Monday, March 26, 2018

अमूल्य चित्र कथाक्रम-2012 लखनऊ के ... डॉ शरद सिंह

Kathakram 2012 -Lucknow- Dr (Miss) Sharad Singh

Kathakram 2012 -Lucknow- Khashi Nath Singh ji - Photo Click by Dr (Miss) Sharad Singh

प्रिय मित्रो, आज वो तस्वीरें शेयर कर रही हूं जो लखनऊ के कथाक्रम-2012 आयोजन के दौरान स्टेट गेस्ट हाऊस में सुबह के नाश्ते के पहले मेरे मोबाईल कैमरे से हमने खींची थीं। उस दौरान श्रद्धेय काशीनाथ सिंह जी और मैंने अमरीक सिंह दीप जी की पगड़ी अपने सिर पर धारण की थी.... और वह पल कम से कम मेरे लिए हमेशा अविस्मरणीय रहेगा। क्योंकि एक पवित्र पगड़ी को अपने सिर पर धारण करने के बाद जो मुझे सुखद अनुभूति हुई वह शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं है।
इनमें से श्रद्धेय काशीनाथ सिंह जी की तस्वीर मैंने क्लिक थी तथा शेष वहीं के एक अटैडेट ने क्लिक की थीं। तस्वीरों में हैं - श्रद्धेय काशीनाथ सिंह जी, परमानंद श्रीवास्तव जी, अमरीक सिंह दीप जी, दादा भाई दिनेश कुशवाहा जी, भाई अशोक मिश्रा जी और मैं डॉ. (सुश्री) शरद सिंह।
उन दिनों मेरे पास Nokia N73 मोबाईल हुआ करता था। ये फोटो उसी से क्लिक की गई थीं। 
 
Kathakram 2012 -Lucknow- From Left - Dr Sharad Singh, Khashi Nath Singh ji, Parmanand Shrivastav and Amrik singh Deep

Kathakram 2012 -Lucknow - Parmanand Shrivastav and Dr Sharad Singh
Kathakram 2012 -Lucknow- From Left - Amrik singh Deep , Dinesh Kushawah, Dr Sharad Singh, Ashok Mishra and Parmanand Shrivastav

Kathakram 2012 -Lucknow- From Left - Kashi Nath Singh ji , Dr Sharad Singh, Parmanand Shrivastav and Amrik singh Deep
Kathakram 2012 -Lucknow- From Left -Dinesh Kushawah, Dr Sharad Singh, Ashok Mishra and Parmanand Shrivastav

Dear Friends, Today I am sharing pictures which were taken from my mobile camera before breakfast in state guest house during the Kathakram-2012, Lucknow. At that time, the Respected Kashinath Singh ji and I used to wear on our head the 'Pagari' (Turban) of Amrik Singh Deep ji .... and that moment will always be unforgettable for me at least. Because after holding a Sacred Turban on my head, it is not possible to make a statement in the words which I have experienced.
The picture of Kashinath Singh ji was a click by me and the rest of the an attendant.
In the photographs - Respected Kashinath Singh ji, Parmanand Shrivastav ji, Amrik Singh Deep ji, Dada Bhai Dinesh Kushwaha ji, Bhai Ashok Mishra ji and I Dr. (Miss) Sharad Singh.
In those days I used to have a Nokia N73 mobile. These photos were clicked from the same.

Wednesday, March 21, 2018

चर्चा प्लस ... विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष : जल रहेगा तो जीवन रहेगा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष :
जल रहेगा तो जीवन रहेगा
- डॉ. शरद सिंह

जल ही जीवन है वर्ष 2018 के लिए जल दिवस की थीम रखी गई है -‘नेचर फॉर वाटर’’ यानी ‘‘जल के लिए प्रकृति’’। यदि प्रकृति सुरक्षित रहेगी और प्राकृतिक तत्वों में संतुलन बना रहेगा तो जल भी बचा रहेगा। हमें याद रखना होगा कि दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में आगामी अप्रैल माह से 4 लाख लोगों को नल बंद करने की योजना बना रहा है। और वह दिन होगा -‘जीरो डे’। कहीं हम भी इसी भविष्य की ओर तो नहीं बढ़ रहे? जो जल रहेगा तो जीवन रहेगा, वरना बिन पानी सब सून.....
विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष : जल रहेगा तो जीवन रहेगा - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस  - Lekh for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

