Tuesday, September 13, 2022

पुस्तक समीक्षा | मन-संसार को अभिव्यक्त करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 13.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका सुश्री उषा वर्मन के कहानी  संग्रह  "यादों के झरोखों से" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मन-संसार को अभिव्यक्त करती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - यादों के झरोखों से
लेखिका     - सुश्री उषा वर्मन
प्रकाशक    - जे.टी.एस. पब्लिकेशन, वी-508, गली नं.17ए विजय पार्क, दिल्ली
मूल्य       - 395/-
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    उषा वर्मन एक उदयीमान कहानीकार हैं। ‘‘यादों के झरोखों से’’ उनका प्रथम कहानी संग्रह है। इस संग्रह में उनकी कुल 101 कहानियां हैं। इनमें अधिकांश कहानियां मन-संसार को अभिव्यक्त करती हैं। उषा वर्मन की कहानियों में सामाजिक गतिविधियों के मन पर पड़ने वाले प्रभावों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ग्रेजुएट तक शिक्षित किन्तु स्वयं के विभिन्न व्यवसायों द्वारा अपने आपको कर्मठ बनाने वाली इस कथाकार के पास एक मौलिक अंतर्दृष्टि है। वे समस्याओं को अपनी दृष्टि और अपने अनुभव के आधार पर देखती हैं तथा उनका समाधान भी वे अपने दृष्टिकोण से ढूंढती हैं। इसीलिए उनकी कुछेक कहानियों में धर्म और विश्वास का चमत्कारी आग्रह मिलता है। जैसे इस संग्रह की पहली ही कहानी है ‘‘भक्ति का चमत्कार’’। कथानक के अनुसार श्रावण मास में अत्यधिक वर्षा से आप्लावित शहर की सड़कों से गुज़र कर कथानायिका जया मंदिर पहुंचती है। वहां पहुंच कर वह मंदिर में सफाई इत्यादि की सेवाकार्य करती है। इसी दौरान उसे मंदिर प्रांगण में फन फैलाया हुआ नाग दिखाई दे जाता है। वह उसे ईश्वर का चमत्कार मान कर नमन करती है और फिर पुजारी को बुला उसे भी दर्शन कराती है। वस्तुतः नागराज बाढ़ सदृश पानी में डूबे अपने बिल से निकल कर मंदिर प्रागण में शरणागत था जिसे ईश्वर का चमत्कार मान लिया गया।

संग्रह में एक कहानी है ‘‘पुनर्जन्म’’। यह कहानी गोया पुनर्जन्म की धारणा को स्थापित करने की दिशा में लिखी गई है। निशा को अपनी भतीजी में अपनी मां की उपस्थिति अर्थात् पुनर्जन्म का अहसास होता है और जल्दी ही उसे अपनी इस धारणा पर विश्वास भी हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि ‘‘यादों के झरोखों से’’ कहानी संग्रह की सभी कहानियां धार्मिक चमत्कार या पुनर्जन्म पर आधारित हों, कई कहानियां सामाजिक विसंगतियों को आईना दिखाती है, तो कुछ महिला सशक्तिकरण के उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। मनोवैज्ञानिक धरातल की भी कहानियां हैं जिनमें जेनरेशनगैप के दोनों चेहरे दिखाए गए हैं। एक कहानी है-‘‘बच्चे जब समझदार हो जाते हैं’’। इस कहानी में मां को ले कर भाई-बहन के बीच संवाद के बहाने एक अच्छा कथानक सामने रखा गया है। भाई-बहन दोनों मां से दूर दूसरे शहर में रह रहे हैं। भाई ने मां को कह रखा है कि वह सुबह-शाम अपने भोजन की थाली की तस्वीर खींच कर उसे मोबाईल पर भेज दिया करे। बहन को लगता है कि इस प्रक्रिया में मां का भोजन ठंडा हो जाता होगा और उन्हें ठंडा भोजन करना पड़ता होगा। तब भाई अपने इस आग्रह का औचित्य बताता है कि डबलरोटी खा कर रह जाने वाली मां फोटो शेयर करने की जिद के कारण पूरा भोजन बनाती है और पूरा भोजन करती है। यह सुन कर बहन भी भाई के आग्रह से सहमत हो जाती है। यह एक सकारात्मक कहानी है जो एक स्वस्थ मनोविज्ञान भी प्रस्तुत करती है। एक मां को इस बात का अहसास होना कि उसका बेटा इस बात के प्रति जिज्ञासु रहता है कि उसने क्या खाया? खाया या नहीं? उस दशा में मां को ढाढस बंधाने के लिए पर्याप्त है, जब उसके बच्चे उससे दूर रह रहे हों। यह जेनरेशन गैप को भरने वाली कहानी हैं। इस कहानी का कथानक उम्दा है। यदि इसे और विस्तार दिया गया होता तो यह और अधिक प्रभावी कहानी साबित होती।

