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Tuesday, November 15, 2022

पुस्तक समीक्षा | सुदृढ़ सद्भाव किन्तु कमज़ोर शिल्प की कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 15.11.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक एस. एम. अली के कहानी संग्रह "रंग गुलाल" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
सुदृढ़ सद्भाव किन्तु कमज़ोर शिल्प की कहानियां
      समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह  - रंग गुलाल
लेखक       - एस. एम. अली
प्रकाशक     - इंक पब्लिकेशन, 333/1/1के, नया पुरा, करेली, प्रयागराज-211016
मूल्य        - 200/-
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 कहानी कहना और कहानी लिखना दोनों में शिल्प महत्वपूर्ण होता है। यदि कहानी कही यानी सुनाई जा रही है तो उसमें स्वर का उतार-चढ़ाव, स्वराघात, भावभंगिमा, हाथों का संचालन आदि तत्व कहानी में दृश्यात्मकता का संचार करते हैं। वहीं, यदि कहानी लिखी गई हो और उसे पाठक पढ़ रहा हो तो पाठक के लिए वह शिल्प आवश्यक हो जाता है जो देशकाल का बोध कराता हुआ कथानक के मर्म से जोड़े रखे। ऊपरीतौर पर कहानी लिखना या कहना बहुत सरल प्रतीत होता है किन्तु कहानी की शिल्प संरचना में बरती गई असावधानी कथानक के स्वरूप को भी आघात पहुंचाती है। लेखक एस.एम. अली का कहानी संग्रह ‘‘रंग गुलाल’’ इसका एक ऐसा उदाहरण है जो नवोदित कथाकारों को सचेत करने के लिए सामने रखा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लेखक अली सामाजिक सद्भावना, समरसता और मानवता के प्रति सजग हैं। संग्रह में संग्रहीत उनकी चैबीस कहानियां मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत हैं। वे अपनी प्रत्येक कहानी में एक उत्साही कथाकार की भांति घटनाक्रम पिरोते चले जाते हैं। उनकी इन कहानियों में अगर कुछ खटकता है तो वह शिल्प और देशकाल का बोध।
कहानी गद्य साहित्य की सबसे लोकप्रिय और रोचक विधा है। कहानी साहित्य की वह गद्य रचना है जिसमें जीवन के किसी एक पक्ष या एक घटना का कथात्मक वर्णन होता हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहानी में प्रवाह को महत्व माना था। उनके अनुसार, ‘‘नदी जैसे जलस्रोत की धार है, वैसे ही कहानी के लिए घटनाक्रम का प्रवाह हैं।’’ वस्तुतः कहानी अपेक्षाकृत कम शब्दों में जीवन की किसी एक घटना या किसी एक पक्ष को लिखा गया कथानक होता है। उपन्यास और कहानी के अंतर को स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद ने कहा था कि ’’कहानी ऐसी रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना लेखक का उद्देश्य रहता है। उसे उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथाविन्यास सभी उसी एक भाव से पुष्ट करने होते हैं।’’
लेखक एस.एम. अली की कहानियों के गुण-दोष पर दृष्टिपात करने से पूर्व उनके प्राक्कथन पर ध्यान देना आवश्यक है। लेखक ने अपनी लेखकीय प्रतिबद्धता के बारे में लिखा है कि ‘‘जहां तक मेरे लेखन लिखने की प्रेरणा का प्रश्न है, मैं पूर्ण आश्वस्त हूं कि ये मुझे गाॅड गिफ्ट है। बचपन से ही मेरा लालन-पालन प्रगतिशील विचारधारा के अंतर्गत हुआ है। दकियानूसी विचारधारा मेरे परिवार मंे भी कोसों दूर है।’’ लेखक ने आगे लिखा है कि ‘‘देश-प्रेम, गंगा-जमुनी तहज़ीब, ग़रीबों के प्रति सहानुभूति, जीवन में ईमानदारी इन सभी चीजों से मुझे विशेष लगाव रहा है। आप इन चीजों का कहानियों में समावेश देख सकते हैं। मैंने अपनी सम्पूर्ण ज़िन्दगी का अनुभव कहानियों में दिखाने का प्रयास किया है।’’
6 जनवरी 1947 को जन्मे एस.एम.अली का यह प्रथम कहानी संग्रह है। उनके प्राक्कथन के बाद जब कहानियों का क्रम आरम्भ होता है तो उनके शब्द ‘‘गाॅड गिफ्ट’’ सहसा याद आ जाते हैं। यह माना जाता है कि ईश्वर या ख़ुदा (या चाहे जिस नाम से पुकारें) ने मनुष्य को बनाया है। ईश्वर मनुष्य को शिशु के रूप में जीवन का उपहार देता है। शिशु अपनी शैशवावस्था से आगे बढ़ते हुए लगभग प्रतिदिन नए अनुभवों को अपनी स्मृति और व्यवहार में संजोता जाता है। वह संस्कार, व्यवहार, परिवेश आदि से सीखता हुआ स्वयं को परिष्कृत करता है और ‘‘गाॅड गिफ्टेड’’ स्वयं के जीवन को संवारता है, परिपक्व बनाता है। लेखक एस.एम.अली मानते हैं कि उन्हें ‘‘लेखन लिखने’’ की प्रेरणा ऊपरवाले ने दी है, किन्तु उस प्रेरणा को सार्थक स्वरूप देना उनका दायित्व कहा जाएगा। उनके इस संग्रह की पहली कहानी ‘‘रंग गुलाल’’ से ही इस बात का अनुमान हो जाता है कि लेखक वाक्यों की काल संरचना को ले कर असावधान है। कहानी के दूसरे पैरे का यह अंश देखिए-‘‘गांव के गरीब तबके के लोग शहर जा कर मजदूरी करते हैं। पार्वती भी गांव के लोगों के साथ मजदूरी करने शहर आ जाती है। शहर के आउट-एरिया में दस-पंद्रह आमों के वृक्ष लगे थे। गंाव के लोगों के साथ ही पार्वती ने भी आमों के वृक्ष के नीचे पतली-पतली लकड़ियां गाड़ कर, पलास के पत्तों से ढंक कर झोपड़ी बना ली थी।’’ इस अंश में ‘‘दस पंद्रह आमों’’ के ‘‘वृक्ष’’ को (जो कि आम के दस-पंद्रह वृक्ष होने चाहिए थे) अनदेखा कर दिया जाए तो भी पार्वती ‘‘शहर आ जाती है’’ के समयबोध के तुरंत बाद ‘‘झोपड़ी बना ली थी’’ समयदोष उत्पन्न करता है। ‘‘झोपड़ी बना ली थी’’ के पूर्व ‘‘शहर आ गई थी’’ होना चाहिए था। इस प्रकार का व्याकरण दोष लगभग हर कहानी में मौजूद है, जो बहुत खटकता है। एक ऐसा लेखक जो कहानी लेखन के प्रति गंभीरता से संलग्न हो और अपनी आयु के अनुरूप दीर्घ जीवनानुभव से समृद्ध हो, उसकी कहानियों में व्याकरण दोष को रेखांकित करना अटपटा प्रतीत होता है। किन्तु इसे रेखांकित किया जाना आवश्यक है क्योंकि अब ये कहानियां पुस्तक के रूप में पाठकों और नवोदित रचनाकारों के हाथों में हैं। इन कहानियों के शिल्प का अनुकरण करने वालों को इस व्याकरणीय दोष को समझना ही होगा।
भाषा भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम होती है और शैली उस अभिव्यक्ति को प्रभाव और स्वरूप प्रदान करती है। एक प्रभावशाली कहानी में सरल एवं बोधगम्य भाषा का सर्वाधिक महत्व होता है। यद्यपि जयशंकर प्रसाद की संस्कृतनिष्ठ भाषा अपने देशकाल के कारण बोधगम्य साबित होती है। काल और पात्र की यथार्थ अभिव्यक्ति के लिए भाषा में स्वाभाविकता आवश्यक है। प्रेमचन्द की कहानियों का प्रभाव पाठको पर इसीलिए पड़ता है कि उनकी भाषा उनके कथापात्रों के अनुरूप है। भाषा को समर्थ और संप्रेषणीय बनाने के लिए शब्दों का सर्तकतापूर्ण   चयन आवश्यक हो जाता है। एक कुशल लेखक अपनी प्रभावी शैली से सामान्य कथानक को भी महत्वपूर्ण बना देने की क्षमता रखता है।
कहानी की संरचना के आधारभूत तत्वों को ध्यान में रख कर देखा जाए तो लेखक एस.एम.अली की कई कहानियां लेखकीय भ्रम में रची हुई प्रतीत होती हैं। वैसे कहानी संग्रह ‘‘रंग गुलाल’’ की कुछ कहानियां सशक्त बन पड़ी हैं, जैसे- ‘‘अंतिम इच्छा’’, ‘‘पैग़ाम’’, ‘‘वतन की ख़ुश्बू’’। कहानी ‘‘राम घाट’’ भी एक अच्छी कहानी है। इस कहानी का प्रत्येक घटनाक्रम बड़े धैर्य के साथ आगे बढ़ा है और अंत भी रोचक है। कहानी ‘‘भ्रम का माया जाल’’ भी एक सशक्त कहानी है। यह कहानी उन लागों को धिक्कारती है जो स्वार्थसिद्ध करने के लिए समाज में जाति और धर्म के अलगाव की बातें करते हैं। ऐसे स्वार्थी लोग किसी भी धर्म विशेष के लोगों को बुरा ठहराने से नहीं चूकते हैं। वे जानते हैं कि जब दो समुदाय आपस में टकराएंगे तो उन्हें अपराध करने का भरपूर अवसर मिलेगा और वे अपने अपराध को धार्मिक वैमनस्य के आड़ में छिपा लेंगे। बकरी के खोने जाने की घटना के बहाने लेखक ने एक संवेदनशील विषय पर रोचक ताना-बाना बुना है। यह कहानी लेखक एस.एम.अली के लेखकीय कौशल को सामने रखती है। जबकि संग्रह की शीर्षक कथा ‘‘रंग गुलाल’’ में कथानक का मूलभाव उस तरह स्पष्ट नहीं हो सका है जैसा कि हो सकता था। कहीं-कहीं शब्दिक दोष भी पात्र के चरित्र को समझने में बाधा बना है। जैसे कहानी ‘‘चीखें’’ एक अत्यंत मार्मिक कहानी है जिसमें वर्तमान पीढ़ी के द्वारा अपने माता-पिता की अवहेलना का वर्णन है। कथा के मुख्य पात्र लल्लन बाबू अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद निरंतर अपने बेटे-बहू के हाथों उपेक्षा झेलते रहते हैं। शारीरिक कष्ट से उत्पन्न उनकी चींखें सुनने की फ़ुर्सत किसी को नहीं है। इस कहानी का अंत अपने पीछे यह संदेश छोड़ जाता है कि अपने बुजुर्गों के साथ युवाओं को इस तरह दुव्र्यवहार नहीं करना चाहिए। किन्तु इसी सशक्त कहानी में खीर में कंकड़ की भांति प्रयुक्त हुआ है ‘‘तल्ख़ी’’ शब्द। इसे समझने के लिए यह अंश देखिए-‘‘लल्लन बाबू का शरीर डील-डौल से भारी-भरकम है। हंसमुख रहना उनके स्वभाव की विशेषता रही है, पर जब से पत्नी का स्वर्गवास हुआ है तो वे हंसते तो हैं, पर अब उनकी हंसी में पहले जैसी तल्ख़ी नहीं रही।’’ अब यहां ‘‘हंसमुख’’ स्वभाव और हंसी में ‘‘पहली जैसी तल्ख़ी’’ का प्रयोग करके लेखक क्या कहना चाहता है, यह समझना कठिन है। क्योंकि ‘‘तल्ख़ी’’ फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘‘कड़वाहट’’ या ‘‘चिड़चिड़ापन’’।
‘‘बाबा की दुआ’’ और ‘‘दैवीय कृपा’’ कहानियों को पढ़ते समय एक बार फिर प्राक्कथन के वे शब्द याद आ जाते हैं जिसमें लेखक ने स्वयं को प्रगतिशील विचारधारा का समर्थक और दकियानूसी विचारों का विरोधी कहा है। दीवार गिरने पर बाबा की दुआ से पत्नी की जान बच जाना, प्राक्कथन के प्रति ‘‘कंट्रास्ट’’ पैदा करता है। वहीं ‘‘दैवीय कृपा’’ में पिता की बीमारी की ख़बर पा कर शीघ्रता में बिना टिकट ट्रेन पर सवार हो जाना और फिर टिकटचेकर को अपनी समस्या से अवगत कराना वह घटना है जिसके पक्ष में टीसी बेटिकट यात्री के रूप में उसे पकड़ता नहीं है। जिस मानवता के आधार पर टीसी उसे छोड़ देता है, उसी मानवता के कारण सहयात्री उसकी आगे की टिकट कटा देते हैं। किन्तु लेखक ने इसे दैवीय कृपा ठहराते हुए अपने ही प्राक्कथन के शब्दों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। रहा प्रश्न शब्द चयन का तो एक गड़बड़ी इसी कहानी में देखी जा सकती है जब लेखक ने रेलवे स्टेशन का वर्णन करते हुए लिखा है-‘‘ट्रेन का पहला हाॅर्न बज चुका था। राकेश ने गेट पर खड़े टीसी को बताया-‘सर, मेरा जाना बहुत जरूरी है।’ अब गाड़ी का दूसरा हाॅर्न बज चुका था, तीसरे हाॅर्न के साथ ही गाड़ी रेंगने लगी थी।’’ यहां विचारणीय है कि रेल के साथ सीटी अथवा व्हिसिल का प्रयोग किया जाता है ‘‘हाॅर्न’’ का नहीं। रेलगाड़ी पर एक प्रसिद्ध फिल्मी गाना भी है-‘‘गाड़ी बुला रहा है, सीटी बजा रही है।’’
कहानी संग्रह ‘‘रंग गुलाल’’ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि लेखक एस.एम.अली में कथालेखन का उत्साह है। वे स्वस्थ सामाजिक परिवेश की कहानियां लिखने में रुचि रखते हैं। बस, कमी है तो शब्दों के सही प्रयोग, समयसूचक निर्दोष वाक्य संरचना और स्वतः आकलन की। यदि लेखक ने स्वयं अपनी कहानियों को एक बार समीक्षात्मक दृष्टि से पढ़ा होता तो उसमें ये त्रुटियां नहीं रहतीं जो उनके लेखन को कमजोर की श्रेणी में धकेल रही हैं। फिर भी लेखक की लेखकीय प्रतिबद्धता को देखते हुए यह आशा की जा सकती है कि उनका अगला कहानी संग्रह शिल्प की दृष्टि से भी सशक्त रहेगा। वैसे कथावस्तु की दृष्टि से यह संग्रह भी पठनीय माना जा सकता है।     
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Tuesday, November 1, 2022

