहानी। 
सो जे रई गणेशजू की परकम्मा की किसां जो सबसे पैली परकम्मा हती। काए से है का के चाए कोनऊं तीरथ कर आओ मनो सई पुन्न तभई मिलत आए जब मताई-बाप खों खुस राखों औ उनकी सेवा करो। एक तो अपने धरती वारे मताई-बाप रैतईं आएं औ देखों जाए तो सबरे देवी-देवता हरें सोई अपने मताई-बाप ठैरे सो उनकी परकम्मा करी जात आए। जोन से जितनी कोस बने।’’ मैंने भौजी खों पूरी किसां सुना डारी।
‘‘जा किसां हमें ने पता रई। जे तो सई में बड़ी मजेदार आए औ नोनी आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘मनो आजकाल तो मताई बाप औ भगवान को मतलबई बदल गओ आए।’’ भैयाजी बोल परे, जो उतईं खटिया पे परे-परे ऊंघ रए हते।
‘‘का मतलब आपको?’’ मैंने पूछी।
‘‘देख नईं रईं। राजनीति वारन के लाने उनको आका मताई-बाप, भगवान सब कछू होत आए। औ कऊं पार्टी ढरक गई तो आका मने भगवान सोई बदल जात आएं। जोन कुर्सी पे बिराजे, बेई भगवान औ बेई मताई-बाप।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे, ऐसों की का कओ भैयाजी, बे तो अगरबत्ती की जांगा बिड़ी खोंस आएं औ कएं के हम अगरबत्ती जला आए। ऐसे लोगन को कोनऊं धरम नईं होत। बे धरम के नांव को भलई खा लेबें, मनो धरम-करम कोन जानत आएं। जेई लाने तो हर बरस गणेशजू पधारत आएं के सबई खों कछू बुद्धि दे दओ जाए। कछू बुद्धि ले लेत आएं औ कछू खाली चंदा खा के अफर जात आएं।’’ मैंने हंस के कई।
भैयाजू सोई हंसन लगे। फेर बे बृंदाबन को अपनो अनुभव सुनान लगे।               
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के बुद्धि के देवता गणेशजू सोई चात आएं के पैले मताई-बाप की सेवा करो, काए से उनकी सेवा करे से भगवानजू खुदई प्रसन्न हो जात आएं। सो बोलो, गणपति बप्पा की जै!!! 
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     गणपति बप्पा मोरया
     फोटो : डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Wednesday, August 27, 2025

चर्चा प्लस | गणपति बप्पा मोरया ! प्रथमपूज्य देवता हैं श्री गणेश | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

पढ़िए  श्री गणेश प्रथम पूज्य कैसे बनें 🙏
चर्चा प्लस  
गणपति बप्पा मोरया ! प्रथमपूज्य देवता हैं श्री गणेश            
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह   
       हिन्दू पूजाविधि में श्रीगणेश की पूजा से ही हर अनुष्ठान आरम्भ होता है। हिन्दू धर्म में श्रीगणेश को कार्य आरम्भ करने का पर्याय माना गया है। यहां तक कि पत्राचार और बहीखाते में भी कई लोग ‘‘श्रीगणेशायनमः’’ लिख कर ही कुछ भी लिखना आरम्भ करते हैं। किसी भी कार्य को आरम्भ करते हुए कहा भी जाता है कि ‘‘श्रीगणेश किया जाए’’। गणेश को विघ्नविनाशक देवता माना गया है अतः कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व यह विध्नहर्ता की प्रार्थना भी आवश्यक है। किन्तु श्रीगणेश ही क्यों प्रथमपूज्य देवता माने गए, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो स्वयं में सर्वशक्तिमान देवता हैं? तो चलिए देखते हैं उन पौराणिक कथाओं को जो यह बताती हैं कि गणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने। ये कथाएं वर्तमान जीवन को भी महत्वपूर्ण सबक देती हैं।
      हिन्दू धर्म संस्कृति में हर शुभकार्य एवं पूजाविधि का आरंभ श्रीगणेश पूजा से ही होता है। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम ‘‘श्रीगणेशाय नमः’’ लिखते हैं। यहां तक कि चिट्ठी और महत्वपूर्ण कागजों में लिखते समय भी ‘‘ऊं’’ या ‘‘श्रीगणेश’’ का नाम अंकित करते हैं। क्योंकि यह माना जाता है कि श्रीगणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। शुभकार्यों के आरंभ एवं पूजन के पूर्व श्रीगणेश पूजा ही क्यों की जाती है? इस संबंध में पौराणिक ग्रंथों में विविध कथाएं मिलती है। 
      एक कथा के अनुसार एक बार सभी देवता इंद्र की सभा में बैठे हुए थे। बात पृथ्वीलोक की होने लगी। तब यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर किस देवता की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए? सभी देवता स्वयं को बड़ा बताते हुए दावा करने लगे कि उनकी पूजा सबसे पहले होनी चाहिए। तब देवर्षि नारद ने हस्तक्षेप किया और सलाह दी कि सभी देवता अपने-अपने वाहन से पृथ्वी की परिक्रमा करें। जो देवता सबसे पहले परिक्रमा पूरी कर लेगा, वही पृथ्वी पर प्रथमपूज्य होगा। देवर्षि नारद ने शिव से निणार्यक बनने का आग्रह किया। सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। विष्णु गरुड़ पर, कार्तिकेय मयूर पर, इन्द्र ऐरावत पर सवार हो कर तेजी से निकल पड़े। जबकि श्रीगणेश मूषक पर सवार हुए और अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। माता पार्वती ने गणेश का यह कृत्य देखा तो उनसे पूछा कि ‘‘गणेश यह तुम क्या कर रहे हो? सभी देवता परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं और तुम हमारी परिक्रमा कर के यही खड़े हो? क्या तुम्हें पृथ्वी का प्रथमपूज्य देवता नहीं बनना है?’’
इस पर गणेश जी ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया,‘‘माता! मैंने आप दोनों की परिक्रमा कर के पृथ्वी ही नहीं अपितु पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर ली है। माता-पिता में ही पूरा ब्रह्मांड समाया होता है। अब मुझे पृथ्वी की परिक्रमा कर के क्या करना है!’’
पुत्र गणेश का उत्तर सुन कर शिव और पार्वती दोनों प्रसन्न हो गए। वे समझ गए कि उनका यह पुत्र सबसे अधिक बुद्धिमान है और एक सबसे बुद्धिमान देवता की पूजा से ही हर कार्य आरम्भ होना चाहिए। तभी सभी देवताओं में कार्तिकेय सबसे पहले लौटा और उसने गर्व से कहा कि ‘‘पिताश्री! मैं पृथ्वी की परिक्रमा कर के सबसे पहले आया हूं अतः अब पृथ्वीवासी सबसे पहले मेरी पूजा किया करेंगे। मैं ही प्रथमपूज्य देवता हूं।’’  
      तब शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘‘हे पुत्र कार्तिकेय, तुम प्रथम नहीं आए हो! तुमसे पहले तुम्हारा भाई गणेश परिक्रमा कर चुका है। वह भी पृथ्वी की ही नहीं वरन पूरे ब्राम्हांड की। अतः यही प्रथमपूज्य होगा।’’ 
कार्तिकेय को यह सुन कर बहुत गुस्सा आया। उसे लगा कि माता-पिता पक्षपात कर रहे हैं। उसने शिव को उलाहना दिया कि ‘‘आप गणेश को इस लिए विजयी कह रहे हैं न क्योंकि वह आपका प्रिय पुत्र है? वह मोटा है और उसका वाहन छोटा चूहा है, इसलिए आपको उस पर दया आ रही है। यही बात है न?’’
यह सुन कर शिव ने पूर्ववत मुस्कुराते हुए कार्तिकेय को समझाया कि ‘‘नहीं पुत्र कार्तिकेय! मैं कोई पक्षपात नहीं कर रहा हूं। मेरे लिए मेरी सभी संतानें समान रूप से प्रिय हैं। तुम तथा अन्य देवता महर्षि नारद का प्रयोजन नहीं समझे जबकि गणेश ने समझ लिया। गणेश जान गया कि नारद बुद्धि की परीक्षा ले रहे हैं, परिक्रमा की गति की नहीं। अतः उसे बुद्धि से काम लिया और मेरी तथा तुम्हारी मां पार्वती की परिक्रमा करते हुए ब्रह्मांड की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त कर लिया। इस प्रकार उसने प्रतियोगिता भी जीत ली।’’
जब कार्तिकेय ने यह विवरण सुना तो वह लज्जित हो उठा और उसने श्रीगणेश को उनकी विजय पर बधाई दी। तब तक सभी देवता परिक्रमा कर के लौट आए थे। उन्होंने भी सर्व सम्मति से बुद्धि के देवता गणेश को प्रथमपूज्य देवता स्वीकार कर लिया।