वर्ष 2018 के लिए जल दिवस की थीम रखी गई है -‘नेचर फॉर वाटर’’ यानी ‘‘जल के लिए प्रकृति’’। यदि प्रकृति सुरक्षित रहेगी और प्राकृतिक तत्वों में संतुलन बना रहेगा तो जल भी बचा रहेगा। हमें याद रखना होगा कि दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में आगामी अप्रैल माह से 4 लाख लोगों को नल बंद करने की योजना बना रहा है। और वह दिन होगा -‘जीरो डे’। मेरी पीढ़ी तक के वे लोग जिन्होंने हिन्दी माध्यम सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा पाई होगी उन्होंने ककहरा के अभ्यास में यह पाठ अवश्य पढ़ा होगा-‘घर चल, जल भर‘। हमें जल का महत्व हर कदम पर सिखाया और समझाया गया लेकिन मानो हमने अपने तमाम पाठ बहुत जल्दी भुला दिए। हमारी लापरवाहियों के कारण जल का संकट आज एक वैश्विक संकट का रूप लेता जा रहा है। इस संकट को महसूस करते ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने जल संरक्षण की ओर सारी दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने का निश्चय किया और वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के द्वारा प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को विश्व जल संरक्षण दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। जल का महत्व, आवश्यकता और संरक्षण के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिये इसे पहली बार वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में “पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन” की अनुसूची 21 में आधिकारिक रुप से जोड़ा गया था और वर्ष 1993 से इस उत्सव को मनाना शुरु किया। वर्ष 2017 के लिए थीम थी “अपशिष्ट जल प्रबंधन“। जिसे हम आत्मसात नहीं कर सके। सच तो यह है कि हमारी योजनाओं और उन योजनाओं के अमल होने में दो ध्रुवों जितनी दूरी होती है। केन्द्र, राज्य, निकाय आदि हर स्तर पर बड़ी-बड़ी बातें करते हुए हमने अपशिष्ट जल के प्रबंधन की योजनाओं पर हवाई मंथन किया। क्रियान्वयन के मामले में हमेशा की तरह फिसड्डी रहे। जबकि देश के लगभग हर शहर और हर गांव में पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। किसान नहरों और बांधों से, यहां तक कि पेयजल की सप्लाई लाईनों को तोड़ कर, पंक्चर कर के पानी चुराने को विवश हैं। जो पानी पीने के लिए काम में लाया जाना चाहिए उससे खेत सिंचते हैं या फिर उसका अपव्यय कर के उसे नालियों में बहा दिया जाता है। यह सारी अव्यवस्थाएं और अपव्यय इसलिए है कि हम जल प्रबंधन की बातें करना भर जानते हैं, जल प्रबंधन करना नहीं।
हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जल के अनेक स्रोत कुओं, बावड़ियों और तालाबों के रूप में हमारे लिए छोड़े लेकिन हम इतने लापरवाह निकले कि उन्हें ढंग से सहेज भी नहीं पा रहे हैं। देश भर में हज़ारों कुए, तालाब और बावड़ियां सूख गईं सिर्फ़ हमारी लापरवाही के कारण। आज भी अनेक कुए ऐसे हैं जो तिल-तिल कर मर रहे हैं। उनका पानी प्रदूषित हो चुका है। हम उस पानी का प्रदूषण दूर कर उसे उपयोगी बना सकें इसके बदले मानो प्रतीक्षा करते हैं कि कब वह कुआ मर जाए और उस ज़मीन पर कोई रिहाइशी बिल्डिंग या शॅापिंग काम्प्लेक्स बना सकें। दुख की बात है कि हम अपनी भावी पीढी के लिए कितने और कैसे जलस्रोत छोड़ जाएंगे, यह भी नहीं सोच रहे हैं। मुझे आज के इस हालात पर राजा मिडास की कहानी याद आती है। यूनानी राजा मिडास को धन-संपत्ति की इतनी अधिक भूख थी कि उसने देवताओं से यह वरदान मांग लिया कि वह जो भी छुए वह सोने में बदल जाए। मिडास वरदान पा कर बेहद खुश हुआ। उसका महल, उसका बिस्तर, उसकी सारी वस्तुएं उसके छूते ही सोने की बन गईं। लेकिन जल्दी ही उसे परेशानियों का सामना करना पड़ा। क्यों कि उसका भोजन-पानी भी उसके छूते ही सोने में बदल गया। यहां तक कि जब उसने अपनी बेटी को दुआ तो वह भी सोने की गुड़िया में बदल गई। तब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और वह रो-रो कर देवताओं से माफी मांगने लगा। काल्पनिक कथाओं में देवता प्रसन्न हो कर माफ कर देते हैं लेकिन यदि हम जलस्रोतों को सुखा कर पर्यावरण से खिलवाड़ करते रहेंगे तो हम स्वयं को माफ करने के योग्य भी नहीं रहेंगे। आखिर प्रत्येक प्राणी के लिए जल का होना जरूरी है। पानी के बिना कोई भी प्राणी अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता है। अब तो इस बात की भी संभावना व्यक्त की जाने लगी है कि यदि तृतीय विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही होगा। दरअसल, पानी किसी भी प्राणधारी की बुनियादी आवयकता होती है।