पुस्तक समीक्षा | मानवीय संवेदनाओं को मुखर करता दोहा संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 01.11.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई गीतकार डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के दोहा संग्रह "आशीषों के मेह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मानवीय संवेदनाओं को मुखर करता दोहा संग्रह
- समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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काव्य संग्रह  - आशीषों के मेह
लेखक      - डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक    - जनशक्ति प्रकाशन, आर 2/29,रमेश पार्क, गुरुद्वारा रोड, लक्ष्मीनगर, दिल्ली-92
मूल्य       - 350/-
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डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने अपनी वर्षों की काव्य साधना के दौरान अब तक विविध विधाओं के कई काव्य संग्रह पाठकों को दिए हैं। यह काव्य संग्रह -‘आशीषों के मेह’ उनका दोहा संग्रह है। दोहा साहित्य का एक बहुत पुराना छन्द है। सदियों से यह छन्द अलग-अलग युगबोध और भावों को अभिव्यक्ति देता रहा है। भक्ति के दोहे, वीर रस के दोहे, नीतिपरक दोहे, श्रृंगार के दोहे आदि के रूप में दोहा लोक-काव्य में समा कर कालजयी विधा बनता गया। दोहा हिन्दी भाषा के साथ-साथ लगभग सभी भारतीय भाषाओं में प्रचलित हैं। कबीर के दोहे, तुलसी के दोहे, रहिम के दोहे भारतीय जन मानस में बसे हुए हैं। परम्परागत हिन्दी मुक्तक काव्य में दोहा अकेला ऐसा छन्द है जो अपनी लघुता तीक्ष्णता और सम्प्रेषणीयता के कारण जनमानस में सदैव लोकप्रिय बना रहा है। इसका प्रमुख कारण यही है कि दोहे ने समय के साथ-साथ अपने कथ्य को बदला है। ‘दोहा छन्द’ के रचना विधान अथवा अनुशासन के नियम दोहाकार को मानने पड़ते हैं अन्यथा न तो उसकी रचना को ‘दोहा’ कहा जाएगा और न ही उसे ‘दोहाकार’। संस्कृत वांग्मय के अनुसार ‘दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्‘ अर्थात जो श्रोता व पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है । दोहे की दों पंक्ति में ‘गागर में सागर’ जैसे भाव भरा होता हैं । दोहा एक मुक्तक छंद है इसलिये दोहा में बिना पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती प्रसंग के एक ही दोहा में पूर्ण अर्थ और चमत्कार को प्रकट किया जाता है । दोहे में भाव को इस प्रकार पिरोया जाता है कि उसका कथ्य इने दो ही पंक्तियों में पूर्ण अर्थ देता हो, इनके अर्थ की सार्थकता के लिये और पंक्ति की आवश्यकता न हो । दोहे में शब्दों का चयन इस प्रकार होना चाहिये के वह जिस अर्थ के लिये लिखा जा रहा हो वही अर्थ दे।
काव्य में छांदासिकता का अपना अलग महत्व है। काव्य में छंद के प्रयोग से पाठक या श्रोता के हृदय में सौंदर्य बोध की गहरी अनुभूति होती है। छंद में यति , गति के सम्यक का निर्वाह से पाठक को सुविधा होती है। छंदबद्ध कविता को सुगमता से कंठस्थ किया जा सकता है। छंद से कविता में सरसता, गेयता के कारण अभिरुचि बढ़ जाती है। मानवीय भावनाओं को झंकृत कर उसके नाद सौंदर्य में वृद्धि करता है। जहां तक बात ‘आशीषों के मेह’ के दोहों की है, तो इसमें संकलित सभी दोहे न केवल ‘दोहा छन्द’ के रचना विधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं, अपितु दोहे के रूप में अपनी प्रभावी क्षमता और दोहाकार की साहित्य साधना को भी मुखर करते हैं। वस्तुतः छंदों के कठोर बंधन में बंधी दोहा शैली देखने में जितनी सरल व सहज प्रतीत होती है लेखन में उतनी ही जटिल व दुरुह होती है। डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने दोहों की दो-दो पंक्तियों में अपार भाव सम्पदा का समावेश कर गागर में सागर भरने श्रमशील प्रयास किया है।
डाॅ. सीरोठिया के दोहे जहां शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं वहीं लक्ष्य-संधान की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। उन्होंने अपने दोहों में अपार भाव सम्पदा का समावेश कर गागर में सागर भरने की कोशिश की है। डाॅ. सीरोठिया इन दोहों में युगीन विसंगतियों व विकृतियों के विरुद्ध अपना आक्रोश दर्ज करवाते हैं परंतु उनकी आवाज में न तो क्रोध है और न ही नारेबाजी। सामाजिक, पारिवारिक व मानवीय संबंधों के मध्य कड़वाहट व बिखराव के प्रति उनकी पीड़ा भी इन दोहों में प्रकट हुई है लेकिन वे इससे निराश नहीं हैं, वे सकारात्मक भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं। लोकचेतना, संघर्ष और प्रेम उनके दोहों के मुख्य स्वर हैं। उनके दोहों का मूल धर्म अपने समय, समाज और स्वयं से संवाद है। अनुभूति की प्रामाणिकता व अभिव्यक्ति की सात्विकता डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया के सृजनकर्म के आधार हैं। वे सहानुभूति को स्वानुभूति के स्तर पर ले जाकर लिखते हैं। उनके दोहों में आत्मीयता, सांसारिकता, भावबोध, युगबोध के साथ ही आध्यात्म का सुंदर स्वर है। कुछ उदाहरण देखें-
हमको  मन  के  अक्ष से ,  दिखे  दिव्य संसार।
भला-बुरा, सत-असत सब, इस जीवन का सार।।
भले   साथ  कोई  नहीं,  लक्ष रहें  व्यवधान।
किन्तु  अडिग  संकल्प हों तो मंज़िल आसान।।

डाॅ. सीरोठिया आदिकालीन प्रसंगों को अपने दोहों में पिरोते हुए जीवन के लिए आवश्यक आचरण का बहुत सहज ढंग से आग्रह करते हैं-
रण में अर्जुन,  कर्ण है, माता  हुई  अधीर।
वध हो चाहे किसी का, होय पृथा को पीर।।
रुक जाओ, जब भी कभी, प्रथा रोकती राह।
परम्पराओं  की   करो,  आदर से परवाह।।
वृथा कभी जाती नहीं, निश्छल मन की टेर।
सुनते  दीनदयालु  हैं,  भले लगे कुछ देर।।

आज के संवेदनहीन समय में डाॅ. सीरोठिया के दोहे जन-मन में संवेदना को बचाने की एक सार्थक पहल करते दिखाई देते हैं। वे परस्पर मन के उद्वेगों को जानने और परखने का आग्रह करते हैं तथा संसार की नश्वरता का स्मरण कराते हैं-
मुख पर आती भंगिमा, कहे हुदय की बात।
प्रीति, कपट, छल, बैर है या निछल सौगात।।
जीवन क्षण भंगुर कहें, सभी सनातन धर्म।
किन्तु मोह जाता नहीं, कब समझेंगे मर्म।।

डाॅ. सीरोठिया के कवि-मन ने इस बात का उलाहना भी दिया है कि आज के समय में धनबल के प्रयोग से अयोग्य व्यक्ति सम्मान पाता है और योग्य व्यक्ति ठगा-सा खड़ा रह जाता है। ठीक वहीं, वे इस बात का भरोसा भी दिलाते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्थाएं सदा नहीं रहती हैं। अंधकार के बाद प्रकाश अवश्य आता है-
संस्कार से हीन भी , रहे अगर अभिजात।
पा जाता सम्मान की, सामाजिक सौगात।।
दिनकर को संवृत करे, जब भी काले मेह।
किसी तरह उजयार पर, मत करना संदेह।।

यूं तो डाॅ. सीरोठिया का दोहा संग्रह अपने समग्र दोहों के साथ प्रस्तुत है किन्तु उनके दोहों की बानगी देना जरूरी-सा लग रहा है जिससे इस संग्रह का पाठक इन दोहों की भावभूमि से स्वयं को जोड़ कर इनका भरपूर रसास्वादन कर सके। इसी तारतम्य में कुछ और दोहे यहां देना समीचीन होगा-
मिले सभी को देश में, कुछ मौलिक अधिकार।
किन्तु रहे  कर्तव्य का,  नीति परक व्यवहार।।
बना रहे हैं धर्म को, कौलिक निज व्यापार।
ठगी जा रही भावना, बढ़े नित्य व्यभिचार।।
भौगोलिक सीमा रखे, सदा देश का मान।
सीमाओं से  देश की, बनती है  पहचान।।

कवि पाठकों को मन के अंदर झांकने की अनुमति भी प्रदान करता है। कवि ने निःसंकोच भाव से उन्मुक्त होकर अपने मन के भावों को गढ़ा है। इन कविताओं में बनावट नहीं है। इस संगह में  कवि ने ईश्वर की आराधना, प्रार्थना और उससे जुड़ी अपेक्षाओं को स्थान दिया है। इसमें सामाजिक शिक्षा और प्रेरणा के भाव हैं।
छांव पिता की हो घनी, मां की ममता गोद।
जीवन सुखमय है यही, मिलता यहीं प्रमोद।।
देर उदासी को करे, हो जब कहीं विनोद।
सकारात्मक सोच से, जीवन  में  आमोद।।
कृत्य बुरे जो भी करें, दुख पाते हैं लोग।
बनता है प्रभुकृपा से, सदकर्मों का योग।।

डाॅ. सीरोठिया ने अपने दोहों में जिस तरह कोमलता और स्निग्धता को अपनाया है, वह मन को एक अनूठी रसात्मकता से सिक्त करने में सक्षम है। उन्होंने दोहा छन्द को बखूबी साधा है। उनकी शैली में तरलता और सरलता दृष्टिगोचर होती है तथा उनके कथ्य माधुर्य को प्रतिध्वनित करते हैं। संतुलित शब्द चयन के साथ ऐसा प्रवाहपूर्ण, सहज  दोहा सृजन आजकल बिरले ही देखने को मिलता है। इस दृष्टि से उनका दोहा संग्रह ‘‘आशीषों के मेह’’ मानवीय संवेदनाओं को मुखर करता छांदासिक रसबोध का एक बेहतरीन संग्रह है।                  
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Tuesday, October 18, 2022

पुस्तक समीक्षा | "मेरे बाद" : जासूसी और रोमांच के एक | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 18.10.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक मुकेश भारद्वाज के उपन्यास "मेरे बाद" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 
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पुस्तक समीक्षा
"मेरे बाद" : जासूसी और रोमांच के एक नए अंदाज़ से भरा उपन्यास 
    समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास   - मेरे बाद
लेखक    - मुकेश भारद्वाज
प्रकाशक   - यश पब्लिकेशंस, 1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य      - 299/-
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पेशे से प्रखर पत्रकार और अपनी बेलौस ओर बेख़ौफ़ राजनीतिक टिप्पणियों के लिए विख्यात मुकेश भारद्वाज का जब मर्डर मिस्ट्री वाला जासूसी उपन्यास ‘‘मेरे बाद’’ प्रकाशित हुआ तो सभी का चौंकना स्वाभाविक था। उनके द्वारा जासूसी थ्रिलर लिखे जाने ने जिज्ञासा जगा दी कि आखिर किस मिस्ट्री को उन्होंने अपने उपन्यास में सामने रखा है और किस तरह से इसका ताना-बाना बुना गया होगा? जासूसी उपन्यासों की एक पाठक और एक साहित्यिक समीक्षक दोनों रूप में मेरी भी यही जिज्ञासा थी। जब मैंने कुल 272 पृष्ठों का यह उपन्यास आद्योपांत पढ़ा तो मुझे लगा कि मुकेश भारद्वाज जासूसी उपन्यास के पाठकों की नब्ज़ पकड़ चुके हैं। उन्होंने जिस कोण से इस उपन्यास के कथानक को बुना है वह उनकी लेखकीय क्षमता के प्रति कायल कर देता है। 
21 वीं सदी के दूसरे दशक में पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह जासूसी उपन्यास फिर से साहित्य के बाज़ार में अपनी जगह बनाने लगे हैं उसे देखते हुए, हिन्दी में जासूसी उपन्यासों का दौर एक बार फिर शुरु होता दिखाई देता है लेकिन आज जासूसी उपन्यासों के सामने अनेक चुनौतियां हैं। सत्तर-अस्सी के दशक तक मुद्रित रूप में ही जासूसी कथानक सहज उपलब्ध रहते थे लेकिन आज के दौर में जब ओटीटी के बूम का दौर चल रहा है, जासूसी, थ्रिलर, सस्पेंस और मर्डर मिस्ट्री हाई डेफिनेशन डिजिटल प्रजेंटेशन के साथ हमारी आंखों के सामने चलित रूप में मौजूद हैं। जो दर्शक ओटीटी पर नहीं हैं उनके लिए न्यूज़ चैनल्स सहित तमाम प्रकार के चैनल्स पर एक न एक कार्यक्रम अपराध पर आधारित परोसा जाता है। यह सब मिल जाता है उसी कीमत के अंदर जो ओटीटी या पेड टीवी के लिए चुकाना पड़ता है। दूरदर्शन के फ्री-टू-एयर चैनल्स भी इससे अछूते नहीं हैं। वे भी जानते हैं कि आम इंसान मर्डर मिस्ट्री और जासूसी जैसे विषय में गहरी दिलचस्पी रखता है। इस कठिन दौर में यदि कोई जासूसी उपन्यास लिखता है तो उसके सामने (यदि इब्ने शफी के उर्दू और जेम्स हेडली चेईज़ के अंग्रेजी उपन्यासों के हिन्दी रूपांतरों को छोड़ दिया जाए तो) सुरेन्द्र मोहन पाठक और ओमप्रकाश शर्मा के समय का अनुकूल वातावरण नहीं है। इससे पहले गोपाल राम गहमरी ने जासूसी दुनिया को मुद्रण में लाया था। गोपाल राम गहमरी जो एक उपन्यासकार तथा पत्रकार थे, वे 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के ‘‘जासूस’’ नामक पत्रिका निकालते रहे। उन्होंने स्वयं 200 से अधिक जासूसी उपन्यास लिखे। यूं तो गोपाल राम गहमरी ने कविताएं, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध और साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया, लेकिन उन्हें प्रसिद्धि मिली उनके जासूसी उपन्यासों से। यदि गौर करें तो देवकीनन्दन खत्री का ‘‘चंद्रकान्ता’’ उपन्यास हिन्दी के शुरुआती जासूसी उपन्यासों गिना जा सकता है। सबसे पहले इसका प्रकाशन सन 1888 में हुआ था। यह लेखक का पहला उपन्यास था। यह उपन्यास अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था और तब इसे पढ़ने के लिये बहुत लोगों ने देवनागरी-हिन्दी भाषा सीखी थी। यह पूरा उपन्यास तिलिस्म और ऐयारी अर्थात् जासूसी पर आधारित था। लेकिन उस समय से अब तक आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। आज सिनेमा, टेलीविजन और इंटरनेट के कारण मर्डर मिस्ट्री वाले जासूसी साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले पाठक को फायरआर्म्स की अच्छी-खासी जानकारी रहती है। एक सामान्य-सी लगने वाली मर्डर मिस्ट्री में पाठक को मिस्ट्री जैसा अनुभव हो तभी लेखन सार्थक हो सकता है। मुकेश भरद्वाज ने एक साधारण सी लगने वाली मर्डर मिस्ट्री में जिस तरह जासूसी का छौंका लगाया है, उससे उनका उपन्यास जासूसी के ‘एक नए फ्लेवर’ के रूप में हमारे सामने आता है।
     रहस्य और रोमांच से भरे किसी जासूसी उपन्यास का कथानक पूरी तरह बता कर उसके प्रति लेखकीय अपराध नहीं किया जा सकता है। उचित यही होता है कि पाठक स्वयं उसे पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़े और समूची जासूसी प्रक्रियाओं के साथ स्वयं को जासूस का हमराह अनुभव करे। बहरहाल, इस उपन्यास के बारे में उसकी खूबियों की चर्चा तो की ही जा सकती है। उपन्यास का पहला अध्याय एक ऐसे व्यक्ति से जोड़ता है जो अपने गले में फांसी का फंदा डाल कर आत्महत्या करने को तत्पर है। इस पात्र की मनोदशा को ले कर लेखक ने कोई छिपाव नहीं रखा है। मृत्यु के पूर्व जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों की याद आना और उन्हें याद करते हुए किशोर वशिष्ठ नामक इस पात्र की आत्महत्या की इच्छा का बलवती होता जाना, इस प्रथम अध्याय के अंत तक ही पाठक को संशय में रखता है कि किशोर वशिष्ठ सचमुच आत्महत्या कर रहा है या नहीं? यहीं से पाठक उपन्यास के नाम का आशय ताड़ जाता है कि ‘‘मेरे बाद’’ किशोर वशिष्ठ की मनोदशा से उपजा है। प्रथम अध्याय के अंतिम पैरा में इस संशय का एक झटके में अंत हो जाता है कि किशोर आत्महत्या करेगा या नहीं, जब वह अपनी मृत पत्नी के फुलकारी दुपट्टे से बने फांसी के फंदे पर झूल जाता है। प्रथम अध्याय समाप्त होते ही पाठक सोच में पड़ जाता है कि अब इसके बाद क्या? इसमें मिस्ट्री कैसी? एक इंसान आत्महत्या करने की मनोदशा पर पहुंचता है और फांसी के फंदे पर लटक जाता है। एक साधारण ओपन एण्ड शट केस।
दूसरे अध्याय में उस व्यक्ति से पाठकों का परिचय होता है जो प्राइवेट जासूस है और होमीसाईड एक्सपर्ट है। नाम है अभिमन्यु। यह दिलफेंक है और चरित्र से जेम्सबांड से कम नहीं है। सुरा और सुन्दरी उसे हर पल आकर्षित करती है। दूसरे अध्याय के अंत तक वह पात्र भी सामने आ जाता है जिसका नाम नंदा है जो पेशे से अधिवक्ता है, अभिमन्यु का दोस्त है और मृतक किशोर वशिष्ठ के आर्थिक मामलों का वकील है। किशोर की अंतिम वसीयत नंदा के पास है। तीसरे अध्याय में उस समय कथानक एक धमाके के साथ बूस्ट करता है जब अभिमन्यु संदेह प्रकट करता है कि किशोर की मौत आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या है।
   किशोर की दो संताने हैं- बेटा प्रबोध और बेटी गुलमोहर। दोनों माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध प्रेमविवाह द्वारा अपना परिवार बसा चुके हैं, फिर भी आर्थिक रूप से अपने पिता पर निर्भर थे। भाई-बहन दोनों अपने पिता से अलग हो कर उनके द्वारा बनाए आलीशान घरों में ही रह रहे थे। पिता और संतानों के बीच भीषण टकराव था। पत्नी की मृत्यु के बाद अकेले पड़ गए किशोर को अपनी केयरटेकर रागिनी से सहारा मिलता है। रागिनी का किशोर के जीवन में महत्व इसी बात से समझ में आ जाता है कि वह अपनी अंतिम वसीयत में अपनी करोड़ों की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा और अपनी महलनुमा कोठी रागिनी के नाम लिख जाता है। रागिनी से इस घनिष्ठता के बावजूद ऐसा क्या मसला था जिसने 74 वर्षीय करोड़पति किशोर को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया या फिर जासूस अभिमन्यु के अनुसार उसकी हत्या की गई।
      इस उपन्यास में अनेक पात्र हैं जो उचित समय पर अपनी उपस्थिति देते हैं। इनमें एक पात्र है रागिनी की बेटी तो दूसरी दिल्ली पुलिस स्पेशल होमी साईड इंवेस्टिगेशन डिवीजन की जांचकर्ता पुलिसवाली सबीना सहर। इनके अलावा वकील अमरकांत, डीएसपी संजय माकन, हवलदार मेहरचंद, मृतक किशोर की बहू और प्रबोध की पत्नी इरा आदि। देखा जाए तो इसे एक ‘‘थ्रिलर ज्यूडीशियल नावेल’’ भी कहा जा सकता है, लेकिऩ इसमें ‘‘कोर्टरूम ड्रामा’’ नहीं है इसलिए इसे ‘‘मर्डर मिस्ट्री विथ लीगल थ्रिलर’’ यानी कानूनी रोमांच के साथ हत्या की रहस्य की श्रेणी में बेझिझक रखा जा सकता है। यूं भी कानूनी दांवपेंच किसी अस्त-शस्त्र से कम नहीं होते हैं। वे निर्दोष को बचा सकते हैं तो मार भी सकते हैं, वे दोषी को सज़ा दिला सकते हैं तो बचा भी सकते हैं। इस तरह के दंावपेंच से भी इस उपन्यास में सामना होता है। इस तरह अपने आप जासूसी का एक त्रिकोण पाठक के सामने आ जाता है जिसके एक कोण में आरोप पक्ष का वकील है तो दूसरे कोण में बचाव पक्ष का वकील और तीसरे कोण में प्राइवेट जासूस। यह त्रिकोण बारमूदा त्रिकोण से कम रोमांचकारी नहीं है। इसमें वकीलों के कानूनी-गैरकानूनी दांवपेंच, पुलिस प्रशासन में मौजूद भ्रष्टाचारी और हत्या या आत्महत्या में से क्या?- इस बात का ग़ज़ब का सस्पेंस है। यह उपन्यास महानगरों के धनसम्पन्न परिवारों में कम होती नैतिकता और मूल्यहीनता को भी खुल कर सामने रखता है। पाठक देखता है कि आमतौर पर अनुचित माने जाने वाले दैहिक संबंधों से किसी को भी परहेज नहीं है या फिर पानी की तरह मदिरा का सेवन किया जाना एक आम बात है। जहां इस तरह का स्वच्छंद और एक हद तक उच्छृंखल वातावरण हो वहां हत्या अथवा आत्महत्या जैसी आपराधिक मनोवृत्ति के बीज का पाया जाना स्वाभाविक है।
बहरहाल, इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है कि यह बड़े ही रोचक ढंग से अनेक कानूनी मुद्दों की जानकारी दे डालता है, जैसे वसीयत को लागू कराने में लीगल एक्जीक्यूटर की भूमिका, हालोग्राफिक वसीयत आदि। यह एक ऐसा जासूसी उपन्यास है जो किसी भी पैरा पर पाठक को बोझिल नहीं लगता है और उपन्यास के अंतिम पैरा के अंतिम वाक्य तक अपने सम्मोहन में बांधे रखता है। रहस्य, रोमांच और मर्डर मिस्ट्री पसंद करने वालों के लिए एक नायाब उपन्यास है। इसे पढ़ने वालों को लेखक मुकेश भारद्वाज के आगामी जासूसी उपन्यास की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी क्योंकि जासूस अभिमन्यु की गहरी छाप दिल-दिमाग पर बनी रहेगी और बना रहेगा जासूसी के उस नएपक्ष का आनन्द जो इस उपन्यास को अन्य जासूसी उपन्यासों से अलग और विशेष बना देता है।     
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Tuesday, October 11, 2022