दूसरी कथा है जो श्रीगणेश के जन्म से जुड़ी हुई है। एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए स्नानघर में प्रवेश करने वाली थीं। किन्तु वहां आस-पास कोई नहीं था जिसे वे द्वार पर पहरा देने का काम सौंपतीं। वे नहीं चाहती थीं कि जब वे स्नान कर रही हों तो कोई आ कर उनके स्नानकर्म में व्यवधान डाले। तब माता पार्वती को एक उपाय सूझा। उन्होंने अपने शरीर के उबटन से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण फूंक कर उसे जीवित कर दिया। प्राण प्राप्त होते ही बालक ने हाथ जोड़ कर पूछा,‘‘मेरे लिए क्या आज्ञा है माता?’’
‘‘तुम इस महल के द्वार पर पहरा दोगे। जब तक मेरा स्नान पूर्ण न हो जाए तब तक किसी को भी महल में प्रवेश मत करने देना।’’ पार्वती ने आज्ञा दी। वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा। 
कुछ देर में भगवान शिव वहां आ पहुंचे। द्वार पर बैठा बालक तो सद्यः जन्मा था अतः शिव अथवा किसी अन्य व्यक्ति के बारे में उसे ज्ञान नहीं था। उसने शिव को महल में प्रवेश करने से रोका। शिव ने उसे सामझाया कि वे इसी महल में रहते हैं और जिस माता की आज्ञा का तुम पालन कर रहे हो वह मेरी अद्र्धांगिनी है।
‘‘तो क्या अर्द्धांगिनी की कोई अपनी इच्छा या प्रतिष्ठा नहीं होती है? यदि वे चाहती हैं कि इस समय महल में कोई प्रवेश न करे, तो उनकी यह इच्छा आप पर भी लागू होती है।’’ उस बालक ने तर्क दिया। यह सुन कर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोधावेश में बालक का सिर काट दिया। तब तक झगड़े की आवाज सुन कर पार्वती द्वार तक आ पहुंची थीं। उन्होंने उस बालक को सिरविहीन देखा तो दुख और क्रोध से भर उठीं।
‘‘यह आपने क्या किया? आपने मेरे पुत्र का सिर क्यों काटा? मेरा पुत्र आपका भी पुत्र हुआ अतः आपने अपने पुत्र का सिर काट कर आप पुत्रहंता बन गए।’’ पार्वती ने कहा।
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि यह हमारा पुत्र है। यह हठ कर रहा था और मुझे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहा था इसीलिए मुझे क्रोध आ गया।’’ शिव ने पार्वती को शांत करना चाहा।
‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती हूं! आप मेरे आज्ञाकारी पुत्र को जीवित करिए, अन्यथा मैं भी प्राण त्याग दूंगी।’’ पार्वती ने शिव को चेतावनी दी।
तब शिव ने हाथी के सद्यःमृत बच्चे के सिर को उस बालक के धड़ से जोड़ दिया जिससे वह बालक पुनर्जीवित हो उठा। सूंड़धारी उस बालक को माता पार्वती ने प्रसन्नता से गले लगा लिया। तब भगवान शिव ने उस बालक का नामकरण करते हुए उसे आर्शीवाद दिया कि ‘‘तुम आज से गणेश, गणपति एवं गजानन, गजवदन आदि नामों से जाने जाओगे और तुम बुद्धि के देवता होने के कारण सभी देवताओं से पहले पूजे जाओगे।’’
   यह सुन कर माता पार्वती का क्रोध शांत हो गया तथा उन्होंने अपने पुत्र गणेश को ‘‘श्रीगणेश’’ कह कर संबोधित किया।

तीसरी कथा इस प्रकार है कि एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनका एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा भगवान शिव को बताई। इस पर शिव ने उन्हें पुष्पक व्रत करने की सलाह दी। पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ का आरम्भ हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ की पुरोहिताई कर रहे थे। 
यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि जिस प्रकार यह यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ है उसी प्रकार आपकी इच्छानुरूप विध्नविनाशक पुत्र आपको प्राप्त होगा। विष्णु से यह आशीर्वाद पा कर माता पार्वती प्रसन्न हो उठीं। यह देख कर सनतकुमार ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘‘मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। पुरोहित हूं। यज्ञ भले ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।’’
‘‘बताइए आपको दक्षिणा में क्या चाहिए?’’ माता पार्वती ने सनतकुमार से पूछा।
‘‘माता भगवती, मैं आपके पतिदेव शिवजी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।’’सनतकुमार ने विचित्र मांग की। 
‘‘ऋत्विक सनतकुमार!, आप एक स्त्री से उसका पति अर्थात् उसका सौभाग्य मांग रहे हैं जो देना मेरे लिए संभव नहीं है। अतः आप कुछ और मांगिए।’’ माता पार्वती ने सनतकुमार की मांग ठुकराते हुए कहा। 
सनतकुमार अपनी मांग पर अड़ गए। पार्वती ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि यदि मैं आपको अपना पति सौंप दूंगी तो मुझे पुत्र की प्राप्ति कैसे होगी? यज्ञ का फल तो उस स्थिति में भी नहीं मिलेगा। अतः आप हठ छोड़ दें। किन्तु सनत कुमार अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब शिव ने पार्वती को समझाया कि ‘‘आप मुझे सनतकुमार को दक्षिणा में दान कर दें और विश्वास रखें कि आपकी इच्छा भी पूर्ण होगी।’’ 
पार्वती सनतकुमार को दक्षिणा में शिव का दान करने ही वाली थीं कि एक दिव्य प्रकाश के रूप में विष्णु प्रकाशित हुए तथा अगले ही पल श्रीकृष्ण का रूप धारण कर के सनतकुमार के सामने आ खड़े हुए। सनतकुमार ने विष्णु के कृष्ण रूप का दर्शन किया और कहा,‘‘मेरी इच्छा पूर्ण हुई अब मुझे दक्षिणा नहीं चाहिए। मैं जानता था कि आपको दान देने से रोकने के लिए विष्णु मेरी इच्छा पूर्ण अवश्य करेंगे।’’
इसके बाद सभी देवता तथा यज्ञकर्ता पार्वती को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए। पार्वती अभी अपनी प्रसन्नता से आनन्दित ही हो रही थीं कि एक विप्र याचक वहां आ गया। उसने खाने को कुछ मांगा। पार्वती ने उसे मिष्ठान्न दिए। उतना खा लेने के बाद वह याचक बोला,‘‘मां अभी भूख नहीं मिटी है, थोड़ा और दो!’’
पार्वती ने और मिष्ठान्न दे दिया। इसके बाद याचक खाता जाता और मांगता जाता। पार्वती उसे खिला-खिला कर थक गईं। उन्होंने शिव से कहा कि ‘‘ये न जाने कैसा याचक आया है जिसका पेट ही नहीं भर रहा है। मैं तो खिला-खिला कर थक गई।’’ 
‘‘कहां है वह याचक?’’ कहते हुए शिव याचक को देखने निकले तो वहां कोई नहीं था। पार्वती चकित रह गईं कि अभी तो वह याचक भोजन की मांग कर रहा था और पल भर में कहां चला गया? तब शिव ने पार्वती को उस याचक का रहस्य समझाया कि वह कोई याचक नहीं बल्कि तुम्हारे उदर से जन्म लेने की तैयार कर रहा गणेश है जो जन्म के बाद लंबोदर कहलाएगा और देवताओं में प्रथम भोग पाने वाला प्रथम पूज्य होगा।’’
ये तीनों कथाएं न केवल अयंत रोचक हैं बल्कि यह बताती हैं कि बुद्धि का उपयोग करने वाला ज्ञानी ही प्रथम पूज्य बनता है। इन कथाओं को मात्र धार्मिक भावना से नहीं, वरन ज्ञान भावना से भी समझने का प्रयास करना चाहिए। बुद्धि ही है जो जीवन में सुख, संपदा और सफलता दिलाती है तथा बुद्धि के देवता हैं श्री गणेश इसीलिए तो वे ही प्रथम पूज्य देवता हैं।   
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(दैनिक, सागर दिनकर में 27.08.2025 को प्रकाशित)  
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Thursday, August 21, 2025