क्या कभी किसी ने सोचा था कि एक दिन देश ऐसी भी स्थिति आएगी कि पानी के लिए धारा 144 लगाई जाएगी अथवा पेयजल के स्रोतों पर बंदूक ले कर चौबीसों घंटे का पहरा बिठाया जाएगा? किसी ने नहीं सोचा। लेकिन वर्ष 2016 की गर्मियों में ऐसा ही हुआ। पिछले दशकों में पानी की किल्लत पर गंभीरता से नहीं सोचे जाने का ही यह परिणाम है कि शहर, गांव, कस्बे सभी पानी की कमी से जूझते दिखाई पड़े। देश के कई हिस्सों में पानी की समस्या अत्यंत भयावह रही। विगत वर्ष महाराष्ट्र में कृषि के लिए पानी तो दूर, पीने के पानी के लाले पड़ गए थे। जलस्रोत सूख गए थे। जो थे भी उन पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव था। सबसे शोचनीय स्थिति लातूर की थी। पीने के पानी के लिए हिंसा और मार-पीट की इतनी अधिक घटनाएं सामने आईं। कलेक्टर ने लातूर में 20 पानी की टंकियों के पास प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ी। मध्यप्रदेश में भी पानी का भीषण संकट मुंह बाए खड़ा रहा। प्रदेश की करीब 200 तहसीलों सूखाग्रस्त और 82 नगरीय निकायों में भी गम्भीर पेयजल संकट का सामना करते रहे। मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में और भी अजीब स्थिति रही। वहां की नगर पालिका के चेयरमैन के अनुसार किसान पानी न चुरा पाएं, इसलिए नगरपालिका की ओर से लाइसेंसी हथियार शुदा 10 गार्ड तैनात किए। गर्मी का मौसम फिर दस्तक दे रहा है और यह दौर फिर आने वाला है।
इंसान जल की महत्ता को लगातार भूलता गया और उसे बर्बाद करता रहा, जिसके फलस्वरूप आज जल संकट सबके सामने है। आंकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.5 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। प्रकृति इंसान को जीवनदायी संपदा जल एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, इंसान भी इस चक्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना प्रत्येक व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है, जीवन का थम जाना। प्रकृति के ख़ज़ाने से जितना पानी हम लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। धरातल पर तीन चौथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। उस सीमित मात्रा के पानी का इंसान ने अंधाधुध दोहन किया है। पेयजल की अनुपलब्धता वाले क्षेत्रों में पीने के पानी के लिए प्रत्येक महिला को लगभग औसतन 6 कि.मी. की पदयात्रा करनी पड़ती है।
प्रत्येक क्षेत्रीय संस्कृति में प्रकृति के महत्व को जीवन से बड़ी सहजता और सुंदरता से जोड़ा गया है। बुन्देली संस्कृति में ही देखें तो हम पाएंगे कि प्रकृति के प्रत्येक तत्वों से किस प्रकार मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। मकरसंक्रांति के अवसर पर गाए जाने वाले ‘बाम्बुलिया’ नामक लोकगीतों में नर्मदा तथा अन्य नदियों से जिस प्रकार रिश्तों को जताया जाता है वह उल्लेखनीय है। नर्मदा नदी के दर्शन करने पहुंचने वाली टोली नर्मदा के पास पहुंचती है तो गा उठती है-
नरमदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया हो.....
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया हो.....
हमने अपने अतीत में प्रकृति को अपने जीवन के हर सुख-दुख से जोड़ा और उसे अपने संस्कारों को साथी बनाया। जैसे, विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। अनेक क्षेत्रों में प्रसव के बाद प्रसवा के दूध की कुछ बूंदें कुए के जल में डाली जाती हैं जो एक जननी का दूसरी जननी के प्रति आभार प्रदर्शन और बहनापे का प्रतीक होता है। सरकारी योजनाओं से कहीं अधिक हमें जरूरत है अपने जल स्रोतों से इसी प्रकार के आत्मिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की। जब हम प्रकृति के तत्वों को अपना सगा-संबंधी समझेंगे तभी हम उनके क्षरण को रोक सकेंगे और प्रकृतिक तत्वों के क्षरण को रोक कर जल की उपलब्धता भी बढ़ा सकेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जल संरक्षण के लिए जरुरत है उस जागरुकता की, जिसमें हर आयुवर्ग का व्यक्ति पानी को बचाना अपना धर्म या अपना बुनियादी कर्त्तव्य समझे।
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(दैनिक सागर दिनकर, 21.03.2018 )
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Saturday, March 17, 2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018 
12 मार्च 2018 शासकीय पी.जी. काॅलेज गढ़ाकोटा (सागर) के सभागार में मुख्य वक्ता के रूप में मैंने (डाॅ.शरद सिंह) डाॅ.घनश्याम भारती द्वारा संपादित पुस्तक ‘ हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियां’ के लोकार्पण एवं प्रतिभा सम्मान समारोह कार्यक्रम में सहभागिता की। कार्यक्रम की अध्यक्षता कॉलेज के प्राचार्य डाॅ.एस.एम.पचौरी, मुख्य आतिथि पं. अभिषेक भार्गव, विशिष्टअतिथि नगर पालिका गढ़ाकोटा के अध्यक्ष भरत चौरसिया, उपाध्यक्ष मनोज तिवारी, जनभागीदारी समिति अध्यक्ष महेश सिंह ठाकुर उपस्थित थे ।
तस्वीरें उसी अवसर की....
Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018