वृत्तचित्र समीक्षा - इतिहास को जीवंत करता एक आख्यान है वृत्तचित्र ‘‘आद्या’’ - समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

वृत्तचित्र समीक्षा
इतिहास को जीवंत करता एक आख्यान है वृत्तचित्र ‘‘आद्या’’
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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वृत्तचित्र    - आद्या
संकल्पना   - डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय
निर्माता    - श्रीसरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय ट्रस्ट सागर
प्रस्तुति    - फिल्मेनिया लाइट कैमरा एक्शन, सागर
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यूं तो इस काॅलम में मैं हमेशा पुस्तकों की ही समीक्षा करती हूं किन्तु जब किसी वृत्तचित्र की प्रस्तुति एक पुस्तक की भांति शोधपूर्ण, महत्वपूर्ण और रोचक हो तो इस काॅलम में शामिल करना मुझे उचित प्रतीत होता है। वृत्तचित्र ‘‘आद्या’’ किसी अख्यान से कम नहीं है।
‘‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’’ के नान्दी पाठ में कवि कालिदास ने ‘‘आद्या’’ का प्रयोग करते हुए लिखा है कि-
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
ये द्वे कालं विधत्तः श्रूतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् ।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।
- अर्थात् जो स्रष्टा की प्रथम सृष्टि है, वह अग्नि और विधिपूर्वक हवन की हुई आहुति का वहन करती है, जो हवि है और जो होत्री है, जो दो सूर्य और चन्द्र का विधान करते हैं, जो शब्द-गुण से युक्त होकर आकाश और सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किए हुए हैं, जिस पृथ्वी को सम्पूर्ण बीजों का मूल कहा जाता है और जिस वायु के कारण प्राणी, प्राण को धारण करते हैं। इस प्रकार कवि कालिदास ने ‘‘आद्या’’ अर्थात् आद्य के स्त्रीलिंग का प्रयोग किया है। संस्था भी स्त्रीलिंग होती है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाने और सागर नगर की पुरातन संस्था सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय के 119 वें वर्ष को अविस्मरणीय बनाने के उद्देश्य से एक वृत्तचित्र का निर्माण किया गया है जिसका नाम है ‘‘आद्या’’।

हर शहर का अपना एक इतिहास होता है और वहां होती हैं ऐतिहासिक इमारतें, संस्थाएं, सड़कें, चौक आदि। सागर शहर का भी अपना एक दीर्घकालीन इतिहास है। सागर शहर के इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हैं देश के स्वतंत्रतापूर्व से ले कर स्वतंत्रताप्राप्ति तक के अनेक साक्ष्य। ये साक्ष्य विविध रूपों में हैं। सागर का किला, फन्नुसा कुआ, छावनी क्षेत्र, बैरक, लाख बंजारा तालाब, डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय और सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय आदि।

नगर की पुरातन संस्था श्रीसरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय पर एक वृत्तचित्र अर्थात् डाक्यूमेंट़्री बनाई गई है जिसका विधिवत प्रथम प्रदर्शन अर्थात् प्रीमियर सरस्वती वाचनालय के समाभागर में किया गया। नगर के गणमान्य नागरिकों एवं बुद्धिजीवियों के साथ मुझे भी इस प्रीमियर में सम्मिलित होने का अवसर मिला। चूंकि फिल्म एवं वृत्तचित्र निर्माण से मेरा भी पूर्व में संबंध रहा है अतः मैंने लगभग हर दृष्टिकोण से इस वृत्तचित्र  को देखा और परखा है। इस वृत्तचित्र के बारे में कुछ भी कहने से पूर्व मैं सरस्वती वरचनालय के प्रति नगरवासियों की आत्मीयता और प्रेम के बारे में चर्चा करना आवश्यक समझती हूं। यूं तो यह संस्था श्री सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय के नाम से स्थापित है किन्तु इसे सभी ‘‘सरस्वती वाचनालय’’ के नाम से ही पुकारते हैं। इस संस्था का वाचनालय आज भी आबाद रहता है। शाम को इसका पठन-कक्ष समाचारपत्र एवं पुस्तकें पढ़ने वालों से भरा रहता है। आज जब सभी इस बात से चिंतित रहते हैं कि लोगों में पठन की आदत कम होती जा रही है, सरस्वती वाचनालय का पठन-कक्ष आश्वत करता दिखाई देता है कि स्थिति अभी उतनी निराशाजनक भी नहीं है जितनी कि प्रतीत होती है। यद्यपि यह सच है कि युवा पाठकों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है। लेकिन यह संख्या बढ़ सकती है यदि सरस्वती वाचालय का बजट बढ़ाया जाए और इसका पूर्ण आधुनिकीकरण करते हुए युवाओं की रुचि की पढ़न सामग्री भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराई जाए। बहरहाल, किसी भी पुरानी संस्था के विकास के लिए आवश्यक होता है कि उसकी ओर सभी सम्वेत भाव से ध्यान दें। इस दिशा में सरस्वती वाचनालय पर बनाया गया वृत्तचित्र ध्यानाकर्षण की दिशा में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।  
सरस्वती वाचनालय की स्थापना लगभग 119 वर्ष पूर्व की गई थी। इस पुस्तकालय एवं वाचनालय ने समय के अनेक उतार-चढाव देखे हैं। इसने गुलामी का संत्रास भी झेला है और आजादी की खुली हवा में जी भर की सांस भी ली है। इस वाचनालय में आजादी के दीवानों ने एकत्र हो कर महत्वपूर्ण मंत्रणाएं भी कीं और अंग्रेजों ने इस पर अपना कहर बरसाने का प्रयास भी किया किन्तु यह संस्था तमाम इतिहास को अपने अस्तित्व के साथ जोड़ती हुई अबाध गति से समय यात्रा करती रही। सरस्वती वाचनालय पर बनाए गए वृत्तचित्र का नाम है ‘‘आद्या’’। यह नाम सर्वथा उचित है क्योंकि यह संस्था पुस्तकालय एवं वाचनालय के रूप में नगर की प्रथम संस्था थी।
‘‘आद्या’’ वृत्तचित्र की संकल्पना, सूत्रधार और गीतकार हैं डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय। निर्देशन एवं पटकथा राहुल पाण्डेय की है। निर्माता है श्रीसरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय ट्रस्ट सागर तथा प्रस्तुति है फिल्मेनिया लाइट कैमरा एक्शन की।    
वृत्तचित्र एक गैर-फिक्शन फिल्म होती है जो वास्तविक जीवन से चुने गए विषयों, व्यक्तियों, घटनाओं, या मुद्दों पर आधारित होती है। ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित वृत्तचित्र प्रायः अल्पज्ञात घटनाओं, व्यक्तियों एवं तथ्यों के बारे में विस्तार से परिचित कराते हैं। इस तरह की फिल्मों में अभिनय और मनोरंजक तत्वों के स्थान पर वृत्त के विषय और उद्देश्य पर जानकारीपरक तत्वों का समावेश अधिक होता है। वृत्तचित्र यानी डाक्यूमेंट्री के नाम से ही स्पष्ट है कि यह किसी दस्तावेजी वृत्त  अर्थात अर्थात् डाक्यूमेंटेशन योग्य घटना, व्यक्ति अथवा स्थान पर आधारित होता है। किसी भी वृत्तचित्र के लिए सबसे प्राथमिक आवश्यकता होती है गहन शोध की। कोई भी वृत्तचित्रकार तभी सफल वृत्तचित्र बना सकता है जब उसके पास शोध के द्वारा प्राप्त की गई प्रामाणिक सामग्री हो और उस सामग्री के आधार पर एक सशक्त स्क्रिप्ट लिखी गई हो। वस्तुतः वृत्तचित्र एक दायित्वपूर्ण प्रस्तुति होती है। एक ऐसी प्रस्तुति जिसकी सामग्री (कंटेंट) पर दर्शक विश्वास करने को तैयार रहता है। फिक्शन फिल्म के बारे में तो दर्शक को पता होता है कि यह काल्पनिक सूचनाओं से भरी हुई है किन्तु वृत्तचित्र की सूचनाएं दर्शक के लिए ज्ञान का स्रोत होती हैं। इस दृष्टि से ‘‘आद्या’’ की स्क्रिप्ट पूर्णतया विश्वनीय और प्रभावी है। क्योंकि इसमें मात्र सूत्रधार के द्वारा ही सारे तथ्य नहीं कहलवाए गए हैं, अपितु वाचनालय के अतीत से अब तक सहगामी रहे वरिष्ठजन से लिए गए साक्षात्कारों को भी इसमें पिरोया गया है। इससे तथ्य की विश्वसनीयता सौ प्रतिशत बढ़ गई है। पं. शुकदेव प्रसाद तिवारी, अधिवक्ता चतुर्भुज सिंह, प्रो. सुरेश आचार्य, श्रीमती मीना पिंपलापुरे, श्री रघु ठाकुर, पूर्व सांसद लक्ष्मीनारायण यादव, श्री के.के. सिलाकारी आदि ने वाचनालय से जुड़े अपने संस्मरण साझा किए हैं।

इस वृत्तचित्र की संकल्पनाकार डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय के अनुसार ‘‘यह फिल्म सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय के इतिहास और विकास यात्रा के साथ स्वतन्त्रता आंदोलन में इसकी भूमिका को स्पष्ट करती है, आजादी का अमृत महोत्सव  मनाना और इस पुस्तकालय के 119 वें वर्ष को अविस्मरणीय बनाने के उद्देश्य से इस फिल्म का निर्माण किया गया है।’’
इस वृत्तचित्र में अनेक रोचक तथ्य हैं जो दर्शक को न केवल वाचनालय के अतीत से परिचित कराते हैं वरन दर्शकों के मन में और जानने की जिज्ञासा भी जगाते हैं। जैसे वृत्तचित्र में बताया गया है कि सन् 1904 में जब संस्था की स्थापना हुई तब वाचनालय भवन को दो रुपए मासिक की दर से किराए पर लिया गया था। उस समय इसकी कुंल संपत्ति देवदार की एक छोटी-सी संदूकची और लगभग सौ-डेढ़ सौ पुस्तकें थीं। सन् 1921 में इस भवन को खरीद लिया गया आठ हजार छः सौ चालीस रुपए में। यह जानकारी इस बात को उजागर करती है कि वाचनालय का आरम्भ कितने सीमित साधनों से हुआ था।