चर्चा प्लस | प्रासंगिकता ‘कोल्हू के बैल’ और ‘थाली के बैंगन’ की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 21.08.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस           
प्रासंगिकता ‘कोल्हू के बैल’ और ‘थाली के बैंगन’ की
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                             कहावतों की दुनिया निराली होती है क्योंकि कहावतें इसी दुनिया से जन्म लेती हैं और दुनिया तो निराली है ही। दो बहुप्रचलित कहावतें हैं-‘‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’। यद्यपि नई पीढ़ी इनके अर्थ रट के भले ही इन्हें जान ले किन्तु उस समय तक इनका व्यवहारिक अर्थ नहीं समझ सकती है जब तक कि इन्हें राजनीति से जोड़ कर न बताया जाए। बस, यही तो खूबी है कहावतों की कि वे कहीं भी फिट की जा सकती हैं इसीलिए उनके मूल संदर्भों के विलुप्ति की कगार पर होते हुए भी उनकी अर्थवत्ता बनी हुई है। तो चलिए परखते हैं ‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’ की अर्थवत्ता एवं प्रासंगिकता को।  
        किसी भी चर्चा के दौरान कहावतें स्वतः वाणी में उतर आती हैं। जैसे कोई व्यक्ति काम बिगाड़ दे तो दूसरा उस पर झल्ला कर यही कहेगा कि ‘‘अकल के अंधे हो क्या? सब गड़बड़ कर दिया।’’ अंधा तो आंख का ही होगा न! जी नहीं, अकल के अंधे भी होते हैं। जब किसी को अकल का अंधा कहा जाए तो वहीं इस एक मुहावरे का प्रयोग खुद-ब-खुद हो जाता है और तगड़े कटाक्ष के सहित। यह जरूरी नहीं है कि हमेशा कटाक्ष के लिए अथवा डांट-डपट के लिए ही मुहावरों या कहावतों का प्रयोग किया जाए। किसी भी संदर्भ में कोई भी कहावत बोली जा सकती है। जैसे किसी की अतिगरीबी को बयान करने के लिए कह दिया जाता है कि ‘‘नंगा धोए क्या और सुखाए क्या?’’ यहां ‘‘नंगा’’ शब्द अति गरीबी का परिचायक है। जिसके पास वस्त्र ही न हो वह कौन से कपड़े धोएगा और, कौन से कपड़े धो कर सुखाएगा? मार्मिक दृश्यात्मकता है। वहीं यदि कह दिया जाए कि ‘‘नंगे से तो भगवान भी डरता है’’ तो यहा ‘‘नंगे’’ से आशय निर्लज्ज, ढीठ, अड़ियल व्यक्ति से होगा। इसीलिए कहावतों या मुहावरों की दुनिया निराली होती है। ये कहावतें जीवन के अनुभवों से जन्मती हैं। लेकिन जीवन जिस तेजी से बदला है उसमें बहुत सी कहावतों के मूल प्रसंग एवं संदर्भ खो गए हैं। जैसे एक कहावत है- ‘‘कोल्हू का बैल’’। अब न पारंपरिक कोल्हू कहीं दिखाई देता न कोल्हू चलाते बैल। बिजली से चलने वाले कोल्हू भी अब इलेक्ट््रानिक रूप ले चुके हैं। कम्प्यूटराइज़्ड जमाने में बैल वाला कोल्हू कहां मिलेगा? नई पीढ़ी और वह भी हिन्दी भाषा एवं साहित्य पढ़ने वाली नई पीढ़ी ‘‘कोल्हू का बैल’’ मुहावरे को रटती है, पर समझ नहीं पाती है। 

युवा पीढ़ी के लिए कई कहावतें अबूझ हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। समय की परिवर्तनशीलता ने अनेक कहावतों के परिदृश्य को लगभग विलोपित कर दिया है। बात चल रही थी ‘‘कोल्हू के बैल’’ की, तो कोल्हू वह विशालकाय यंत्र होता था जो खल और मूसल की भांति लकड़ी का बना होता था। मूसल को चलाने के लिए उसमें लकड़ी का जुआ जोड़ा जाता था जिसे बैल की गरदन पर बांध दिया जाता था। बैल उस जुए को लाद कर खल के चारो ओर गोल-गोल चक्कर काटता था जिससे खल में डाला गया सरसों, मूंगफली या तिल आदि के दाने पिस जाएं और उनसे तैल निकल आए। गोल चक्कर काटते हुए बैल को चक्कर न आ जाए, इसीलिए उसकी दोनों आंखों के बाजुओं में पट्टे बंाध दिए जाते थे ताकि उसे भ्रम हो कि वह लम्बाई में कहीं दूर चला जा रहा है। उस बैल को सुबह से रात तक काम करना पड़ता था। वह भी एक ही स्थान पर गोल-गोल चक्कर काटते हुए। इसीलिए एक ही स्थान पर अथक मेहनत करने वाले जो तैल निकालने जैसा कठिन काम करता है किन्तु मुनाफे में से उसे मात्र चारा-भूसा जैसा परिणाम मिलता है। ऐसे लोगों के लिए इस कहावत का प्रयोग किया जाता है। बस, वे एक भ्रम में चलते चले जाते हैं। जैसे कई कर्मचारी यह भ्रम पाल लेते हैं कि सिर्फ़ उनकी मेहनत से कार्यालय का सारा कामकाज चल रहा है। ऐसे लोग कभी छुट्टियां नहीं लेते, फोकट में ओव्हर टाईम काम करते हैं। उस समय वे यह भूल जाते हैं कि जब वे सेवानिवृत्त हो जाएंगे उसके बाद भी कार्यालय के सभी काम उसी तरह सुचारु चलते रहेंगे। ऐसे कर्मचारी स्वयं को कोल्हू का बैल बना कर प्रसन्न रहते हैं।