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Dr (Miss) Sharad Singh as Main Speaker at PG College Garhakota- 12.03.2018
 

भारतीय सावाक फिल्म दिवस (14 मार्च) पर विशेष : बोलती फिल्मों का सफ़र जो ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
भारतीय सावाक फिल्म दिवस (14 मार्च) पर विशेष :
बोलती फिल्मों का सफ़र जो ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ
- डॉ. शरद सिंह

14 मार्च का दिन भारतीय सिनेमा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन लगभग 87 साल पहले भरतीय फिल्मों को अवाज़ मिली थी। मूक फिल्मों की कड़ी को तोड़ते हुए भरतीय फिल्मों ने पहली बार सावाक् यानी बोलती हुई फिल्मों की दुनिया में अपना पहला क़दम रखा था। सन् 1931 की मार्च की 14 तारीख को दिन शनिवार था जब मुंबई (तत्कालीन बम्बई) के मैजेस्टिक सिनेमाघर में ’आलम आरा’ नामक बोलती फिल्म का प्रथम प्रदर्शन हुआ। फिल्म के निर्देशक थे आर्देशिर ईरानी। इस पहली सावाक फिल्म ने भारतीय फिल्म निर्माण को एक नया मोड़ देते हुए एक नया इतिहास रचा।
 
भारतीय सावाक फिल्म दिवस (14 मार्च) पर विशेष : बोलती फिल्मों का सफ़र जो ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस - Lekh for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
आज जब सिनेमाघरों में डिज़िटल और सराउण्ड साउण्ड सिस्टम भी फीका लगने लगा है और हाई डेफिनेशन की जेनरेशन पर जेनरेशन पीछे छूटते चले जा रहे, ऐसे समय में उस फिल्म की कल्पना करना बहुत कठिन है जिसमें पात्र बोलते नहीं थे, सिर्फ़ अभिनय करते थे। मूक फिल्में कहलाती थीं वे। लेकिन जुनून उस समय भी वैसा ही होता था उन फिल्मों को देखने का जैसा कि आज होता मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखने का जुनून। भले ही तब दर्शक सीमित हुआ करते थे। महिला दर्शकों की संख्या तो और भी कम हुआ करती थी क्यों कि फिल्म देखना उन दिनों अच्छा नहीं माना जाता था। फिर भी भारतीय फिल्म निर्माता इस माहौल से निराश नहीं थे। वे जानते थे कि जो आज चाह कर भी सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं वे कल किसी न किसी तरह सिनेमाघरों तक पहुंच ही जाएंगे। इसीलिए भारतीय फिल्म निर्देशकों ने अपनी पूंजी का एक बड़ा हिस्सा दांव पर लगाते हुए वह छलांग लगाई जो भारतीय दर्शकों को सिनेमाघरों के दरवाज़े तक खींचने में सफल रही।
14 मार्च का दिन भारतीय सिनेमा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन लगभग 87 साल पहले भरतीय फिल्मों को अवाज़ मिली थी। मूक फिल्मों की कड़ी को तोड़ते हुए भरतीय फिल्मों ने पहली बार सावाक् यानी बोलती हुई फिल्मों की दुनिया में अपना पहला क़दम रखा था। सन् 1931 की मार्च की 14 तारीख को दिन शनिवार था जब मुंबई (तत्कालीन बम्बई) के मैजेस्टिक सिनेमाघर में ’आलम आरा’ नामक बोलती फिल्म का प्रथम प्रदर्शन हुआ। फिल्म के निर्देशक थे आर्देशिर ईरानी। इससे पहले भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के ने भी फ़िल्मों में आवाज़ डालने के कई प्रयास किए थे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। दरअसल, दादा साहेब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा। वह फिल्म ल्युमेरे ब्रदर्स की फिल्मों की तरह लघु चलचित्र न होकर लंबी फिल्म थी। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी फिल्म थी और सन् 1913 में प्रदर्शित हुई यद्यपि यह मूक फिल्म थी।
‘आलम आरा’ मूलतः जोसेफ़ डेविड निर्देशित एक पारसी नाटक था। आर्देशिर इसे देखकर बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने तय किया कि वो गाने डालकर इस पर फ़िल्म बनाएंगे। जिस समय आर्देशिर ईरानी आलम आरा बना रहे थे, उसी समय कृष्णा मूवीटोन, मदन थिएटर्स जैसी कंपनियां भी बोलती फ़िल्म बनाने के प्रयास में लगी थीं। ईरानी ’आलम आरा’ की शूटिंग जल्द से जल्द ख़त्म करना चाहते थे ताकि उनकी फ़िल्म भारत की पहली बोलती फ़िल्म बन जाए। ‘आलम आरा’ को देखने के लिए दर्शकों ने अपने पूर्व के सारे रिकार्ड तोड दिए थे। यहां तक कि दर्शकों को काबू में रखने के लिए पुलिस को लाठियां चलानी पड़ी थीं।
लेकिन सबकुछ इतना आसान भी नहीं था। ‘आलम आरा’ को अपने निर्माण के दौरान अनेक मानवीय और तकनीकी कठिनाइयों को सामना करना पड़ा था। सबसे बड़ी कठिनाई फिल्म के नायक के चयन को ले कर हुई। मास्टर विट्ठल शिक्षित नहीं थे अतः ईरानी को लगा कि वे संवाद नहीं बोल पाएंगे। लेकिन मास्टर विट्ठल फिल्म कम्पनी के वैतनिक अभिनेता के रूप में अनुबंधित थे। फिल्म में नायक के रूप् में न चुने जाने पर उन्होंने कम्पनी पर मुकदमा ठांक दिया। उल्लेखनीय है कि जो बम्बई के जाने माने बैरिस्टर मिस्टर जिन्ना (आगे चलकर पाकिस्तान के जनक) ने मास्टर विट्ठल का मुकद्दमा लड़ा और विजय दिलाई। कम्पनी को मास्टर विट्ठल को ‘आलम आरा’ का हीरो बनाना पड़ा। इस प्रकार फ़िल्म के नायक की भूमिका निभाई मास्टर विट्ठल ने और नायिका थीं ज़ुबैदा। फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित थी। वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने इस फ़िल्म में फ़क़ीर की भूमिका की थी। फ़िल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार की कहानी थी। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फ़कीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। ग़ुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार का निवेदन करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। ग़ुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलम आरा को देशनिकाला दे देती है। आलम आरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलम आरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सज़ा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है । इसी के साथ आदिल को जेल से रिहा कर दिया जाता है।