इस वृत्तचित्र का एक और सशक्त पक्ष है इसका फिल्मांकन। वृत्तचित्र की एकरसता को समाप्त कर रोचकता बढ़ाने की दृष्टि से कई ऐतिहासिक तथ्यों का नाटकीय रूपांतरण किया गया है। इसमें कई दृश्य छायांकन की प्रकाशकीय कलात्मकता की दृष्टि से तो कई दृश्य एक्शन की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं। एक घटनाक्रम है जिसमें कुछ क्रांतिकारी सागर के किले में जा कर छिपते हैं किन्तु अंग्रेज सिपाही उन्हें ढूंढते हुए वहां आ धमकते हैं तब वे क्रांतिकारी सीढी की रेलिंग फलांगते हुए वापस भागते हैं ताकि वे अंग्रेज सिपाहियों केी पकड़ से बच सकें। यह बहुत ही फास्ट एक्शन वाला दृश्य है जिसे बखूबी फिल्माया गया है। राहुल पाण्डेय और विजय कुमार के प्रभावी छायांकन ने वृत्तचित्र को जीवंत बना दिया है। जहां तक नाटकीय रूपांतर में अभिनय करने वाले कलाकारों का प्रश्न है तो वे भी अपनी पूरी अभिनय क्षमता के साथ प्रस्तुत हुए हैं। ऋषभ सैनी, विक्रम परिहार, अश्विनी सागर, पवन रायकवार, विक्रम विशाल जैन, विश्व राज सुनर्या, यशवंत पटेल, नीलेश रायकवार, राहुल सेन, सुषमा मिश्रा, संदीप रायकवार, प्रियंका दुबे, क्षितिज राजपूत, रितु मिश्रा, गजेंद्र सिंह विनीता राजपूत, संध्या दुबे, जीत्तू जैन आदि कलाकारों ने उच्चकोटि की अभिनय क्षमता का प्रदर्शन किया है।  
वृत्तचित्र में सूत्रधार की अहम भूमिका होती है। वह समूची फिल्म के प्रभाव को घटा या बढा सकता है। इस वृत्तचित्र ‘‘आद्या’’ की सूत्रधार डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय ने विषय के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए पूरी गंभीरता से अपनी प्रस्तुति देते हुए वृत्तचित्र की गरिमा में श्रीवृद्धि कर दी हैं। वे एक सधी हुई सूत्रधार की भांति रोचक ढंग से जानकारी देती गई हैं। संगीत, गायन और कथानक-गीत अक्षय बाफिला का है। ध्वनि संगीत और स्वर संगीत का संतुलित संयोजन इस वृृत्तचित्र में अनुभव किया जा सकता है। इसमें प्रयोग किए गए संगीत ने विषय के वातावरण को ‘बूस्ट’ करने अर्थात् अतिरिक्त ऊर्जा देने का काम किया है। निर्माण निर्देशक अदिति जैन ने अपने निर्माण कौशल का पर्याप्त परिचय दिया है।
"आद्या" वृत्तचित्र इतना जानकारीपूर्ण और अतीत के प्रति प्रेम और सम्मान जगाने वाला है कि इसे स्कूल, कालेज आदि शैक्षिक संस्थाओं में प्रदर्शित किया जाना चाहिए। यह अतीत को सहेजता हुआ एक अत्यंत रोचक वृत्तचित्र है। वस्तुतः इसे सभी को देखना चाहिए।
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Tuesday, October 4, 2022

पुस्तक समीक्षा | एक ‘‘टैबू’’ विषय पर महत्वपूर्ण उपन्यास | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 04.10.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका पूनम मनु के उपन्यास "द ब्लैंक पेपर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
एक ‘‘टैबू’’ विषय पर महत्वपूर्ण उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास  - द ब्लैंक पेपर
लेखिका   - पूनम मनु
प्रकाशक  - सामयिक प्रकाशन, 3320-21, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य     - 300/-
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भारतीय समाज में ऐसे कई विषय हैं जिन्हें ‘टैबू’ माना जाता है। टैबू अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है निषेध, वर्जित, वर्जना, मनाही आदि। वे विषय जिन पर खुल कर चर्चा करना भी लज्जाजनक माना हांे, जो लोगों के लिए आघातकारी, अपमानजनक या कष्टप्रद हो सकते हों। ब्रिटेनिका शब्दकोश में टैबू का अर्थ ुकछ इस प्रकार बताया गया है- ‘‘ऐसा कुछ जिसके बारे में बात करना या करना स्वीकार्य नहीं है अथवा कुछ ऐसा जो वर्जित है।’’ एक समय था जब यौनसंबंधों पर चर्चा को भी ‘टैबू’ की श्रेणी में रखा जाता था किन्तु भारतीय समाज जैसे-जैसे शिक्षित और प्रगतिशील हुआ वैसे-वैसे परिवर्तन आता गया। अब यौनसंबंधों के ज्ञान को यौनशिक्षा के रूप में शैक्षिक दायरे में रखे जाने पर खुल कर विचार-विमर्श होता है। लेकिन आज भी कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर चर्चा करना तो दूर, पर्दा डाले रखना उचित समझा जाता है। लेस्बियन, गे आदि पर चर्चा ‘टैबू’ में ही गिनी जाती है। समाज में अब इस तरह की घटनाएं यदाकदा खुल कर सामने आने लगी हैं जिसमें गे अर्थात समलिंगी पुरुष की इस प्रवृत्ति को छिपाए रखने के लिए विपरीत लिंगी अर्थात् लड़की से उसका विवाह करा दिया जाता है। कभी बता कर, कभी छिपा कर। कभी आर्थिक बदहाली में जी रही लड़की और उसके माता-पिता इस प्रकार के बेमेल वैवाहिक संबंध को स्वीकार कर लेते हैं और कभी-कभी लड़की ऐसे संबंधों में अपनी स्वतंत्रता तलाश करने लगती है। कुछ साल पहले मधुर भंडारकर की एक फिल्म आई थी, ‘फैशन’। इस फिल्म में फैशन इंडस्ट्री की कड़वी सच्चाई के साथ ही ‘गे’ संबंधों और आपसी समझौते के तहत बेमेल विवाह को फिल्माया गया था। अभी हाल ही में लेखिका पूनम मनु का एक हिन्दी उपन्यास आया है जिसका नाम है -‘‘द ब्लैंक पेपर’’। इस उपन्यास में यौन संबंधों से जुड़े विविध टैबू मुद्दों को बेझिझक उठाया गया है।
जब बात आती है टैबू विषयों पर लेखन की तो इसमें सबसे पहला जोखिम स्वयं लेखक को उठाना पड़ता है। उस विषय से उसका व्यक्तिगत कोई लेना-देना न होते हुए भी पाठक यही समझ बैठता है कि यदि इस विषय पर इतनी बारीकी से कलम चलाई गई है तो इसमें लेखक का अपना अनुभव भी शामिल होगा। जबकि सच्चाई इससे विपरीत होती है। लेखक तो सिर्फ विषय की तह तक जाता है और एक चिकित्सक की भांति उसके प्रत्येक पक्ष की जांच करता है तथा एक ‘डायगनोसिस प्रिस्क्रिप्शन’ की भांति उपन्यास, कहानी अथवा अपनी इच्छित विधा की रचना लिख डालता है। यदि कोई लेखक ‘गे’ व्यक्तियों के बारे में लिख रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं ‘गे’ है अथवा यदि कोई महिला ‘लेस्बियन’ महिलाओं पर लिख रही है तो वह स्वयं लेस्बियन है। लिहाजा ऐसे टैबू’ माने जाने वाले विषयों पर साहित्य पढ़ते समय ऐसी बचकानी सोच को परे रख देना चाहिए तभी रचना के मर्म को समझा जा सकता है।

सन् 2018 में भारत में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने इस मसले पर सुनवाई करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। निर्णय के अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा। धारा 377 को पहली बार कोर्ट में 1994 में चुनौती दी गई थी। लगभग 24 साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अंतिम फैसला दिया था। उस समय चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था कि ‘‘जो भी जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। समलैंगिक लोगों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है।’’ संवैधानिक पीठ ने माना कि समलैंगिकता अपराध नहीं है और इसे लेकर लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि ‘‘यह फैसला इस समुदाय को उनका हक देने के लिए एक छोटा सा कदम है। एलजीबीटी समुदाय के निजी जीवन में झांकने का अधिकार किसी को नहीं है।’’
एलजीबीटी अर्थात् लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर। निःसंदेह कानून ने एलजीबीटी को अधिकार दे दिए हैं किन्तु समाज अभी भी मानसिक रूप से तैयार नहीं हो सका है क्योंकि वैवाहिक संबंधों का आधार होता है संतति और समलैगिक विवाह में संतति संभव नहीं है। अतः समाज द्वारा इसे स्वीकार कर पाना कठिन हो जाता है। 

पूनम मनु ने अपने उपन्यास में एक साथ दो टैबू’ विषयों को उठाते हुए महिला जेल के जीवन का भी विवरण दिया है। उपन्यास के केन्द्र में है शाइस्ता नामक वह युवती जिसे अपने लंपट सौतेले पिता की हत्या के अपराध में जेल जाना पड़ता है। जबकि वस्तुतः उसने यह अपराध किया ही नहीं था। अपनी मां के इस अनियोजित अपराध को छिपाने के लिए वह अपनी कुर्बानी दे देती है। जेल में उसकी भेंट प्रीति नामक युवती से होती है। अन्य महिला अपराधियों की भांति प्रीति भी अपराधी थी लेकिन उसका अपराध भयावह था। उसने अपनी मां की हत्या की थी जिसके कारण अन्य महिला कैदी उससे घृणा करती थीं। आखिर कोई अपनी जननी मां को कैसे मार सकता है? किन्तु धीरे-धीरे प्रीति से शाइस्ता की मित्रता बढ़ती जाती है और प्रीति को वह ‘‘प्रीती बाजी’’ कहने लगती है। समय के साथ शाइस्ता को अहसास होता है कि प्रीति का सच भी वह सच नहीं है जो सभी जानते हैं। प्रीति की सहेली ने यह अपराध किया था। लेकिन सहेली को न रोक पाने के एवज में प्रीति स्वयं को अपराधी मानती थी तथा स्वयं को हत्या का दोषी समझती थी। शाइस्ता से जेल में मिलने उसकी मां आया करती थी। एक दिन मां के साथ आसिम नाम का एक युवक भी शाइस्ता से मिलने आया। शाइस्ता को वह अच्छा लगा। जबकि आसिम शाइस्ता से मिलने नहीं बल्कि उससे प्रीति की जानकारी लेने आया था। शाइस्ता उसके प्रभाव में आ कर प्रीति की डायरी चोरी-छिपे उसे दे देती है। यद्यपि ऐसा करते हुए उसे ग्लानि भी होती है किन्तु साथ ही खुशी भी मिलती है कि वह आसिम के काम आ सकी।
जेल से छूटने पर आसिम शाइस्ता से मिलने नहीं आता है। जबकि शाइस्ता इसकी उम्मीद कर रही थी कि आसिम उससे मिलने अवश्य आएगा। कुछ समय बाद आसिम की मां शाइस्ता के लिए आसिम का विवाह प्रस्ताव ले कर आती है। यह प्रस्ताव मां-बेटी दोनों को चकित देता है क्योंकि आसिम का आर्थिक स्तर शाइस्ता के आर्थिक स्तर से काफी ऊंचा था तथा उसकी मां भी अपनी अमीरी का दिखावा करने वाली औरतों में से थी। शाइस्ता की मां को इसमें अनुचित की गंध आती है किन्तु शाइस्ता समझती है कि आसिम भी उससे प्रेम करता है इसलिए उसने अपनी मां को विवाह प्रस्ताव ले कर भेजा है। आसिम के एमतरफा प्रेम में डूबी शाइस्ता को इस रिश्ते की खामियां दिखाई नहीं देती हैं और वह विवाह के सपने बुनने लगती है जबकि आसिम ठीक इसके विपरीत बेरुखी का प्रदर्शन करता रहता है। कहानी में सस्पेंस पैदा करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु सस्पेंस रह नहीं पाया है। क्योंकि इसी बीच एक और कहानी का समावेश होता है जो रीना सिंह और समिता सिंह नामक दो युवतियों की कथा है। ये दोनों लेस्बियन हैं और विवाह के रिश्ते में बंध चुकी हैं। रीना पत्नी की के दायित्व निभाती है और समिता पति के दायित्व। कदम-कदम पर उन्हें अपमान झेलना पड़ता है। यह कथानक अपने-आप में एक स्वतंत्र उपन्यास का विषय हो सकता था और तब इसके वे सभी पक्ष विस्तार से जगह पा जाते जो इसमें छूट गए हैं। इस तरह का रिश्ता आम नहीं है, इसे आज भी ‘टैबू’ ही माना जाता है।

यह उपन्यास इस तथ्य को सामने रखता है कि किस तरह पुत्रमोह में डूबे माता-पिता एक लड़की से सच्चाई छिपा कर उसे अपने ‘गे’ पुत्र की पत्नी बनाना चाहते हैं। इसके लिए वह ऐसी दोषयुक्त लड़की को चुनते हैं जो जेल की सजा काट कर आई है और दूसरा शायद ही कोई उससे विवाह करने आगे आएगा। लड़का भी अपनी  होने वाली पत्नी से अपनी इस प्रकृति के बारे में स्वयं न बता कर इस बात का विश्वास कर लेता है कि उसकी मां ने लड़की को सच्चाई बता दी है। जिससे उसे लगता है कि वह लड़की यानी शाइस्ता उसकी सम्पन्नता की चकाचौंध से प्रभावित हो कर विवाह के लिए हामी भर चुकी है। इन सारी विचित्र स्थितियों का अंत अनेक प्रश्नों को छोड़ जाता है।

उपन्यास लेखिका अनेक स्थानों पर स्वयं असमंजस में डूबी दिखाई पड़ती हैं कि वे इस प्रकार के संबंधों को ‘टैबू’ के खांचे से निकाल कर किस खांचे में खड़ा करें। ‘‘गे’’ और ‘‘लेस्बियन’’ दोनों तरह के संबंधों को एक साथ एक उपन्यास के कथानक में पिरोने से ऐसे कई महत्पूर्ण तथ्य छूटते चले गए हैं जो इस विषय को और अधिक गंभीरता प्रदान करते। उपन्यास के अंतिम अध्याय ‘‘उनका एकान्तिक आनन्द सिर्फ उनका है’’ में एलजी संबंधों पर लम्बी बहस है। जिसमें एलजी के पक्ष और विपक्ष दोनों में विचार रखे गए हैं। मीरा नायर निर्देशित एक फिल्म आई थी ‘‘फायर’’ जिसमें दो महिलाओं के मध्य परिस्थितिजन्य यौनसंबंधों को प्रस्तुत किया गया था। विशेष बात यह कि वे दोनों पात्र प्रकृति से लेस्बियन नहीं थीं किन्तु वे दैहिक विवशता के वशीभूत लेस्बियनिज्म में पड़ती चली गईं। जबकि इससे काफी पहले इस्मत चुगताई ने अपनी कहानी ‘‘लिहाफ’’ में लेस्बियनिज्म को लिख दिया था। सन् 1942 में जब यह कहानी ‘‘अदाब-ए-लतीफ’’ में पहली बार प्रकाशित हुई थी तो इस्मत चुगताई को कोर्ट केस भी लड़ना पड़ा। इस कोर्ट केस में इस्मत चुगताई की जीत हुई थी। ‘‘लिहाफ़’’ को भारतीय साहित्य में लेस्बियन प्रेम की पहली कहानी माना जाता है। 

शिल्प और संवाद उत्तम हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लेखिका पूनम मनु ने एक ‘‘टैबू’’ विषय पर ईमानदारी से कलम चलाई है तथा अपने उपन्यास के पात्रों के मनोविज्ञान को सफलतापूर्वक सामने रखा है। एलजी संबंधों के प्रति जिज्ञासा रखने वाले पाठकों के लिए इस उपन्यास में अनेक तथ्यात्मक जानकारियां हैं। इस उपन्यास की रोचकता को नकारा नहीं जा सकता है। यह पठनीय है। विचारणीय है। साथ ही एक टैबू विषय पर आधारित होने के कारण महत्वपूर्ण है।        
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Thursday, September 29, 2022

पुस्तक समीक्षा |जीवन की कहानी कहती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा
जीवन की कहानी कहती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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(प्रस्तुत है आज 29.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा के काव्य  संग्रह  "हम्म" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏)

काव्य संग्रह  - हम्म्म...
कवयित्री   - ज्योति विश्वकर्मा
प्रकाशक  - कमलकार मंच, 3 विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर - 302018
मूल्य     - 150/-
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युवा कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा का संग्रह ‘‘हम्म्म...!" अपने नाम से ही विशिष्टता का बोध कराता है। विचार बोधक शब्द ‘‘हम्म्म" के साथ विविध परिस्थितियां हो सकती हैं। जैसे - तनी हुई भृकुटि, विचार मुद्रा या फिर सब कुछ समझ जाने का भाव। ‘‘हम्म्म" शब्द अपने आप में प्रतिक्रिया सूचक ध्वंयात्मक शब्द है जिसका स्वयं में कोई अर्थ नहीं है लेकिन स्वराघात के साथ वह विशिष्ट अर्थ देने लगता है।  

संग्रह की पहली कविता समाज से प्रश्न करती है ‘‘क्यों?" समाज में क्यों है इतनी अव्यवस्थाएं? क्यों है इतनी संवेदनहीनता? यह कविता एक ऐसी स्त्री पर केंद्रित है जो शहर की सड़कों पर घूमती हैं। पगली है। लोग उससे नफरत करते हैं। लेकिन रात के अंधेरे में उसका फायदा उठाते हैं। जब वह किसी वासनापूरित व्यक्ति के कारण प्रसव पीड़ा से गुजरती है, उस समय भी उसकी पीड़ा लोगों के मनोरंजन का साधन बनती है। यह संवेदनहीनता नहीं तो और क्या है? कवयित्री व्यथित है यह सब देख कर, इसलिए पगली की पीड़ा को अपनी कविता में उतारती है और समाज से प्रश्न करती है कि यह अमानवीयता क्यों? ये पंक्तियां देखिए-
और हम समझदार बनने का ढोंग करते हैं
कितनी गिरी हुई मानसिकता होगी
उसकी, जिसे दिन के उजाले में
उससे बास आती थी/ घिन आती थी
रात होते ही इत्र बन गई
अप्सरा बन गई
कौन पागल है
समझ में नहीं आता /क्यों?