 खैर, कर्मचारियों को छोड़िए क्योंकि आजकल मल्टीनेशनल कंपनी का प्रत्येक कर्मचारी कोल्हू का बैल होता है। तो फिर, क्यों न बात की जाए राजनीति की? क्योंकि हर व्यक्ति तो मल्टीनेशनल कंपनी का कर्मचारी होता नहीं है। जबकि हर व्यक्ति राजनीति से कुछ न कुछ सरोकार रखता ही है। चाहे नेता के रूप में हो या मतदाता के रूप में या फिर ट्रोलकर्ता के रूप में। यूं भी राजनीति में खुदमुख़्तारी यानी स्वयं की सत्ता होती है। विरले ही होते हैं जिन्हें ठेल-ठाल कर राजनीति में पहुंचा दिया जाता है अन्यथा अधिकांश तो अपनी बेरोजगारी को ढांपने अथवा सुनहरे भविष्य की मृगमारीचिका को ले कर राजनीति के मैदान में उतर जाते हैं।

अनेक छुटभैये जो जीवनभर अपने प्रिय नताओं के लिए कोल्हू का बैल बने रहते हैं उन्हें भी यही भ्रम होता है कि वे एक दिन राजनीति के कलछौंहे आकाश में चमकते सितारे बन जाएंगे। यही भ्रम उनसे अपने आका का हर आदेश मनवाता है। ये छुटभैये गली-गली घूम कर पोस्टर चिपकाने और अपने आका के जयकारे लगवाने में भी स्वयं की अर्थवत्ता महसूस करते हैं। जैसे कोल्हू का बैल वहीं-वहीं एक वर्तुल या गोले में चक्कर लगाता हुआ भी समझता है कि वह अपने मालिक को साथ ले कर कहीं दूर यात्रा पर निकला है। यही समझ का फेर छुटभैयों को कोल्हू का बैल बनाए रखता है। फिर यदि कुछ को समझ में आ भी जाए तब भी वे सोचते हैं कि कुछ न होने से कुछ दिखने में कोई बुराई नहीं है। अरबों की जनसंख्या में कुछ सैंकड़ा तो यह मान ही लेंगे कि वे छुटभैये अपने आका के निकटतम हैं, खास हैं। इसीलिए तो उन्हें पोस्टर चिपकाने और जयकारे लगाने का काम दिया गया है। वैसे ध्यान से देखा जाए तो भ्रम का सबसे बड़ा लाभ इन्हें मिल ही जाता है। क्योंकि ऐसे लोगों को आका की बैठक में भी प्रवेश की अनुमति नहीं होती है किन्तु वे द्वारपाल की भांति दरवाजे के बाहर मंडराते रहते हैं। जिससे जन्मजात भोली जनता को उनके खास होने का भ्रम हो जाता है। जनता सोचती है कि फलां छुटभैया हमेशा उस बड़े नेता के दरवाजे पर दिखता है यानी वह उस नेता का खास है। नेता से यदि कोई काम है तो पहले उसे खुश करना होगा, पटाना होगा। सो इस तरह छुटभैयों को शुद्ध तैल नहीं तो कम से कम चारा-भूसा मिल जाता है। वे इसी में खुश रहते हैं। जब चुनावों का मौसम आता है तो ऐसे छुटभैयों को दूसरे राज्यों में भी जा कर कोल्हू चलाने का अवसर मिल जाता है, बदले में रोटी-कपड़ा और कुछ पैसे तो मिलते ही हैं।

अब बात करते हैं दूसरी कहावत की- ‘‘थाली का बैंगन’’। छोटे शहरों, गांवों, कस्बों में तो अभी भी गृहणियों को स्वयं सब्जियां काटनी पड़ती हैं, अन्यथा मेट्रो सिटीज़ में कटी-कटाई सब्ज़ियां भी बिकने लगी हैं। जिन्हें खाने की होम डिलेवरी नहीं मंगानी है और घर में कम से कम मेहनत में खाना पकाना है उसके लिए कटी हुई सब्ज़ियां खरीदना एक लुभावना आॅप्शन होता है। मेहनत और अनुभवों से दूर भागने का यह भी एक रूप है। अतः जो साबुत सब्ज़ियां अपने घर में लाते हैं वे थाली में बैंगन को रख कर इस कहावत को चरितार्थ होता देख सकते हैं। बैंगन की बनावट ही ऐसी होती है कि वह थाली में एक स्थान पर नहीं टिक पाता है। थाली ज़रा सी हिली नहीं कि वह इधर से उधर लुढ़क जाता है। उसकी इसी प्रवृति को ले कर ‘‘थाली का बैंगन’’ कहावत बनी। इस कहावत को उन लोगों पर लागू किया जाता है जो जरा सी हलचल में अपनी पाली बदल लेते हैं अथवा अपने वचन से फिर जाते हैं। यदि कर्मचारियों में देखा जाए तो ऐसे कर्मचारी अपने साथियों के सामने अपने बाॅस की बढ़-चढ़ कर बुराई करते मिलेंगे, किन्तु वे ही जब अपने बाॅस के कक्ष में पहुंचते हैं तो बाॅस का गुणगान करते हुए अपने साथियों की बुराइयां गिनाने लगते हैं। फिर भी ‘‘थाली का बैंगन’’ का यदि सही-सही अर्थ समझना है तो राजनीति से बढ़ कर कोई अच्छा उदाहरण हो ही नहीं सकता है। पिछले कुछ वर्षों में थाली के बैंगनों की जो बाढ़ आई वह हम सबने देखी ही है। अनेक बैंगन अर्थात अनेक नेता इस पार्टी से उस पार्टी में लुढ़क गए। जिन्होंने कभी श्रीराम का नाम नहीं लिया, वे भी श्रीराम के अनन्य भक्त हो गए। लेकिन यह बात सिर्फ़ आज की या पिछले कुछ वर्षों की नहीं है, थाली के बैंगनों ने तो लोकतंत्र की नई परिभाषा ही गढ़ दी थी। 

स्वतंत्र भारत में सन् 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में पहले आम चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो सका था। अन्य पार्टियों की कुल सीटें 223 के मुकाबले कांग्रेस को 152 सीटें मिली थीं। तब दक्षिण भारत के दिग्गज नेता टी. प्रकाशम के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया। लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि तत्कालीन राज्यपाल ने सेवानिवृत्त गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। जबकि सी. राजगोपालाचारी विधान सभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद दलबदल का दौर चला और 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस के पक्ष में आ गए। परिणामस्वरूप राजाजी मुख्यमंत्री बन पाए। दलबदल की राजनीतिक प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए राजाजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘दल के सदस्यों का सामूहिक दलबदल लोकतंत्र का सार है। सामूहिक रूप से दलबदल का आधार कई बार निजी स्वार्थों की अपेक्षा दलों और उनके नेताओं का अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है। अगर हम विधायकों की या अन्य सदस्यों की अपना दल बदलने की स्वतंत्रता छीन लें, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति-प्रथा का रूप धारण नहीं करने देना चाहिए, बल्कि इसके लचीलेपन को कायम रखना चाहिए, अन्यथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा।’’
 लगभग साल भर बाद इसी राजनीतिक मंच पर यही नाटक पुनः प्रस्तुत किया गया। टी. प्रकाशम को कांग्रेस की ओर से आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन दिया गया। प्रकाशम ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और मुख्यमंत्री के पद के समक्ष अपने दल को त्यागने की अपनी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ को सुना। यदि अंतरात्मा की आवाज़ के तर्क को स्वीकार किया जाए तो यह भी मानना होगा कि हर बैंगन में अंतरात्मा होती है। होनी भी चाहिए आखिर वनस्पतियों में भी जीवन पाया जाता है। यह बात और है कि एक टूटा हुआ बैंगन जो वस्तुतः जीवन से नाता तोड़ चुका होता है वही थाली में लुढ़कता है, पौधे में लटका हुआ बैंगन कभी, कहीं नहीं लुढ़कता। किन्तु राजनीति के बैंगन तो संजीवनी की आशा में यहां से वहां लुढ़कते हैं। जो कल नास्तिक थे, वे आज घोर आस्तिक हो गए और जो आज आस्तिक हैं वे कल फिर से घोर नास्तिक हो सकते हैं, यदि राजनीतिक परिदृश्य बदल गया तो। 