जेनरेशन गैप पर एक और कहानी है -‘‘कटुता भरी ज़िन्दगी’’। यह जेनरेशन गैप का दूसरा पहलू दिखाती है। कथानायिका आशा को पति से अलगाव के बाद पति के जीवित होते हुए भी एक विधवा जैसा जीवन जीना पड़ा। उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने बलबूते पर अपने दोनों बच्चों की परवरिश की। बच्चों के बड़े होने और माता-पिता के वृद्धावस्था की ओर बढ़ने से दोनों के बीच जो जेनरेशन गैप बढ़ता है उसे लेखिका ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-‘‘माता-पिता जी कब तक बच्चों का साथ देते। बढ़ती उम्र के साथ हैं इंसान का शरीर भी टूटता है और मन भी। कभी-कभी तो जीवन की डोर भी टूट जाती है। आशा की मां की भी जीवन की डोर टूट गई थी और आशा अब नितांत अकेली रह गई थी। खुली आंखों से देखे सपने टूट गए थे। पति था पर न होने के बराबर। अब उसे आशा से कोई वास्ता नहीं था। बच्चे थे पर शानोशौकत से जीने के आदी हो गए थे। बड़े से घर की सुख-सुविधाओं को छोड़कर वह आशा के छोटे से कमरे में क्यों जाते? यह दुनिया है सतरंगी।’’

कहानी ‘‘मां बेटे का रिश्ता’’ जिस सृदुढ़ता से आरम्भ होती है और एक मां के अपने बेटे के प्रति चिन्ता को जिस गंभीरता से चित्रित करती है, वह क्लाईमेक्स तक पहुंचती-पहुंचती बुरी तरह लड़खड़ा जाती है। कहानी में आरम्भिक दृश्य है कि -‘‘रात के अंधेरे में सांए-सांए करती हवा जब बंद कमरे के दरवाजों से टकराती तो मन में अजीब सी घबराहट होती। मन चीत्कार करने लगता- मेरा बेटा कहां होगा? कहां होगा और कैसा होगा? हे भगवान, मेरे बेटे की रक्षा करना। उसे कुछ भी नहीं होना चाहिए। वह मेरी जान है। हे प्रभु, मेरे वचन की लाज रखना। मेरी गोद मत उजड़ने देना। मैं आपको झूमर चढ़ाऊंगी। सवा पाव मिठाई और नारियल का प्रसाद चढ़ा आऊंगी।’’
   इसी कहानी में जब अंतिम पैरा आता है तो बिल्कुल ही विपरीत चिंतन दिखाई देता है- ‘‘ऐसा शास्त्रों में विदित है कि नौ माह का गर्भ किसी नर्क से कम नहीं है। मां के गर्भ में बच्चा सुख में नहीं बल्कि दुखी रहता है और बार-बार भगवान से यही प्रार्थना करता है कि मुझे इस नर्क से निकालो। भगवान बार-बार उसे पूर्व के बुरे कर्मों का एहसास दिलाते हैं और वह बार-बार माफी मांगता है और गर्भ से बाहर निकलने की चेष्टा करता है। ऐसा बुजुर्गों से सुना है। कथा भागवत में सुना है। और मां समझती है वह उसे पैर मार रहा है और वह आनंदित होती है।’’ कहानी का यह अंत स्तब्ध कर देता है और यही लगता है कि इस कहानी का कम से कम यह अंत नहीं होना चाहिए था। एक स्वस्थ चिंतन के साथ आरंभ कथा को एक कोरे गल्प के साथ यूं समाप्त करना लेखिका की चिंतनशीलता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने लगता है। इससे लेखिका को बचने की आवश्यकता है।
महिला सशक्तिकरण की कहानियों के अंतर्गत लेखिका ने आत्मानुभव को भी कथानक के रूप में रखा है। जैसे एक कहानी है -‘‘मेरी कहानी मेरी कलम से’’। इस कहानी में लेखिका ने बताया है कि वह शिक्षित बेरोजगारों द्वारा स्वयं के व्यवसाय के रूप में महिला टाईपिंग सेंटर खोलना चाहती थी। इसके लिए उसे बैंक से लोन की आवश्यकता थी। बैंक के मैनेजर ने परिचित होते हुए भी उसकी योग्यता पर विश्वास नहीं किया और उसे लोन नहीं दिया। तब एक गुरुजी और गुरुभाई ने उसकी मदद की, जिससे दूसरे बैंक से लोन मिल गया। टाईपिंग सेंटर सफलतापूर्वक चला। जिससे यह साबित हो गया कि उसमें योग्यता की कोई कमी नहीं थी, कमी थी तो उस पहले वाले बैंक के मैनेजर की सोच में जिसने मात्र इस कारण उसका लोन मना कर दिया था कि वह एक महिला है और वह न तो सफल हो सकेगी और न लोन की राशि चुका सकेगी। यह महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने वाली और मार्ग सुझाने वाली एक अच्छी कहानी है।    