उन दिनों ‘‘आलम आरा’’ पूरे एशिया में नाम कमाया। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ सप्ताह तक चली थी। लोगों ने सिर्फ़ गाने सुनने के लिए इस फ़िल्म को देखा। दुर्भाग्यवश इस पहली सवाक फ़िल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं मिलता है और इस फ़िल्म के गाने भी संरक्षित नहीं किए जा सके। कहा जाता है कि फ़िल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फ़क़ीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था। उसके बोल थे- “दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे, ताक़त है ग़र देने की।“ एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद के संस्मरण से पता चला कि उसे गायिका अलकनंदा ने गाया था। बोल थे-‘‘बलमा कहीं होंगे’’। इस बात की जानकारी नहीं है कि शेष पांच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया था। फ़िल्म के संगीत में केवल तीन वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन।
’आलम आरा’ के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। ईरानी और उनकी यूनिट इंपीरियल स्टूडियो ने टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरा विदेश से आयात किया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियां सीखीं और पूरी फ़िल्म की रिकॉर्डिंग स्वयं की। टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरे से शूट करने में बड़ी परेशानी होती। एक ही ट्रैक पर साउंड और पिक्चर की रिकॉर्डिंग होती, इसलिए कलाकारों को एक ही टेक में शॉट देना पड़ता। डबिंग के बारे में तो उस समय कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। कैमरे के प्रिंट के साथ समस्या ये थी कि उसे संरक्षित नहीं किया जा सकता क्योंकि वो नाइट्रेट प्रिंट था जो बड़ी जल्दी आग पकड़ लेता था। फ़िल्म की शूटिंग में और भी बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आस-पास बहुत आवाज़ें आती थीं जो साथ में रिकॉर्ड हो जाती थीं। ऐसे में दिन में शूटिंग करना बड़ा मुश्किल होता था. फ़िल्म के ज़्यादातर कलाकार मूक फ़िल्मों के दौर के थे। ऐसे में उन्हें टॉकी फ़िल्म में काम करने की तकनीक के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। उन्हें घंटों तक सिखाया जाता कि माइक पर कैसे बोलना है. उन्हें ज़बान साफ़ करने के तरीक़े बताए जाते।
पुणे में जन्मे ख़ान बहादुर अर्देशिर एम. ईरानी अध्यापक से मिट्टी तेल इंस्पेक्टर, फिर पुलिस इंस्पेक्टर की नौकरी के बाद संगीत और फ़ोटाग्राफी के उपकरण बेचने का काम करने लगे। छात्र-जीवन से ही फोटोग्राफी के प्रति दीवानगी ने उन्हें सिनेमा की तरफ प्रेरित किया। पहले वे हॉलीवुड की प्रख्यात निर्माण संस्था ‘यूनीवर्सल पिक्चर्स’ के भारत में (मुंबई) प्रतिनिधि बने, फिर मुंबई में ही मैजेस्टिक सिनेमाघर का निर्माण किया और एलैक्जैंडर सिनेमाघर में भागीदारी भी की। सन् 1926 में उन्होंने इंपीरियल सिनेमा की स्थापना की और इस बैनर के अंतर्गत् पहली सवाक फ़िल्म में गानों का भी फ़िल्मांकन किया। सन् 1939 में उन्होंने ज्योति स्टूडियो की स्थापना की जहां अनेक फिल्मों की शूटिंग हुई।
मैजेस्टिक सिनेमा में जब फ़िल्म का प्रीमियर हुआ तो ख़ुद आर्देशिर ईरानी एक-एक मेहमान का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े थे। उस समय फ़िल्म के नेगेटिव बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलते थे। आलम आरा के बहुत लिमिटेड प्रिंट्स बने थे। उस वक़्त फ़िल्म-आर्काइव जैसी कोई संस्था नहीं थी। जब स्टूडियो कल्चर ख़त्म होने लगा तो फ़िल्मों के प्रिंट्स को कौड़ियों के भाव कबाड़ियों को बेच दिया गया क्योंकि उन स्टूडियो की इमारतों में कुछ और निर्मित होने लगा। दादा साहेब फालके की फ़िल्म ’राजा हरिश्चंद्र’ के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म ’आलम आरा’ इस पहली बोलती फिल्म की भाषा को न तो शुद्ध हिंदी कहा जा सकता था और न शुद्ध उर्दू। यह मिली-जुली हिन्दुस्तानी थी फिर भी इस पहली सावाक फिल्म ने भारतीय फिल्म निर्माण को एक नया मोड़ देते हुए एक नया इतिहास रचा।
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(दैनिक सागर दिनकर, 14.03.2018 )
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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : महिलाएं स्वयं आगे आएं ‘प्रेस फॉर प्रोग्रेस’ लिए - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष :
महिलाएं स्वयं आगे आएं ‘प्रेस फॉर प्रोग्रेस’ लिए
- डॉ. शरद सिंह

इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम है- ‘‘प्रेस फॉर प्रोग्रेस’’। थीम छोटी सी है लेकिन अर्थ व्यापक है, जैसे- प्रगति कर चुकी महिलाएं पिछड़ी हुई महिलाओं को आगे बढ़ने और विकास करने के लिए प्रेरित करें। समूचा समाज प्रत्येक महिला की तरक्की के लिए उचित माहौल बनाए। साथ ही इसका आशय यह भी है कि लैंगिक भेद को मिटाते हुए पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर दिए जाएं। सचमुच यह बहुत बड़ा कदम होगा यदि तीसरी दुनिया के कुण्ठित हो चले समाजों में दलित के रूप में जीने को विवश महिलाओं में आत्मसम्मान की भावना जगाई जा सके।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : महिलाएं स्वयं आगे आएं ‘प्रेस फॉर प्रोग्रेस’ लिए - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस  Lekh for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
8 मार्च अर्थात् अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। महिलाओं के लिए एक जोश और उमंग भरा दिन। यह दिन समाज अथवा राजनीतिक व्यवस्थाओं के द्वारा उपहार में नहीं वरन् कड़े संघर्ष के बाद हासिल हुआ है। सन् 1908 में 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क सिटी में प्रदर्शन करते हुए एक मार्च निकाला था। उनकी मांगें थीं - मतदान का अधिकार, काम के घंटे कम करने के लिए और योग्यतानुसार पुरुषों की तरह वेतन दिया जाए। इस प्रदर्शन के लगभग एक साल बाद 28 फरवरी 1909 को अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने महिला दिवस मानाने की घोषण की और अमेरीका में में पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। दुनिया के इस पहले महिला दिवस ने मानो समूचे महिला जगत को प्रेरणा दी और सन् 1910 में जर्मनी की क्लारा जेटकिन ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा। क्लारा ने सुझाव दिया की दुनिया के हर देश की महिला को अपनी मांगे प्रकट करने और विचार साझा करने के लिए एक दिन तय करते हुए महिला दिवस मनाना चाहिए। क्लारा के इस सुझाव को 17 देशों की 100 से ज्यादा महिलाओं का समर्थन मिला और इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सुनिश्चित किया गया। उस समय प्रथमिक उद्देश्य था महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलाना। इसके बाद, 19 मार्च 1911 को पहली बार आस्ट्रिया डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। सन् 1913 में अंतर्राट्रीय महिला दिवस के लिए एक सर्वमान्य तिथि घोषित की गई। यह तिथि है 8 मार्च। अब हर वर्ष 8 मार्च को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है।
इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से जारी होने वाली थीम है- ‘‘प्रेस फॉर प्रोग्रेस’’। इस छोटी-सी थीम का व्यापक अर्थ है। इसका अर्थ है कि प्रगति कर चुकी महिलाएं पिछड़ी हुई महिलाओं को आगे बढ़ने और विकास करने के लिए प्रेरित करें। इसका आशय है कि समूचा समाज प्रत्येक महिला की तरक्की के लिए उचित माहौल बनाए। साथ ही इसका आशय यह भी है कि लैंगिक भेद को मिटाते हुए पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर दिए जाएं। सचमुच यह बहुत बड़ा कदम होगा यदि तीसरी दुनिया के कुण्ठित हो चले समाजों में दलित के रूप में जीने को विवश महिलाओं में आत्मसम्मान की भावना जगाई जा सके। यदि महिलाएं महिलाओं के लिए हर कदम पर सहयोगी बन सकें तो ‘प्रेस फॅार प्रोग्रेस’ की थीम सौ प्रतिशत सफल हो सकती है। किन्तु सच तो यह है कि विकास के लिए प्रेरित करने की डगर बहुत कठिन है। यदि कोई महिला आत्मसम्मान के साथ तरक्की करना चाहती है तो उसे खुद के अन्दर झांकना होगा और अपनी क्षमताओं को पहचानना होगा।
महिला, औरत, वूमेन या कोई और सम्बोधन - किसी भी नाम से पुकारा जाए, महिला हर हाल में महिला ही रहती है....और मेरे विचार से उसे महिला रहना भी चाहिए। प्रकृति ने महिला और पुरुष को अलग-अलग बनाया है। यदि प्रकृति चाहती तो एक ही तरह के प्राणी को रचती और उसे उभयलिंगी बना देती। किन्तु प्रकृति ने ऐसा नहीं किया। संभवतः प्रकृति भी यही चाहती थी कि एक ही प्रजाति के दो प्राणी जन्म लें। दोनों में समानता भी हो और भिन्नता भी। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक बनें, प्रजनन करें और अपनी प्रजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाएं। पुरुष और महिला ने मिल कर जिस समाज को गढ़ा था, पुरुष उसका मालिक बनता चला गया और महिला दासी। इतिहास साक्षी है कि पुरुषों ने युद्ध लड़े और खामियाजा भुगता महिलाओं ने। जब महिलाओं को इस बात का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने दमन का विरोध करना आरम्भ कर दिया। पूरी दुनिया की औरतें संघर्षरत हैं किन्तु समानता अभी भी स्थापित नहीं हो सकी है। प्रयास निरन्तर किए जा रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी संगठन प्रयास कर रहे हैं लेकिन महिलाओं की अशिक्षा, अज्ञान और असुरक्षा जागरूकता के पहिए को इस प्रकार थाम कर बैठ जाती है कि सारे प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। दरअसल जागरूकता औरत के भीतर उपजनी आवश्यक है। स्वतः प्रेरणा से बढ़ कर और कोई शक्ति नहीं है जो शतप्रतिशत परिणाम दे सके। जिन महिलाओं ने अपने भीतर की पुकार को सुना और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया उन्हें अधिकार मिले भी हैं, साथ ही वे दूसरी महिलाओं को भी अधिकार दिलाने में सफल रही हैं।