तो ये थी दो कहावतें ‘‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’। इनकी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता तब तक समाप्त होने वाली नहीं है जब तक समाज और राजनीति से इन्हें प्राणवायु मिलती रहेगी।  
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बतकाव बिन्ना की | कुत्ता की पूंछ घांईं ससुरा की मूंछ, कुत्ता पाल लेओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
कुत्ता की पूंछ घांईं ससुरा की मूंछ, कुत्ता पाल लेओ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

कुत्ता की पूंछ घांईं ससुरा की मूंछ
कुत्ता पाल लेओ....
कुत्ता की पीट घांईं देवरा की छींट
कुत्ता पाल लेओ....

भौजी गारी गाबे में इत्ती मगन हतीं के मोरे उनके लिंगे पौंचबे की उने ऐरों बी ने लगी। 
‘‘का हो रओ भौजी? गारी की प्रेक्टिस चल रई का? मनो अबे ब्याओ को तो कोनऊं महूरतई नईयां।’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘प्रेक्टिस काय की? जे तो जा ठेन कर रईं के अपन ओरें सोई कुत्ता पाल लेवें।’’ भौजी के बदले भैयाजी बोल परे।
‘‘सो का हो गओ? ईमें का बुराई आए? पाल लेओ कुत्ता आप ओरें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, पाल तो लेवें मनो जो हम ओरें कऊं बायरे गए तो ऊ टेम पे ऊकी देखभाल को करहे? तुमाए बस की आए?’’ भैयाजी ने उल्टे मोसे पूछ लओ।
‘‘मोरे बस की होती तो अब लौं पाल ने लेती?’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो हम इने समझा रए कि जे कुत्ता पालबे की हमसे ने कओ। बे आवारा फिरत भए कुत्तन खों तो जे ऊंसईं रोटी देत रैती आएं। अब उने पालबो का जरूरी?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो आप सई कै रए, मनो मोरे जे समझ में ने आई के जे कुत्ता पालबे को आइडिया कां से आओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे ने पूछो, एक तो घरे से बायरे निकरो तो बे कुत्ता झुंड बना के आगूं-पीछूं फिरन लगत आएं औ घरे रओ तो चाए टीवी होए, चाए अखबार कुत्तन की खबरें चल रईं। बेई पढ़, सुन के तुमाई भौजी सनक रईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अच्छा, सो जे बात आए!’’ मैंने कई।
‘‘देखो बिन्ना, हम कछू सोच के कुत्ता पालबे की तुमाए भैयाजी से कै रए।’’ भौजी बोल परीं।
‘‘का सोच के?’’ मैंने पूछी।
‘‘जेई के जे आवारा कुत्ता हरों से पीछा तो छूटने नईयां, सो उने पालई लओ जाए। ईसे का हुइए के जब कुत्तन खों लगहें के जे तो हमाए मालक आएं तो बे हम ओरन खों तो ने काटहें।’’ भौजी बोलीं।
‘‘जा तो ठीक आए भौजी, पर जे बताओ के आप कित्ते कुत्ता पालहो? अपनेई मोहल्ला में दर्जन खांड़ घूमत रैत आएं। इत्ते कुत्तन खों कैसे पालहो? कां से खिलाहो? सब खों सुजी लगवाबे मेंई मुतके पइसा लग जैहें।’’ मैंने भौजी खों प्रेक्टिकल बात याद कराई।
‘‘सो का करो जाए? कुत्तन खों मारो नईं जा सकत। औ मारो बी नईं जाओ चाइए काय से के बे सोई जीव आएं। मनो, बे मरहें नईं तो आवारा फिरहें। औ जो आवारा फिरहें तो कभऊं बी कोनऊं खों काट सकत आएं। फिर तो सुजी टुच्चवाबे के अलावा चारा का हुइए? तुमी बताओ?’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कै रईं आप, बाकी सड़क पे फिरत भए सबरे कुत्ता तो पाले नईं जा सकत। ईके लाने सई तरीका तो जे आए के आवारा कुत्तन के लाने शेल्टर होम बनाओ जाए। उते सबरे आवारा कुत्ता पकड़ के राखें जाएं औ उने उते खाबे-पीबे को दओ जाए।’’ मैंने कई।
‘‘सो को बनवा रओ शेल्टर होम? कैबे में कछू बी कओ जा सकत आए मनो हकीकत में कछू नई होने।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई बात भौजी! अब आपई सोचो के जोन बे मेनका गांधी जू ने कुत्तन खों ने मारो जाबे को कानून तो बनवा दओ, मनो शेल्टर होम ने बनवा पाईं। बे मों चलाबे के बदले शेल्टर होम बनवा देतीं तो अब तक तो सबई जांगा शेल्टर होम बन गए होते।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘तुम बड़ी गुस्सा दिखा रईं मेनका गांधी जू से?’’ भैयाजी ने मोसे पूछीं।
‘‘गुस्सा काए ने आए, बातई गुस्सा करबे की आए।’’मैंने कई।
‘‘का मतलब?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब का? जब से मैंने मेनका जू को बयान पढ़ो, तभईं से मोरो जी सो खौल रओ।’’ मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘मनो ऐसो का हो गऔ?’’ भैयाजी ने पूछीं।
‘‘कोन टाईप के तो बयान देत फिर रईं बे। उनको कहबो आए के पब्लिक खों इत्ते कुत्ता नोईं काट रए जित्ते बताए जा रए। सो मोरो कैबो आए के बाई तनक अपने बंगला से बायरे निकर के पुरा-मोहल्ला में फिर के देखो सो पता परहे। बंगला में बैठ के औ बंद गाड़ी में निकर के असल बात कोन पता परत आए। औ मैं ऊंसई नई कै रई। आप खों याद हुइए के जे कोरोना के पैले मोरी मताई खों एक पगला कुत्ता ने काट लओ रओ। बे तो बिचारी संकारे घूमबे खों निकरी हतीं। मम्मा संगे हते। दोई भैया-बैन घूम रए हते, जेई अपने मोहल्ला में। तभईं मताई खों एक पगला कुत्ता ने पांव में काट लओ रओ। चौहत्तर बरस के मम्मा बेचारे, उन्ने जैसे-तैसे बा कुत्ता खों भगाओ औ मताई खों ले के घरे आए। उन्ने घरे हम ओरन खों बताई, सो हम ओरें सुन के ई डरा गए। आप ई सोचो के अठासी-नमासी बरस की मताई कुत्ता काटे से कित्ती ने डरा गई हुइएं। बे तो जेई बोलीं के अब ई उम्मर में हमें कुत्ता ने काटो आए, अब हम ने बचबी। हम ओरें उने ले के डाक्टर के इते भगे। बा तो डाक्टर साब अच्छे हते जोन ने तुरतईं कछू इंजेक्शन लगाए औ जहर खों बांध दओ। रेबीज को इंजेक्शन को पता करो, सो ऊ टेम पे इते कऊं ने हतो। बा मेडिकल वारे भैया सोई बड़े भले रए। उन्ने तुरतईं भोपाल से इंजेक्शन मंगा दओ। ने तो न जाने का होतो। जे हम ओरन ने खुद भुगतो आए। मेनका जू खों जा सब समझ कोन पर रई।’’ मोए बा दिन याद कर के औ गुस्सा आन लगो। संगे मताई खों याद कर के अंसुवां से आ गए।
‘‘दुखी ने हो बिन्ना! सब कछू पांछू छूट गओ।’’ भैयाजी माए समझान लगे।
‘‘काए खों पांछू छूट गओ? बे बाई जू तो इत्ते पे बी ने रुकी आएं। उनको कैबो आए के रेबीज के पांच इंजेक्शन लगत आएं औ डाक्टर हरें हर इंजेक्शन खों एक केस कै के आंकड़ा दे देत आएं। सो जो कुत्ता काटे के आंकड़ा दए जा रए उनको पांच से भाग दे दओ जाए। औ ई टाईप से बे सात लाख कछू को आंकड़ा बता रईं। चलो एक दार मान लओ जाए के आंकड़ा सात लाख को आए, तो बे सात लाख मानुसों की कछू कीमत नईयां? का बे कुत्ता से कटबे जोग हते? मनो, बे कैबो का चात आएं? ऊपे से दोंदरा जे के शेल्टर होम के लाने प्रस्ताव करो गओ रओ, योजना बनाई गई रई, पर कोऊ ने योजना पूरी ने करी। सो भैयाजी, आपई बताओ के आप की सरकार औ आपई अपनी योजना पूरी ने करवा पाईं तो ईमें उन ओरन को का दोस जोन खों कुत्ता काटत फिर रए?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘बात तो तुमाई सांची आए बिन्ना!’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे हमने तो जे सोई पढ़ी रई के उन्ने कई के जो आवारा कुत्ता ने होंए तो संकट आ जात आएं। चोखरवा बढ़न लगत आएं। मने जे बात हमें बी समझ ने परी के जो ऐसो होतो तो बिदेसों में तो रोड पे कऊं कुत्ता नईं दिखात। मने उते आवारा कुत्ता होतई नइयां। सो, उते तो रोड पे फेर चोखरवाई-चोखरवा फिरत दिखो चाइए।’’ भौजी हंसत भई बोलीं।
‘‘अरे फजूल की बात! बिदेस में तो पाले भए कुत्ता लौं रोड पे नईं फिरा सकत, आवारा की तो बातई छोड़ो। बे खुद बिदेस जात रैत आएं फेर बी ऐसी उल्टी-पुल्टी दे रईं। जे नईं के आवारा कुत्तन के लाने शेल्टर होम बनाबे की ठेन करें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई बताएं तो होने जाने कछू नईयां। चार दिना की बतकाव चलहे फेर फुस्स हो जैहे। मनो अपन ओरन को तो आवारा कुत्तन से छुटकारा मिलहे न। जेई लाने हम सोच रए के उन ओरन खों मनो पालें न तो कम से कम लहटा लेवें, ईसे बे अपन ओरों खों तो ने काटहें।’’ भौजी ने अपनो आइडिया फेर के पेल दओ।
‘‘बाकी भौजी जे बताओ के जो पगला ने हुइए बा दोस्ती निभाहे, औ जोन कोऊं एकाध पगला गओ तो बोई हुइए जोन मोरी मताई के संगे भओ। अब आठ-दस कुत्तन की भीर में कां पता परहे के को साजो आए औ को पगला गओ? मनो आजकाल तो साजे कुत्ता सोई लोगन खों काटत फिरत आएं। छोटे बच्चा हरों के लाने तो सबसे ज्यादा खतरा रैत आए। पर जे बात पुरानी मंत्रानी जू खों समझ परे तब न!’’ मैंने कई।
‘‘जब हमाए-तुमाए सोचबे से कछू नईं बदलो जा रओ तो काय सोच रईं। चलो, मिल के गारी गाएं।’’ कैत भईं भौजी ब्याओ के टेम पे बरातियों की पंगत के इते गाई जाबे वारी गारी फेर के गान लगीं। 
‘कुत्ता पाल लेओ
 कुत्ता की पूंछ घांई ससुरा की मूंछ, कुत्ता पाल लेओ...’’ मैंने सोई सुर में सुर मिला दओ। 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के आवारा कुत्तन से कब लौं कटने परहे? ईकी कछू व्यवस्था हुइए के नईं?     
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Thursday, August 14, 2025