     यह पहली कविता कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा के संवेदनात्मक आग्रह से परिचित करा देती है। संग्रह में एक लम्बी कविता है ‘‘छोटा परिवार"। यह एक संदेशपरक कविता है जो एक सुखी छोटे परिवार के विवरण से शुरू होती है और वृद्धविमर्श करती हुई उस बिन्दु पर पहुंचती है, जहां कवयित्री कहती है कि दूसरे की सहायता हेतु कभी-कभी ग़ैरजरूरी चीजें भी खरीद लेनी चाहिए। -
कभी-कभी बेवज़ह भी
यूं कुछ खरीद लिया करो
किसी को भीख देने से अच्छा है
उसके हिस्से की एक रोटी में
उसके स्वाभिमान के हिस्सेदार
बन जाया करो।

एक और लम्बी कविता है ‘‘द्वंद्व"। इस कविता में कवयित्री सेल्फ हेडोनिज्म यानी आत्म सुखवाद की बात करती हैं। वह अपने लिए जीना चाहती हैं और अपने प्रिय से भी इसी का आग्रह करती हुई लिखती है-
मुझे जीना है /तुम्हारे साथ
ऐसे जैसे /फूलों में खुशबू
सावन में हरियाली
वह सोचा हुआ लम्हा /जो मेरे तक है
उसे कभी ज़ाहिर /नहीं किया तुम पर
शायद तुम्हें भी एहसास है
मेरे इस हसीन ख़्वाब का
इतनी शिद्दत से चाहूंगी तुम्हें
कि खुद के होने के एहसास से
संवर जाएगा /तेरा तन मन
मुझे जीना है तुम्हारे साथ।
                      
 समाज एवं परिवार में बेटियों की आज भी द्वंद्वात्मक स्थिति है। उनकी सबसे अधिक उपेक्षा की जाती है जबकि सबसे अधिक अपेक्षाएं भी उन्हीं से रखी जाती हैं। विवाह के समय लड़के के माता-पिता उससे यह वचन कभी नहीं लेते हैं कि तुम्हें दोनों कुल की लाज रखनी है। यह वचन लड़की के माता-पिता सिर्फ लड़की से लेते हैं। गोया एक लड़का बिना वचन लिए भी दोनों कुल के मान-सम्मान की रक्षा कर लेगा, लेकिन एक लड़की वचन लिए बिना ऐसा नहीं कर सकेगी। यह संदेह क्यों रहता है? जबकि सबसे ज्यादा बेटियां ही निभाती हैं। आज भी ऐसे परिवार बहुत कम हैं, जहां बहुओं को बेटियों का दर्जा दिया जाता है। कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा की इसी विषय पर एक कविता है ‘‘बेटियां पराई"। अपनी कविता में वे लिखती हैं-
कहते हैं विवाह दो दिलों
और दो परिवारों का
आपसी तालमेल होता है
पर इसके बस मान लेने से
कभी हिम्मत हुई कि तुम
उस परिवार के सामने
दो घड़ी चैन से बैठ,
तुम उसका हाल चाल पूछ लो।

जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि चारों ओर भीड़ ही भीड़ नज़र आती है। यह भीड़ आपसी पहचान और भाईचारा खोती जा रही है। लोग एक दूसरे को सिर्फ स्वार्थ के आधार पर पहचानते हैं। ऐसी  दिखावटी भीड़  से वही लोग किनारा कर पाते हैं जो एकांत में जीने की इच्छा रखते हैं और दुनियादारी की झंझटों से ऊब चुके होते हैं। भीड़ पर केंद्रित अपनी कविता में कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा जिस प्रकार मनोदशा को लक्षित करती हैं उसका एक अंश देखिए उनकी ‘‘भीड़" शीर्षक कविता में-
हर तरफ की भीड़ से
अब दम घुटने लगा है
चाहे जहां चले जाओ/एक सवाल
सामने आ जाता है कि
इतनी भीड़ कहां से/आती है
बाजार से श्मशान तक
अपनी-अपनी ख्वाहिशों की भीड़

       इसी संग्रह में एक और कविता है ‘‘मेरे बस में नहीं"। यह कविता समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगति को रेखांकित करती है, जिसमें कटाक्ष किया गया है उन लोगों पर जो धर्म के नाम पर बेतहाशा खर्च करते हैं लेकिन ज़रूरतमंदों की मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं। यह एक बहुत ही संवेदनशील कविता है। एक अंश देखिए इसका-
मज़ारों पर बेहिसाब
चादरों का चढ़ना
बाहर ठंड में 
फ़क़ीर का ठिठुरना
वह मज़ार की चादर
 मैं उस तक पहुंचा दूं
यह मेरे बस में नहीं।
मंदिरों में
छप्पन भोगों का लगना
और बाहर भूख के
हाथों का फैलना
वह एक भोग का थाल
उस पालनहार से छीन कर
उन तक पहुंचा दूं
यह मेरे बस में नहीं।
    ‘‘क्या यहां पाया किसी ने", ‘‘उम्मीदों के बाजार में", ‘‘केन्द्रबिन्दु", ‘‘मैं" आदि कविताएं  इस बात की द्योतक हैं कि कवयित्री के पास अंतर्दृष्टि है जिससे वह जीवन की तमाम विसंगतियों को देख सकती है।  वह प्रेम को अनुभव कर सकती है तथा व्याख्या भी कर सकती है। ‘‘हम्म्म" काव्य संग्रह में संग्रहीत कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा की  लगभग सभी कविताएं  उनकी काव्य प्रतिभा  के प्रति विश्वास पैदा करती है। बस, इन कविताओं में यदि कोई कमी महसूस होती है तो वह है शिल्पगत कमी। कई कविताएं अत्यंत गद्यात्मक हो गई हैं। इस प्रकार का जोखिम अतुकांत नई कविताओं में बहुत अधिक होता है। अतः इस जोखिम को समझते हुए अतुकांत कविताओं में भी लयात्मकता और प्रवाह बनाए रखना चाहिए।  यदि अतुकांत कविताओं में तथ्यात्मक कहन साथ ही लय और प्रवाह हो  तो  वे कविताएं  अपने सही स्वरूप को प्राप्त करती हैं। कवयित्री द्वारा अभी अपनी कविताओं के शिल्प पक्ष को साधना  शेष है। यद्यपि इस काव्य संग्रह की कविताएं कहन के आधार पर  पठनीय है तथा कवयित्री का सृजनकार्य निःसंदेह स्वागत योग्य है।    
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Tuesday, September 20, 2022

पुस्तक समीक्षा | ‘गोपी विरह’: आध्यात्म, दर्शन एवं काव्य का सुंदर समन्वय | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 20.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि रामकुमार तिवारी के काव्य  संग्रह  "गोपी विरह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
‘गोपी विरह’: आध्यात्म, दर्शन एवं काव्य का सुंदर समन्वय
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह -  गोपी विरह
कवि       - रामकुमार तिवारी
प्रकाशक    - पाथेय प्रकाशन, 112, सराफा, जबलपुर (म.प्र.)
मूल्य       - 100/-
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आज की समीक्ष्य कृति है ‘‘गोपी विरह’’। इसके रचयिता हैं कवि रामकुमार तिवारी। प्रत्येक कृति कवि से समर्पण मांगती है। उस पर यदि विषय भक्ति से जुड़ा हुआ हो तो यह समर्पणभाव दोहरा हो जाता है। भक्तिकाव्य वही व्यक्ति रच सकता है जो ईश्वर के किसी भी रूप के प्रति अपनी आस्था और विश्वास रखता हो। इस दिशा में कृष्ण की भूमिका कवियों द्वारा प्रायः सखावत ग्रहण की गई है। बात चल रही है कृष्ण संबंधी काव्य की तो तनिक अतीत पर भी दृष्टिपात कर लेना समीचीन रहेगा।   
श्रीकृष्ण का उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के प्रथम, अष्टम और दशम मंडल में मिलता है। इसके बाद छांदोग्योपनिषद में पहली बार कृष्ण का उल्लेख मिलता है। कृष्ण भक्ति पर रचित सबसे महत्वपूर्ण दक्षिण भारत में रचित पुराण ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण’’ है। ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण’’ में श्रीकृष्ण की रासलीला का मोहक चित्रण होने के पर भी राधा का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। हिंदी का कृष्ण भक्ति साहित्य महाभारत से नहीं बल्कि पुराणों से प्रभावित है। महाभारत के कृष्ण कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, द्वारिकाधीश, लोक रक्षककारी श्री कृष्ण है। पुराणों के कृष्ण माखन चोर, गोपाल, लीलाधारी, लोकरंजनकारी, नंदलाल है। कृष्ण भक्ति साहित्य ने भी लोकरंजनकारी रूप को आधार बनाया है । कृष्ण भक्ति पर काव्य सृजन करने वाले बहुत से कवि हुए हैं। जिनमें कुंभनदास, सूरदास, परमानंददास, चतुर्भुज दास, गोविंद स्वामी, छीत स्वामी, नंद दास, कृष्णदास, रसखान, मीरा बाई, रहीम, कवि गंग, बीरबल, होलराय, नरहरि बंदीजन, नरोत्तम दास स्वामी आदि कवियों का नाम प्रमुख रूप से आता है। कृष्ण भक्ति पर काव्य रचने वाले कवियों में आठ कवियों का प्रमुख स्थान रहा है। इन्हें ‘‘अष्टछाप’’ कवि कहा जाता है। ये कवि हैं- कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्ण दास, सूरदास, गोविंद स्वामी, छीत स्वामी, चतुर्भुज दास एवं नंददास। इनमें सूरदास को कृष्णभक्ति का सर्वश्रेष्ठ कवि माना गया है। सूरदास द्वारा रचित ‘‘सूरसागर’’ का सबसे पहला व प्रामाणिक संपादन नंददुलारे वाजपेयी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से किया। ‘‘सूरसागर’’ को कृष्णभक्ति साहित्य का हृदय कहा जाता है और ‘‘सूरसागर’’ का हृदय ‘‘भ्रमरगीत’’ को कहा जाता है।
समय के साथ हिन्दी काव्य में नवीन विषयों का प्रवेश हुआ और कालांतर में नई कविता के साथ काव्य में आमजन के दैनिक जीवन की पीड़ा और समस्याओं ने अपनी जगह बना ली। भक्तिकाव्य लगभग हाशिए पर पहुंच गया। किन्तु कुछ रचनाकार जिनका सरोकार धर्म, आघ्यात्म एवं दर्शन से था, वे भक्तिकाव्य का सृजन करते रहे। भक्ति की दुनिया में कृष्ण का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। सागर जिले के बंडा तहसील मुख्यालय में निवास करने वाले उर्दू के ख्यातिलब्ध शायर मायूस सागरी जब कृष्ण के प्रति आकृष्ट हुए तो उन्होंने ‘‘ब्रजरज’’ का सृजन कर डाला। इस कृति ने उन्हें विशेष पहचान दी।
कवि रामकुमार तिवारी की कृति ‘‘गोपी विरह’’ कृष्ण भक्ति में लिखा गया एक अनुपम काव्य है, जिसमें संवेदनाएं, संवेग, आध्यात्म एवं दर्शन सभी समंवित रूप से उपस्थित है। ‘‘गोपी विरह’’ में कुल 164 पद हैं। इस कृति पर तीन विद्वानों ने भूमिकास्वरूप अपने विचार लिखे हैं जिन्हें पुस्तक के आरम्भिक पन्नों पर रखा गया है। पहली सम्मति डाॅ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी जबलपुर द्वारा लिखी गई है। डाॅ. चतुर्वेदी लिखते हैं कि-‘‘ तिवारी जी की यह कृति मध्यकालीन और रीतिकालीन संत कवियों की ध्वनियों को समेटे हुए हैं जिसके कारण वह संत परंपरा के इस वाचिक प्रयोग में न केवल जुड़ सके अपितु साहित्य के मूल्यों की दृष्टि से इस कृति के माध्यम से उन्होंने अपने सहृदय कवित्व को साहित्य में स्थापित किया है।’’
दूसरी भूमिका संस्कृतिविद डाॅ. श्यामसुंदर दुबे की है। उनके अनुसार-‘‘गोपी विरह शीर्षक कृति श्री राम कुमार तिवारी ने अपने संपूर्ण मनोयोग एवं अनुभूति की आवेगमयी काव्यस्फूर्ति के ग्रहण क्षणों में रची है। श्री तिवारी के कवि ने एक संपूर्ण काव्य परंपरा को अपने मनोलोक में एक प्रवाह की तरह अनुभव किया है। इस परंपरा में वे निरंतर अवगाहन करते रहे हैं। एक तरह से वे अपने काव्य पुरुष को हिंदी काव्य की जातीय स्मृतियों से अनुप्राणित करते हुए अपने लिए एक स्वतंत्र व्यक्तित्व अपनी कहन के माध्यम से निर्धारित करने वाले कवि हैं।’’
तीसरी सम्मति पाथेय समूह के संस्थापक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ राजमुमार ‘‘सुमित्र’’ की है। वे लिखते हैं कि-‘‘भक्तकवि श्री राम कुमार तिवारी का काव्य ग्रंथ ’गोपी विरह’ भावों की मार्मिकता और विविधता से परिपूरित है। श्री तिवारी को मैं मध्यकालीन कवि परंपरा का कुशल संवाहक मानता हूं। श्री तिवारी ने 164 पदों में अपने हृदय की भक्ति और समर्पण का नैवेद्य अर्पित कर दिया है।’’
मध्यप्रदेश के दमोह निवासी कवि रामकुमार तिवारी ने कृष्णकथा के उस पक्ष को अपने काव्य में पिरोया है जब कृष्ण ब्रज को छोड़ कर चले जाते हैं तथा ब्रज का कण-कण उनके विरह से व्याकुल हो उठता है। देखा जाए तो कृष्णकथा का यह सबसे मार्मिक पक्ष है। विरह की व्याकुलता से बड़ी कोई व्याकुलता नहीं होती और विछोह की पीड़ा से बड़ी कोई पीड़ा नहीं होती है। संग्रह का पहला ही पद देखिए -
अब तौ सब सुख हरि संग जात।
जिमि उड़ि पिंजरे का पंछी पुनि हाथहिं नहीं आत।।
को अब जाए उलहिनौ दै है, पकरि यशोदहिं हाथ।
केवल एकहि काज बचो है, पीटो सब निज माथ।
सब भूषण जमुना बिच डारो, केहि लगि सजहे गात।
अंगराग की गंध ना उड़ि है, पाय परस अब वात।
नेह वारि बिनु, नेह तरुहिं के, झड़ि गिरिहैं सब पात।
‘रामकुमार’ अब नाहिं दिखत हैं, केहि विधि निज कुशलात।
   कृष्ण के जाने के बाद अब न तो यशोदा को उलाहना दिया जा सकता है और न ही अंगराग लगाने का आनन्द बचा है। कृष्ण के जाने से सारे सुख इस तरह चले गए हैं जैसे पिंजरे का पंछी यदि एक बार पिंजरे से बाहर उड़ जाए तो फिर कभी दोबारा नहीं मिलता है। इस प्रकार का वर्णन स्वतःमेव भक्तिकालीन कृष्णकाव्य की याद दिलाने लगता है। सुंदर बिम्ब और मानवीय मन की विवशता का हृदयस्पर्शी वर्णन।
कृष्ण चले गए हैं। सभी जानते हैं कि वे अब लौटकर नहीं आएंगे लेकिन आशा है कि टूटती ही नहीं है और दृष्टि मार्ग पर टिकी हुई है। इस मनोदशा का सुंदर वर्णन इस कवि रामकुमार तिवारी के पद में अनुभव किया जा सकता है-
नैन ना चैन परत पल एक।
अपलक हरि आवन मग पेखत, तजत नाहिं निज टेक।।
अपने मन की सबहिं करत हैं, बात ना मानत नेक।
निशदिन ढरत रहत झरना से, ज्यों मेघ सावनहिं मास।
आतुर हुव्ये उड़िबे खैं चाहत, जियत लै दर्शन आस।
चातक सब तिनहुं तौ केवल, धरौं एकहिं ध्यान।
हरि स्वाती जल जबहिं मिलेगौ, करि हैं बिहिं पान।
ओस बिन्दु तैं नाहिं मिटी है, कबहुं काहु की पियास।
‘रामकुमार’ चकोर सचु पावै, केबल इन्दु उछास।
       इस पद में कवि ने कृष्ण की छवि-दर्शन की तुलना स्वाति नक्षत्र के उस जल से की है जिसे पीकर चातक पक्षी अपनी प्यास बुझाता है। वे कृष्ण की तुलना चन्द्रमा के उस सौंदर्य से करते हैं जिसे देख कर चकोर के मन की प्यास बुझती है। साथ ही बड़ा कोमल-सा उलाहना है अपनी इन्द्रियों के प्रति कि वे अब बात ही नहीं मानती हैं और इसीलिए लाख रोकने पर भी हर समय आंखों से झार-झार आंसू बहते रहते हैं।
अंत में 162 वां पद, जिसमें विरह के चर्मोत्कर्ष की पीड़ा से उपजी व्याकुलता भरा बहुत कोमल शब्दों में निवेदन है-
अब तौ वेगि दरस हरि देहु।
आगे अब हमरे धीरज की, नाहिं परीक्षा लेहु।
तुम्ह बिनु कतहुं, सुखहिं नहिं पावत, वन, बीथिन अरु गेहु।
मीन नीर सम, हमहुं तलफत, हे हरि तुमहिं सनेहु।
नेह तरनि, मझंधारहिं अटकी, आ करिकैं तेहि खेहु।
‘रामकुमार’ तोहि नाहिं बरजि हैं, जो चाहौ सो लेहु।
       कवि तिवारी ने ब्रज, बुंदेली और खड़ीबोली के शब्दों का संतुलित और प्रवाहपूर्ण प्रयोग करते हुए प्रभावी गेय पद रचे हैं। मनोवेगों की यह कोमलता कविता से कहीं फिसलती जा रही है। जीवन के खुरदरे यथार्थ ने कविता के कथ्य को भी कठोर शब्दों और सपाटपन में ढाल दिया है। ऐसे समय में ‘‘गोपी विरह’’ जैसी काव्यकृति बहुत महत्वपूर्ण है। यह आरोप गढ़ना उचित नहीं है कि भक्तिकाव्य में धार्मिक आडम्बर का भाव होता है। वस्तुतः भक्तिकाव्य अपने इष्ट, अपने कर्तव्य, अपने प्रिय के प्रति समर्पण के भाव को जगाता है। यदि भक्तिकाव्य में दिखावा नहीं है और एक सच्चा आग्रह है तो उसमें काव्य का समुचित सौंदर्य देखा जा सकता है। इस आधार पर कवि रामकुमार तिवारी का काव्य संग्रह (जो कि वस्तुतः खण्ड काव्य के समान है) ‘‘गोपी विरह’’ विशिष्ट कृति है और अंधाधुनिकता का चश्मा उतार कर इसका मूल्यांकन करते हुए इस कृति को साहित्य की एक अनुपम कृति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
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Tuesday, September 13, 2022