प्रगति के हिसाब से समूची दुनिया की महिलाओं की दो तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर उन महिलाओं की है जो अपने साहस, अपनी क्षमता और अपनी योग्यता को साबित कर के पुरुषों की बराबरी करती हुई प्रथम पंक्ति में आ गई हैं या प्रथम पंक्ति के समीप हैं। दुनिया के उन देशों में जहां महिलाओं के अधिकारों की बातें परिकथा-सी लगती हैं, औरतें तेजी से आगे आ रही हैं और अपनी क्षमताओं को साबित कर रही हैं। चाहे भारत हो या इस्लामिक देश, औरतें अपने अधिकार के लिए डटी हुई हैं। वे चुनाव लड़ रही हैं, कानून सीख रही हैं, आत्मरक्षा के गुर सीख रही हैं और आम महिलाओं के लिए ‘आइकन’ बन रही हैं। औरत की दूसरी तस्वीर वह है जिसमें औरतें प्रताड़ना के साए में हैं और अभी भी संघर्षरत हैं। वैश्विक सतर पर कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां लैंगिक भेद पूरी तरह समाप्त हो गया हो। स्कैंडिनेवियन देश जैसे आईलैंड, नार्वे, फिनलैण्ड और स्वीडेन ही ऐसे देश हैं जो लैंगिक खाई को तेजी से पाट रहे हैं। इसके विपरीत मध्यपूर्व, अफ्रिका और दक्षिण एशिया में ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है जिनमें जागरूकता की कमी है। उन्हें अनेक वैधानिक अधिकार प्रदान कर दिए गए हैं लेकिन वे उनका लाभ नहीं ले पाती हैं। क्योंकि वे अपने अधिकारों से बेख़बर हैं।
ग्लोबलाईजेशन ने महिलाओं के सामने जहां प्रगति के अनेक रास्ते खोले हैं, वहीं अनेक संकट भी खड़े कर दिए हैं। मानव तस्करी और इंटरनेट के जरिए ब्लेकमेलिंग सबसे बड़ा खतरा है। चाहे मोबाईल कैमरा हो या चेंजिंग रूम या बाथरूम में छिपा हुआ कैमरा महिलाओं लिए नित नए संकट खड़ा करता रहता है। अचानक या धोखे से तस्वीर खींच लिया जाना और फिर उसे इंटरनेट पर अपलोड कर देने की धमकी दे कर ब्लेकमेल करना प्रगति करती स्त्री की राह में एक ऐसी बाधा है जिससे स्वयं महिलाओं को ‘‘मी टू’’ जैसे कैम्पेन से जुड़ कर अपनी झिझक को तोड़ना होगा और काटना होगा उन जंजीरों को जो उन्हें ब्लेकमेल होने की मानसिकता से बांध देती हैं। वैसे स्त्री अस्मिता पर कैमरे के द्वारा हमले की घटनाओं का निरंतर बढ़ना चिन्ताजनक है। स्त्री अस्मिता के मामले में पूरी दुनिया संवेदनषील रहती है। कोई भी देष स्त्रियों की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे मामलों को रोकने के लिए जहां स्त्रियों की जागरूकता जरूरी है वहीं कठोर कानून भी आवष्यक हैं। त्वरित जांच और कड़ी सजा ही ऐसे अपराधियों के हौसले तोड़ सकती हैं।
2030 के सतत विकास के एजेंडे में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की अनिवार्यता को पहली बार समझा गया है और इसकी पुष्टि की गई है। इस एजेंडे में कहा गया है, -‘‘यदि आधी मानव जाती को उसके पूर्ण मानवाधिकारों और अवसरों से वंचित रखा जाता है तो सतत विकास संभव नहीं है।’’ इसे शिखर सम्मलेन स्तर पर दुनिया के 193 देशों द्वारा अपनाया गया है। यह लक्ष्य न केवल लैंगिक समानता को प्राप्त करने के बारे में है बल्कि समस्त महिलाओं और लड़कियों को सशक्त करने के बारे में है, इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘‘कोई भी पीछे न छूटे।’’ महिलाओं और लड़कियों के प्रति हर प्रकार के भेदभाव को क़ानून और व्यवहारिक रूप से समाप्त करना और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को समाप्त करना सतत विकास के लक्ष्य हैं। इसी प्रकार महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अवैतनिक देख-रेख के कार्यों का मूल्यांकन और नियोजन करना, आर्थिक, राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की बराबर की भागीदारी और नेतृत्व, उनके लैंगिक और प्रजननीय स्वास्थ्य और प्रजननीय अधिकारों की सार्वभौमिक सुनिश्चितता, संसाधनों तक सामान पहुंच, स्वामित्व और नियंत्रण और आर्थिक सशक्तिकरण भी सतत विकास के लक्ष्य हैं।
वैश्विक स्तर पर यदि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है तो उसके लिए जितने जिम्मेदार पुरुष हैं, उसका आधा प्रतिशत जिम्मेदार स्वयं महिलाएं भी हैं। किसी भी सरकार की कोई भी योजना, किसी भी संगठन के कोई भी प्रयास तब तक कारगर नहीं हो सकते हैं जब तक कि प्रत्येक महिला आत्मशक्ति को नहीं पहचानेगी। वस्तुतः यदि महिलाएं सामाजिक प्रताड़ना की शिकार हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण उनकी अपनी हिचक भी है। एक ऐसी हिचक जिसमें वे यह सोच कर रह जाती हैं कि ‘भला मैं क्या कर सकती हूं?’ लिहाजा, सुदूर ग्रामीण अंचल की महिलाओं को आत्मनिर्भर एवं शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए सबसे पहले उनका आत्मविश्वास जगा कर उनमें जागरूकता लानी होगी यानी प्रेस फॉर प्रोग्रेस!
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(दैनिक सागर दिनकर, 08.08.2018 )
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Tuesday, March 6, 2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By " Gulabrani Soni Smriti Alankaran " at Damoh, 04.03.2018 For Literary Contribution