बतकाव बिन्ना की | आजादी की पैली क्रांति अपने बुंदेलखंड में भई रई | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
आजादी की पैली क्रांति अपने बुंदेलखंड में भई रई
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘काए बिन्ना, सबई जने जेई कैत आएं के सबसे पैले 1857 में क्रांति भई रई, जबके हमने कऊं पढ़ो रओ के ईसे पैले तो अपने बुंदेलखंड में क्रांति भई रई। सो ऊको पैलो काए नईं कओ जात आए?’’ भैयाजी अपनों मूंड़ खुजात भए बोले। बड़े टेंशन में दिखा रए हते बे।
‘‘आप सांची कै रए भैया जी! 1857 से पैले तो 1842 में अपने इते बुंदेलखंड में भौतई बड़ी क्रांति भई रई, जोन को ‘बुंदेला क्रांति’ कओ जात आए।’’ मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘सो बा कोन ने करी हती? मने 1857 वारी तो मंगल पांडे ने सुरू करी, बा वारी कोन से सिपाई ने करी हती?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बा क्रांति कोनऊं सिपाई ने सुरू ने करी हती, बा तो राजा मधुकरशाह जू ने करी हती। बाकी पैले आप जो जान लेओ के बुंदेला क्रांति के कारण का हते। वैसे ईको बुंदेला विद्रोह कै-कै के ईको इंप्वार्टेंस कम कर दओ जातो आए। मनो जे कोनऊं ऊंसई बिद्रोह ने रओ, पूरी क्रांति भई रई।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘तो भओ का रओ?’’ भैयाजी ने पूछी। उने कोन पतो रओ।
‘‘भओ जे के अंग्रेजन ने एक तो लगान बढ़ा दओ औ ऊपे सल्ल जे के जोन लगान ने चुका पात्तो ऊकी जमीन हड़प लई जात्ती। मने सीदे कओ जाए तो जमीन हड़बे के लानेई लगान बढ़ाओ गओ रओ। उने पता रई के इते के किसान गरीब आएं सो बे लगान चुका ने पाहें। फेर इत्तोई नईं, अंग्रेजन ने का करी के जोन जमीदारों खों लगान वसूलबे को अधिकार दओ रओ उने ऊमें से हींसा कम दओ जान लगो। ईसे जमीदारों की दसा दूबरी हो गई। औ जे जो दीवानी मुकदमा की तारीखें बढ़ा-बढ़ा के पेरबे को चलन आए, बा सोई अंग्रेजन के टेम से सुरू भओ। मने कोऊ अपनी जमीन के लाने मुकदमा करे औ दो-चार पीढ़ियन लौं फंदा में लटको रए। सो जे दसा देख के बुंदेला राजा हरें खौलन लगे। उनें दबाने के लाने अंग्रेजन ने नारहट वारे मधुुकरशाह बुंदेला औ जवाहर सिंह बुंदेला के लाने अदालत में डिक्री दे के उनकी जायदाद जब्त करबे की धमकी दई। ईके विरोध में मधुकरशाह बुंदेला औ अंग्रेजन के सिपाइयन में झड़प भई जीमें कछू सिपाई मारे गए। जेई के संगे क्रांति सुरू हो गई। ईमें मधुकर शाह को साथ दओ जैतपुर के राजा परिच्छित, हीरापुर के राजा हिरदेश शाह, चिरगांव के जागीरदार राव बसंत सिंह, झींझन के दीवानराव बसंत सिंह, नरसिंहपुर के डिलनशाह ने। मनो कछु स्वारथ वारे इते बी हते जिने बाद में समझ में आई के बे का गलती कर बैठे। मनो ऊ टेम पे तो राजा मधुकर शाह को साथ न दे के, उल्टे उने धोखे से पकरवा के भारी गलती करी रई।’’ मैं बता रई हती भैयाजी खों के बे बोर परे।
‘‘हैं? कोन ने पकरवा दओ मधुकरशाह जू खों?’’ मनो भैयाजी को झटका सो लगो।
‘‘अरे एक गद्दार रओ, बाकी मधुकरशाह जू को साथ ने दे के अंग्रेजन को साथ देबे वारों में शाहगढ़ के राजा बखतवली, बानपुर के मर्दनसिंह और चरखारी रियासत वारे रए। मनो 1857 लों उने सोई समझ में आ गई रई के बे गलत पाले में जाके ठाड़े हो गए रए। सो, उन ओरन ने 1857 वारी क्रांति के टेम पे रानी लक्षमीबाई को साथ दओ रओ। पर 1842 के टेम पे जो इन ओरन ने मधुकरशाह जू को साथ दओ रैतो तो इते को इतिहास कछू और होतो।  सागर, दमोए, जबलपुर, मंडला, नरसिंहपुर औ बैतूल लौं में अंग्रेज सरकार को विरोध होन लगो रओ। सागर में खुरई, खिमलासा, धामोनी, नरयावली औ सागर सहर में लूटपाट मचीं। नरसिंहपुर के डिलनशाह गौड़ ने देवरी औ नरसिंहपुर के लिंगे अंग्रेजन के नाक में दम कर दओ। हीरापुर से जबलपुर लौं हिरदेशाह जू ने अंग्रेजन की खिंचाई करी। देखत-देखत कछू समै के लाने जो भओ के नरसिंहपुर, सागर औ जबलपुर के भौत बड़े इलाका से अंग्रेजन को कब्जा छूट गओ रओ। ओई समै पे बेलगांव के़ जुुद्ध में जैतपुर के राजा परिच्छित ने अंग्रेजों को हरा दओ रओ। मनो अपने इते को इतिहास तो गद्दारन के मारे बिगड़त रओ। सो जेई भओ के हिरदेशाह जू पकरे गए। बाकी अंग्रेज कर्नल स्लीमैन के कए पे बाद में उने छोड़ दओ गओ रओ। लेकन अंग्रेज तो ई क्रांति के मुखिया मधुकरशाह जू खों पकरो चात्ते। एक गद्दार ने उनकी जा इच्छा पूरी कर दई। जबे मधुकरशाह एक के घरे सुस्ताबे के लाने सो रए हते तो बा गद्दार ने चुप्पे से अंग्रेजन खों खबर कर दई। सो मधुकरशाह जू पकरे गए। उने खुल्लेआम फांसी दे दई गई। आपको पतो के उनकी समाधि सागर की जेल में अबे लों पाई जात आए?’’ मैंने क्रांति की किसां सुनात भए भैयाजी से पूछी।
‘‘नई हमें नई पतो! मनो जे तो गजबई आए के हम इतई रैत आएं औ हमें नई पतो के सागर की जेल में मधुकरशाह जू की समाधि आए। हम तो जाबी दरसन करबे।’’ भैयाजी तनक इमोशनल होते भए बोले।
‘‘मैं सोई संगे चलबी। बाकी जो आपके लाने ई बारे में पतो नईयां सो ईमें आपको कोनऊं दोस नइयां। काए से के जा सब पढाओ जाए, बताओ जाए, तब तो पता परे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना! बाकी जो जब इत्ती बड़ी क्रांति हती तो ईको बिद्रोह काए कओ गओ? जे बात अब बी हमें समझ में ने आई।’’ भैयाजी सोचत भए बोले।
‘‘कछू नईं भैयाजी, बात इत्ती सी आए के पैले इते को इतिहास अंग्रेजन ने लिखों, फेर अंग्रेजन के पिट्ठुअन ने लिखो सो जेई लाने ईको बिद्रोह कै दओ गओ औ 1857 की क्रांति खों गदर कै दओ गओ। कैबे को तो जा कओ जात रओ के अंग्रेजन के राज में कभऊं सूरज नईं डूबत, सो इते उनको सूरज कछू जांगा, कछू समै के लाने डुबो दओ गओ रओ। जे भौत बड़ी बात रई। जो सबने साथ दओ रैतो औ गद्दारी ने करी गई होती तो सबसे पैले जो अपनो बुंदेलखंड आजाद भओ रैतो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना, जे सब बातें हमें पता नईं रईं। हमने तो बा 1857 वारी क्रांति भर पढ़ी रई।’’ भैयाजी अफसोस करत भए बोले।
‘‘हऔ, पैले इतिहास में इत्तो ज्यादा नईं पढ़ाओ जात रओ। अब तो स्कूल के सिलेबस लौं में बिद्रोह के नांव से बुंदेला क्रांति सामिल आए। बाकी, ईको क्रांति कओ जाओ चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘सई बात। बाकी अब तो हमें मधुकरशाह जू की समाधि पे दरसन करने जाबे की भौतई इच्छा हो रई। कल नईं तो परों, हम जरूर जाबी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘वैसे भैयाजी, आप जानत आओ के मोए राजनीति से कछू लेबो-देबो नईं रैत आए, मनो जो काम अच्छो करो जाए ऊकी तारीफ करे में मोए तनकऊं सकोच नई होत आए।’’ मैंने कई।
‘‘मने?’’ भैयाजी ने पूछी। 
‘‘मने जे के ई सरकार ने एक बड़ो अच्छो काम करो के आजादी की लड़ाई में उन ओरन को बी इतिहास लिखबाओ जोन के बारे में कोनऊं खों पतो ने हतो। मने गली-मोहल्ला के तो जानत्ते, बाकी औ बायरे कोऊ ने जानत्तो। ‘‘अनसुंग हीरोज आफ इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल’’ योजना के तरे जो काम कराओ गओ। जा सांची में भौतई बड़ो काम कराओ गओ आए।’’ मैंने भैयाजी खों बताओ।
‘‘सई बताएं बिन्ना! जा बुंदेला क्रांति के बारे में जान के हमाओ सीना चैड़ो भओ जा रओ। सो आजादी की बरसगांठ पे तुमाए लाने खूब-खूब बधाई।’’ भैयाजी मगन होत भए बोले। 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के हमाई आप ओरन खों बी आजादी की बरसगांठ पे खूब-खूब बधाई पौंचे! बंदेमातरम!      
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Wednesday, August 13, 2025