पुस्तक समीक्षा | मन-संसार को अभिव्यक्त करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 13.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका सुश्री उषा वर्मन के कहानी  संग्रह  "यादों के झरोखों से" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मन-संसार को अभिव्यक्त करती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - यादों के झरोखों से
लेखिका     - सुश्री उषा वर्मन
प्रकाशक    - जे.टी.एस. पब्लिकेशन, वी-508, गली नं.17ए विजय पार्क, दिल्ली
मूल्य       - 395/-
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    उषा वर्मन एक उदयीमान कहानीकार हैं। ‘‘यादों के झरोखों से’’ उनका प्रथम कहानी संग्रह है। इस संग्रह में उनकी कुल 101 कहानियां हैं। इनमें अधिकांश कहानियां मन-संसार को अभिव्यक्त करती हैं। उषा वर्मन की कहानियों में सामाजिक गतिविधियों के मन पर पड़ने वाले प्रभावों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ग्रेजुएट तक शिक्षित किन्तु स्वयं के विभिन्न व्यवसायों द्वारा अपने आपको कर्मठ बनाने वाली इस कथाकार के पास एक मौलिक अंतर्दृष्टि है। वे समस्याओं को अपनी दृष्टि और अपने अनुभव के आधार पर देखती हैं तथा उनका समाधान भी वे अपने दृष्टिकोण से ढूंढती हैं। इसीलिए उनकी कुछेक कहानियों में धर्म और विश्वास का चमत्कारी आग्रह मिलता है। जैसे इस संग्रह की पहली ही कहानी है ‘‘भक्ति का चमत्कार’’। कथानक के अनुसार श्रावण मास में अत्यधिक वर्षा से आप्लावित शहर की सड़कों से गुज़र कर कथानायिका जया मंदिर पहुंचती है। वहां पहुंच कर वह मंदिर में सफाई इत्यादि की सेवाकार्य करती है। इसी दौरान उसे मंदिर प्रांगण में फन फैलाया हुआ नाग दिखाई दे जाता है। वह उसे ईश्वर का चमत्कार मान कर नमन करती है और फिर पुजारी को बुला उसे भी दर्शन कराती है। वस्तुतः नागराज बाढ़ सदृश पानी में डूबे अपने बिल से निकल कर मंदिर प्रागण में शरणागत था जिसे ईश्वर का चमत्कार मान लिया गया।

संग्रह में एक कहानी है ‘‘पुनर्जन्म’’। यह कहानी गोया पुनर्जन्म की धारणा को स्थापित करने की दिशा में लिखी गई है। निशा को अपनी भतीजी में अपनी मां की उपस्थिति अर्थात् पुनर्जन्म का अहसास होता है और जल्दी ही उसे अपनी इस धारणा पर विश्वास भी हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि ‘‘यादों के झरोखों से’’ कहानी संग्रह की सभी कहानियां धार्मिक चमत्कार या पुनर्जन्म पर आधारित हों, कई कहानियां सामाजिक विसंगतियों को आईना दिखाती है, तो कुछ महिला सशक्तिकरण के उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। मनोवैज्ञानिक धरातल की भी कहानियां हैं जिनमें जेनरेशनगैप के दोनों चेहरे दिखाए गए हैं। एक कहानी है-‘‘बच्चे जब समझदार हो जाते हैं’’। इस कहानी में मां को ले कर भाई-बहन के बीच संवाद के बहाने एक अच्छा कथानक सामने रखा गया है। भाई-बहन दोनों मां से दूर दूसरे शहर में रह रहे हैं। भाई ने मां को कह रखा है कि वह सुबह-शाम अपने भोजन की थाली की तस्वीर खींच कर उसे मोबाईल पर भेज दिया करे। बहन को लगता है कि इस प्रक्रिया में मां का भोजन ठंडा हो जाता होगा और उन्हें ठंडा भोजन करना पड़ता होगा। तब भाई अपने इस आग्रह का औचित्य बताता है कि डबलरोटी खा कर रह जाने वाली मां फोटो शेयर करने की जिद के कारण पूरा भोजन बनाती है और पूरा भोजन करती है। यह सुन कर बहन भी भाई के आग्रह से सहमत हो जाती है। यह एक सकारात्मक कहानी है जो एक स्वस्थ मनोविज्ञान भी प्रस्तुत करती है। एक मां को इस बात का अहसास होना कि उसका बेटा इस बात के प्रति जिज्ञासु रहता है कि उसने क्या खाया? खाया या नहीं? उस दशा में मां को ढाढस बंधाने के लिए पर्याप्त है, जब उसके बच्चे उससे दूर रह रहे हों। यह जेनरेशन गैप को भरने वाली कहानी हैं। इस कहानी का कथानक उम्दा है। यदि इसे और विस्तार दिया गया होता तो यह और अधिक प्रभावी कहानी साबित होती।

जेनरेशन गैप पर एक और कहानी है -‘‘कटुता भरी ज़िन्दगी’’। यह जेनरेशन गैप का दूसरा पहलू दिखाती है। कथानायिका आशा को पति से अलगाव के बाद पति के जीवित होते हुए भी एक विधवा जैसा जीवन जीना पड़ा। उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने बलबूते पर अपने दोनों बच्चों की परवरिश की। बच्चों के बड़े होने और माता-पिता के वृद्धावस्था की ओर बढ़ने से दोनों के बीच जो जेनरेशन गैप बढ़ता है उसे लेखिका ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-‘‘माता-पिता जी कब तक बच्चों का साथ देते। बढ़ती उम्र के साथ हैं इंसान का शरीर भी टूटता है और मन भी। कभी-कभी तो जीवन की डोर भी टूट जाती है। आशा की मां की भी जीवन की डोर टूट गई थी और आशा अब नितांत अकेली रह गई थी। खुली आंखों से देखे सपने टूट गए थे। पति था पर न होने के बराबर। अब उसे आशा से कोई वास्ता नहीं था। बच्चे थे पर शानोशौकत से जीने के आदी हो गए थे। बड़े से घर की सुख-सुविधाओं को छोड़कर वह आशा के छोटे से कमरे में क्यों जाते? यह दुनिया है सतरंगी।’’

कहानी ‘‘मां बेटे का रिश्ता’’ जिस सृदुढ़ता से आरम्भ होती है और एक मां के अपने बेटे के प्रति चिन्ता को जिस गंभीरता से चित्रित करती है, वह क्लाईमेक्स तक पहुंचती-पहुंचती बुरी तरह लड़खड़ा जाती है। कहानी में आरम्भिक दृश्य है कि -‘‘रात के अंधेरे में सांए-सांए करती हवा जब बंद कमरे के दरवाजों से टकराती तो मन में अजीब सी घबराहट होती। मन चीत्कार करने लगता- मेरा बेटा कहां होगा? कहां होगा और कैसा होगा? हे भगवान, मेरे बेटे की रक्षा करना। उसे कुछ भी नहीं होना चाहिए। वह मेरी जान है। हे प्रभु, मेरे वचन की लाज रखना। मेरी गोद मत उजड़ने देना। मैं आपको झूमर चढ़ाऊंगी। सवा पाव मिठाई और नारियल का प्रसाद चढ़ा आऊंगी।’’
   इसी कहानी में जब अंतिम पैरा आता है तो बिल्कुल ही विपरीत चिंतन दिखाई देता है- ‘‘ऐसा शास्त्रों में विदित है कि नौ माह का गर्भ किसी नर्क से कम नहीं है। मां के गर्भ में बच्चा सुख में नहीं बल्कि दुखी रहता है और बार-बार भगवान से यही प्रार्थना करता है कि मुझे इस नर्क से निकालो। भगवान बार-बार उसे पूर्व के बुरे कर्मों का एहसास दिलाते हैं और वह बार-बार माफी मांगता है और गर्भ से बाहर निकलने की चेष्टा करता है। ऐसा बुजुर्गों से सुना है। कथा भागवत में सुना है। और मां समझती है वह उसे पैर मार रहा है और वह आनंदित होती है।’’ कहानी का यह अंत स्तब्ध कर देता है और यही लगता है कि इस कहानी का कम से कम यह अंत नहीं होना चाहिए था। एक स्वस्थ चिंतन के साथ आरंभ कथा को एक कोरे गल्प के साथ यूं समाप्त करना लेखिका की चिंतनशीलता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने लगता है। इससे लेखिका को बचने की आवश्यकता है।
महिला सशक्तिकरण की कहानियों के अंतर्गत लेखिका ने आत्मानुभव को भी कथानक के रूप में रखा है। जैसे एक कहानी है -‘‘मेरी कहानी मेरी कलम से’’। इस कहानी में लेखिका ने बताया है कि वह शिक्षित बेरोजगारों द्वारा स्वयं के व्यवसाय के रूप में महिला टाईपिंग सेंटर खोलना चाहती थी। इसके लिए उसे बैंक से लोन की आवश्यकता थी। बैंक के मैनेजर ने परिचित होते हुए भी उसकी योग्यता पर विश्वास नहीं किया और उसे लोन नहीं दिया। तब एक गुरुजी और गुरुभाई ने उसकी मदद की, जिससे दूसरे बैंक से लोन मिल गया। टाईपिंग सेंटर सफलतापूर्वक चला। जिससे यह साबित हो गया कि उसमें योग्यता की कोई कमी नहीं थी, कमी थी तो उस पहले वाले बैंक के मैनेजर की सोच में जिसने मात्र इस कारण उसका लोन मना कर दिया था कि वह एक महिला है और वह न तो सफल हो सकेगी और न लोन की राशि चुका सकेगी। यह महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने वाली और मार्ग सुझाने वाली एक अच्छी कहानी है।    

वस्तुतः इस संग्रह की कहानियों को पढ़ कर लगता है कि एक कथालेखिका के रूप में उषा वर्मन गंभीरता से प्रयास करना चाहती हैं किन्तु अभी उन्हें कथालेखन की बारीकियों को समझने की नितान्त आवश्यकता है। जिसने भी कथा साहित्य पढ़ा है, जानता है कि कहानी के मूलतः छः तत्व होते हैं - विषयवस्तु अथवा कथानक, चरित्र, संवाद, भाषा शैली, वातावरण और उद्देश्य। एक कुशल लेखक अपनी सुन्दर शैली से साधारण से साधारण कथानक में भी जान डाल देता है। शब्दों की सम्मोहनशक्ति के द्वारा वह पाठकों को मन्त्रमुग्ध कर देता है। आधुनिक कहानियों में मन-संसार के निरूपण और अवचेतन मन के विभिन्न स्तरों को खोलने के लिए विभिन्न प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया जा रहा है। इसी प्रकार प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से कुछ नयी विधियों का प्रयोग किया जाने लगा है। कहानी का केन्द्रीय भाव ही वह हेतु या उद्देश्य है, जिसके लिए कहानी लिखी जाती है। संवेदना की विशिष्ट इकाई के मूल में लेखक का एक विशेष लक्ष्य होता है। जिस दिन उषा वर्मन कथालेखन की इन बारीकियों एवं महत्व को समझ जाएंगी उस दिन वे श्रेष्ठ, विचारशील एवं मनोरंजक कहानियां पाठकों को देने में सक्षम हो जाएंगी।    