 
Dr Miss Sharad Singh Awarded By " Gulabrani Soni Smriti Alankaran " at Damoh, Madhya Pradesh, India ( 04.03.2018)
From Left : President Lekhika Sangh Damoh Dr Pushpa Chile, Me… Dr (Miss) Sharad Singh (receiving Honor), Finance Minister of M.P. Govt H'ble Mr Jayant Malaiya, Director Rashtra Bhasha Prachar Samiti Mr Kailash Chandra Pant, Chairperson Municipal Corporation Damoh Smt Malti Asati and Famous Poetess Dr Varsha Singh.
विगत 04 मार्च 2018 को मुझे (यानी डॉ. शरद सिंह) को प्रदेश के वित्त मंत्री एवं अलंकरण समारोह के मुख्यअतिथि जयंत कुमार मलैया ने ‘‘गुलाबरानी सोनी स्मृति अलंकरण’’ से सम्मानित किया। यह अलंकरण समारोह दमोह के मानस भवन में 04 मार्च 2018 को मध्यप्रदेश हिन्दी लेखिका संघ शाखा दमोह द्वारा आयोजित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के संचालक कैलाशचंद्र पंत ने की। दमोह नगर पालिका अध्यक्ष मालती असाटी विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहीं। समारोह के द्वितीय चरण में सागर नगर की सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ वर्षा सिंह के मुख्यआतिथ्य में काव्यपाठ का आयोजन हुआ जिसमें मुख्यअतिथि सहित लेखिका संघ दमोह की कवयित्रियों ने अपनी काव्य रचनाएं प्रस्तुत कीं।
तस्वीरें उसी अवसर की ...
Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018
Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

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Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

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Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

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Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

Dr (Miss) Sharad Singh Awarded By ' Gulabrani Soni Smriti Alankaran ' at Damoh, Madhya Pradesh, India, 04.03.2018

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