वस्तुतः इस संग्रह की कहानियों को पढ़ कर लगता है कि एक कथालेखिका के रूप में उषा वर्मन गंभीरता से प्रयास करना चाहती हैं किन्तु अभी उन्हें कथालेखन की बारीकियों को समझने की नितान्त आवश्यकता है। जिसने भी कथा साहित्य पढ़ा है, जानता है कि कहानी के मूलतः छः तत्व होते हैं - विषयवस्तु अथवा कथानक, चरित्र, संवाद, भाषा शैली, वातावरण और उद्देश्य। एक कुशल लेखक अपनी सुन्दर शैली से साधारण से साधारण कथानक में भी जान डाल देता है। शब्दों की सम्मोहनशक्ति के द्वारा वह पाठकों को मन्त्रमुग्ध कर देता है। आधुनिक कहानियों में मन-संसार के निरूपण और अवचेतन मन के विभिन्न स्तरों को खोलने के लिए विभिन्न प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया जा रहा है। इसी प्रकार प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से कुछ नयी विधियों का प्रयोग किया जाने लगा है। कहानी का केन्द्रीय भाव ही वह हेतु या उद्देश्य है, जिसके लिए कहानी लिखी जाती है। संवेदना की विशिष्ट इकाई के मूल में लेखक का एक विशेष लक्ष्य होता है। जिस दिन उषा वर्मन कथालेखन की इन बारीकियों एवं महत्व को समझ जाएंगी उस दिन वे श्रेष्ठ, विचारशील एवं मनोरंजक कहानियां पाठकों को देने में सक्षम हो जाएंगी।    

उषा वर्मन के इस संग्रह को ले कर कुछ बातें और कहना मैं आवश्यक समझती हूं जो मात्र उषा वर्मन के लिए नहीं अपितु सभी नवोदित कथाकारों के लिए है। व्यस्तताओं से भरे वर्तमान जीवन में 244 पृष्ठों का 101 कहानियों का कहानी संग्रह पाठकों पर पहले ही मानसिक दबाव बना देता। यद्यपि ये सभी कहानियां छोटी-छोटी हैं फिर भी पृष्ठ संख्या को देखते हुए यह पहले ही समझ में आ जाता है कि पूरे संग्रह को पढ़ने के लिए बहुत सारे समय की आवश्यकता होगी। वहीं अधिक पृष्ठों की होने के कारण संग्रह का मूल्य भी रुपये 395/- है जोकि पाठक की जेब पर भी एक मुश्त अधिक भार डालता है। यदि ये कहानियां दो संग्रहों में विभक्त कर दी जातीं तो समय और मूल्य दोनों दृष्टि से पाठकों के लिए सुविधाजनक होती। बहरहाल, ‘‘यादों के झरोखों से’’ कहानी संग्रह की कहानियां पठनीय हैं विशेष रूप से उनके लिए जो कहानियों में विशेष नूतनता का आग्रह नहीं रखते हैं।  
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