उषा वर्मन के इस संग्रह को ले कर कुछ बातें और कहना मैं आवश्यक समझती हूं जो मात्र उषा वर्मन के लिए नहीं अपितु सभी नवोदित कथाकारों के लिए है। व्यस्तताओं से भरे वर्तमान जीवन में 244 पृष्ठों का 101 कहानियों का कहानी संग्रह पाठकों पर पहले ही मानसिक दबाव बना देता। यद्यपि ये सभी कहानियां छोटी-छोटी हैं फिर भी पृष्ठ संख्या को देखते हुए यह पहले ही समझ में आ जाता है कि पूरे संग्रह को पढ़ने के लिए बहुत सारे समय की आवश्यकता होगी। वहीं अधिक पृष्ठों की होने के कारण संग्रह का मूल्य भी रुपये 395/- है जोकि पाठक की जेब पर भी एक मुश्त अधिक भार डालता है। यदि ये कहानियां दो संग्रहों में विभक्त कर दी जातीं तो समय और मूल्य दोनों दृष्टि से पाठकों के लिए सुविधाजनक होती। बहरहाल, ‘‘यादों के झरोखों से’’ कहानी संग्रह की कहानियां पठनीय हैं विशेष रूप से उनके लिए जो कहानियों में विशेष नूतनता का आग्रह नहीं रखते हैं।  
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Tuesday, September 6, 2022

पुस्तक समीक्षा | पूर्वाभास से आभास तक | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 06.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि स्व. निर्मल चंद निर्मल के काव्य  संग्रह  "अंतिम किस्त" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
पूर्वाभास से आभास तक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - अंतिम किस्त
कवि - निर्मल चंद निर्मल
प्रकाशक - एनडी पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य- 150/-
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    कवि निर्मल चंद निर्मल सागर नगर के वरिष्ठतम कवियों में से एक रहे हैं। उन्होंने काव्य क्षेत्र में निरंतर सृजन किया उनके 23 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 23 वां काव्य संग्रह ‘‘अंतिम किस्त’’ कई अर्थों में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस संग्रह में उनकी 65 कविताएं संग्रहीत हैं। वे ‘‘निर्मल दादा’’ के संबोधन से विख्यात रहे हैं। निर्मल दादा ने सदैव समाज से सरोकारित काव्य रचनाएं लिखीं। इन काव्य रचनाओं में उनके गीत, गजल, दोहे सभी समाहित हैं। काव्य संग्रह ‘‘अंतिम किस्त’’ में भी गीत, दोहे और कुंडलियां तीनों विधाओं की रचनाएं हैं। इस संग्रह के साथ भावनात्मक तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि इस संग्रह को दादा निर्मल चंद जी ने अपने जीवन काल में पूर्ण कर लिया था, किंतु वे इसे प्रकाशित नहीं करा सके थे। उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर इस संग्रह को प्रकाशित करा कर लोकार्पित किया उनके पुत्र डॉ नलिन जैन ने जो कि स्वयं भी एक अच्छे कवि हैं।
संग्रह में सरस्वती वंदना के उपरांत पहला गीत ही ‘‘अंतिम किस्त’’ शीर्षक का है। यह कविता कवि के उस चिंतन और चिंता को प्रकट करती है जो सामाजिक वातावरण को देखकर उसके मन में उपजते रहे हैं। एक बंद देखिए -
अहंकार के बने अखाड़े जीने को मरने को
सब ने अपनी नाव बना ली भवसागर तरने को
सुविधाओं के बहुत सारे सबके अपने पथ हैं
पृथ्वी तल पर बुद्धि ने दौड़ाए अनगिन रथ हैं
किसके विश्वासों से बोलो अपनी झोली भर लूं
अंतिम किस्त शेष जीवन की किसे समर्पित कर दूं

    अपने दीर्घ जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखने वाले कवि निर्मल दादा कि यह चिंता उचित है क्योंकि एक कवि हमेशा स्वस्थ और सुंदर समाज की स्थापना की कल्पना करता है। वह चाहता है कि समाज में न कोई छोटा हो न कोई बड़ा, न कोई शोषक हो और न कोई शोषित। जब ऐसी कल्पना टूटी दिखाई देती है और धार्मिक वाद-परिवाद के आधार पर लोग बंटे हुए दिखाई देते हैं तो कवि का दुखी होना स्वाभाविक है। वह अपनीे विरासत किसे सौंपी जाए? यह कवि की चिंता वाजिब है। ‘‘समता का प्रारूप’’ शीर्षक गीत की ये  पंक्तियां विचारणीय हैं-
स्वस्थ बनाएं हम समाज को, कोई न ऊंचा नीचा हो
गुण आधारित हो मानवता, जाति-पांति अब ओछे दिखते
शासन की भी नीति यही है, कवि भी समता के सुर लिखते
आजादी का बिगुल बजेगा, छोटा-बड़ा  नहीं होना है
उद्यमशील जगत होगा यह, पुष्पित अब कोना कोना है
सबका मन  सुगंधी  पाएगा,  खुशबूदार  बगीचा हो
स्वस्थ बनाएं हम समाज को, कोई न ऊंचा नीचा हो

कवि निर्मल दादा एक प्रसन्न व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने कभी किसी को निज पीड़ा का आभास नहीं होने दिया। किंतु उनके हर संग्रह में एक कविता अपने उस पुत्र की स्मृति में अवश्य रहती है जिसका निधन हो गया था और वह उनकी स्मृति में हमेशा बना रहा। इस संग्रह में भी पुत्र छोटू को याद करते हुए एक कविता है जिसका शीर्षक है ‘‘छोटू: एक स्मृति’’। इस गीत में एक पिता का अपने दिवंगत पुत्र के प्रति अमित स्नेह है, व्याकुलता है किंतु साथ ही दार्शनिकता भी है जो यह स्पष्ट करती है कि निर्मल दादा ने  इस दार्शनिकता के सहारे स्वयं को सम्हाला और निरंतर सृजन कार्य करते रहे। इस कविता के बंद देखिए -
आना-जाना प्रकृति सनातन प्रभु जी का है काम
इससे ऊपर कुछ न रहता मनुज रहा नाकाम
स्वीकृत करना मजबूरी है जो भी विधि में आए
रोना धोना जय आभूषण नियति निधि ने पाए
जनम जनम हम याद रखेंगे तुमको पाया खोया
जाग्रत भाग्य हमारे देखो कहां आकर सोया
‘‘छोटू’’ इतना ही विशेष है मिले और फिर बिछड़े
इतना ही आया विधान में तुम आगे, हम पिछड़े

      कवि की कोमल भावनाएं और निजी पीड़ाएं ही घनीभूत हो कर उसे सकल समाज की पीड़ा से जोड़ती हैं। इसीलिए समाज में कन्याओं के प्रति उपेक्षा और कन्या भ्रूण का मारा जाना देखकर कवि निर्मल विचलित हो उठते हैं और वे अजन्मी कन्याओं की ओर से उनकी भावना व्यक्त करते हैं -
मैं धरती पर आऊंगी देखूंगी संसार
मार मुझे मत कोख में मैं हूं तेरा प्यार
कैसे संतति चलेगी कैसे घर संसार
जन्म पूर्व यदि सुता का होता है संहार
हुआ संकुचन किस तरह कैसी चली बयार
जननी को भी हो गई अपनी बेटी भार
मां, भगिनी, कन्या, सुता नारी के हैं रूप
इनके बिना न पा सका कोई पुरुष स्वरूप

कवि निर्मल चंद निर्मल राजनीति की अव्यवस्था भरी स्थिति को देखकर एक सुव्यवस्थित राजनीतिक वातावरण का आह्वान करते हैं। वे बताते हैं कि लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप क्या होना चाहिए? उनकी कविता ‘‘राजतंत्र व लोकतंत्र’’ का यह अंश देखिए-
जनता रहे प्रबुद्ध तभी है लोकतंत्र हितकारी
वरना यूं ही चला चली है दलगत मारामारी
लोकतंत्र शासन है अपना स्वाभिमान का डेरा
अपने शासन को हम कह दे कैसे भला लुटेरा
कैसी चाल रहे शासन की हमने हाथ मिलाया
सदियां बीती राजतंत्र की लोकतंत्र तब आया
हम हैं कितने योग्य आज की कथा यही कहती है
लोकतंत्र की सरिता भी उल्टी-सीधी बहती है
राजनीति समझे जनमत को तो ही शासन सधता
वरना लोकतंत्र व राजतंत्र में कोई फर्क न पड़ता
बुद्धिगत  औजारों  ने  ही लोकतंत्र चमकाया
बीती सदियां राजतंत्र की, लोकतंत्र तब आया

कवि दादा निर्मल चंद निर्मल की कविताओं से गुज़रते हुए उनकी दार्शनिकता की गंभीरता का एहसास तब होता है जब इस संग्रह में रखी गई उनकी कुंडलियों से गुज़रते हैं -
हिंदू-मुस्लिम पारसी बुद्ध सिक्ख वा जैन
कौन कहां पैदा हुआ रही प्रकृति की देन
रही प्रकृति की देन व्यर्थ इठलाता क्यों है
ऊंच-नीच का भाव हृदय में लाता क्यों है
सुन ‘‘निर्मल’’ कविराज सभी है जल के बिंदु
जब तक जीवन दौर तभी तक हैं मुस्लिम हिंदू

इसी कुंडलिया का एक बंद और देखें जिसमें कवि ने तमाम सांसारिक विवादों को छोड़कर सत्य को समझने और हिल-मिलकर रहने का संदेश दिया है -
आए हम व चल दिए बस इतना सा काम
ऐसा भी कुछ कर चलें रहे जगत में नाम
रहे जगत में नाम सभी यश गाएं तेरा
दूर-दूर तक हटे दूर चहुंओर अंधेरा
सुन ‘‘निर्मल’’ कविराय छवि मन में बस जाए
वरना,  कैसे गए  और  तुम कैसे आए

कवि दादा निर्मल चंद निर्मल ने कभी अपने सृजन और जीवन में अंतर नहीं रखा। उन्होंने इतनी सार्थक रचनाएं लिखी कि उनकी पंक्तियां उन पर भी सटीक बैठती है। उन्होंने ऐसा सृजन किया जिससे उन्हें सदैव याद रखा जाएगा। यही सार्थक संदेश उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सभी को निरंतर दिया। उनके इस अंतिम संग्रह की सभी कविताएं सशक्त एवं सार्थक हैं संग्रह की भूमिका कवि टीकाराम त्रिपाठी ने लिखी है तथा पिता के सृजनकर्म पर ‘दो शब्द’ डॉक्टर नलिन जैन ने लिखे हैं। ‘‘अंतिम किस्त’’ की कविताएं पूर्वाभास से आभास तक की यात्रा कराती हैं। यह कविता संग्रह पठनीय है, विचारणीय है, संग्रहणीय है और एक धरोहर स्वरूप है।
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Tuesday, August 23, 2022

पुस्तक समीक्षा | इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 23.08.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि, गांधीवादी समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर के काव्य संग्रह  "ईश्वर तुम कहां हो?" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - ईश्वर तुम कहां हो?
कवि    - रघु ठाकुर
प्रकाशक - राजेंद्र प्रसाद राजन, प्रज्ञान शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थान, नई दिल्ली
मूल्य - 100/-
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    कोरोना काल में जिस दौर से मानव जाति गुजरी है और जिस तरह के हालात से वर्तमान व्यवस्थाएं गुजर रही है उसमें अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से जाग उठता है की ईश्वर है भी या नहीं? और यदि है तो वह कहां है क्या उसे ये विभीषिकाएं, ये आपदाएं, ये अव्यवस्थाएं दिखाई नहीं दे रही हैं? क्योंकि जिस समय आम जनता आपदा से जूझ रही थी, उसकी रोजी-रोटी उससे छिन रही थी और उसके अपने परिजन उसकी आंखों के सामने असमय काल का ग्रास बन रहे थे, ठीक उसी समय चंद पूंजीपतियों की संपत्ति और बैंक बैलेंस में तेजी से इजाफा हो रहा था। क्या यह असंतुलन ईश्वर को दिखाई नहीं दे रहा था? क्या यह अन्याय ईश्वर नहीं देख पा रहा था? जब यह सब कुछ घटित हो रहा था तब ईश्वर कहां था? यदि माइथोलॉजी को माने तो मनुष्यों का कष्ट दूर करने के लिए ईश्वर स्वयं धरती पर नहीं आता है वरन वह धरती पर अपना दूत भेजता है अथवा स्वयं मानव रूप में अवतार लेता है। रोचक बात यह है कि चाहे ईश्वर का दूत हो अथवा स्वयं ईश्वर मानव अवतार के रूप में धरती पर प्रकट हो, दोनों को ही मानवी जीवन के कष्ट झेलने पड़ते हैं। तो फिर ईश्वर अपने ईश्वरीय रूप में ही मनुष्य की सहायता क्यों नहीं करता है? समाज की दशा और दिशा पर चिंतन करते हुए सुपरिचित विचारक एवं कवि रघु ठाकुर ने कविताएं लिखी हैं तथा उनके नवीनतम काव्य संग्रह का नाम है- ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?‘‘

  रघु ठाकुर सुप्रसिद्ध गांधीवादी समाजवादी चिंतक हैं, जिन्होंने अपना समूचा जीवन समतामूलक समाज संरचना के लिए समर्पित कर दिया है। वे मात्र साहित्य सृजन नहीं करते हैं बल्कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के बारे में भी सोचते हैं और उसके हित में हर संभव प्रयास करते हैं। इसीलिए रघु ठाकुर की कविताएं आम आदमी की आवाज बनकर हमारे कानों में ध्वनित होती है और हमारे विचारों को निरंतर झकझोरती है। जैसा कि पुस्तक के पृष्ठ भाग में भी उनका परिचय दिया गया है कि -‘‘बचपन से युवावस्था तक और युवावस्था से लेकर अब तक उनका जीवन विचारों की क्रांति मशाल लेकर समूचे देश में अलख जगा रहे हैं और दमित-दलित तथा वंचित, पिछड़े वर्गों के अधिकारों की लड़ाई अनवरत लड़ रहे हैं। डॉ. लोहिया द्वारा प्रकाशित ‘‘जन‘‘ एवं ‘‘मैनकाइंड‘‘ में लेखन तथा श्री जॉर्ज फर्नांडिस के द्वारा प्रकाशित श्प्रतिपक्षश् एवं ‘‘द अदर साइड‘‘ के संपादन से जुड़े रहे। वर्तमान में दक्षेस महासंघ के अध्यक्ष तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संरक्षक भी हैं सुल्तानपुर से प्रकाशित ‘‘लोकतांत्रिक समाजवाद’’ मासिक समाचार पत्र के संस्थापक सदस्य रहे और संप्रति ’’दुखियावाणी’’ भोपाल के संपादक भी हैं।’’
     ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?’’ कविता संग्रह में कुल 47 कविताएं हैं। जो कि जन चेतना को जगाने की दिशा में प्रखर आह्वान के समान हैं। संग्रह की भूमिका वरिष्ठ पत्रकार एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष रह चुके श्री रामचरण जोशी ने तथा वरिष्ठ कवि ध्रुव शुक्ल ने लिखी है। रामशरण जोशी ने रघु ठाकुर के चिंतन एवं इन कविताओं की आत्मा की पड़ताल करते हुए लिखा है- ‘‘रघु जी की कविताएं बहुरंगी सामाजिक सरोकार से ओतप्रोत हैं। संयोगों की पृष्ठभूमि कवि एक्टिविस्ट को एक मौका देती है कि भारतीय गणतंत्र ने अपनी पौन सदी की यात्रा कैसे तय की है? देश के शासक वर्ग में विभिन्न स्तर के नागरिकों के साथ कैसा सलूक किया है? देश के शासक वर्ग में विभिन्न स्तर के नागरिकों के साथ कैसा सुलूक किया है? गांधी के अंतिम व्यक्ति के जीवन में कितना गुणात्मक परिवर्तन आया है? क्या वह अपनी किस्मत बदल सकता है? क्या समतावादी भारत का निर्माण हो सकता है? क्या धन, धरती और सत्ता का न्याय संगत बंटवारा किया जा सकता है? इस तरह के तमाम सवाल रघु जी की कविताओं में गुंजित होते हैं।’’
इस प्रकार ध्रुव शुक्ल ने ‘‘समाजवाद की रघुकुल रीत’’ शीर्षक से भूमिका लिखते हुए रघु ठाकुर की कविताओं पर समुचित प्रकाश डाला है वे लिखते हैं- ‘‘रघु ठाकुर अपने छात्र जीवन से ही कविता को एक आयुध की तरह बरतते रहे हैं। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा की अमिधा शक्ति को ही अपनाया है। कोई राजनेता अगर अमिधा की शक्ति को साध ले तो समाज में घर कर गए रोगों के लक्षणों को सहजता से ढंग से प्रकट कर सकता है।’’
रघु ठाकुर के काव्य संग्रह ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?’’ में संग्रहीत कविताएं विलक्षण भाव बोध उत्पन्न करती हैं। इसी शीर्षक की कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
कहते हैं ईश्वर सर्वशक्तिमान है
उन्हें तो सब कुछ करना आसान है
पर ईश्वर तब तुम कहां थे,
जब भेड़िए, दरिंदे उस अबला नारी का तन लूट रहे थे।
वे हजारों लाखों मजदूर कर्मचारी,
खदानों में खून पसीना बहाकर
पसीने से लथपथ और धुंए को नाकों में भरकर
धूल कणों को सांसो में खींच रहे थे
ईश्वर तुम तब कहां थे,
जब वे खांसते, खखारते, कफ उगलते, टीबी के बीमार बन रहे थे
परंतु इन्हीं मजबूरों के श्रम का शोषण कर
मोदी और मित्तल खरबपति बन गए
इन्हीं के पसीने से
जिंदल और अंबानी नए बादशाह  गए, ईश्वर तब तुम कहां थे?