चर्चा प्लस | मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता प्राप्त हो गई किन्तु इसके साथ ही विभाजन का दंश भी मिला था जिसने हर भारतीय की आत्मा को झकझोर दिया था। ऐसे समय में देश के नागरिकों में राष्ट्र के प्रति उत्साह की नवीन ऊर्जा का संचार करना आवश्यक था। यह याद दिलाना जरूरी था कि स्वतंत्रता प्राप्ति की एक बड़ा लक्ष्य पा लिया है किन्तु अब नवीन राष्ट्र को नए सिरे से स्थापना देने के लिए सबको जुटना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘‘राष्ट्रधर्म’’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। अब आवश्यकता थी राष्ट्रधर्म का सच्चा अर्थ समझने वाले संपादक की।
          अटल बिहारी वाजपेयी में राजनीतिक समझ, साहित्यिक प्रतिभा और लेखन की प्रभावी कला थी। उनकी ये विशेषताएं एक न एक दिन उन्हें सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंचाने वाली थीं। अटल बिहारी यदि चाहते तो वे तत्काल सफलता प्राप्त करने का कोई छोटा रास्ता भी चुन सकते थे किन्तु वे किसी भी ‘शाॅर्टकट’ में विश्वास नहीं रखते थे। उनका उस समय भी मानना था कि ‘‘जो श्रम करके प्राप्त किया जाए, वही सुफलदायी होता है और स्थायी रहता है।’’ कर्म के प्रति आस्था रखने वाले अटल बिहारी ने श्रम का मार्ग चुना। वे जनसेवक बनना चाहते थे। दिखावे के जनसेवक नहीं, वरन् सच्चे जनसेवक। वे जनता के सहभागी बन कर काम करना चाहते थे, जनता से दूर रह कर नहीं। उनकी यह अभिलाषा उनके भाषणों और लेखों में मुखर होती रहती। अतः जब पं. दीनदयाल उपाध्याय को एक पत्रिका प्रकाशित करने का विचार आया तो प्रश्न था कि उस पत्रिका का संपादक किसे बनाया जाए? क्योंकि पं. दीनदयाल स्वयं संपादन का भार ग्रहण नहीं करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में उन्हें सबसे पहला नाम अटल बिहारी का ही सूझा।
सन् 1946 में स्वतंत्रता संग्राम अपनी चरम स्थिति पर जा पहुंचा था। सन् 1947 के आरम्भिक महीनों में अंग्रेज सरकार को भी समझ में आ गया था कि अब उनके भारत से जाने का समय आ गया है। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया किन्तु इससे पहले देश के बंटवारे का दंश देश की आत्मा को घायल कर चुका था।
बंटवारे से उपजा अविश्वास का वातावरण फन फैलाए था। ऐसे में सौहार्द स्थापित किया जाना आवश्यक था। इसी विकट समय सभी दुरूह प्रश्नों के उत्तर जन-जन तक पहुंचाने के लिए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने समाचारपत्र को माध्यम बनाने का निश्चय किया और सन् 1947 में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ की स्थापना की थी जिसके अंतर्गत क्रमशः स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित हुए।
‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरम्भ करने से पूर्व आवश्यकता थी एक अत्यंत योग्य संपादक की, जो पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को भली-भांति समझते हुए पत्रिका को सही स्वरूप प्रदान कर सके। चूंकि दीनदयाल उपाध्याय स्वयं संपादक पद पर रह कर बंधन स्वीकार नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपने का निर्णय किया। उपाध्याय जी ने अटल बिहारी को लखनऊ बुला दिया। अटल बिहारी ने भी ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादन का भार सहर्ष स्वीकार कर लिया।  

