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Dr Sharad Singh |
जब कोई कवयित्री काव्य पाठ करने के लिए मंच पर खड़ी होती है तो प्रत्येक श्रोता की यही धारणा होती है कि यह स्त्री है इसलिए यह कविता तरन्नुम में ही पढ़ेगी। गोया स्त्री के लिए गाना अनिवार्य हो। इसी प्रकार की पूर्वाग्रही धारणाएं स्त्री-लेखन की सीमाएं तय करने लगती हैं। ये सीमाएं हैं ....
1. लेखिकाओं को मुख्य रूप से स्त्रियों के बारे में ही लिखना चाहिए। गोया लेखिकाएं पुरुषों के बारे में समुचित ढंग से नहीं लिख सकती हों। जबकि पुरुषों के बारे में लेखिकाएं क्या सोचतीं हैं, यह स्त्री-लेखन का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष होता
2. स्त्री-लेखन को प्रिय: शील और अश्लील की अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। "उफ उसने इतना खुल कर कैसे लिख दिया?" भले ही लेखिका आत्मकथा लिख रही हो। स्त्री के प्रति पूर्वाग्रह भरा दृष्टिकोण यहां भी आड़े आने लगता है।
3. जहां तक पूर्वाग्रह का सवाल है, कई बार कुछ लेखिकाओं की कुंठा अथवा पारिवारिक दबाव भी अपनी सहधर्मी लेखिकाओं के लेखन पर अनावश्यक उंगली उठा कर उन्हें हतोत्साहित करने लगता है।
.....इस विषय पर शेष चिंतन अगली कड़ी में।