संग्रह में एक कविता है ‘‘गरीब की आत्महत्या‘‘। इस कविता में वर्तमान में प्रचलित चुनावी परिदृश्य पर तीखा कटाक्ष किया गया है। कवि यह स्मरण कराना चाहते हैं कि नेता तो अपनी स्वार्थपरता में डूबे हुए हैं ही वही आम जनता भी अपने गढ़े हुए भ्रम में जी रही है। कविता की यह पंक्तियां विचारणीय हैं -
चुनाव की जीत हार के सट्टे पर
अरबों के दांव लगते हैं।
  गरीबों के विकास के लिए
घोषणा पत्र, दृष्टि पत्र
करोड़ों में छपते हैं
और गरीब, इलाज के अभाव में
कर्ज से भयभीत होकर
आत्महत्या करते हैं।

समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने एक कवि के रूप में अपने समाजवादी विचारों को बड़े ही सुंदर और सात्विक शब्दों में अपनी कविता ‘‘समाजवादी‘‘ में पिरोया है जिसके एक एक शब्द कवि के व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय देते हैं। कवितांश-
हम जो समाजवादी हुए
न हिंदू के रहे - न मुसलमान के रहे
न अगड़े के रहे - न पिछड़ों के रहे
न दोस्त के रहे - न दुश्मन के रहे
न अपनों के रहे - न परायों के रहे
हम जो समाजवादी हुए
बेकसी व मुफलिसी की जिंदगी जिए,
न गरीब के रहे - न अमीर के रहे
हम तो ताउम्र
सफर करते रहे।

रघु ठाकुर की यह विशेषता है कि वे सत्य कहने से कभी नहीं हिचकते हैं। उनके यही वैचारिक तेवर उनकी कविताओं में भी उभर कर सामने आते हैं, जब वे खरे
-खरे शब्दों में अव्यवस्था और राजनीतिक स्वार्थपरता को लानत भेजते हैं। इसी तारतम्य में उनकी एक छोटी कविता है ‘‘राष्ट्रवाद‘‘, कम शब्दों की किंतु व्यापक अर्थ और भावार्थ सहेजे हुए-
हवाई अड्डों को बेचा है
रेल को भी बेचेंगे
बी. एस. एन. एल. को बंद करेंगे
जीवन बीमा को बेचेंगे
खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई. लाकर वॉलमार्ट को दे देंगे,
सारे देश को बेच-बेचकर,
जय राष्ट्रवाद फिर बोलेंगे।

यूं तो संग्रह की सभी कविताएं वैचारिकता सुसंपन्न हैं और यह आशा करती हैं कि जो भी इन्हें पढ़ेगा वह कुछ पल ठिठक कर परिस्थितियों पर विचार अवश्य करेगा। ‘‘नहीं चाहिए ये अच्छे दिन‘‘ एक ऐसी ही कविता है, जो दो पल ठहर कर सोचने के लिए विवश करती है-
नहीं चाहिए ये अच्छे दिन
हमें लौटा दो बीते हुए दिन
गैस सिलेंडर छः सौ का था,
रेल का भाड़ा आधा था
इंटरनेट भी सस्ता था
देश पर कर्ज आधा था।
पहले बिजली जलती थी
अब तो बिजली जलाती है
जिस दिन बिल घर आता है
झटका तेज लगाती है......

इस संग्रह को मिलाकर 15 पुस्तकों के रचनाकार रघु ठाकुर का काव्य संसार सर्वाधिक समर्थ और अव्यक्त को व्यक्त करने वाला है। वस्तुतः रघु ठाकुर हमारे समय के उन जुझारू कवियों में से एक हैं, जिनकी कविताओं का सादा और सरल चेहरा मुखौटाहीन है। वे चटकदार रंगों में डूबे शब्दों के बजाय, आम आदमी के जीवन के धूसर शब्दों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं, इसीलिए उनकी कविताएं शब्द जाल फेंकने के बजाय सीधा संवाद करती हैं। रघु ठाकुर के इस काव्य संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए, पिकासो की विश्वविख्यात क्रांतिकारी पेंटिंग ‘‘गुएर्निका‘‘ पर कविता लिखने वाले फ्रांसीसी कवि पॉल एलुआर का यह कथन याद आता है कि ‘‘जब तक कविता जनचेतना को जगाने का काम करती रहेगी तब तक वह अपने मौलिक स्वरूप में रहेगी।‘‘ इस दृष्टि से इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है।                               
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Tuesday, August 9, 2022

पुस्तक समीक्षा | दोहों के जल से मिट्टी को आचमन | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 09.08.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि बृंदावन राय सरल के काव्य संग्रह  "मिट्टी रोई फूट कर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏

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पुस्तक समीक्षा
दोहों के जल से मिट्टी को आचमन
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह     -  मिट्टी रोई फूट कर
कवि           -  बृंदावन राय सरल
प्रकाशक     -  एसजीएसएच पब्लिकेशन
मूल्य           -  199/- 
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      इस दौर में पुस्तक प्रकाशन का एक नया ट्रेंड आरम्भ हुआ है, वह है ‘‘सेल्फ पब्लिशिंग’’। तनिक जोखिम है फिर भी लेखकों के लिए यह सुविधाजनक और राहत देने वाला ट्रेंड है। इसमें ऑनलाईन पब्लिशर अपना मोबाईल नंबर, ईमेल आईडी आदि साईट्स पर उपलब्ध कराते हैं। उनसे संपर्क कर के कोई भी लेखक अपनी पुस्तक प्रकाशित करा सकता है। वे अपने पब्लिकेशन हाउस का नाम देते हैं, आईएसबीएन नंबर देते हैं तथा सुंदर गेटअप के साथ न्यूनतम व्यय में पुस्तक की इच्छित प्रतियां छाप कर उसके ऑनलाईन प्रचार-प्रसार का जिम्मा भी लेते हैं। बस, जोखिम यही है कि जहां कुछ ईमानदार होते हैं, वहां दो-चार बेईमान भी होते हैं। लेकिन आज का चतुर लेखक ईमानदार पब्लिशर को पहचान लेता है। बहरहाल, ऐसे कई सेल्फ पब्लिशर अपने शहर का पता पुस्तक पर उजागर नहीं करते हैं। आज जिस पुस्तक की समीक्षा मैं करने जा रही हूं वह भी सेल्फ पब्लिशिंग में छपी हुई प्रतीत होती है क्योंकि इसमें भी व्हाट्सअप और इंस्टाग्राम नंबर तो दिए गए हैं लेकिन प्रकाशन संस्थान के शहर का नाम कहीं नहीं हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा कि पुस्तक का गेटअप इस नए ट्रेंड के अनुरुप अच्छा है।

चलिए अब आते हैं संग्रह के आंतरिक पृष्ठों पर। संग्रह की सारगर्भित भूमिका खगड़िया बिहार के साहित्य सृजन मंच के संयोजक, संस्थापक शिवकुमार सुमन ने लिखी है। जहां तक संग्रह के कवि बृंदावन राय सरल के बारे में कहा जाए तो वे ऑनलाईन गोष्ठियों एवं कविसम्मेलनों का एक जाना-माना नाम हैं। कवि ने पुस्तक के कव्हर के पृष्ठ भाग में अपने दोहों के बारे में स्वयं लिखा है कि ‘‘किताब मिट्टी रोई फूट कर - इस किताब में मैंने दोहे लिखे हैं मां पर, देश पर, वर्तमान पर, पृथ्वीराज चौहान पर, बसंत पर, रिश्तों पर, नारी पर, बेटी पर, और भी अनेकों विषयों पर जो आप सबको पसंद आएंगे। क्योंकि दोहा ऐसी विधा है जिसमें 2 पंक्तियों में एक पूरी कविता कहने की क्षमता होती है। हिंदी साहित्य में दोहों की शुरुआत अमीर खुसरो से मानी जाती है। इनके साथ कबीर, तुलसी, रहीम के दोहे इतने प्रसिद्ध और सार्थक हैं कि आज भी एक भटके इंसान को सही राह पर लाने की क्षमता इनके दोहों में हैं। इनको हम मंत्र जैसे मान सकते हैं। इसी आधार पर मैंने दोहों के माध्यम से ‘मिट्टी रोई फूटकर’ लिखी है। बिहारी और रसलीन के दोहे भी बहुत प्रभावशाली माने जाते हैं। श्रृंगार के दोहे भी जिंदगी में बहुत महत्व रखते हैं। दुनिया के संचालन में श्रृंगार अपनी जगह जरूरी है। मैंने दोहे निर्धारित माप में लिखने का प्रयास किया है, जो सभी गेय भी हैं। इसलिए सभी को पसंद आएंगे। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है।’’

कवि ने सरस्वती वंदना के बाद पहला दोहा ‘कलम लेखनी’ पर लिखा है जिसमें उसने कलम की महत्ता बताई है-
कलम हामरी आन है, कलम हमें आकाश।
कलम बिना लगता हमें, जैसे हों हम लाश।।
कलम हमारी ज़िनदगी, कलम हमें अहसास।
दुनिया मुट्ठी में दिखे, कलम रहे जग पास।।
कविता लिखती जो कलम, कीमत है अनमोल।
चांदी पर फिसले नहीं, शब्द-शब्द तू तौल।।

कवि ने प्रकृति और जीवन के साम्य पर दोहे लिखे हैं। जैसे धरती, गगन, पारा, पखेरू आदि-
मां धरती का रूप तो, पिता लगे आकाश।
जीवन भर जिनने दिया, हमको दिव्य प्रकाश।।
निर्मल निश्छल सोच हो, लेकिन गगन समान।
जिनमें सब बन कर रहें, सिर्फ़-सिर्फ़ इंसान।।
मन का पारा आसमां, चेहरे पर मुस्कान।
मौसम ऐसा आज है, क्या करता इंसान।।
प्राण पखेरू एक दिन,उड़ जाएं यह सत्य।
पाप, पुण्य के घ्यान से करना बस यह कृत्य।।

      पहाड़, पंछी, रोटी, प्यास, घाव आदि भी बृंदावन राय सरल के दोहों के विषय हैं जिनसे उनके दोहा सृजन को समुचित विस्तार मिला है-
शीशे का ले कर बदन, चढ़ना हमें पहाड़।
उस पर आंधी उठ रही, और खोखले झाड़।।
पानी भी मंहगा यहां, मंहगी रोटी-दाल।
नेता कहें विदेश में, भारत है खुशहाल।।
धनवानों की रूह में सहरा करे निवास।
दरिया इनको कम पड़े, ऐसी इनकी प्यास।।

आजकल जीवन इतना तनावपूर्ण हो गया है कि लोग स्वाभाविक हंसी हंसना भूलते जा रहे हैं। लोगों में मानसिक तनाव कम करने और उन्हें हंसाने के लिए शहरों में लाफिंग क्लब काम कर रहे हैं। कवि सरल भी हंसी को एक रामबाण औषधि मानते हैं। बानगी देखिए-
रामबाण-सी है हंसी, करे दूर सब रोग।
जो इनको पालन करे, सुख से हैं वे लोग।।
अमृत का ही रूप है, हंसना भी श्रीमान।
स्वस्थ रहो, सुख से रहो, ये भी संचित ज्ञान।।
जो होता है, सच वही, बाकी सब है झूठ।
हंसी बिना है ज़िन्दगी, जैसे सूखा ठूंठ।।

कवि ने मां पर बहुत सुंदर आत्मीय दोहे लिखे हैं जिसमें मां के विविध रूपों का परिचय दिया गया है-
मां चंदा की चांदनी मां सूरज की धूप।
वक्त पड़े ज्वालामुखी वक्त पड़े जल रूप।।
सरिता मां की नम्रता इसमें इतना प्यार ।
जीवन भर टूटे नहीं जिसकी अविरल धार।।
मां शाला मां है गुरु मां जीवन आधार ।
पौधा मां के प्यार से वृक्ष बने छतनार।।
मां मीरा की पीर है मां कबीर का सत्य।
मां मंदिर की प्रार्थना तुलसी का साहित्य।।
      
कभी सरल द्वारा किसान पर लिखे गए दोहे सच्चाई की खुरदरी जमीन से उठाए गए हैं इसीलिए वे बेहद सत्यनिष्ठ और मार्मिक है। कवि ने अपने दोहों के माध्यम से किसान की वास्तविक स्थिति को बखूबी सामने रखा है-
बेटी की शादी करें, बेच बेच कर खेत।
दुख में डूबी जिंदगी, मन भी सुखी रेत।।
आजादी है नाम की, मिलते ऋणी किसान।
किस्तों में मरने लगे, संकट में है जान।।
हुए अपनी लाश खुद, मिले ना कोई तंत्र ।
लगता आज किसान का, जीवन है परतंत्र।।

कवि ने जीवन के लिए श्रृंगार रस को आवश्यक माना है और इसीलिए उन्होंने श्रृंगार रस के दोह लिखते हुए श्रृंगार के सौंदर्य पक्ष को सामने रखा है-
अधर हिलें जब भी सरल, बरसे खुशबू इत्र।
आंखों से देखे हमें,  करके मादत चित्र।।
चंदन  महके जिस्म से मदिरा छलके नैन।
बिन उनके बस्ती हमें, होली की  हर रैन ।।
नैना दोनों मद भरे, चेहरा लगे गुलाब।
देह लगे कामायनी खुशबू भरा शबाब।।

बृंदावन राय सरल अपने दोहों के द्वारा संवाद करने में सक्षम हैं किन्तु संग्रह में जिस ढंग से दोहे प्रकाशित किए गए हैं, वे दोहे के फार्मेट में बाधा पहुंचाते हैं। दो पंक्तियों में लिखे जाने वाले दोहों को चार पंक्तियों में प्रकाशित कर दिया गया है जिससे प्रथमदृष्टि में इन दोहों के कविता या गीत होने का भान होता है। फिर भी दोहे पठनीय हैं और रुचिकर हैं। संग्रह को पठनीय माना जा सकता है। इन्हें पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे दोहों के जल से मिट्टी का आचमन किया गया हो।                        
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