राजधानी लखनऊ के राजेंद्र नगर स्थित आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल में राष्ट्रधर्म का काम शुरू हुआ था। सन 1947 में अटल बिहारी वाजपेयी ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के पहले संपादक बने। देश स्वतंत्र होने के बाद राष्ट्रवाद की अलख जगाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना के अनुसार प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका में लेखन और फिर उसकी छपाई का काम शुरू हुआ था। उस दौर में ट्रेडइल और विक्टोरिया फ्रंट जैसी छोटी मशीनों में पत्रिका और अखबारों की छपाई का काम होता था। धीरे-धीरे करके यह काम अटल जी के नेतृत्व में आगे बढ़ा और उनके नेतृत्व में लोगों को राष्ट्रवाद के विचार मिलने शुरू हो गए। राष्ट्रधर्म में लेखन और उसके वितरण का काम अटल बिहारी वाजपेयी खुद करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ को अपने धर्म की भांति सम्हाला। वे समाचार लिखते थे, लेख लिखते थे, संपादकीय लिखते थे और छपने के बाद उसे हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए लखनऊ की गलियों में साइकिल से भी राष्ट्रधर्म बांटने का काम भी किया करते थे। उनकी इस विशेषता को पहचानते हुए ही दीनदयान उपाध्याय ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए जब संपादक के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को चुना उस दौरान मनोहर आठवले ने उनसे पूछा कि ‘‘आप राष्ट्रधर्म के लिए संपादक ढूंढ रहे थे, कोई मिला कि नहीं?’’
इस पर दीनदयाल उपाध्याय ने संतोष भरे स्वर में उत्तर दिया कि ‘‘मैंने ‘राष्ट्रधर्म’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है।’’
फिर जैसे ही दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी का नाम लिया तो मनोहर आठवले के मुख से निकला,‘‘उत्तम चयन!’’
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और 31 अगस्त 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला. स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक 16वें दिन राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला था अतः उसे विशिष्ट होना ही था। अटल जी ने अपनी कविता ‘‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन, हिन्दू रग-रग, हिन्दू मेरा परिचय’’ को राजधर्म के प्रथम अंक में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया। कविता के प्रथम दो बंद थे-
हिन्दू तनदृमन, हिन्दू जीवन, रगदृरग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षारदृक्षार।
डमरू की वह प्रलयदृध्वनि हूँ, जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दुर्गा का उन्मत्त हास।
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ मे घहर-घहर, सागर के जल मे छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

तथा, कविता के अंतिम दो बंद थे -
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर मे नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज।
मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तनदृमन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दू सब कुछ इसके अर्पण।
मै तो समाज की थाति हूँ, मै तो समाज का हूं सेवक।
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

यद्यपि यह प्रथम अंक निकालना भी कोई आसान काम नहीं था। पहले अंक की 3500, दूसरे अंक की आठ हजार और तीसरे अंक की 12000 प्रतियां निकली थीं। पत्रिका लोकप्रिय हुई, प्रसार बढ़ा, पाठक बढ़े किन्तु इसी के साथ काम भी बढ़ गया। अटल जी को अपने ही हाथ से कंपोजिंग करना रहता था और राष्ट्रधर्म के बंडल साइकिल पर लेकर उनको बांटने के लिए जाना पड़ता था। इतनी विषम परिस्थिति में अटल जी काम करते थे। किन्तु उनकी इसी जीवटता के कारण इस युवा संपादक की पहचान पूरे देश में स्थापित हो गई थी।
अटल बिहारी के संपादन में ‘राष्ट्रधर्म’ ने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर ली। उनके संपादकीय लेख लोग रुचि से पढ़ते। समाचारपत्र की प्रसार संख्या और प्रशंसकों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा एवं डाॅ. रामकुमार वर्मा भी अटल बिहारी के संपादकीय लेखों के प्रशंसक थे। ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक 31 अगस्त, 1947 को प्रकाशित हुआ। पाठकों द्वारा इसका भरपूर स्वागत हुआ। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने आगे चल कर न केवल अटल बिहारी वाजपेयी वरन् वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र तथा राजीवलोचन अग्निहोत्री जैसे महानुभावों को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित किया। इसी के साथ ‘राष्ट्रधर्म’ का वह उद्देश्य भी पूरा हुआ जिसके लिए इसका प्रकाशन आरम्भ किया गया था। उद्देश्य था राष्ट्रवासियों के मन में उत्साह संचार करना एवं नवीन लक्ष्यों की ओर ध्यानआकर्षित करना ताकि एक सृदुढ़ स्वतंत्र भारत आकार ले सके।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 13.08.2025 को प्रकाशित)  
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